लज्जा

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शरबानी  सेनगुप्ता

वह कोयले के टाल  पर बैठी
लेकर हाथ में सूखी रोटी
संकुचाई सिमटी सी बैठी
पैबंद लगी चादर में लिपटी
 मैली फटी
चादर को कभी
वह इधर से खींचती
उधर से खींचती
न उसमें है रूप –रंग ,और न कोई सज्जा
सिर्फ अपने तन को ढकना चाहती
क्योंकि उसे आती है लज्जा ||

अरे ! देखो वो कौन है जाती ?
इठलाती और बलखाती
अपने कपड़ों पर इतराती
टुकड़े –टुकड़े वस्त्र को फैशन कहती
और समझती सबसे अच्छा
क्योंकि उसे न आती लज्जा

लज्जा का यह भेदभाव
मुझे समझ न आता
कौन सी लज्जा निर्धन है
और कौन धनवान कहलाता

यह सोच सोच कर मन में
लज्जा भी घबराती
वस्त्रहीन लज्जा को देखकर
लज्जा भी शर्माती



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