अम्माँ

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रश्मि सिन्हा 
अम्माँ नही रही। आंसू थे कि रुकने का नाम नही ले रहे थे।
स्मृतियां ही स्मृतियां, उसकी अम्माँ, प्यारी अम्माँ ,स्मार्ट अम्माँ। कब बच्चों के साथ अंग्रेजी के छोटे मोटे वाक्य बोलना सीख गई पता ही नही चला।



कितने रूप अम्माँ के, क्लब जाती अम्मा, हौज़ी खेलती, पारुल सुन जरा की आवाज़ देती—
फिर धीरे-धीरे वृद्ध होती अम्माँ, तब भी काम मे लगी, कभी कभी सर में तेल डालती अम्माँ।
बहुत ऊंचा सुनती थी। कभी- कभी बहुत जोर से बोलने पर झल्ला भी जाते हम अम्मा के बच्चे।
   पर कभी निश्चिन्त भी, जब कोई ऐसी बात करनी होती जो अम्मा को नही सुननी होती, कभी उसकी आलोचना भी हम बेफिक्र होकर करते, क्योंकि प्यार के साथ साथ कई शिकायतें भी थीं अम्माँ से।

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उन पर नज़र डालते तो वो  एक बेबस सी मुस्कुराहट, न सुन पाने की छटपटाहट—
हम सब भी क्या करते।


आज अम्माँ की डायरी लेकर बैठी हूँ। तारीखों के साथ घटनाओं का वर्णन, वो घटनाएं भी, वो बातें भी, जो हम उनके सामने बैठ कर किया करते थे।

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दिल की धड़कन अचानक ही बढ़ चुकी है। ओह!
ओह!!!


तो अम्माँ सब सुन सकती थी, ओह! ईश्वर—-
जीते जी एक सच जानकर गई थी अम्माँ






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