एक टीस

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दीपावली की रात थी ।

पूरा शहर चाईनीज़ झालरों की रोशनी से जगमगा रहा था, पर जग्गी कुम्हार के छप्पर में जीरो वाट का बल्ब टिम टिमा कर उजाला फैलाने की नाकाम कोशिश कर रहा था। 

रात के नौं बज चुके थे। अब और ग्राहक आने की उम्मीद न बची तो, जग्गी की घरवाली रज्जो अपन बचे हुए दीयों को समेट कर बोरे में भरने लगी। ” बिक लिये जितने बिकने हे ” इस बार तो ऐसा लगै है , चौथाई बी ना बिके ” । दियों को समेटती जा रही थी और धीरे धीरे बड़बडा़ रही थी।

” आग लगै इन बिदेसी झाल्लरों को, जब सै ये देस मैं बिकने लगी हैं, सहर तो जगमगा दिया, पर म्हारे घर मैं तौ अन्धेरा कर दिया इन्होंनै,! म्हारा तो धन्धा ही चौपट हो गया!

साल भर मे येयी तो दिन हे, जब दो पैसे कमा लेवै हे, अब वे भी गये। अब तौ कोई दीये खरीदता ही नहीं, बस नेग के लियों खरीदैं हैं पांच सात दीये।

और तौ और, लुगाइयां भी इतनी सुघड़ हो गीं हैं कि होई, करवा चौथ पै बी इस्टील के लोटे रक्खन लगीं, जैसै दस रुपे के करवे खरीदने मैं लुट जात्ती होंये”, बजार में तौ दो सौ रुपे की चाट पकोडी़ एक मिनट में गड़प करके भाव भी ना पूच्छैं । सारी तिजौरी उन दस रुपों में ही भर लेंगी जैसै “। 


तभी पीछे से उसका छः साल क बेटा कन्नू दौड़ता हुआ आया और मां पल्ला खींचने लगा
“माँ माँ! देख!! बाहर कितनी रोसनी हो री है! सारा चमचम हो रा है, । पर…. हमारे घर मैं तो अन्धेरा क्यूँ हो रा है, फिर कुछ सोच कर कहने लगा ” माँ हमारे पास तो इतने दीये हैं… सब से ज्यादा.. तूभी जला ना! माँ !! भौत सारे दीवे”!! 

बेटे को मचलते देख मां का दिल रोने लगा, ” कैसे बताऊं उसे कि बेटा , दीये तो बहुत हैं पर!!! उनमें डालने को तेल कहां से लाऊं। 

सुनीता त्यागी
मेरठ।

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