मिट्टी के दिए

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दीपावली पर मिट्टी के दिए जलाने की परंपरा है | भले ही आज बिजली की झालरों ने अपनी चकाचौंध से दीपावली की सारी  जगमगाहट अपने नाम कर ली हो | फिर भी अपनी परंपरा और अपने पन से जुड़े रहने का अहसास तो मिटटी के दिए ही देते हैं | आइये पढ़ें … 

emotional hindi story-मिट्टी के दिए 

मैं मंदिर के पास वाली दुकान में नीचे जमीन पर पड़े मिट्टी के दीयों में से दिए छांट रही थी | एक – एक देखकर  कि कहीं कोई चटका या टूटा तो नहीं है , करीने से अपनी डलिया  में भर रही थी |

हाथ तो अपना काम कर रहे थे पर दिमाग में अभी कुछ देर पहले अपनी पड़ोसन श्रीमती जुनेजा के साथ हुआ वार्तालाप चल रहा था | श्रीमती जुनेजा  कह रही थीं  ,” कमाल है , तुम दिए लेने जा रही हो ?क्या जरूरत है मिट्टी  के दिए लाने की , बिजली की झालरों की झिलमिल की रोशिनी के आगे दिए की दुप – दुप कितनी देर की है | परंपरा के नाम पर बेकार में  पैसे फूंको | मैं जानती थी की कुम्हार , उसका रोजगार , बिज़ली की  बर्बादी ये सब उन्हें समझाना व्यर्थ है | इसलिए मैंने धीमें से मुस्कुरा कर कहा ,मैं इसलिए लाऊँगी क्योंकि मुझे दिए पसंद हैं |

कई बार जब हम बहुत कुछ कहना चाहते हों और कह न सकें तो वो बातें दिमाग में चलती रहती हैं |किसी टेप रिकार्डर की तरह |  मेरा भी वही हाल था | हाथ दिए छांट रहे थे और दिमाग मिटटी के दीयों के पक्ष में पूरा भाषण तैयार कर रहा था | तभी एक सुरीली सी आवाज़ से मेरी तन्द्रा टूटी |

भैया , थोड़े से फूल , थोड़े से इलायची  दाने और … और आज जिस गॉड की पूजा होती है उनका कोई कैलेंडर हो तो दे दीजियेगा 

मैंने पलट कर देखा , यही कोई 25 -26 साल की लड़की खड़ी थी | आधुनिक लिबास ,करीने से कटे बाल ,  गले में शंखों की माला , कान में बड़े – बड़े शंखाकार इयरिंग्स और मुँह में चुइंगम | मैंने मन ही मन सोंचा ,ये और पूजा … हम कितनी सहजता से किसी के बारे में धारणा बना लेते हैं |

मुझको अपनी ओर देखते हुए बोली ,” आंटी , आज किस गॉड की पूजा होती है | शायद धन्वंतरी  देवी की | जिनका आयुर्वेद से कुछ कनेक्शन है |

मैंने मुस्कुरा कर कहा ,” धन्वंतरी देवी नहीं , देवता | उन्हें आयुर्वेद का जनक भी कहा जाता है |धनतेरस पर उनकी पूजा होती है | क्योंकि स्वास्थ्य सबसे बड़ा धन है | मैं बोल तो गयी पर मुझे लगा मैं कुछ ज्यादा ही बोल रही हूँ  | क्या ये बढती हुई उम्र का असर है कि हर किसी को प्रवचन देते चलो | या जैसा की मैंने कहीं पढ़ा था की जब सुपात्र मिल जाए तो ज्ञान अपने आप छलकने लगता है | खैर , वो मुझे कहीं पलट कर कुछ बेतुका  जवाब न दे दे | यह सोंच कर मैंने अपना ध्यान फिर से मिटटी के दिए चेक करने में लगा दिया |

मेरी आशा के विपरीत वो मेरे पास आ गयी और ख़ुशी से चिहक कर बोली ,” वाओ ! मिटटी के दिए , मैं भी लूँगी | आंटी आज तो कुछ स्पेशल डिजाइन का दिया जलता है | हाँ , पर तुम्हें इतना कैसे पता  है , मैंने प्रश्न किया |

मैंने नेट पर पढ़ा है | मैंने पूजा की पूरी विधि भी पढ़ी है | मैं अपने फ्रेंड्स के साथ पूरे रिचुअल्स मनाऊँगी | बहुत मज़ा आएगा | मेरी उत्सुकता बढ़ी | बातें होने लगीं |

बातों  ही बातों में उसने बताया कि मात्र सोलह साल की थी जब डेल्ही कॉलेज ऑफ़ इंजीनीयरिंग में घर छोड़ कर पढाई करने आ गयी थी | फिर यहीं से M .B .A किया | फिर जॉब भी यही लग गया | इंजीनीयरिंग कॉलेज में सेलेक्शन से बरसों पहले ही  जीवन में बस किताबें ही थी |खेलना कूदना और त्योहारों की मस्ती जाने कब की छूट गयी |  सेलेक्शन और फिर जॉब के बाद परिवार , त्यौहार और घर बार सब छूट गया | अभी P .G में रहती है , कई लडकियां हैं | सब ने डिसाइड किया है कि त्यौहार पूरी परंपरा  के अनुसार ही मानायेंगे | इंटरनेट से जानकारी ली और चल दीं  खरीदारी करने |

लम्बी सांस भरते हुए उसने आगे कहा ,” आंटी , हम सब … न्यू  जनरेशन जो आत्म निर्भर है , आज़ाद ख्याल है | फिर भी हम परंपरागत तरीके से हर त्यौहार मनाना चाहते हैं | जानती हैं क्यों ? क्योंकि इतना सब होते हुए भी हम सब अकेलेपन का शिकार हैं | इसी बहाने ही सही थोडा सा अपनी जड़ों से जुड़े रहने का अहसास होता है | लगता है अभी भी “इस मैं में कहीं हम बस रहा है |” मेरे अन्दर माँ बस रही हैं , बाबूजी बस रहे हैं और दिल्ली की बड़ी इमारतों के बीच में मेरा छोटा सा क़स्बा बस रहा है |

ओ . के . आंटी , मेरा तो हो गया , बाय …कहकर वो चली गयी | मैं भावुक हो गयी | मुझे अभी और दिए लेने हैं …मिटटी के दिए , जो बिजली की झालरों के सामने भले ही दुप -दुप् जलते हों , पर इसमें जो अपनेपन के अहसास की चमक है  उसका मुकाबला ये बिजली की झालरे  कर पाएंगी भला ?

वंदना बाजपेयी

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11 COMMENTS

  1. बहुत अच्छी कहानी. आधुनिकता की दौड़ में हम अपनी परम्परा को न भूलकर उसे ओर आगे लाने का प्रयास करना चाहिए.

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