स्वाद का ज्ञान

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Motivational story in hindi – swad ka gyan
                        
दोस्तों
, हमारी माताओ और बहनों की आधी से अधिक  जिन्दगी रसोई में निकल जाती है | दिन का बड़ा
हिस्सा वो रसोई में व्यंजन तैयार करने में लगा देती हैं | यहाँ उनकी सृजनात्मकता
देखने को मिलती है | पर अपनी इस रचना धर्मिता में वो अपने स्वाद का ध्यान नहीं
रखती | उनका पूरा ध्यान इस बात पर होता है की उनके द्वारा बनाए गए खाने से घर के
सदस्य संतुष्ट हो जाएँ | ख़ास कर अपने पति और बच्चों की पसंद का खाना तैयार करते
समय उनके मन में गज़ब का उत्साह और संतुष्टि होती है |



अपने इस अवैतनिक काम के लिए वो बस दो शब्द स्नेह भरे सुनना चाहती हैं
| तभी तो आपने भी महसूस किया होगा | बड़े मन से बनाए गए खाने को आपको परोसने के बाद
एक निश्छल सा प्रश्न उनकी  तरफ से आता है ,”
खाना कैसा बना है ? खाने वाले की स्वीकृति की मोहर उनका दिन बना देती है | पर क्या
हम ऐसा कर पाते हैं ?



आज एक ऐसी ही कहानी एक पंडित और पंडिताइन जी की है | पंडित जी अपनी
पत्नी के साथ रहते थे | संतान कोई थी नहीं | घर में बस दो लोग |सुबह भोजन करने के
बाद पंडित जी अपना पोथी पत्रा ले कर बाहर निकल जाते | देर शाम को घर आते | फिर
खाना खा कर सो जाते | ये उनका दैनिक नियम था |

अब पंडिताइन जी दन भर अकेली रहती | पति का स्नेह व् साथ पाने के लिए वो
बहुत मेहनत से रसोई तैयार करती | धनिया का एक एक पत्ता तोडती , मसाले हाथ से सिल
बटने पर पीसती , देर तक भूनती | इस तरह बड़ी मेहनत से सुस्वादु व्यंजन तैयार करती |
फिर तैयार हो कर पति का इंतज़ार करती | पुलक कर खाना परोसने के बाद वो ये प्रश्न
पूँछना नहीं भूलती की खाना कैसा बना है | उन्हें किसी मीठे से ऊत्तर का इंतज़ार
रहता |


पर उनका इंतज़ार पूरा होने का नाम नहीं ले रहा था | पंडित जी सर झुकाए
झुकाए खाना खा लेते | पूंछने पर भी कोई उत्तर नहीं देते | पंडिताइन जी निराश हो
जाती उन्हें लगता शायद खाना पंडित जी की रूचि के अनुसार नहीं बना है | जब वही खाना
वह अडोस – पड़ोस में किसी को खिलाती तो सब बहुत प्रशंसा करते | फिर भी पंडिताइन जी
को अपने पति से प्रशंसा सुननी थी | इसलिए वो संतुष्ट नहीं होती |


वो अगले दिन और बेहतर बनाने का प्रयास करती | पर वही  ढ़ाक के तीन पात | पंडित जी को कुछ नहीं कहना था
तो नहीं कहना था |
दिन बीतते गए और पंडिताइन जी की निराशा भी बढती गयी | सारे प्रयास
विफल जा रहे थे | एक दिन उन्होंने कुछ अलग करने का निश्चय किया |


अगले दिन उन्होंने दाल चावल के कंकण नहीं बीने , वैसे ही बना दिए |
सब्जियां ठीक से धोयी नहीं | हरी सब्जियां थी पकने के बाद किसकिसाने  लगी | रोटी भी कच्ची – पक्की सेंक दी | नियत समय
पर पंडित जी खाना खाने बैठे | पंडिताइन जी ने खाना परोस दिया |
पंडित जी ने जैसे ही पहला कौर मुंह में रखा | तो थू – थू कर के उलट
दिया | गुस्से में पंडिताइन से बोले ,” ये भी कोई खाना है , इससे बेस्वाद तो कुछ
हो ही नहीं सकता | ऊपर से इतना किसकिसा रहा है की मेरा पूरा मुंह धूल  से भर गया |


पंडिताइन जी तो इसी अवसर की प्रतीक्षा  में थी | तपाक से बोली ,” अरे आप को तो स्वाद का
ज्ञान हैं | रोज इतना रुच विध के आपके लिए खाना बनाती | पूँछती  भी की खाना कैसा बना है | बरसों – बरस बीत गए पर
आपने कोई जवाब ही नहीं दिया | तब मुझे लगा की शायद आपको स्वाद का ज्ञान ही नहीं है
| मैं बेकार ही इतनी मेहनत करती हूँ | मैं जो बनाउंगी , जैसा भी बनाउंगी आप चुप –
चाप खा लेगे |


अब पंडित जी का चेहरा देखने लायक था |उन्हें अपनी गलती का अहसास भी हो
गया  |
दोस्तों , हम सब की जीभ में टेस्ट बड्स यानी की स्वाद की ग्रंथियां
होती हैं | जो हमें भोजन के स्वाद के बारे में बताती हैं | फिर भी कितने लोग हैं
जो खुलकर तारीफ़ करते हैं |ये झूठा अहंकार किस बात का ?  ये हमारे ही घर की महिलाएं हैं जो इतनी मेहनत से
भोजन तैयार करती हैं | क्या हमारा फर्ज नहीं बनता की खाना पसंद आने पर खुलकर
प्रशंसा करें व् उन्हें इस के लिए धन्यवाद करें |


उम्मीद है की आपभी अब इस बात का ध्यान रखेंगे , खाना खाते समय दो मीठे
बोल भी बोलेंगे खाली खाने का स्वाद ही नहीं लेंगे | वर्ना किसी दिन आपको भी कंकण
पत्थर से भरी दाल खाने को मिल सकती है | तैयार रहिये |


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सुबोध मिश्रा 

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4 COMMENTS

  1. खाने बनाने वाले की मेहनत की कद्र पर बहुत ही शिक्षाप्रद कहानी है | धन्यवाद |

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