झूठ की समझ

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झूठ की समझ


“आज अचानक तुझे क्या सूझ गया जो इन पुरानी किताबों को खंगाल रही हो | कुछ नहीं है इनमें  सब रद्दी है हर बार दीवाली पर सोचती हूँ कि बेच दूंगी | लेकिन कभी हाथ नहीं बढ़ता इनकी ओर जब भी इन की ओर बढ़ती हूँ तेरे पिता का चेहरा सामने आ जाता है | उन्हें बहुत प्यार था इन किताबों से | पर तूं तो बता क्या ढूढ़ रही है ?”
“माँ मैं अपनी पुरानी डायरियां देख रही हूँ |”
“माँ : क्यों ?”
“उसमें मेरी कविताएँ और कहानियां लिखी हैं |”
“तो तुम अब उसका क्या कर रही है ?” “माँ अजय को दिखानी है |”
“माँ : क्यों ?”
“वो कविता और कहानियां लिखते हैं | जब मैंने उनसे कहा कि मैं भी पहले लिखती थी | तो हँसने लगे | मेरा रोज मजाक बनाते हैं| इस बार मैंने तय कर लिया है | मैं उन्हें अपनी डायरियां दिखाकर ही रहूंगी |”
“माँ ,लगी रह कुछ मिल जाये तो, मैं तो जा रही हूँ | मेरा तो इस धुल से दम घुटता है |”
कुछ देर बाद रीना को उसकी एक पुरानी डायरी मोटी – मोटी किताबों के बीच दुबकी मिल जाती है | अरे वाह ! आखिर मिल ही गयी | डायरी निकालते वक्त उसके साथ रखी किताब निचे गिर जाती है | रीना जब उसे उठाती है | तो उसमे से एक पत्र नीचे गिरता है | रीना उसे उठाती है | अरे ये तो मेरा ही लिखा है | रीना उसे पढ़ने लगती है | पत्र को पढ़ते-पढ़ते उसकी आँखें भर आती है |
यह पत्र उसने 13 साल की उम्र में माँ के कहने पर लिखा था | माँ को पढ़ना – लिखना नहीं आता है | उस रोज खाना बनाते हुए माँ रो रही थी | माँ पिता जी के रोज के झगड़ों से परेशान थी | पर अपने भाई और पिता को हर बार खुश होने का पैगाम भिजवाती थी |
 रीना ने उस समय माँ को कहा था कि माँ तुम हर बार झूठ क्यों लिखवाती हो ? पिता जी तुम्हारे साथ रोज झगड़ा करते हैं फिर भी तुम मामा और नाना को खुश हूँ लिखवा कर पत्र भिजवाती हो | उस समय रीना माँ से नाराज हो गयी थी | माँ का झूठ उसे समझ नहीं आ रहा था |
तभी माँ की आवाज आती है | रीना आंसू पोंछ लेती है और माँ की ओर बढती है |  आज उसे माँ का वह झूठ समझ आ रहा था |
 – अर्जुन सिंह
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