बहुत देर तक चुभते रहे “काँच के शामियाने “

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बहुत देर तक चुभते रहे "कांच के शामियाने "

इसे सुखद संयोग ही कहा जाएगा की जिस दिन मैंने फ्लिपकार्ट पर रश्मि रविजा जी का उपन्यास ” कांच के शामियाने आर्डर किया उस के अगले दिन ही मुझे “कांच के शामियाने” को महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा “जैनेन्द्र कुमार पुरस्कार” दिए जाने की घोषणा की  सूचना मिली | अधीरता और बढ़ गयी | दो दिन बाद उपन्यास मेरे हाथ में था | बड़ी उत्सुकता से उपन्यास पढना शुरू किया ….”झील में तब्दील होती वो चंचल पहाड़ी नदी”और शुरू हुआ मेरा जया  के साथ एक दर्द भरा सफ़र , ये  सफ़र था  एक मासूम लड़की , एक शोषित पत्नी और संघर्ष करती माँ के साथ | जितना पढ़ती गयी जया  के साथ घुलती मिलती गयी | और क्यों न हो ? ऐसी कितनी जयायें मैंने जिंदगी में देखी थी | पड़ोस की बन्नो , सरला मौसी गाँव की तिवारीं चाची | एक साथ न जाने कितनी स्मृतियाँ ताज़ा हो गयीं |मन अधीर हो उठा … नहीं , नहीं ये जया हारेगी नहीं | मन दुआ करने लगा जो हकीकत में देखा था कम से कम जया  के साथ न हो | और मैं बिना रुके पढ़ती चली गयी … जया  के साथ जुडती चली गयी |

चुभते है गड़ते है  “काँच के शामियाने “

                               काँच के शामियाने एक स्त्री की हकीकत है | एक ऐसी दर्दनाक हकीकत जिसमें रिसते , गड़ते घावों का दंश झेलती महिला महफूज मानी जाती है | किसने बनाया है औरत के लिए सब सहने में खुश होने का अलिखित कानून ? और क्यों बनाया है ?

 जया एक आम मध्यम  वर्गीय  महिला का प्रतिनिधित्व करती है | जो  ये जानते हुए कि उसका शोषण हो रहा है …. शायद कल सब कुछ अच्छा हो जाए सोंचकर सब कुछ सहती रहती है | पर ऐसा दिन परी कथाओं में तो होता है असली जिन्दगी में नहीं | वो घर में कैद कर ली जाती है , अपने मायके की औकात के ताने झेलती है और जिस सामाज के सामने वो फ़रियाद ले कर जाती है वो इसे पति – पत्नी का झगडा बता कर बीच में पड़ने से मना  कर देता है | नतीजा पति  राजीव व् ससुराल वालों के अत्याचार दिन पर दिन बढ़ते ही जाते है | यहाँ पर एक प्रश्न मन में उठता है कि ” लोग क्या कहेंगे “के नाम पर औरत के पैरों में कितनी बेड़ियाँ डाल दी जाती हैं | जिन्हें झेलने को वो विवश है पर यही लोग पति के अत्याचारों पर पति – पत्नी का मामला बता कर मौन धारण  कर लेते हैं | स्त्री के शोषण के पीछे केवल ससुराल वाले व् पति ही जिम्मेदार नहीं है | पूरा समाज जिम्मेदार है | वही समाज जो हमसे आपसे मिलकर बनता है | सामाज का ये गैर जिम्मेदाराना रवैया हम को और आपको सोंचने और बदलने की वकालत करता है |

स्त्री का साथ नहीं देता मायका

                                                    कहते हैं लड़की का कोई घर नहीं होता है | होता है तो एक मायका और एक ससुराल | इस पर ससुराल में पीड़ित महिलाएं अपनी फ़रियाद लेकर कहाँ जाए | कौन है जो उन्हें इस दर्द से जूझने की क्षमता देगा ?  ” काँच के शामियाने ” से  कुछ पंक्तियाँ जया द्वारा कही गयीं  आपसे साझा करना चाहती हूँ …

किरण दीदी जब भी ससुराल आती मुहल्ले में खबर फ़ैल जाती कि उनके ससुराल वाले बहुत मारते – पीटते हैं , सताते हैं पड़ोस की औरते एक दूसरे से आँख के इशारे से कहती ,” आ गयी फिर से , जरूर फिर से कुछ हुआ होगा ” फिर दस एक दिनों में उनके बाबूजी या भैया उन्हें वापस ससुराल पहुंचा आते | पिछले कुछ सालों से किरण दी ने मायके आना बंद कर दिया | तब भी लोग उन्हें को दोषी ठहराते | कहते ,” कैसी पत्थरदिल है | माँ – बाबूजी को देखने का भी मन नहीं करता | उन दिनों गहराई से समझ नहीं पायी थी |कब तक झूठी मुस्कान ओढ़े अपने माता – पिता की लाडली होने का दिखावा करती | उनका भी मन दुखता होगा जब अकेले में सब सहना है तो क्यों वो किसी झूठे दिलासे की उम्मीद में मायके का रुख करें | क्या बेटा  भी किसी दुःख मुसीबत में होता तो वो उसे यूँ ही अकेला छोड़ देते |

                            हम सब जानते हैं की ये हमारे समाज की सच्चाई है | माता – पिता बेटी की शादी कर  अपना बोझ उतार देते हैं | फिर चाहे बेटी कितना बोझ ढोती रहे | इसी पर सुविख्यात लेखिका सुधा अरोड़ा जी की लोकप्रिय कविता ‘ कम से कम एक दरवाजा खुला होना  चाहिए” का जिक्र करना चाहूंगी | जब तक हम स्वयं अपनी बेटियों के लिए ढाल बन कर खड़े नहीं होंगे वो ससुराल में इसी तरह का शोषण झेलने को विवश होंगी | जया  का प्रश्न वाजिब है अगर बेटे के साथ यही होता तो क्या माता – पिता उसे दुःख में अकेले छोड़ देते फिर बेटियों को क्यों ? ये उत्तर हम सब को खोजना है |

दर्द का हद से गुज़र जाना दवा बन जाना

                                         कहते  हैं की दर्द जब हद से गुज़र जाए तो वो दवा बन जाता है |जया के जीवन में भी दर्द बढ़ते बढ़ते इस हद तक पहुँच गया  कि उसमें राजीव का घर छोड़ने का साहस आ गया | संघर्ष का ये रास्ता कठिन रास्ता था | राजीव उसके आय के हर श्रोत को बंद कर देना चाहता था | हर तरह से उसे अपने आगे घुटने टेकने को मजबूर करना चाहता था | एक हारे हुए पुरुष के पास स्त्री के चरित्र पर कीचड उछालने के अतरिक्त कोई बाण नहीं होता | राजीव ने भी बहुत तीर चलाये जिसने जया को आहत तो किया पर जया ने पीछे मुड कर नहीं देखा … वो संघर्ष के कठिन रास्ते पर चलती रही |  और इन्हीं रास्तों पर चल कर उसने अपने बच्चों का और अपना वजूद बनाया | अंत में जया राजीव पर तरस भी खाती है की पत्नी व् तीन बच्चों के होते हुए राजीव आज अकेला है | इस अकेलेपन का जिम्मेदार वो स्वयं है |

उपन्यास की कुछ ख़ास बातें जिन्होंने मुझे  प्रभावित किया

                                                                    यूँ तो पूरा उपन्यास प्रभाशाली शैली में लिखा गया है और अंत तक बांधे रखता है | पर उसकी कुछ ख़ास बाते आपसे जरूर शेयर करना चाहूंगी ….

  • आम जीवन में पात्रों द्वारा बोली जाने वाली आम क्षेत्रीय  भाषा 
  • राजीव उच्च शिक्षित है ,एक कलेक्टर है फिर भी उसकी मानसिकता अहमी पुरुष की ही है | अनुमान लगाना सहज है की आम  अशिक्षित पुरुष की स्त्रियों के प्रति मानसिकता क्या होगी | 
  • जया का जीवन भर रो – रो के काटने के स्थान पर उसका संघर्ष … और स्वयं के वजूद की स्थापना | यहाँ मैं विशेष रूप से कहना चाहूंगी कि आज का पाठक महिला को हारते हुए नहीं देखना चाहता है | खासकर युवा लड़कियाँ | एक बार इस बाबत सर्वे करने पर यह मत उभर कर आया कि हारी हुई स्त्री की दास्तान उन्हें कमजोर करती है | ” काँच के शामियाने” की नायिका एक हद तक शोषण सहन करने के बाद संघर्ष का मार्ग चुनती है और विजयी भी होती है | निश्चित तौर पर इससे शोषण झेल रही महिलाओं को संघर्ष करने का हौसला मिलेगा |  
  • जया  का फैसला कि वो अपनी बेटियों को त्याग के किस्से  कभी नहीं सुनाएगी | अक्सर हम पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी बेटियों को त्याग के किस्से  सुना – सुना कर कमजोर करते रहते हैं | जिसके कारण वो अपने ही त्याग के कवच से नहीं निकल पाती हैं | और जीवन भर दुःख भोगती रहती हैं |
  • जया का राजीव से कहना कि वो अपने बेटियों की पढाई के लिए पैसे बचा लेती अगर उसने अपनी जिदगी के इतने साल घर – गृहस्थी में  न होम दिए होते | ये बात उन तमाम व्यंगों का जवाब हैं  जो एक स्त्री के तलाक के समय पति द्वारा दिए गए मुआवजे  पर स्त्री को सुनने पड़ते हैं | | जब एक स्त्री अपने जीवन के इतने साल घर – गृहस्थी में लगा देती है जिसमें वो बहुत कुछ कमा  सकती थी तो  मुआवजा उसका अधिकार बन जाता है | अभी हाल में मिस वर्ल्ड ‘ मानुषी छिल्लर  “ने भी हाउस वाइफ की सैलेरी की बात की है | भले ही ये सैलेरी सम्मान के रूप में हो परन्तु हॉउस वाइफ के बिना पारिश्रमिक लिए घर में दिए जाने वाले योगदान को बाहर नौकरी कर के कमाने वाले पुरुष की तुलना में हेय  दृष्टि से देखना गलत है| 

                                                                            अंत में इतना ही कहूँगी की जया के  साथ इस यात्रा में ” काँच के शामियाने” मुझे  बहुत देर तक चुभते रहे | जया के संघर्ष ने और उसकी विजय ने बहुत सुकून का अहसास करवाया | कहीं न कहीं रश्मि रविजा जी ने महिलाओं को अपने हाल पर रोने के स्थान पर  परिस्थितियों से टकराने का रास्ता  सुझाया  है | आत्मनिर्भरता और स्वयं पर विश्वास ही काँच  के शामियानों के अन्दर रिश्ते दर्द देते घावों का मरहम है | और स्त्री की मुक्ति का मार्ग भी |

रश्मि जी के उपन्यास  ” कांच के शामियाने ”    को महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा “जैनेन्द्र कुमार पुरस्कार” दिए जाने की हार्दिक बधाई 

वंदना बाजपेयी

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