इंतज़ार

0
इंतज़ार ( लप्रेक)
देखो, ” मैं टाइम पर आ गयी” कहते हुए दिपाली ने जोर से हाथ लहराया |
“क्या हुआ?”
“चुप क्यों हो?”
“क्या अभी भी नाराज़ हो?”
“आज तो टाइम से पूरे 15 मिनट पहले आ गयी|  देखो, देखो अभी सिर्फ पौने पांच बजे हैं|” दीपाली ने घड़ी दिखाते हुए कहा |
“आज तो इंतज़ार नहीं कराया ना?”
“जब टाइम से पहले आ गयी, तो फिर बोल क्यों नहीं रहे हो, मेजर शिवांश?”
“बोले तो तुम कल भी नहीं थे, बस मैं भी अपने दिल की कह के चली गयी |
कल की भी डेट बेकार ही गयी|”
सच है, तुम आर्मी वाले भी ना, बड़े कड़क होते हो| 
 
“पर याद रखना तुम्हारा ये गुस्सा मुझ पर… अरेरेरे, नाराज़ क्यों होते हो?”
“सॉरी बाबा, देखो कान पकड़ रही हूँ|”
“अब बिलकुल समय की पाबंद  रहूँगी, आर्मी वालों की तरह|”
“इंतज़ार तो बिलकुल नहीं कराऊंगी|”
“मानती हूँ की तुम नाराज़ हो|  होना भी चाहिए, पर मैंने कभी तुम्हें जान कर इंतज़ार नहीं कराया|”
“तुम नहीं जानते लड़कियों को घर से निकलते समय कितने प्रश्नों  का सामना करना पड़ता हैं|”
“प्यार गुनाह है सबकी नज़रों में, पर ये गुनाह कोई जान -बूझ कर तो नहीं करता| आसमानी हुकुम होते हैं, तभी तो मन खींचता है किसी डोर की तरह| खैर, अब तो खुश हो जाओं|”
“नहीं होगे?”
“देखो, मानती हूँ, दीपावली पर मैंने बहुत इंतज़ार करवाया था|  क्या करती?  जैसे ही घर से निकलने को हुई, बड़े भैया आ कर दरवाजे पर खड़े हो गए और लगे प्रश्न पर प्रश्न करने:  “कहाँ जा रही हो?  क्यों जा रही हो?  किसके साथ जा रही हो?”  मैं तो एकदम डर ही गयी|  लगता है आज पूरी पोल पट्टी खुल जायेगी|  किस तरह से भैया को बातों में उलझा कर निकली, तुम क्या जानों?”
तुम तो बस बैठे-बैठे घड़ी के कांटे गिना करो, हाँ नहीं तो!
“और उसके दो दिन बाद अम्मा ने घेर लिया|  अच्छे घर की लडकियाँ यूँ सज-धज के नहीं निकलती|
 क्या समझाती उन्हें, कितना दिल करता है कि तुम्हारे सामने सबसे खूबसूरत दिखूँ|  तुम तो कहते हो कि मैं तुम्हें हर रूप में अच्छी लगती हूँ|  फिर क्यों होती है ऐसी ख्वाइश कि मुझे देखने के बाद तुम किसी को न देखो?  घंटे भर जब रसोई में अम्माँ के साथ नमक पारे बनवाये थे, तब आ पाई थी|”
“चप्पल पहनने में भी देर न हो जाए ये सोंच कर चप्पल हाथ में ले कर दौड़ी थी|  पसीने से लथपथ|  तुम कितना हँसे थे मुझको देखकर, फिर तुमने अपने हाथ  मेरे सर पर फेरते हुए कहा था, ” तुम आज से ज्यादा सुन्दर मुझे कभी नहीं लगीं”|”
“कितने अजीब हो तुम| जिसके लिए मैं दुनिया भर का श्रृंगार करना चाहती हूँ, उसे मैं पसीने में लथपथ अच्छी दिखती हूँ| तुम आर्मी वाले भी ना!”
अब तो इतनी सफाई दे दी, अभी भी नाराज़ रहोगे?
“याद करिए मेज़र  साहब, अभी कुछ एक रोज पहले ही आपने कहा था कि तुम देर से आती हो, मैं गुस्सा करता हूँ, फिर भी मुझे  तुम्हारा इंतज़ार करना अच्छा लगता है|  कितना भी लम्बा हो ये इन्जार पर उसके बाद तुम जो मिलती हो”|
“दिल को छू गयी थी तुम्हारी बात, तभी से फैसला कर लिया था, जो मुझे इतना चाहता है उसे इंतज़ार नहीं करवाउँगी| कभी नहीं…”
“तब से रोज़ समय पर आ रहीं हूँ|  बिलकुल भी इंतज़ार नहीं करवाती|
पर तुम आर्मी वाले भी ना, नियम के बहुत पाबंद  होते हो|  प्यार हो या युद्ध , तुम्हारे कानून भी अलग होते हैं|”
इसीलिए तो…  इसलिए तो, इंतज़ार करवाने की सजा में मुझे दे गए
जिंदगी भर का इंतज़ार…
 
“पर मैं करुँगी ये इंतज़ार, जरूर करुँगी
क्योंकि इंतज़ार के बाद मुझे तुम मिलोगे|
मिलोगे ना, मेजर साहब?”
कहते हुए दीपाली ने समाधी पर फूल चढ़ा दिए जिस पर लिखा था –
लेट मेजर शिवांश
22 सितम्बर, 1992 – 25 दिसंबर, 2017
                                    पर दीपाली भी डबडबाई आँखों को सिर्फ एक शब्द दिख रहा था… “इंतज़ार” 
वंदना बाजपेयी
यह भी पढ़ें-
 
 
 
 आपको  कहानी  इंतज़ार ( लप्रेक)  कैसी लगी?  अपनी राय अवश्य व्यक्त करें|  हमारा फेसबुक पेज लाइक करें|  अगर आपको “अटूट बंधन “  की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ-मेल लैटर सबस्क्राइब कराएं ताकि हम “अटूट बंधन” की लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें|   

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here