बच्चों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति

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बच्चों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति

       आज समाचारपत्रों, दूरदर्शन, पत्र-पत्रिकाओं से ही नहीं, बल्कि अड़ोस-पड़ोस, गली, गाँव, मोहल्ला आदि के वातावरण को अनुभव करने से यह पता चलता है कि बच्चों  में हिंसक प्रवृत्ति दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।

बच्चों में क्यों बढ़ रही है हिंसक प्रवृत्ति ?

          इसके कारणों पर अगर हम विचार करें तो हम पायेंगे बदली हुई तकनीक, उससे प्रभावित अर्थव्यवस्था और अंततः सामाजिक व्यवस्था में हो रहे बदलाव इस प्रवृत्ति के मूल कारण हैं। बदली हुई जीवन शैली, एकल परिवार, बच्चों का अकेलापन, माता-पिता की व्यस्तता, स्कूल की पढ़ाई का बोझ आदि भी सभी के मिले-जुले प्रभाव ने इस समस्या को जन्म दिया है।

             तीन दशक पहले इस प्रकार की हिंसा की घटनाएँ विदेशों में सुनने को मिलती थी, पर आज उसी प्रकार की घटनाएँ हमें अपने देश और समाज में देखने- सुनने को मिल रही हैं जो निश्चित ही चिंता का विषय बनता जा रहा है।

एकल होते परिवार 

          इस समस्या के कारणों पर विचार करें तो बदलता सामाजिक परिवेश और लुप्त होते जीवन मूल्य इसके लिए उत्तरदायी हैं। परिवार समाज की एक महत्वपूर्ण इकाई है। परिवार का परिवेश बदल गया है। बहुत से परिवार बुज़ुर्गों से अलग रहते हैं। अनेक तो ऐसे भी देखे गए हैं जो एक छत के नीचे रहते हुए भी अपने माता-पिता से अधिक मतलब नहीं रखते हैं। जो समय बच्चों का दादा-दादी के साथ बीतता था वह टेलीविजन और विडियो गेम्स खेलने में बीतता है। बच्चों की दिनचर्या ऐसी बन जाती है कि वे  उसमें थोड़ा सा भी खलल सहन नहीं करते। प्रवृत्ति धीरे-धीरे हिंसक होती जाती है। अधिकांश मध्यवर्गीय शहरी परिवारों में माता-पिता के पास बच्चों के लिए पर्याप्त समय नहीं है।

ध्वस्त हुई सामाजिक व्यवस्था

            लोकल सोसाइटी, गली और मोहल्लों का बदलता परिवेश बच्चों के व्यक्तित्व को विकृत कर रहा है। आज से कुछ दशक पहले मोहल्ले के सभी बच्चे मोहल्ले के सभी बड़े-बूढ़ों का मन-सम्मान रखते थे। बड़ी उम्र का व्यक्ति चाहे गरीब और अनपढ़ ही क्यों न हो वह बच्चों को कुछ भी अच्छी बात समझाने के लिए स्वतंत्र था, पर आज अहंकार का स्तर इतना ऊँचा हो गया है कि हर व्यक्ति यह सोचने लगा है कि अपने बच्चों को हम स्वयं समझा लेंगे, हमारे बच्चों को कुछ मत कहो। गली-मोहल्ले की ध्वस्त हुई सामाजिक व्यवस्था ने भी बच्चन को उच्शृंखल, अनुशासनहीन, क्रोधी, अहंकारी और हिंसक बना दिया है। कई जगह माता-पिता भी अपने बच्चों की गलत बातों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन करते हुए दिखाई देते हैं। इस बदले हुए परिवेश ने भी बच्चों को हिंसक बनाया है।

विद्यालयों और शिक्षण संस्थानों की  भूमिका

           बच्चों में हिंसा की प्रवृत्ति पनपाने में विद्यालयों और शिक्षण संस्थानों भी अहम भूमिका निभाई है। आज शिक्षा का उद्देश्य अधिक से अधिक अंक प्राप्त करना है। इसके लिए स्कूल में पढ़ाई, उसके बाद ट्यूशन, बचा-खुचा समय होमवर्क आदि में बीत जाता है। अगर हम आमतौर पर विद्यालयों का सर्वे करे तो पायेंगे कि विद्यालय एक नीरस स्थान है। विषय, परीक्षा और अधिक अंक…..स्कूल के उद्देश्य यही रह गए हैं। बच्चों में अन्य गुणों के विकास के लिए खेल,सांस्कृतिक गतिविधियाँ नगण्य हैं और अगर हैं भी तो मात्र दिखावे के लिए। अगर हम ध्यान दें तो पायेंगे बहुत से बच्चे कक्षा पाँच से लेकर कक्षा आठ तक अपनी इच्छाएँ और रूचियाँ को पहचानने लगते हैं। उनमें कोई न कोई प्रतिभा होती है।

 प्रतिभा कैसी भी हो सकती है मगर शिक्षा व्यवस्था में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि बच्चे की प्रतिभा को पहचान कर उसके विकास के लिए विद्यालय कुछ करें। 

हमारे देश में यह भाग्य भरोसे है कि इत्तफाक से कोई अध्यापक अच्छा मिल गया या माता-पिता समझदार निकल गए,बच्चे की प्रतिभा को पहचान गए और उसे उसी में आगे बढ़ने का अवसर दिया। अन्यथा मुझे तो ऐसा लगता है ९९.९९ प्रतिशत बच्चन को एक बनी-बनाई शिक्षा व्यवस्था के साँचे में धकेल दिया जाता है। बच्चे को अच्छा लगे अथवा नहीं,उसकी रुचि है या नहीं…इन बातों पर विचार करने का समय शायद किसी के पास नहीं है।

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 परिणाम सामने है जैसे ही बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम सामने आते हैं आत्महत्याओंके समाचार मिलते हैं। लड़ाई-झगड़ा, मारपीट, गली-गलौज, घरों में माता-पिता से बहस, अध्यापकों का अपमान…ये बातें आम हो गई हैं और इनके लिए बहुत हद तक हमारे विद्यालय ही ज़िम्मेदार हैं।इन्हीं में से कुछ बालक महाविद्यालयों में पहुँचते हैं। घमंड, अहंकार, क्रोध आदि का पारा और ऊपर चढ़ जाता है जिसका भरपूर उपयोग राजनैतिक नेता करते हैं, छात्रसंघ के चुनावों के समय मारपीट, तोड़फोड़ तो एक सामान्य बात है।

अर्थव्यवस्था की ख़ामियाँ भी दोषी 

            बच्चों में हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति के सामाजिक, शैक्षणिक और पारिवारिक पहलू…..ये सब तो बच्चों और युवाओं में हिंसा की प्रवृत्ति को बढ़ावा दे ही रहे हैं, अर्थव्यवस्था की ख़ामियाँ भी आग में घी डालने का काम करती हैं। ग़रीबी, कुपोषण, जुआ, शराब, नशा…..ये महानगरों के चारों तरफ़ बसिहुई झुग्गी-झोंपड़ियों में भरपूर मात्रा में पाया जाता है और हिंसक प्रवृत्ति ही नहीं, हिंसक अपराधियों को जन्म देता है। वहाँ के सरकारी स्कूल और आंगनबाड़ियों की हालत और भी ख़राब है।
बच्चों में बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति का समाधान
समस्या का समाधान हमारे हाथ में 


    1) इस समस्या का समाधान हमारे ही हाथों में निहित है। आवश्यकता है उस पर ध्यान देकर करने की। यह ठीक है शहरों में संयुक्त परिवार नहीं हैं, पर समय-समय पर दादा-दादी, नाना-नानी,चाचा-ताऊ, बुआ, मामा आदि के रिश्तों में बच्चों का आना-जाना, उठना-बैठना तो हो ही सकता है। इसका बालकोंके मन पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा और उनका एकाकीपन दूर होगा, सामाजिक ताने-बाने की अहमियत को समझने लगेंगे। 

2 )गली-मोहल्ले में हमें आपस में मिलना-जुलना और बच्चों के सामूहिक रूप से कुछ कार्यक्रम करवाना तथा नैतिक बातों पर उनसे चर्चा एवं विचार-विमर्श करना, सुधार लाने के लिए एक उपयोगी कार्य हो सकता है। 




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3)शिक्षा में मूल्याँकन का आधार यह होना चाहिए किसने अपनी किस प्रतिभा का विकास अधिक किया। विद्यालयों में अध्यापकों के द्वारा बच्चों का पढ़ाए जाने का समय कुल स्कूल के समय का २५% होना चाहिए ७५% में से आधा समय साढ़े बत्तीस प्रतिशत खेल, नृत्य, संगीत, कला आदि को दिया जाना चाहिए और बचा हुआ साढ़े बत्तीस प्रतिशत समय बच्चे को अपनी रुचि के अनुसार कुछ पढ़ने-लिखने, गाने-बजाने, व्यायाम करने, ध्यान लगाने, अकेले बैठे रहने, सोचने-करने के लिए, अपने मित्रों के साथ स्वतंत्र रूप से बातचीत लेने, कोई सेवा मेरी करने, इसके अलावा भी अगर कुछ संभव है वो सब करने के लिए स्वतंत्र होना चाहिए। 

4)   माता-पिता और अध्यापकों को यह समझ लेना चाहिए कि हर व्यक्ति ब्यूरोक्रैट, दार्शनिक, राजनीतिज्ञ, डाक्टर, इंजीनियर ही नहीं बनेगा, लेकिन हर व्यक्ति एक अच्छा व्यक्ति बन सकता है। कक्षा आठ के बाद व्यक्ति किस व्यवसाय में जाएगा उसे निश्चय करने का अधिकार और    उसके अनुसार पढ़ाई करने  देनी चाहते। हम किसी को जबरदस्ती कुछ भी नहीं बना सकते और ना ही ऐसा प्रयास करना चाहिए। हाँ जो व्यक्ति जो बनना चाहता है, जो पढ़ना चाहता है उसे वह करने का अवसाद अवश्य मिलना चाहिए। इसी से समाज, देश और मानवता का कल्याण हो सकता है। अनेक विकसित देशों में ऐसी व्यवस्थाएँ विकसित हो चुकी हैं। जर्मनी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।

        इस प्रकार की सोच लेकर मेरी किए जाएँ तो निसंदेह बच्चों में विकसित होती इस हिंसक प्रवृत्ति में कमी आएगी।
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डा० भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून-

लेखिका



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5 COMMENTS

  1. चिंतजनक गिरावट है निस्संदेह। दिये गये सभी कारणों के अलावे एक महत्वपूर्ण कारण माता पिता के स्वयं के आचरण व बच्चों की परवरिश में उनकी भूमिका भी है।

  2. बच्चो में बढ़ रही हिंसा के पीछे कही ना कही बचपन में मिलने वाले संस्कार और सही परवरिश है अगर परिवार संयुक्त होता है तो उम्र के हर पड़ाव पर हमें सही शिक्षा मिलती है जो आजकल ना के बराबर है. आपका लेख एक नयी सोच को जन्म देता है.

  3. आप का ब्लॉग प्रशंसनीय है यह हमारे वर्तमान समाज कलिकाल में अपने सत्येमार्ग से भाटको के लिए आशा की एक किरण है आपका ये काम प्रशंनीय है मुझे गर्व है अपने भारतीय होने पर में एक ट्रेवल और वेजीटेरियन फ़ूड ब्लॉगर हु आशा करता हु आप समय निकाल मेरे ब्लॉग को रीड करेगी indiatourfood.com जय भारत

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