प्रिडिक्टेबली इरेशनल की समीक्षा -book review of predictably irrational in Hindi

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book review of predictably irrational in Hindi

हम सब बहुत सोंच विचार कर निर्णय लेते हैं | फिर भी क्या हम सही निर्णय ले पाते हैं ? क्या हमारे निर्णय पर दूसरों का प्रभाव रहता है ?ऐसे कौन से फैक्ट्स हैं जो हमारे निर्णय को प्रभावित करते हैं ?ये बहुत सारे प्रश्न हैं जिनका उत्तर  MIT के Dan Ariely  की किताब  Predictably irrational में मिलता है | यह किताब विज्ञानं के सिद्धांतों पर आधारित है , जो बताती है कि कोई भी निर्णय लेते समय मनुष्य का दिमाग कैसे काम करता है और कैसे छोटी -छोटी चीजें उसके निर्णय को प्रभावित कर देती हैं |

प्रिडिक्टेबली इरेशनल की पुस्तक समीक्षा book review of predictably irrational in Hindi


                   मानव मष्तिष्क  के निर्णय लेने की क्षमता को वैज्ञानिक सिद्धांतों द्वारा प्रतिपादित करने वाली  किताब predictably irrational में Dan Ariely  कई प्रयोगों द्वारा मानव मन की गहराय में घुसते जाते हैं | ये वो गहराई है जो आपके निर्णय को प्रभावित करती है | 
                            कभी आपने सोंचा है एक रुपये की कैल्सियम की गोली के स्थान पर 40 रुपये की कैल्सियम की गोली का असर आप पर ज्यादा होता है | हम उस रेस्ट्रा का खाना खाना पसंद करते हैं जो एक बोतल कोक फ्री देता है बन्स्पत उसके जो उतने ही पैसे कम कर देता है | क्या आप ने गौर किया है कि ऐसा क्यों होता है ? यही नहीं काफी खरीदने से लेकर , वेट लोस के जिम तक , कोई सामान चुनने में , मित्र या जीवन साथी चुनने में  हमारा दिमाग एक खास तरीके से काम करता है .. जिसे Dan Ariely  ने predictably irrational का नाम दिया है | आइये जाने कि हमारा दिमाग कैसे काम करता है …

1) तुलना …

                  हमारा दिमाग दो चीजों में तुलना  करता है फिर निर्णय लेता है | इसे  आप ने देखा होगा कि  एक समान आकर की दो मेजें अगर एक लम्बाई में राखी जाये व् दूसरी चौड़ाई में  , फिर आप से पूंछा जाए कि कौन सी बड़ी है तो आप कहेंगे कि जो लम्बाई में रखी है | 
तुलनात्मक अध्यन
                              चित्र brainden.com से साभार 
इसी तरह से अगर दो समान आकार के गोले लें … अब एक गोले के चरों और बड़े -बड़े गोले लगा दें व् दूसरे के चरों ओर छोटे -छोटे गोले लगा दें , अब आप से पूंछा जाए कि  कौन सा गोला बड़ा है तो निश्चित रूप से सबका जवाब होगा जिसके चरों ओर छोटे गोले हैं … इसके पीछे एक साइंटिफिक कारण है .. वो ये की हमारा दिमाग अब्सोल्यूट में नहीं काम्पैरिजन में सोंचता है | 
तुलनात्मक अध्यन
फोटो wikimedia commons से साभार 
                                      अब जानिये तुलनात्मक अध्यन की वजह से हमारे निर्णय किस तरह से प्रभावित होते हैं …
एक प्रयोग …
एक बार लोगों  के सामने  थ्री days ट्रिप के ३ ऑप्शन रखे गए …
अ ) पेरिस (फ्री ब्रेक फ़ास्ट के साथ )
ब) रोम ( बिना ब्रेकफास्ट के ) 
स) रोम (फ्री ब्रेक फ़ास्ट के साथ )
                              ८५ % लोगों ने रोम (फ्री ब्रेक फ़ास्ट के साथ ) के साथ चुना | क्या लोग रोम ही जाना चाहते थे पेरिस नहीं … ऐसा नहीं है एक दूसरे ग्रुप पर इस प्रयोग को उलट कर किया गया | 

अ ) पेरिस (फ्री ब्रेक फ़ास्ट के साथ )
ब) पेरिस  ( बिना ब्रेकफास्ट के )
स) रोम (फ्री ब्रेक फ़ास्ट के साथ )

                         अबकी बार लोगों ने पेरिस फ्री ब्रेकफास्ट के साथ चुना | कारण स्पष्ट था लोगो ने उसे चुना जो उन्हें तुलना करने का अवसर दे रहा था व् उसे दरकिनार कर दिया जिसने तुलना करने का अवसर नहीं दिया | क्योंकि लोगों का दिमाग पहले तुलना पर जाता है |

दूसरा उदाहरण

एक मैगज़ीन है  “The Economist” उसने अपनी वेबसाइट पर मागज़ीन सबस्क्राइब करने के तीन तरीके बताये हैं …

1)Economist  times –
वेब एडिशन $59

प्रिंट एडिशन -$ 125
प्रिंट & वेब एडिशन $  125
                
अब  केवल १६ % लोगों ने वेब एडिशन व् 84 % लोगों ने
प्रिंट व् वेब एडिशन वाला थर्ड ऑप्शन चुना
 
और सेकंड ऑप्शन किसी ने नहीं चुना | जाहिर सी बात है जब प्रिंट व् वेब
दोनों $125 में मिल रहे थे तो कौन मूर्ख होगा जो केवल प्रिंट एडिशन $125
 में लेगा | अब सोंचने वाली बात है कि economist
मैगज़ीन ने ऐसा बेवकूफाना ऑफर क्यों रखा | दरअसल
 
यह ऑफर द्वारा किये गए एक प्रयोग के बाद लाया गया| ने इस प्रयोग में लोगों
को दो ग्रुप्स में बांटा … दूसरे ग्रुप को ये ऑफर दिया गया और पहले ग्रुप को दिए
गए ऑफर में बीच वाले ऑफर को हटा लिया गया , जिसकी वास्तव में कोई जरूरत ही
  नहीं थी , तब परिणाम इस तरह से आये…


वेब एडिशन $ 59….. 75 % लोगों ने लिया
प्रिंट & वेब एडिशन $  125….
केवल 25 % लोगों ने लिया


                    
जाहिर है
इससे कम्पनी को नुक्सान था | इसलिए उसने ऐसा ऑफर रखा |
यह दोनों उदाहरण हमें ये बताते हैं कि हमारा दिमाग चीजों का तुलनात्मक
अध्यन करके निर्णय लेता है | जिन दो चीजों में समानता ज्यादा होती है उनमें से वो
  तुलना करके नतीजा निकालता है | उस समय उसका
ध्यान तीसरे ऑप्शन पर नहीं रह जाता | उसका काम बस इतना होता है कि वो कहे कि मुझे
देखो , मुझसे तुलना करो फिर वो चुनो जो कम्पनी चाहती है |

रिश्तों में निर्णय 


तुलना का ये
नियम केवल सामान पर ही नहीं रिश्तों पर भी लागू होता है | इसके लिए भी एक प्रयोग
किया गया |
  दो एक जैसे लोगों की तस्वीरे
ली गयीं मसलन देव व् राज ( पाठकों की सुविधा के लिए नामों का भारतीयकरण किया है )
दोनों के एंगल अलग थे | अब लोगों को उनमें से एक को चुनना था | पर ये काम इस तरह
से नहीं किया गया | उन्होंने तीन ऑप्शन बनाये | एक फोटो में देव की बिगड़ी हुई छवि
बनायीं इस तरह से लोगों को अब देव , बिगड़ी छवि वाले देव व् राज के बीच में से एक
को चुनना था … ज्यादातर लोगों ने देव को चुना | इसी के लिए एक दूसरा प्रयोग किया
गया जहाँ राज की छवि बिगाड़ दी गयी | अब लोगों को देव बिगड़े हुए राज व् राज में से
एक को चुनना था … आश्चर्य की बात है कि इस बार लोगों ने राज को चुना |लोगों ने
हर बार एक ही व्यक्ति के खराब व् एक अच्छे ऑप्शन के बीच में से चुना जबकि दोनों
बार उनके पास एक और व्यक्ति का अच्छा ऑप्शन था |





दुकानदार इसका कैसे प्रयोग करते हैं …


अगर दुकानदार को कोई प्रोडक्ट अ , प्रोडक्ट ब की तुलना में ज्यादा
बेंचना है तो वो एक अ
 निगेटिव खड़ा कर
देंगे | जिससे लोगों का ध्यान ब की तरफ जाए ही नहीं और वो सीधे अ ही खरीदे |

सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि इसके लिए उन्होंने डॉक्टर्स पर भी प्रयोग किया और सिद्ध किया की प्रोफेशनल्स के  निर्णय को भी प्रभावित किया जा सकता है |
                                  तुलनात्मक अध्यन के अतिरिक्त फ्री या जीरो  कॉस्ट शब्द  का असर इतना गहरा  होता है कि लोग इसके अतरिक्त  दूसरे किसी ऑफर से तुलना कर ही नहीं पाते | अगर किसी ऑफर में कोई चीज ७५ रुपये दाम के साथ २५ की कोई चीज फ्री दे रहा है व् बिना ऑफर के उस चीज को ५० में बेंच रहा है तो लोग फ्री वाले ऑप्शन पर जायेंगे | 
लोग अगर किसी चीज की कीमत जो वो पहली बार मे पसंद करते हैं अपने मन में बिठा लेते हैं | काफी समय बाद भी जब वो चीज खरीदने जाते हैं तो तुलना उसी  दाम से करते हैं | और उसे सस्ता या महंगा घोषित करते हैं |
अत्यधिक भूख , प्यास , मानसिक , शारीरिक उद्वेग भी लोगों के निर्णय को प्रभावित करते हैं | अधिकतर विज्ञापन इसी बात को ध्यान में रख कर बनाये जाते हैं , जो उपभोक्ताओं के निर्णय को  भावनात्मक रूप से प्रभावित करते हैं | 
                                        predictably irrational  वैसे तो एक बिजनिस बुक है जो लोगों के BUYING BEHAVIOUR   के बारे में बात करती है | पर आम पाठक इससे काफी  लाभान्वित होता है जब वह समझ जाता है कि सारे प्रोडक्ट उसे इसी आधार पर बेंचे जा रहे हैं |  हालांकि ये एक सेट पैटर्न है,  पर कुछ हद तक वो इस पर लगाम लगा सकता है | दूसरी बात  वो इसका इस्तेमाल अपने निजी जीवन में भी कर सकता है | जैसे वो तुलनात्मक रूप से तब ज्यादा सुखी महसूस करेगा जहाँ वो ऐसे सर्किल का हिस्सा हो जिसमें बाकी सब उससे थोड़े छोटे हो | चाहे थोड़ी देर के लिए ही सही … यहीं से उसे एनेर्जी बूस्ट मिलेगा | जो उसे उस सर्किल की और अग्रसर होने में मदद करेगा जहाँ उसे और उन्नति करनी है |

                      कुल मिला कर मानव मन की गूंध पड़ताल करती हुई ये एक अच्छी किताब है | जैसा की लेखक स्वयं MIT से हैं व् ये किताब उनके शोध का एक हिस्सा है जिसे उन्होंने सरल भाषा में समझाने की कोशिश की है , जो इसकी लोकप्रियता का कारण है |

किताब के बारे में ज्यादा जानकारी आप विकिपीडिया से प्राप्त कर सकते हैं

नीलम गुप्ता

किताब का चित्र –amazon.in से

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