गुनाहो का हिसाब

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गुनाहो का हिसाब


कुछ लोग कहते हैं कि मृत्यु लोक में इंसान अपने गुनाहों को भोगने आता है | कुछ के अनुसार हम हम पिछले जन्म के कर्मों को भोगते हैं व् कुछ के अनुसार इसी जन्म में हो जाता है गुनाहों का हिसाब | सवाल ये है कि क्या मृत्यु से पहले व्यक्ति खुद लगाता है अपने ….गुनाहों का हिसाब



कहानी – गुनाहों का हिसाब



गोरी गोरी देह थी उसकी,, हरदम मुस्कुराता चेहरा,, आफिस जाते समय भी वो बडा बनसंवर कर निकलता। कई बार आदमकद शीशे के आगे अपनी जुल्फे संवारता। गीत संगीत मे भी रूचि लेता। लेकिन पेट का रोगी बना रहा। आफिस पार्टी मे चाहकर भी कुछ ना खा पाता इस बात का उसे बेहद अफसोस रहता। भरा पूरा परिवार था। एक बेटा एक बेटी। यूं तो परिवार संयुक्त था। पर जल्दी ही सबकुछ बदल गया था। सरकारी नौकरी मे तबादला भी दोबार हुआ पर वो गया नही। तरक्की चाहकर भी ना ले पाया था। पर फिर भी सेलरी तो बढती ही जा रही थी। तरक्की ना होने का दुख भी वो भीतर पाले था। पर अपने बीबी बच्चो को एक दिन भी अपने से जुदा नही किया था। मीटिग हो या अन्य काम वो देर रात अवश्य लौट आता।




समय अपनी गति से बढ रहा था। शरीर मे कही सुकून का आभाव था। नींद ना आने के चक्कर मे वो अब एलैपैक्स नीद की गोली लेने लगा था। लगातार दवा ने अब असर कम कर दिया था। जीवन की साध्यवेला मे अब और बिमारियो ने भी घर कर लिया था एक दिन छत से नीचे उतरते समय पैर फिसलने से चार माह तक बिस्तर पर पडा रहा। ढीक होने के बाद भी वो डरा डरा सा रहने लगा था। कही भी अकेले ना निकलता। समाज से कट गया था बिल्कुल। उधर पत्नी भी बीमार रहने लगी थी। आखिर बुढापा का असर दोनो पर हो रहा था। बेटी अपने ससुराल वाली हो गयी थी। उसकी अपनी दुनिया थी। दूर भी रहती थी। बेटा अपने काम मे मग्न था। घर मे अकेले रहते रहते वो परेशान हो गये थे। समाज से कटने के कारण वो दोनो कैदी से बन कर घर के भीतर चुपचाप पड़े रहते। सब सुविधाएं होते हुऐ भी वो अकेले थे। धीर धीरे बूढे का मानसिक संतुलन बिगडने लगा था। अच्छे डाक्टरो को भी दिखाया। दवाएं खा खाकर वो परेशान हो गया। सारा दिन कुछ स्वादिष्ट खाने को मन करता पर पचा ना पाता। लिवर भी जवाब दे गया था। कुछ दिन बीते बीमार व कमजोर पत्नी भी चलबसी। ऊसकी मुत्यु ने उसे तोडकर रख दिया। पत्नी को यादकर वो अकसर रोता। अकेला घर से निकल भागता। बडी अजीब दशा हो गयी थी।


नंदिनी 


बुढापे मे बच्चो का साथ जहां सुकून देता है उनकी बेरूखी तोड देती है। शायद जीने की चाहत भी कही दम तोडने लगती है। अब वो स्थायी रूप से बिस्तर पर ही पढा रहता। चार सालो से तो वह बिस्तर भी खराब करने लगा था। नौकरौ ने भी हाथ खडे कर दिये थे। वो भी ऐसे आदमी को नहलाने धुलाने मे असमर्थ थे। चुपचाप पडा वो छत निहारता। व अपनी मृत्यु की भीख मांगता जो मिल नही रही थी।
अकसर लेटा लेटा अतीत के चक्कर काटने लगता। हाथ जोड माफी मांगता। पर सब बेकार,,,,,,,.।
वो अपने पोते को खिलाने की आस लिये था। पर वो भी नही पूरी हुई। अब वो बिस्तर पर पडे पडे अपने गुनाह याद कर रहा था।



उंची आंकाक्षो को पूरा करने के लिये उसने क्या क्या छल नही किये। किस तरह उसने अपने पिता की रजिस्टरी धोखे से अपने नाम करवा ली थी। अपने भाईयो का हक भी हड़प[ लिया था औ्र उन्हे घर से बाहर कर दिया था। पिता के मरने पर भी सबकुछ गहने पैसे खुद ही रख लिये थे। एक गरीब भाई की बेटी की शादी मे मदद के तौर पर जो धनराशि देनी थी उससे भी मुकुर गया था। और भाई की बेटी की शादी मे ही नही गया कही भाई पैसो का तकाजा ना कर दे। किसी की समझाईश भी ना मानी। बस अपना सोचता रहा।




वो जन्मदेने वाली मां जिसकी आंखो का वो तारा था स्वार्थ के वशीभूत होने पर उसी की आंखो से उतर गया। वो समझाती बेटा…. भाईयो के हक ना खा। वो अपनी मां की बात ना मानता। वो बेचारी अपने कमरे मे पड़ी रहती। ये अपनी पत्नी के लिये कामवाली रखता पर मां के लिये नही। बूढा पिता ही मां को सम्भालता।
समय बीता बूढे माता पिता मन की मन मे लेकर स्वर्ग को चले गये। मरते समय पिता ने बेटे से फिर कहा””बेटा,,,,, भाईयो को उनका हक दे देना, आज से तू ही उनका पिता है।। पर लोभ कि ऐसी पट्टी बंधी कि वह कुछ देख ही नही पाया। धन सम्पति के लोभ नेउसे भाईयो से भी छुडवा दिया। पर आज की रात जब वो अपने कमरे मे अकेला सो रहा था। उसकी देह ने मुकित पा ली थी। इसे बहू बेटा भी नही जान पाये थे कि कब हंसा उडान भर गया था।





सुबह बहू चाय देने आयी तो ससुर जी शान्त पडे थे। हां यह बात सही थी जिस औलाद के लिये उसने ये धनजोडा था वो अन्तिम समय मे उसके मुख मे गंगा जल भी ना डाल पाये थे ना ही दिया बाती कर पाये थे। और तीसरे दिन ही “उठाला” करदिया था। शायद कुदरत ने ही उसके गुनाहो का हिसाब कर दिया था।।


रीतू गुलाटी।





लेखिका







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