टाऊनहाल

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टाऊनहाल
दो वर्ष पहले की
मेरी जनहित याचिका पर प्रदेश के उच्च न्यायालय ने आज अपना निर्णय सुना दिया है : हमारे
कस्बापुर की नगरपालिका को प्रदेश के पर्यटन विभाग के साथ किए गए अपने उस समझौते को
रद्द करना होगा जिस के अंतर्गत हमारे टाऊनहाल को एक ‘हेरिटेज होटल’ में बदल दिया
जाना था।


मुझ से पूछा जा रहा
है कि अठहत्तर वर्ष की अपनी इस पक्की उम्र के बावजूद नगरपालिका जैसी बड़ी संस्था को
चुनौती देने की हिम्मत मैंने कैसे जुटा ली।

और इस प्रश्न के
उत्तर में मैं वह प्रसंग दोहरा देता हूँ जब मेरे पिता ने इसी टाऊनहाल को बचाने हेतु
अपने प्राण हथेली पर रख दिए थे।

सन् १९४२ की अगस्त
क्रान्ति के समय।

सभी जानते हैं
द्वितीय महायुद्ध में काँग्रेस से पूर्ण सहयोग प्राप्त करने हेतु मार्च १९४२ में
ब्रिटिश सरकार के स्टैफ़र्ड क्रिप्स की अगुवाई में आए शिष्टमंडल के प्रस्ताव के
विरोध में ८ अगस्त १९४२ के दिन काँग्रेस कमेटी ने ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की जब घोषणा
की थी और अगले ही दिन जब पुणे में गांधीजी को हिरासत में ले लिया था। तो गांधी जी
के समर्थन में देश भर की सड़कें ‘भारत छोड़ो’ और ‘करो या मरो’ के नारों से गूंजने
लगी थी। बल्कि कहीं-कहीं तो समुत्साह में बह कर लोग बाग सरकारी इमारतों को आग के
हवाले करने लगे थे। बिजली की तारें काटने लगे थे, परिवहन एवं संचार के साधन ध्वस्त
करने लगे थे।

देश के अन्य शहरों
के सदृश हमारे कस्बापुर निवासी भी काँग्रेस के झंडे ले कर सड़कों पर उतर लिए थे।
कुछ उपद्रवी तो कुछ सभ्य।

कुछ का गन्तव्य
स्थान यदि कलेक्ट्रेट रहा करता तो बहुधा का हमारा यह टाऊनहाल।
कारण, यह ब्रिटिश
आधिपत्य का ज्यादा बड़ा प्रतीक था। एक तो उन दिनों इस का नाम ही विक्टोरिया
मेमोरियल हाल था, दूसरे उसके अग्रभाग के ठीक बीचोबीच रानी विक्टोरिया की एक विशाल
मूर्ति स्थापित थी। सैण्डस्टोन, बलुआ पत्थर, में घड़ी, जिस के दोनों हाथ एक बटूए पर
टिके थे। वास्तव में इस टाऊनहाल के गठन की योजना इंग्लैण्ड की तत्कालीन रानी
विक्टोरिया के डायमंड जुबली वाले वर्ष १८९७ में बनी थी। जब उस के राज्याभिषेक के
६० वर्ष पूरे हुए थे। और १९११ में जब एक यह पूरा बन कर तैयार हुआ था तो विक्टोरिया
की मृत्यु हो चुकी थी। सन् १९०१ में। अत: बना विक्टोरिया मेमोरियल हाल।


टाउन हॉल



उस दिन उस जुलूस में
सब से पहले रानी विक्टोरिया की इसी मूर्ति पर हमला बोला था उस के बटुए पर ढेलेबाज़ी
शुरू करते हुए।

टाऊनहाल के अपने
दफ़्तर में बैठे मेयर ने तत्काल उस जुलूस को वहाँ से हटाने के लिए अपने साथ तैनात
पुलिस रक्षादल को उस के प्रदर्शनकारियों पर लाठी चार्ज का आदेश दे डाला था।
परिणाम विपरीत रहा
था। जुलुसियों के हाथ के ढेले मूर्ति छोड़ सीधे टाऊनहाल की खिड़कियों पर लक्षित किये
जाने लगे थे।

मेरे पिता उन दिनों
टाऊनहाल ही में काम करते थे। वहाँ के पुस्तकालय में। उस की दूसरी मंज़िल पर। जिस की
एक बालकनी टाऊनहाल के मुख्य द्वार के ऐन ऊपर बनी हुई थी।

बेकाबू हो रही भीड़
के विकट इरादे देख कर वे उसी बालकनी पर आन खड़े हुए थे। यदृच्छया ढेले फेंक रही
क्रुध्द एवं उत्तेजित भीड़ को संबोधित करने। टाऊनहाल के पब्लिक ऐड्रस, पी. ए.,
सिस्टम की सुविधा का लाभ उठाते हुए। वह सिस्टम लोक भाषण एवं राजकीय अभिनंदन तथा
जनहित घोषणाएं करने हेतु उपयोग में लाया जाता था। यहाँ यह बताता चलूँ कि हमारे इस
टाऊनहाल में उस समय न केवल नगर-विषयक काम काज के दफ्तर थे मगर नगर के मतदान एवं
महत्त्वपूर्ण परीक्षाएं भी वहीँ निष्पन्न की जाती थी। आपदा एवं विपत्ति तथा
टीके-एवं स्वास्थ्य संबंधी घोषणाएं भी वहीँ से जारी होती थी।

विश्वयुद्ध में
हताहत एवं मृत व्यक्तियों की सूचियाँ भी।

और ये घोषणाएं अकसर
मेरे पिता द्वारा की जाती थी। स्वर संगति में पारंगत वे प्रभावोत्पादक एवं
भावपूर्ण आवाज के स्वामी थे। जिस का प्रयोग करना वे बखूबी जानते थे।

“मैं आपका एक भाई
बोल रहा हूँ”, बिना किसी पूर्वाज्ञा अथक पूर्व सूचना के प्रतिकूल उस वातावरण में
अकस्मात जब उनकी आवाज गूंजी थी तो सभी अप्रतिम हो उन्हें सुनने लगे थे, पुलिसियों
और जुलुसियों के हाथ एक साथ रुक लिए थे। “आप ही की तरह गांधीजी का भक्त मैं भी हूँ।
जिन का रास्ता अहिंसा का है, अराजकता का नहीं, सविनय अवज्ञा, सहयोग का है,
आक्रामक, कार्यकलाप का नहीं। हमें ‘चौरीचारा’ यहाँ दोहराना नहीं चाहिए। याद रखना
चाहिए ५ फरवरी, १९२२ को जब यहाँ के पुलिस थाने पर हमारे भाईयों ने हिंसा दिखायी थी
तो हमारे बापू को ५ दिन का उपवास रखना पड़ा था। क्या आप चाहते हैं बापू को उपवास पर
फिर जाना पड़े? जब कि आज वे अधिक वृध्द हैं। शारीरिक रूप से भी अधिक क्षीण। और फिर
यह भी सोचिए, मेरे भाईयों और बहनों, यह टाऊनहाल एक लोक-निकाय है, हमारे लोक-जीवन
की जनोपयोगी सेवाओं का केन्द्र। यह हमारा है। इस के ये गोल गुम्बद, ये चमकीले कलश
ये मेहराबदार छतरियां, ये घंटाघर और इस की ये चारों घड़ियाँ हमारी हैं। यह सब हमारा
है। हम इन्हें क्यों तोड़े-फोड़े? क्यों हानि पहुँचाएँ? यह अंगरेज़ों का नहीं।
उन्हें तो भारत छोड़ना ही है। आज नहीं, तो कल, कल नहीं तो परसों…”

जभी मेरे पिता के
हाथ के माइक्रोफोन का संबंध पी. ए. सिस्टम से टूट गया।

किंतु वे तनिक न
घबराए। यह जानते हुए भी कि ब्रिटिश सरकार अब उन्हें सेवामुक्त कर देगी।
शान्त एवं धीर भाव
से उन्होंने अपने हाथ का माइक्रो फोन बालकनी के जंगले पर टिकाया और हाथ ऊपर उठा कर
चिल्लाएं। ‘महात्मा गाँधी की जय।’

पुलिसियों ने भी
अपनी लाठियां समेटीं और विघटित हो रही भीड़ को टाऊनहाल छोड़ते हुए देखने लगे।

मेरे पिता मुस्कुराए
थे। मानो उन्हें कोई खज़ाना मिल गया हो। उनका टाऊनहाल अक्षुण्ण था और बचा रहा था वह
संग्रहालय, जिस में शहर के ऐतिहासिक स्मारकों एवं विशिष्ट व्यक्तियों के चित्र एवं
विवरण धरे थे। बची रही थीं, पुस्तकालय की दुर्लभ वे पुस्तकें जिन में संसार भर की
विद्वत्ता जमा थी। और जिनका रस वे पिछले पन्द्रह वर्षों से लगातार लेते रहे थे।


दीपक शर्मा 

लेखिका

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फोटो क्रेडिट –शटरस्टॉक 

दीपक शर्मा जी का परिचय –

जन्म -३० नवंबर १९४६

संप्रति –लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज के अंग्रेजी विभाग के प्रोफेसर पद से सेवा निवृत्त
सशक्त कथाकार दीपक शर्मा जी सहित्य जगत में अपनी विशेष पहचान बना चुकी हैं | उन की पैनी नज़र समाज की विभिन्न गतिविधियों का एक्स रे करती है और जब उन्हें पन्नों पर उतारती हैं तो शब्द चित्र उकेर देती है | पाठक को लगता ही नहीं कि वो कहानी पढ़ रहा है बल्कि उसे लगता है कि वो  उस परिवेश में शामिल है जहाँ घटनाएं घट रहीं है | एक टीस सी उभरती है मन में | यही तो है सार्थक लेखन जो पाठक को कुछ सोचने पर विवश कर दे |
दीपक शर्मा जी की सैंकड़ों कहानियाँ विभिन्न पत्र –पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं जिन्हें इन कथा संग्रहों में संकलित किया गया है |

प्रकाशन : सोलहकथा-संग्रह :

१.    हिंसाभास (१९९३) किताब-घर, दिल्ली
२.    दुर्ग-भेद (१९९४) किताब-घर, दिल्ली
३.    रण-मार्ग (१९९६) किताब-घर, दिल्ली
४.    आपद-धर्म (२००१) किताब-घर, दिल्ली
५.    रथ-क्षोभ (२००६) किताब-घर, दिल्ली
६.    तल-घर (२०११) किताब-घर, दिल्ली
७.    परख-काल (१९९४) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
८.    उत्तर-जीवी (१९९७) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
९.    घोड़ा एक पैर (२००९) ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली
१०.           बवंडर (१९९५) सत्येन्द्र प्रकाशन, इलाहाबाद
११.           दूसरे दौर में (२००८) अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद
१२.           लचीले फ़ीते (२०१०) शिल्पायन, दिल्ली
१३.           आतिशी शीशा (२०००) आत्माराम एंड सन्ज़, दिल्ली
१४.           चाबुक सवार (२००३) आत्माराम एंड सन्ज़, दिल्ली
१५.           अनचीता (२०१२) मेधा बुक्स, दिल्ली
१६.           ऊँची बोली (२०१५) साहित्य भंडार, इलाहाबाद
१७.           बाँकी(साहित्य भारती, इलाहाबादद्वारा शीघ्र प्रकाश्य)

ईमेल- dpksh691946@gmail.com

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3 COMMENTS

  1. N Jaane kitne logon ke anam sangharsh se hame swadheenta mili hai, desh bhakti se ot prot sundar kahani…. Kavita bindal

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