वारिस

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 वारिस



अपने बेटे के विवाह के समय से माता -पिता के मन में एक सपना पलने लगता है कि इस घर को एक वारिस मिले जो खानदान के नाम और परंपरा को जीवित रखे | स्वाभाविक है , पर कभी कभी ऐसा भी होता है कि अपनी इस इच्छा की भट्टी में मासूम बहु की सिसकियों की आहुति उन्हें जरा भी नहीं अखरती | 

वारिस



शादी की पहली रात यानि सुहागरात वाले दिन ही मेरे पति ने मेरे ऊपर पानी से भरी एक बाल्टी उढ़ेल दी थी ।वो सर्दी की रात और ठन्डा पानी..मुझे अन्दर तक झकझोर गया था ।


कमरे में आते हुए जब शिव को मैंने देखा था तो चाल ढाल से समझ चुकी थी । कि जिसके साथ मुझे बाँधा गया है वो शायद मन्दबुद्धि है ।


मेरा शायद आज उसकी इस हरक़त से यक़ीन में बदल चुका था ।


मैं बिस्तर से उठकर कमरे के बगल वाली कोठरी में कपड़े बदलने पहुँची तो शिव पीछे-पीछे आ पहुँच था । मैं गठरी बन जाना चाहती थी शर्म से । लेकिन वो मुझे नचाना चाहता था ।


“ ऐ ..नाचो न .., नाचो ..न ..पार्वती ! इसी पेटीकोट में नाचो “ शिव ने जैसे ही कहा मैं हैरत से बोल उठी थी..
“ क्यों ? तुम अपनी पत्नि को क्यों नचाना चाहते हो “


“ वो ..न … तब्बू तो ऐसे ही नाचती है न ..जीनत भी नाचती है ..मुंशी जी मुझे ले जाते हैं अपने साथ “ शिव बच्चे की तरह खिलखिलाकर बोल उठा था..।


और मुझे नौकरों के बूते पर पले बच्चे की परवरिश साफ नज़र आ रही थी …जिसके घर पर शादी में रंडी नचाना रहीसी था , तो उसके बच्चे का हश्र तो ये होना ही था ।


मैं समझ चुकी थी आज से मेरे भाग्य फूट गये हैं । पिता जी को कितना बड़ा धोखा दिया था उनके ही रिश्तेदार ने ये सम्बन्ध करवा कर ।


जमींदार सेठ ईश्वरचंद के घर में उनके इकलौते बेटे को ब्याही पार्वती सिसक उठी थी …
“ हे ईश्वर ये तूने क्या किया ..मेरी किस्मत तूने किसके साथ बाँध दी …” अनायास ही उसके मुंह से निकल पड़ा था …।
सुबह सेठानी के पैर छूने झुकी तो “ दुधो नहाओ.. पूतों फलो “ ये कहते हुये मुझे गले का हार देते हुये सेठानी बड़े मीठे स्वर में बोली …..धैर्य से काम लेना बहुरिया ।
पड़ोस में मुंह दिखाई का बुलावा देकर लौटी चंपा ने मुझे कनखियों से जैसे ही देखा मैं समझ गयी थी कि ये भी जानना चाहती है कुछ ..
“ काहे भाभी बिटवा कछु कर सके या कोरी ही लौट जईहो “ चंपा का सवाल मुझे बिच्छू के डंक की तरह लगा था । मैं चुप रह गयी थी ।
दूसरी बिदा में जब ससुराल आई थी तो सेठ जी ने पहले दिन ही कहला दिया था सेठानी से ..,,
“ हमारे घर की बहुएं मुंशी , कारिन्दों के आगे मुंह खोल कर नहीं रहती हैं कह देना बहू से । “


छह महीने बीत गये थे , शिव को कोई मतलब नहीं था मुझसे ..होता भी कैसे ? वो मर्द होता तो ही होता न …..
अचानक एक दिन ….
” बहू से कह दो सेठानी ..! हमारे दोस्त का लड़का आयेगा । उसकी तीमारदारी में कोई कमी न रखे “ सेठ जी ने कहा और अपने कमरे में चले गये..
मैं घूँघट की ओट में सब कुछ समझ चुकी थी ।
“ये दोगला समाज अपनी साख रखने के लिए अपनी बहू और बेटियों को दाव पर लगाने से भी नहीं चूकता । “
और , मैं उस रात एक अजनबी और उस व्यक्ति को सौंप दी गयी थी जो इस घर को वारिस दे सके…..

( कुसुम पालीवाल, नोयडा)


लेखिका



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