होड़

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कहानी -होड़


आज बाल दिवस है | फूल से मासूम बच्चे , जो कल देश का भविष्य बनेंगे | ना जाने कितने सपने हैं इनकी आँखों में , वो सपने जो अमीर -गरीब नहीं देखते , बड़ा -छोटा नहीं देखते दुनिया की असलियत से बेखबर होड़ लगाने लगते हैं उनके सपनों से जिनके पास ताकत है , रुतबा है , पैसा है इनके सपनों को दबा देने की | क्या हम सब नहीं जानते कि कितने प्रतिभाशाली बच्चों की प्रतिभा उन्हीं के सरपरस्तों ने नेस्तनाबूत करने की कोशिश की | हम एकलव्य की मार्मिक कहानी पढ़ते हैं पर सीखते नहीं …और नए एकलव्य तैयार होते जाते हैं | आज बाल दिवस पर हम लाये हैं सुप्रसिद्ध लेखिका दीपक शर्मा जी की दिल को झकझोर देने वाली ऐसी ही कहानी ….

होड़



किशोर का दुर्भाव और अपना अभाव
बार-बार मेरे सामने आ खड़ा होता है|

मेरा उससे ज़्यादा पॉइंट
हासिल करना क्यों गलत था?

किशोर क्यों सोचता था मैं
अपने को मनफ़ी कर दूँ? घटा लूँ? उससे कमतर रहने की चेष्टा करूँ?

क्योंकि धोबी मेरे बप्पा
मामूली चिल्हड़ के लिए बेगानों के कपड़े इस्तरी किया करते हैं? क्योंकि मेहरिन मेरी
माँ मामूली रुपल्ली के पीछे बेगानों के फ़र्श और बरतन चमकाया करती हैं?

क्या हम एक ही मानव जाति के
बन्दे नहीं? एक ही पृथ्वी के बाशिन्दे?

मुकाबला शुरू किया मेरे
कौतुहल ने!


“सिटियस,’ ‘औलटियस,’ ‘फौरटियस’ शाम पाँच बजे
प्रिंसीपल बाबू अपने बेटे, किशोर को 
कसरत कराया करते थे| जिस कमरे में किशोर कसरत करता
था उसकी एक खिड़की हमारे क्वार्टर की तरफ़ खुलती थी| स्पोर्ट्स कॉलेजके प्रिंसीपल बाबू
के बंगले के पिछवाड़े बने पाँच क्वार्टरों में से एक में हम रहते थे- बप्पा, माँ और
मैं| बप्पा कपड़े की प्रेस चलाते थे, माँ बंगले में काम करती थी और मुझे स्कूल में
पढ़ाया जा रहा था| सातवीं जमात तक पहुँचते पहुँचते मैं उन तीनों लातिनी शब्दों के
अर्थ जान चुका था, जिन्हें ओलम्पिक खेलों में लोग एक मोटो, एक आदर्श-वाक्य की तरह
मानते और बोलते रहे हैं : ‘सिटियस’ माने‘और तेज़’, ‘औलटियस’ माने‘और ऊँचा’, ‘फ
र्टियस’ माने‘और ज़ोरदार’|

“धोबीका लड़का इधर देख रहा
है,” तीन माह पूर्व किशोर ने मुझे अपने कमरे की खिड़की के बाहर से अन्दर झाँकते हुए
पकड़ लिया था|

“इधर आओ,” प्रिंसीपल साहब
ने मुझे खिड़की से अन्दर बुलाया था|
“प्रणाम सर जी…..”
मैंने उन्हें सलाम ठोंका था|

“यह क्या है?” किशोरअपनी
कसरत एक मेज़ जैसे ढाँचे पर करता था जिसकी दोनों टाँगें फ़र्श से चिपकी रहतीं और जिसके
ऊपरी तल पर दो फ़िक्स हत्थे खड़े रहते| ढाँचे पर किशोर हाथ के बल सवार होता और एक
हत्थे पर दोनों हाथ टिका कर अपना धड़ और दोनों पैर हवा ले जाता और फिर अपने पैर जोड़कर
गोल छल्ले बनाता हुआ घूमता| कभी दायीं दिशा में| तो कभी बाँयी दिशा में| फिर एक
हाथ छोड़ते समय पैरों की कैंची बनाता और दूसरे हत्थे पर पुनः दोनों हाथ जा टिकाता
और दोनों पैर फिर से जोड़ता और गोलाई में चक्कर काटने लगता : दायीं दिशा में| बाँयी
दिशा में|

“यह कसरत वाली मेज़ है, सर
जी,” मैंने कहा|
“यह पमेल हॉर्स है, ईडियट,”
किशोर हँसा|
“तुम इसकी सवारी करोगे?”
प्रिंसीपल साहब ने मुझ से पूछा|

“जी, सर जी,” मैं तत्काल
राज़ी हो गया| ढाँचे की ऊँचाई बप्पा की प्रेस की मेज़ से बहुत ज़्यादा थी और उसकी
चौड़ाई बहुत कम| यहाँ यह बता दूँ, किशोर की कसरत मैं अकसर मौका पाते ही अपने बप्पा
की मेज़ पर दोहराने का प्रयास करता रहा था| शुरू में बेशक वह बहुत मुश्किल रहा था|
लेकिन धीरे धीरे हाथों के बल मैं इकहरा चक्कर तो काट ही ले जाता| हाँ, किशोर की
तरह दोहरा चक्कर काटते समय मिले हुए मेरे पैरों का जोड़ ज़रूर टूट-टूट जाता|

उछल कर मैंने उस पमेल हॉर्स की ऊँचाई फलांग
ली और बाँए हत्थे पर अपने हाथ जा टिकाए| उस हत्थे की टेक मुझे क्या मिली मेरे पैर
और धड़ पंखों की मानिन्द हल्के हो कर बाँयी दिशा में घूम लिए, दायीं दिशा में घूम
लिए मानो उस हत्थे में कोई लहर थी जो हवा में मुझे यों लहराती चली गयी|
“तुम्हारे शरीर में अच्छी
लचक है,” प्रिंसीपल बाबू गम्भीर हो चले, “लेकिन तुम्हारे पैर अभी अनाड़ी हैं| सही
दिशा नहीं जानते| सही नियम नहीं जानते| सही लय नहीं जानते| अभी उन्हें बहुत सीखना
बाकी है…..”
“मैं आपसे सीख लूँगा, सर
जी,” मैं प्रिंसीपल बाबू के चरणों पर गिर गया, “मुझे यह कसरत बहुत अच्छी लगती है, सर
जी…..”
मैं सीखने लगा| झूलना-डोलना|
उठना-गिरना| हाथ की टेक| हत्थों की टेक| हवा की टेक| पैर की टेक| धड़ की टेक| नयी
छलाँगें| नयी कलाबाज़ियाँ| नयी युक्तियाँ| उनके नए-नए नाम : स्विंगिंग, टम्बलिंग,
हैंड प्लेसमेंट्स, बॉडी प्लेसमेंट्स…..
सब से मैंने अपनी पहचान बढ़ा
ली…..

“अगले सप्ताह हमारे
कस्बापुर में एक जिमन
स्टिक्स प्रतियोगिता आयोजित हो रही है,”
जभी एक दिन प्रिंसीपलबाबू ने किशोर को व मुझे सूचना दी, “लखनऊ उन्हें एक ही पामेलहॉर्स जिमन
स्ट
भेजना है और मैं चाहता हूँ किशोर ही उसमें चुना जाए|
चिरंजी को इसलि ए साथ ले जाना चाहता हूँ ताकि पामेलहॉर्स प्रतियोगिता में प्रतिभागी की गिनती भी पूरी हो जाए और यह किशोर को विजय दिलाने के लिएअपने तीन पूरे नहींले…..”

“जी, सरजी,”
मेरा जी खट्टा हुआ मगर मैं अपने जी की हालत छिपा ले गया|

“तुम्हारे मांगे बिना मैंने तुम्हारे लिए किशोर की पुरानी जिमनस्टिक पोशाक तैयार करवायी
है,” प्रिंसीपल बाबू ने मुझे ललचाना चाहा|

“जी, सर जी,” मुझ से उत्साह
दिखाए न बना|

उसी शाम जब मुझे पोशाक के
लिए बंगले के अन्दर बुलाया गया तो बहुत कोशिश के बावजूद मेरे माप के मोज़े व
स्लीपर्ज़ न मिल सके|
“नंगे पैर जाने में कोई
हर्ज नहीं,” प्रिंसीपल बाबू ने कहा|
“नहीं, सर जी” मैंनेसिर
झुका लिया|
“एकलव्य की कहानी जानते हो?”
किशोर हँस कर पिता की ओर देखने लगा|
“एकलव्य?” मेरा दिल धक्क से
बैठ गया| एक नया डर, एक नयी फ़िकर मेरे मन में आन बैठी, “प्रिंसीपल बाबू ने
गुरु-दक्षिणा में मेरी उँगली मुझ से छीन ली तो?”


कहानी-होड़


प्रतियोगिता के दिन जैसे ही
मेरे पैर और मेरा धड़ ज़मीन से छूट कर हवा में लहराया, मेरा शरीर एक दूसरी
आज्ञाकारिता के हवाले हो गया| सभी चेहरे धुँधले पड़ गए| सभी निर्देश, सभी आग्रह
पीछे छूट गए| एक दु:साहस ने मुझे अपनी मूठ में ले लिया|

नीचे की दुनिया अजनबी हो
गयी और वह अजनबी दुनिया मेरी| मुझे लगा मैं वहीं का निवासी  था और इन्हीं कलाबाज़ियों के लिए मैंने जन्म
लिया था| मेरा ज़ोर भाग्य पर न था न सही| दुनिया की ऊँच-नीच पर न था, न सही|
मेरा ज़ोर इन कलाबाज़ियों में
निहित था और इन्हीं को मुझे प्राण देने थे, लय देनीथी, लाइन देनी थी, आत्मा देनी
थी|
खेल की प्रथा के अनुसार कोच
को खिलाड़ी से बात करने नहीं दी जाती है और इसी वजह से प्रिंसीपल बाबू मेरे दृष्टि
क्षेत्र में नहीं रहे थे और मैं ‘परफ़ेक्ट स्कोर’ पा ले गया था|

कहानी -होड़




पूरी बधाई लूटी प्रिंसीपल
बाबू ने : हमारे स्पोर्ट्स कॉलेज के प्रिंसीपल बाबू ने आज दोबारा इतिहास बनाया है|
एक इतिहास उन्होंने सन
१९७६में रचा था जब ओलम्पिक खेलों की पमेल हॉर्स प्रतियोगिता में इन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व
किया था और एक इतिहास उन्होंने आज रचा है- एकलव्य की कहानी पलटकर| धोबी के उस
पुत्र को उन्होंने न केवल प्रशिक्षण दिया बल्कि उसकी ट्रेनिंग का पूरा खर्चा भी
उठाया| उनके पुत्र का आज द्वितीय स्थान मिला है और उसे प्रथम| आप समझ सकते हैं दोनों
लड़कों को साम्यभाव से कोचिंग देना उनके लिए कितनी बड़ी चुनौती रही होगी| कितनी बड़ी परीक्षा
रही होगी और यह उनकी कितनी बड़ी उपलब्धि है जो इस कसौटी पर वह यों खरे उतरे…..”
जवाब में प्रिंसीपल बाबू ने
सबके सामने मेरी पीठ थपथपायी तो मेरी निगाह किशोर के चेहरे परजा ठहरी|
उसकी आँखों में मेरे लिए
वैर झलक रहा था|
मैं परेशान हो उठा!

बंगले पर लौटते ही
प्रिंसीपल बाबू ने मेरे बप्पा को क्वार्टर खाली करने का आदेश दे दिया, “तुम तीनों
में से कोई एक भी अगर मुझे इस कॉलेज के आसपास भी दिखाई दिया तो मैं पुलिस बुलवा
भेजूँगा…..”
हाथ जोड़ कर बप्पा ने उनका
आदेश ग्रहण किया और हम तीनों वहाँ से इधर इस नयी आबादी में चले आए|

अपने स्कूल के पुस्तकालय
में रखे सभी अखबारों के खेल-समाचार मैं नियमित रूप से पढ़ता हूँ और उस दिनकी
प्रतीक्षा करता हूँ जब मुझे लखनऊ की पामेल हॉर्स एक्सरसाइज़ का न्यौताआएगा|
मुझे विश्वास है लखनऊ मेरे
लिए कुछ न कुछ ज़रूर करेगा|
वहाँ भी एक स्पोर्ट्स कॉलेज
है न!


दीपक शर्मा 

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लेखिका -दीपक शर्मा




अंतिम इच्छा

घूरो , चाहे जितना घूरना है

किट्टी पार्टी

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दीपक शर्मा जी का परिचय –

जन्म -३० नवंबर १९४६

संप्रति –लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज के अंग्रेजी विभाग के प्रोफेसर पद से सेवा निवृत्त
सशक्त कथाकार दीपक शर्मा जी सहित्य जगत में अपनी विशेष पहचान बना चुकी हैं | उन की पैनी नज़र समाज की विभिन्न गतिविधियों का एक्स रे करती है और जब उन्हें पन्नों पर उतारती हैं तो शब्द चित्र उकेर देती है | पाठक को लगता ही नहीं कि वो कहानी पढ़ रहा है बल्कि उसे लगता है कि वो  उस परिवेश में शामिल है जहाँ घटनाएं घट रहीं है | एक टीस सी उभरती है मन में | यही तो है सार्थक लेखन जो पाठक को कुछ सोचने पर विवश कर दे |
दीपक शर्मा जी की सैंकड़ों कहानियाँ विभिन्न पत्र –पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं जिन्हें इन कथा संग्रहों में संकलित किया गया है |

प्रकाशन : सोलहकथा-संग्रह :

१.    हिंसाभास (१९९३) किताब-घर, दिल्ली
२.    दुर्ग-भेद (१९९४) किताब-घर, दिल्ली
३.    रण-मार्ग (१९९६) किताब-घर, दिल्ली
४.    आपद-धर्म (२००१) किताब-घर, दिल्ली
५.    रथ-क्षोभ (२००६) किताब-घर, दिल्ली
६.    तल-घर (२०११) किताब-घर, दिल्ली
७.    परख-काल (१९९४) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
८.    उत्तर-जीवी (१९९७) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
९.    घोड़ा एक पैर (२००९) ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली
१०.           बवंडर (१९९५) सत्येन्द्र प्रकाशन, इलाहाबाद
११.           दूसरे दौर में (२००८) अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद
१२.           लचीले फ़ीते (२०१०) शिल्पायन, दिल्ली
१३.           आतिशी शीशा (२०००) आत्माराम एंड सन्ज़, दिल्ली
१४.           चाबुक सवार (२००३) आत्माराम एंड सन्ज़, दिल्ली
१५.           अनचीता (२०१२) मेधा बुक्स, दिल्ली
१६.           ऊँची बोली (२०१५) साहित्य भंडार, इलाहाबाद
१७.           बाँकी(साहित्य भारती, इलाहाबादद्वारा शीघ्र प्रकाश्य)

ईमेल- dpksh691946@gmail.com

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