मिरगी

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कहानी -मिर्गी

मनुष्य केवल एक शरीर ही नहीं मन भी है |  आपने कई किस्से सुने होंगे जब बुरी तरह बीमार शरीर भी मन की मजबूती के कारण असाध्य बीमारी से लड़ कर बाहर आ गया, वहीँ घायल मन ने स्वस्थ शरीर में बीमारी के ऐसे लक्षण पैदा कर दिए कि डॉक्टर भी समझने में भूल कर जाए | वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी मिरगी एक मनोशारीरिक समस्या को झेलती बच्ची की कहानी है | अपनी हर कहानी की तरह दीपक शर्मा जी ने इस कहानी को भी तथ्यों की काफी पड़ताल के बाद लिखा है | वहीँ एक मासूम बच्ची के मन में उतरते हुए उनकी लेखनी  पाठक को थोड़ी देर को स्थिर कर देती है | आप भी पढ़ें …

कहानी -मिरगी 

उस निजी अस्पताल के
न्यूरोलॉजी विभाग का चार्ज लेनेके कुछ ही दिनों बाद कुन्ती का केस मेरे पास आया
था|

“यहपर्ची यहीं के एक
वार्ड बॉय की भतीजी की है, मैम|”
उस दिन की ओपीडी पर मेरे संग बैठे मेरे जूनियर ने एक नयी पर्ची मेरे सामने रखते हुए कहा|

“कैसा केसहै?”
मैंनेपूछा|


“वार्डबॉय मिरगी बता रहा है|
लड़की साथ लेकरआया है…..”


“ठीकहै| बुलवाओउसे…..”

वार्ड बॉय ने अस्पताल की वर्दी के साथ अपने नाम का बिल्ला पहन रखा था:
अवधेशप्रसादऔर पर्ची कुन्ती का नाम लिए थी|


“कुन्ती?” मैंने
लड़की को निहारा| वह बहुत दुबली थी| एकदम सींकिया| “क्या उम्र है?”


“चौदह”, उसने मरियल
आवाज में जवाब दिया|


“कहीं पढ़ती हो?”
मैंने पूछा|


“पहले पढ़ती थी, जब
माँ थी, अब नहीं पढ़ती|” उसने चाचा को उलाहना भरी निगाह से देखा|
“माँ नहीं है?”
मैंने अवधेश प्रसाद से पूछा|


“नहीं, डॉ. साहिबा|
उसे भी मिरगी रही| उसी में एक दौरे के दौरान उसकी साँस जो थमी तो, फिर लौटकर नहीं
आयी…..”


“और कुन्ती के पिता?
“पत्नी के गुजरने के
बाद फिर वह सधुवा लिए| अब कोई पता-ठिकाना नहीं रखते| कुन्ती की देखभाल अब हमारे ही
जिम्मे है…..”
“कब से?”


“चार-पांच माह तो हो
ही गए हैं…..”


“तुम्हें अपनी माँ
याद है?” मैं कुन्ती की ओर मुड़ ली|
“हाँ…..” उसने
सिरहिलाया|
“उन पर जब मिरगी
हमला बोलती थी तो वह क्या करती थीं?”


कुन्ती एकदम हरकत
में आ गयी मानो बंद पड़े किसी खिलौने में चाबी भर दी गयी हो|


तत्क्षण वह जमीन पर
जा लेटी| होंठ चटकाए, हाथ-पैर पसारे, सिकोड़े, फिर पसारे और इस बार पसारते समय अपनी
पीठ भी मोड़ ली, फिरपहले छाती की माँसपेशियाँ सिकोड़ीं और एक तेज कंपकंपी के साथ
अपने हाथ-पैर दोबारा सिकोड़ लिए, बारी-बारी से उन्हें फिर से पसारा, फिर से सिकोड़ा|
बीच-बीच में कभी अपनी साँस भी रोकी और छोड़ी कभी अपनी ज़ुबान भी नोक से काटी तो कभी दाएं-बाएं
से भी|


कुन्तीके
मन-मस्तिष्क ने अपनी माँ की स्मृति के जिस संचयन को थाम रखा था उसकामुख्यांश अवश्य
ही उस माँ की यही मिरगी रही होगी, जभी तो ‘टॉनिक-क्लौनिक-सीजियर’ के सभी चरण वह
इतनी प्रामाणिकता के साथ दोहरा रही थी!
“तुम कुछ भी भूली
नहीं?” मैंने कहा|


“नहीं”, वह तत्काल उठ
खड़ी हुई और अपने पुराने दुबके-सिकुड़े रूप में लौट आयी|
“और तुम्हारी माँ भी
इसी तरह दौरे से एकदम बाहर आ जाया करती थीं?” मैंने उसकी माँ की मिरगी की गहराई
नापनी चाही क्योंकि मिरगी के किसी भी गम्भीर रोगी को सामान्य होने मेंदस से तीस
मिनट लगते ही लगते हैं|


उत्तर देने की बजाय
वह रोने लगी|
“उसका तो पता नहीं,
डॉक्टर साहिबा, मगर कुन्ती जरूर जोर से बुलाने पर या झकझोरने पर उठकर बैठ जाती है|”
अवधेश प्रसाद ने कहा|
“इस पर्ची पर मैं एक
टेस्ट लिख रही हूँ, यह करवा लाओ|” कुन्तीकी पर्ची पर मैंने ई.ई.जी….. लिखते हुए
अवधेश प्रसाद से कहा|
“नहीं, मुझेकोई
टेस्ट नहीं करवाना है| टेस्ट से मुझे डर लगता है|” कुन्ती काँपने लगी|
“तुम डरो नहीं|”
मैंने उसे ढांढस बंधाया, “यह ई.ई.जी. टेस्ट बहुत आसान टेस्ट है, ई.ई.जी. उस इलेक्ट्रो-इनसे-फैलोग्राम
को कहते हैं जिसके द्वारा इलेक्ट्रो-एन-से-फैलोग्राफ नाम के एक यंत्र से दिमाग की
नस कोशिकाओं द्वारा एक दूसरे को भेजी जा रही तरंगें रिकॉर्ड की जाती हैं| अगर हमें
यह तरंगें बढ़ी हुई मिलेंगी तो हम तुम्हें दवा देंगे और तुम ठीक हो जाओगी, अपनी पढ़ाई
फिर से शुरू कर सकोगी…..”
“नहीं|” वह अड़ गयी
और जमीन पर दोबारा जा लेटी| अपनी माँसपेशियों में दोबारा ऐंठन और फड़क लाती हुई|
“बहुत जिद्दी लड़की
है, डॉक्टर साहिबा|” अवधेश प्रसाद ने कहा, “हमीं जानते हैं इसने हम सभी को कितना
परेशान कररखा है…..”


“आप सभी कौन?” मुझे
अवधेश प्रसाद के साथ सहानुभूति हुई|


“घर पर पूरा परिवार
है| पत्नी है, दो बेटे हैं, तीन बेटियाँ हैं| सभी का भार मेरे ही कंधों पर है…..”
“आप घबराओ नहीं|
अपने वार्ड में अपनी ड्यूटी पर जाओ और कुन्ती को मेरे सुपुर्द कर जाओ| इसके
टेस्ट्स का जिम्मा मैं लेती हूँ|”
कुन्ती का केस मुझे
दिलचस्प लगा था और उसे मैं अपनी नयी किताब में रखना चाहती थी|
“आप बहुत दयालू हैं,
डॉक्टर साहिबा|” अवधेश प्रसाद ने अपने हाथ जोड़ दिये|
“तुम निश्चिन्त रहो|
जरूरत पड़ी तो मैं इसे अपने वार्ड में दाखिल भी करवा दूँगी|” मैंने उसे दिलासादिया
और अपने जूनियर डॉक्टर के हाथ में कुन्ती की पर्ची थमा दी|



कहानी मिर्गी


कुन्ती का ई.ई.जी.
एकदम सामान्य रहा जबकि मिरगी के रोगियों के दिमाग की नस-कोशिकाओं की तरंगों में
अतिवृद्धि आ जाने ही के कारण उनकी माँसपेशियाँ ऐंठकरउसे भटकाने लगती हैं और रोगी
अपने शरीर पर अपना अधिकार खो बैठता है|
ई.ई.जी. के बाद हमने
उसकी एम.आर.आईऔर कैट स्कैन से लेकर सी.एस.एफ, सेरिब्रल स्पाइनल फ्लुइड और ब्लड
टेस्ट तक करवा डाले किन्तु सभी रिपोर्टें एक ही परिणाम सामने लायीं-कुन्ती का
दिमाग सही चल रहा था| कहीं कोई खराबी नहीं थी|
मगर कहीं कोई गुप्त
छाया थी जरूर जो कुन्ती को अवधेश प्रसाद एवं उसके परिवार की बोझिल दुनिया से निकल
भागने हेतु मिरगी के इस स्वांग को रचने-रचाने का रास्ता दिखाए थी|
उस छाया तक पहुँचना
था मुझे|
“तुम्हारी माँ क्या
तुम्हारे सामने मरी थीं?” अवसर मिलते ही मैंने कुन्ती को अस्पताल के अपने निजी
कक्ष में बुलवा भेजा|
“हाँ|” वह रुआँसी हो
चली|
“तुम्हारे पिता भी
वहीं थे?”
“हाँ|”
“मिरगी का दौरा
उन्हें अचानक पड़ा?” मैं जानती थी मिरगी के चिरकालिक रोगीको अकसर दौरे का पूर्वाभास
हो जाया करता है, जिसे हम डॉक्टर लोग‘औरा’ कहा करते हैं| हालाँकि एक सच यह भी है
कि भावोत्तेजक तनाव दौरे को बिना किसी चेतावनी के भी ला सकता है|
“हाँ…..” उसने
अपना सिर फिर हिला दिया|
“किस बात पर?”
“बप्पाउस दिन माँ की
रिपोर्टें लाये थे और वे उन्हें सही बता रहे थे और माँ उन्हें झूठी…..”
“रिपोर्टेंमिरगी के
टेस्ट्स की थीं? और उनमें मिरगी के लक्षण नहीं पाए गए थे?”
“हाँ|” वह फफककर रो
पड़ी|
“और उन्हें झूठी
साबित करने के लिए तुम्हारी माँ ने मिरगी का दौरा सचमुच बुला लिया था?”
कुन्ती की रुलाई ने
जोर पकड़ लिया|
अपनी मेज कीघंटी
बजाकर मैंने कुन्ती के लिए एक ठंडा पेय अपने कक्ष के फ्रिज से निकलवाया, उसे पेश
करने के लिए|
उससे आगे कुछ भी
पूछना उसकेआघातका उपभोग करने के बराबर रहता|
“कुन्ती के बारे में
आप क्या कहेंगी, डॉक्टर साहिबा?” अवधेशप्रसाद मेरे पास अगले दिन आया|


कुन्ती नहीं आयी?”
मैंने पूछा|
“नहीं, डॉक्टर
साहिबा| वह नहीं आयी| मिरगी के दौरे से गुजर रही थी, सो उसे घर ही में आराम करने
के लिए छोड़ आया…..”
“और अगर मैं यह कहूँ
कि उसे मिरगी नहीं है तो तुम क्या कहोगे? क्या करोगे?”


“हम कुछ नहीं
करेंगे, कुछ नहीं कहेंगे|” हताश होकर वह अपने हाथ मलने लगा|
“हैरानी भी नहीं
होगी क्या? भतीजी पर गुस्सा भी न आएगा?”
“हैरानी तो तब होती
जब हम उसकी माँ का किस्सा न जाने रहे होते|”
“माँ का क्या किस्सा
था?” मैं उत्सुक हो आयी|

“उसे भी मिरगी नहीं
थी| वह भी काम से बचने के लिए मिरगी की आड़ में चली जाती थी|”
“किस काम से बचना
चाहती थी?”





“इधर कुछेक सालों से
भाई के पास ढंग की कोई नौकरी नहीं थी और उसने भौजाई को पांच छह घरों के चौका-बरतन
पकड़वा दिए थे, और भौजाई ठहरी मन मरजी की मालकिन| मन होता तो काम पर जाती, मन नहीं
होता तो मिरगी डाल लेती…..”


“यह भी तो हो सकता
है कि ज्यादा काम पड़ जाने की वजह से उसका दिमाग सच ही में गड़बड़ा जाता हो, उलझ जाता
हो और उसे सच ही में मिरगी आन दबोच लेती हो…..”


“यही मानकर ही
तो भाई उस तंगहाली के रहते हुए भी भौजाई को डॉक्टर के पास लेकर गया थाऔर डॉक्टर के
बताए सभी टेस्ट भी करवा लाया था…..”


“और टेस्ट्समें
मिरगी नहीं आयीथी?” कुन्तीके कथन का मैंने पुष्टिकरण चाहा|
“नहीं, नहींआयी थी|”
“मगर तुमने तो मुझे
आते ही कहा था मिरगी ही की वजहसे तुम्हारी भौजाई की साँस रुक गयी थी…..”


कहानी मिर्गी






“अब क्या बतावें? और
क्या न बतावें? उधर भाई के हाथ में रिपोर्टें रहीं और इधर भौजाई ने स्वांग भर
लिया| भाई गुस्सैल तो था ही, तिस पर एक बड़ी रकम के बरबाद हो जाने का कलेश| वह
भौजाई पर टूट पड़ा और अपना घर-परिवार उजाड़ बैठा…..” अवधेश प्रसाद के चेहरे पर
विषाद भी था और शोक भी|
“तुम्हारा दुख मैं
समझ सकती हूँ|” मैंने उसे सांत्वना दी|
“साथ ही कुन्ती का
भी, बल्कि उसके दुख में तो माँ की मौत की सहम भी शामिल होगी| तभी तो वह आज भी सदमे
में है और उसी सदमे और सहम के तहत वह माँकी मिरगी अपने शरीर में उतार लाती है|
मेरी मानो तो तुम उसकी पढ़ाई फिर से शुरू करवा दो….. स्कूल का वातावरण उसके मन के
घाव पर मरहम का काम करेगा और जब घाव भरने लगेगा तो वह मिरगी विरगी सब भूल जाएगी…..”
“मैं उसे स्कूल भेज
तो दूँ मगर मेरी पत्नी मुझे परिवर के दूसरे खरचे न गिना डालेगी!” अवधेश प्रसाद ने
मुझे विश्वास में लेते हुए कहा| उसका भरोसा जीतने में मैं सफल रही थी|
“उसकी चिन्ता तुम
मुझ पर छोड़ दो| उसकी डॉक्टर होने के नाते उसके स्कूल का खर्चा तो मैं उठा ही सकती
हूँ…..”



दीपक शर्मा 

लेखिका -दीपक शर्मा





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दीपक शर्मा जी का परिचय –

जन्म -३० नवंबर १९४६

संप्रति –लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज के अंग्रेजी विभाग के प्रोफेसर पद से सेवा निवृत्त
सशक्त कथाकार दीपक शर्मा जी सहित्य जगत में अपनी विशेष पहचान बना चुकी हैं | उन की पैनी नज़र समाज की विभिन्न गतिविधियों का एक्स रे करती है और जब उन्हें पन्नों पर उतारती हैं तो शब्द चित्र उकेर देती है | पाठक को लगता ही नहीं कि वो कहानी पढ़ रहा है बल्कि उसे लगता है कि वो  उस परिवेश में शामिल है जहाँ घटनाएं घट रहीं है | एक टीस सी उभरती है मन में | यही तो है सार्थक लेखन जो पाठक को कुछ सोचने पर विवश कर दे |
दीपक शर्मा जी की सैंकड़ों कहानियाँ विभिन्न पत्र –पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं जिन्हें इन कथा संग्रहों में संकलित किया गया है |

प्रकाशन : सोलहकथा-संग्रह :

१.    हिंसाभास (१९९३) किताब-घर, दिल्ली
२.    दुर्ग-भेद (१९९४) किताब-घर, दिल्ली
३.    रण-मार्ग (१९९६) किताब-घर, दिल्ली
४.    आपद-धर्म (२००१) किताब-घर, दिल्ली
५.    रथ-क्षोभ (२००६) किताब-घर, दिल्ली
६.    तल-घर (२०११) किताब-घर, दिल्ली
७.    परख-काल (१९९४) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
८.    उत्तर-जीवी (१९९७) सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
९.    घोड़ा एक पैर (२००९) ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली
१०.           बवंडर (१९९५) सत्येन्द्र प्रकाशन, इलाहाबाद
११.           दूसरे दौर में (२००८) अनामिका प्रकाशन, इलाहाबाद
१२.           लचीले फ़ीते (२०१०) शिल्पायन, दिल्ली
१३.           आतिशी शीशा (२०००) आत्माराम एंड सन्ज़, दिल्ली
१४.           चाबुक सवार (२००३) आत्माराम एंड सन्ज़, दिल्ली
१५.           अनचीता (२०१२) मेधा बुक्स, दिल्ली
१६.           ऊँची बोली (२०१५) साहित्य भंडार, इलाहाबाद
१७.           बाँकी(साहित्य भारती, इलाहाबादद्वारा शीघ्र प्रकाश्य)

ईमेल- dpksh691946@gmail.com

4 COMMENTS

  1. बहुत सधी हुई लेखनी। बहुत दिनों बाद फेसबुक पर कुछ अच्छा पढ़ने को मिला 😊😊💐💐

  2. इस कहानी के माध्यम से मिर्गी और मानसिक रोग के बीच के अंतर को बहुत ही अच्छे तरीके से समझाया गया है। एक बेहतरीन और ज्ञानवर्धक कहानी ……..

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