
नाम - संगीता पाण्डेय
सम्प्रति :अध्यापन
शैक्षिक योग्यता - अंग्रेजी , शिक्षाशास्त्र तथा राजनीती विज्ञानं में परास्नातक ,
शैक्षिक योग्यता - अंग्रेजी , शिक्षाशास्त्र तथा राजनीती विज्ञानं में परास्नातक ,
शिक्षाशास्त्र विषय में नेट परीक्षा उत्तीर्ण , पी एच डी हेतु नामांकित।
मेरा परिचय .............
साहित्य प्रेमी माता - पिता की संतान होने के कारण बचपन से ही मेरा भी रुझान साहित्य में रहा। कवि सम्मेलनों में जाना और काव्य पाठ सुनना ही कवितायेँ लिखने हेतु मेरी प्रेरणा के स्रोत बने। अंग्रेजी साहित्य में परास्नातक करते समय कवितायेँ लिखने का श्री गणेश हुआ।
वैसे तो प्रकृति में व्याप्त प्रत्येक वस्तु मुझे आकर्षित करती है। किन्तु मानव स्वाभाव तथा मानवीय सम्बन्ध मेरी जिज्ञासा का विषय रहें हैं। उपकरणीय जटिलताओं और विद्रूपताओं ने मानवीय संबंधों के समीकरण को यांत्रिक बना दिया। सबकुछ स्थायी एवं सुविधापूर्ण बनाने की लालसा ने मानवीय संवेदनाओं को बुरी तरह से प्रभावित किया। मुझे ऐसी परिस्थितियां सदैव कुछ कहते रहने को विवश करती रहीं।
साहित्य प्रेमी माता - पिता की संतान होने के कारण बचपन से ही मेरा भी रुझान साहित्य में रहा। कवि सम्मेलनों में जाना और काव्य पाठ सुनना ही कवितायेँ लिखने हेतु मेरी प्रेरणा के स्रोत बने। अंग्रेजी साहित्य में परास्नातक करते समय कवितायेँ लिखने का श्री गणेश हुआ।
वैसे तो प्रकृति में व्याप्त प्रत्येक वस्तु मुझे आकर्षित करती है। किन्तु मानव स्वाभाव तथा मानवीय सम्बन्ध मेरी जिज्ञासा का विषय रहें हैं। उपकरणीय जटिलताओं और विद्रूपताओं ने मानवीय संबंधों के समीकरण को यांत्रिक बना दिया। सबकुछ स्थायी एवं सुविधापूर्ण बनाने की लालसा ने मानवीय संवेदनाओं को बुरी तरह से प्रभावित किया। मुझे ऐसी परिस्थितियां सदैव कुछ कहते रहने को विवश करती रहीं।
भावुक ह्रदय संगीता पाण्डेय दिल से लिखती हैं उनका लेखन हृदयस्पर्शी होता है। आज हम अटूट बंधन पर उनकी उन रचनाओं को पढ़ेंगे जिसमें उन्होंने नारी के मनोभावनाओं को खूबसूरती से उकेरा है
विकल्प
अस्पताल का बिस्तर,
अनंत को चीरती,
शून्य को निहारती ,
निस्तेज आखें ,
अस्सी / नब्बे प्रतिशत भुना शरीर।
आज,
क्या कुछ, नहीं , याद आ रहा ,
पापा ने ताउम्र सिखाया ,
विकल्पों में से ,उचित चयन।
उसने सीखा ही था ,सुन्दर चुनना
पापा लाते ,दो बहनो की ,दो गुड़िया
नीली और काली आँखों वाली,
वो चुनती नीली आँखों वाली , अपने खातिर।
गुलाबी और पीले फ्रॉक ,
वो चुनती गुलाबी , अपने खातिर।
विवाह के लिए ,कई तस्वीरें
पर,
उसके पास था ,एक राजकुमार
'' सबका विकल्प।''
किन्तु,
ये विकल्प नहीं भाया ,किसी को भी…
क्यूंकि,
ये विकल्प लोगों ने जो नहीं दिए थे
बस,
समाप्त हो गया, चुनने का क्रम
थोपा जाने लगा ,सभी कुछ।
जब कुछ दिन कुछ साल गए
नए राजकुमार ने जाना ,
पुराने राजकुमार का किस्सा
हाँ ! उसने किया था
'' प्रेम अपराध ''
प्रारम्भ हो गया नया सफ़र.।
जैसे,
इस अमावस की , सुबह कभी न होगी
प्रश्न ,प्रताड़ना ,प्रत्यारोप
'' व्याकुल प्रारब्ध ''
प्रतिदिन ,प्रतिक्षण।
यूँ भी चुनने की आदत अब शेष न थी
किन्तु,
ऐसे जीवन के विकल्प में ,
उसने चुन ही लिया, मृत्यु को
नीली आखें ,गुलाबी फ्रॉक ,
गोद वाला डेढ़ बरस का गुड्डा,
सब बेमानी।
आखो से बहते गर्म लहू ,
अब घावों को दुःख देते थे.।
आज भी भोले मन को ,
निश्छल सी प्रतीक्षा थी , एक विकल्प की।
काश,
कोई कहता कहो क्या चाहिए ,
'' जीवन या मृत्यु ? ''
किन्तु,
जीवन हर साँस के संग ,
डूबने को आतुर - व्याकुल।
ये अंतिम युद्ध भी कैसा था !!!!!
जिसमे _____
हार -जीत का कोई विकल्प ही न था।
''परिणाम, पूर्वघोषित ''
हाँ !
क्यूंकि,
" विकल्पों का अस्तित्व "
जीवन के साथ हुआ करता है,
किन्तु,
जीवन का विकल्प
होकर भी '' साथ नहीं चलता।''
शून्य को निहारती ,
निस्तेज आखें ,
अस्सी / नब्बे प्रतिशत भुना शरीर।
आज,
क्या कुछ, नहीं , याद आ रहा ,
पापा ने ताउम्र सिखाया ,
विकल्पों में से ,उचित चयन।
उसने सीखा ही था ,सुन्दर चुनना
पापा लाते ,दो बहनो की ,दो गुड़िया
नीली और काली आँखों वाली,
वो चुनती नीली आँखों वाली , अपने खातिर।
गुलाबी और पीले फ्रॉक ,
वो चुनती गुलाबी , अपने खातिर।
विवाह के लिए ,कई तस्वीरें
पर,
उसके पास था ,एक राजकुमार
'' सबका विकल्प।''
किन्तु,
ये विकल्प नहीं भाया ,किसी को भी…
क्यूंकि,
ये विकल्प लोगों ने जो नहीं दिए थे
बस,
समाप्त हो गया, चुनने का क्रम
थोपा जाने लगा ,सभी कुछ।
जब कुछ दिन कुछ साल गए
नए राजकुमार ने जाना ,
पुराने राजकुमार का किस्सा
हाँ ! उसने किया था
'' प्रेम अपराध ''
प्रारम्भ हो गया नया सफ़र.।
जैसे,
इस अमावस की , सुबह कभी न होगी
प्रश्न ,प्रताड़ना ,प्रत्यारोप
'' व्याकुल प्रारब्ध ''
प्रतिदिन ,प्रतिक्षण।
यूँ भी चुनने की आदत अब शेष न थी
किन्तु,
ऐसे जीवन के विकल्प में ,
उसने चुन ही लिया, मृत्यु को
नीली आखें ,गुलाबी फ्रॉक ,
गोद वाला डेढ़ बरस का गुड्डा,
सब बेमानी।
आखो से बहते गर्म लहू ,
अब घावों को दुःख देते थे.।
आज भी भोले मन को ,
निश्छल सी प्रतीक्षा थी , एक विकल्प की।
काश,
कोई कहता कहो क्या चाहिए ,
'' जीवन या मृत्यु ? ''
किन्तु,
जीवन हर साँस के संग ,
डूबने को आतुर - व्याकुल।
ये अंतिम युद्ध भी कैसा था !!!!!
जिसमे _____
हार -जीत का कोई विकल्प ही न था।
''परिणाम, पूर्वघोषित ''
हाँ !
क्यूंकि,
" विकल्पों का अस्तित्व "
जीवन के साथ हुआ करता है,
किन्तु,
जीवन का विकल्प
होकर भी '' साथ नहीं चलता।''
तुमने कहा था
इसीलिए बस
जला दिये वो सारे ख़त
जो तुमने भेजे थे।
क्या हुआ ?
गर उनमे सपने रीते थे ,
यादें बसती थी ,
सांसें रमती थी।
धुआं धुआं था ,
मन भीगा था ,
बचपन की कुछ यादें थी ,
कुछ नटखट सी बातें थीं,
तुम भी थे और हम भी थे।
कुछ चिनगारी बन कर उड़ गए
कुछ लपटों संग भीतर उतरे
कुछ उड़े तो दूर तलक थे
लौटे आकर,
गोद में गिरे
लपटे थोड़ी ठहर गयी जब
जब थोड़ी सी तन्द्रा लौटी
सारे भस्म समेटे मैंने
नहीं करेंगे तर्पण इसका
सोच लिया था .
अब तुमने जो नहीं कहा था ,
इसीलिए बस
हमने तर्पण नहीं किया
जब तक हूँ ये संग रहेंगे
नहीं रह सके गर तुम ,तो क्या ?
हाँ ,
तुमने कहा था
इसीलिए बस
जला दिये वो सारे ख़त
जो तुमने भेजे थे।
.
आज अक्षर मूक था ,
विष्मय था .
दर्द था ,
चिलचिलाती धूप थी,
हृदय में स्पंदन था,
किन्तु लय विलुप्त था।
चारो तरफ तृष्णा थी,
रस था रंग था ,
खरीद- फ़रोख्त थी .....संवेदनाओ की ......
ज़िस्म था ,
बज़्म था ,
जीस्त थी ,
तश्नगी थी ,
अलग ही कयास थे
कितभी
फिर ये कैसा शोर था ?
किसी की वेदना थी
या की खोखलेपन की गूँज ...?
कुछ शेष था,
फिर ये कैसा शोर था ?
किसी की वेदना थी
या की खोखलेपन की गूँज ...?
कुछ शेष था,
तो बस छल था .
लोग थे किन्तु प्राण हीन से .
लोग थे किन्तु प्राण हीन से .
तभी एक सुबह,
सड़को की धूल फाकते वक़्त
मैंने सहसा उसको देखा .........!!!!!
पति के कलाई में ग्लूकोज की ड्रिप थी
उसके हाथो में थी ग्लूकोज की बोतल
वो लटकाए पीछे चलती
आज दिखी थी
तलब थी बीड़ी की,
खरीद रहा था ठेले से
वह बस एक अनुगामिनी
चिर मौन संग चली जा रही
लगा था की पत्नी ही थी .....
सहचरी की..... शायद जीवनसंगिनी थी
हाँ की वो पत्नी ही थी ...!!!!!
सड़को की धूल फाकते वक़्त
मैंने सहसा उसको देखा .........!!!!!
पति के कलाई में ग्लूकोज की ड्रिप थी
उसके हाथो में थी ग्लूकोज की बोतल
वो लटकाए पीछे चलती
आज दिखी थी
तलब थी बीड़ी की,
खरीद रहा था ठेले से
वह बस एक अनुगामिनी
चिर मौन संग चली जा रही
लगा था की पत्नी ही थी .....
सहचरी की..... शायद जीवनसंगिनी थी
हाँ की वो पत्नी ही थी ...!!!!!
शिकायत
उफ्फ़ ……!!
तुम्हे तो हमेशा शिकायतें,
मुझे याद है.………
जब कम बोलते थे
तुम कहते
'' कुछ कहती ही नहीं ''
'' ये तो चन्दन है जंगल का ''
और अब
कहते हो
'' कभी तो शांत रहा करो ''
'' कितना किट किट करती हो''
अब भी तुम्हे
बस शिकायते ही हैं
उफ्फ़....!!
मगर ……… !!
एक बात जो मुझे पता है ,
तुम्हे नहीं पता.............
कह दूँ , कह ही दूँ
अब जिस दिन मैं न बोलूंगी
उस दिन तुम .......
तुम छोड़ दोगे………
शिकायत ही …… !!
माँ ! मेरी क्या खता थी ?
हम दोनों तुझसे ?
ये सोच , तेरे प्यार में
तुझसे , मुझको दूर कर दिया।
माँ ! साल बीते तो
मैंने तेरी माँ को अपनी माँ समझा
और तेरे पिता को अपना पिता।
माँ ! कुछ सालों के बाद
तेरी माँ ने फिर से मुझसे मेरी माँ छीन ली ,
ये कहकर कि , मैं तो तेरी बेटी हूँ
माँ ! मैं भीतर तक टूट गयी थी,
माँ ! रद्दी के पन्ने सा वज़ूद लगा था।
पता है माँ !
तब मैंने तेरी ओर हाथ बढ़ाया था
तुझको पाने को ,तुझको छूने को।
पर माँ ! ऐसा भी क्या था कि ,
मुह ही फेर लिया तूने ?
क्यूँ जज़बात सर्द थे इतने ?
क्यूँ माँ क्यूँ …?
मेरे आसुओं से भी तू नहीं पिघली ,
तेरी ममता कठोर थी ,ये मैं नहीं कहूँगी।
माँ ! तुझे पता है --------------
माँ ! आज मैं , तेरी माँ का सहारा हूँ।
अब बड़ी हो गयी हूँ मैं , दुनिया की नज़रों में।
मैंने भी अब सीख लिया है , अश्रु छुपाना ,
दर्द के साथ जीना और मुस्कुराना।
भीड़ में भी अकेली हूँ , अपनी तक़दीर से लड़ती हूँ,
फिर भी यही सोचती हूँ , बचपन वाले वो दिन बड़े सुहाने थे
जब तक नहीं पता था, तू ही मेरी माँ है।
कोई द्वन्द नहीं था , दुविधा भी कोई नहीं थी।
तूने न अपनाया मुझको , न सही
बस इतना ही बतला मुझको -----
तुम दोनों माँओ ने मिलकर
क्यूँ छीनी मुझसे मेरी माँ ?
मेरी क्या थी खता ?
तुम ही थे
बादल बूँदें धरती अम्बर,सब कुछ था पर तुम न थे
तुम सा ही दिखता था सबकुछ,तुम सा था पर तुम न थे
धवल चांदनी में भी धुन थी, तेरी ही रुनझुन गुनगुन थी
बिछी हर सिंगार की चादर,तुम सी थी पर तुम न थे
थी आजान या शहनाई,या बहती थी किसलय पुरवाई
देवालय से आती ध्वनियाँ,तुम सी थी पर तुम न थे
ईद का मिलन,होली के रंग,या आतिशबाजी दिवाली की
कितने पावन दिवस गए सब ,तुम से थे पर तुम न थे
हर एक दिन एक साल रहा, पतझर भी मधुमास रहा
लगता था बसंत का मौसम, तुम जैसा पर तुम न थे
मुक्त छंद थे,कवितायेँ थी,गीतों की भी मालाएं थी
सपनो से रची -पगी कहानी,तुम सी थी पर तुम न थे
पर अधजली चिट्ठियों के टुकड़े,और मुट्ठी से फिलसी रेत
आँखों से जो नमक बह गया,तुम सा था और तुम ही थे
बादल बूँदें धरती अम्बर,सब कुछ था पर तुम न थे
तुम सा ही दिखता था सबकुछ,तुम सा था पर तुम न थे
धवल चांदनी में भी धुन थी, तेरी ही रुनझुन गुनगुन थी
बिछी हर सिंगार की चादर,तुम सी थी पर तुम न थे
थी आजान या शहनाई,या बहती थी किसलय पुरवाई
देवालय से आती ध्वनियाँ,तुम सी थी पर तुम न थे
ईद का मिलन,होली के रंग,या आतिशबाजी दिवाली की
कितने पावन दिवस गए सब ,तुम से थे पर तुम न थे
हर एक दिन एक साल रहा, पतझर भी मधुमास रहा
लगता था बसंत का मौसम, तुम जैसा पर तुम न थे
मुक्त छंद थे,कवितायेँ थी,गीतों की भी मालाएं थी
सपनो से रची -पगी कहानी,तुम सी थी पर तुम न थे
पर अधजली चिट्ठियों के टुकड़े,और मुट्ठी से फिलसी रेत
आँखों से जो नमक बह गया,तुम सा था और तुम ही थे
.जब पास थे तब खास नहीं थे
वो प्यारे मिट्टी के बर्तन ,वो कागज़ के नकली नोट
जब पास थे तब खास नहीं थे
वो गुड्डे-गुडिया की शादी ,हम बन जाते थे बाराती
जब पास थे तब खास नहीं थे
वो माँ का प्यार दुलार ,पापा का अद्भुद किरदार
जब पास थे तब खास नहीं थे
वो बहनों से झगडे करना ,वो भाई संग मिलके चलना
जब पास थे तब खास नहीं थे
वो सखियों संग लम्बी गलबहियाँ, वो बात-बात का अनबन
जब पास थे तब खास नहीं थे
वो गाँव से चाचा का घर आना,सिंदबाद की कथा सुनाना
जब पास थे तब खास नहीं थे
वो दादी-नानी की मीठी बातें ,दादा-नाना के आशीष
जब पास थे तब खास नहीं थे
वो अंकल-आंटी का घर आना ,साबुन से जामुन धुलवाना
जब पास थे तब खास नहीं थे
वो कक्षा में छुप टॉफ़ी खाना,फिर मास्टर जी से छपकी पाना
जब पास थे तब खास नहीं थे
वो जब था जीने का मौसम,अलहड़-मस्त-मगन सा बचपन
जब पास थे तब खास नहीं थे
आज भी जब ये है ,वो है ,हम हैं ,तुम हो, देखो सब हैं
जब पास हैं कुछ खास नहीं है
संगीता पाण्डेय
atoot bandhan .............हमारे फेस बुक पेज पर आप का स्वागत है