बाबा का घर भरा रहे

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एक औरत की डायरी - बाबा का घर भरा रहे

एक औरत की डायरी – बाबा का घर भरा रहे 

हेलो , कैसी हो बिटिया
  फोन पर बाबूजी के ये शब्द सुनते ही उसकी निराश वीरान जिंदगी में जैसे प्रेम की बारिश  हो जाती और वो भी उगा देती झूठ की फसलें … हां बाबूजी , बहुत खुश हूँ | सुधीर बहुत ध्यान रखते हैं | जुबान से कुछ निकले नहीं की हर फरमाइश पूरी | अभी कल ही लौट कर आये हैं दो दिन की पिकनिक से |वैसे भी राची  के पास कितने झरने हैं |  चले जाओ तो  लगता है जैसे  प्रकति की गोद में बैठे हों… और .. वो आधे घंटे तक बोलती रही एक खुशनुमा जिंदगी की नकली दास्ताँ | किसी परिकथा सी | उसे भी कहा पता था था की वो इतनी अच्छी कहानियाँ बना लेती है | झूठी कहानियाँ | पर उन्हें बनाने का उसका उद्देश्य  सच्चा होता था | वो जो भी है भोग लेगी बस बाबूजी खुश रहैं  | ऊसका मायका सलामत रहे | बाबा का घर भरा रहे | एक बेटी यही तो चाहती हैं …वो दूर जिंदगी की धूप झेलती रहे पर उसकी जडें सुरक्षित रहे |

बाबूजी भी खुश हो कर कहते ,” बिटिया ऐसे ही खुश रहो | हम लोगों का आशीर्वाद तुम्हारे साथ है |

फोन रख कर अक्सर वो सोंचती ,अच्छा किया बाबूजी से झूठ बोल दिया | वैसे भी तो सेहत साथ नहीं देती उनकी | मेरा दुःख सुनेगे तो सह नहीं पायेंगे |  कल के परलोक जाते आज ही चले जायेंगे | नहीं – नहीं , मैं अपने बाबूजी को नहीं खोना चाहती | मैं उन्हें अपना दुःख नहीं बताउंगी |

फोन खत्म कर भी नहीं पायी थी कि तभी सुधीर आ गए | बाबूजी से क्या हंस – हंस के बतिया रही थी | अब तो शादी के इतने साल हो गए | अभी भी जब देखो मन माँ – बाप ही लगा रहता है |जब मन में माँ – बाप ही बसे रहेंगे तो  ससुराल में मन कैसे रमेगा | ये शालीन औरतों के लक्षण नहीं है |

आज उसने कोई जवाब नहीं दिया | कितना छांटा है , कितना काटा है उसने शालीन औरतों  की परिभाषा में खुद को फिट करने के लिए | पर जितना वो काटती है ये सांचा उतना ही कस जाता है | कौन बनता है शालीन औरतों के सांचे | औरत को इतना बोलना हैं , इतना हँसना है , इतनी बार मायके जाना है , और इतना … |उफ़ !  कितने कसे होते हैं ये सांचे | फिर सुधीर का साँचा वो तो इतना कसा था , इतना कसा की उसे लगता शायद सुधीर की शालीन औरत वो ताबूत है जिसमें घुट कर वो मर जायेगी |

कहते हैं बाढ़ बहुत तेज हो तो बाँध टूट ही जाते हैं | चाहे कितने मजबूत बने हों | पर मन के बाँध तो अचानक टूटते हैं | पता ही नहीं चलता की कब से दर्द की नदी खतरे के निशान से ऊपर बह रही थी | बस जरा सा पानी बढ़ा और टूट गया बरसों मेहनत  से बनाया सहेजा गया बाँध | 

ऐसे ही उस दिन उसके सब्र का बाँध टूट गया जब बिटिया बोल पड़ी , ” पापा दुकान वाले अंकल ने टाफी दी है | बात मामूली थी | पर स्वाभाव से शक्की सुधीर आगबबूला हो गए | क्या ऐसी ही शालीन औरतें होती हैं | हर किसी से रिश्ते गाँठती  है | लो अब बिटिया भी अंकल कह रही है | कोई अंकल , कोई चाचा कोई भैया और इन रिश्तों की आड़ में जो होता रहा है वो हमसे छुपा नहीं है | सुधीर तो कह कर चले गए | वो रोती  रही , रोती रही |कितना कसा है उसने खुद को | कहीं आती जाती नहीं | किसी से बात भी नहीं करती | अब इससे ज्यादा क्या करे |  तभी बेटी उसके गले में बाहें डाल  कर बोली ,” माँ सामने वाले भैया बुला रहे हैं उनके घर खेलने जाऊं |

पता नहीं इन शब्दों ने क्या जहर सा असर किया | वो आपा  खो बैठी | बेतहाशा बेटी को पीटने लगी | खबरदार भैया , चाचा , मामा किसी को कहा | सब आदमी हैं आदमी | बस्स ..| अभी तक तो तेरे पापा  की वजह से कितना खुद को सांचे में ढालने की कोशिश की है | अब तू हर किसी को  अंकल मामा चाचा कहेगी तो मेरे सांचे और कस जायेंगे | सांस लेने की हद तक घुटन भर रही है मेरे जीवन में | कह कर वो रोती रही घंटों …

जब होश आया तो बेटी आँखों में आँसूं भरे खड़ी  थी | सॉरी मम्मी अब कभी  नहीं कहूँगी अंकल, भैया आप मत रो |प्लीज मम्मी  कितने मासूम होते हैं बच्चे |लगा की किसी फूल की पंखुड़ी सी सहेज कर रख ले अपने मन की किताब के सुनहरे पन्नों के बीच | कोई दुःख छू भी न जाए | पर  कितना भी चाहों  माँ – बाप के हिस्से के दुःख बच्चों के  भाग्य  में भी जन्म से लिख जाते हैं |वो जान गयी थी की एक शक्की पति के साथ निभाना इतना आसान नहीं है | कहाँ तक खुद को काटेगी | कहाँ तक छांटेगी | खत्म भी हो जायेगी तो भी क्या सुधीर का शक दूर कर पाएगी |कल को बेटी बड़ी हो जायेगी तो ये शक का सिलसिला उसे भी अपनी चपेट में ले लेगा | नहीं … सिहर उठी थी वो अपने ही ख़याल से |   बेटी को सीने से लगा कर उसने निर्णय कर लिया अबकी बाबूजी को बता देगी सब | अपनी बेटी को यूँ घुट – घुट कर नहीं मरने देगी |

बाबूजी को बताने के बाद बाबूजी का चेहरा उदास हो गया | थोड़ी देर में खुद को संयत कर जाने कहाँ से संचित गुस्सा उनकी आँखों में उतर आया | रोष में बोले मैं अभी जाता हूँ तुम्हारे ससुराल इसको ये सुना देंगे , उसको वो सुना देंगे | फिर देखे तुम्हें कैसे कोई वहां सताता है |

बात सपष्ट थी … रहना तो उसे उसी घर में था | जहाँ सुना कर आने से बात नहीं बनती उसकी हिम्मत तोड़ने का तरीका सिर्फ कडवे शब्द ही नहीं थे साइलेंट ट्रीटमेंट भी था | सुनने के बाद सुधीर चुप नहीं बैठेंगे | सुधीर जानते थे की कब कौन सा हथियार चलाना है | जिससे वो टूट जाए | जब सुधीर कुछ न कहते हुए भी उसको ये अहसास दिला देते की वो इस घर में हो कर भी उसके लिए नहीं है | उसकी वैल्यू कोने में पड़े सोफे से भी कम है | वो सबसे बात करते पर उसकी तरफ देखते भी नहीं | घर की जिम्मेदारियों से पूरी तरह मुँह मोड़ लेते |वो बाबूजी को कैसे समझाए की उसका आत्मसम्मान इस साइलेंट ट्रीटमेंट से इतनी बुरी तरह कुचल जाता है की उसके पास सुधीर के चरणोंमें गिर कर माफ़ी मांगने के अलावा कोई चारा नहीं रहता | वो जानती थी की सुना आने से या न सुना देने से उसकी जिंदगी में कोई फर्क नहीं पड़ता |वो अंजाम जानती थी | इसलिए उसने बाबूजी को इसे उसे सुनाने से यह कह कर रोक दिया की मैंने बस बताने के लिए बताया  है | अब मैंने कमर कस ली है , मैं  सब ठीक कर लूंगी | आप चिंता न करें | झूठ की एक और फसल् लहलहाने लगी |

 काश बाबूजी कहते ,” मैं तम्हें इस योग्य बना दूंगा की तुम  अपनी लड़ाई लड़ सको  | काश बाबूजी उसे हिम्मत देते | काश सिर्फ प्यार देते | और उस प्यार से उसमें इतनी हिम्मत आ जाती कि वो अपने ऊपर हो रहे अन्याय का विरोध कर पाती | घर से बाहर निकल आर्थिक आत्मनिर्भरता की राह खोजती | 

बाबूजी को तो उसने  रोक दिया पर उसके आँसूं  कहाँ रुके | सोंचा तो था अब नहीं बाताएगी कुछ भी अपने बारे में | पर मन भी बड़ा अजीब होता है | स्नेह का स्पर्श पा आँसूं बन दुलक जाता है | ये आँसू  फिर अगली बार मायके आने पर फिर अम्मा के सामने ढुलक गए | अम्मा रो दी | बाबूजी भी आ गए | उनके आते ही वो माहौल को हल्का करने के लिए  चाय लेने चली गयी| जब लौटी तब  कानों में बाबूजी की आवाज़ पड़ी |   बाबूजी अम्मा से कह रहे थे अपने घर पर ध्यान दो उसकी समस्याओं पर क्या करेंगे | सुनाने तो देती नहीं है |खुद ही निपटेगी |

उसके हाथ काँप गए | तो ये होता है मायके का सच | कोई यह नहीं कहता कि तुम्हारा वहां दम  घुट रहा है तो यहाँ आ जाओं | लौट आओ बेटी| ये भी तुम्हारा ही घर है | इसके दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा खुले हैं | नहीं अब वो मेहमान है इस घर में | जहाँ उसे सिर्फ चार दिन के लिए आना है | खुश रह कर दिखाना है ताकि अगली बार फिर बुलाया जाए | ऐसे महमानों को कौन पूंछता है जो अपना रोना लिए बैठे रहें |यहाँ मेहमान वहां सामान  … क्या कोई जगह है जहाँ उसे  अपनापन मिल सके |

  उसने तय कर लिया की अब स्नेह से भी अपने मन को पिघलने नहीं देगी | पहले की तरह ही झूठ की फसलें उगाएगी | आखिर यही तो भाति  हैं सबको | सच सुनना कौन चाहता है | तो यह झूठ ही  सही | वो झूठ बोलने लगी | सुधीर बदल गए हैं | अब मैं बहुत खुश हूँ | सब ठीक हो गया है | सबके चेहरे पर तसल्ली दिखती | वो इतने में ही खुश हो जाती ,” चलो उसका झूठ तो सबको ख़ुशी दे गया  | फिर भी वो अन्दर ही अंदर खोखली होती जा रही थी |  सिमटती जा रही थी | सूखती जा रही थी | उसकी देह उसके दुखों की चुगली कर रही थी | पिचके गाल , धंसती आँखे , उदास चेहरा उसके झूठ की धज्जियां उड़ा  देते | वो हर प्रश्न को घर गृहस्थी की जिम्मेदारी , बच्चों के पीछे भाग – दौड़ कह कर संभाल लेती … और सब मान लेते | वो सबके चेहरे पर सुकून देख कर अपराधबोध से मुक्ति पाती की उसकी वजह से कहीं किसी को कोई तकलीफ  है |

इस बार फिर झूठ का पुलिंदा ले कर मायके गयी थी |  सूटकेस से निकाल कर तह खोल ही रही थी की बाबूजी आ गए | उसने झट से सूट केस बंद कर लिया | कहीं इन तह करे हुए झूठ में कोई सच न  झाँकने लगे | और बाबूजी की पैनी निगाहें उसे पकड़ लें |मायके के दो दिन कब बीत गए | पता ही नहीं चला | वापस जाते समय सूट केस पैक करने में कोई दिक्कत नहीं | न झूठ को तह लगाना था न सच को छुपाना था | तभी बाबूजी ने आवाज़ लगायी |

वो बाबूजी के कमरे में गयी | बाबूजी उसे वसीयत दिखाने लगे | उसकी आँखों से गंगा – जमुना बह चली | थोडा खुद को संयत करती बोली ,” मेरे बाबूजी अभी आप सौ बरस जियेंगे | कुछ नहीं होगा आप को फिर ये वसीयत क्यों ? बाबूजी ने प्यार से उसके सर पर हाथ रख कर कहा ,” ये जरूरी होता है बिटिया | कल का क्या भरोसा | लो तुम्हे पढ़ कर सुनाता हूँ | दोनों भाइयों को मैंने यथा संभव बराबर ही बांटा है | ताकि कोई झगडा न हो | क्यों होगा बाबूजी  जब आप ने इतने धयान से बांटा है ,आंसुओं को रोकते हुए उसने बहुत मुश्किल से कहा | तभी बाबूजी ने एक स्टैम्प पेपर उसके आगे कर दिया | ये क्या है बाबूजी , उसने प्रश्न वाचक निगाहों से बाबूजी की ओर देखा ?

बिटिया तुम तो जानतो हो की अब सरकारी  कानून है की मायके की जायदाद पर बेटियों का भी हक़ है | आगे कोई झंझट न आये इसलिए मैंने ये पेपर वकील से बनवा लिए है | इसमें लिखा है कि मेरा मायके की जायदाद में कोई हिस्सा नहीं है | मैं सहमत हूँ की वो सब कुछ मेरे भाइयों को ही मिले | थोडा रुक कर बाबूजी बोले ,” तुम इस पर साइन कर दो |

उसने साइन कर दिए | वैसे भी उसे कुछ चाहिए नहीं था | पर इतना तो समझ आ गया … रूप अलग हैं , रंग अलग हैं , ढंग अलग हैं पर शक से उसकी मुक्ति कहीं नहीं है | न वहाँ   न यहाँ |

चलते समय दो घरों के बीच  अपना घर तलाशती डबडबाई आँखों से कोंछ में डाले गए चावलों में से मुट्ठीभर चावल पीछे की ओर उलीचते हुए उसने जोर से कहा …

                                                   “बाबा का घर भरा रहे ” 


वंदना बाजपेयी 


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8 COMMENTS

  1. मार्मिक …. आज के समाज और खोखली मान्यताओं का सत्य लिख दिया हिया कहानी में …
    प्रेम का कोई मूल्य नहीं … सब कुछ कडवी भौतिकतावाद ने ले लिया है ….

  2. सच्चाई से रूबरू करती कहानी अपने आप में हर नारी की अवयक्त वेदना है | माँ बाप का छद्म प्रेम और अपना' स्व ' गवां शालीन महिला का किरदार जीना सचमुच अनेक लड़कियों की विवशता है | भले ही नारी के बिना कोई घर नहीं होता पर सच है उनका अपना कोई घर नहीं होता जहाँ वह अपने सपनों को विस्तार दे पाए | विषय को रोचकता से प्रस्तुत करने का सराहनीय प्रयास –सादर

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