आइना देखने की दूसरी पारी

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व्यंग -आइना देखने की दूसरी पारी


अंदाज अपना देखते हैं , आईने में वो,
और ये भी देखते हैं कोई देखता ना हो 
                      निजाम राम पूरी जी का ये शेर जब युवावस्था की दहलीज पर पढ़ा था, तो उसका असर कई दिन तक मन की किताब पर काबिज रहा था, पर जैसा कहते हैं न कि फैशन पलट कर आता है , वैसेही ये शेर भिजीँ में दुबारा पलट कर आया …पर इस बार बड़ा ही खतरनाक मालूम पड़ा | कैसे ?…


आइना देखने की दूसरी पारी 


ये आइना भी बड़ा अजीब है , न जाने क्या –क्या दिखाता है | बचपन में आपने
भी जब पहली बार आइना देखा होगा तो लगा होगा
 इसमें कोई  दूसरा बच्चा है जो आपके साथ खेलना चाहता है |
दूसरे बच्चे का तो नहीं पर आईने का खेल उसी दिन शुरू हो जाता है | किशोरावस्था तक
आते –आते हर आम और खास को आइना पूरी तरह गिरफ्त में ले ही लेता है |ख़ास तौर से अगर
लड़कियों की बात करें तो
 कौन लड़की होगी जो
इस उम्र में दस बार आइना ना देखती हो | जी हाँ गौर
  से आइना देखने की पहली उम्र  तब होती है जब लड़की  उम्र के  १५ वें १६ वें पायदान पर दस्तक देती है | अपने
पर रीझ कर आइना देखने की उम्र के आते ही घर वाले समझ जाते है कि
  बच्ची अब सयानी हो रही है | लेकिन आइना गौर से
देखने की दूसरी उम्र भी आती है …पर ये बुढापे की कमसिनी यानि प्रौढ़ावस्था की दस्तक
होती है | इस
  भयानक अनुभव में खुद पर
रीझने के स्थान पर खीझना होता है | आप भले ही हँस लें पर मेरे द्वारा ये लेख लिखने
का उद्देश्य एक मासूम का प्रश्न है कि उम्र के इस दौर में आइना देखने के बाद …

“मेरे दिल में होता है जो ,
तेरे दिल में होता है क्या ?”
और अगर आप का उत्तर “होता तो है थोड़ा –थोड़ा “ है तो अभी से संभल जाइए
|

चलिए बात शुरू करते हैं उस दौर से जो गुज़र गया यानि कि जब  हमारी भी १५- १६ की उम्र थी | तब भैया और पिताजी
से छुपकर आइना देख लिया करते थे | अलबत्ता माँ कभी –कभी ये चोरी पकड़ लेती और धीरे
से मुस्कुरा देती | माँ को इस बात का तकाजा था कि लडकियां इस उम्र में आइना देखती
ही है |

 आइना देखते –देखते उम्र
खिसकने लगी और जीवन में पतिदेव का पदार्पण हुआ , और आईने का काम उनकी आँखों से
लिया जाने लगा | कभी तैयार होने के बाद उनकी आँखों में आई चमक को देखकर,
 बस प्रकाश के नियमों पर चल कर परावर्तन करने
वाला आइना
  भाने ही नहीं लगा |
बच्चों के होने के बाद घर
गृहस्थी के तथाकथित जंजाल में फंसने के बाद तो आइना एक गैर जरूरी चीज सा कमरे के
कोने में बैठा अपने अच्छे दिनों को रोता | कारण ये था कि सजने संवारने की फुरसत ही
नहीं मिलती | बाल कढ गए हैं , बिंदी ठीक जगह लगी गई, माँग ठीक से भर गयी
  … बस इतना काफी लगता  | अलबत्ता शादी ब्याह –कामकाज और तीज त्योहारों
में उसके दिन बहुरते …हालांकि उसे शिकायत रहती थी और कभी –कभी बहुत प्यार से
उलाहन देता ,
 कि आप तो ईद का चाँद हो गयी
हैं, अरे हम तो रोज दीदार करने
 की चीज हैं
और आप कभी तवज्जो ही नहीं देती | पर हम भी आम भारतीय नारियों की तरह
 काम , काम और काम की धुन पर इस तरह नाचते रहते
कि आईने की फ़रियाद अनसुनी ही रह जाती |


  
हालांकि कुछ हमसे कुछ बड़ी उम्र
की अनुभवदार महिलाएं हमें समझाती भी थी कि, “हर समय काम के चक्कर में यूँ अपनी
बेख्याली ना करो ,कुछ अपने साज श्रृंगार पर ध्यान दो, आईने का डसा पानी भी नहीं
मांगता |”पर हम अपनी ही रौ में उनकी एक ना सुनते | फिर रहीम दास जी भी तो कह गए
हैं कि
 रहीमदास जी कह गए हैं कि,  “ तिनका  कबहूँ ना निंदिये”  … और हम तो आईने की उपेक्षा दर उपेक्षा करने
पर तुले थे , उसे बदला तो लेना ही था | उसे उम्मीद थी की कभी तो ऊँट आएगा पहाड़ के
नीचे और खुदा कसम उसका इंतज़ार मुक्कमल हुआ और कल वो दिन आ ही गया |
कल वुधवार की बाज़ार में सस्ता सामान लेने की फिराक में ‘बिग बाज़ार’की
‘वैरी बिग’ लाइन में लगे थे कि एक महिला मेरे पास आई और बोली , “ दीदी मैं आपके
पीछे खड़ी हूँ , एक सामान छूट गया है लेकर आती हूँ |”,”दीदी “ शब्द पर ध्यान गया , हमने
उन्हें गौर से देखा उम्र में हमसे बड़ी ही लग रहीं थी ,शायद भीड़ में हमें ठीक से
देखा नहीं होगा सोचकर हमने दिल को तसल्ली दी और लाइन में जमें रहे | तभी एक अन्य
महिला आई (यकीनन वो ६० के पार होगी ) और हमें देखकर बोली , “ आंटी जी ये कैश की
लाइन है या पे.टी .एम की |”

“कैश की” हमने उनको उत्तर तो दे दिया पर सबसे सस्ता वार वुधवार का नशा
सर से उतर गया | सामान के थैले लादे हुए हाँफते –दाफते घर आते हुए हमने इसका सारा
दोष अपने बालों को दिया | उन्हीं बालों को , जिनके बारे में हम ये सोचते हुए
इतराते नहीं थे कि ४५… पार करने के बाद भी हमारे सिर्फ दो-चार-दस
  बाल ही सफ़ेद हुए हैं वर्ना आजकल तो लड़कियों के
२८ -३० में ही बाल सफ़ेद होने लगते हैं | पर आज हमें लगा कि उस महिला ने अपने बाल
डाई कर रखे थे और हम अपने आठ –दस सफ़ेद बालों के साथ आंटी नज़र आ रहे थे लिहाज़ा उसने
इनका फायदा उठाया |

अपने टूटे दिल पर लेप लगाने के लिए 
घर आकर अपने को काम में उलझा लिया | ये दर्द भी दवा सा लगा |तभी बेटी पास
आई और बोली मम्मी जरा हंस कर दिखाओं | उसकी इस बात पर हंसी स्वाभाविक रूप से आगई |
मैंने हंसी रोक कर पूछा , “ क्या बात है क्यों हंसने को कह रही हो | वो बोली मैं
देखना चाहती थी कि आप की आँखों के नीचे झुररियाँ पड़ती हैं या नहीं |
“तो क्या रिजल्ट रहा”मैंने उत्सुकता से पूछा
“ बहुत ही कम, बस इक्का –दुक्का”

सोचा चलो दिन जाते –जाते खुश कर ही गया और किसी अच्छे कॉम्प्लीमेंट के
इंतज़ार में हम
  उसका चेहरा देखने लगे  |

वो चहक कर बोली, “ मतलब इतने बुढापे तक मेरे भी झुर्रियाँ नहीं पड़ेंगी
|”
“ इतने बुढापे तक “  मन ने
शब्दों को दोहराया | ये तो हद ही हो गयी , क्या हम १८५७ का पीस हैं ? उफ़ !  तुरंत दौड़ कर  आईने की शरण में पहुँचे  | बाल , झुर्रियों  , गालों के लटकने सबका गंभीरता से निरीक्षण किया
|
आइना  मुस्कुरा उठा |


“बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे में हम लौटे “ कहते हुए हमारी गौर से आइना
देखने की दूसरी पारी  शुरू हो गयी |

तो साहिबान , कद्रदान अगर आप भी काम के चक्कर में आईने से दूरी बना कर
चलती है तो संभल जाइए क्योंकि ये आइना गौर से देखने
  की दूसरी पारी जब शुरू होती है तो …जोर का
धक्का बड़ी जोर से से लगता है |
वंदना बाजपेयी

दैनिक जागरण ‘साहित्यिक पुनर्नवा ‘में प्रकाशित

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1 COMMENT

  1. बहुत सटीक व्यंग, वंदना दी। हर महिला इस दौर से गुजरती हैं। बहुत बढ़िया।

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