ऊँट की पीठ

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कहानी -ऊँट की पीठ


एक लोकगीत जो कई बार ढोलक की थाप पर सुना है, “विदा करके माता उऋण हुईं, सासरे की मुसीबत क्या जाने |” एक स्त्री के लिए हमारा समाज आज भी वैसा ही है | एक ओर ब्याह देने के बाद चाहें कितना भी दुःख हो वापस उसके लिए घर के दरवाजे नहीं खोले जाते  वहीँ दूसरी ओर अगर अगर ससुराल अच्छी नहीं है तो उसके पास घुट-घुट के जीने और मरने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचता | एक ऐसा ही दर्द उकेरती है दीपक शर्मा जी की कहानी “ऊँट की पीठ” अब इसमें कौन ऊँट है जिसकी पीठ तमाम कारगुजारियों के बाद ऊँची ही रहती है ये तो आप को कहानी पढने पर ही पता चलेगा ….


ऊँट की पीठ



“रकम लाए?” बस्तीपुर के
अपने रेलवे क्वार्टर का दरवाज़ा जीजा खोलते हैं.

रकम, मतलब, साठ हज़ार रुपए…..

जो वे अनेक बार बाबूजी के
मोबाइल पर अपने एस.एम.एस. से माँग
रहे…..
बाबूजी के दफ़्तर के फ़ोन पर
गिनाए रहे…..

दस दिन पहले इधर से जीजी की
प्रसूति निपटा कर अपने कस्बापुर के लिए विदा हो रही माँ को सुनाए रहे, ‘दोहती
आपकी. कुसुम आपकी. फिर उसकी डिलीवरी के लिए उधार ली गयी यह रक़म भी तो आपके
नामेबाकी में जाएगी…..’

“जीजी कहाँ हैं?” मैं पूछता
हूँ.

मेरे अन्दर एक अनजाना साहस
जमा हो रहा है, एक नया बोध.

शायद जीजा के मेरे इतने निकट
खड़े होने के कारण.


पहलीबार मैं ने जाना है अब
मैं अपने कद में, अपने गठन में, अपने विस्तार में जीजा से 
अधिक ऊँचा हूँ,
अधिकमज़बूत, अधिक वज़नदार. तीन वर्ष पहले जब जीजी की शादी हुई रही तो मेरे उस
तेरह-वर्षीय शरीर की ऊँचाई जीजा की ऊँचाई के लगभग बराबर रही थी तथा आकृति एव
बनावट उन से क्षीण एव दुर्बल. फिर उसी वर्ष मिली
अपनी आवासी छात्रवृत्ति के अन्तर्गत कस्बापुर से मैं लखनऊ चला गया रहा और इस बीच जीजी
से जब मिला भी तो हमेशा जीजा के बगैर.

“उसे जभी मिलना जब रक़म
तुम्हारे हाथ में हो,” जीजा मेरे हाथ के मिठाई के डिब्बे को घूरते हैं. लिप्सा-लिप्त.

उन की ज़बान उनके गालों के
भीतरी भाग में इधर-उधर घूमती हुई चिन्हित की जा सकती है. मानोअपनीधमकी को बाहर उछालने
से पहले वे उस से कलोल कर रहे हों.

अढ़ाईवर्ष के अन्तराल के
बाद. जिस विकट जीजा को मैं देख रहा हूँ वे मेरे लिए अजनबी हैं : छोटी घुन्नी आँखें,
चौकोर पिचकी हुई गालें, चपटी फूली हुई नाक, तिरछे मुड़क रहे मोटे होंठ, गरदन इतनी
छोटी कि मालूमदेता है उनकी छाती उनके जबड़ोंऔर ठुड्डी के बाद ही शुरू हो लेती है.

ऊँट की पीठ


माँ का सिखाया गया जवाब इस
बार भी मैं नहीं दोहराता, “रुपयों का प्रबन्ध हो रहा है. आज तो मैं केवल अपनी हाई
स्कूल की परीक्षा में प्रदेश भर में प्रथम स्थान पाने की ख़ुशी में आप लोगों को
मिठाई देने आया हूँ.”
अपनी ही ओर से जीजी को ऊँचे
सुर में पुकारता हूँ, “जीजी…..”
“किशोर?” जीजी तत्काल प्रकट हो लेतीहैं.
एकदम खस्ताहाल.
बालों में कंघी नहीं…..
सलवारऔरकमीज़, बेमेल….. दुपट्टा, नदारद….. चेहरा वीरान और सूना…..
ये वही जीजी हैं जिन्हें
अलंकार एवँ आभूषण की बचपन ही से सनक रही? अपने को सजाने-सँवारने की धुन में जो
घंटों अपने चेहरे, अपने बालों, अपने हाथों, अपने पैरों से उलझा करतीं? जिस कारण
बाबूजी को उन की शादी निपटाने की जल्दी रही? वे अभी अपने बी.ए. प्रथम वर्ष ही में
थीं जब उन्हें ब्याह दिया गया था. क्लास-थ्री ग्रेड के इन माल-बाबू से.
“क्या लाया है?” लालायित,
जीजी मेरे हाथ का डिब्बा छीन लेती हैं.

खटाखट उसे खोलती हैं और ख़ुशी से
चीख़ पड़ती हैं, “मेरी पसन्द की बरफ़ी? मालूम है अपनी गुड़िया को मैं क्या बुलाती हूँ?
बरफ़ी…..”


बरफ़ी का एक साबुत टुकड़ा वे
तत्कालअपने मुँह में छोड़ लेती हैं.

अपने से पहले मुझे खिलाने
वाली जीजी भूल रही हैं बरफ़ी मुझे भी बहुत पसन्द है. यह भी भूल रही हैं हमारे कस्बापुर
से उनका बस्तीपुर पूरे चार घंटे का सफ़र है और इस समय मुझे भूख़ लगी होगी.
“जीजा जी को भी बरफ़ी दीजिए,”
उनकी च्युति बराबर करने की मंशा से मैं बोल उठता हूँ.
“तेरे जीजा बरफ़ी नहीं खाते,”
ठठाकर जीजी अपने मुँह में बरफ़ी का दूसरा टुकड़ा ग्रहण करती हैं, “मानुष माँस खाते
हैं. मानुष लहू पीते हैं. वे आदमी नहीं, आदमखोर हैं…..”

“क्या यह सच है?” हड़बड़ाकर
मैं जीजा ही की दिशा में अपना प्रश्न दाग देता हूँ.

“हाँ. यह सच है. इसे यहाँ
से ले जा. वरना मैं तुम दोनों को खा जाऊँगा. सरकारी जेल इस नरक से तो बेहतर ही
होगी…..”

“नरक बोओगे तो नरक काटोगे
नहीं? चिनगारी छोड़ोगे तो लकड़ी चिटकेगी नहीं? मुँह ऊँट का रखोगे और बैठोगे बाबूजी
की पीठ पर?”

“जा,” जीजा मुझे टहोका देते
हैं, “तू रिक्शा ले कर आ. इसे मैं यहाँ अब नहीं रखूँगा. यह औरत नहीं, चंडी है…..”
“तुम दुर्वासा हो? दुर्वासा?”
जीजी ठी
-ठी छोड़तीहैं और बरफ़ी का तीसरा टुकड़ा अपने मुँह में दबा लेती हैं.
“जा. तू रिक्शा ले कर आ,”
जीजा मुझे बाहर वाले दरवाज़े की ओर संकेत देते हैं, “जब तक मैं इस का सामान बाँध
रहा हूँ…..”
भावावेग में जीजी और
प्रचण्ड हो जाती हैं, “मैं यहाँ से कतई नहीं जाने वाली, कतई नहींजाने वाली…..”
“जा, तू रिक्शा ला,” जीजा की
उत्तेजना बढ़ रही है, “वरना मैं इसे अभी मार डालूँगा…..”
किंकर्तव्यविमूढ़मैंउन के
क्वार्टर से बाहर निकल लेता हूँ.

बाबूजीका मोबाइल मेरे पास
है. उन के आदेश के साथ, ‘कुसुम के घर जाते समय इसे स्विच ऑफ़ कर लेना और वहाँ से बाहर
निकलते ही ऑन. मुझे फ़ौरन बताना क्या बात हुई. और एक बात और याद रहे इस पर किसी भी
अनजान नम्बर से अगर फ़ोन आए तो उसे उठाना नहीं.’
सन्नाटा खोजनेके उद्देश्य से मैं जीजी के ब्लॉक के
दूसरे अनदेखे छोर पर आ पहुँचाहूँ.
सामने रेल की नंगी पटरी है.
उजड़ एवँ निर्जन.
माँ मुझे बताए भी रहीं जीजी के क्वार्टर से सौ क़दम की दूरी पर एक रेल लाइन है जहाँ घंटे घंटे पर रेलगाड़ी गुज़रा करती है.

बाबूजीके सिंचाई विभाग के दफ़्तर का फ़ोन मैं मिलाता हूँ.
हाल ही में बाबूजी क्लास-थ्री के क्लर्क-ग्रेड से क्लास-टू में प्रौन्नत हुए हैं.
इस समय उनके पास अपना अलग दफ़्तर हैऔर अलग टेलीफ़ोन.
“हेलो,” बाबूजी फ़ोन उठाते हैं.

“जीजी को जीजा मेरे साथ कस्बापुर भेजना चाहते हैं…..”
“उसे यहाँ हरगिज़, हरगिज़ मत लाना,”
ज़ोरदार आवाज़ में बाबूजी मुझे मना करते हैं, “वह वहीं ठीक है…..”
“नहीं,” मैं चिल्लाता हूँ,
“वे बिल्कुल ठीक नहींहैं. उनका दिमाग़, उनकी ज़ुबान उनके वश में नहीं. जीजा उन्हें मार डालेंगे…..”

सरकार ने ऐसे सख़त कानून बना रखे हैं कि वह
उसे मार डालने की जुर्रत नहीं कर सकता. वैसे भी वह आदमी नहीं, गीदड़ है. भभकी ही
भभकी रखे है अपने पास…..”


कहानी -ऊँट की पीठ


“जीजी आत्महत्या भी कर सकती
हैं…..” एक बिजली की मानिन्द जीजी मुझे रेल की पटरीपर बिछी दिखाई देती हैं और
ओझल हो जाती हैं.
“नहीं. वह कुसुम को
आत्महत्या नहीं करने देगा. वह जानता है उस की आत्महत्या का दोष भी उसी के मत्थे मढ़ा
जाएगा और उसी की गरदन नापी जाएगी. तुम कोई चिन्ता न पालो. बस, घर चले आओ…..”
“लेकिन उधर वे दोनों मेरी
राह देख रहे हैं. जीजा ने मुझे रिक्शा लाने भेजा था…..”

“बस-स्टैनड का रुख करो और चले आओ.
कुसुम के पास अब भूल से भी मत जाना. और फिर, इधर तुम्हारे दोस्त तुम्हें पूछ रहे
हैं. टी.वी. चैनल वाले तुम्हारे इन
टरव्यूके साथ तुम्हारी माँ और मेरा इन्टरव्यू भी लेना चाहते
हैं…..”
बाबूजी का कहा मैं बेकहा
नहीं कर पाता.

लेकिन जैसे ही बस्तीपुर से
एक बजे वाली बस कस्बापुर के लिए रवाना होती है मुझेध्यान आता है जीजी की बेटी के
लिए माँ ने चाँदी की एक छोटी गिलासीमुझे सौंपी थी, ‘भांजी को पहली बार मिल रहे हो.
उस के हाथ में कुछ तो धरोगे.’ वहगिलासीमेरे साथ वापिस चली आयीहै. भांजीको मिला कहाँ मैं?
बाबूजी का मोबाइल रास्ते भर
बजता है. कई अनजाने नम्बरों से.

जीजा के नम्बर से भी. लेकिन
तब भी जवाब में मैं उसे नहीं दबाता.
मुझे खटका है जीजी मेरे लिए
परेशान हो रही हैं और बदले में जीजा को परेशान कर रही हैं. जीजी को बिना बताए मुझे
कदापि नहीं आना चाहिए था. कहीं जीजी मुझे खोजने रेल की पटरी पर न निकल लें और ऊपर
से रेलगाड़ी आ जाए!

उस खटके को दूर करने के लिए
मोबाइल से मैं बाबूजी के दफ़्तर का नम्बर कई बार मिलाता हूँ किन्तुहर बार उसे
व्यस्त पा कर मेरा खटका दुगुने वेग से मेरे पास लौट आता है.
शाम पाँच बजे बस कस्बापुर
जा लगती है.
घर पहुँचता हूँ तो घर के
सामने जमा स्कूटरों और साइकलों की भीड़ मुझे बाहर ही से दिखाई दे जाती है.
अन्दर दाख़िल होता हूँ तो माँ
को स्त्रियों के एक समूह के साथ विलाप करती हुईं पाता हूँ.
जीजी रेल से कट गयीं क्या?
“तुम आ गए?” मुझे देखते ही
पुरुषों के जमघट में बैठे बाबूजी उठ खड़े होते हैं और मुझे घर के पिछले बरामदे में
लिवा लाते हैं.
यहाँ एकान्त है.
“हमें अभी बस्तीपुर जाना
होगा,” वे मेरी पीठ घेर रहे हैं, “मज़बूत दिल से, मज़बूत दिमाग़ से. तुम रास्ते में थे,
इसलिए तुम्हें फ़ोन नहीं किया बस में अकेले तुम अपने को कैसे सँभालोगे? क्या करोगे?
कुसुम…..”
“मुझे खोजने वे घर से
निकलीं और रेलगाड़ी ऊपर से आ गयी?” मैं फट पड़ता हूँ.
“उस मक्कार ने तुझे भी फ़ोनकर
दिया?” बाबूजी चौकन्ने हो लेते हैं, “अपने को निरापराध ठहराने के लिए?”

“लेकिन यह सच है,” मैं बिलख
रहा हूँ, “जीजी को मैं कहाँ बता कर आया मैं इधर लौटरहा हूँ? ठीक से मैं उन्हें
मिला भी नहीं….. पहले जीजा ने तमाशा खड़ा किया. फिर जीजी आपा खो बैठीं. फिरआपने
हुक़
म दे डाला, वापिस आ
जा, वापिस आ जा…..”

“शान्त हो जा,” बाबूजी मेरी
कलाई अपने हाथ में कस लेते हैं, “शान्त हो जा. कुसुम को जाना ही जाना था. उस का
कष्ट केवल काल ही काट सकता था. हम लोग नहीं. हम केवल उस की बिटिया की रक्षा कर
सकते हैं. उस का पालन पोषण कर सकते हैं. उसे अच्छा पढ़ा-लिखा सकते हैं. और करेंगे
भी. बस्तीपुर से लौटती बार उसे अपने साथ इधर लेते आएँगे…..”

सहसा बस्तीपुर वाली बिजली मेरे सामने फिर कौंध जाती है: लेकिन जीजी रेल की
पटरीपर बिछी हैं….. लेकिनअब वे अदृश्य नहीं हो रहीं….. मुझे दिखाई दे रही हैं…..
साफ़दिखाई दे रही हैं….. हमारे कस्बापुर की बरफ़ी अपने मुँह में दबाए…..

दीपक शर्मा 

लेखिका -दीपक शर्मा


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