दीपक शर्मा की कहानी -चिराग़-गुल

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चिराग़-गुल


ये कहानी पढ़कर फिल्म पाकीजा का एक गीत ख्यालों में चला आ रहा है | 
“ये चिराग़ बुझ रहे हैं मेरे साथ जलते -जलते”
          दीपावली का मौका है और बुझते चिरागों की बात करना अच्छा नहीं लगता | फिर भी ये एक ऐसी स्त्री की कहानी है  जिसकी जिन्दगी के बुझते चिराग को बचाने की कोशिश किसी ने नहीं की …ना पति ने न पिता या भाई ने और भाभी ने …उसको तो खैर जाने ही दीजिये | 
वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा की ये कहानी है एक ऐसी स्त्री की कहानी है जिसको एक बिमारी पति से मिली है पर मायका उसके साथ इसलिए नहीं खड़ा है क्योंकि आखिरकार सम्बन्ध टूटने की वजह लोगों को बताएँगे क्या ? स्त्री स्वास्थ्य की उपेक्षा का गंभीर मुद्दा उठाते हुए ये कहानी भावनाओं के गुल होते हुए चिरागों के बारे में बहुत कुछ कह  जाती है …

चिराग़-गुल



बहन की मृत्यु का
समाचार मुझे टेलीफोन पर मिला.

पत्नी और मैं उस समय
एक विशेष पार्टी के लिए निकल रहे थे.
पत्नी शीशे के सामने
अपना अन्तिम निरीक्षण कर रही थी और मैं तैयार कबाबों से भरे दो हॉट-केस व बर्फ़ की
तीन बाल्टियों को गाड़ी में टिका कर पत्नी को लिवाने कमरे में लौटा था.
“टेलीफ़ोन सुनें या
रहने दें?” टेलीफ़ोन की घंटी की ओर मेरा ध्यान पत्नी ने ही आकर्षित किया था.
“तुम बताओ.” आधुनिक
यन्त्रों में मैं सबसे अधिक टेलीफ़ोन से घबराता हूँ.

“चलो, सुन लेते
हैं,” पत्नी मुस्करायी, “रेणु का हुआ तो कह देना बस पहुँच ही रहे हैं.”

पार्टी पत्नी की बड़ी
बहन के घर पर आयोजित थी. पत्नी की बड़ी बहन के पति मुझसे सर्विस में आठ साल सीनियर
हैं तथा मैं उनका बहुत सम्मान करता हूँ.
“हलो,” मैंने
टेलीफ़ोन उठाया.

“मैं राजेश बोल रहा
हूँ,” उधर से आवाज़ आयी, “आपको यहाँ तुरन्त पहुँचना चाहिए. शशि की आज अस्पताल में
मृत्यु हो गयी है…..”
“कैसे?” मैं चीख
पड़ा.
“सब खैरियत तो है?”
पत्नी ने लपक कर मेरे हाथ से टेलीफ़ोन ले लिया, “हलो….. हाँ….. हाँ….. मैं
समझ रही हूँ…..”
बाक़ी समाचार पत्नी
ने ही ग्रहण किए.
मैं अपना मुँह छिपा
कर रोता रहा.
“राजेश ने क्या
कहा?” मैंने थूक निगला.

“बोला, शशि का
पैलविक एब्सैस (श्रोणीय फोड़ा) उसके पेट में फूट गया था और खून में जहर भर जाने से
उसकी हालत बहुत ख़राब…..”
“तो उस धूर्त ने
हमें क्यों नहीं बुलाया?” क्रोधावेश में मैं अपना सन्तुलन खो बैठा.
“कल सब अचानक ही तो
हुआ. शशि ने पेट में दर्द की शिकायत की तो उसे तुरन्त अस्पताल ले जाया गया…..”
पत्नी बहन से आठ साल छोटी रही मगर पत्नी के समाज में बच्चों को छोड़कर सब लोग –
मर्द क्या, औरत क्या, बड़े क्या, छोटे क्या – सबके सब एक-दूसरे को नाम से अथवा सर
या मै’म के सम्बोधन से पुकारते हैं- ‘जीजी’, ‘भैया’, ‘चाचा’, ‘काकी’ जैसे सभी
आदरसूचक शब्द प्रयोग करने की उन्हें सख्त मनाही है.

“जरूर उस नीच ने
अपनी सरगरमी फिर से शुरू करनी चाही होगी और बेचारी शशि अपना बचाव करने में असमर्थ
रही होगी…..”
पिछले चार वर्षों
में बहन मुझे केवल दो बार ही मिली थी : एक बार दो वर्ष पहले मेरी शादी पर तथा
दूसरी बार चार महीने पहले माँ की मृत्यु पर.

दोनों बार ही राजेश
उसके साथ रहा था और परिस्थितियाँ असामान्य! मेरे विवाह का आयोजन एक सार्वजनिक क्लब
में होने के कारण बहन एक औपचारिक अतिथि से अधिक कुछ न रही थी और माँ की मृत्यु पर
अतिथि मैं रहा था. पत्नी का संक्रामक गर्भ-सुख मुझे अपने शहर में शीघ्र लौटा ले
गया था.

हाँ, इधर, जब से
अपने निरन्तर बिगड़ रहे गले के इलाज के लिए बाबूजी कस्बापुर से मेरे पास चले आए थे,
बहन फोन पर अक्सर मुझसे भी दो-चार बात करती रही थी. बाबूजी के गले को लेकर वह बहुत
चिंतित रहने लगी थी.

चिराग़-गुल


“मुझे डर है, मैं
फिर बीमार हो रही हूँ,” पिछले सप्ताह बहन की जब मुझसे फोन पर बात हुई थी तो उसने
मुझे चेताया था.

“तुम घबराना नहीं,”
मैंने उसे ढाँढस बँधाया था, “इधर रेवा अस्पताल में है. जैसे ही वह कुछ ठीक हुई मैं
आकर तुम्हें यहाँ अपने पास ले आऊँगा…..”
“रेवा को क्या हुआ?”
बहन घबरा उठी थी.
“उसका केस बिगड़ गया
है,” एक लेट-पार्टी के बाद पत्नी का गर्भपात हो गया था, “डॉक्टर बच्चे को नहीं बचा
पायी और रेवा को अस्पताल में अभी दो-तीन दिन गुज़ारने पड़ेंगे.”
“तुम अभी रेवा को
देखो,” बहन शोकार्त्त होकर रो पड़ी थी, “उसे कहना, निराश न होए, भगवान के घर में
उसके नाम का टोकरा बहुत बड़ा है….. उसकी झोली में सब कुछ आएगा….. वह धीरज
रखे…..”

जिन दिनों बहन की
शादी हुई थी, मैं आई. ए. एस. की प्रवेश परीक्षा की तैयारी में व्यस्त था. भूगोल
में एम. ए. कर लेने के बाद बहन लखनऊ के एक महिला कॉलेज में पढ़ाने लगी थी. अख़बार के
एक विज्ञापन द्वारा ही बहन को राजेश का परिचय मिला था. राजेश जर्मनी से
इंजीनियरिंग की एक उच्च डिग्री लेकर अभी हाल ही में लौटा था तथा उत्तर प्रदेश में
ही स्थित किसी इंजीनियरिंग कॉलेज में प्राध्यापक की नौकरी करने का इरादा रखता था.

एक प्राइवेट इंटर
कॉलेज के प्रिंसीपल के पद से रिटायर हो रहे बाबूजी को राजेश व राजेश का परिवार बहन
के लिए ठीक-ठाक ही लगा था.
बहन ने विवाह की
तिथि निश्चित होते ही अपने प्रॉविडेंट फण्ड के लोभ में नौकरी छोड़ दी थी और अपनी
मनपसन्द साड़ियाँ बटोरनी शुरू कर दी थीं.

राजेश के भयंकर
छुतहा रोग का रहस्य तो शादी के बाद ही उद्घाटित हुआ था जब हमें शादी के दसवें दिन
बहन की रुग्णावस्था का तार मिला था.


बाबूजी और माँ बहन
को तुरन्त घर पर लिवा भी लाए थे, परन्तु अभी बहन स्वास्थ्य लाभ ही ग्रहण कर रही थी
कि राजेश अनेक डॉक्टरी सर्टिफिकेटों के साथ हमारे घर पर आ धमका था. राजेश के
डॉक्टरों ने उसे पूर्णरूपेण निरोग बताते हुए विवाहित जीवन के योग्य घोषित किया था.
डॉक्टरोंकी इस घोषणा के साथ राजेश ने अपनी मृदुल विनयशीलता जोड़ ली थी और बाबूजी
बहन को राजेश के साथ वापस भेजने के लिए सहमत हो गए थे. आने वाले अमंगल का
पूर्वसंकेत मैंने बाबूजी को दिया भी था किन्तु बाबूजी ने सिर हिलाकर अपनी मजबूरी
बतायी थी, “लड़के में कोई और कमी रही होती तो हम लड़की को घर बिठाने या दोबारा
ब्याहने के सौ तर्क दे डालते, पर यहाँ बाधा इतनी दुर्बोध व वीभत्स है कि बात उठाने
की बजाय अब चुपचाप पी जानी पड़ेगी. अब तो हाथ जोड़कर भगवान से यही मनाएँगे कि राजेश
अपने वादे पर अटल रहे और शशि को हर जोखिम से बचाकर रखे!”
उस दिन हमारी पार्टी
की वजह से बाबूजी ने खाना जल्दी ले लिया था और अपने कमरे में बंद हो गए थे.
पत्नी का आग्रह था
कि बाबूजी भी हमारी तरह रात में अपने कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद रखा करें.
दरवाज़े की चिटकनी
थाम कर बाबूजी दरवाज़े पर खड़े हो गए.

“बाबूजी,” मैंने
उन्हें दरवाज़े से हटाने की खातिर अपने अंक में ले लिया.
“क्या हुआ?” बाबूजी
चौंके, “सब कुशल-मंगल तो है न!”
“नहीं बाबूजी,” मैं
रो पड़ा, “शशि चली गयी है.”
बाबूजी ने तुरन्त
अपने आपको मेरे अंक से मुक्त कर लिया और अपनी कुर्सी पर बैठ गए.
“क्या फ़ोन आया था?”
बाबूजी बुरी तरह काँपने लगे.
“हाँ,” मैंने कहा.
“राजेश ने बताया, मृत्यु आज ही अस्पताल में हुई……”
“मैं अभी रात की
गाड़ी से वहाँ जाऊँगा,” बाबूजी उठकर कपड़े बदलने लगे.
 “आप यहाँ रहिए. आपकी तबीयत ढीली है. यात्रा करने
योग्य नहीं. वहाँ मैं जा रहा हूँ. लौटकर सब विस्तार से आपको बताऊँगा…..”
“नहीं, मैं ज़रूर
जाऊँगा,” बाबूजी अड़ गए.
कपड़े बदल कर बाबूजी
बाथरूम से अपना ज़रूरी सामान ले आए.
“रेवा यहाँ अकेली
कैसे रहेगी?” मैंने पत्नी की अस्वस्थता की ओर संकेत किया.
“मेरी ये चीज़ें अपने
सूटकेस में रख लेना,” बाबूजी ने मेरे प्रश्न को कोरी बकवाद मानकर उसे नज़र-अन्दाज़ कर
दिया.
“ठीक है,” जब से माँ
की मृत्यु हुई है, मैंने बाबूजी से बहस करना एकदम छोड़ रखा है.
अपने शेविंग किट में
शेव की सब चीज़ें रखते समय मेरे कानों ने फ़ोन पर पत्नी की आवाज़ पकड़ी. पत्नी अपनी
बड़ी बहन से कह रही थी, “तो क्या अब हाथ खाली हैं? बुढ़ऊ पूरी-पूरी सेवा और हाजिरी
माँगता है….. हाँ, ख़ैर, वह डर तो अब छूट गया….. भावुक होकर वह कभी भी बहन को
यहाँ बुला तो सकता था….. क्या हुआ….. मैं अभी आती हूँ…..”
“कुछ गिरा है क्या?”
पत्नी मेरे बाथरूम के दरवाज़े तक चली आयी.””’
“कुछ नहीं,” मैंने
कहा, हालाँकि आफ़्टर-शेव की एक कीमती शीशी अपने किट में धरते समय मेरे हाथ से छूट
कर नीचे गिर गयी थी.
“कुछ गिरने की आवाज़
तो आयी थी,” पत्नी झल्लायी.
“तुम्हें आयी होगी.
मुझे तो कोई आवाज़ नहीं आयी,” मैंने पत्नी को जानबूझ कर चिढ़ाया.
“तुम और तुम्हारे
तमाशे मेरी समझ से बाहर रहते हैं,” पत्नी ने बाथरूम के अंदर झाँकना चाहा तो मैंने
तत्काल आगे बढ़कर बाथरूम का दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया.

चिराग़-गुल

“मुझसे मत पूछो क्या
हुआ था,” पत्नी अपने टेलीफोन पर लौट गयी, “हाँ-हाँ, क्यों नहीं….. हलो….. हाय,
सुमेर, हाऊ आर यू? …..लॉन्ग टाइम, नो सी….. अस्पताल से? …..आज मिल तो रहे
हैं….. ख़ैर मैं उतनी बुरी अवस्था में तो नहीं….. देखकर बताना क्या अन्तर आया
है….. हाँ, बहुत दुर्भाग्यपूर्ण रही….. स्त्री होने की बेचारी को इतनी बड़ी सज़ा
मिली….. राजेश अपने परीक्षण तो हर चौथे महीने करवा लेता था मगर उसे शशि की तनिक
परवाह न थी….. वही एच. एस. वी. टू….. शायद इसे ही ‘हरपीज सिम्पलेक्स वाइरस टू’
कहते हैं….. इसमें उपचार से ज्यादा परहेज की ज़रुरत रहती है….. जहाँ परहेज छूटा
नहीं स्त्री की बीमारी फिर शुरू….. नहीं, इसी की वजह से ही नहीं, निस्संतान रहने
को बाध्य रहीं वे….. बच्चा तो जन्म से ही फिर दोषपूर्ण स्वास्थ्य लेकर पैदा
होगा….. हाँ-हाँ….. मैं तो आ ही रही हूँ….. रात को फिर वहीं रुकूँगी…..
स्टेशन से सीधे वहीं आऊँगी…..”
“नहीं, तुम इस समय
कार नहीं चलाओगी,” मैंने बाथरूम से बाहर आकर पत्नी को टोक दिया, “तुम वहाँ पार्टी
में भी नहीं जाओगी…..”
“नहीं, कोई नहीं है.
कबाब और बर्फ़ तो ला ही रही हूँ….. अभी रखती हूँ….. मिलने पर बाक़ी बात होगी.”
“वहाँ न गई तो वे
लोग कबाब और बर्फ़ का कहाँ से प्रबन्ध करेंगे? जानते हो न, मुख्यमंत्री के सचिव भी
उस पार्टी में आ रहे हैं. तुम न कहते थे- सुमेर से आज कहेंगे, तुम्हारी विदेश
यात्रा को मुख्यमंत्री के सचिव से ओके करवा दें…..?”
“मैंने अपना इरादा
बदल लिया है. मैं अब विदेश नहीं जाना चाहता. शशि के न रहने से बाबूजी पहले ही
परेशान हैं, मेरे विदेश जाने पर बहुत अकेले पड़ जाएँगे…..”
“नन्दन…..
नन्दन….. स्टेशन यहाँ से बहुत दूर है,” बाहर के बरामदे से बाबूजी ज़ोर से चिल्लाए!
बाबूजी जब भी उत्तेजित होते हैं, उनका स्वर प्रबल महाघोष में परिवर्तित हो उठता है
“हमें अब तुरन्त चल देना चाहिए……”
“स्टेशन पर विदा
कहने के बाद मैं रेणु के घर चली जाऊँगी,” पत्नी ने उठकर कमरे का दरवाज़ा खोल दिया.
“मैं तैयार हूँ,
बाबूजी,” मैंने बाबूजी को अपने कमरे में बुला लिया, “आप तनिक रुकिए. मैं सूटकेस
तैयार कर रहा हूँ.”
“रामलोचन,” तभी
पत्नी बाथरूम से चिल्लायी, “इधर आओ, रामलोचन.”
अर्दली तत्क्षण
प्रकट हो लिया.
“क्या कर रहे थे?”
पत्नी अर्दली पर कड़की, “तुम्हें इतनी आवाज़ें क्यों देनी पड़ीं?”
“हम आ रहे थे, मेम
साहब.”
“क्या कर रहे थे?”
“खाना खा रहे थे,
मेम साहब,” अर्दली झेंप गया.
“खाना बाद में
खाना,” पत्नी ने उसे आदेश दिया, “पहले झाड़ू लेकर बाथरूम से काँच उठाओ. वहाँ एक
शीशी टूट गयी है.”
“जी साहब,” अर्दली
झाड़ू लेने लपका. वह पत्नी से बहुत डरता था.
“मालूम है?” पत्नी
मेरी ओर देख कर चेहरे पर उदार भाव ले आयी, “यह ऑफ़्टर-शेव कौन लाया था? कहाँ से
लाया था? भारत में कहीं मिलेगा क्या?”
पत्नी का एक भाई
मर्चेन्ट-नेवी में कप्तान रहा. विदेशी सामान व विदेशी प्रसाधन-श्रृंगारण की दीवानी
पत्नी समय-समय पर अपने भाई से विदेशी सामग्री मँगवाती रहती थी.

“तुम जानती हो शाम
के समय झाड़ू नहीं लगाना चाहिए,” अर्दली को झाड़ू के साथ कमरे में प्रविष्ट होते देख
कर मैंने उसे बाहर रहने का आदेश दिया, “माँ झाड़ू का बहुत वहम रखती रही हैं और फिर
बाबूजी बुरा मानते हैं….. मैं बुरा मानता हूँ…..”

“आज का अपशगुन तो
घटित हो चुका है,” पत्नी ने बाबूजी का तनिक लिहाज नहीं रखा और लापरवाही दिखाने
लगी, “अब क्या डर है?”
“बताऊँ क्या डर है?”
सूटकेस में उस समय मैं अपनी रात वाली चप्पल रखने जा रहा था, वही चप्पल लेकर मैं
पत्नी पर झपट पड़ा…..
“यह क्या कर रहे हो,
नन्दन?” बाबूजी ने तुरन्त मेरा हाथ छेंक दिया, “तुम्हें होश क्यों नहीं रहता,
नन्दन? हमें अभी गाड़ी पकड़नी है…..”
‘भगवान ने हमारे साथ
बहुत बुरी की है, बाबूजी,” मैंने पत्नी पर यों पहली बार चप्पल उठायी थी और पत्नी
की घबराहट दूर करने के लिए अब हरजाने की एवज में बौखलाहट का स्वाँग रचना ज़रूरी हो
गया था, “पहले माँ को छीन लिया, अब शशि को…..”
बाबूजी से अपना हाथ
छुड़ा कर मैं दीवार से अपना सिर टकराने लगा.
“होश में आओ,
नन्दन,” बाबूजी ने खींच कर मुझे मेरे पलंग पर बिठा दिया, “हमें अब और देर नहीं
करनी चाहिए. फ़ौरन स्टेशन के लिए निकल लेना चाहिए. अभी हमें टिकट भी लेनी है…..”
“स्टेशन पर मैं आपको
छोड़ आऊँगी,” स्वयं को हानि पहुँचाने की मेरी प्रक्रिया पत्नी को उसकी दहल से बाहर
खींच लाने में सफल रही थी अथवा अपनी बहन की पार्टी में उपस्थित रहने की उसकी
अभिलाषा अति दृढ़, मैं नहीं जानता, किन्तु पत्नी लगभग सामान्य हो चली थी.

“आपको स्टेशन पर
विदा कहने मैं आपके साथ आ सकती हूँ,” अपनी बड़ी बहन के घर के सामने गाड़ी रोक कर
पत्नी ने चौथी बार दुहराया.
“नहीं,” मैंने चौथी
बार भी अपना स्वर तीता होने से बचा हीलिया और अपने वाक्यों की ज्यों की त्यों
पुनरावृत्ति की, “तुम रेणु की स्टाफ-कार में हमें स्टेशन छुड़वा दो. यह गाड़ी यहीं
पार्क्ड रहे तो बेहतर रहेगा.”
“तुम और तुम्हारी ये
मनमानियाँ,” पत्नी ने पास खड़े एक अर्दली को इशारे से अपने पास बुलाया और कबाब के
हॉट-केस तथा बर्फ़ की बाल्टियाँ उसके हाथ में थमा दीं.
“गाड़ी कहीं छूट न
जाए,” बाबूजी अधीर हो उठे, “हमारा स्टेशन पर जल्द पहुँचना बहुत ज़रूरी है.”
“मुझे तुम्हारी बहुत
चिन्ता रहेगी,” पत्नी मेरी ओर देख कर घनिष्ठता से मुस्करायी. बाह्याचार का उसे
अच्छा अभ्यास है.

“मुझे भी,”
औपचारिकता से मैं भी अनभिज्ञ नहीं, “अपना ख़्याल रखना.”
“तुम्हारे फ़ोन का
मुझे इन्तज़ार रहेगा,” पत्नी गाड़ी से नीचे उतर गई.
“हाँ,” मैंने कहा,
“मैं वहाँ पहुँचते ही तुम्हें फ़ोन करूँगा.”

“आपकी यात्रा शुभ
हो,” बाबूजी की दिशा में मुस्करा कर पत्नी अपनी बड़ी बहन के लॉन में बिछी कुर्सियों
व अतिथियों की भीड़ में सम्मिलित होने आगे बढ़ चली.

“ड्राइवर जल्दी
भेजना, बेटी,” बाबूजी ने पत्नी को पीछे से पुकारा, “हमारी गाड़ी छूटने में बहुत कम
समय बचा है…..”
रेलवे स्टेशन पर हम
ठीक समय से पहले ही जा पहुँचे.
रेलवे पुलिस चौकी का
दारोगा मुझे जानता था.

दूसरे दर्जे के
वातानुकूलित शयन-यान में हमें शयनिकाएँ दिलाने में दारोगा ने मुस्तैदी दिखाई और
रेलगाड़ी के प्लेटफ़ॉर्म पर लगते ही बाबूजी ने और मैंने अपनी-अपनी निर्धारित
व्यवस्था सँभाल भी ली.
जैसे ही रेलगाड़ी ने
आगे बढ़ कर दारोगा का मुस्तैद चेहरा मेरी आँखों से ओझल किया, मैं फूट-फूट कर रोने
लगा. बहन की संकटावस्था के निमित्त छोटी पहुँच की मेरी और बाबूजी की समस्त आशंकाएँक्यों
सदा के लिए यों ठिठक गयी थीं और दीर्घ पहुँच के हमारे सभी भय अन्ततोगत्वा क्यों सहीसिद्ध हुए थे?

दीपक शर्मा 

लेखिका -दीपक शर्मा

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