शिकन के शहर में शरारत- खाप पंचायण के खिलाफ़ बिगुल

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शिकन के शहर में शरारत- खाप पंचायण के खिलाफ़ बिगुल
 वंदना गुप्ता जी उन लेखिकाओं में से
हैं जो निरंतर लेखन कार्य में रत हैं | उनकी अभी तक १२ किताबें आ चुकी हैं  और वो
अगली किताबों पर काम करना शुरू कर चुकी हैं | इसमें सात कविता की भी पुस्तकें हैं
और एक कहानी संग्रह, दो उपन्यास और समीक्षा की दो किताबें | लेखन में अपनी
सक्रियता
  से उन्होंने हिंदी साहित्य को
समृद्ध किया है | कविता ह्रदय की ध्वनि है | भावों की अंजुली में कब भोर में झरते
हर्सिगार के पुष्पों से सुवासित हो जायेगी, कोई नहीं जानता | गद्य लेखन में
पात्रों की मन की भीतरी पर्तों में न सिर्फ झाँकना होता है बल्कि उसका पोस्ट
मार्टम करके रेशा –रेशा अलग करना पड़ता है | कई बार मामूली कथ्य की वल्लरी मजबूत
शिल्प का सहारा पकड़ पाठकों के हृदय में अपनी पैठ बना लेती है तो कई बार एक दमदार
कथ्य अनगढ़ शिल्प के साथ भी अपनी बात मजबूती से रख पाता है | पर कथ्य, शिल्प, भाव,
भाषा के खम्बों पर अपना वितान तानती कहानी ही कालजयी कहानी होती है |


मैंने वंदना जी की  कविता की चार  किताबों (बदलती सोच के नए अर्थ, प्रश्न चिन्ह
…आखिर क्यों ?, कृष्ण से संवाद और गिद्ध गिद्धा कर रहे हैं ) कहानी संग्रह (बुरी
औरत हूँ मैं ) और दोनों उपन्यासों ( अँधेरे का मध्य बिंदु और शिकन के शहर में
शरारत को पढ़ा है | कविताओं में वो समकालीन स्थितियों, मानवीय संवेदनाओं
और आध्यात्म पर अपनी कलम चलाती हैं | कृष्ण से संवाद पर मैं कभी विस्तृत समीक्षा
लिखूँगी | उनकी कहानियों में एक खास बात है वो ज्यादातर नए विषय उठाती हैं |
फार्मूला लेखन के दौर में ये एक बड़ा खतरा है पर वो इस खतरे को उठाती रहीं हैं |
अपनी कहानी संग्रह में भी उन्होंने बुरी औरत को देखने के दृष्टिकोण को बदलने की
जरूरत पर जोर देते हुए “बुरी औरत हूँ मैं “ कहानी लिखी हैं | इसके अलावा स्लीप मोड,
वो बाईस दिन , आत्महत्या के कितने कारण, कातिल कौन में बिलकुल नए विषयों को उठाया
है |

अपने उपन्यास अँधेरे के मद्य बिंदु में
उन्होंने लिव इन के विषय को उठाया है | लिव इन पर कुछ और भी कहानियाँ आई हैं |
उनमें मुझे ‘करुणावती साहित्य धारा में प्रकाशित संगीता सिंह भावना की कहानी याद आ
रही है | उपन्यास में ये विषय नया है | ज्यादातर हिंदी कहानियों में
 विवाह संस्था को लिव इन से ऊपर रखा गया है |
परन्तु ‘अँधेरे का मध्य बिंदु ‘ में विवाह के रिश्ते के दवाबों की भी चीर-फाड़ करी
है | अपेक्षाओं के फंदे पर लटकते हुए प्रेम को समझने का प्रयास भी किया गया है |
इसके बाद वो लिव का पक्ष लेते हुए तर्क देती हैं विवाह हो या लिव इन उसे अपेक्षाओं
के दंश से मुक्त होना पड़ेगा तभी प्रेम का कमल खिल सकेगा | हम बड़े बुजुर्गों के
मुँह से ये सुनते आये हैं कि विवाह एक समझौता है और यही वाक्य यथावत अगली पीढ़ी को
पहुँचा देते हैं | इस समझौते को बनाए रखने में कई बार जिस चीज को दांव पर लगाया
जाता है वो किसी भी रिश्ते की सबसे कीमती चीज होती है यानि प्रेम और विश्वास |
वंदना जी
  विवाह की मोहर से ज्यादा किसी
युगल के मध्य इसे बचाए रखने की वकालत करती हैं |वस्तुतः विवाह समझौता न होकर
सहभागिता होनी चाहिए |

शिकन के शहर में शरारत- खाप पंचायण के खिलाफ़ बिगुल  

लेखिका -वंदना गुप्ता

वंदना जी दिल्ली में रहती हैं और
दिल्ली में ही पढ़ी लिखी हैं | उनकी ज्यादातर कहानियों में मेट्रो कल्चर और उसका
जीवन दिखता है | मेट्रो शहरों का जीवन, वहां का आचार-व्यव्हार, वहां की समस्याएं ,
जिन्दगी की आपाधापी, गांवों के शीतल शांत जीवन से बिलकुल अलग हैं | अगर 50 % लोगों
का वो सच है | तो 30 % लोगों का ये सच है | 20 % वो लोग हैं जो ऐसे शहरों में रहते
हैं जो ना तो गाँव की तरह तसल्ली से परिपूर्ण हैं न मेट्रो शहरों की तरह भागते हुए | ये
कहानीकार की विडंबना ही हो सकती है कि कई बार एक सच को दूसरा समझ नहीं पाता | मुझे
एक वाक्य याद आ रहा है | हमारे एक परिचित जो कनाडा में रहते हैं वो बताने लगे कि
वहां सप्ताह में किसी भी दिन किसी की मृत्यु हो अंतिम संस्कार शनिवार को ही होता
है | क्योंकि किसी के पास इतना समय ही नहीं होता कि काम से छुट्टी ले कर जा सके |
ये बात सुनकर गाँव की रधिया चाची तो पल्ले को मुँह पर रख कर बोली, “ऐ दैया! का
मानुष नहीं बसते हैं उहाँ ? इहाँ तो रात के दुई बजे भी काहू के घर से रोने की आवाज
आ जाए तो पूरा गाँव इकट्ठा हो जात है |” आश्चर्य कितना भी हो सच तो दोनों ही है | कहानीकार
के हाथ में बस इतना है कि वो जहाँ की कहानी लिख रहा है उसके साथ वहीँ की
परिस्थितियों में जाकर खड़ा हो जाए तभी वो कहानी के साथ न्याय कर सकता है |

“शिकन के शहर में शरारत’ में वंदना जी
दिल्ली से दूर हरियाणा के एक गाँव में पहुँच गयी हैं | दिल्ली के मेट्रो
  कल्चर में बेरोकटोक लहलहाते प्रेम की फसल को
दिल्ली की नाक से बस थोड़ा सा नीचे खरपतवार के मानिंद समूचा काट कर फेंक देने की
रवायत का पर्दाफाश करतीं  हैं | ये उनका दूसरा उपन्यास है | “अँधेरे का मध्य बिंदु “
काफी लोकप्रिय रहा है | ऐसे में उनके दूसरे उपन्यास से अपेक्षाएं बढ़ जाना
स्वाभाविक है | अपनी भूमिका “यथास्थिति में असहजता पैदा करने की कोशिश” में पंकज
सुबीर जी लिखते हैं कि कोई लेखक हो या ना हो एक उपन्यास सभी के मन में रहता है |
वो शब्दों में व्यक्त करे या ना करे पर एक उपन्यास की कथा उसके साथ हमेशा चलती है
| असली पहचान दूसरे उपन्यास से होती है और असली परीक्षा भी | भोपाल के कवी –कथाकार
संतोष चौबे की कविता का शीर्षक है , “कठिन है दूसर उपन्यास लिखना | वाकई दूसरा
उपन्यास लिखना कठिन है | ये चुनौती पाठकों के सामने खुद को सिद्ध करने से कहीं
ज्यादा लेखक को अपनी शैली, कथ्य व् शिल्प में परिवर्तन करने की होती है |


अपने उपन्यास की रचना प्रक्रिया के
बारे में वंदना
 जी भूमिका में कहती हैं कि
2016 में पहला उपन्यास आने के बाद मित्रों से इस बात पर जोर देना शुरू कर दिया था
कि आप दूसरा उपन्यास लिखें | तब मैंने सोचा भी नहीं था कि दूसरा उपन्यास भी कभी
लिखा जाएगा | जब दिमाग में कोई खाका ना हो तब कैसे संभव है दूसरा उपन्यास लिखा
जाना | जब तक कोई सब्जेक्ट मन को कुलबुलाये नहीं कोई उपन्यास कैसे लिखा जा सकता है
| लेकिन मित्रों के कहने पर बार –बार सोचती कि अगला कोई उपन्यास लिखूंगी तो किस
विषय पर लिखूँगी | सोचते सोचते खाना बनाने चली गयी और अचानक से दिमाग में विचार
आया ‘खाप’ | काफी दिनों बाद कहानी लिखने की शुरुआत की और लम्बी कहानी ने धीरे धीरे उपन्यास
का आकर ले लिया |

जी हाँ ये उपन्यास  विमर्श के उन अँधेरे कोनों पर रोशिनी डालता है जहाँ
ओनर
 किलिंग के नाम पर प्रेमी युगल की
हत्या कर दी जाती है | यूँ तो हमारे देश में लोकतंत्र हैं | फिर भी हमारे देश में
ऑनर किलिंग जैसा अलोकतांत्रिक , अमानवीय जघन्य कर्म होता रहा है | कितने प्रेमी
युगलों को प्रेम की सजा उनका जीवन छीन कर दी जाती है | प्रसिद्द लेखिका उपासना सियाग अपनी
कहानी’उसके बाद’ में एक ऐसे पिता का दर्द दिखाती हैं जिसने ऑनर किलिंग के नाम पर
अपनी ही बेटी की हत्या की थी | इस कहानी के माध्यम से उन्होंने सूक्ष्म मानवीय
भावनाओं को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है | पर क्या ऐसा वास्तव में होता होगा
या कोमल कलमें ऐसे पाषाण हृदयों में भी कोमलता की वो भावना ढूँढने का प्रयास करती
हैं जिन्हें अपने धर्म और जाति अपनी बच्चे के जीवन से ज्यादा प्रिय हैं | जो भी हो
ऐसी कहानियाँ मनुष्य को संवेदनशील तो बनाती ही हैं | जाति  और धर्म को बचाने के
बाद अपनी ही औलाद का रक्त पीने वाला पुता क्या कभी अपराध बोध से मुक्त हो सकता है
?

ऑनर  किलिंग का जघन्यतम रूप है “खाप
पंचायतें” जहाँ पूरी स्वीकृति के साथ न्याय के तौर पर समाज के सामने प्रेमी युगल
को मृत्यु दंड दिया जाता है | न पुलिस  जागती है न प्रशासन और नहीं रोते –बिखते
परिजनों के आँसू इस क्रूरतम फैसले का कहर  कम कर पाते हैं | कहने को तो हम इक्कसवी
शताब्दी के साथ कदम –ताल मिलाते हुए चल रहे हैं | परन्तु हमारे अन्दर का पाषण
युगीन आदिम मानव अभी भी बसता है | जो शहरों  से थोड़ी ही दूर पुलिस  और प्रशासन को
धत्ता बताते हुए इस अमानवीय कृत्य को अंजाम देता है | प्रेमी युगल को सजा देकर और
बाकियों के अपने  प्रेम के प्रति भय बना कर समगोत्र में विवाह को रोक कर भले ही
गोत्र की परिभाषा में सही सिद्ध होता हो पर मानवता की परिभाषा में बहुत नीचे गिर
जाता है | इसी खाप  पंचायत को वंदना गुप्ता जी ने अपने दूसरे उपन्यास ‘शिकन के शहर
में शरारत” का विषय बनाया है | अपने उपन्यास के माध्यम से उन्होंने इस विषय में न
सिर्फ
  संवेदना जगाने का बल्कि समाधान
प्रस्तुत करने का प्रयास
  भी किया है |  
 प्रेम दुनिया की सबसे खूबसूरत शय |
कहते हैं प्रेम खुदा है और किसी ईश्वरीय वरदान की तरह जीवन में आता है | पर आता ये
किसी
  जोर की तरह हैं | कब कहाँ किससे
प्रेम होगा ये कौन तय कर पाया है | समझ भी तो तब आता है जब जान पर बन आती है |
प्रेम के आगमन से रेत से शुष्क जीवन में भी सतरंगी इन्द्रधनुष तन जाते हैं | कहा
भी गया है …

प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट
बिकाय।

राजा परजा जेहि रूचै, सीस देइ ले जाय।।

                     
प्रेम में इंसान जान देने
को तैयार भले ही हो जाए पर किसी को प्रेम की सजा के रूप में मृत्युदंड मिले ये दो
अलग बातें हैं | खाप पंचायतें ऐसी ही पंचायतें हैं जो प्रेम की सजा मृत्यु के रूप
में देती हैं | जो लोग खाप पंचायतों के बारे में नहीं जानते उन्हें बता दूं कि ये
पारंपरिक पंचायतें होती हैं | जिसमें एक गोत्र या कई गोत्र के लोग मिलकर बनाते हैं
| कई बार इनकी सीमा में एक गाँव होता है तो कई बार २० -२५ गाँव तक इनके अधिकार की
सीमा में आते हैं | खाप पंचायतों में प्रभावशाली गोत्र का दबदबा रहता है | जिन का
गोत्र प्रभावशाली नहीं है दबदबा उनका भी रहता है पर पंचायत मेविन उनकी कम चलती है
| कोई भी फैसला लेते समय पूरे गाँव को बुलाया जाता है | कोई आये या ना आये बुलाया
सबको जाता है |जो भी निर्णय लिया जाता है उसे सर्वसम्मति से लिया हुआ निर्णय बताया
जाता है | खाप पंचायत में छोटी जाति  के लोग व् औरते या इनके कोई प्रतिनिधि नहीं
होते | युवाओं को बोलने का अधिकार नहीं होता | एक तरह से पुरानी रवायतों पर नए
समाज को चलाने की जद्दोजहद है |
  बड़ी खप
पंचायतों का दबदबा पुलिस व् प्रशासन पर भी होता है | उत्तरभारत के गाँवों में खाप
पंचायत का होना सामान्य बात है | सबसे पहली खाप पंचायत जाटो की थी | पंजाब –हरियाणा
में इनका काफी दबदबा है | हालांकि सुप्रीम कोर्ट इनको मान्यता नहीं देता पर अपने
क्षेत्र में इनका दबदबा होने पर मामला तब ही सामने आता है जब बात हाथ से निकल चुकी
होती है | खाप के पंच  भी जाते हैं कि अब वो दौर नहीं रहा इसलिए भावुक मुद्दों पर
ही निशाना साधते हैं जिससे गाँव में उनका वर्चस्व बना रहे | सबसे भावुक मुद्दा है
इज्जत | इज्जत एक ऐसा शब्द है जो महिलाओं से जुडा है | उनके घूँघट  उठाने से इज्जत
जाती है , तेज बोलने से हंसने से यहाँ तक की स्वतंत्र रूप से सोचने से भी इज्ज़त
जाती है | फिर प्रेम तो महा अपराध है ही | उसपर अगर एक ही गोत्र में प्रेम हुआ तो
रवायत के बिलकुल खिलाफ है | समगोत्री विवाह यूँ तो पूरे भारत में दोष माना जाता है
पर खाप पंचायतें उसके लिए मृत्युदंड मुकर्रर  करती हैं | ये एक ऐसा कठोर सत्य हैं
जिसके बारे में हम अक्सर अख़बारों में पढ़ते रहते हैं |

“बहुत ही संवेदनहीनता से वो पंच प्रमुख
बैठ गए और बिरजू ने पहले लड़के के गले की फिर लड़की के गले की रस्सी को जोर से खींचा
| दोनों का जिस्म पेड़ से झूल पड़ा | उनकी गों ..गों की आवाज से सन्नाटा टूटा तो
जाने कितनी हाहाकारी सिसकारियाँ
 एक साथ
उमड़ पड़ीं | चीखों और दहानों से मैदान गूँज उठा |”

“ शिकन के शहर में शरारत’ में कहानी को आगे बढ़ने के लिए वंदना जी ने तीन जोड़ों को चुना
है | एक समय
 और महक , दूसरा नीलिमा और
समीर और तीसरा तान्या और उसका प्रेमी | तीनों जोड़ों में प्रेमी –प्रेमिका समगोत्री
हैं | पहला ह्रदय विदारक किस्सा  है तान्या और उसके प्रेमी का जिन्हें खाप पंचायत
मृत्यु दंड देती है | उनका गुनाह है उन्होंने समगोत्र में प्रेम किया है | उन्हें
सरेआम फांसी दे दी जाती है | लड़का –लड़की के माता –पिता रोते रह जाते हैं पर पुलिस
के आगे वो भी कुछ बोलते नहीं है | उन्हें डर  है कि उनकी या उनके दूसरे बच्चों की
भी जान न ले ली जाए | या फिर उन्हें गाँव से निकाल ना दिया जाए, समाज से बेदखल ना
कर दिया जाए | ये छोटे कृषक परिवार जो अपनी आजीविका के लिए अपनी जमीन पर निर्भर है
कैसे जी पाएंगे | वो विवश हो जाते हैं ये अनैतिक फैसला स्वीकार करने को | पुलिस
प्रशासन भी जब आता है तो हत्या को बड़ी ही खूबसूरती से आत्महत्या सिद्ध कर दिया
जाता है |

तान्या की हत्या से नीलिमा और महक भी डरी  हुई है | नीलिमा कुछ ज्यादा ही भयभीत है | क्योंकि वो भी समीर से प्रेम करती
है | जिसे उसने आज तक
  अपने ह्रदय के बंद
कपाट में छुपा कर रखा था | अपनी प्राणप्रिय सखी महक से भी साझा नहीं किया था |
परन्तु अब समय फैसला लेने का था इसलिए वो महक को सब सच –सच बता देती है | ये दोनों
लड़कियां गाँव से रोज दिल्ली कॉलेज में पढने आती है | इनके जीवन में पढने आने तक की
जो आज़ादी मिली है गाँव वालों के अनुसार इन्हें उसी में कृतार्थ हो जाना चाहिए |
इससे ज्यादा के स्वप्न तो लडकियाँ नहीं देख सकती | परन्तु नीलिमा और महक को ये
मंजूर नहीं | महक , नीलिमा , समीर और समीर के दोस्त समय मिलकर समस्या को सुलझाने
का काम करते हैं | तमाम मुश्किल
 हालात  से
जूझते हुए समीर व् नीलिमा के भागने में मदद की जाती है | समीर और नीलिमा को मिलता
है एक दूसरे का साथ और गाँव वालों को मिलती है नीलिमा की मृत्यु की खबर | नीलिमा
की माँ की ह्रदय विदारक चीखें महक को अपराधबोध से भर देती हैं | वो प्रण करती है
कि वो कभी भी इस तरीके से शादी नहीं करेगी | पर दिल ने कब किसकी सुनी है | अनजान
को पता ही नहीं होता है कि जब वो यह प्रण ले रही है तब तक समय का प्रेम उसके हृदय
के रंधों में गहरे धँस चुका है |

समय और महक न तो अपने प्रेम का बलिदान
करना चाहते हैं और ना ही अपने माता –पिता का दिल दुखाना चाहते हैं | वो खाप
पंचायतों के इस दानवीय फरमान का अंत करना चाहते हैं | ताकि हर प्रेमी युगल का
रास्ता साफ़ हो | इसके लिए वो धैर्य पूर्वक एक योजना बनाते हैं | उसका क्रियान्वन
बहुत मुश्किल है उसमें बहुत से लोगों को जोड़ना है आदि आदि | अब वो योजना क्या है |
वो अपनी योजना में सफल होते हैं या नहीं | उनका प्रेम सफल होता है या उनका भी
तान्या की तरह दर्दनाक अंत होता है ये तो आप उपन्यास पढ़कर जानेगे | लेकिन मुख्य
बात ये है कि खाप पंचायत को वंदना जी ने समाज पर कोढ़ की तरह नहीं एक समस्या के रूप
में देखा है | यथासंभव उसका समाधान ढूँढने की ईमानदार कोशिश की है | हम आज भी
अख़बारों में खप पंचायतों के किस्से सुनते हैं और अखबार बंद करके रख देते हैं |
क्योंकि ये समस्या हमारी नहीं है | लेकिन क्या ये समस्या हमारे ही जैसे इंसानों की
नहीं है | क्या हमें भी आगे बढ़कर उनका हाथ थाम कर इसका समाधान खोजने का प्रयास
नहीं करना चाहिए |



बहुत से लोग कह सकते हैं कि खाप पंचायत
अब बेअसर हो चुकी है | 
अभी हाल में आप सब
को 
याद होगा की  साक्षी मिश्र का हाई प्रोफाइल केस आया था | जिसमें विधायक की
बेटी साक्षी ने अपनी पसंद के अपने से  छोटी
जाति के 15 वर्ष बड़े व्यक्ति से भाग कर शादी कर ली थी | मामला तब उजागर हुआ जब
साक्षी ने मीडिया में जाकर ये कहा कि उसे अपने पिता से जान का खतरा है | उसने पुलिस
प्रोटेकशन की भी मांग की | उस समय सोशल मीडिया पर तमाम पढ़े लिखे लोग साक्षी को कोस
रहे थे | पिता की इज्ज़त नहीं रखी , नाक कटा दी | कुछ लोगों ने तो ये भी कहा कि
सार्वजानिक रूप से अपने पिता की निंदा करने से तो अच्छा है वो मर ही जाती, या
हमारी बेटियाँ ही नहीं होतीं | ये सारे लोग जो सोशल मीडिया पर थे | आधुनिक तकनीक
से लैस पढ़े लिखे लोग हैं | ये जानते हुए भी कि 
साक्षी के पिता रसूख दार हैं | साक्षी के साथ कोई घटना हो भी सकती थी | उसे
आत्महत्या या दुर्घटना का रंग दिया जा सकता था , लोगों ने साक्षी को ही कोसा | ऐसे
में गाँव के अशिक्षित  समाज में बेटियों पर क्या बीतती होगी सहज ही अंदाजा लगाया जा
सकता है |


उपन्यास में वंदना जी ने एक नहीं अनेक
केसेस दिए हैं | जहाँ विवाह कर चुके बच्चों को यह कह कर बुला लिया गया कि हमें कोई
ऐतराज नहीं है , पर बाद में उनकी हत्या कर दी गयी | कहीं , “माँ बीमार है, अंतिम
समय है, एक बार देख जाओ” के नाम पर इमोशनल करके बुला लिया गया | और फिर हत्या कर
दी | आशा मौसी की कहानी भी तो ऐसी ही हैं | अगर कलेक्टर साहब उसे शरण नहीं देते तो
वो ना जाने कब की मर खप गयी होती |  ऑनर किलिंग समाज का कोढ़ है | दो बालिग़ व्यक्तियों
को ये स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वो ये चयन कर सकें कि वो किसके साथ जीवन व्यतीत
करना चाहते हैं | बिना गोत्र , जाति , धर्मं की चिंता किये | क्या माता –पिता
द्वारा तय किये गए सारे विवाह सफल ही होते हैं | समय आ गया है कि खाप पंचायतों और
ऑनर किलिंग के खिलाफ  विस्तृत योजनाये बनें और इस बिमारी से समाज को मुक्ति मिले |
वंदना जी ने अपनी युक्तियों से इस दिशा में एक बिगुल तो बजाया  ही है | आगे की कमान
युवाओं को थामनी है |

अब बात करते हैं उपन्यास की भाषा की |
क्योंकि उपन्यास हरियाणा की पृष्ठभूमि पर है इसलिए इसमें हरियाणवी भाषा का जगह –जगह
प्रयोग किया है | वंदना जी कहती हैं कि उनकी
 
ससुराल का संबंद्ध हरियाणा से होने के कारण थोड़ी बहुत हरियाणवी उन्हें आती
है | बाकी उन्होंने इसमें जानकारों से मदद ली है | ये प्रयोग खूबसूरत लगता है और
सत्यता के करीब भी | पाठक को दिक्कत ना हो इसलिए हरियाणवी के संवाद उन्होंने
पुस्तक के अंत में पीछे दे दिए हैं | क्योंकि मुख्य पात्र सभी दिल्ली के पढ़े हुए
आधुनिक हैं इसलिए वो सामान्य सरल हिंदी बोलते हैं |

उपन्यास में सहज प्रवाह है | कसा हुआ
उपन्यास समय-महक की युक्ति व् उनकी सफलता/असफलता के बारे में जानने को अंत तक बंधा
रहता है | वैसे आजकल थोड़े छोटे उपन्यास चलन में हैं तो इसके कुछ दृश्य निकल कर इसे
और छोटा किया जा सकता था | परन्तु जैसा कि होता है हर कहानी अपना आकर स्वयं तय
करती है | प्रेम के कुछ दृश्य प्रभावशाली बने हैं और पाठक के मन पर गुदगुदाता हुआ
अहसास छोड़ते हैं | प्रेम की इस रूमनित को दर्शाने के लिए बीच –बीच में उन्होंने
कविताओं को भी डाला है …

ब तुम्हारी चोर नज़रें
मेरे दरो दीवार की चुगली किया करती थीं
रह –रह मुड़ मुड तकती
ठिठकती, ठहरती
और फिर कूच करती
तो कुछ अपनी दार्शनिकता के कारण
प्रभावित करते हैं …

“जिन्दगी चाशनी नहीं है, जिसकी मिठास
में ही डूबे रहो | तल्खियां, रुस्वाइयां और बेगानापन इसका हिस्सा हैं |जिनके साथ
इंसान को जीना पड़ता है |और जो इन्हें सह जाए मुस्कुराकर उसका जीना ही सार्थक और
सफल है | इसलिए जैसे भी हालत है उनका सामना करो | वही जिन्दगी का पहला और अंतिम
पाठ
 होता है |”

किताबगंज  प्रकाशन से प्रकाशित इस
उपन्यास का कवर प्रिश्न आकर्षण है जिसे कुँवर रवीन्द्र जी ने बनाया है |
भूमिका पंकज  सुबीर जी ने लिखी है | २३५ पृष्ठ के इस उपन्यास में सम्पादकीय
त्रुटियाँ ना के बराबर हैं | अगर आप प्रेम कहानियाँ पढने के शुकीन हैं तो ये
संग्रह आप के लिए मुफीद है जो प्रेम कहानी के आनन्द साथ –साथ आपको सोचने के लिए
आने आयाम भी देगा |

शिकन के शहर में शरारत -उपन्यास 
लेखिका -वंदना गुप्ता 
प्रकाशक -किताबगंज 
पृष्ठ -235 
मूल्य 333(पेपर बैक )

समीक्षा -वंदना बाजपेयी 

                        
लेखिका -वंदना बाजपेयी


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