नवीन मणि त्रिपाठी Archives - अटूट बंधन https://www.atootbandhann.com/category/नवीन-मणि-त्रिपाठी हिंदी साहित्य की बेहतरीन रचनाएँ एक ही जगह पर Sat, 04 Jan 2020 12:23:57 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.1.6 प्रायश्चित https://www.atootbandhann.com/2017/11/prayshchit-emotional-hindi-story.html https://www.atootbandhann.com/2017/11/prayshchit-emotional-hindi-story.html#comments Fri, 10 Nov 2017 12:40:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2017/11/10/prayshchit-emotional-hindi-story/                                                                      उन दिनों जमशेद पुर में फैक्ट्री में फोर्जिंग प्लांट पर मेरी ड्यूटी थी  फोर्जिंग  प्लांट अत्यंत व्यस्त हो चुके थे। मार्च […]

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प्रायश्चित

                                                              
      उन दिनों जमशेद पुर में फैक्ट्री में फोर्जिंग प्लांट पर मेरी ड्यूटी थी  फोर्जिंग  प्लांट अत्यंत व्यस्त हो चुके थे। मार्च के महीने में टार्गेट पूरा करने प्रेशर जोरो पर था । बिजली के हलके फुल्के फाल्ट को नजर अंदाज इसलिए कर दिया जाता था क्यों कि सिट डाउन लेने का मतलब था उत्पादन कार्य को बाधित करना जिसे बास कभी भी बर्दास्त नहीं कर सकते थे । फिर कौन जाए बिल्ली के गले में घण्टी बाँधने । जैसा चल रहा है चलने दो बाद में देखा जायेगा । सेक्शन में लाइटिंग की सप्लाई की केबल्स को बन्दरों ने उछल कूद करके अस्त व्यस्त कर रखा था । कई जगह से केबल्स के इंसुलेशन भी उधड़ चुके थे । ये केबल्स सेक्शन के एक पिलर से होकर जाती थीं । वहीँ एक एंगल के किनारे गिलहरियों ने अपना घोसला बना रखा था ।
 सेक्शन में एक ओवर हेड क्रेन भी चलती थी  । क्रेन चलाने के लिए तीन फेज सप्लाई की जरुरत होती थी यह सप्लाई नंगे ओवर हेड तारों से ली जाती थी तारों पर कोई इन्शूलेशन नहीं होता  क्यों कि इन्ही तारों पर क्रेन की सप्लाई के टर्मिनल में लगे रोलर  घूम कर चलते थे । इन्ही तारों की वजह से कई बार बन्दरों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। एक बार तो एक बन्दर के बच्चे ने गलती से तार को छू लिया और चिपक गया था फिर उसकी माँ  उसे बचाने की कोशिस में चिपक गयी और बाकी दो और भी चिपक गये थे जो शायद उनकी सहायता में पहुचे थे । इस तरह चार बन्दरों की मौत एक साथ होना एक दुःखद हादसा था  । उनके चिपकने से एक फेज का फ्यूज उड़ गया था । अतः लाइन काट कर उन्हें उतारा गया था उसके बाद फिर सप्लाई चालू कर दी गयी थी । इन मशीनों के बीच में रहते रहते हम भी कितने मशीन बन चुके थे इस बात का आकलन तब हुआ था जब बॉस के चेहरे पर बन्दरों की मौत के बजाय सप्लाई चालू होने की ख़ुशी देखी थी । सप्लाई चालू होते ही वे मुस्कुराते हुए ऑफिस में चले गए थे । संवेदनाये इतनी निष्ठुर भी हो सकती हैं ये बात सोचते सोचते मैं भी मशीनों के बीच काम में गुम हो गया था ।
      उस दिन कुछ महीनो बाद मेंटिनेंस के लिए मेरी सन्डे ड्यूटी लगाई गयी थी । सन्डे के दिन उत्पादन कार्य नहीं होता था सिर्फ प्लांट का मेंटिनेंस का कार्य होता था उस दिन बिजली की सप्लाई कांटेक्ट मोटरें और पैनल के अन्य पुर्जो की जाँच और मरम्मत का कार्य होता। दिए गए कार्य पूरे हो चुके थे । शाम 4 बजे तक कार्य पूरा हो चुका था । ऑफिस में इसी बीच मैकेनिकल ग्रुप के इंचार्ज कौसर अजीज भाई फुरसत के क्षणों में गप शप करने के वास्ते कमरे में दाखिल हो गए ।

  ” अरे भाई तिरपाठी ! का हाल चाल  है यार ” ।
” आओ कौसर भाई चाय आ रही है । अभी काम से फुरसत मिली है । और अपना सुनाओ ? “
मैंने कौसर भाई को बैठने का इशारा किया।
कौसर भाई बैठ तो गए लेकिन सामान्य से हट कर कुछ शांत थे और विचार मन्थन करते नजर आये ।
  ” क्या हुआ भाई जान आज इतना शांत क्यों “।
” अरे यार चिंता हो गयी है “।
“किस बात की चिंता कौसर भाई? मैंने उत्सुकता बस उनसे पूछ लिया ।
   अरे ऊ पिलर पर गिलहरी जो घोसला लगाये है । उसके दो बच्चे हैं और कल ऊ बच्चवन की माँ बिजली वाले तारो में फंस गयी थी । “
” फिर क्या हुआ ?” मैंने पूछा ।
” फिर का भड्ड से हुआ । जइसे दग गयी हो । नीचे गिरी तो देखा जल के मर गयी …… लेकिन ज्यादा बुरा ई हुआ उके लेदा  जइसन बच्चवन का का होगा ? वहीँ चिचियां रहे हैं कल से । मर तो जाएंगे ही …………
तिरपाठी यार कुछ सोचो उनके लिए …..।
    कौसर अजीज इतना कहते कहते कुछ गम्भीर हो गए ।

” ई के इंचार्ज तुम ही हो कितना पाप करोगे यार ? रोज बेचारे निर्दोष पशु पक्षी इसमें मरते हैं ……… तुम लोग गीदड़ होइ गए हौ … बॉस के सामने मुँह से आवाज ही गायब हो जाती है । ये पाप झेलोगे भी तुमही लोग ।”
    कौसर भाई की बातों में दम था । वे मुस्लिम परिवार में पले बढे थे । बे मिशाल करुणा भाव के स्वामी थे । वह बहुत अच्छे गायक के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त व्यक्ति थे। कलाकार मन वाकई बहुत सरल होता है। उनकी यह धिक्कार मेरे अंतर्मन को झकझोर गयी थी और मैं अपने आप को अपराध बोध से नहीं बचा सका था। 
सहसा मेरे मानस पटल पर वह पुरानी बात किसी सिनेमा रील की तरह घूम गयी थी जब मेरी मोटर सायकल के नीचे एक गिलहरी दब कर मर गयी थी । मुझे उसके बारे में तरह तरह के ख्याल आये थे मैं काफी चिंतित हुआ था। गलती मेरी ही थी मोटर सायकल की स्पीड तेज थी और गिलहरी तेजी के साथ सड़क को पार करते समय पाहिये के नीचे आ गयी थी। जब यह दुर्घटना हुई तो मैं काफी दिनों तक मानसिक संत्रास झेलता रहा था । मुझे लगा था कि गिलहरी जब मरी थी तो वह मुह में दबाये हुए कुछ ले जा रही थी शायद बच्चों के लिए । वो बच्चे उसका इंतजार किये हुए होंगे ….फिर उन बच्चों का क्या हुआ होगा ……। ये सारी बातें आज भी मुझे व्यथित कर जाती थीं । बार बार सोचता था प्रभु मेरा यह पाप कैसे उतरेगा ।
     मन में विचार आने लगे शायद भगवान ने मुझे प्रायश्चित करने का अवसर दिया है । अचानक तन्द्रा टूटी और पत्नी का ख़याल आया । वह आधात्मिक विचारधारा से युक्त है जीवों के लिए दया भाव तो है पर उन्हें पलना पोषना वह पाप की परिधि में लाती हैं। उनका मनना है कि इस से जीवों की स्वच्छंदता प्रभावित होती है और मनुष्य में आसक्ति पनपती है । यह आसक्ति पाप की परिचायक है । वह जीवन भर कुत्ता बिल्ली तोता खरगोश आदि के पालने की विरोधी रही हैं  । मैं जनता था वह किसी भी कीमत पर बर्दास्त नहीं करेंगी और मुझे इन बच्चों को वापस लाना ही पड़ेगा ।
     चाय आ चुकी थी कौसर भाई ध्यान मग्न होकर चाय की चुस्की ले रहे थे तभी उन्होंने फिर कहा –
“अरे भाई तिरपाठी ये देखो कुछ सुना “………
“मैं कुछ समझ नहीं पाया भाई आपने क्या सुना ?  ” मैंने कौसर भाई से पूछा ।
” ई उनही गिलहरी के बच्चवन की आवाज है। कितनी दूर तक ई आवाज पहुच रही है । आओ चलौ हमरे साथ हम दिखाते हैं ।”
    इतना कहते ही वह चल पड़े । वहां पहुँच कर वह पिलर पर चढ़ गए घोसले में से चार बच्चों को निकाला । दो भोजन पानी के आभाव में मर चुके थे दो जीवित बचे थे ।
“ई देखो तिरपाठी ई दोनों भी आज कल मा मरि जइहैं ।
   ऐसा करो इनका तुम घर लइ जाओ रुई से दूध ऊध पिलाइहौ तौ जी जइहैं । “

     बच्चे बेहद कोमल थे परंतु मुरझाये हुए थे । काफी क्षीण अवस्था में थे । अगर उन्हें उसी घोसले में फिर रख देते तो उनकी मृत्यु निश्चित थी । अतः मैंने फैसला कर ही लिया था कि कुछ भी हो इन्हें जिन्दा रखने की  कोशिस जरूर करूँगा । उन्हें टेबल पर रख कर देखा तो थोडा बहुत चल लेते थे । भूखे होने की वजह से बहुत कमजोर हो गए थे । कुछ देर तक हथेली पर रख कर ध्यान से देखता रहा । ड्यूटी ख़तम हो चुकी थी , ईश्वर का नाम लेकर उन्हें घर ले आया ।
     घर लाते ही पत्नी ने पूछा ये डिब्बे में क्या है ? मैंने एक साँस में गिलहरी के बच्चों की कहानी सुना डाली । पत्नी के चेहरे पर एक अजीबो गरीब आकृति उभर आयी । आवेशित होकर बोल पड़ी
“आखिर ये जो महाशय आपको रास्ता दिखाए हैं वो क्यों नहीं ले गए इन्हें अपने घर ? आप ही बेवकूफ मिले थे ये पाप कमवाने के लिए । ये छोटे छोटे बच्चे कैसे जिएंगे, मर जाएंगे । मैं तो इस पाप के किनारे नहीं जाउंगी । आप जानो आप का काम जाने ।”

   उनका यह उपदेश चल ही रहा था तब तक मेरे दोनो बच्चे भी आ गए । गिलहरी के बच्चों को देखकर वे काफी खुश और उत्साहित नजर आए ।
बड़े बेटे ने प्रतिवाद किया –

” तो क्या” क्या हुआ मम्मी ….. वैसे भी मर जाते  कोशिस करने में क्या जाता है । थोड़े बड़े हो जाएंगे तो छोड़ देंगे ।इनकी जान बच जायेगी तो सबको ख़ुशी होगी । “
   छोटा बेटा पुनीत भी समर्थन में उतर आया ।
“मम्मी आप मान भी जाओ बच्चों को मरने नहीं देंगे हम लोग । “

   “ठीक है जैसी मर्जी हो करो हम किनारे नहीं जाएंगे  । हमें नहीं कमाना है कोई पाप ।” पत्नी ने झुंझलाते हुए कहा ।
“आप चिंता मत करो हम सब लोग मिलकर पाल लेंगे ।”
विनीत ने उन्हें सांत्वना दिया ।

  एक कटोरी में विनीत गाय का दूध ले आया । बच्चों के मुह को कई बार दूध तक लाया गया । दूध में मुह भी डुबोया गया लेकिन वे बच्चे दूध पीना ही नहीं जानते थे । फिर कौसर भाई की बात याद आयी  । रुई की बाती दूध से भिगो कर उनके मुह पर रखोगे तो पिएंगे ।  बाती को दूध से भिगो कर जब बच्चों के मुह तक लाया गया तो वे बच्चे माँ का थन समझ बाती को चूसने लगे  । इस तरह उनके दूध पीने का श्री गणेश हो चुका था। उन्हें जब लगातार हर दो घण्टे तक पर दूध दिया गया तब वे दो तीन दिनों के बाद स्वस्थ नजर आने लगे । उनके जीवित रहने की उम्मीद भी जाग गयी । उन्हें स्वस्थ होते देख पत्नी भी काफी खुश दिखने लगीं ।
    एक सप्ताह बाद अब वे बिस्तर पर चलने फिरने लगे थे । बच्चों ने उनके लिए गत्ते के एक डिब्बे में रुई डालकर घोसला बना दिया था । गत्ते में पेन से कई छोटे छोटे छेद कर दिया था जिससे हवा आती जाती रहे । एक बिल्ली का भी कभी कभी घर में आना जाना होता था इस लिए उसको ध्यान में रखकर मजबूती को पहले ही परखा जा चुका था। कोई बिल्ली उसे खोल ना सके इसलिए गत्ते में एक लाक की भी व्यवस्था की गयी थी । उनका बिस्तर पर टहलना चीं चीं चिक चिक करना । फिर एक दूसरे को ढूढ़ना सब कुछ बहुत मनोरंजक हो गया । बच्चों की चंचलता उनका खेलना कूदना देख कर पत्नी मन्त्र मुग्ध हो जातीं थी । अब वह बच्चों की स्पेशल केअर टेकर बन चुकीं थीं । मोहल्ले के बच्चे भी उन्हें देखेने अपने पापा मम्मी को साथ में लेकर आने लगे   । मेरी फैक्ट्री के एक अधिकारी महोदय भी उन्हें देखने गए । बच्चों का दूध पीते वीडियो भी बनाया।
   एक दिन एक बच्चे का पेट फूल आया काफी सुस्त हो गया । किसी ने कहा सबको मत दिखाया करो । नज़र लग जाती है । बस तब से सावधानी बरती जाने लगी । हाजमा सही करने के लिए दूध को पतला कर दिया गया । दो दिन वह बच्चा स्वस्थ हो गया ।
    लगभग 15 दिन बीत चुके थे । वे बच्चे अब बिस्तर के बजाय फर्श पर टहलने लगे थे । उनके चाल में गति आ गयी थी चिक चिक चीं चीं की आवाज से अब पूरा घर गूँज उठता था । सुगमता से पकड़ में नहीं आते थे । आवाज देकर बुलाने पर वे करीब आ जाते और पैरो पर चढ़ जाते  फिर कन्धों तक पहुच जाते 

फिर उतर कर भाग जाते । वे दूध अभी भी पीते थे । कभी बिस्तर पर आ जाते कभी तकिये के पीछे छिप जाते तो कभी परदे पर चढ़ जाते । बहुत ही मनोरंजक दृश्य उत्पन्न हो जाता था । पूरा परिवार अब टी वी के बजाय इनके खेल से आनंदित होने लगा था   । मेरे सामने चुनौतियाँ  बढ़ गयीं थी । 

अब इन्हें इनके मूल प्राकृतिक वातावरण की ट्रेनिग देनी थी । अब मैं इन्हें दरवाजे की फुलवारी में टहलाने लगा था । गुड़हल के पेड़ पर चढ़ जाना और उतर आना ये सब करतब ये सीख चुके थे । वहां अन्य गिलहरियां भी आती थी । चावल के कुछ दाने मैं जान बूझ कर वहाँ फेक देता था जिस से अन्य गिलहरियां वहां आकर रुके और बच्चों को अपनी कंपनी में शामिल कर लें   । और दूसरा उद्देश्य ये था कि बच्चे शायद देख कर अनाज के दाने खाने प्रारम्भ कर देंगे । गिलहरियां आने लगी थोडा बच्चों के करीब आतीं और फिर वापस चली जाती । इन बच्चों के प्रति उनके मन में कोई विशेष आकर्षण नहीं देखा गया  और ना ही दाना चुनते देख ये बच्चे उनसे प्रेरित ही हुए । यह क्रम भी एक सप्ताह तक चलता रहा ।
     रविवार के दिन मेरी छुट्टी थी । सवेरे बच्चों को बाहर निकाला । उनमे से एक बहुत सुस्त नजर आया । ध्यान से देखा तो उसे दस्त आ रहा था । घोसला बदला गया । दूसरे घोसले की डेटॉल से सफाई की गई । बच्चे की भी सफाई की गयी । मेडिकेटेड रुई घोसले में डाली गयी । बच्चे को मिनिरल वाटर दिया गया । उसने पानी काफी तेजी से पिया ऐसा लगा जैसे उसके शरीर में पानी की काफी कमी हो गयी हो । थोड़ी सुस्ती कम हुई लेकिन समाप्त नहीं हुई । पानी मिला दूध भी दो बार दिया गया । थोड़ी सी चैतन्यता आयी। पता नहीं क्यों  जिस दूध को पीने के लिए वह प्रतिस्पर्धा रखता था आज वही दूध पीना उसे पसंद नहीं आ रहा था । दूसरे दिन सोमवार को वह बिलकुल सुस्त हो गया ।
             दस्त की समस्या अनियंत्रित होती जा रही थी । विकल्प के तौर पर मेरे पास ओ आर एस का घोल था हम उसे दे रहे थे । हर पांच मिनट पर एक दो बूँद घोल उसके मुह में डाल देते । कुछ पीता कुछ उगल देता । इसी बीच दूसरे बच्चे की हालत भी ख़राब हो गयी । वह कापने लगा थोड़ी देर बाद उसे भी वही समस्या तेज दस्त से उसकी भी स्थिति चिंता जनक होने लगी । पहले वाले बच्चे की स्थिति अब ज्यादा ख़राब हो गयी थी । पत्नी उसके लिए महा मृत्युंजय का जप कर रहीं थी । शाम सात बजे तक उसके हाथ पैर ऐठने लगे थे । अब बेहोशी की स्थिति में पहुच चुका था । दूसरा वाला भी काफी कमजोर हो गया था उसे मेट्रोजिल का सीरप भी  दिया गया । कोई सुधार नही हो पा रहा था ।
     घर पर पूरा परिवार दुखी था । क्या करूँ कुछ समझ में नहीं आ रहा था । दूसरे बच्चे के इलाज की भी वही प्रक्रिया चल रही थी। मेरी नाइट शिफ्ट ड्यूटी थी ड्यूटी जाना जरुरी था क्यों कि बाकी लोग छुट्टी पर थे । मैं ड्यूटी चला आया । रात भर उन बच्चों की चिंता मन में छाई रही । ईश्वर से प्रार्थना करता रहा। सवेरे पौने छः बजे छुट्टी होते ही घर पंहुचा तो देखा सब सो रहे थे । पत्नी ने बताया रात तीन बजे तक सब लोग उसके इलाज में लगे रहे एक तो लगभग बेहोश ही रहा दूसरा रात में तेज तेज कापने लगा था । विनीत उसका घोसला फ्रिज पर स्टेप लाइजर के पास रख आया था जिससे थोड़ी गरमी बनी रहे ।
 मैं तुरंत फ्रिज के पास उनके घोसले तक गया । घोसला खोल कर देखा तो वे दोनों चेतना शून्य हो चुके थे । आँखे भर आईं । मैं पुनः अपराध बोध से ग्रसित हो गया । मेरी आत्मा ईश्वर से पूँछ रही थी हे ईश्वर अब इसका प्रायश्चित किस रूप में कराओगे ।
                                                 -नवीन मणि त्रिपाठी   
लेखक व् गज़लकार
  
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                                                     -नवीन मणि त्रिपाठी 

      दिसंबर का आखिरी सप्ताह ……बरसात के बाद हवाओं के रुख में परिवर्तन से ठंडक  के साथ घना कुहरा समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रहा था । हलकी हलकी पछुआ हवाओं की सरसराहट ……….. पाले की फुहार के साथ सीना चीरती हुई  बर्फीली ठंठक एक आम आदमी का होश फाख्ता करने के लिए काफी थी । पिछले पन्द्रह दिनों से सूर्य देव के दर्शन नहीं हुए थे । छोटी छोटी चिड़ियाँ भी पेट की लाचारी की वजह सी निकल तो आती परंतु  फुदकने के हौसले बुरी तरह पस्त नज़र आ रहे थे । कुहरे में का अजीबो गरीब मंजर पूरा दिन 
टप………टप      ……टपकटी शीत की बूंदे……शहर का तापमान एक दो डिग्री के आसपास ठहरा हुआ …….। अखबारों में मवेशियों और इंसानो की मौत की ख़बरें  आम बनती जा रही थी । कम्बल रजाई सब के सब बे असरदार हो गए , ज्यादा तर घरों में अलाव जलने लगे ।  सरकारी इन्तजाम में चौराहे पर अलाव जलने लगे । सर्दी का आलम बेइंतहां कहर बरपा कर रहा था  ।

     शाम सवा पांच बज चुके थे । मैं अपने सहकर्मी विनोद के साथ गेट पर रुक कर ड्यूटी समाप्ति की घोषणा करने वाले सायरन की प्रतीक्षा कर रहा था । विनोद के पैरों  में चोट थी इसलिए वह मेरी ही बाइक से आजकल आता जाता था । फैक्ट्री का सायरन बजते ही ड्यूटी समाप्त हो गयी । तीन किलो मीटर दूर अपनी कालोनी के लिए नेशनल हाई वे पर बाइक से चल रहे थे तभी रोड पर एक बुड्ढे को सड़क पार करते हुए देखा । बुड्ढा चार पांच कदम चलने के बाद लड़खड़ा कर  सड़क पर गिर गया । तब तक मेरी गाड़ी उसके करीब पहुच गयी । मैंने देखा उसके बदन पर फटा पुराना कुर्ता  मैली सी मारकीन की धोती एक ओबर साइज अध् फटा स्वेटर पैरों में दम तोड़ता सा एक हवाई चप्पल । उम्र यही कोई पचहत्तर से अस्सी के बीच । काफी कमजोर काया । मैंने गाड़ी रोक दी ।



    क्या हो गया बाबा जी ??? जल्दी उठिए नहीं तो गाड़िया आपको रौंद डालेंगी । मैंने बाबा से कहा । 




बाबा ने थोड़ी कोसिस की और फिर खड़े हो गए । करीब दो तीन कदम ही चले होंगे और फिर लड़खड़ा कर गिर पड़े । तभी तेजी से  सामने  की ओर से आती हुई कार ने ब्रेक लगाया ।उसके ब्रेक लगाने से बाबा की जान तो बाच गयी अंदर से ड्राइवर की आवाज आयी ” अरे बाबा मारना ही है तो किसी और गाड़ी से मरो । मैंने क्या बिगाड़ा है बाबा । इतना कहते कहते ड्राइवर ने गाड़ी बैक किया और साइड से होकर निकल गया ।बाबा वहीँ पड़े के पड़े । मुझे लगा बाबा को शायद अब मेरी मदद की जरूरत है । लगती है उन्हें कोई दिक्कत आ गयी है । 
अगर इनकी मदत नहीं की तो इसी अंधेरे में कुछ सेकेण्ड में अभी दूसरी कोई गाड़ी आएगी और बुड्ढे को रौंद कर चली जायेगी ।


    मैंने तुरंत बाबा की सुरक्षा के लिए रोड पर ही अपनी बाइक 
आड़ी तिरछी खड़ी कर दी । बाबा को रोड से उठा कर  मैं और विनोद दोनों मिलकर किनारे ले आए । फिर गाड़ी भी किनारे ले आये ।

   
 बूढ़े बाबा बार बार कुछ बताने का प्रयास कर रहे थे परंतु अस्पष्ट शब्द थे कुछ समझ पाना मुश्किल था । 

 मैंने इनसे पूछा ” बाबा कहाँ तक जाना है आपको ? मैं आपको आपके घर छोड़ दूंगा ।”

 “बेइया ” बाबा ने कहा था ।
क्या कहा बाबा बेइया ?? मैंने दोबारा स्पष्ट कराना चाहा बाबा ने अस्वीकृत में सर हिला दिया । 
बाबा ने फिर कहा बे ई या …..बे ई या.. 
क्या बेरिया …….???
बेड़िया……?? या बेलिया ???
बाबा सभी शब्दों को अस्वीकृत करते गए और वही बेइया की रट लगाये रखे ।
   अंत मुझे लगा शायद इनकी दिमागी हालत भी ठीक नहीं है ।



   मैंने उनकी हालत देख कर अपने घर चलने का आग्रह किया लेकिन बाबा तौयार नहीं हुए और एक बार फिर उठ कर खड़े हो गए और चलने लगे । बस चार कदम ही चले होंगे और बाबा फिर गिर पड़े । इस बार चोट भी ज्यादा लग गयी । बाबा को उठाया उन्हें चोट से थोडा चक्कर भी  आ गया था । 

बाबा को होश आने पर कलम कागज दिया गया शायद कुछ लिख सकें बाबा परंतु बाबा कुछ पढ़े लिखे नहीं थे । । बुड्ढे बाबा के घुटनों में बार बार गिरने से घाव हो गया था । मैने  विनोद की तरफ देखा और पूछ ही लिया –
” विनोद भाई क्या किया जाए इनका ? लगता है किसी बड़ी बीमारी की वजह से पीड़ित हैं । “
“नहीं भाई यह घर पर ले चलने लायक नहीं है । कही कुछ हो गया  तो और तबाही । ऐसा करते हैं इसे क्यों न थाना तक पंहुचा दिया जाए । थाने वाले जरूर बाबा को घर तक पंहुचा देंगे ।”

   विनोद की बात में दम था । बर्फीली ठण्ढक के प्रकोप से बाबा की जान जाने की सम्भावना थी ।

विनोद ने एक नज़र घड़ी देखी 
और फिर अचानक कुछ शब्द निकल पड़े ………,,,,,,,,”।

विनोद ने कहा 

देखिये इस रास्ते पर इतने सारे लोग गुजर गए किसी ने बाबा की कोई खोज खबर नहीं ली लोग इन्हें छोड़ कर आगे बढ़ते रहे । आप क्यों रुके हैं ? इनको अब इनके हाल पर छोडो और आगे बढ़ो । यह सब फालतू का कार्य है । आपने इनकी जान बचा दी अब आप की ड्यूटी समाप्त हो गयी । बहुत मिलेंगे दाता धर्मी  ।” 


विनोद की बात जरूरत से ज्यादा प्रैक्टिकल लगने पर मैंने टोक दिया ।

“अरे भाई विनोद जी इतनी पढाई लिखाई की इतनी सारी नैतिक

 शिक्षा की किताबे पढ़ी ….. कर्तव्यों को निभाने का वक्त आया तो भाग जाएँ ??? यह उचित तो नहीं यार ।
चलो इसे किसी सुरक्षित स्थान पर 
कर दिया जाये जहाँ से इनकी पहचान हो सके और अपने घर यह पहुँच जाएँ ।
    चलो अब बहुत हो गया लाओ बाबा को गाड़ी पर बैठाओ ले चलते हैं इन्हें थाने पर ही छोड़ते हैं । 

   थोड़ी देर बाद हम थाना पर पहुच गए । इंचार्ज महोदय गस्त पर थे । ऑफिस में दीवान जी को बाबा की पूरी कहानी बताई । दीवान जी ने बाबा को ओढ़ने बिछाने का कम्बल दिया । बाबा से थोड़ी पूछ ताछ की कोशिस कर  यथास्थिति से अवगत हो गए । मैंने  अपना नाम पता नोट कराया और सीधे घर आ गया  ।


     बाबा को सुरक्षित स्थान पर छोड़ आने से मेरे मन को बहुत शांति मिल रही थी । जीवन में पहली बार 

किसी असहाय की सेवा करके मन गर्वान्वित महसूस कर रहा था ।

      घर पर देर में आया था । पत्नी का मूड आफ था पहुचते ही पहले सवाल की फायरिग हो गई 

” कहाँ थे अभी तक?? “
घर पर क्या है क्या नहीं कुछ 
खबर भी है आपको ? 
   अभी तक दूध और सब्जी नहीं आया और आप को पिकनिक 
करने से फुरसत ही कहाँ और……….
पत्नी की बातें काटते हुए मैंने कहा । प्लीज शांत हो जाओ देवी । पहले बात को समझ तो लो फिर पूरी बात कहना । 
  बुरी तरह फंस गया था । आज एक बुड्ढे की जान बचा के आया हूँ । अगर मैं नहीं होता तो रोड पर मर जाता ……और तुम मिजाज ही गर्म किये जा रही हो । 
सारी कहानी सुनने के बाद पत्नी धीरे धीरे सामान्य हो गई । रात्रि भोजन के उपरांत कब नींद लगी पता ही नहीं चला ।

    काफी रात में दरवाजा खट खटाने की आवाज आयी । घडी में रात एक बजे थे । मैंने दरवाजा खोला तो देखा बाहर एक पुलिस वाला खड़ा था । 

मुझे देखते ही बोला “क्या त्रिपाठी जी आप ही हैं जो शाम को थाने पर गए थे ?”
   “जी हाँ भाई मैं ही हूँ । कहिये इतनी रात में कैसे परेशान हो गए ।”
    “दरोगा जी गस्त से आ गए हैं आपको अभी तुरंत बुलाये हैं । चलिए आप ।” पुलिस वाले की बातों 
में हल्का रौब मुझे साफ नज़र आ गया था । 
“बस दो मिनट रुकिए कपडे चेज करके चल रहा हूँ ।” मैंने उस से विनम्रता पूर्वक कहा ।

   मैंने बाइक स्टार्ट किया । मन में एक अजीब से बेचैनी । मोहल्ले के 
लोगों ने थोड़ी पुलिस को देख के थोड़ी ताक़ झांक की थी । लोग अपने मन में जाने क्या क्या कयास लगा रहे होंगे । दरोगा आखिर मुझे 
सुबह भी तो बुला सकता था रात में क्यों बुलाया । सुना है यह दरोगा पब्लिक से बहुत पैसे कमा रहा ।
इस प्रकार तरह तरह के विचार मेरे मन में आ और जा रहे थे । बस अब थाना पहुच गए और थानेदार  महोदय की आफिस में पंहुचा तो पता चला साहब अभी अभी गस्त से लौटे हैं इस वक्त हवालात में दो लड़को की पिटाई कर  रहे है । सिपाही ने कहा यही बैठो यहीं मिलेगे ।


   हवालात से दरोगा जी के डंडो की आवाज और रह रह कर तेज जोरदार गालिया और चिल्लाने और कराहने की आवाजे तेज हो जाती थी ।जोर दार गालियां ……तड़ाक ,………..चटाक  फिर भयावह रूदन ….
मुझे तो ऐसा लग रहा था जैसे मैं भी कोई अपराधी हूँ बस अगला नम्बर मेरा ही है । इतना क्रूरतम कार्य करने के बाद उसकी मनः स्थिति सामान्य होने की कल्पना करना मेरे बूते की बाहर की बात थी । यह सब सोच ही रहा था कि दरोगा जी कमरे में पहुच गए ।

दरोगा जी ने देख के घूरा उसके बाद बोल पड़े 


”तो आप हैं मिस्टर त्रिपाठी !”

पता है तुम्हे मिस्टर ? ……जिस 
आदमी को तुम यहां छोड़ गए हो उसे मिर्गी की तरह दौरा आया था । लग रहा था बचेगा ही नहीं । और अब तेज बुखार से काँप रहा है ।

      त्रिपाठी जी आप तो बड़े दयालू बड़े धर्मात्मा लगते हो जी । रोड चलते दीन दुखियों पर उपकार किया करते हो जनाब । 
जितने कूड़े रोड पर मिलते हैं सब थाने भेज कर धर्मात्मा बन जाते हो । मुझे भी तुम्हारे जैसे लोगों की ही तलास है । सैकड़ो धाराएं हमारे हाथ में हैं उनमे से कुछ धाराएं ऐसे लोगों के लिए हैं जो थाने की नीद मुफ़्त में हराम करते हैं ।

     मैं इनकी सेवा के लिए नहीं बना हूँ । अगर यही सब करते रहे तो हो चुकी थानेदारी ।


    अगर यह बुड्ढ़ा मर मुरा जाता तो ये साले अखबार वाले सबसे पहले पुलिस वालो को हेडलाइन बना देते हैं । लेना एक न देना दो ।…….और फिर इस थाने ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो ये बला यहां छोड़ गए । कोई धर्मशाला समझ रखा है क्या । त्रिपाठी जी 

मैं इसी केस में आप के ऊपर ऐसी धारा में चालान कर दूंगा कि 6 महीने तक जमानत नहीं होगी ।समझ में आयी बात ……”

     दरोगा जी ने बड़े रौब से अपनी बात कहते जा रहे थे और मेरे पास सुन लेने के अलावा और विकल्प ही क्या था ।

जी सर 
यस सर 
कहते कहते जुबान घिस रही थी । शराब के नसे में चूर दरोगा मेरी जरा सी नादानी से किसी भी स्तर को पार कर सकता था । आरगूमेंट करने का मतलब साफ़ था आ बैल मुझे मार ।

     एक लम्बा चौड़ा व्याख्यान सुनाने के बाद दरोगा जी ने कहा –

“ऐसा करो इस बुड्ढे को अस्पताल ले जाकर लावारिस में भर्ती करा दो । मैं अपना एक सिपाही तुम्हारे साथ भेज देता हूँ ।”

“जी सर आप भाई साहब को मेरे साथ भेज दीजिये मैं इन्हें अस्पताल में भर्ती करा दूंगा । “

      
      मैंने तुरंत सहयोगात्मक रवैया अपनाया ।

दरोगा जी ने कहा बुड्ढे को सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर भर्ती करा देना । अगर कोई दिक्कत हो तो मेडिकल कालेज लेकर चले जाना ।

     जी सर कहकर मैंने तुरंत बाबा को गाड़ी पर बैठाया और उसी बाइक पर पीछे सिपाही भी  बैठ गया । थाना से पांच किलो मीटर दूर स्वास्थ्य केंद्र की ओर रात सवा दो बजे भयंकर शीतलहर में गाड़ी चलाना किसी चुनौती से कम नहीं था लेकिन थाने के इस विषाक्त माहौल से तो बेहतर ही था ।

   करीब दो किलोमीटर दूर गाड़ी चली होगी तभी पीछे बैठे सिपाही को कुछ गीला और भीगने जैसा आभास हुआ । गाड़ी रोकने के लिए पीछे बैठे सिपाही ने आवाज दिया । मैंने गाड़ी रोक दी।

सीट पर देखा तो बाबा ने पेशाब कर दिया था । पेशाब देख कर सिपाही गुस्से से उस शक्ति हीन बुड्ढे पर उबल पड़ा और देखते ही देखते 
बुड्ढे को तीन चार तमाचा जड़ दिया ।

    “साला बुड्ढ़ा 

पेशाब जाना है या नहीं 
कुछ बताता भी नहीं साला …..पागल ।”
    
मैंने स्थितियों को संभालते हुए किसी तरह सिपाही को शांत कराया । उसे मानाने में काफी दिक्कत हुई । गाडी मैंने फिर से अस्पताल की ओर बढ़ा दी । कुछ ही पल में हम अस्पताल में दाखिल हो चुके थे । बाबा को खाली बेड पर लिटाया गया। डॉक्टर साहब आये चेक किया और कुछ दवा देकर रेफर टू मेडिकल कालेज की पर्ची बना दिया । अस्पताल में जगह खाली ही नहीं थी अतः हम तीनो  मेडिकल कालेज की 
ओर निकल पड़े ।
रास्ते में बाबा जैसे ही कमजोरी से सर दाहिने या बाएं ले जाना चाहे 
तो सिपाही महोदय तुरंत एक चाटा बाबा को रशीद कर दें ।

      सिपाही की यह हरकत मुझे बहुत बुरी लगती ।मैंने  मना किया फिर भी नहीं माने । अगले कुछ पलों में हम लोग मेडिकल कालेज पहुच गए ।




   
बाबा को भर्ती करा दिया गया । बाबा का इलाज शुरू हो गया  । नर्स ने तुरंत बाबा को दो इंजेक्शन दिया । 

      

 बाबा जी को ग्लूकोज डिप्स चढ़नी शुरू हो गयी थी । हॉस्पिटल में एडमिट देख कर मुझे बहुत शांति मिली । बार बार मन में विचार आता कास बाबा का अपना कोई परिवार आज उनके साथ होता तो बाबा की ऐसी गति क्यों होती। यह बेवकूफ सिपाही जिसके अंदर कोई मानवता ही नहीं …… वह जल्लाद दरोगा जो सिर्फ फायदे के लिए जीता है ….. जिन्हें कभी विभाग की ओर से कोई नैतिक शिक्षा दी ही नहीं गयी । समाज  की भ्रष्टतम इकाई बन चुकी है यह पुलिस । अब शरीफ इंसान का थाने जाना भी गुनाह हो जाता है……….|

    

      मैं अस्पताल से बाहर निकल ही रहा था तब तक नर्स ने एक लम्बा चौड़ा दवा का पर्चा पकड़ा दिया । मैंने भर्ती किया था इसलिए दवा खरीदने का नैतिक दायित्व मेरा ही था । 
पर्चा लेकर दूकान गया । कुल 1600 की दवा थी । मेरी जेब में मात्र 100 रूपये ।
     साथी सिपाही से उधार माँगा तो उसने कहा – 
“इतने पैसे मेरी जेब में नहीं । इतना रुपया लेकर हम लोग नहीं चलते । ऐसा करो त्रिपाठी जी ……महराज ….अब अपने कर्तव्य इति श्री करो । ऐसे भला करते रहे तो जल्दी ही सड़क पर आ जाओगे ।
चलो गाडी स्टार्ट करो हमे थाने छोडो………इस बुड्ढे साले की वजह से रात तो वैसे ही कबाड़ा हो चुकी है ।
अब यह तमाशा बन्द करो । सुबह हो गयी है । हमारे भी बी बी बच्चे हैं । सुबह ड्यूटी भी है । “


     एक पल सोचने के बाद निर्ममता से  मैंने भी गाडी स्टार्ट कर दी और घर चल पड़े ।
      

 


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“अम्मा मैं बहुत अच्छे नम्बर से पास हो गई हूँ । अब मैं भी पी सी एस अधिकारी बन गयी ।”
बेटी दुर्गा ने अपने पी सी एस की परीक्षा उत्तीर्ण करने की सूचना को जैसे ही नैना को बताया नैना की आँखों से आंसू छल छला कर बहने लगे ।
“अरी मोरी बिटिया बस तुमका ही देखि देखि ई जिंदगी ई परान जिन्दा रहल । ” आज हमार सपना पूरा हो गइल । तोरे पढाई माँ आपन पूरा गहना गीठी सब बेच देहली हम । दू बीघा खेत बिक गइल । चार बीघा गिरो रखल बा । आज तू पास हो गइलू त समझा भगवान हमरो पतुरिया जात के सुन लिहलें ।
दुर्गा को गले लगा कर काफी देर तक नैना रोती रही । माँ को देख कर दुर्गा की आँखों में भी आंसू आ गए ।दुर्गा की आँखों के सामने वह बचपन का सारा मंजर घूम गया था । लोग बड़ी हिकारत भरी नजरों से देखते थे । माँ का समाज में कोई सम्मान नही था । गांव में आने वाले लोग घूर घूर के जाते थे । नैना ने बहुत साफ शब्दों में सबको बता दिया था बेटी नाच गाना नही सीखेगी । स्कूल जायेगी और साहब बनेगी । गाव का वह माहौल जिसमे पढाई से कोई लेना देना ही नही था । अंत में माँ ने सरकारी स्कूल के छात्रावास में रखकर पढ़ने का अवसर दिलाया ।


सचमुच में नैना का त्याग और बलिदान गांव वालों के लिए एक मिशाल से कम नही था ।

गाँव के लोग एक एक कर आ रहे थे । आखिर दुर्गा पतुरियन के पुरवा का गौरव जो बन चुकी थी । ढेर सारी बधाइयां ढेर सारे लोगों की दुआए नैना की ख़ुशी में चार चाँद लगा रहे थे ।
चर्चा कई गांव तक पहुँच चुकी थी । खास बात यह नही थी कि दुर्गा ने परीक्षा पास कर ली है बल्कि खास तो यह था कि एक पतुरिया की बेटी ने यह परीक्षा पास की है । दूसरे दिन अख़बार में जिले के पेज पर दुर्गा की खबर प्रमुखता से छपी । हर गली मुहल्ले चौराहे पर सिर्फ दुर्गा की ही चर्चा ।
दुर्गा आज समाज का बदला हुआ रूप देख कर हैरान थी । यह वही समाज है जब दुर्गा सौरभ के साथ उसके घर गयी थी तो सौरभ की माँ ने उसके बारे में पूछा था । सौरभ ने बताया था मेरे स्कूल में पढ़ती है मेरी पिछले साल की कक्षा पांच की किताबें पढ़ने के लिए मांगने आयी है । पतुरियन के टोला में रहती है ।
सौरभ की बात सुनकर सौरभ की माँ ने कहा था
” हाय राम ! ई पतुरिया की बेटी का घर मा घुसा लिहला । इका जल्दी घर से पाहिले बाहर निकाला ।
जा उई जा पेड़ के नीचे बैठ …… ऐ लइकी ………..घर से बाहर निकल पाहिले । तोके कउनो तमीज न सिखौली तोर माई बाप का ? जा…..जा….”
सौरभ को बात बहुत बुरी लगी थी और माँ से लड़ने लगा था तो माँ ने सौरभ की गाल पर दो चार तमाचे भी जड़ दिए थे । बेचारा सौरभ दूसरे दिन चोरी से उसे सारी किताबें दे गया था । बाद में वही सौरभ दुर्गा का सबसे अच्छा दोस्त साबित हुआ । और वह दोस्ती आज भी पूरी तरह कायम है ।
उपेक्षा तिरस्कार से रूबरू होते होते दुर्गा की इच्छा शक्ति दृढ होती गयी थी । इसी दृढ़ इच्छा शक्ति से उसने वह लक्ष्य हासिल कर लिया जिससे आज वही समाज उसका गुणगान करता नज़र आ रहा था ।
गाँव वाले दबी जुबान से यह भी कहते थे दुर्गा तो माधव की बेटी ही नहीं है । यह तो माधव के मरने के साढ़े दस महीने बाद पैदा हुई थी । पतुरियन के पुरवा के लिए यह बात कोई खास मायने नही रखती थी । सबके इज्जत में कालिख की कमी नही थी । सबके अपने अपने अफ़साने थे ।
दिन के दस बजे थे । दुर्गा के घर के सामने हेलमेट लगाए एक मोटर सायकिल सवार नौजवान ने अपनी बाइक रोकी ।
” आंटी जी दुर्गा का घर यही है न ?
” हाँ बिटवा घर तो यही है । हाँ ऊ बइठी बा पेड़वा के नीचे ”
“जी दुर्गा को बधाई देने आया हूँ । ”
हेलमेट लगाये युवक ने दुर्गा को देखकर आवाज दिया ।
“बधाई हो दुर्गा !”
अरी तुम ? …….कैसे हो सौरभ ?
दुर्गा का चेहरा खिल उठा था ।
ऐसा लगा जैसे सौरभ से मिलकर जाने क्या पा गयी हो । शायद उसकी ख़ुशी दो गुना हो गयी थी ।
“अख़बार में पढ़ा तो रहा ही नही गया और आज पहली बार तुम्हारे घर भी आ गया ।” सौरभ ने कहा ।
” हाँ सौरभ यह सारी तपस्या तो बस तुम्हारी वजह से पूरी हो गयी । एक तुम ही तो थे जिसकी गाइड लाइन से मैं यह मुकाम हासिल कर सकी । चोरी चोरी तुम्हारे भेजे गए पैसों की मैं बहुत कर्जदार हूँ । आज तुम मेरे घर आ गए समझो भगवान् ने मेरी सारी मुराद पूरी कर दी । ”
“और सुनाओ क्या हो रहा है आजकल ?”
दुर्गा ने पूछा ।
“दुर्गा मैं दो बार आई ए एस के लिए ट्राई किया । एक बार तो प्री ही नही निकाल पाया दूसरी बार में प्री और मेन दोनों क्वालीफाई करने के बाद इंटरव्यू से आउट हो गया ……………। ”
“इस बीच यू पी एस सी से कस्टम इंस्पेक्टर के लिए क्वालीफाई हो गया हूँ । ”
“बधाई हो सौरभ । अब तो नौकरी भी तुम्हे मिल गयी । अब तो शादी में कोई बाधा नहीं । ”
“हाँ दुर्गा तुम ठीक कह रही हो ,
अम्मा भी यही कहती हैं जल्दी से जोड़ी ढूढ़ नहीं तो मैं अपने पसंद की कर दूँगी । ”
“तो ढूंढी कोई जोड़ी ?”
“सच बताऊँ क्या ?”
“हाँ हाँ बताओ न ? ”
“जोड़ी तो वर्षों पहले से ही ढूढ़ चुका हूँ । लेकिन अब वह शादी होगी या नहीं भगवान् ही जाने ……”
दुर्गा के मन में उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी ।
कैसी है वो ?
बिलकुल तुम्हारे जैसी ?
अरी यार साफ साफ बताओ न ?
क्या तुम्हारे ही कास्ट में है ?
“नहीं जी इंटर कास्ट ।”
दुर्गा की धड़कने तेज हो गयीं थी । जिसे वह वर्षो से चाहती आ रही थी लेकिन जाति के कठोर नियम के आगे सौरभ से शादी के बारे में सोच तक नही सकी थी आज वही सौरभ इंटरकास्ट मैरिज की बात कर रहा है । दुर्गा के मन में जो मुहब्बत वर्षो से दबी पड़ी थी आज वह तेजी से हिलोरे मारने लगी ।
क्या सोचने लग गयी दुर्गा ?
“कुछ नही सौरभ । बस यही सोच रही हूँ वो भाग्यवान आखिर है कौन । मैं तो तुम्हारे घर के जाति अनुशासन से अच्छी तरह परिचित हूँ । मुझे बचपन की वह बात आज भी याद है । मुझे नही लगता तुम्हारे खानदान के लोग उसे स्वीकार कर लेंगे । ”
सच बताओ सौरभ कौन है वो ।
दुर्गा तुम्हे क्या लगता है ? मेरा सबसे अजीज कौन है । वो चिट्ठियां वो बात चीत का दौर ……जो भी चलता था क्या वह तुम्हे याद नहीं …….और फिर कैरियर के लिए …….सब कुछ बन्द कर देना क्या वह भी तुम्हे याद नहीं ?
“क्या मतलब …….तुम्हारा इशारा कहीं मेरी ओर तो नहीं …….”
नहीं नहीं सोचो …….खुद सोचो ….और बताओ ?
दुर्गा अपनी जिंदगी में मित्र के रूप में सिर्फ सौरभ को चुनी थी लेकिन इतने दिनों के बाद भी यह सम्बन्ध सिर्फ दोस्ती के लिबास में जिन्दा रहा । उसने कभी कल्पना भी नही की थी कि उसका सपना कभी यथार्थ के धरातल पर भी साकार हो सकता था । आज सौरभ की बातो से उसे जो संकेत मिल रहा था वह अकल्पनीय था । उत्सुक्ताएं अपने चरम को छू रही थी ।
“कौन है सौरभ प्लीज …..बताओ न । ”
सौरभ ने एक झटके में ही कह दिया ।
“तुम हो दुर्गा ।”
अरे यह क्या कह दिया सौरभ तुमने ।
मैं एक पतुरिया की बेटी हूँ । पता है न तुम्हें ।
कौन स्वीकार करेगा मुझे ? अपने परिवार और समाज से बहिष्कृत हो जाओगे ।
दुर्गा तुमने मुझसे कभी नही कहा कि मैं तुमसे प्यार करती हूँ । लेकिन मुझे तुम्हारे प्यार का एहसास हमेशा रहा है । यह अलग बात है कि अब तुम पी सी एस अधिकारी बन जाओगी ……..
“बस बस सौरभ अब एक शब्द भी बाहर मत निकालना ………..”
दुर्गा की आँख में आँसू आ गए ।
“हाँ मैं सच में तुमसे बेपनाह मुहब्वत करती थी और आज भी करती हूँ । तुम्हारे अलावा जिंदगी में मैंने कभी किसी को स्थान नही दिया । दुनिया की सबसे कीमती वस्तु के रूप में तुम्ही हो मेरे लिए ।
लेकिन शादी करके मेरी वजह से तुम्हारी जिंदगी तबाह हो जाए यह मुझे मंजूर नहीं । मैं कुआरी ही रहकर तुम्हारे प्यार के सहारे जिंदगी जीने की क्षमता रखती हूँ । ”
“बस कह लिया न तुमने दुर्गा ?”
यह तुम्हारी निराशा है । मैं सारी स्थितियां संभाल लूँगा तुम अपनी अम्मा के बारे में सोचो । मैं सन्डे को फिर आऊंगा । मुझे उम्मीद है अम्मा तैयार हो जाएँगी । जो सच होगा वही बताना ……..और हाँ मैंने फैसला कर लिया है अपने मन में । शादी सिर्फ तुम्ही से ही करूँगा । अब हम बड़े हो चुके हैं । ”
इतना कहते कहते सौरभ बाइक स्टार्ट करके चला गया ।
दुर्गा को जैसे सब कुछ मिल गया हो । भला अम्मा को क्या एतराज होगा सब कुछ दुर्गा की हाँ में ही छुपा है । पहले ही दिन दुर्गा के मन में हजारों तरह की कल्पनायें आती रही । पतुरियन के पुरवा की सबसे खूबसूरत लड़की दुर्गा ही थी । लेकिन माँ की वजह से गांव के माहौल से बिलकुल जुदा थी । माँ ने कभी नही चाहा था कि दुर्गा उसकी जैसी जिंदगी जिए । सब कुछ बेटी के अच्छे भविष्य के लिए न्यौछावर कर दिया था । दुर्गा को आज अपने सपने का राजकुमार बिलकुल सामने दिखाई दे रहा था । रात भर दुर्गा ख़ुशी से सो नही पायी ।
भोर का समय । नैना चाय बनाकर दुर्गा के पास आयी ।
“का बात है बिटिया आज तोर ई अंखिया लाल काहे भइल बा । आज निदिया न आइल का ?
न अम्मा । सचमुच मा निदिया ना आइल बड़ा उलझन मा रहली ।
काहे का उलझन रे ।
“एगो लइका हमसे प्यार करेला और हमहू वो के
बहुत चाहीला ।”
दुर्गा की बात सुनकर नैना चौंक पड़ी
“अरे दुर्गा पढ़ लिखि के बेवकूफ न बना । ई सब आजकल के लइके बहुत चालू होले । तोहपे ना , ….तोरी नौकरी पर कौनो दाना डारत बा । इहाँ पतुरिया की लइकी से कौनो शरीफजादा शादी करी का ? अरे जा पाहिले नौकरी करा ….फिर कौनो साहब लइका से शादी करिहा । ई दुनिया बहुत चालू बा दुर्गा ।”
माँ की बात काटते हुए दुर्गा झट से बोल पड़ी –
“अम्मा लइका बहुत शरीफ बा । बचपन से ऊ के हम जानीला । हमरे साथे ऊ पढ़त रहल । उ हो साहब बनि गइल बा ।
अम्मा बड़ी जाति के है ऊ । ”
कौन गांव के है ऊ । नैना ने पूछा ।
अम्मा बेनीपुर का ठाकुर हो वे ऊ ।
बेनी पुर !…………!!!!!!!
अरे ऊ गुंडन के गाव है । छोड़ा छोड़ा नाम मत लिहा । पूरा गांव लोफर बा हम सबके जानीला । बहुत बार ऊ गांव मा नाचे गइली हम । पूरा गांव अय्यास और शराबी बा । ऊ गाव मा तो हम तोर शादी कबहू न होये देबे रे ।”
दुर्गा का चेहरा लटक गया । कुछ देर सोचने के बाद माँ से बोली ।
“अम्मा इतवार के लइका फिर आयी । उ हे जो कल आइल रहल । देखि ला बात बात चीत कइके तब रिजेक्ट करा तू । बहुत सुन्दर और अच्छा लइका बा अम्मा । ऊ लोफर अय्यास ना बा ।”
“ठीक बा जब आई तब देखल जाइ । चला दाना पानी करा । ” नैना ने कहा ।
“नही अम्मा पाहिले बतावा न ? तैयार हो जइबू ना ? ”
पगला गइल बाटू का दुर्गा ? बेनीपुर के सब ठाकुरवे खानदानी बनैले । पतुरिया के बिटिया के गाव माँ न घुसे देइहें । नजदीक के बात बा ….छुपी ना ,……. सबके पता हो जाइ । तोर जिनगिया सब बेकार कर देइहें ।”
दुर्गा ने फिर माँ को समझाना चाहा ।
“ना अम्मा ऐसा ना बा ऊ । हम वो के बचपन से जानीला ।हमके सबसे ज्यादा चाहेला । पहिले देखा ऊ के फिर बतैहा ।
इतवार के ऊ लइका आई सवेरे ।”
“ठीक बा देखल जाई । अब चला चाय पानी पिया ।” नैना ने कहा ।
अम्मा की बाते सुनकर दुर्गा को अब चिंता होने लगी थी । कही ऐसा न हो अम्मा सौरभ को पसंद ही ना करें । अब तो एक एक रात का गुजरना भी पहाड़ हो जायेगी … तरह तरह की चिंताए ।
नैना भी बेटी की बातें सुनकर कम परेशान नहीं थी । परेशान होती भी क्यों ना ? बेनी पुर से उनकी बहुत गहरी यादें जो जुडी थी ।
नैना बाई आज सत्तर के पड़ाव को पार चुकी थी । उनकी जेहन में वह जमाना रह रह के कौंध उठता था । पतुरियन का टोला गांव में नैना बाई की तूती बोलती थी । अपने हुस्न के शबाब के दिनों की याद वह अक्सर बड़े गर्व के साथ लोगों से साझा कर लेती । पूरे गाँव का एक ही पेशा बस नाचना और गाना । शाम को अक्सर क्षेत्र के रईशजादों का जमावड़ा लगता था । नैना बाई का कोठा तहजीब के साथ साथ गीत और ग़ज़ल में अपना सर्वोच्य स्थान रखता था । नैना एक ऐसी नर्तकी थीं जिसके जिसके एक एक अंग कलात्मक अभिव्यक्ति से परिपूर्ण थे । उस जमाने में नैना ने हाई स्कूल पास किया था जब हाई स्कूल पास गांव में इक्के दुक्के ही मिल पाते थे । बाप तो जब नैना पेट में थी तभी स्वर्ग लोक सिधार गए और माँ भी पांच साल की उम्र में चल बसी थी । मौसी ने पाला था शिक्षा दीक्षा भी मौसी ने दिलाई । बचपन से ही गाने बजाने का शौक । मौसी ने बाद में उसकी शादी एक ऐसे परिवार से कर दी जहाँ से उसकी जिंदगी का पासा ही पलट गया । बाद में पता चला यह शादी नहीं थी बल्कि उसे अच्छी कीमत लेकर बेच दिया गया था । शादी का सिर्फ इतना मकसद था कि नैना की खूबसूरती और कला से बहुत धन पैदा होगा ।
धीरे धीरे नैना की आवाज और अदा का जादू बहुत मशहूर हो चला था । चौदह घर के इस पतुरियन के टोला में शाम ढलते ही घुंघरूओं की खनक, तबले की थाप के साथ हर घर में हारमोनियम के सुर के साथ साथ गूँजती स्वर लहरियां गंधर्व लोक की भाँति अद्भुद प्रतीत होती थी ।
रूपये बरसने में नैना बाई के कोठे की बात ही कुछ और थी । कई बार तो कोठे पर बन्दूकें भी निकल आती थी ।कबीलाई संस्कृति के अंतर्गत देह व्यापार पूरी तरह वर्जित था । गांव की बुजुर्ग महिलाएं कच्ची शराब भी बनाकर बेचती थी । सुरा और सुंदरी के दीवाने बरबस ही गांव की और खिचे चले आते । शादी व्याह के लिए नैना की बुकिंग सबसे ज्यादा रूपये पर होती थी । बगल के गाव के बड़े भू माफिया ठाकुर त्रिभुवन सिंह का नैना को पूर्ण संरक्षण प्राप्त था। त्रिभुवन सिंह उस क्षेत्र के सबसे बड़े जमीदार थे । देखने में बहुत ही आकर्षक व्यक्तित्व । काफी सुन्दर इकहरा बदन गोरे चिट्टे 35 की उम्र । नैना उन्हें देख कर आकर्षित हो गयी थी । त्रिभुवन सिंह काफी इज्जतदार व्यक्ति थे । सामाजिक मर्यादा को तोड़ना उन्हें कतई मंजूर नही था । नैना ने जब उन्हें एक नजर देखा तो अपनी सारी सुध बुध खो बैठी थी । ठाकुर त्रिभुवन सिंह भी नैना की अद्भुद अदाकारी के कायल हो चुके थे । नैना के सौंदर्य का सम्मोहन ठाकुर साहब के ऊपर हावी हो चुका था । सामाजिक मर्यादा को बचाते हुए उन्होंने नैना को दस बीघा खेत इस शर्त पर बैनामा कर दिया था कि जब भी उन्हें नैना की जरूरत हो नैना उनके पास आ जाया करें । शर्त यह भी थी कि यह बात कभी किसी को पता भी न चले । नैना का पति माधव हर वक्त शराब के नशे में चूर रहने की वजह से जल्द ही चल बसा था । उस जमाने में नैना की स्थिति काफी सुदृढ़ हो चुकी थी । नैना के घर क्षेत्र की और भी बड़ी रियासतों का आना जाना शुरू हो चुका था और इसी चक्कर में एक मामूली सी बात को लेकर छुट भइये लफंगों से एक दिन ठाकुर त्रिभुवन सिंह का विवाद हो गया था ।कुछ दिन बाद इन्ही लफंगों ने ठाकुर साहब का कत्ल भी कर दिया था । नैना साफ साफ इस विवाद में फसने से बच गयी थी ।ठाकुर साहब की मुहब्बत का राज आज भी बेपर्दा नही हो सका था लेकिन उनकी मौत का सदमा नैना को बर्दास्त नही हुआ और बस उसी दिन से उसने नाचना गाना छोड़ दिया था ।
उसी दौरान नैना ने एक सुन्दर बेटी को जन्म दिया जिसका नाम दुर्गा रखा गया था । बेटी का बाप कौन था यह रहस्य ही बना रहा ।
वह इतवार आ ही गया जिसका नयना और दुर्गा को बेसब्री से इन्तजार था । आज दुर्गा का श्रृंगार अद्भुत था । सवेरे चार बजे से ही घर में चहल कदमी हो रही थी । ऐसा लग रहा था जैसे फिर वह आज रात भर नही सोई है । नहाना धोना पूजा पाठ से निवृत्त होकर बार बार छत पर जाकर रास्ते को देख आती थी । एक अजीब सी बेचैनी उसे परेशान कर रही थी दिन गुजरता जा रहा था और उसकी बेचैनियां किसी तूफ़ान की माफिक अपना रंग बदल रही थीं । धीरे दिन ढलने को आया लेकिन कोई बाइक उसे घर की ओर आते नही दिखी । दुर्गा काफी मायूस सी होती जा रही थी तभी सौरभ की मोटर सायकल उसके दरवाजे पर आ रुकी । सौरभ ने आंटी नमस्ते बोला तो नैना ने सौरभ को कमरे में बुलाया ।
सौरभ जब कमरे में पंहुचा और हेलमेट उतारा तो नैना उसे देखी तो देखती ही रह गयी । दुर्गा पानी लेकर आ चुकी थी । आज पहली बार दुर्गा की नजरें शर्म से झुकी हुई नज़र आ रही थी ।
सौरभ को देखकर नैना के मन में हजारों तरह की आशंकाए पनप रही थी । वह अपने अतीत के पन्नों से बेनी पुर में सौरभ से मिलते जुलते तश्वीरों को ढूढ़ रही थी । शायद यह तश्वीर उनसे बहुत कुछ मिलती जुलती है । इन्ही सब विचारों में नैना उलझी हुई थी ।
दो पल का मौन टूटा
“का नाम बा ठाकुर साहब आपका ?”
“जी माता जी मैं नैना का दोस्त हूँ । मेरा नाम सौरभ है । यहां से तीन किलो मीटर दूर बेनीपुर का हूँ । ”
हाँ ऊ ता दुर्गा बतौली हमके ।
सुनली है दुर्गा से शादी का बात करली हैं आप ।
हाँ दुर्गा को पसंद करता हूँ । बचपन से । अब मुझे इंस्पेक्टर की सरकारी नौकरी मिल गयी है शादी के लिए दुर्गा से हाथ माँगा है ।
आपके पता बा न कि हम पतुरिया जात हैं न ?
“हाँ पता है । मुझे दुर्गा से प्रेम है । शादी के बाद हम गाव् से दूर चले जाएंगे । इंटर कास्ट मेरे लिए कोई समस्या नही है माता जी । माँ को मना लूँगा । बस आप हाँ कहिये । ”
बिटवा हम चाहीला हमार बिटिया सुखी रहे । यहि बिटिया के लिए हम बहुत कुछ खो देहली । पिता जी से भी अपने राय बाट नाही कइला ?”
“पापा नही हैं माता जी । ”
“अरे का भइल उ के ?
“मेरे बचपन में ही खतम हो गए थे ।”
“का नाम रहल उनके ?”
” माता जी उनका नाम ठाकुर त्रिभुअन सिंह था । ”
….इतना सुनते ही नैना की आँखों से आंसू गिरने लगे …….
“आपके नाम बचपन में शीलू रहल का ?
” हाँ माता जी मैं ही शीलू हूँ ।”
नैना आसुओ को रोकने की बहुत कोशिस
कर रही थीं पर आंसू आ ही जा रहे थे ।
बिटवा ई शादी न हो पाई । और कौने कारन से न हो पाई ई बात मत पुछिहा । हम अपने जीते जी ई शादी न होवे देब । शीलू बेटा बुरा मत मनिहा हमहू तुहार महतारी समान हई ।
इतना सुनते ही दुर्गा और शौरभ को जैसे करंट लग गया हो ।
यह क्या माँ उल्टा पुल्टा बोल रही हैं । दोनों की आँखे एक दुसरे से यही पूछ रही थी । दोनों हैरान ।
इधर नैना की आँखों से आंसू बन्द ही नही हो रहे थे ।
“आखिर बात क्या है अम्मा कुछ तो बताओगी ।” दुर्गा ने पूछा ।
सौरभ ने भी यही प्रश्न किया
बहुत देर तक दोनों मिलकर कारण पूछते रहे । अंत में नयना ने किसी से कुछ भी नही बताने की शर्त पर कहा ।
” बेटा आपके पिता के हम रखैल रहली । ऊ के हम अपने जान से ज्यादा मानत रहली । हमरी बिटिया के दुर्गा नाम ऊ है दिए रहलें ।दस बीघा खेतवा भी उनही के दिहल रहल । घर से चोरी लिख दिहले हमका । अपने कत्ल से पाहिले ठाकुर साहब हमका एक खत लिखे रहलें ।दुर्गा उन्ही की बेटी है ।ठाकुर साहब के हूबहू चेहरा दुर्गा के चेहरा पर रखल बा ।थोडा इंतजार करा अबै हम आइ ला। ”
दस मिनट बाद नैना एक चिट्ठी लेकर कमरे में दाखिल हुई ।
सबूत के नाम पर हमरे पास एगो चिट्ठी भर बा । ई हम पढ़त बाटी धियान से सुना ।
” नैना बिटिया के जन्म पर बहुत ख़ुशी हुई । यह मेरी बिटिया है । इसका नाम दुर्गा रखना है । इसकी पढाई और परवरिश का सारा खर्चा मेरा रहेगा । इसे नाच गाना मत सिखाना । यह राज किसी को कभी पता न चले । मैं इसकी शादी भी अच्छे घर में करवा दूंगा । और अब नाचना गाना छोड़ दो । तुम्हारी सारी जिम्मेदारी अब मेरी होगी ।
– ठाकुर त्रिभुवन सिंह
चिट्ठी को अब सौरभ और दुर्गा बार बार पढ़े जा रहे थे । नैना की आँखों से आँसू बन्द ही नही हो रहे थे , और कुछ ही पलों में दुर्गा और सौरभ आँख में आँसू लेकर एक दूसरे को गले लगा कर चिपक गए। यह भाई बहन का प्यार अब शैलाब की शक्ल अख्तियार कर चुका था ।
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–नवीन मणि त्रिपाठी

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