मई दिवस Archives - अटूट बंधन https://www.atootbandhann.com/category/मई-दिवस हिंदी साहित्य की बेहतरीन रचनाएँ एक ही जगह पर Sat, 04 Jan 2020 11:43:26 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.1.6 अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस : तकनीकी युग में कम्प्यूटर पर काम करने वाले कर्मचारियों विशेषकर महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठानी चाहिए https://www.atootbandhann.com/2017/04/blog-post_31-5.html https://www.atootbandhann.com/2017/04/blog-post_31-5.html#respond Sun, 30 Apr 2017 14:41:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2017/04/30/blog-post_31-5/ विश्व भर में अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस “1 मई” के दिन मनाया जाता है। जिस प्रकार एक मकान को खड़ा करने और सहारा देने के लिये जिस तरह मजबूत “नीव” की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, ठीक वैसे ही किसी समाज, देश, उद्योग, संस्था, व्यवसाय को खड़ा करने के लिये कामगारों  की विशेष भूमिका होती है।इतिहास के […]

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विश्व भर में
अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस
“1 मईके दिन मनाया जाता है। जिस प्रकार एक मकान को खड़ा करने और सहारा
देने के लिये जिस तरह मजबूत
नीवकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है, ठीक वैसे ही किसी समाज, देश, उद्योग, संस्था, व्यवसाय को खड़ा करने के लिये कामगारों  की विशेष भूमिका होती है।इतिहास के
अनुसार वर्ष 1886 में 4 मई के दिन शिकागो शहर के हेमार्केट चौक  पर मजदूरों ने अपनी मांगों को लेकर हड़ताल कर रखी
थी |
मजदूर चाहते
थे कि उनसे दिन भर में आठ घंटे से अधिक काम न कराया जाए।
व् दुर्घटना आदि
होने पर उन्हें उचित मुआवजा मिले | तभी अचानक किसी अज्ञात व्यक्ति द्वारा भीड़ पर
एक बम फेंका गया। इस घटना से वहाँ मौजूद शिकागो पुलिस नें मजदूरों की भीड़ को
तितर-बितर करने के लिये एक्शन लिया और भीड़ पर फायरिंग शुरू कर दी।

इस घटना में कुछ
प्रदर्शनकारीयों की मौत हो गयी।इसके बाद इस घटना में निर्दोष मारे गए लोगों
को श्रद्धांजलि देने के लिए 1889 में अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में 1 मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप
में मानाने की घोषणा करी | भारत में मजदूर दिवस पहली बार सन 1923 में चेन्नई में मनाया
गया | मजदूर दिवस मजदूरों के हितों को सुरक्षित करने की दिशा में बढाया गया कदम है
| आज दुनिया भर में मजदूरों के हितों की सुरक्षा के लिए मजबूत यूनियन है | फिर भी
इस दिन का आज भी ज्यों का त्यों महत्व है | क्योंकि इसी दिन से शुरुआत हुई थी एक
कमजोर तबके के संगठित होने की व् अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने की | अगर आज के
परिपेक्ष्य में देखा जाए तो बहुत सारे जॉब्स कम्प्यूटर रिलेटेड हो गए हैं | ऐसे
में आठ घंटे काम करने के बाद भी कर्मचारी अपने साथ घर में काम लाने को विवश हैं |
घर से काम करने वालों के ऊपर काम का दवाब इतना है की कई बार उन्हें १८ घंटे भी काम
करना पड़ता है |कई बार कर्मचारी सारे काम निबटा कर सांस लेने बैठा ही होता है की
बॉस का फोन आ जाता है और सारे जरूरी घरेलू काम छोड़ कर कम्प्यूटर पर बैठना पड़ता है
| क्योंकि बॉस से अब कर्मचारी बस एक फोन कॉल की दूरी पर है | और वो उसे जब जी चाहे
घर में भी डिस्टर्ब कर सकता है |  जबकि
तनख्वाह उतनी ही मिलती है |पुरुषों पर तो इसका प्रभाव पड़ता ही है पर  इसका सबसे बुरा असर महिलाओं व् बच्चों  पर पड़ता है | एक कामकाजी महिला को घर जा कर अपनी
घरेलु जिंदगी भी संभालनी होती है | बच्चों को समय न दे पाने पर जहाँ बच्चों का
विकास सही रूप से नहीं हो पाता | वहाँ माँ अपराध बोध से ग्रस्त रहती है | वैसे भी
हर कर्मचारी को सुस्ताने व् अपने निजी जिन्दगी सुचारू रूप से चलाने की सुविधा
मिलनी चाहिए | ताकि वो शारीरिक व् मानसिक रूप से स्वस्थ रहे | ऐसे में क्या ये
जरूरी नहीं है की  आज के तकनीकी युग में इन
नए कर्मचारियों को  अपनी हिस्से की ज़िन्दगी
जीने के लिए समय माँगना चाहिए
| आवाज़ उठानी चाहिए और मजदूर दिवस के दिन
अपनी बातों को एक मंच प्रदान करना चाहिए।

वंदना बाजपेयी 

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मई दिवस पर विशेष : एक दिन मेहनतकशों के नाम https://www.atootbandhann.com/2015/05/blog-pos-17.html https://www.atootbandhann.com/2015/05/blog-pos-17.html#comments Fri, 01 May 2015 02:29:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2015/05/01/blog-pos-17/                                          एक विशालकाय थिएटर में फिल्म चल रही है | गहरे अन्धकार में केवल “सिल्वर स्क्रीन” पर प्रकाश है| दर्शकों की सांसे थमी हुई हैं | मजदूर संगठित हो कर अपना हिस्सा मांग रहे हैं | […]

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एक विशालकाय थिएटर में फिल्म चल रही है | गहरे अन्धकार में केवल “सिल्वर स्क्रीन” पर प्रकाश है| दर्शकों की सांसे थमी हुई हैं | मजदूर संगठित हो कर अपना हिस्सा मांग रहे हैं | गीत के स्वर चारों ओर गुंजायमान है …………………..
हम मेहनतकश इस दुनिया से गर अपना हिस्सा मांगेंगे 
एक बाग़ नहीं, एक खेत नहीं, हम सारी  दुनिया मांगेंगे 
                                                       तालियों की गडगडाहट से हाल गूंज उठता हैं | हम नायक ,नायिका फिल्म की चर्चा करते हुए बाहर आ जाते हैं , और बहार आ जाते हैं उन संवेदनाओं से जिन्हें हम कुछ देर पहले जी रहे होते हैं | तभी तो कड़क कर जूते  पोलिश करवाते हुए  १२ साल के ननकू को डपटते हैं ” सा*******, क्या हुआ है तेरे हाथ को ,जूता चमक ही नहीं रहा | बुखार में तपती कामवाली बाई को घुड़की  देते हैं “देखो कमला रोज -रोज ऐसे नहीं चलेगा ,टाइम पर आना होगा ,नहीं तो पैसे काट लूँगी | शान से बूढ़े रिक्शेवाले  को  उपदेश देते हैं “जब इतना हाँफता है तो चलाता क्यों है रिक्शा ?और सबसे बढ़कर कालिया जो हमारे घर का सीवर साफ़ करने मेन  होल में घुसा है उसे देख कर घिन से त्योरिया चढ़ा लेते हैं |
                                                मई दिवस के नारे ,श्रम का महत्व पर भाषण से तब तक कुछ भी नहीं होगा जब तक समाज की कथनी और करनी में अंतर रहेगा | काम कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता | लाखों करोड़ों मजदूर जो हमारा घर बनाते हैं ,जूते  पोलिश करते हैं , सीवर साफ़ करते हैं , घर -घर जा कर सब्जी बेचते हैं ………… और वो सब काम करते हैं जो हम खुद अपने लिए नहीं कर सकते | पूरा समाज उनका ऋणी है| बात सिर्फ मजदूरी देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेने की नहीं हैं | जरूरत है उनके दर्द ,तकलीफ को समझने की ,जरूरत है उनका शोषण न होने देने की ……….. और ज्यादा नहीं तो कम से कम उनके साथ मानवीय व्यवहार करने की | समाज  एक दिन में नहीं बदलता  पर किसी समस्या  पर जिस दिन से हम विचार करने लगते हैं उसी दिन से उसके  समाधान के रास्ते निकल आते हैं |
                                                        अटूट बंधन आज मई दिवस के अवसर पर आप के लिए कुछ ऐसी ही कवितायें लाया है जो कहीं न कहीं आपकी संवेदनाओं को झकझोरेंगी | इनमें डूबते -उतराते आप अवश्य उस पीड़ा को महसूस करेंगे जो मजदूर झेलते हैं | पर ये मात्र  उस दर्द को श्रधांजलि देने के लिए नहीं हैं बल्कि सोचने समझने और श्रम का सम्मान करने के लिए खुद को बदले का  आवाहन भी है










                                








वह तोड़ती पत्थर 


वह तोड़ती पत्‍थर; 
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर- 
वह तोड़ती पत्‍थर।

कोई न छायादार 
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्‍वीकार;
श्‍याम तन, भर बँधा यौवन, 
नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन, 
गुरू हथौड़ा हाथ, 
करती बार-बार प्रहार :-
सामने तरू-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप; 
गर्मियों के दिन 
दिवा का तमतमाता रूप; 
उठी झुलसाती हुई लू,
रूई ज्‍यों जलती हुई भू, 
गर्द चिनगी छा गयीं, 
प्राय: हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्‍थर।
देखते देखा मुझे तो एक बार 
उस भवन की ओर देखा, छिन्‍नतार; 
देखकर कोई नहीं, 
देखा मुझे उस दृष्टि से 
जो मार खा रोई नहीं, 
सजा सहज सितार, 
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार 
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर, 
ढुलक माथे से गिरे सीकर, 
लीन होते कर्म में फिर ज्‍यों कहा – 
‘मैं तोड़ती पत्‍थर।’


सूर्य कान्त त्रिपाठी “निराला “
















घिन तो नहीं आती 

पूरी स्पीड में है ट्राम
खाती है दचके पै दचके
सटता है बदन से बदन
पसीने से लथपथ ।
छूती है निगाहों को
कत्थई दांतों की मोटी मुस्कान
बेतरतीब मूँछों की थिरकन
सच सच बतलाओ
घिन तो नहीं आती है?
जी तो नहीं कढता है?


कुली मज़दूर हैं
बोझा ढोते हैं, खींचते हैं ठेला
धूल धुआँ भाप से पड़ता है साबका
थके मांदे जहाँ तहाँ हो जाते हैं ढेर
सपने में भी सुनते हैं धरती की धड़कन
आकर ट्राम के अन्दर पिछले डब्बे मैं
बैठ गए हैं इधर उधर तुमसे सट कर
आपस मैं उनकी बतकही
सच सच बतलाओ
जी तो नहीं कढ़ता है?
घिन तो नहीं आती है?


दूध-सा धुला सादा लिबास है तुम्हारा
निकले हो शायद चौरंगी की हवा खाने
बैठना है पंखे के नीचे, अगले डिब्बे मैं
ये तो बस इसी तरह
लगाएंगे ठहाके, सुरती फाँकेंगे
भरे मुँह बातें करेंगे अपने देस कोस की
सच सच बतलाओ
अखरती तो नहीं इनकी सोहबत?
जी तो नहीं कुढता है?
घिन तो नहीं आती है?
नागार्जुन 






अखबारवाला 

धधकती धूप में रामू खड़ा है 
खड़ा भुलभुल में बदलता पाँव रह रह 
बेचता अख़बार जिसमें बड़े सौदे हो रहे हैं । 


एक प्रति पर पाँच पैसे कमीशन है, 
और कम पर भी उसे वह बेच सकता है 
अगर हम तरस खायें, पाँच रूपये दें 
अगर ख़ैरात वह ले ले । 


लगी पूँजी हमारी है छपाई-कल हमारी है 
ख़बर हमको पता है, हमारा आतंक है, 
हमने बनाई है 
यहाँ चलती सड़क पर इस ख़बर को हम ख़रीदें क्यो ? 
कमाई पाँच दस अख़बार भर की क्यों न जाने दें ? 


वहाँ जब छाँह में रामू दुआएँ दे रहा होगा 
ख़बर वातानुकूलित कक्ष में तय कर रही होगी 
करेगी कौन रामू के तले की भूमि पर कब्ज़ा ।
रघुवीर सहाय 








अच्छे बच्चे 

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कुछ बच्चे बहुत अच्छे होते हैं
वे गेंद और ग़ुब्बारे नहीं मांगते
मिठाई नहीं मांगते ज़िद नहीं करते
और मचलते तो हैं ही नहीं

बड़ों का कहना मानते हैं
वे छोटों का भी कहना मानते हैं
इतने अच्छे होते हैं
इतने अच्छे बच्चों की तलाश में रहते हैं हम
और मिलते ही
उन्हें ले आते हैं घर
अक्सर
तीस रुपये महीने और खाने पर।

– नरेश सक्सेना










नारा महज नारा है 



‘दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ’ 
पर बोलने से पहने सोचना होगा 


हमारी एकता में इतने बल हैं कि 
उन बलों को निकालते-निकालते 
हमारी पीठ साबुत नहीं बची 


नारे का झंडा थमाने वाले खुद
कहीं बाद में जान पाए कि 
एक होने के लिए
समय और साधन होने चाहिए


एक होना तो दूर 
भूख प्यास से 
हमारी मेहनतकश आबादी 
आधी-अधूरी हो गई 


अधूरों को तोड़ना कहीं आसान होता है 
हम टूटे 
भर-भर टूटे 


विपिन चौधरी 










गुम होता बचपन 


मैंने भी देखा है बचपन
कचरे के डिब्बों में
पॉलीथीन की थैलियाँ ढूंढते हुए
तो कभी कबाड़ के ढेर में
अपनी पहचान खोते हुए I

कभी रेहड़ियों पर तो
कभी ढाबे, पानठेलों पर
पेट के इस दर्द को मिटाने
अपने भाग्य को मिटाते हुए I

स्कूल, खेल, खिलौने, साथी
इनकी किस्मत में ये सब कहाँ
इनके लिए तो बस है यहाँ
हर दम काम और उस पर
ढेरों गालियों का इनाम I
दो वक्त की रोटी की भूख
छीन लेती है इनसे इनका आज
और इन्हें खुद भी नहीं पता चलता
दारु, गुटका और बीड़ी में
अपना दर्द छुपाते छुपाते
कब रूठ जाता है इनसे
इनका बचपन सदा के लिए I
और समय से पहले ही
बना देता हैं इन्हें बड़ा
और गरीब भी I


 डा. अदिति कैलाश
ई-मेल :  a_upwanshi@yahoo.co.in














मैं मजदूर हूँ 


मैं मजदूर हूँ,
तोड़ता हूँ पत्थर,
ढोता हूँ गरीबी का बोझ,
जिंदगी भर अपने कंधो पर,
न जाने कितने लोग,
आसमा सी ऊंचाई छू गए,
मेरे भूखे पेट पर पैर रखकर,
लेकिन,
मैं लुढकता ही रहा,
लुभावने वादों की फर्श पर,
याद है…..पिछले साल….
जब खुला था शहर में,
बड़ा सा सरकारी अस्पताल…
तब मैं रो रहा था..
अपने मासूम बेटे की लाश पर,
सर रखकर………………….
फटी धोती में लिपटी मेरी बीवी,
अनाथ से दीखते मेरे शेष बच्चे…
क्या यही है नियति मेरी???????
क्या यूँ ही तड़पता रहूँगा मै??????????
जिंदगी भर………………………………………………..

(डॉ.दीपक अग्रवाल)




एक मजदूर औरत की चिता
सब
मरते हैं एक बार
सब
जलाए जाते हैं एक बार
पर
वो
जीवन
संग्राम में सुबह से शाम तक
पल
–पल
तैयार
है चिता में जलने के लिए
रात्रि
का तीसरा पहर
गीली
लकड़ियों से जूझती
चूल्हे
के धुए से डबडबाई सूनी  आँखें
जिन्होंने
रोटी के अतरिक्त 
कोई
सपना देखने की हिम्मत भी नहीं की
वो तैयार
है अनदेखे सपनों की चिता में जलने के लिए
सूखी
कंकाल मात्र देह
माँ
की छाती से चिपका दुधमुहाँ शिशु
जो
खींचना चाहता है
रक्त
हीना से
जीवन
के कुछ अंश
वो तैयार
है विवशता की चिता में जलने के लिए
गर्म
रेत पर ,पतली चादर डाल
अपने नन्हे शिशु को सुला
सर
पर ईंटों का बोझ
एक
–एक पग आगे रखती
कनखियों
से पलट –पलट शिशु को ताकती
वो तैयार
है ममता की चिता में जलने के लिए
सांझ के  समय घर आकर
कपडे
बर्तन निपटाकर
 खिला पिला कर सुलाती  बच्चों को
फिर
खोजती है खाली बर्तन में भोजन के कण
जगाती
है अतृप्ति में तृप्ति का भाव
वो तैयार
है भूख की चिता में जलने के लिए
रात्री
का दूसरा पहर
नींद
से बोझिल उनींदी आँखें
अंग
–अंग टूटा ,पोर –पोर दुखती
शराबी
पति का आगमन
डांट
मार फटकार…….
……….
फिर मनुहार 
वो तैयार
है पत्नी धर्म की चिता में जलने के लिए

वंदना बाजपेयी 


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