संगीता पाण्डेय Archives - अटूट बंधन https://www.atootbandhann.com/category/संगीता-पाण्डेय हिंदी साहित्य की बेहतरीन रचनाएँ एक ही जगह पर Sat, 04 Jan 2020 13:05:01 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.1.6 बेमेल विवाह के विभिन्न आयाम https://www.atootbandhann.com/2018/06/blog-post_13-2.html https://www.atootbandhann.com/2018/06/blog-post_13-2.html#comments Sun, 24 Jun 2018 14:30:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2018/06/24/blog-post_13-2/                                                विवाह न केवल दो आत्माओं का संयोग मात्र है वरन दो संस्कारों एवं परिवारों का भी संयोग है। विवाह में कुण्डलियाँ तो मिलाई जाती हैं , गुणों में अधिक अंतर न होने […]

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बेमेल विवाह् के विभिन्न आयाम

              

विवाह न केवल दो आत्माओं का संयोग मात्र है वरन दो संस्कारों एवं परिवारों का भी संयोग है। विवाह में कुण्डलियाँ तो मिलाई जाती हैं , गुणों में अधिक अंतर न होने पाये इस बात का विशेष ध्यान भी रखा जाता है तथापि बहुत सारे आधारों पर बेमलता को समाप्त किया जा सकना संभव नहीं हो पाता। वैवाहिक बेमलता के कई ऐसे आयाम बताये जा सकते हैं जिनके प्रभाव से विवाह के सम्बन्धों  को टूटते , बिखरते एवं सिसकते देखा गया है। फलतः जिस सम्बन्ध की नींव भावी जीवन को सुखी व संपन्न बनाने के लिए रखी गयी थी वही सम्बन्ध जीवन भर के दुःख का कारण बन जाता है। 

बेमेल विवाह के विभिन्न आयाम 


अद्यतन परिस्थितियां हों या प्राचीन समाज ;विवाह को सदा ही परिभाषित किये जाने की प्रथा है। कुछ लोग इसे सामाजिक  संस्था मानते हैं , कुछ लोग सामाजिक समझौता , कुछ लोग दो आत्माओं का मिलन , कुछ लोग दो संस्कारों का संयोग , तो वहीँ कुछ लोग इसे जुआ मान कर भी चलते हैं। फ़िलहाल हिन्दू धर्म के सन्दर्भ में देखा जाये तो विवाह अनुबंध नहीं वरन जन्म – जन्मांतर का सम्बन्ध है। जो सोलह धार्मिक संस्कारो में से एक है। किन्तु स्थिति तब दुःखद हो जाती है  जबकि विभिन्न स्तरों पर समानता लुप्तप्राय होती है।  जिसके कारण वैवाहिक सम्बन्धो में दरार आ जाती है या तलाक़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। विवाह में बेमलता के विभिन्न आयामो को इंगित करते हुए कहा जा सकता है कि ये शैक्षिक , सामाजिक , आर्थिक , शारीरिक , धार्मिक , संवेगात्मक तथा आयु में व्यापक अंतर आदि विभिन्न आधारों  पर हो सकते हैं।

शैक्षिक बेमेलता  

निःसंदेह शिक्षा समायोजन करना सिखाती है जबकि शैक्षिक स्तर पर भारी विषमता वैवाहिक जीवन को कलुषित बना देती है। यदि पति – पत्नी शैक्षिक स्तर पर एक दूसरे के समकक्ष नहीं होते तो विचारो का आदान – प्रदान सहज नहीं होता। एक दूसरे के विचारो को उन्ही अर्थों में आत्मसात कर पाना जिन अर्थों में कहे गए है , निश्चय ही वैवाहिक जीवन को सुगम एवं सरल बनाता है। समझ का आभाव होने पर निरर्थक आरोपों – प्रत्यारोपों की  श्रंखला आरम्भ हो जाती है जो वैवाहिक जीवन को नारकीय बना देती  है। 

 सामाजिक रूप से वैवाहिक बेमलता

सामाजिक रूप से वैवाहिक बेमलता को हम तब देख पाते है जबकि पति पत्नी के मध्य संस्कृति एवं सभ्यता के स्तर पर स्पष्ट अंतर होता है। दोनों में से कोई एक गाँव से सम्बंधित है तो दूसरा शहर से , जहाँ एक परम्पराओं और रूढ़ियों का पुजारी है , तो वहीँ दूसरा हर बात को तर्क की कसौटी पर कसने का अभ्यस्त होता है। अपनी – अपनी ढपली, अपना – अपना राग ; परिणामतः टकराव और अलगाव स्वाभाविक रूप से  जन्म ले लेता है। 
                                             


                                       

अत्यधिक आर्थिक विषमता 

भी बेमेल विवाह के महत्वपूर्ण आयामो में से एक है। स्थिति तब उतनी दयनीय नहीं होती जब की पति पक्ष आर्थिक रूप से अधिक संपन्न होता है , इसके विपरीत यदि पत्नी पक्ष आर्थिक  रूप से अधिक सबल है तो दोनों के मध्य सामंजस्य बहुत कठिन हो जाता है।आर्थिक रूप से निम्न परिवार से आई लड़की जहाँ ससुराल में धीरे धीरे सामंजस्य बना लेती है वही आर्थिक रूप से उच्च परिवार से आई हुई लड़की प्रारम्भ से परिवार में संदेह और नकचढेपन का पर्याय बन जाती है। पति और उसके परिवार वाले अपनी कुंठा और हीनभावना के तहत नववधू  की हर छोटी बड़ी बात को तूल देकर पारिवारिक वातावरण को विषाक्त बना देते हैं। कभी – कभी यह भी देखा जाता है कि आर्थिक रूप से संपन्न लड़की के मायके वालों से ससुराल वालों की अपेक्षाएं सुरसा के मुख की भांति होती हैं तथा मांगें पूर्ण न होने पर लड़की को प्रताड़ित किया जाता है। हाल की एक घटना का उदाहरण देते हुए कहा जा सकता है कि लड़की को ससुराल वालो ने जलाकर मार डाला क्योंकि लड़की का भाई एक आला अफसर होते हुए भी अयोग्य बहनोई को एक अदद सरकारी भी नहीं दिला पा  रहा था। लोभ के कारन , जीवन की समाप्ति के रूप में प्रेम विवाह का यह अंत हुआ। 

शारीरिक रूप से वैवाहिक बेमलता 

को इंगित करते हुए कहा जा सकता है कि जब पति और पत्नी लम्बाई – चौड़ाई , सुंदरता , शारीरिक विकलांगता एवं स्किन कलर में एक दूसरे से इतने भिन्न हो  उन्हें साथ देखना आँखों को स्वाभाविक न लगे। ऐसी स्थिति में दोनों को ही एक दूसरे के  साथ  सामाजिक रूप से उपस्थित होने में असुविधा , ग्लानि , लज्जा एवं हीनभावना का अनुभव होता है। 

अन्तर्जातीय विवाह


यद्यपि भारत में अन्तर्जातीय विवाह अभी प्रचलन का हिस्सा नहीं है तथापि यदा – कदा  देखा जा सकता है। यह भी सच है की यदि ऐसे विवाह होते भी हैं तो उसके मूल में प्रेम विवाह ही हुआ करते हैं। प्रारम्भ में प्रेम विवाह के रूप में ऐसे सम्बन्ध बना तो लिए जाते हैं किन्तु यथार्थ के धरातल पर पाँव  पड़ने पर निष्ठुर सत्य का सामना कर पाना सबके लिए सहज नहीं होता। परिणामतः आरोपों – प्रत्यारोपों से विवाद  प्रारम्भ होता  है तथा तलाक़ पर समाप्त। 

भावुकता में अंतर 

कहा जाता है की ‘ अति सर्वत्र वर्जते ‘ ऐसे में पति पत्नी दोनों में से कोई एक अति संवेदनशील है या अत्यंत भावुक है, तो भी स्थिति गंभीर हो सकती है। एक अत्यंत सैद्धांतिक तो दूसरा व्यापक रूप से व्यवहारिक , तब भी सामंजस्य कठिन हो जाता है। 
                                     
पति पत्नी की आयु में व्यापक अंतर 
भी बेमेल विवाह के प्रमुख आयामों में से एक है। यह अंतर दो आधारो पर सम्भव है। प्रथम तो वह जबकि स्त्री से पुरुष आयु में आवश्यकता से अधिक अर्थात कम से कम दस – पन्द्रह वर्ष बड़ा हो ।  दूसरा यह कि पुरुष से स्त्री आयु में आवश्यकता से अधिक अर्थात कम से कम दस – पन्द्रह वर्ष बड़ी  हो। पुरुष का स्त्री से आयु में बड़ा होना भारतीय सन्दर्भ में सामान्य सी बात है यद्यपि पत्नी का पति से आयु में बड़ा होना कम  ही देखा जाता है। किन्तु यदि पति अपनी पत्नी से दस – पंद्रह वर्ष बड़ा है तो वो पति न रहकर पिता की भूमिका में आ जाता है। पत्नी को कम आयु का जानकर अनुभव में कम मानने लग जाता है। अपने विचार थोपना , अपनी पसंद थोपना पति का स्वाभाव बन  जाता है। वहीँ दूसरी तरफ पत्नी घुटन महसूस करने लग जाती है।  पत्नी में  मानसिक एवं शारीरिक असंतोष पनपने लगता है। परिणामतः विवाद जन्म ले लेता है। कभी – कभी पति अपनी पत्नी पर निराधार संदेह करने लग जाता है।  दूसरे पुरुष की तरफ पत्नी का देख लेना या पत्नी की तरफ दुसरे पुरुष का देख लेना भी पति को नागवार गुजरने लगता है। फलस्वरूप क्लेश का  जन्म स्वाभाविक है। कमोबेश यही परिस्थितियां तब भी उत्पन्न हो सकती हैं जबकि स्त्री आयु में अधिक बड़ी हो। विचारों और इच्छाओं का व्यापक अंतर अंततः रिश्ते में खटास उत्पन्न कर ही देता है। 
                                       अतः यह मानना होगा की विवाह के  स्वरुप को क्षत – विक्षत करने में विभिन्न ऐसे तथ्यों की भूमिका होती है जिन्हे हम अक्सर विवाह के समय अनदेखा कर देते है। यदि कुंडली के गुणों को मिलाने की अपेक्षा इन छोटी बड़ी – बातों पर ध्यान दिया जाये तो संभवतः रिश्तों के निरंतर टूटने की श्रृंखला को सीमाबद्ध  किया जा सकता  है
संगीता पाण्डेय 
लेखिका
नाम – संगीता पाण्डेय
सम्प्रति :अध्यापन
शैक्षिक योग्यता – अंग्रेजी , शिक्षाशास्त्र तथा राजनीती विज्ञानं में परास्नातक ,
 शिक्षाशास्त्र विषय में नेट परीक्षा उत्तीर्ण , पी एच डी हेतु नामांकित। 
मेरा परिचय …………. 
साहित्य प्रेमी माता – पिता की संतान होने के कारण बचपन से ही मेरा भी रुझान साहित्य में रहा। कवि सम्मेलनों में जाना और काव्य पाठ  सुनना ही कवितायेँ लिखने हेतु मेरी प्रेरणा के स्रोत  बने।  अंग्रेजी  साहित्य में परास्नातक करते समय कवितायेँ लिखने का श्री गणेश हुआ। 
वैसे तो प्रकृति में व्याप्त प्रत्येक वस्तु  मुझे आकर्षित करती है।  किन्तु मानव स्वाभाव तथा मानवीय सम्बन्ध  मेरी जिज्ञासा   का विषय रहें हैं। उपकरणीय जटिलताओं और विद्रूपताओं ने  मानवीय संबंधों के समीकरण को यांत्रिक बना दिया। सबकुछ स्थायी एवं सुविधापूर्ण बनाने की लालसा ने मानवीय संवेदनाओं को बुरी तरह से प्रभावित किया। मुझे ऐसी परिस्थितियां सदैव कुछ कहते रहने को विवश करती रहीं। 
यह भी पढ़ें ………..



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नाम – संगीता पाण्डेय
सम्प्रति :अध्यापन
शैक्षिक योग्यता – अंग्रेजी , शिक्षाशास्त्र तथा राजनीती विज्ञानं में परास्नातक ,
 शिक्षाशास्त्र विषय में नेट परीक्षा उत्तीर्ण , पी एच डी हेतु नामांकित। 
मेरा परिचय …………. 
साहित्य प्रेमी माता – पिता की संतान होने के कारण बचपन से ही मेरा भी रुझान साहित्य में रहा। कवि सम्मेलनों में जाना और काव्य पाठ  सुनना ही कवितायेँ लिखने हेतु मेरी प्रेरणा के स्रोत  बने।  अंग्रेजी  साहित्य में परास्नातक करते समय कवितायेँ लिखने का श्री गणेश हुआ।

वैसे तो प्रकृति में व्याप्त प्रत्येक वस्तु  मुझे आकर्षित करती है।  किन्तु मानव स्वाभाव तथा मानवीय सम्बन्ध  मेरी जिज्ञासा   का विषय रहें हैं। उपकरणीय जटिलताओं और विद्रूपताओं ने  मानवीय संबंधों के समीकरण को यांत्रिक बना दिया। सबकुछ स्थायी एवं सुविधापूर्ण बनाने की लालसा ने मानवीय संवेदनाओं को बुरी तरह से प्रभावित किया। मुझे ऐसी परिस्थितियां सदैव कुछ कहते रहने को विवश करती रहीं। 

                           भावुक ह्रदय  संगीता पाण्डेय दिल से लिखती हैं उनका लेखन हृदयस्पर्शी होता है। आज हम अटूट बंधन पर उनकी उन रचनाओं को पढ़ेंगे जिसमें उन्होंने नारी के मनोभावनाओं  को खूबसूरती से उकेरा है 



विकल्प
अस्पताल का बिस्तर

अनंत को चीरती
शून्य को निहारती ,
निस्तेज आखें ,
अस्सी / नब्बे प्रतिशत भुना शरीर।
आज,
क्या कुछ, नहीं , याद आ रहा ,
पापा ने ताउम्र सिखाया ,
विकल्पों में से ,उचित चयन।  
उसने सीखा ही था ,सुन्दर चुनना 
पापा लाते ,दो बहनो की ,दो गुड़िया 
नीली और काली आँखों वाली
वो चुनती नीली आँखों वाली , अपने खातिर।
गुलाबी और पीले फ्रॉक ,
वो चुनती गुलाबी , अपने खातिर।
विवाह के लिए ,कई तस्वीरें 
पर,
उसके पास था ,एक राजकुमार 
सबका विकल्प।
किन्तु,
ये विकल्प नहीं भाया ,किसी को भी… 
क्यूंकि,
ये विकल्प लोगों ने जो नहीं दिए थे 
बस,
समाप्त हो गया, चुनने का क्रम 
थोपा जाने लगा ,सभी कुछ। 

जब कुछ दिन कुछ साल गए 
नए राजकुमार ने जाना ,
पुराने राजकुमार का किस्सा 
हाँ ! उसने किया था 
प्रेम अपराध
प्रारम्भ हो गया नया सफ़र.। 
जैसे,
इस अमावस की , सुबह कभी न होगी 
प्रश्न ,प्रताड़ना ,प्रत्यारोप 
 ” व्याकुल प्रारब्ध
 प्रतिदिन ,प्रतिक्षण।
यूँ भी चुनने की आदत अब शेष न थी 
किन्तु,
ऐसे जीवन के विकल्प में ,
उसने चुन ही  लिया, मृत्यु
को
 

नीली आखें ,गुलाबी फ्रॉक ,
गोद वाला डेढ़ बरस का गुड्डा
सब बेमानी।
आखो से बहते गर्म लहू ,
अब घावों को दुःख देते थे.। 
आज भी भोले मन को ,
निश्छल सी प्रतीक्षा थी , एक विकल्प की। 
काश,
कोई कहता कहो क्या चाहिए ,
जीवन या मृत्यु ? ”
किन्तु,
जीवन हर साँस के संग ,
डूबने को आतुर – व्याकुल।
ये अंतिम युद्ध भी कैसा था !!!!!
जिसमे _____
हार -जीत का कोई विकल्प ही न था। 
परिणाम, पूर्वघोषित

हाँ ! 
क्यूंकि,
विकल्पों का अस्तित्व “
जीवन के साथ हुआ करता है,
किन्तु,
जीवन का विकल्प 
होकर भी  ” साथ नहीं चलता।


तुमने कहा था

हाँ तुमने कहा था 
इसीलिए बस 
जला दिये वो 
सारे ख़त 
जो तुमने भेजे थे।
क्या हुआ ?
गर उनमे सपने रीते थे ,
यादें बसती थी ,
सांसें रमती थी।
धुआं धुआं था ,
मन भीगा था ,
बचपन  की कुछ 
यादें थी ,
कुछ नटखट सी बातें थीं,
तुम भी थे और हम भी थे।

कुछ चिनगारी बन कर उड़ गए 
कुछ लपटों  संग भीतर 
उतरे 
कुछ उड़े  तो दूर तलक
थे
 
 
लौटे आकर,
 
गोद में गिरे 

 लपटे थोड़ी ठहर गयी जब 
जब थोड़ी सी तन्द्रा लौटी 
सारे भस्म समेटे मैंने 
 
नहीं करेंगे तर्पण इसका 
सोच लिया था .
अब  तुमने जो नहीं कहा था ,
इसीलिए बस 
हमने  तर्पण नहीं किया 
जब तक  हूँ  ये संग रहेंगे 
नहीं  रह सके गर तुम ,तो क्या ?

हाँ ,
तुमने कहा था 
इसीलिए बस 
जला दिये वो 
सारे ख़त 
जो तुमने भेजे थे।







.

 .
हाँ की वो पत्नी ही थी…!!!!! 


आज अक्षर मूक था ,
विष्मय  था .
दर्द था ,
चिलचिलाती धूप थी,
हृदय में स्पंदन था,
 किन्तु लय विलुप्त था।

चारो तरफ तृष्णा थी,
रस था रंग था ,
खरीद- फ़रोख्त थी …..संवेदनाओ की ……
ज़िस्म था ,
बज़्म था ,
जीस्त थी ,
तश्नगी थी ,
अलग ही कयास थे

कितभी  
फिर ये कैसा शोर था ?
 किसी की वेदना थी
या की खोखलेपन की गूँज …?
कुछ शेष था,
तो बस छल था .
लोग थे किन्तु प्राण हीन से .

तभी एक सुबह,
सड़को की धूल फाकते वक़्त
मैंने सहसा उसको देखा ………!!!!!
पति के कलाई में ग्लूकोज की ड्रिप थी
उसके हाथो में थी ग्लूकोज की बोतल
वो लटकाए पीछे चलती
आज दिखी थी

तलब थी बीड़ी की,
खरीद रहा था ठेले से
वह बस एक अनुगामिनी
चिर मौन संग चली जा रही
लगा था की पत्नी ही थी …..
सहचरी की….. शायद जीवनसंगिनी थी
हाँ की वो पत्नी ही थी …!!!!!




शिकायत

 

उफ्फ़ ……!! 
तुम्हे तो हमेशा शिकायतें,
मुझे याद है.……… 
जब कम बोलते थे 
तुम कहते 
कुछ कहती ही नहीं
ये तो चन्दन है जंगल का

और अब 
कहते हो 
कभी तो शांत रहा करो
कितना किट किट करती हो
अब भी  तुम्हे 
बस 
शिकायते ही हैं 

उफ्फ़….!!

मगर ………
!!

एक बात जो मुझे पता है ,
तुम्हे नहीं पता…………. 
कह दूँ , कह ही दूँ 
अब जिस दिन मैं  न बोलूंगी 
उस दिन तुम …….
तुम छोड़ दोगे……… 
शिकायत ही …… !!







माँ ! मेरी क्या खता थी ?

म दोनों तुझसे ?
ये सोच , तेरे प्यार में
तुझसे , मुझको दूर कर दिया।

माँ ! साल बीते तो
मैंने तेरी माँ को अपनी माँ समझा
और तेरे पिता को अपना पिता।
माँ ! कुछ सालों  के बाद
तेरी माँ ने फिर से मुझसे मेरी माँ छीन ली ,
ये कहकर कि , मैं  तो तेरी बेटी हूँ
माँ ! मैं भीतर तक टूट गयी थी,
माँ ! रद्दी  के पन्ने सा वज़ूद लगा था।

पता है माँ !
तब मैंने तेरी ओर हाथ बढ़ाया था
तुझको पाने को ,तुझको छूने को।
पर माँ ! ऐसा भी क्या था कि ,
मुह ही  फेर लिया तूने ?
क्यूँ जज़बात सर्द थे इतने ?
क्यूँ माँ क्यूँ …?
मेरे आसुओं से भी तू नहीं पिघली ,
तेरी ममता कठोर थी ,ये मैं नहीं कहूँगी।

माँ ! तुझे पता है ————–
माँ ! आज मैं , तेरी माँ का सहारा हूँ।
अब बड़ी हो गयी हूँ मैं , दुनिया की नज़रों में।
मैंने भी अब सीख लिया है , अश्रु  छुपाना ,
 दर्द के साथ जीना और मुस्कुराना।
भीड़ में भी  अकेली हूँ , अपनी तक़दीर से लड़ती हूँ,
फिर भी यही सोचती हूँ , बचपन वाले वो दिन बड़े सुहाने थे
जब तक नहीं पता था, तू ही मेरी माँ है।

कोई द्वन्द नहीं था , दुविधा भी कोई नहीं थी।
तूने न अपनाया मुझको , न सही
बस इतना ही बतला मुझको —–
तुम दोनों माँओ ने मिलकर
क्यूँ छीनी मुझसे मेरी माँ ?
मेरी क्या थी खता ?





 तुम ही थे
बादल बूँदें धरती अम्बर,सब कुछ था पर  तुम न थे 
तुम सा ही दिखता था सबकुछ,तुम सा था पर तुम न थे 
धवल चांदनी में भी धुन थीतेरी ही रुनझुन गुनगुन थी
बिछी  हर सिंगार की चादर,तुम सी थी पर  तुम न थे 
थी आजान या शहनाई,या बहती थी किसलय पुरवाई 
देवालय से आती ध्वनियाँ,तुम सी थी पर  तुम न थे 
ईद का मिलन,होली के रंग,या आतिशबाजी दिवाली की
कितने पावन दिवस गए सब ,तुम से थे पर तुम न थे  
हर एक दिन एक साल रहापतझर भी मधुमास रहा 
लगता था बसंत का मौसमतुम जैसा पर तुम न थे 
मुक्त छंद थे,कवितायेँ थी,गीतों की भी मालाएं थी 
सपनो से रची -पगी कहानी,तुम सी थी पर तुम न थे 
पर अधजली चिट्ठियों के टुकड़े,और मुट्ठी से फिलसी रेत 
आँखों से जो नमक बह गया,तुम सा था और तुम ही थे 


.जब पास थे तब खास नहीं थे


वो प्यारे मिट्टी  के बर्तन ,वो कागज़ के नकली नोट 
जब पास थे तब  खास नहीं थे 
वो गुड्डे-गुडिया की शादी ,हम बन जाते थे बाराती 
जब पास थे तब  खास नहीं थे 
वो माँ का प्यार दुलार ,पापा का अद्भुद किरदार 
जब पास थे तब  खास नहीं थे 
वो बहनों से झगडे करना ,वो भाई संग मिलके चलना 
जब पास थे तब  खास नहीं थे 
वो सखियों संग लम्बी गलबहियाँवो बात-बात का अनबन 
जब पास थे तब  खास नहीं थे 
वो गाँव से चाचा का घर आना,सिंदबाद की कथा सुनाना 
जब पास थे तब  खास नहीं थे 
वो दादी-नानी की मीठी बातें ,दादा-नाना के आशीष 
जब पास थे तब  खास नहीं थे 

 वो अंकल-आंटी का घर आना ,साबुन से जामुन धुलवाना 
  
जब पास थे तब  खास नहीं थे 
वो कक्षा में छुप टॉफ़ी खाना,फिर मास्टर जी से छपकी पाना 
 
जब पास थे तब  खास नहीं थे 
वो जब था जीने का मौसम,अलहड़-मस्त-मगन सा बचपन 
जब पास थे तब  खास नहीं थे 
आज भी जब ये है ,वो है ,हम हैं ,तुम होदेखो सब हैं 
जब पास हैं कुछ खास नहीं है 


संगीता पाण्डेय 


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