अटूट बंधन https://www.atootbandhann.com/ हिंदी साहित्य की बेहतरीन रचनाएँ एक ही जगह पर Thu, 25 Apr 2024 02:31:08 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.1.6 पुस्तक समीक्षा -शंख पर असंख्य क्रंदन https://www.atootbandhann.com/2024/04/%e0%a4%aa%e0%a5%81%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%95-%e0%a4%b8%e0%a4%ae%e0%a5%80%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b7%e0%a4%be-%e0%a4%b6%e0%a4%82%e0%a4%96-%e0%a4%aa%e0%a4%b0-%e0%a4%85%e0%a4%b8%e0%a4%82.html https://www.atootbandhann.com/2024/04/%e0%a4%aa%e0%a5%81%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%95-%e0%a4%b8%e0%a4%ae%e0%a5%80%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b7%e0%a4%be-%e0%a4%b6%e0%a4%82%e0%a4%96-%e0%a4%aa%e0%a4%b0-%e0%a4%85%e0%a4%b8%e0%a4%82.html#respond Thu, 25 Apr 2024 02:15:12 +0000 https://www.atootbandhann.com/?p=7841     जो देश और काल को परिभाषित कर दे, उसकी समस्याओं, तकलीफों, बेचैनियों को शब्द दे दे, दुःख सुख, युद्ध शांति, संयोग वियोग, मानवता नृशंसता को व्याख्यायित कर दे, जीवन को आधार प्रदान करे, श्वास लेने के लिए मुफीद जगह उपलब्ध करवा दे, वही कविता है. कविता का संसार अत्यंत व्यापक है जिसका कोई […]

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जो देश और काल को परिभाषित कर दे, उसकी समस्याओं, तकलीफों, बेचैनियों को शब्द दे दे, दुःख सुख, युद्ध शांति, संयोग वियोग, मानवता नृशंसता को व्याख्यायित कर दे, जीवन को आधार प्रदान करे, श्वास लेने के लिए मुफीद जगह उपलब्ध करवा दे, वही कविता है. कविता का संसार अत्यंत व्यापक है जिसका कोई ओर छोर नहीं है. हरी अनंत हरी कथा अनंता की भांति कविता भी अनंत है. कविता को किसी देश काल में विभक्त नहीं किया जा सकता. ये जानते हुए जब कवि की कलम चलती है तब उसकी कविताओं में न केवल हमारा परिवेश, प्रकृति उसकी चिंताएं समाहित होती हैं बल्कि उसमें हमारा समाज, राजनीति, धर्म, स्त्री, मानव जाति, मनुष्य का व्यवहार और स्वभाव सभी का समावेश होता है. कविता किसी एक देश की बात नहीं करती हैं, ये सम्पूर्ण विश्व, सम्पूर्ण मानवता की बात करती हैं. इनकी कविताओं का भी फलक उसी तरह व्यापक है जिस तरह कहानियों का था. कविताओं में पूरे विश्व की चिंताएं समाहित हैं चाहे इतिहास हो या भूगोल. एक ऐसी ही कवयित्री हैं डॉ सुनीता जिनका पहला कविता संग्रह ‘शंख पर असंख्य क्रंदन’ अपने व्यापक फलक का दर्शन कराता है. कविता क्या होती है और क्या कर सकती है, दोनों का दर्शन संग्रह में होता है. इनकी कविताओं में केवल देश या अपना समाज ही नहीं है बल्कि एक कविता सम्पूर्ण विश्व की पीड़ा का दर्शन करा देती है इस प्रकार इन्होंने इतिहास भूगोल और संवेदनाओं को कविताओं में पिरोया है. 

शंख पर असंख्य क्रंदन- गाँव की पगडंडी से लेकर वैश्विक चिंताओं को समेटे कविताएँ 

 

पहली ही कविता ‘दोपहर का कोरस’ अपनी संवेदना से ह्रदय विगलित कर देती है जहाँ संवेदनहीनता किस प्रकार मनुष्य के अस्तित्व का हिस्सा बन गयी है उसका दर्शन होता है. 

अनगिनत लाशें सूख चुकी थीं जिनको किसी ने दफन नहीं किया आज तक/ क्योंकि वहां मानवीयता के लिए मानव थे ही नहीं/ कुछ परिंदे चोंच मार रहे थे उसकी देह पर 

रेगिस्तान की त्रासदी और मानवता के ह्रास का दर्शन है ये कविता जहाँ ऐसे भयावह मंज़र नज़रों के सामने होते हैं और आप उन्हें देख कर सिहर उठते हैं और आगे बढ़ जाते हैं. आप के अन्दर की करुणा आपसे संवाद नहीं करती. एक ऐसे दौर में जी रहा है आज का मानव. संवेदनशील ह्रदय जब भी मानवीय त्रासदी देखता है आहत हो जाता है. आंतरिक घुटन बेचैनी को शब्दबद्ध करने को बेचैन हो जाता है. ऐसे में पहले ही सफ़र में जब ऐसा मंज़र रेगिस्तान में देखता है द्रवीभूत हो जाता है, सोचने को विवश हो जाता है, आखिर किस दौर के साक्षी बन रहे हैं हम? हम सरकारों को कोसते हैं लेकिन क्या हमने कुछ किया? हम भी मुंह फेर आगे बढ़ जाते हैं, त्रासदियाँ घटित होती रहती हैं. कवि ह्रदय मानवता की त्रासदी पर दुखी हो सकता है और अपनी पीड़ा को शब्दबद्ध कर स्वयं को हल्का करने का प्रयास करता है तो साथ ही समाज के सम्मुख एक कटु यथार्थ सामने लाता है. 

‘प्रेम की बारिश को पत्तियों ने जज़्ब किया’ एक ऐसी कविता जहाँ प्रेम का वास्तविक स्वरूप क्या है उसका दर्शन होता है. मानवीय प्रेम नहीं, आत्मिक प्रेम नहीं अपितु प्रकृति का दुलार, प्रकृति का उपहार, बिना किसी भेदभाव के सब पर समान रूप से बरसता प्रकृति का प्रेम ही इस धरा की अमूल्य निधि है. प्रकृति अपना निस्वार्थ प्रेम इसीलिए बांटती है कि धरती पर जीवन पनपता रहे. प्यार बाँटते चलो का सन्देश देती नदियाँ, पहाड़, बादल, धरती, वृक्ष सभी प्रेमगीत गुनगुनाते हैं. जब भी सभ्यता का क्षरण होता है अर्थात प्रलय आती है, यही रखते हैं मानवता की, प्रेम की नींव ताकि जीवन कायम रहे, उम्मीद कायम रहे. यूं ही नहीं कहा – दरार से प्रेम मिटाता नहीं/ सूरज से तेज चमकने लगता है/ जिस दिन धरती डोलना बंद करेगी उस दिन/ बादल पहाड़ों का चुम्बन अन्तरिक्ष में बाँट देंगे/आकाशगंगा पर लिख देंगे स्थायी इश्तहार/ जब धरती प्रलय की योजना बनाएगी तब हम नए सृजन के नाम/ प्रेम में डूबे देश की नींव रखेंगे 

ये है प्रकृति का सन्देश, उसका निस्वार्थ प्रेम जिसे मानव समझ नहीं पा रहा, अपने हाथ अपना दोहन कर रहा है. 

 

 

‘सदियों से खड़ी मैं दिल्ली’ इस कविता में कवयित्री दिल्ली के माध्यम से केवल दिल्ली की बात नहीं कर रहीं हैं. दिल्ली क्या है – क्या केवल उतनी जितनी हम देखते हैं? आज की दिल्ली या कुछ वर्षों पहले की दिल्ली की हम बात करते हैं जबकि दिल्ली के सीने में सम्पूर्ण सभ्यता का इतिहास समाया है बस उसे देखने वाली नज़र चाहिए. यहाँ एक देश की राजधानी की बात नहीं है. दिल्ली एक प्रवृत्ति का आख्यान है. एक इतिहास विश्व का जिसे दिल्ली न केवल देख रही है बल्कि अपने सीने में जज़्ब कर रही है. डॉ सुनीता दिल्ली के माध्यम से वैश्विक फलक तक की बात करती हैं. वर्तमान समाज और समय की चिंताओं का समावेश इस कविता में हो रहा है. मनुष्यता  की चिंता है इन्हें. जहाँ १९१० का काल भी समाहित हो रहा है तो मदर टेरेसा की करुणा भी इसमें समाहित हो रही है, कैसे युगोस्लाविया से कोलकता तक का सफ़र तय करती है. युद्ध की विभीषिका, मालवीय के प्रयास से पहले अखिल भारतीय हिंदी सम्मलेन कैसे संपन्न हुआ, सभी का आख्यान प्रस्तुत कर रही है. दिल्ली के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व की चिंताएं समाहित हो रही हैं. युद्ध हों या सम्मलेन, किसने क्या किया, कैसे सफलता प्राप्त की या असफलता सबकी मूक भाव से साक्षी बनती है. 

यहाँ दिल्ली होना सहज नहीं, इतिहास ही नहीं, भूगोल का दर्शन भी होता है. कविता के माध्यम से  सोलहवीं शताब्दी का दर्शन कराती दिल्ली, एक नोस्टाल्जिया में ले जाती हैं और समय की करवट का दर्शन करवा देती हैं.

प्राचीनतावाद में डूबे विश्व के बदलते भूगोल को लोमहर्षक नज़रों से देखती/उन सभी पलों में कई सदियों को देख रही होती हूँ  

खेती एक सार्वजनिक सेवा है – इनकी कविताओं में प्रतीक और बिम्ब और शैली को समझने के लिए गहराई में उतरना पड़ेगा, विश्लेषण करना पड़ेगा. खेती एक सार्वजनिक सेवा है, इस भाव को वही ग्राह्य कर सकता है जो खेती के महत्त्व को समझता हो, जो अन्न के महत्त्व को जानता हो. जो जानता हो, यदि खेती नहीं की जायेगी तो संसार में तबाही आ जायेगी, मनुष्य, मनुष्य के खून का प्यासा हो जाएगा. वास्तव में किसान को मिलता ही क्या है खेती करके, यदि इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो डॉ सुनीता सही कहती हैं, खेती एक सार्वजनिक सेवा है. जहाँ किसान दो वक्त की रोटी के लिए स्वयं मोहताज हो जाता हो, वही सबके विषय में सोचकर कर्ज पर कर्ज लेकर भी खेती करता रहे तो ये एक सार्वजनिक सेवा ही हुई.

राजनीति, समाजनीति और सरोकार के बनियों से मिलकर/शिक्षा संस्कृति और सभ्यता की आड़ में/ नरसंहार करने वाले भेदियों को पनाह देने को मजबूर/’एक किसान मूलतः एक खेत होता है’ की पंक्तियाँ धृष्टता से छापती हूँ 

ये दिल्ली कह रही है दिल्ली यानि हमारे अन्दर की आवाज़. दिल्ली केवल दिल्ली नहीं है, हमारी पीड़ा की आवाज़ है, हमारे दर्द की आवाज़ है. कवयित्री ने माध्यम दिल्ली को बनाया है लेकिन किसानों की पीड़ा को रेखांकित कर दिया. किसानों के लिए तीन कानून लाये गए, उनका विद्रोह किसानों द्वारा किया गया और सरकार को वापस लेने को मजबूर कर दिया. वास्तव में सही कह रही हैं किसान मूलतः एक खेत होता है लेकिन कौन समझता है, प्रश्न समाज के सम्मुख छोड़ रही है कविता. आज का समय कितना भयावह है कि राजनीति, समाज और उसके सरोकारों से किसी का कोई सम्बन्ध नहीं. सबके अपने स्वार्थ हैं. शिक्षा, संस्कृति और सभ्यता की आड़ में होता नरसंहार अर्थात देश की वर्तमान स्थिति को बिना किसी शोर के रेखांकित कर रही हैं. कैसे, सरकारें हों या समाज, सब अपने हितों की ओर ही झुके हुए हैं उसके लिए चाहे कितने ही आमजन मृत्यु की भेंट चढ़ जाएँ, उन्हें फर्क नहीं पड़ता, जैसा कि किसान आन्दोलन के समय हुआ. कितने ही किसान मृत्यु को प्राप्त हो गए. इनकी कविता की गहराई को पाठक को स्वयं समझना पड़ेगा आखिर कवयित्री क्या कहना चाहती हैं. दिल्ली के माध्यम से व्यवस्था पर करारी चोट कर रही हैं. 

शब्द जो मफीम हैं वे कभी अकेले खड़े नहीं होते/ और मैं ‘धर्म की आड़’ में शतरंज की गोटियाँ बिखेरती हूँ/ मज़हब के नाम, खेमे में बनते बहरूपियों को पास बैठने से रोक नहीं पाती/ अपने हिस्से के कर्तव्यों की आयतें नरकंकाल की छाती पर लिखती/ भविष्य के भारत को देखती भीमकाय अवस्था में खड़ी हूँ 

दिल्ली देख रही है धर्म के नाम पर मानवता का दोहन हो रहा है, जाति के नाम पर इंसानियत का शोषण हो रहा है, कैसे जाति, धर्म और मानवता के नाम पर सियासत खेली जाती है, मूक हो देखने को विवश है, अपने ह्रदय पर पड़े छाले किसी को दिखा नहीं पाती लेकिन जानती है देश भविष्य क्या है. यदि ऐसा ही माहौल रहा तो देश धर्म और जाति में बँटकर तबाही की ओर अग्रसर हो जाएगा जैसे अन्य कई देश तबाह हो रहे हैं केवल धर्म के नाम पर, मानो चेता रही हैं डॉ सुनीता. 

धर्म और जाति के नाम पर होते घिनौने खेल क्या हमें भविष्य के भारत का दर्शन नहीं करा रहे. ये हमें ही सोचना पड़ेगा, हम कहाँ पहुंचेंगे. हम कैसे भारत का निर्माण कर रहे हैं. साहित्य, युद्ध और मिथक किसी भी पहलू को नहीं छोड़तीं. दिल्ली के माध्यम से प्रत्येक पहलू को शब्दबद्ध करते हुए जैसे डॉ सुनीता बार बार चेता रही हैं, अब नहीं संभले तो भविष्य अंधकारमय हो जाएगा. युद्ध किसी भी समस्या का समाधान नहीं होते का सन्देश भी कविता देती चलती है- 

नींव के मिथकों और युद्ध शांति के असाधारण कार्यों को आधुनिक लड़ाइयों की शक्लें/ खाली स्लेटनुमा धरती पर हथगोले की तरह बरसाती हूँ 

 

कविता में कथा और कथा में कविता का आस्वाद मिलेगा. ये इनकी कविताओं की खूबसूरती है. पेड़ों की कटाई से पर्यावरण पर पड़ते विपरीत प्रभाव को न केवल रेखांकित किया है बल्कि स्वयं को अर्थात मानव जो दिल्ली में रहें अथवा कहीं भी, उसकी मानसिकता को एक वाक्य में परिभाषित कर दिया – मैं रावण की भूमिका में अपराजिताओं को लुटते हुए देखती, शर्मिंदा खड़ी हूँ क्या वाकई हम स्वयं अपने शोषण और दोहन के लिए उत्तरदायी नहीं हैं, एक यक्ष प्रश्न छोड़ रही हैं? लेकिन उनके कहने का अपना एक तरीका है जिसे पाठक को स्वयं समझना होगा. 

‘प्रेम मानसिक अवस्थाओं की श्रृंखला है  के माध्यम से कहीं प्लेटोनिक लव तो कहीं क्रश के आयामों को देखती दिल्ली करती है सवाल, यह कैसा प्रेम है तुम्हारा जहाँ कभी सोलमेट का नारा बुलंद होता है कहीं पपी लव का लेकिन प्रेम की परिभाषा से अब तक सभी अनजान हैं. जीवन के किसी भी आयाम को छोड़ नहीं रहीं, दिल्ली के माध्यम से मनुष्य में व्याप्त अनेक विसंगतियों को भी उजागर करती चल रही हैं. प्रेम जो मनुष्य की आदिम भूख है उसका स्वरूप आज क्या हो गया है, उसकी साक्षी भी दिल्ली बन रही है अर्थात हम बन रहे हैं. देख रहे हैं प्रेम के गिरते स्तर को लेकिन कुछ कर पाने में असमर्थ हैं. विकास और तेज दौड़ में मनुष्य ने अपने आप को खो दिया है. अपना सबसे बड़ा सुख खो दिया है मानो इस श्रृंखला में प्रेम की आवश्यकता और उसके बल पर ध्यान आकर्षित करना चाहती हैं. प्रेम जीवन का आधार होता है लेकिन मानव ने आज प्रेम के भी जैसे टुकड़े टुकड़े कर दिए हैं. प्रेम के वास्तविक अर्थ कहीं खो गए हैं. आज का प्रेम वन नाईट स्टैंड में बदल चुका है. वैलेंटाइन युग में प्रेम का फ्रेम अब फिट नहीं होता, मानो दिल्ली यही कहकर अपनी टीस व्यक्त कर रही है. हवाओं में घुले खुलेपन के सम्मोहन को यौन तत्व वर्जित प्रदेश में छोड़कर/ ‘ द जनरल ऑफ़ सेक्स रिसर्च’ का मीटर जोर से खींचती/ युवाओं के सपनों में उम्मीद की सेक्सोलोजी के अध्ययन की धुरी पर पार्क की बत्तियों को नाचते देखती हूँ – कैसे आज के युवा के लिए प्रेम केवल सेक्स तक सीमित होकर रहा गया है, इसका दर्शन भी दिल्ली कराती है. आज के दौर में प्रेम, रोमांस केवल सेक्स तक सीमित होकर रह गया है, प्रेम भी जैसे मैटिरियेलिस्टिक हो गया है, का दर्शन कविता कराती है. 

कहीं न कहीं हर चीज के लिए मनुष्य उत्तरदायी है. बहादुरशाह ज़फर, शेरशाह सूरी, हुमायूं से लेकर वर्तमान तक का सफ़र तय करती दिल्ली, प्रेम, प्रेमी और बलात्कार के युग की साक्षी बनती है तो दूसरी तरफ भूमंडलीकरण के दौर में अपनी जमीन अपने संस्कारों को खोती एक नए दौर की साक्षी बन रही है जहाँ मृत्यु का आलिंगन कितना सहज हो गया है यह प्रत्येक मनुष्य देख रहा है. कैसे राजनीति की करवट से दिशाएँ सहम रही हैं, अपनी दिशा बदल रही हैं, ऐसे प्रत्येक क्षण की साक्षी है दिल्ली. उसकी पीड़ा का दर्शन इन पंक्तियों में होता है जब दिल्ली कहती है, संस्कारों के संत अर्थात संसद सरकार और सरोकार कैसे सब मिलकर उसका दोहन करते हैं लेकिन उसकी मजबूरी ये है, वो भाग नहीं सकती. उसे सब सहना ही होगा, बर्दाश्त करना ही होगा क्योंकि आज के दौर में संस्कारों की परिभाषा भी बदल चुकी है-  

घटनाओं के थपेड़े में तब भी खड़ी ‘संस्कारों के संतों’ को सुनती/लव कुश सरीखे प्रहरी बनने की जिद में त्रिकोणीय सिद्धांत को बार बार घूरती हूँ/ माँ का रूप धारण कर संसद, सरकार और सरोकार ने आदेश की पर्ची पकड़ाई/ करोड़ों विघ्न बाधाओं के बाद भी मैं भाग नहीं सकती/ क्योंकि मैं ‘भगोड़ा’ नाम बर्दाश्त नहीं कर सकती/ जिसे जब चाहे शेरशाह सूरी जैसे लोग हुमायूं की तरह दौड़ा दौड़ाकर मार सकें 

 

बेशक कितना बदलाव आये, कितने युद्ध हों किन्तु हर ज्यादती को सहकर भी दिल्ली कल भी थी, आज भी है और हमेशा रहेगी, यही है इसकी जिंदादिली. बस युद्ध नहीं शांति की प्रतीक बन हर हृदय में वास करना चाहती है दिल्ली मानो यही कवयित्री कहना चाहती हैं. 

मैं दिल्ली सदियों से सैंकड़ों शताब्दियों के बदलने के बाद भी खड़ी थी, हूँ और रहूंगी/ अब मैं ‘द आर्ट ऑफ़ वॉर’ की दस्तक को नयी सदी से सदा के लिए विदा करती हूँ 

यही होती है अमनपसंद मनुष्य की चाहत जहाँ वो नहीं चाहता युद्ध. वो चाहता है शांति, सहज खुशहाल जीवन किन्तु मनुष्यता के दुश्मन ऐसा नहीं चाहते. नयी सदी में कम से कम मनुष्य संभल जाए और युद्धों से धरा को मुक्त कर दे, मानो यही आह्वान है दिल्ली का, हर मनुष्य का किन्तु ऐसा हो नहीं पा रहा. युद्ध कभी खत्म नहीं होते. 

 अंत में दिल्ली की पीड़ा इस रूप में भी उभरकर आती है जैसा कि दुःख सहते सहते मनुष्य कह उठता है उसी प्रकार दिल्ली कह उठती है – 

अब थक गयी हूँ / बुद्ध की आत्मा से एकांत चुनती / मैं दिल्ली अब खामोश खड़ी होती हूँ 

किसी के भी सहन करने की एक सीमा होती है और जब वो चुक जाती है तब एक थके हारे मानव की भांति अंततः कहने को विवश हो जाता है – बहुत हुआ, बस, अब और नहीं. एक सीमा के बाद खामोश होना ही पड़ता है. आप कितना ही संसार को, मानव को जगाने का प्रयास करते रहें लेकिन युद्धोन्माद के हामियों पर कोई असर नहीं होता. यही इस सृष्टि की विडंबना है जहाँ सभी विकल्प निष्फल हो जाते हैं. मनुष्य दिल्ली की भांति मूक हो हर त्रासदी को देखने और भोगने को विवश हो जाता है. 

दिल्ली के माध्यम से एक कितना बड़ा फलक डॉ सुनीता ने बुना है जिसमें समस्त वैश्विक फलक दृष्टिगोचर होने लगता है. एक में सब समाहित हो जाते हैं. एक से अनेक और अनेक से एक होने की प्रक्रिया को जैसे एक कविता में समाहित कर दिया है. 

‘इस ज़िन्दगी के बदले’ कविता मनुष्य और ज़िन्दगी की खींचतान और इम्तिहान का दर्शन कराती है. एक ज़िन्दगी के बदले मनुष्य कितना कुछ सहता है उसका आख्यान है ये कविता. स्त्री हो या पुरुष दोनों ही जैसे एक देह की भांति जीवन गुजारते हैं. कितना कुछ खोते हैं. पीड़ा सहते हैं और मरहम ज़िन्दगी कभी लगाती नहीं. पल पल एक नए इम्तिहान खडा कर देती है, इस भाव को कविता संजोती है – 

इस ज़िन्दगी के बदले/ दो जून की रोटी नहीं मिली/ सौदों के अम्बार मिले/ इस ज़िन्दगी के बदले/ हमें बना दिया गया/ आसमान से गिरती हुई ओस की बूँद/ हमें दिए गए/ बदलते बिस्तर की तरह रोज़ एक नयी सेज/तपती रेत पर छोड़ दिए गए/ महल की नींव रखने के लिए

‘खाली कमरे का नाम दुःख है’ – दुःख क्या है, क्यों है, कैसा अनुभव होता है, सभी जानते हैं फिर भी कवयित्री यहाँ दुःख को परिभाषित कर रही हैं. दुःख खाली कमरे का नाम है अर्थात यहाँ आकर किसी के हाथ कुछ नहीं लगता लेकिन फिर भी इस कमरे में आये बिना जीवन बसर नहीं हो सकता. अब आप ख़ुशी से आयें या मजबूरी में, दुःख के दांव से मुक्ति संभव नहीं यानि ठीक उसी प्रकार जैसे मृत्यु शोक का नहीं मुनादी का विषय है. बिलकुल मृत्यु एक मुनादी ही तो है जो जन्म के साथ ही हो जाती है, जिसके विषय में ज्ञात है उससे मुख कैसे चुराया जा सकता है, क्यों न उसे स्वीकार लिया जाए, न कि अटल सत्य को झूठ बनाने की कवायद की जाए. मृत्यु से बड़ा सत्य कोई नहीं, उसी प्रकार दुःख और मृत्यु का चोली दामन का साथ है, कैसे उससे मुक्ति संभव है. अतः ऐसे में आवश्यक है इसे भी स्वीकार लिया जाये और जो क्षण आयें उन्हें सहजता से गुजारा जाए. 

दुःख एक खाली कमरे का नाम है/ भूगोल की तलाश में छिपते हैं जहां यात्री/ नयी सदी में मृत्यु शोक का नहीं मुनादी का विषय है/ जहाँ सच धीरे धीरे झूठ बनता/ मृत्यु सच में सच है/ दुःख का कमरा सदा से खाली है/ वहां पहुँचने वाले हर शख्स को बड़ी जल्दी रहती है लौटने की/ लुटे क़दमों में स्थायित्व नहीं ठहरता 

कवयित्री के अनुसार दुःख वो देवता है जो आपको न केवल आपके मन की थाह लेने का अवसर प्रदान करता है अपितु देश समाज और मनुष्यों के भीतरी कोनों तक पहुँचने का मार्ग भी देता है. दुःख जोड़ता है तभी तो कहा गया है. यही कारण है दुःख को कवयित्री देवता बना रही हैं. माना दुःख का समय सहज नहीं होता, उसे काटना लगभग असंभव प्रतीत होता है और लगता है जैसे दुःख की अधिकता ने जीवन ही छीन लिया हो, जीते जी मनुष्य मृत समान बन गया हो फिर भी इससे मुक्ति संभव नहीं तभी कवयित्री कह रही हैं सब कुछ स्वीकार लिया जाए फिर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता दुःख सोच समझकर की गयी हत्या जैसा है. यही मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है. 

दरअसल दुःख देवता है/ दांव मन का थाह लेने का पता देता/ दुःख खुद में खुरदुरा है/ दुःख दो देशों में छिड़े युद्ध की तरह है/ जिसमें जीतने की जिद शामिल रहती/ बावजूद दुःख सोच समझकर की गयी ह्त्या के जैसा है  

 

‘जंगलों में घुला ज़हर’ कविता के माध्यम से नक्सली हिंसा का दिग्दर्शन कराती हैं. कैसे इस कारण जंगल अपना सहज स्वरूप खो चुके हैं. 

वे बेबस हैं जीने को/ डर, भय, भूख और यातना के साए में/ बूँद बूँद रिसती जा रही है ज़िन्दगी/ किन्तु निवारण के रास्ते बंद से लगते हैं 

यही यथार्थ है आज उन जंगलों का जहाँ नक्सली हिंसा अपने चरम पर है. 

घिर जाता है एक और भय का बादल/ और जंगलों में घुला ज़हर याद आता है/ हम अचानक उस बन्दूक के सामने आ जाते हैं/ जिस पर हमारा नाम तो नहीं होता/ मगर हम उसके निशाने पर होते हैं 

मानवीय जीवन की कितनी बड़ी त्रासदी है ये, इस धरती पर जन्म लेकर भी उसे सहज जीवन जीने को नहीं मिलता. सभी जगह हिंसा का साम्राज्य व्याप्त है. कहीं हक़ की लड़ाई है, कहीं उसूल की तो कहीं स्वार्थ की किन्तु उसमें एक आम मानव की सहज चाहत पर किसी का ध्यान आकर्षित नहीं होता आखिर वो क्या चाहता है. 

आखिर यह सब कब तक है?/ जब देखो दुरदुरा दिए गए/ अवसर के क्षण में क्षमा करते हुए बुलाये गए/ यह दुस्साहस करते हुए डर भी था लेकिन/ उदर की भूख की अनवरत पीड़ा ने/ अंततः विद्रोह का रास्ता चुन लिया/ यह कहते हुए कि/ आश्वासन के गीतों से पेट की आग नहीं बुझती/ शायद विद्रोह की ज्वाला से ही कुछ हाथ लगे…

उपरोक्त पंक्तियों में ‘पेट की आग’ कविता का सार समाया है. कहते हैं पेट की आग से बड़ी कोई आग नहीं होती. पेट की आग से सभी परिचित हैं. जब किसी को उसका हक़ नहीं मिलता तब विद्रोह पनपता है. वंचितों को जब उनका हक़ नहीं मिलता तब केवल आश्वासनों से पेट नहीं भरा करता, हम जानते हैं, अतः विद्रोह होना लाजिमी है. मनुष्य तभी तक हर आतंक सहन करता है जब तक उसे भरपेट मिलता रहे, लेकिन जब पेट भरने के उसके अधिकार पर कुठाराघात होता है तब सह्य नहीं होता. किसी को इतना मजबूर नहीं किया जाना चाहिए कि विद्रोह पर उतर आये मानो यही कविता कहना चाहती है. 

दलदल की मिटटी रेह से बोली/हे बबुआ/ हम भी अनमनस्क हो रहे हैं कि किसको क्या दूं/ आधी आबादी को जो घुट रही है जाने कब से/ गोल गोल आकार लेते कद्दू से उसके उदर/ कुछ कहने से पहले ही ठहरा दी जाती है/ वाचाल, छिनाल, बेहया व बेहूदा 

उपरोक्त पंक्तियाँ ‘गण का तंत्र’ कविता से ली गयी हैं जो एक मानीखेज कविता है. एक ऐसी कविता जो मन के अन्दर उतर जाए और बताये गणतंत्र का आखिर अर्थ क्या है. जब चहुँ ओर असमानता और विसंगतियों का बोलबाला है, सारे देश में माँ हो, सत्ता हो, स्त्री हो या दलित हो सभी एक कतार में खड़े हैं और समाज व राजनीति से प्रश्न कर रहे हैं आप किस गणतंत्र की बात कर रहे हैं. गणतंत्र का अर्थ कितना गहन है ये समझने वाली बात है. 

स्त्री की क्या तस्वीर है इस गणतंत्र में उसका दर्शन ये पंक्तियाँ कराती हैं. ऐसे में कौन किसे शुभकामनाएं दे और कैसे दे? ये एक जरूरी प्रश्न है. क्या वाकई शुभकामनाएं देनी बनती हैं जहाँ स्त्री को मनुष्य भी नहीं माना गया हो, जहाँ वो केवल एक वस्तु हो और जिस दिन आवश्यकता हो उस दिन पूज ली जाए और बाकी दिन दुत्कार दी जाए या उसका बलात्कार कर दिया जाए. हमने स्त्री को कितनी बेड़ियों में जकड़ा हुआ है और हम अपने आप को मनुष्य कहते हैं क्या हम उसके अधिकारी हैं? 

उन वंचितों को, जो उबड़ खाबड़ जंगलों में जी रहे हैं/ या उस दलित को, जिसके नाम पर संस्थाएं करोड़ों डकार कर/ दरिया से समंदर तक अपने परचम का अट्टहास दिखा रही हैं/ उस जनता को जो कुनबेवाद का शिकार है/सीमा के उस सिपाही को जो दिन रात ठिठुरते मौसम में बन्दूक ताने खड़े हैं/ या उन दरिन्दे लोगों को/ जो अपने नापाक इरादे से देश को शर्मसार किये हुए हैं/ उस जमात को जो लिखते हैं पुरस्कार पाते हैं / लेकिन जाति, धर्म और मजहब के नाम पर खेमे में बंट जाते हैं / उस माँ को जो बेटे बेटी में करती है फर्क 

कैसे सेलिब्रेट करें गणतंत्र को जब तक हम मनुष्य को उन बेड़ियों से आजाद नहीं करते और वंचितों को उनका हक़ न दें, व्यर्थ प्रवाद है. कहीं कुनबेवाद का परचम लहरा रहा है और जनता आँखें मूंदे बैठी है, कहीं तो सिपाही सीमा पर हर मौसम में तैनात रहते हैं दूसरी ओर देश के दुश्मन अपनी हरकतों से देश को शर्मसार किये जाते हैं मानो पूछना चाह रही हों, क्या ऐसे लोगों के लिए सैनिक अपनी जान सीमा पर देते हैं? सारे आयामों को समेट रही है कविता. हर पहलू को रेखांकित कर रही है. किसी को नहीं बख्श रही. ये है कविता का विशाल फलक. एक स्त्री जो माँ है अपने बेटी बेटे में जब फर्क करती है, वही बेटा जब घर से बाहर निकाल देता है तब दो रोटी को तरसती है, लिंगभेद करती है एक माँ भी, विचारणीय है ये पहलू. एक मानीखेज प्रश्न उठाती है कविता. अनुत्तरित सवाल. अब हम किसे दें शुभकामना सन्देश जो अपने मायने खो रहे हैं. एक बहुत बड़ी कविता सोचने को विवश कर रही है. कविता नहीं है ये यथार्थ है. हमें सोचना होगा हम मनुष्य हैं क्या? समाज को सोचना होगा, राजनेताओं को सोचना होगा. 

श्वेतलाना की नायिका कहती है मनुहार से आज भारत आज़ाद है/ लेकिन फिर नंगे बदन यहाँ कौन खड़ा है?/ रंगीन सा कुछ लपेटे हुए/ वह कौन है?

एक ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर देश, समाज और जनता को मिलकर खोजना होगा. क्या हमने ऐसे गणतंत्र की कल्पना की थी? एक ओर विकास के चश्मे से भारत को दिखाया जा रहा है दूजी और गरीबी और भुखमरी का परचम लहरा रहा हो, ऐसे हालात में क्या जश्न मनाने बनते हैं? क्या विकास का ढिंढोरा पीटना जायज है? कौन है वे लोग जो इस दुर्दशा के शिकार हैं? क्या वे भारत के नागरिक नहीं? क्या उन्हें ससम्मान जीने का अधिकार नहीं? ऐसे अनेक प्रश्न छोडती कविता पूछ रही है किस गण के तंत्र की आप बात करते हैं? कौन और किसे शुभकामना दे और किस बात के लिए, ये एक अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न कविता छोड़ रही है. 

‘चेहरे’ कविता देवासुर संग्राम, राम रावण युद्ध हो या महाभारत, प्रथम या द्वितीय विश्व युद्ध अथवा रूस युक्रेन, कोई युद्ध हो, कुछ नहीं बदला, स्वभाव कभी नहीं बदलते, मानवीय प्रवृत्तियां कभी नहीं बदलतीं, का आख्यान रचती है. केवल चेहरे बदलते हैं, घटनाएँ और कारण ज्यों के त्यों रहते हैं. स्वार्थ और लालच में मनुष्य सब कुछ पाना चाहते हैं, अपना एकछत्र साम्राज्य चाहता है, वहां मनुष्यता का ही ह्रास होता है. चेहरे कविता जैसे प्रत्येक चेहरे का नकाब उलट रही है जो शांति का गीत गाते हैं लेकिन उसकी आड़ में अशांति के बीज बोते हैं. कितना दोगला चेहरा लिए मानव घूमता है उसका दर्शन कराती है कविता तभी कहती है – युद्ध का चेहरा बुद्ध बनने में रोड़ा है – निसंदेह, जहाँ बुद्ध होंगे वहां शांति होगी, युद्ध और शांति एक ही पलड़े में कभी नहीं बैठ सकते, अतः चेहरे पर नकाब डालकर ही स्वार्थ सिद्ध किये जा सकते हैं. 

 बेकाबू गाड़ियों के बरक्स सड़कें और पटरियां निर्दोष होती हैं/जबकि गुनाहगार गाड़ियां खून से लथपथ/ सड़कें संवेदना का अभ्यास नहीं करतीं/क्योंकि उनके सबक में वेदना के लिए/ कोई जगह सुरक्षित नहीं है/ कभी न कभी मन का बेकाबू होना/ सड़क जैसा सुख देता है 

बेकाबू’ कविता सड़क का बिम्ब लेकर मनुष्य के मन की थाह लेती है. सड़क के बिम्ब को मानवीय मन से जोड़कर थाह लेती रचना सोचने को विवश करती है, कैसे मनुष्य इतने संवेदनहीन हो गए हैं कौन मारा जा रहा है, कुचला मसला जा रहा है, उसकी परवाह न करते हुए जो चाहिए वो हर हाल में पाना है, केवल स्व की इच्छा को पूर्ण करने के लिए किसी भी हद से गुजर जाते हैं. सड़कों के माध्यम से कविता मनुष्य के मन की बात करती हैं. सड़कें संवेदना का अभ्यास नहीं करतीं, वाकई मनुष्य ने संवेदना का दामन छोड़ दिया है. एक संवेदनहीन मनुष्य से उम्मीद की समस्त कड़ियाँ टूट जाती हैं. वो दौर और था जब मनुष्य के अन्दर दया करुणा और ममता का स्रोता बहता था लेकिन आज के खुरदुरे समय में भावनाएं भी खुरदुरी हो गयी हैं, मनुष्य एक ऐसी राह पर निकल पड़ा है जहाँ स्व से परे अन्य मनुष्य मायने नहीं रखता. यथार्थ के दर्शन कराती मानीखेज कविता है. 

उफ़! यह कैसी दुनिया बना ली हमने/ मिटटी के स्पर्श से गंध आती है/जिसे कभी मस्तक पर मलकर शहीद हुए थे भगत सिंह/ अब सीमेंट की खुशबुओं से नहाकर निकलती हैं संवेदनाएं/ दरअसल शहर सही पहचान को परिवर्तित कर/ नई पहचान दे देने का नाम है 

‘शहर हमसे छीन लेता है’ कविता में, शहर हमसे क्या छीन लेता है इस प्रश्न का उत्तर पहली ही पंक्ति में दे देती हैं. शहर हम से छीन लेता है मिटटी का लोंदा और थमा देता है धूल. कंक्रीट के जंगल में तब्दील होते शहरों की व्यथा को उकेरा है. अपनी संवेदनाओं को रूखे कब्रगाह में परिवर्तित कर दिया है. यहाँ आपको कुछ नहीं मिलेगा. एक रुक्ष जीवन जीना पड़ेगा यहाँ. जिस मिटटी के लिए जान न्यौछावर कर दी जाती थी आज न वो मिटटी रही, न वो जज़्बात. सबको जैसे एक मायाजाल ने अपने आगोश में ले लिया है, उस सम्मोहन से सम्मोहित मनुष्य अपनी कब्रगाह खुद खोद रहा है और खुश हो रहा है. विकास के नाम पर दोहन की परिपाटी ने शहरों की सूरत ही नहीं, मनुष्य की पहचान भी बदल दी है जो आने वाले कल के लिए किसी चेतावनी से कम नहीं. क्या ऐसी दुनिया की चाह थी जहाँ मनुष्य में मनुष्यता ही बाकी न रहे. संवेदनाओं का वृक्ष सूखकर ठूंठ बन जाए. मनुष्य के वास्तव में मनुष्य होने की पहचान भी कंक्रीट का जंगल बन जाए. एक थोपा हुआ व्यक्तित्व ओढ़ स्वयं को मनुष्य कहने लगे, नकली संवेदनाओं से न केवल मनुष्यता को बल्कि स्वयं को भी धोखा देने लगे, क्या इस तरह शहर मनुष्य को परिवर्तित कर देते हैं तो क्या लाभ शहरी होने का. इससे अच्छा तो वो गाँव थे, जहाँ अपनापन, प्रेम और सद्भाव की नदी बहा करती थी, मानो इस कविता का यही उद्देश्य कवयित्री सम्मुख रखना चाहती हैं.  

एक खूंखार बहेलिया ऐसे में दिखता/ जिसके हाथ में कुल्हाड़ी नहीं है/ बावजूद सारे पेड़ टूटकर जमीं पर बिखर जाते हैं/ जानते हो क्यूँ?/ क्योंकि किसी को नष्ट करने के लिए औजार की नहीं/ औजार जैसी हरकतें भी अपना काम कर जाती हैं 

‘मैं और हम’ कविता के माध्यम से पर्यावरण की चिंता की तस्वीर प्रस्तुत करती हैं जहाँ कार्बन उत्सर्जन कर ओजोन लेयर में छेद कर दिया है. सूर्य की हाहाकारी प्रचंड लपटों को हमें ही झेलना पड़ेगा क्योंकि यह हमारे ही किये गए कार्यों का दुष्परिणाम है. जब तक हम प्रकृति के रक्षक नहीं बनेंगे, भक्षक बने रहेंगे, मैं से हम का सफ़र तय नहीं होगा. उसके दुष्परिणाम हमें ही सहन करने पड़ेंगे. 

सूरज ने अपनी नज़र फेर ली है यह कहते हुए कि/ मैं ही फ़िक्र की आग में जलता रहूँ?

जहाँ सूर्य कह रहा है तुमने जो मेरे साथ किया है उसका दुष्परिणाम आपको स्वयं सहना है. किसी को नष्ट करने पर स्वयं भी नष्ट होना ही पड़ेगा. फ़िक्र स्वयं करनी होगी अपनी और आने वाली पीढ़ियों की. जिस दिन पर्यावरण का महत्त्व समझ आ जाएगा ‘मैं’ से ‘हम’ का सफ़र तय हो जाएगा. 

शंख पर असंख्य क्रंदन – विशाल फलक की कविता कहीं न कहीं स्त्री जीवन का आख्यान रचती है, लिंगभेद को झेलती स्त्री की कविता है जो मिथकीय काल से वर्तमान तक अपनी सत्ता बनाए है. स्त्री के धैर्य प्रेम और करुणा ने कैसे समस्त संसार को बचाया हुआ है. जब स्त्री हुंकार भरती है तो एक नया आख्यान रचती है. 

शंख पर असंख्य क्रंदन नहीं होते. पुत्र जन्म शंख बजाने का पर्याय और पुत्री जन्म क्रंदन का बायस, एक ऐसे कटु यथार्थ को कविता उजागर कर रही है जिससे सभी परिचित हैं. स्त्री का दोहन किन किन माध्यमों से होता रहा उसे सिलसिलेवार इस कविता में पिरोया गया है. लिंगभेद की शिकार स्त्री का कैसे कदम कदम पर शोषण होता रहा, उसका आख्यान रचती है कविता. कैसे धर्म को आधार बनाया गया और स्त्री को शिकार उसे भी कविता रेखांकित करती है. न केवल भारतीय  परिप्रेक्ष्य में अपितु समस्त विश्व की माइथोलोजी को भी इस कविता में समेट लेती हैं मानो कहना चाहती हैं, मिथकों के बहाने स्त्री शोषण की नयी नयी परिपाटियाँ आदिकाल से ही विकसित की गयीं. कहीं प्रेम के नाम पर दोहन होता है तो कहीं कहलायी जाती हैं निर्लज्ज, कहीं देवी तो कहीं जलपरियाँ. रूसी दंतकथाएं हों या यूनानी कहानियां, सभी में स्त्री के शोषण का विशाल फलक उभरकर आता है. आत्मा परमात्मा, शैव, वैष्णव आदि सभी आयामों के माध्यम से शंख की उपयोगिता और स्त्री के शोषण की पहेलियों को सुलझाती है ये कविता. पुराकाल से वर्तमान तक को इस कविता में कवयित्री संजोती हैं जहाँ आज भी शंख एक उद्घोष है, धर्म की अफीम है, जिसे जनता चाट रही है और स्त्री की भांति शोषण के लिए सज्ज है. शंख और विज्ञान के सम्बन्ध को भी कवयित्री ने प्रस्तुत किया है कैसे उसकी आवाज़ से कीटाणुओं का नाश होता है. शंख के माध्यम से विभाजन और युद्ध दोनों कलाओं को प्रस्तुत किया है. इस कविता में शंख और सीपी का सम्बन्ध, मनुष्यता का सम्बन्ध, वैश्विक फलक, अनेक देशों की संस्कृति और सभ्यता का आकलन, वहां के अनेक परिदृश्यों से पर्दा उठाती हैं तो साथ ही एक प्रश्न भी छोड़ रही हैं जहाँ शंख को अनेक हत्याओं का दोषी भी बताया जा रहा है तो उन करोड़ों हत्याओं का दोष किसके सर पर है? असंख्य क्रंदन करती धरती ये प्रश्न पूछ रही है क्योंकि वो कह रहे हैं – स्त्री ही शंख है और शंख ही स्त्री है – यानि येन केन प्रकारेण दोषी स्त्री ही है फिर वो शंख लिंगभेद का बायस ही क्यों न हो. एक अत्यंत विशाल फलक की कविता अनेक अर्थ संजोये हैं. अनेक कहानियां स्वयमेव लिपटी चली आती हैं और अपने विषय में बात करने को प्रेरित करती हैं. ऐसी कविताओं को लिखना सहज नहीं. गहन चिंतन मनन का परिणाम होती हैं ऐसी कवितायें जहाँ स्त्री केंद्र हो और उसके चहुँ ओर एक वैश्विक फलक की कविता विचरण कर रही हो. 

सत्ता की आँख में विष्णु संस्कृति का वास/ भला वे कैसे करें शिव संस्कृति का सर्वस्वीकार/ स्त्री जीवन शिव है जबकि पुरुष विष्णु अवतार 

ये पंक्तियाँ काफी है इस अंतर को समझाने के लिए कैसे विष्णु संस्कृति और शिव संस्कृति के माध्यम से स्त्री और पुरुष के मध्य फांक की गयी है. कैसे पितृसत्ता नहीं चाहती शिव जैसी संस्कृति का विकास क्योंकि शिव ने पार्वती को आधे अंग का दर्जा दिया है अर्थात बराबर का दर्जा, अतः उन्हें नहीं स्वीकार हो सकती ऐसी संस्कृति जहाँ बराबरी का भास् हो. उन्हें तो विष्णु संस्कृति ही प्रिय है अर्थात जैसे लक्ष्मी विष्णु के चरण चारण करती रहती है, वैसे ही स्त्रियाँ उसी बनाए हुए दायरे में घूमती रहें. स्वतंत्रता और बराबरी जैसे शब्दों के अर्थ उन तक न पहुंचें. 

डॉ सुनीता की कविताओं को समझना सहज नहीं. हर कविता एक विमर्श को जन्म देती है. समाज की हर चिंता को साथ लेकर चलती हैं. इन कविताओं को समझने के लिए आवश्यक है पहले आपको इतिहास की जानकारी हो. आपको धरती के भूगोल का ज्ञान हो. आपको पुराणों की कथाओं का ज्ञान हो. राजनीति की चौसर पर पासे कैसे फेंके जाते हैं, उसका ज्ञान हो, तब जाकर आप इनकी कविताओं के मर्म तक पहुँच पायेंगे. यही कारण है आम पाठक ऐसी कविताओं से जल्दी जुड़ नहीं पाता लेकिन इसका ये अर्थ नहीं, इन कविताओं को नकार दिया जाए. इन कविताओं का एक विशिष्ठ पाठक वर्ग होता है जो बौद्धिक कविता की मांग करता है. जो हर कविता के माध्यम से एक नए विमर्श की मांग करता है. ऐसी कवितायें पाठ्यक्रम में लगाईं जाएँ तो अध्यापकों को इन्हें पढ़ाने से पहले इनके अर्थों तक पहुँचने हेतु काफी दिमागी कवायद करनी होगी बिल्कुल उसी प्रकार जैसे जायसी, कबीर, सूर, तुलसी, केशव आदि के कहे के अर्थ समझने के लिए करनी पड़ती है. उनकी कविताओं का भावार्थ और उसमें निहित उनके अर्थ दोनों का विश्लेषण करना पड़ता है, ठीक उसी प्रकार डॉ सुनीता की कवितायें हैं. एक एक पंक्ति के अर्थ समझने के लिए इतिहास, भूगोल सभी खंगालने पड़ेंगे. जो एक अच्छा कार्य होगा क्योंकि कविता के माध्यम से इतिहास भूगोल सहज संप्रेषित हो जाएगा। 

वंदना गुप्ता

वंदना गुप्ता

 

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काव्य कथा, कविता की एक विधा है, जिसमें किसी कहानी को कविता में कहा जाता हैं l काव्य कथा – वो लड़की थी कुछ किताबी सी में गुड्डो एक किताबी सी लड़की है , जिसे दुनिया की अच्छाई पर विश्वास है l उसकी दुनिया सतरंगी पर उसके प्रेमी को उसके सपने टूट जाने का डर है l सपने और हकीकत की इस लड़ाई में टूटी है लड़की या उसका प्रेमी या कि पूरा माजरा ही अलग है l आइए जाने इस काव्य कथा में …

 

काव्य कथा – वो लड़की थी कुछ किताबी सी

 

दिन रात किताबों में घिरी रहने वाली

वो लड़की थी कुछ किताबी सी

ऐसा तो नहीं था कि उसके रोने पर गिरते थे मोती

और हंसने पर खिलते थे फूल

पर उसकी दुनिया थी सतरंगी

किसी खूबसूरत किताब के कवर जितनी हसीन

उसे भरोसा था परी कथाओं पर

भरोसा था दुनिया कि अच्छाई और सच्चाई पर

उसे लगता था एक दिन दुनिया सारे अच्छे लोग

सारे बुरे लोगों को हरा देंगे

शायद वो देखती थी यही सपने में

और सोते समय एक मुस्कुराहट तैरती थी

उसके ज़रा से खुले गुलाबी होंठों पर

उसके चेहरे पर आने-जाने वाला हर रंग पढ़ा जा सकता था

किसी सूफियाना कलाम सा

किसी मस्त मौला फ़कीर की रुबाइयों सा

रामायण की चौपाइयों सा

और दिन में, उसकी कभी ना खत्म होने वाली बातों में

होती थी जादू की छड़ी

होती थी सिंडरेला

टेम्पेस्ट की मिरिंडा

फूल, धूप, तितलियाँ और बच्चे

गुड्डो, गुड़िया, स्वीटी, पिंकी

यही नाम उसे लगते थे अच्छे

और हाँ! कुछ बेतकल्लुफ़ी के इज़हार से

गुड्डो,  नाम दिया था मैंने उसे प्यार से

झूठ नहीं कहूँगा

मुझे उसकी बातें सुनना अच्छा लगता था

घंटों सुनना भी अच्छा लगता था

पर… मुझे कभी-कभी डर लगता था उससे

उसके सपनों से

उसके सपनों के टूट जाने से

इसलिए मैं जी भर करता था कोशिश

उसे बताने की

दुनिया की कुटिलताओं, जटिलताओं की

और हमेशा अनसुलझी रह जाने वाली गुत्थियों की

ये दुनिया है, धोखे की, फरेब की, युद्ध की

मार-पीट, लूट-पाट, नोच-खसोट की

कि धोखा मत खाना चेहरों से

वो नहीं होते हैं कच्ची स्लेट से

कि हर किसी ने पोत रखा है अलग-अलग रंगों से खुद को

छिपाने को भीतर का स्याह रंग

और हर बार वो मुझे आश्चर्य से देखती

अजी, आँखें फाड़-फाड़ कर देखती

और फिर मेरी ठुड्डी को हिलाते हुए कहती

धत्त !

ऐसा भी कहीं होता है

फिर जोर से खिलखिलाती और भाग जाती

भागते हुए उसका लहराता आँचल

धरती से आसमान तक को कर देता सतरंगी

फिर भी हमारी कोशिशे जारी थीं

एक दूसरे से अलग पर एक दूसरे के साथ वाली दुनिया की तैयारी थी

जहाँ जरूरी था एक की दुनिया का ध्वस्त होना

सपनों का लील जाना हकीकत को

या हकीकत के आगे सपनों का पस्त होना

जानते हैं…

पिछले कई महीनों से सोते समय उसके होंठों पर

मुस्कुराहट नहीं थिरकी है

और एक रात …

एक रात तो सोते समय

दो बूंद आँसू उसके गालों पर लुढ़क गए थे

होंठों को छूकर घुसे थे मुँह में

और उसने जाना था आँसुओं का खारा स्वाद

शायद तभी… तभी उसने तय कर लिया था

सपनों से हकीकत का सफ़र

उसकी सतरंगी दुनिया डूब गई थी

और उसके साथ डूबकर मेरी गुड्डो भी नहीं रही थी

जो थी साथ… मेरे आस-पास

वो थी उसकी हमशक्ल सी

पुते चेहरे वाली, भीतर से बेहद उदास

जी हाँ ! कद-काठी रूप रंग तो था सब उसके जैसा

पर ओढ़े अज़नबीयत की चद्दरें

बदल गई थी जैसे सर से पाँव तक

वो दिन है… और आज का दिन है

गुड्डो की वीरान आँखों में नहीं हैं इंद्रधनुष के रंग

उसकी बातों से उड़ गए हैं खुशबुएँ और तितलियाँ

खेत और खलिहान भी

उसकी जगह आ बैठी हैं गगनचुंबी ईमारतें,

बड़े-बड़े मॉल और मंगल यान

अब हमारी दुनिया एक थी और हम एक-दूसरे से अलग

एक अजीब सी बेचैनी मेरे मन पर तारी थी

मैंने जीत कर भी बाजी हारी थी

और पहली बार… शायद पहली बार ही

महसूस किया मैंने

कि उस रात मुझसे अपरिचित

मेरी भी एक दुनिया डूब गई थी मेरे साथ

मैं नहीं किया तैरने का प्रयास

जैसे मैंने नहीं किया था उसके विश्वास पर विश्वास

आह!! क्यों लगा रहा उसे दिखाने में स्याह पक्ष

क्यों नहीं की कोशिश उसके साथ दुनिया को सतरंगी बनाने की

क्यों पीड़ा के झंझावातों में

नीरीह प्रलापों में

अब भी डराते हैं मुझे गुड्डो के नए सपने

किसी खूबसूरत ग्रह-उपग्रह के

वहाँ बस जाने के

अबकी बार… इस ग्रह को उजाड़ देने के बाद

आज़ जब गुड्डो में नहीं बची है गुड्डो

मेरे भीतर दहाड़े मार कर रोती है गुड्डो

अजीब बेचैनी में खुला है ये भेद

कि दुनिया का हर व्यावहारिक से व्ययहारिक कहे जाने वाले इंसान के भीतर

उससे भी अपरिचित

कहीं गहरे धँसी होती है गुड्डो

एक अच्छी दुनिया का सपना पाले हुए

जो टिकी होती है

दो बूंद आँसू पर …

बस जीतने ही तो देना होता है भीतर अपनी गुड्डो को

और पूरी दुनिया हारती है बाहर से

मैंने उठा ली हैं उसकी बेतरतीब फैली किताबें

मेरे अंदर फिर से हिलोर मार रही है गुड्डो

वो किताबी सी लड़की

दुनिया की सच्चाई पर विश्वास करती

सतरंगी सपनों वाली… पगली

और मैं चल पड़ा हूँ

दुनिया को बदलने की कोशिश में

और हाँ ! आपको कहीं मिले गुड्डो वो सपनों में पगी लड़की

तो बताइएगा जरूर

जरूर बताइएगा

अबकि मैं उसे जाने नहीं दूँगा

वंदना बाजपेयी

वंदना बाजपेयी

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यूँ तो साहित्य लेखन ही जिम्मेदारी का काम है पर बाल साहित्य के कंधे पर यह जिम्मेदारी कहीं ज्यादा महती है क्योंकि यहाँ पाठक वर्ग एक कच्ची स्लेट की तरह है, उसके मन पर जो अंकित कर दिया जाएगा उसकी छाप से वो जीवन भर मुक्त नहीं हो सकता l आज इंटरनेट पीढ़ी में जब दो ढाई महीने के बच्चे को चुप कराने  के लिए माँ मोबाइल दे देती है तो उसे संस्कार माता-पिता से नहीं तमाम बेहूदा, ऊल-जलूल रील्स या सामग्री से मिलने लगते हैं l ऐसे में बाल साहित्य से बच्चों को जोड़ना एक कड़ी चुनौती है l  जहाँ उन्हें मनोरंजन और ज्ञान दोनों मिले और बाल साहित्य को दिशा कैसे मिले ? आइए जानते हैं ऐसे तमाम प्रश्नों के उत्तर सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी जी से, जिनसे बातचीत कर रही हैं कवि-कथाकार वंदना बाजपेयी l

सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी जी से कवि -कथाकार वंदना बाजपेयी की बातचीत

कोई शॉर्टकट नहीं गंभीर साधन है बाल साहित्य लेखन 

प्रश्न- नमस्कार सर ! मेरा आपसे पहला प्रश्न है कि आप रसायन विज्ञान के छात्र रहे हैं, फिर साहित्य में आपका आना कैसे हुआ ? कहाँ और क्षार की शुष्कता और कहाँ साहित्यिक भावुकता की अनवरत बहती धारा l सुमित्रानंदन पंत की पंक्तियों “आह से उपजा होगा ज्ञान” का आश्रय लेते हुए मेरी सहज जिज्ञासा है कि वो कौन सी घटना थी जिससे आपके मन में साहित्य सृजन का भाव जागा?

भगवती प्रसाद द्विवेदी जी – वंदना जी! मैं विज्ञान का विध्यार्थी  जरूर रहा, क्योंकि वो दौर ही ऐसा था कि शिक्षा के क्षेत्र में मेधावी व प्रतिभाशाली छात्रों को अमूमन अभिवावक विज्ञान ही पढ़ाना चाहते थे l मेरे साथ भी वही हुआ l हालांकि साहित्य और संस्कृति में मेरी बचपन से ही अभिरुचि रही l महज़ डेढ़ साल की उमर में ही मैं अपनी माँ को खो चुका था l दादी मुझे एक पल को भी खुद से दूर नहीं करना चाहती थीं और उन्होंने ही मेरी परवरिश की थी l फिर भी होश संभालने पर मैं आहिस्ता-आहिस्ता अंतर्मुखी होता चला गया था और शिशु सुलभ चंचलता खेलकूद आदि से मैं प्रायः दूर ही रहता था l रात को जब मैं दादी के साथ सोता, वे रोज बिना नागा लोककथाएँ, पौराणिक कथाएँ आदि सुनाया करती थीं और मैं उन कथाओं के अनुरूप जार-जार आँसू बहाने लगता तो कभी प्रसंगानुरूप आल्हादित भी हो उठता l उन कथा- कहानियों से जुड़कर मैं तरह-तरह की कल्पनाएँ किया करता था l संभवतः दादी की इन वाचिक कथाओं से ही मेरे भीतर सृजन का बीजारोपण  हुआ  होगा l

 

प्रश्न- आज आप साहित्य जगत के स्थापित नाम हैं l जबकि आपने विज्ञान से साहित्य की दिशा में प्रवेश किया है तो जाहिर है कि आपकी यहाँ तक की यात्रा सरल नहीं रही होगी l कृपया अपने संघर्षों से हमें अवगत कराएँ ?

भगवती प्रसाद द्विवेदी जी मैं तो खुद को आज़ भी विद्यार्थी ही मानता हूँ और बच्चों और बड़ों से कुछ न कुछ नया सीखने की कोशिश करता हूँ l मगर मैंने विज्ञान से साहित्य में प्रवेश नहीं किया l बचपन से ही मैंने साहित्य रचते हुए विज्ञान की पढ़ाई की l छठी कक्षा से ही लेखन और प्रकाशन का सिलसिला प्रारंभ हो गया था l उसी का परिणाम था कि हिन्दी संकाय के छात्र- छात्राओं के बावजूद स्कूल कॉलेज कि पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादन में बतौर छात्र संपादक मेरी ही सेवाएँ ली जाती थीं l विज्ञान ने ही प्रगतिशील सोच के साथ ही रूढ़ियों और अंधविश्वास से मुक्त होने की दृष्टि दी l साथ ही लेखन, व्याख्यान में मुझे अनावश्यक विस्तार के स्थान पर “टू द पॉइंट” में विश्वास दृण हुआ l मेरी आस्था स्वाध्याय व सृजन में रही, किसी वाद-विवाद में नहीं l जहाँ तक संघर्ष का सवाल है वो बाल्यकाल से लेकर आज तक अनवरत जारी है l अनेक व्यवधानों के बावजूद अध्ययन और सरकारी सेवा के दौरान भी मैंने इस लौ को मद्धिम नहीं होना दिया l

 

प्रश्न- आपने लगभग हर विधा में अपनी कलम का योगदान देकर उसे समृद्ध किया है l बच्चों के लिए लिखने यानि बाल साहित्य की ओर आपका रुझान कब और कैसे हुआ ?

 

भगवती प्रसाद द्विवेदी जी- मेरा यह मानना है कि बाल साहित्य लेखन की कसौटी हैl अतः हर रचनाकार को बच्चों के लिए जरूर लिखना चाहिए, मगर जैसे -तैसे नहीं, पूरी जिम्मेदारी के साथ l जिन दिनों मेरा दाखिला, जूनियर हाई स्कूल रेवती में हुआ, वहाँ की एक स्वस्थ परिपाटी ने मुझे बहुत प्रभावित किया l प्रत्येक शनिवार को विद्यालय में बाल सभा हुआ करती थी, जिसमें हर बच्चे को कुछ न कुछ सुनाना होता था l कोई चुटकुला सुनाता, तो कोई पाठ्य पुस्तक की कविता सुनाता l रात में मैंने एक बाल कहानी लिख डाली और बाल सभा में उसकी प्रस्तुति कर दी l जब शिक्षक ने पूछा, किसकी कहानी है ये? तो मैंने डरते-डरते कहा, “गुरु जी, मैंने ही कोशिश की है l” तो उन्होंने उठकर मेरी पीठ थपथपाई “अच्छी” है! ऐसी कोशिश लगातार करते रहो l”  फिर तो मेरा हौसला ऐसा बढ़ा कि हर शनिवार को मैं एक कहानी सुनाने लगा और कुछ ही माह में “चित्ताकर्षक कहानियाँ” नाम से एक पांडुलिपि भी तैयार कर दी l मगर गुरुजी ने धैर्य रखने की सलाह दी और पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ भेजने की सलाह दी l आमतौर पर लेखन की शुरुआत कविता से होती है पर मेरी तो शुरुआत ही कहानी से हुई l मेरी पहली कहानी ही प्रकाशन विभाग की पत्रिका ‘बाल भारती’ में प्रकाशित हुई l जब पत्रिका और पारिश्रमिक की प्राप्ति हुई तो मेरी खुशी का पारावार ना रहा l फिर तो समर्पित भाव से लिखने और छपने का सिलसिला कभी थमा ही नहीं l

 

प्रश्न –4 आज का समाज बाजार का समाज है l पैसे और पैसे की दौड़ में मनुष्य भावनाहीन रोबोट बनता जा रहा है l इससे साहित्यकार भी अछूता नहीं रह गया है l बड़ों की कहानियों में विसंगतियों को खोजना और उन पर अपनी कलम चलाना कहीं सहज है पर ऐसे समय और समाज में बाल मन में प्रवेश करना कितना दुष्कर है ?

भगवती प्रसाद द्विवेदी जी-  बहुत ही सही और जरूरी सवाल उठाया है आपने वंदना जी! बाज़ारवाद हर घर में प्रविष्ट कर गया हैl यही वजह है हम अपने बच्चों को एक अच्छा इंसान नहीं, एक कामयाब रोबोट बनाना चाहते हैं l भ्रष्ट तरीके से अधिकाधिक धनोपार्जन ही जीवन का लक्ष्य बनता जा रहा है l ऐसे में जीवन मूल्य की बात ही बेमानी है l लेकिन, यही वह समय जब बच्चों को संस्कारित करने की ज्यादा जरूरत है l यह काम बाल साहित्य से संभव है l मगर यह इतना आसान नहीं है l बच्चों के मनोविज्ञान को परखना टेढ़ी खीर है l इसके लिए हमें खुद बच्चा बनकर मौजूदा दौर के बच्चों से दोस्ती करनी होगी और आहिस्ता -आहिस्ता उनके अंतर्मन में उतरना होगा l हमें बालक-बालिकाओं की मनोदशा और उनकी मूलभूत समस्याओं की गहरी पड़ताल करनी होगी l सच्चा बाल साहित्य उन्हें अपना जिगरी दोस्त बना लेता है और उनके भीतर पसरी कुंठा, निराशा- हताशा, भय को समूल नष्ट करके जीवन मूल्य के साथ हार में भी जीत का एहसास करा देता है l

 

प्रश्न – आज की इंटरनेट पीढ़ी में बच्चों की जिज्ञासाएँ, प्राथमिकताएँ, समस्याएँ पहले से अलग हैं l ऐसे में बच्चों को साहित्य से जोड़ना कितना कठिन है ?

भगवती प्रसाद द्विवेदी जी- लेखकों के लिए ये एक बहुत बड़ी चुनौती है l आम तौर पर बाल साहित्य को रचने वाले अपने बचपन की ओर लौट जाते हैं, मगर वर्तमान इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक के नन्हे-मुन्नों की प्राथमिकताएँ, जिज्ञासाएँ और समस्याएँ बिल्कुल भिन्न हैं l इसके लिए नितांत आवश्यक है वैज्ञानिक समझ, प्रगतिशील सोच और संस्कृति बोध l प्रगतिशीलता का यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि हम भारतीय संस्कारों से कट जाएँ l विज्ञान कथाओं और तकनीकी विषय की रचनाओं में भी मानवीय चेहरे और मूल्यबोध को शामिल करना होगा l बालकों की जिज्ञासाओं और कौतूहल को भी तर्कसंगत और विज्ञानसम्मत ढंग से शांत करना होगा l पुराने लोकप्रिय चरित्रों, लोकोक्तियों को भी वर्तमान संदर्भों में रोचक ढंग से ढालना होगा l संदेशमूलकता खेल-खेल में ही मुखरित होनी चाहिए, उपदेश या डाँट फटकार के रूप में नहीं l  यह रचनाकार के रचनात्मक कौशल पर निर्भर होगा l

 

प्रश्न- सर, हर्ष का विषय है कि आजकल की लेखक, लेखिकाएँ बाल साहित्य के प्रति अपने दायित्व को समझ तो रहे हैं पर की बार ऐसा लगता है कि उनमें बाल मन में उतरने में कहीं कसर रह गई है l कृपया मार्गदर्शन करें कि  बाल साहित्य रचते समय लेखक को क्या -क्या सावधानियाँ बरतनी चाहिए?

भगवती प्रसाद द्विवेदी जी- बाल साहित्य का सृजन तलवार की धार पर चलने जैसा ही जोखिम भरा होता है l बहुत कठिन है डगर पनघट की ! यदि आपने मान लिया की बुद्धि में बच्चा मुझ से छोटा है और आपने बाल साहित्य के नाम पर उपदेश झाड़ना शुरू कर दिया, तो गई भैस पानी में! कुछ लोग नाम ही देते हैं शिक्षाप्रद कहानियाँ l अंत में लिख देते हैं कि इस कहानी से फलां सीख मिलती है l बच्चों को शिक्षा देने की नहीं बल्कि उनसे सीखने की जरूरत है l पहले घुटनों के बाल चलता बच्चा l अपने पैरों के बाल खड़ा होने के क्रम में बार-गिरता-संभालता, फिर कुलांचे भरता बच्चा l कैसी अदम्य जिजीविषा से भरा होता है वह! चाँद-सितारे तोड़ लाने की ललक ! हर असंभव कार्य करने की अभिलाषा l ऐसे नन्हे धीर-वीर के साहस को आँकिए l उसके सुकुमार कल्पनाशील कोमल मन को पढिए परखिये l बच्चों को उपदेश परक नहीं आनंददायी साहित्य दीजिए l ऐसा साहित्य जो उनके अंतर्मन को आल्हादित करे और खेल-खेल में ही कोई मूल्यपरक सीख दे जाए l

प्रश्न – एक प्रश्न जो जो आप जैसे समृद्ध रचनाकार से लगभग हर पाठक लेखक जानना चाहेगा कि आप इतनी सहजता से कहानी कविता को अमूर्त विचारों से शब्दों में मूर्त व जीवंत कैसे कर देते हैं? कृपया अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में पाठकों को बताएँ ?

भगवती प्रसाद द्विवेदी जी- मेरी रचना की प्रक्रिया की न तो कोई निर्धारित तकनीक है और ना ही कोई तौर तरीका l राह चलते भी अचानक से कहीं कोई पंक्ति कौंध जाती है और फिर वहीं से उसकी रचना प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है l दिनचर्या के अन्य कार्यों को करते हुए वो प्रक्रिया तब तक चलती रहती है, जब तक वो कागज पर लिपिबद्ध नहीं हो जाती l कहानियाँ बच्चों के लिए हों या बड़ों के लिए प्रायः क बैठक में ही पूरी कर लेता हूँ l कभी शीर्षक पहले ही मस्तिष्क में घर कर लेता है, और  कभी कहानी की पूर्णता के बाद ही शीर्षक कि उपर्युक्तता की समझ आती है l ‘रफ’ और ‘फेयर’ के चक्कर में मैं नहीं पड़ता, जो लिखता हूँ वही अंतिम प्रति होती है l बाल्यकाल से सुलेख का अभ्यास करने का परिणाम है कि संपादक मित्र हस्तलिपि कि सराहना किया करते थे l एकलव्य (भोपाल)  की पत्रिका ‘चकमक’ ने तो दो पृष्ठों का बालगीत मेरी हस्तलिपि में ही छापा था और उस वर्ष के कैलेंडर में भी उसे कई रंगों में प्रकाशित किया गया था l कुछ अन्य पत्रिकाओं ने भी इसे प्रयोग किए थे l रचना, उस वक्त जो भी कागज़ उपलबद्ध हो उसे पर टाँक दी जाती है और हस्तलिखित प्रति ही अम्पादकों को भेजता आया हूँ l जगह भी कोई तय नहीं, कहीं चौकी, चारपाइयाँ, पलंग पर तो कभी कुर्सी टेबल पर,जहाँ बैठा वहीं लिखना शुरू कर दिया l

प्रश्न- बच्चों का मन कच्ची स्लेट की तरह होता है l उन के मन पर जो अंकित हो जाता है उस का असर जीवन पर्यंत है l ऐसे में एक बाल साहित्यकार की क्या जिम्मेदारियाँ हैं?

भगवती प्रसाद द्विवेदी जी- यह सच है कि बचपन की स्मृतियाँ मन मस्तिष्क पर अमिट लकीर की तरह आजीवन अंकित रहती है l मगर ऐसा मानकर बिल्कुल ना चलें कि बच्चे मिट्टी के लौंदे की भांति होते हैं और हम जैसा चाहते हैं वैसी शक्ल दे देंगे l हम जो भी लिखें मौजूदा दौर के बच्चों की अभिरुचि, जीवन शैली, पसंद-नापसंद, को ध्यान में रखकर लिखेंl कभी भी हम झूठे आडंबर, रूढ़ि, अंधविश्वास को बढ़ावा ना दें l साधन संपन्नता का जश्न ना मनाएँ, निर्धनता का मज़ाक ना उड़ाएँ l ऐसी रचनाएँ रचें, जिससे उनमें संवेदना जागे, दीन दुखियों के प्रति मदद का भाव जागे, परदुखकातरता की भावना पैदा हो l समाज से जुड़ाव हो, बच्चे रिश्तों की अहमियत समझें और बड़े- बुजुर्गों के प्रति सेवा सम्मान की भावना उत्पन्न हो l हमारी प्रत्येक रचना कौतूहल जगाए और बालमन की जिज्ञासा को तार्किक व विज्ञान सम्मत तरीके से शांत कर उन्हें संतुष्ट करें l हमारी जिम्मेदारी है कि बाल साहित्य के माध्यम से हमें बच्चों को अंधकार व प्रकाश में भेद करने की दृष्टि देनी चाहिए, ताकि वे बुराइयों से दूर रहकर सत्यपथ की ओर अग्रसर रह सकें l

प्रश्न-8 आप जैसे सुधि साहित्यकारों के प्रभाव व मार्गदशन में एक बार पुनः बाल साहित्य में सुरुचिपूर्ण कार्य होना प्रारंभ हुआ है l ऐसे  में हम ये जानना चाहते हैं कि साहित्यिक उद्देश्य के विशद कार्य में आपके समकालीन बाल साहित्यकारों में किसने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया?

 

भगवती प्रसाद द्विवेदी जी- जिन दिनों मैं राजकीय इंटरमीडिएट कॉलेज बलिया में आई.अस.सी का छात्र था, मेरा संपर्क पुण्यश्लोक रामसिंहासन सहाय “मधुर” जी से हुआ था l उनका आवास कॉलेज के सामने ही था l वे मध्यकाल के प्रथम बालगीतकार थे, और राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के काव्य गुरु भी रहे थे l ‘दिनकर’ जी जब राज्य सभा के सदस्य थे तो उन्होंने देश के हालात पर चर्चा करते हुए ‘मधुर’ जी की पंक्तियाँ उदघृत की थी :

“आज देश स्वाधीन हो गया

हम किसान मजदूर  

दिल्ली में ही पूछ रहे हैं

दिल्ली कितनी दूर ?”

“मधुर’ जी जीतने बड़े बाल गीतकार थे, उतने ही सहृदय इंसान भी थे l वे पेशे से वकील थे और उनके दरवाजे पर मुवक्किलों की भीड़ लगी रहती थी l मगर मुझ सा अदना विध्यार्थी जब वहाँ पहुंचता था तो वो मुझे साथ लेकर अंदर के कमरे में चले जाते थे और देर तक मुझे अभिप्रेरित करते रहते थे l पटना आने पर मैंने वैसा ही सरल, सहज, सहृदय व्यक्तित्व महाकवि आरसी प्रसाद सिंह में भी पाया और उनसे गहरे प्रभावित हुआ l निरंकारदेव सेवक, डॉ. हरीकृष्ण देवसरे, डॉ. श्रीप्रसाद, आचार्य विष्णुकांत पाण्डेय, और डॉ. राष्ट्रबंधु के स्नेहिल व्यक्तित्व ने भी किसी न किसी रूप में मुझ पर अपनी छाप छोड़ी l

 

प्रश्न – साहित्यकार तो साहित्य रच देता है l पर उससे बच्चे को जोड़ना साहित्यकार, शिक्षक, और माता माता-पिता की जिम्मेदारी है ? ऐसे में बच्चों को बाल साहित्य से जोड़ने के लिए आप शिक्षक और माता -पिता को क्या संदेश देना चाहेंगे ?

भगवती प्रसाद द्विवेदी जी- यह बहुत जरूरी प्रश्न पूछा आपने l  अधिकतर माता-पिता अपनी दमित इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति बच्चे से करवाना चाहते हैं, जो सर्वथा अनुचित हैl अभिवावक बच्चे की रुचि को पहचानें और उसके अनुरूप ही बालक-बालिका के सर्वांगीण विकास के लिए हर संभव सहायता करें l ज्यादातर माँ- बाप यह शिकायत करते हैं कि उनका बच्चा उनकी बात नहीं मानता l वह उद्दंड, उच्छृंखल, अथवा आत्मकेंद्रित होता जा रहा है l इसके लिए माँ-बाप ही बच्चों के लिए समय निकालें l उन्हें अच्छा बाल साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करें और खेलकूद में भी सहभागी बनें l उन्हें बच्चों कि पत्रिकाएँ, पुस्तकें नियमित रूप से लाकर दें और साथ बैठकर किताबों को पढ़ने की आदत डलवाएँ l यदि आपका बच्चा सचमुच बाल साहित्य से दोस्ती कर लेगा तो वह कभी भी गलत काम कर ही नहीं सकता l  शिक्षक मार-पीट और डाँट-डपट की जगह बच्चों को प्यार से समझाएँ l समय- समय पर कविता पाठ कहानी पाठ, नाटक आदि के कार्यक्रम करवाएँ और सभी बच्चों कि भागीदारी सुनिश्चित करें l बच्चे प्यार के भूखे होते हैं, उन्हें सच्चा प्यार दें l

भगवती प्रसाद द्विवेदी

भगवती प्रसाद द्विवेदी

प्रश्न-10 आपने भोजपुरी भाषा में भी बहुत काम किया है l बच्चे की पहली भाषा लोक भाषा ही होती है l बाल साहित्य को लोक भाषा से जोड़ना कितना आवश्यक है ?

भगवती प्रसाद द्विवेदी जी- यह भी आपका एक अहम सवाल है l नई शिक्षा नीति 2020 में यह स्पष्ट रूप से प्रावधान किया गया है कि अंचल की लोकभाषा के माध्यम से बच्चों को प्राथमिक शिक्षा दी जाए l भाषा वैज्ञानिकों का यह स्पष्ट मत है कि भाषा के माध्यम से दी गई शिक्षा सर्वाधिक कारगर होती है l बच्चे माँ से, परिवार से, आसपास के परिवेश से लोकभाषा में ही तो सीखते हैं l “चंदामामा आरे आवs, पारे आवs, नदिया के किनारे आवs…  सरीखे गीत वाचिक परंपरा में हजारों साल से शिशुओं का मनोरंजन करते आए हैं l लोरियाँ, खेलगीत आदि संबंधित क्षेत्र में लोकभाषा में ही तो बच्चों कि जुबान पर चढ़कर सदा-सदा के लिए दिल दिमाग में रच बस जाते हैं l लोककथाएँ और लोकगाथायेँ भी तो लोकभाषा में ही पीढ़ी दर पीढ़ी वाचिक परिपाटी में अपनी छाप छोड़ती आ रही हैं l सबसे बड़ी बात यह है कि लोक भाषा हमें जड़ों से जोड़े रखती है l जड़ों से जुडने का अर्थ है अपनी गौरवशाली लोक संस्कृति से जुड़ना, अपनी जड़ों और अपनी मिट्टी से जुड़ना l जैसे जड़ विहीन पौधे परजीवी हो जाते हैं l वैसे ही जड़ों से कटे लोग अपना अस्तित्व खो देते हैं और कहीं के नहीं रह जाते हैं l लोकभाषा अपना घर है और हिंदी अपना देश l  ना हम घर को छोड़ सकते हैं, ना ही देश को l

 

वंदना बाजपेयी

सकाक्षात्कार कर्ता -वंदना बाजपेयी

प्रश्न- हाल में बाल साहित्य से जुड़ कर बच्चों की दुनिया में प्रवेश करने वाले साहित्यकारों के लिए आप के क्या सुझाव हैं ? कृपया मार्गदर्शन करें ?

भगवती प्रसाद द्विवेदी जी- बाल साहित्य को साधना मैं ईश्वरीय आराधना मानता हूँ l बच्चे भी तो ईश्वर की ही प्रतिमूर्ति हैं l उन्हें रिझाना आनंदित करना हमारा दायित्व हैl कई किस्म के दवाब, तनाव, अवसाद में जीने को लाचार बाल गोपालों के चेहरे पर हँसी-मुस्कान लाने का दायित्व हमारे ऊपर भी है l क्योंकि

“बच्चे हँसते हैं तो दुनिया प्यारी लगती है l

उनकी हँसी सलोनी लगती है सोन चिरैया सी

चहक-फुदक दाने चुगने वाली गौरैया सी

हँसी दूधिया तीन लोक से न्यारी लगती है l

बच्चे हँसते हैं तो दुनिया प्यारी लगती है l”

उत्कृष्ट बाल साहित्य सर्जना के लिए जरूरी है कि भारतीय भाषाओं के साथ-साथ विदेशी भाषाओं के भी क्लासिकल बाल साहित्य का भी अध्ययन करें l  उससे भी ज्यादा आवश्यक है कि बालक बालिकाओं के मन को पढ़ना l शिशुओं, बालकों और किशोरों के लिए हम उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप बाल साहित्य का सृजन करें l “जो रचेंगे वो ही बचेंगे” अतः बच्चों के लिए हम अपना सर्वोत्तम देने का प्रयास करें l बाल साहित्य रचकर हम बच्चों को क्या देना चाहते हैं? इस पर हमारी दृष्टि साफ होनी चाहिए l यह शॉर्टकट नहीं दीर्घकालिक साधना है, और लक्ष्य होना चाहिए पुरस्कार सम्मान पान नहीं, अपना सर्वस्व होम देना l

यह लेख बाल किरण मासिक पत्रिका में प्रकाशित है l

अटूट बंधन

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समकालीन कथाकारों में अनिता रश्मि किसी परिचय की मोहताज़ नहीं है। हवा का झोंका थी वह अनिता रश्मि का छठा कहानी संग्रह है। इनके दो उपन्यास, छ: कहानी संग्रह सहित कुल 14 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी रचनाएँ निरंतर देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। इस संग्रह में 14 कहानियाँ संग्रहीत हैं। अनिता रश्मि ने स्त्री विमर्श के विविध आयामों को सरई के फूल तथा हवा का झोंका थी वह संग्रहों की कहानियों के माध्यम से सफलतापूर्वक हमारे सामने प्रस्तुत किया हैं। अनिता रश्मि ने स्त्री पीड़ा को, उसकी इच्छाओं, आकांक्षाओं, भावनाओं और सपनों को अपनी कहानियों के माध्यम से चित्रित किया हैं। इस संग्रह की कहानियों में स्त्रियों के जीवन की पीड़ा, उपेक्षा, क्षोभ, संघर्ष को रेखांकित किया है और साथ ही समाज की विद्रूपताओं को उजागर किया है। इन कहानियों का कैनवास काफ़ी विस्तृत हैं। ये कहानियाँ मध्यवर्गीय जीवन से लेकर निम्न वर्ग तक के जीवन की विडंबनाओं और छटपटाहटों को अपने में समेटे हुए है। इन कहानियों में यथार्थवादी जीवन, पारिवारिक रिश्तों के बीच का ताना-बाना, आर्थिक अभाव, पुरूष मानसिकता, स्त्री जीवन का कटु यथार्थ, बेबसी, शोषण, उत्पीड़न, स्त्री संघर्ष, स्त्रीमन की पीड़ा, स्त्रियों की मनोदशा, नारी के मानसिक आक्रोश आदि का चित्रण मिलता है। संग्रह की सभी कहानियाँ मानवीय संवेदनाओं को चित्रित करती मर्मस्पर्शी, भावुक है। इस संग्रह की कहानियाँ जिंदगी की हकीकत से रूबरू करवाती है। लेखिका अपने आसपास के परिवेश से चरित्र खोजती है। कहानियों के प्रत्येक पात्र की अपनी चारित्रिक विशेषता है, अपना परिवेश है जिसे लेखिका ने सफलतापूर्वक निरूपित किया है। अनिता रश्मि की कहानियों में सिर्फ पात्र ही नहीं समूचा परिवेश पाठक से मुखरित होता है। 

हवा का झोंका थी वह -स्त्री जीवन के यथार्थ की प्रभावशाली अभिव्यक्ति    

संग्रह की पहली कहानी हवा का झोंका थी वह नारी की संवेदनाओं को चित्रित करती आदिवासी स्त्री मीनवा की एक मर्मस्पर्शी, भावुक कहानी है जो विपरीत परिस्थितियों में भी हँसते मुस्कराते घरेलु नौकरानी का काम करती है। मीनवा एक बिंदास स्त्री है। आँखें एक मध्यम वर्गीय परिवार की कहानी है। पायल और सुमंत लीव इन रिलेशनशिप में रहते हैं। पायल शादी इसलिए नहीं करना चाहती क्योंकि वह अपने माता-पिता को हमेशा लड़ते-झगड़ते हुए देखती है। लेकिन कुछ ही सालों में पायल अनुभव करती है कि वह अपनी माँ में और सुमंत उसके पापा में परिवर्तित हो रहा है तो पायल सुमंत से शादी करने का फैसला करती है। सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए हम कोल्हू के बैल की तरह जूते रहते हैं लेकिन क्या ये सुविधाएँ हमें खुशियाँ देती है? इस प्रश्न का उत्तर जिस दिन हमें मिल जाएगा उस दिन हम भी इस कहानी के पात्रों मथुरा, जिरगी और कजरा की तरह कोलतार की तपती सड़क पर मुस्कुरा उठेंगे। शहनाई कहानी संगीत की दुनिया में ले जाती है। निशांत अपने बेटे अंकुल की मृत्यु के पश्चात टूट जाता है और उसके हाथ से शहनाई छूट जाती है। निशांत के सैकड़ों शिष्य देश विदेश में निशांत का नाम रोशन कर रहे है लेकिन निशांत अपने बेटे के निधन से उबर नहीं पा रहा था। एक दिन अचानक जब निशांत की मुलाक़ात शहनाई पर बेसुरी तान निकालते हुए प्रकाश पर पड़ती है तो निशांत को प्रकाश में अपना बेटा अंकुल दिखता है और निशांत प्रकाश को शहनाई पर सुर निकालने का प्रशिक्षण देता है और निशांत वापस संगीत की दुनिया में लौट आता है।  

एक नौनिहाल का जन्म एक आदिवासी युवक वृहस्पतिया की कहानी है। वृहस्पतिया अमीर बनने के लिए अपने सीधे सादे पिता की ह्त्या कर देता है। वह न तो दूसरों के खेतों पर मजदूरी करता है, न ही अपनी किडनी बेचता है और न ही आत्महत्या करता है। वह अमीर होने के लिए अफीम की खेती करता है और एक बड़ी जमीन का मालिक बन जाता है। लेकिन वह पुलिस के डर से इधर उधर भागता रहता है। उस घर के भीतर एक ऐसे माता पिता की कहानी है जो अपने अर्धविक्षिप्त, विकलांग बेटे को घर के अंदर बाँध कर रखते है। इनके पडोसी को इस तरह की हरकत अमानवीय लगाती है और वह इनको एक पत्र लिखता है कि आप अपने बेटे को खुले वातावरण में सांस लेने दो, फिर देखो कि तुम्हारा बेटा कैसे खिल उठेगा। वह अर्धविक्षिप्त, विकलांग बेटे को अपने बेटे के साथ खेलने के लिए भी बुलाता है। किर्चें एक लेडी डॉक्टर की कहानी है जिसका पति दहेज़ का लोभी है। वह अपनी पत्नी की तनखा स्वयं रख लेता है और अपनी पत्नी के द्वारा अपने ससुर से भी पैसे मांगता रहता है। ससुर की मृत्यु के पश्चात वह पत्नी के भाई से भी पैसा मांगता है। पत्नी अपने पति के लालची स्वभाव के कारण परेशान हो जाती है और अपने पति से अलग हो जाती है। वह अपने बेटे को पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाती है।   

एक उदास चिट्ठी एक पत्र शैली में एक युवती द्वारा अपनी माँ को लिखी कहानी है। यह एक भारतीय संस्कारों में पली बढ़ी आधुनिक युवती के शोषण की कहानी है। जिसे अपनी विदेशी माँ से उपेक्षा मिलती है। वह अपनी जीवन व्यापन के लिए एक रेस्टोरेंट खोलती है जहां उसके जीवन में एक फौजी आता है। वह फौजी एक दिन उसका बलात्कार करता है। तब वह टूट जाती है और कहती है वह मेरी चीख नहीं थी। वह बेबसी की चीख नहीं थी… वह एक औरत की चीख भी नहीं थी। वह एक घायल, मर्माहत संस्कृति की चीख थी ममा।     

लाल छप्पा साड़ी गरीब आदिवासी स्त्री बुधनी की कहानी है। बुधनी रोज रात को डॉक्टर निशा के यहाँ पढ़ने के लिए जाती है। बुधनी का पति जीतना दारु पीकर पड़ा रहता है।  एक दिन जीतना शहर जाने के लिए निकलता है तो बुधनी उसे पैसे देकर अपने लिए लाल छप्पा साड़ी लाने के लिए कहती है। क्योंकि बुधनी जहां काम करती है उस घर की मालकिन के पास भी एक लाल रंग की साड़ी है जो की बुधनी को बहुत पसंद है। बुधनी का पति शहर से नहीं लौटता है। गाँव में लोग बुधनी को डायन समझने लग जाते है। वह विक्षिप्त सी हो जाती है और बुधनी अपने पुत्र को लेकर अपने पति को ढूंढने शहर जाती है। शहर में उसे पता चलता है कि उसके पति ने दूसरी औरत से शादी कर ली है। वहां उसे एक लाल साड़ी दिखती है। लाल साड़ी बुधनी के लिए पीड़ा का प्रतीक बन जाती है। कथाकार ने बुधनी की विवशता को दिखाकर स्त्री जीवन की नियति को दिखाया है। लाल छप्पा साड़ी नारी संवेदना को अत्यन्त आत्मीयता एवं कलात्मक ढंग से चित्रित करती रोचक कहानी है। रस एक स्कूल के मास्टर और उनकी पत्नी की कहानी है। मास्टर साहब अपने बेटे लोहित को अच्छी शिक्षा दिलवाते है। लोहित पढ़ने के लिए विदेश चला जाता है वहां वह अपने साथ पढ़ने वाली विदेशी लड़की से शादी कर लेता है। लोहित को पढ़ाने के लिए मास्टर जी अपनी सारी कमाई लगा देते हैं और अपने खेत भी बेच देते हैं। लेकिन लोहित अपने माता पिता से मुंह मोड़ लेता है। लोहित एक बेटे का बाप बन जाता है। मास्टर जी की पत्नी को अपने पोते की याद आती है और वे दोनों अपने पोते और बेटे के लिए बेटे लोहित के पास जाते है लेकिन लोहित अपने बेटे को कुछ समय संभालने के लिए ही अपने माता पिता का वापर करता है और वे फिर नार्वे चले जाते हैं। कहानीकार ने एक माँ की छटपटाहट को स्वाभाविक रूप से रेखांकित किया है। कहानी की मुख्य किरदार लोहित की माँ पार्वती की संवेदनाओं को लेखिका ने जिस तरह से इस कहानी में संप्रेषित किया है वह काबिलेतारीफ़ है।

फैसला एक और कहानी का कैनवास बेहतरीन है। यह कहानी रोड पर और गलियों में  खेल तमाशा दिखाने वाले एक गरीब व्यक्ति की कहानी है। एक दिन उस व्यक्ति के पास खाने के लिए कुछ नहीं रहता है तब वह गरीब व्यक्ति एक दुकानदार के पास कुछ चावल माँगने जाता है। दुकानदार बिना पैसे चावल देने से मना कर देता है। वह व्यक्ति उस दुकानदार को और अपने दो बेटी और चार बेटों की हत्या कर देता है। एक जज उस गरीब तमाशा दिखाने वाले अपराधी को फाँसी की सजा सुनाता है। जज का बेटा अपने पिताजी के फैसले से सहमत नहीं होता है। उसका कहना था कि हम किसी को जीवन दे नहीं सकते, फिर हम किसी का जीवन कैसे ले सकते है। जज के बेटे की एक एक्सीडेंट में मृत्यु हो जाती है। जज को अपने फैसले का पश्चाताप होता है। जज पश्चाताप स्वरूप एक अन्य तमाशे वाली बाई को अपने यहां काम पर रख लेता है और उसके बच्चों को स्कूल पढ़ने के लिए भिजवाता है। लेखिका ने परिवेश के अनुरूप भाषा और दृश्यों के साथ कथा को कुछ इस तरह बुना है कि कथा खुद आँखों के आगे साकार होते चली जाती है। यह जीवन का कौन सा रंग है प्रभु प्राकृतिक आपदा की कहानी है। सुनंदा भंगी कलुआ को अछूत मानती है लेकिन जब बाढ़ में सुनंदा का सब कुछ बह जाता है और सुनंदा के पति की मृत्यु हो जाती है तब कलुआ ही सुनंदा के काम आता है। सुनंदा कलुआ के हाथों से ही खाती पीती है। चीखें…सन्नाटा ! एक युवा अमृत की कहानी है। अमृत की माँ की हत्या हो जाती है। अमृत उस हत्यारे से बदला लेने के लिए एक अपराधी बन जाता है और एक लड़की की हत्या के लिए सुपारी ले लेता है। उस लड़की की चीखें उसे सोने नहीं देती फिर वह अपने सारे हथियार एक नदी में डाल देता है। बड़ी माँ की गठरी इस संग्रह की महत्वपूर्ण कहानी है। यह एक मार्मिक कहानी है। बड़ी माँ के पास एक गठरी रहती है जिसमें उनके देशभक्त पति की तस्वीर, खड़ाऊ, धोती-कुर्ता, अखबार की एक कतरन और एक पिस्तौल रहती है।

कथाकार ने नारी जीवन के विविध पक्षों को अपने ही नज़रिए से देखा और उन्हें अपनी कहानियों में अभिव्यक्त भी किया हैं। अनिता रश्मि ने मुखर होकर अपने समाज और अपने समय की सच्चाइयों का वास्तविक चित्र प्रस्तुत किया हैं। इन कहानियों में स्त्री जीवन के यथार्थ की प्रभावशाली अभिव्यक्ति हुई है। इन कहानियों में जीवन के विविध रंग हैं। कहानियों के पात्र अपनी जिंदगी की अनुभूतियों को सरलता से व्यक्त करते हैं। ये कहानियाँ एक साथ कई पारिवारिक और सामाजिक परतों को उधेड़ती हैं। इस संग्रह की कहानियाँ जीवन और यथार्थ के हर पक्ष को उद्घाटित करने का प्रयास करती हैं। कहानियाँ लिखते समय कथाकार अनिता रश्मि स्वयं उस दुनिया में रच-बस जाती है, यही उनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता है। सहज और स्पष्ट संवाद, घटनाओं, पात्रों और परिवेश का सजीव चित्रण इस संग्रह की कहानियों में दिखाई देता हैं। सभी कहानियाँ घटना प्रधान हैं। कहानी के पात्र हमारे आस पास के परिवेश के लगते हैं। कथाकार ने समकालीन सच्चाइयों तथा परिवार में स्त्रियों की हालत को निष्पक्षता से प्रस्तुत किया है। अनिता रश्मि की कहानियाँ पात्रों और परिवेश के माध्यम से आन्तरिक संवेदना को झकझोरती हैं। कहानी संग्रह रोचक है और अपने परिवेश से पाठकों को अंत तक बांधे रखने में सक्षम है। संवेदना के धरातल पर ये कहानियाँ सशक्त हैं। अनिता रश्मि की भाषा में आंचलिकता के साथ जीवंतता विद्यमान है। कथाकार ने स्त्री के अंतर्मन मे उठती हर लहर को बहुत ही खूबसूरती से अपनी कहानियों में उकेरा हैं। अनिता रश्मि का कहानी संग्रह नारी के अस्मिता की तलाश की कहानियाँ है। अनिता रश्मि ने अपने कथा साहित्य में स्त्री की दोयम दर्जे की स्थिति को बेहद संवेदनशील तरीके से रेखांकित किया हैं। ये कहानियाँ कथ्य और अभिव्यक्ति दोनों ही दृष्टियों से पाठकीय चेतना पर अमिट प्रभाव छोड़ती है। 

 

पुस्तक  : हवा का झोंका थी वह (कहानी संग्रह)

लेखिका  : अनिता रश्मि  

प्रकाशक : विद्या विहार, 19, संत विहार (पहली मंजिल), गली नंबर 2, अंसारी रोड, नई दिल्ली -110002    

आईएसबीएन नंबर : 978-81-960864-0-4

मूल्य   : 300 रूपए

 

दीपक गिरकर

समीक्षक

28-सी, वैभव नगर, कनाडिया रोड,

इंदौर– 452016

मेल आईडी deepakgirkar2016@gmail.com 

 

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वंदना बाजपेयी की कविता -हमारे प्रेम का अबोला दौर https://www.atootbandhann.com/2024/02/%e0%a4%b5%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a4%a8%e0%a4%be-%e0%a4%ac%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%aa%e0%a5%87%e0%a4%af%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%a4%e0%a4%be-%e0%a4%b9%e0%a4%ae.html https://www.atootbandhann.com/2024/02/%e0%a4%b5%e0%a4%82%e0%a4%a6%e0%a4%a8%e0%a4%be-%e0%a4%ac%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%aa%e0%a5%87%e0%a4%af%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a4%b5%e0%a4%bf%e0%a4%a4%e0%a4%be-%e0%a4%b9%e0%a4%ae.html#respond Fri, 09 Feb 2024 07:41:18 +0000 https://www.atootbandhann.com/?p=7807   आजकल हमारी बातचीत बंद है, यानि ये हमारे प्रेम का अबोला दौर है l  अब गृहस्थी के सौ झंझटों के बीच बात क्या थी, याद नहीं पर इतना जरूर है कि कोई बड़ी बात रही होगी जो उस बात के बाद नहीं मन हुआ बात करने का और हमारे मध्य शुरू हो गया “कन्डीशंड […]

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आजकल हमारी बातचीत बंद है, यानि ये हमारे प्रेम का अबोला दौर है l  अब गृहस्थी के सौ झंझटों के बीच बात क्या थी, याद नहीं पर इतना जरूर है कि कोई बड़ी बात रही होगी जो उस बात के बाद नहीं मन हुआ बात करने का और हमारे मध्य शुरू हो गया “कन्डीशंड एप्लाइड वाली बातचीत बंद का एक नया अध्याय प्यार का एक रंग रूठना और मनाना भी है l प्यार की एव तक्ररार बहुत भारी पड़ती है l कई बार बातचीत बंद होती है , कारण छोटा ही क्यों ना हो पर अहंकार फूल कर कुप्पा हो जाता है जो बार बार कहता है कि मैं ही क्यों बोलूँ ? लेकिन दिल को तो एक एक पल सालों से लगते हैं l फिर देर कहाँ लगती है बातचीत शुरू होने में …. इन्हीं भावों को पिरोया है एक कविता के माध्यम से l सुनिए … वंदना बाजपेयी की यह कविता आप को अपनी सी लगेगी l

हमारे प्रेम का अबोला दौर

——————————–

आजकल हमारी बातचीत बंद है

अब गृहस्थी के सौ झंझटों के बीच

बात क्या थी, याद नहीं

पर इतना जरूर है कि कोई बड़ी बात रही होगी

जो उस बात के बाद

नहीं मन हुआ बात करने का

और हमारे मध्य शुरू हो गया

“कन्डीशंड एप्लाइड वाली

बातचीत बंद का एक नया अध्याय

माने गृहस्थी की जरूरी बातें नहीं होती हैं इसमें शामिल

ना ही साथ में निपटाए जाने वाले वाले काम-काज

रिश्तेदारों के आने का समय नहीं जोड़ा जाता इसमें

ना ही शामिल होता है डायरी से खंगाल कर बताना

गुड्डू जिज़्जी की बिटिया की शादी में

दिया था कितने रुपये का गिफ्ट

या फिर अखबार वाले ने नहीं डाला है तीन दिन अखबार

हाँ, कभी पड़ोसन के किस्से या ऑफिस की कहानी

सबसे पहले बताने की तीव्र उत्कंठा पर

भींच लिए जाते हैं होंठ

पहले मैं क्यों ?

अलबत्ता हमारे प्रेम के इस अबोले दौर में

हम तलाशते हैं संवाद के दूसरे रास्ते

लिहाजा बच्चों के बोलने कि लग जाती है डबल ड्यूटी

‘पापा’ को बता देना और ‘मम्मी’ से कह देना के नाम पर

आधी बातें तो कह-समझ ली जाती हैं

बर्तनों की खट- खट या फ़ाइलों कि फट- फट के माध्यम से

ऐसे ही दौर में पता चलता है

कौन कर रहा था बेसब्र इंतजार

कि दरवाजे की घंटी बजने से पहले ही

मात्र सीढ़ियाँ चढ़ते हुए पैरों की आहट से

खुल जाता है मेन गेट

और रसोई में मुँह से जरा सा आह-आउच निकलते ही

पर कौन चला आया दौड़ता हुआ

और पास में रख जाता है आयोडेक्स या मूव

पढ़ते-पढ़ते सो जाने पर चश्मा उतार कर रख देने, लाइट बंद कर देने

जैसी छोटी-छोटी बातों से भी हो सकता है संवाद

बाकी आधी की गुंजाइश बनाने के लिए

मैं बना देती हूँ तुम्हारा मनपसंद व्यंजन

और तुम ले आते हो मेरी मन पसंद किताबें

तुम्हारे घर पर होने पर

बढ़ जाता है मेरा राजनीति पर बच्चों से डिस्कसन

और तुम उन्हें सुनाने लगते हो कविताएँ

रस ले-ले कर नाजो- अंदाज से

गुनगुनाते हुए किसी सैड लव सॉन्ग का मुखड़ा

ब्लड प्रेशर कि दवाई सीधा रखते हो मेरी हथेली पर

और मैं अदरक और शहद वाला चम्मच तुम्हारे मुँह में

ऐसे में कब कहाँ शुरू हो जाती है बातचीत

याद नहीं रहता

जैसे याद नहीं रहा था बातचीत बंद करने का कारण

हाँ ये जरूर है कि हर बार इस अबोले दौर से गुजरने के बाद

याद रह जाते हैं ये शब्द

यार, कुछ भी कर लो

पर बोलना बंद मत किया करो

ऐसा लगता है

जैसे संसार की सारी आवाजें रुक गई हों l

वंदना बाजपेयी

वंदना बाजपेयी

#lovesong #love #lovestory #poetry #hindisong #valentinesday #valentine

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उर्मिला शुक्ल के उपन्यास बिन ड्योढ़ी का घर भाग – तीन का अंश https://www.atootbandhann.com/2024/01/%e0%a4%89%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%bf%e0%a4%b2%e0%a4%be-%e0%a4%b6%e0%a5%81%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b2-%e0%a4%95%e0%a5%87.html https://www.atootbandhann.com/2024/01/%e0%a4%89%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%bf%e0%a4%b2%e0%a4%be-%e0%a4%b6%e0%a5%81%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b2-%e0%a4%95%e0%a5%87.html#respond Wed, 31 Jan 2024 07:02:56 +0000 https://www.atootbandhann.com/?p=7800 यूँ  तो अटूट बंधन आगामी पुस्तकों  के अंश प्रस्तुत करता रहा है l इसी क्रम में आज हम आगामी पुस्तक मेले में में लोकार्पित एक ऐसे उपन्यास का अंश प्रस्तुत करने जा रहे हैं, जो हिन्दी साहित्य जगत में एक इतिहास बना रहा है l ये है एक उपन्यास का तीन भागों  का आना l  […]

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यूँ  तो अटूट बंधन आगामी पुस्तकों  के अंश प्रस्तुत करता रहा है l इसी क्रम में आज हम आगामी पुस्तक मेले में में लोकार्पित एक ऐसे उपन्यास का अंश प्रस्तुत करने जा रहे हैं, जो हिन्दी साहित्य जगत में एक इतिहास बना रहा है l ये है एक उपन्यास का तीन भागों  का आना l  अंग्रेजी में “उपन्यास त्रयी हम सुनते रहे हैं पर हिन्दी में ऐसा पहली बार हो रहा है l विशेष हर्ष की बात ये हैं कि  इस द्वार को एक महिला द्वारा खोला जा रहा है l ‘बिन ड्योढ़ी का घर’ के पिछले दो भागों की विशेष सफलता के पश्चात छत्तीसगढ़ के आदिवासी जिलों के लोक को जीवित करती ये कहानी आगे क्या रूप लेगी ये तो कहानी पढ़ कर ही जाना जा सकेगा l फिलहाल उर्मिला शुक्ल जी को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ के साथ उपन्यास का एक अंश “अटूट बंधन” के पाठकों के लिए

बिन ड्योढ़ी का घर भाग – तीन उपन्यास अंश

 

भाऊ अब अतीतमुखी हो गये थे | सो वर्तमान को भूलकर ,अपने किशोरवय और यौवन में टहल रहे थे | अब वे भाऊ नहीं सखाराम थे | बालक और युवा सखाराम | सो कभी उन्हें अपना गाँव याद हो आता ,तो कभी युवा जलारी | बचपन की यादों में याद आती वह नदी ,जो बारिश में तो इस कदर उफनती कि सामने जो भी आता, उसे बहा ले जाती ,पर बारिश के बीतते ही वह रेत का मैदान का बन जाती | नदी स्कूल के पीछे बहती थी | सो छुट्टी होते ही सखाराम की बाल फ़ौज वहाँ जा पहुँचती फिर शुरू हो जाती रेत दौड़ | लक्ष्य होती वह डाल ,जिसकी शाखें नदी में झुक आयी थीं | रेत में दौड़ना आसान नहीं होता फिर भी बच्चे दौड़ते, गिरते फिर उठते | वह डाल बहुत दूर थी | हर कोई उसे छू नहीं पाता ,बस सखाराम और सखु ही वहाँ तक पहुँचते | दोनों घंटो डाली पर लटक – लटककर झूला झूलते |

सखु बहुत अच्छी लगती थी उसे | वह उसके लिए थालीपीठ (मोटी रोटी ) लाया करती | सखा को जुवारी ( ज्वार ) की थालीपीठ बहुत पसंद थी | खेलने के बाद दोनों थालीपीठ खाते और घंटों बतियाते | उनकी बातों में सखु की आई (माँ ) होती ,उसके भाई बहन होते और होतीं उसकी बकरियाँ | सखाराम की बातों में परिवार नहीं होता | परिवार को याद करते ही सबसे पहले आई ( सौतेली माँ ) का चेहरा ही सामने आता और याद हो आतीं उसकी ज्यादतियाँ और पिता की ख़ामोशी ,जिसे याद करने का मन ही नहीं होता | सो उसकी बातों में उसके खेल ही होते | सखा भौंरा चलाने में माहिर था | भौंरा चलाने में उसे कोई हरा नहीं पाता | उसका भौंरा सबसे अधिक देर तक घूमता | इतना ही नहीं वह भौंरे में डोरी लपेट , एक झटके से छोड़ता और उसके जमीन पर जाने के पहले ,उसे अपनी ह्थेली पर ले लेता | भौंरा उसकी हथेली पर देर तक घूमता रहता | सखु को उसका भौंरा नचाना बहुत पसंद था | वह नदी के किनारे के पत्थर पर अपना भौंरा नचाता और सखु मुदित मन देखा करती |

 

फिर उनकी उम्र बढ़ी ,बढ़ती उम्र के साथ उनकी बातों का दायरा भी उनके ही इर्द गिर्द सिमटने लगा | सो एक दिन सखा ने पूछा –

“सखु तेरे कू भौंरा पसंद है |”

“हो भोत पसंद |”

“मय इस बार के मेला से बहुत सुंदर और बड़ा भौंरा लायेंगा | लाल,हरा और पीला रंग वाला |”

“वो भौंरा बहुत देर तलक नाचेंगा क्या?” कहते सखु की आँखों में ख़ुशी थिरकी |

“हाँ जेतना देर तू कहेगी वोतना देर |” कहता सखा उस थिरकन को देखता रहा |

उस दिन उसने पहली बार गौर से देखा था | सखु सुंदर थी और उसकी आँखें तो बहुत ही सुंदर |जैसे खिलते कँवल पर झिलमिल करती सुबह की ओस | सो देर तक उसकी आँखों को देखता रहा | उसकी आँखों की वह झिलमिल उसके मन में उतरती चली गयी | अब सखा को मेले का इंतजार था | वह चाहता था कि मेला जल्दी आ जाए ,पर मेला तो अपने नियत समय पर यानी माघ पुन्नी को ही भरना था, पर सखा के दिलो दिमाग में तो मेला ही छाया हुआ था | सो वह सपने में भी मेला जाता और भौंरों के ढेर से सबसे सुंदर भौंरा ढूँढ़ता | अब खेल के समय ,वे खेलते कम बातें ज्यादा करते | बातें भी सखा ही करता | वह भी मेले और भौंरे की बातें | ऐसे ही एक दिन –

“ क्यों रे सखु अपुन संग – संग मेला घूमें तो ?”

“तेरे संग ? नको आई जानेच नई देगी |”

“हव ये बात तो हय | पन तू मेला देखने जाती न ?”

“हो पिछला बरस तो गया | आई ,भाऊ, ताई सब गया था |”

सखु पिछले मेले के बारे में बता रही थी और सखा आने वाले मेले की कल्पना कर रहा था | वह सोच रहा था ‘अगर मेले में सखु मिल जाय तो ? पन कैसे?’ कुछ देर सोचता रहा फिर –“सुन तू जब मेले को निकलेंगी न ,मेरे कू बताना | मय संग – संग चलेंगा |”

“ये पगला है क्या रे ? भाऊ देखेंगा तो मारेंगा तेरे कू |”

सखा का दिमाग सटक गया -“काहे ? डगर उसके बाप की है क्या?” फिर उसे याद हो आया ,ऐसे तो वह सखु के बाप तक चढ़ रहा है | सो तुरंत ही मिश्री घोली –“ तू ठीक कहती | अइसे संग – संग जाने से पंगा होयेंगा | पन मैं तुम लोग के पीछू – पीछू चले तो ?”

“हव ये सही रहेंगा |”

सो उनके बीच तय हो गया कि मेले वाले दिन वे सुबह नदी पर मिलेंगे | सखु उसे मेला जाने का समय बताएगी और वह उनके पीछे चल पड़ेगा | सो उनका समय मेले की कल्पनाओं में बीतने लगा | सखा मेले की ही बातें करता | एक दिन उसने पूछा –“बता तू मेले से क्या लेंगी |”

“मय ? लाल रंग का फीता और जलेबी | मेरे कू जलेबी भोत अच्छा लगता |”

“और चूड़ी ? देख न तेरा चूड़ी केतना जुन्ना हो गया |”

“हव लेयेंगी | गुलाफ़ी चूड़ी|”

“चल हट गुलाबी कोई रंग हय| हरियर चूड़ी लेना | तेरा गोरा – गोरा हाथ म बहुत फबेगी |”

“हट हरियर चूड़ी ऐसे थोड़ी न पीनते |”

“फेर? कैसे पीनते?”

“लग्न में नवरा पिनाता |” सखु ने शरमाते हुए कहा |

सखा का मन देर तक नवरा शब्द के इर्द – गिर्द घूमता रहा | कुछ सोचता रहा वह | फिर मन ही मन कुछ तय किया और उसके मुख पर एक स्निग्ध सी मुस्कान खेल उठी |

3

मेले वाला दिन | मेला तो दोपहर में भरता था लेकिन वह सुबह से ही तैयार हो गया | सुबह ही क्यों ,वह तो रात भर मेले में ही था | रात भर में कितने – कितने सपने देखे डाले थे | अब उन सपनों को साकार करने की बारी थी | उसने बाँस की खोखल में ठूँसा कपड़ा निकाला ,तो ढेर सारे चिल्ल्हर उसके सामने बिखर गये | ये पैसे उसने बेर बेचकर इक्कठे किये थे | गिना तो पूरे एक रूपये निकले | ‘ इतना में मेला में अपुन का सानपट्टी हो जायेंगा |’ सोचकर मन ख़ुशी से उछलने लगा | फिर तो उसकी बेकरारी इतनी बढ़ी कि वह बार – बार उस चौहद्दी तक जाता ,जो मेला तक जाता था | वहाँ देर खड़ा रहता | फिर लौट आता | जब बेचैनी बहुत ज्यादा बढ़ गयी , तो वहीं अड्डा मार लिया और टकटकी लगाकर उस राह को ताकने लगा |

बहुत इंतजार के बाद सखु की एक झलकी मिली | वह अपनी आई और भाऊ के संग थी | वह एक पेड़ के पीछे जा छुपा | अब वह सखु को भर नजर देख सकता था | वह देख रहा था उसे | आज तो वह रोज वाली सखु से एकदम ही अलग दिख रही थी | साड़ी में एकदम दुल्हन जैसी सुंदर | वह देखता रहा उसे | जब वह चौहद्दी से आगे निकल गयी ,तब वह भी चल पड़ा , मगर भय था कहीं सखु की आई देख न ले इसलिए रस्ते भर एक निश्चित दूरी बनाये रखी लेकिन मेला करीब आते ही एक सपाटे में, उसने वह दूरी तय कर ली और उसके ठीक पीछे जा पहुँचा | अब सखु उसके सामने थी | एकदम करीब | साड़ी और पोलखा के बीच झलकती उसकी पतली कमर को कुछ देर देखता रहा | फिर अपनी तर्जनी बढ़ा हल्के से छुआ | कमर पर कुछ रेंगता सा महसूस हुआ ,तो सखु को लगा कोई कीड़ा होगा | सो उसने बिना मुड़े कमर पर अपना हाथ फेरा | कुछ देर में सखा ने चिकोटी काटी –

“ये मुँगड़ा मला …….(यह चींटा तो मुझे ) |” गर्दन पीछे मोड़ी तो देखा सखा था | उसको देख उसकी आँखें हिरणी ही हो उठीं |

मेला पहुँचकर तो सखा उसके एकदम पीछे ही चलने लगा | मेला था तो कोई डर था ही नहीं | मेले में सबसे पहले टूरिंग टाकिज वाला तंबू था | सखु के लिए ,सखा का साथ पाने का यह मौका अच्छा था | सो –

“आई ! चल न बाईसकोप देखते|”

“रुक पहिले मेला देखते | पाछू सिनेमा देखेंगा |”

“पाछू तो बहुत भीड़ होयेंगा | टिकस भी नई मिलेंगा |” सखु के भाई ने समर्थन किया |

“हो | भाऊ ठीकेच कहता | आई चल ना रे |” भाई का समर्थन पा वह माँ से लड़ियाने लगी | दोनों भाई बहनों ने जिद्द की और वे बाइसकोप की ओर बढ़ गये | जाते हुए सखु ने मुड़कर देखा, सखा दूर खड़ा उन्हें ही देख रहा था | सखु ने उसे आने का इशारा किया ,तो वह भी पीछे हो लिया | पुरानी फिल्म बैजू बावरा दिखाई जानी थी | वे टिकट ले भीतर गये | टूरिंग टॉकीज थी | बैठने की कोई व्यवस्था तो थी नहीं | सो जमीन पर बैठ गये | सखा सखु के ठीक बगल में जा बैठा | फिल्म शुरू हुई |

संगीत आधारित उस फिल्म की शुरुआत में ही एक क्लासिल्क गीत था | फिर तानसेन का रियाज | सो उस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं था ,जो उन्हें बाँध पता ,पर उनके लिए फिल्म से ज्यादा करीब बैठना सुखकर था | सो संगीत का ककहरा तक न जानते हुए भी ख़ुशी – ख़ुशी फिल्म देख रहे थे लेकिन कुछ देर बाद,फिल्म में नदी ,नाव और नायिका के आते ही वह फिल्म उन्हें अपनी सी लगने लगी | सखु को लगा जैसे फिल्म में वे दोनों ही हों | ‘ऐसीच तो नदी है ,जहाँ मय और सखा साथ – साथ रहते | अब मय भी डोंगा बनायेंगी और सखा संग.. | पन अपुन का वो नदी में तो पानीच नई है ? तो क्या हुआ मैं अपना नाव रेती में चलायेंगी | पन मी नाव बनायेंगी जरुर|’सोचती सखु ने सखा की ओर देखा , वह फिल्म देखने में तल्लीन था | उसका मन किया उससे बात करे | उसने अपना हाथ बढ़ा हल्की सी चिकोठी काटी | सखा ने उसकी ओर देखा तो सखु ने उसके कान में धीरे से कहा –

“चल बाहर मेला घूमते|”

फिर वह उठी और अपनी आई के करीब जाकर अपनी दो ऊँगलियाँ दिखाईं| तर्जनी और मध्यमा इन दो जुडी उँगलियों का अर्थ लघुशंका निवारण था | सो आई ने इजाजत दे दी | कुछ देर बाद सखा भी बाहर चला गया | मेला अब अपने पूरे उफान पर था | सखा ने उसका हाथ पकड़ा और दोनों जा धँसे मेले की धार में | मेले में तरह – तरह की दुकानें सजी थीं | सखु का मन रिबन खरीदने का था | सो वह एक दुकान की ओर बढ़ी लेकिन सखा ने उसे अपनी ओर खींच लिया –

“ अबी कोनो समान गिमान नको |”

इस वक्त सखा की आँखें खटोला वाला झूला तलाश रही थीं | सो सखु का हाथ पकड़े वह बढ़ता जा रहा था |

“क्या खोजता रे ? सब दुकान तो पाछू छूट गया और तू ..?” सखु ने पूछा |

उसे जवाब दिए बिना वह झूला ढूँढ़ता रहा | झूला दिखा नहीं तो उसे लगने लगा शायद इस बार झूला आया ही नहीं | फिर भी वह आगे बढ़ता रहा | पूरा मेला पार करने के बाद, जब झूला दिखा तो उसकी आँखों में ख़ुशी लहरा गयी | उसने सखु की ओर देखा, उसकी आँखें भी ख़ुशी से नाच रही थीं | दोनों की आँखों ने संवाद किया और वे चले पड़े झूले की ओर | खटोला झूला चार खटोलों से बना लकड़ी का झूला | जिसे हाथों से घुमाया जाता | झूला पहले धीमी गति से चलता ,फिर धीरे –धीरे उसकी गति बढ़ती जाती | झूला रुकने के बाद भी खटोला डोलता रहता | सखा तो कई बार झूल चुका था लेकिन सखु पहली बार खटोले में बैठ रही थी | सो जैसे ही खटोले में एक पैर रखा, खटोला जोर से डोल उठा और वह लड़खड़ा गयी | सखा ने आगे बढ़कर उसे थामा और –

“अइसे लोकर – लोकर नई रे | थाम के बैठते|” और खटोले वाले से बोला “काका खटोला को थामना तो |”फिर सखा ने हाथ पकड़ सखु को खटोले में बिठाया और उसकी बगल में जा बैठा | झूलेवाले ने धीरे से झूला घुमाया | अब उनका खटोला धरती से कुछ ऊपर उठ गया | झूलेवाला दूसरे खटोलों में लोगों को बिठा रहा था | सो धीरे – धीरे ऊपर उठता उनका खटोला सबसे ऊपर जा पहुँचा | ख़ुशी और रोमांच से भरी सखु ने नीचे देखा | नीचे रंग बिरंगा मेला पसरा हुआ था और ऊपर नीला आसमान | उसकी आँखों की हिरणी चहक उठी | झूला भरा तो झूले वाले ने झुलाना शुरू किया | बढ़ती रफ्तार के साथ खटोला ऊपर जाकर साँय से नीचे आया | ऊपर जाते समय तो सखु की आँखों की हिरणी ने चौकड़ी भरी लेकिन नीचे आते समय भय इतना लगा कि आँख बंद कर सखा से लिपट गयी | यह अनुपम पल था उनके लिए| बिलकुल टटका सा अहसास था | कैशोर्य से यौवन में कदम रखते तन – मन की मृदुल झंकार थी यह | सो सखु पूरे समय आँखें मीचे लिपटी रही उससे और सखा ? सखु को निहारता, मदहोशी भरे इस नये अहसास में डूबा रहा |

“चलो – चलो उतरो तुम्हारा टेम हो गिया |”

झूलेवाला सबको उतार चुका था | अब उनकी बारी थी | सखा ने झूले वाले की ओर पैसे बढ़ाए –“ काका एक फेरा और |”

झूलेवाले ने पैसे लिए और उनके खटोले को ऊपर सरका दिया | सखु की आँखों की हिरणी ठिठक कर सखा को निहारने लगी | फिर –

“तू कतना अच्छा रे |”और उससे लिपट गयी |”

फिर तो कब झूला शुरू हुआ और कब रुका उसे पता ही नहीं चला ,तो जब झूला रुका तो –

“ सखु सो गयी क्या ?”

सखु ने अपनी उन्मीलित पलकें खोलीं, तो सखा कुछ पल अकचक सा देखता रहा | उन आँखों में प्यार छल- छल कर रहा था | अब तक इस भाव से दोनों ही अनजान थे ,पर अब मन की मिट्टी में एक अँखुआ फूट चुका था | सखा उसे देर तक देखता रहा | फिर –

“और झूलना है ?”

सखु का मन तो था कि और झूले | पूरे दिन रात सखा संग यूँ ही झूलती रहे लेकिन उसे आई की याद आ गयी और उसने न में गर्दन हिला दी | सखा ने उसका हाथ थाम आहिस्ता से उतारा और सीधे मनिहारी लाइन की ओर बढ़ चला |

“देख – देख इदर भौंरा मिलता | तू बोला था न मेला से भौंरा लेंगा |” उसकी आँखों में भौंरे के रंग उभरे और आँखों की हिरणी ने एक चौकड़ी भरी |

“हो | पन पहिले तेरे लिए कुछ लेना है | लोकर चल फिलिम छूटने को है | फिर तेरी आई खोजेंगी तेरे कू |”

आई का नाम सुनते ही हिरणी भयभीत हो ठहर गयी | फिर तो उसने अपना हाथ छुड़ाया और भाग खड़ी हुई | सखा उसे देर तक देखता रहा | फिर चुरिहारी की ओर बढ़ गया |

“दो दर्जन हरा चूड़ी देना |”

वो जमाना चुरिहारी दुकान पर जाकर चूड़ी पहनने का था | सो चुरिहार ने उसे गौर से देखा और –

“ कोन सा वाला हरा | रेशमी हरा के सुनहरा बुंदकी वाला या के पलेन हरा | या फेर खराद वाला |”

सखा ने कभी चूड़ी खरीदी नहीं थी और न ही चूड़ियों से कभी कोई वास्ता पड़ा था | सो वह उनके नाम तो जानता ही नहीं था,तो अकचक सा उसे देखता रहा |

“काय के खातिर लेना ? घर में कोई पूजा – गिजा है |” चुरिहार ने पूछा |

उसने न में अपना सर डुलाया

“फेर ?”

“ मेरा सखु खातिर|”

“कोन सा नाप दूँ ,दो आना ,सवा दो आना ,चार आना या के छै आना |”

सखा को चूड़ियों का माप भी कहाँ पता था | अब तक उसने पैसों में ही आना सुना था | सो उसे लगा दो आने चूड़ी की कीमत होगी |

“ दो आने वाली दे दो |”

“कोन सा वाला |”चुरिहार ने फिर चूड़ियों के नाम दोहराये और तोड़े उसके सामने कर दिये | अब उसके लिए कुछ आसानी हुई | उसकी आँखों में सखु की गोरी कलाइयाँ उभरीं और उसने सुनहरी बिंदियों वाले तोड़े पर हाथ रखा –

“ये वाली दे दो | “

“दो आना देऊँ?”

“हो |”

“केतना ? दो दर्जन |”

उसने हाँ में सर डुलाया | दुकानदार ने दो दर्जन चूड़ियाँ सुतली में बाँधकर उसकी ओर बढ़ायीं और –

“आठ आना |”

वह फिर अकचक ! ‘दो आना बोलके आठ आना माँगता|’ सोचा ,पर चूड़ी उसकी सखु के लिए थी | सो बिना कुछ बोले उसने आठ आने दे दिए | ‘अब भौंरा? उसका खातिर तो पइसा नइ बचा | कोई बात नइ| मय जुन्ना भौंरा चला लेंगा |’सोचा और आगे बढ़ा | उसकी नजरें सखु को ढूँढ़ रही थीं लेकिन मेला तो मेला ठहरा | यहाँ एक बार बिछड़ने के बाद कोई कहाँ मिल पाता है | सो सखु उसे नहीं मिली | लौटते समय गाँव की डगर में भी नहीं दिखी | सो मन कुछ उदास हो उठा लेकिन चूड़ियों पर नजर पड़ते ही उनकी हरीतिमा मन में उतरती चली गयी फिर – ‘मय ये चूड़ी ले के घर कइसे जायेंगा | आई तो केतना बोम मचायेगी | फेर क्या करूँ ? इसकू किधर छुपाऊँ ? घर में तो कोई अइसा जघा नइ |’ वह सोच रहा था कि उसे नदी वाला पेड़ याद हो आया और गाँव जाने से पहले नदी की ओर मुड़ गया |

उर्मिला शुक्ल

उर्मिला शुक्ल

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उर्मिला शुक्ल की कहानी रेशम की डोर 

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कानपुर के अमर शहीद -शालिग्राम शुक्ल https://www.atootbandhann.com/2024/01/%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%aa%e0%a5%81%e0%a4%b0-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%85%e0%a4%ae%e0%a4%b0-%e0%a4%b6%e0%a4%b9%e0%a5%80%e0%a4%a6-%e0%a4%b6%e0%a4%be%e0%a4%b2%e0%a4%bf%e0%a4%97%e0%a5%8d.html https://www.atootbandhann.com/2024/01/%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a4%aa%e0%a5%81%e0%a4%b0-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%85%e0%a4%ae%e0%a4%b0-%e0%a4%b6%e0%a4%b9%e0%a5%80%e0%a4%a6-%e0%a4%b6%e0%a4%be%e0%a4%b2%e0%a4%bf%e0%a4%97%e0%a5%8d.html#comments Thu, 25 Jan 2024 14:59:39 +0000 https://www.atootbandhann.com/?p=7796 “ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आँख में भर पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी” जब-जब भारत रत्न लता मंगेशकर जी का यह गीत हमारे कानों में पड़ता है, हम में से कौन होगा, जिसकी आँखों से भावों का दरिया ना बरस पड़ा हो | ये आजादी जिसका जश्न हम हर […]

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“ऐ मेरे वतन के लोगों जरा आँख में भर पानी,

जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी”

जब-जब भारत रत्न लता मंगेशकर जी का यह गीत हमारे कानों में पड़ता है, हम में से कौन होगा, जिसकी आँखों से भावों का दरिया ना बरस पड़ा हो | ये आजादी जिसका जश्न हम हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को मना कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं | वो आजादी ऐसे ही तो नहीं मिल गई होगी ? कितनी कुर्बानियाँ दी होंगी हमारे देश के युवाओं ने, अपने जीवन की, अपने सपनों की, अपने परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों की |  कितनी माताओं की कोख उजड़ी होगी, कितनी नव ब्याहताओं की चूड़ियाँ टूटी होंगी | ज्ञात नामों के बीच ऐसे असंख्य नाम हैं जिनके हम ऋणी हैं | क्या हमारा कर्तव्य नहीं है कि हम अपने शहर के ऐसे गुमनाम क्रांतिकारियों, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों  के जीवन के बारे में बात करें जिन्होंने अपना जीवन तो कुर्बान कर दिया पर गुजरते वक्त के साथ हम किसी अहसान फ़रामोश बेटे की तरह उनकी त्याग तपस्या और बलिदान को भूल गए | ऐसे में मैं आपको सुनाने जा रही हूँ समय के साथ बिसराये गए  कानपुर के  शहीद शालिग्राम शुक्ल  के बलिदान की अमर कहानी l

कानपुर के अमर शहीद -शालिग्राम शुक्ल

शालीग्राम शुक्ल

वो 1918  की गर्मी की दोपहर थी | इटावा जनपद के सीढ़ी ग्राम में जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल अपने खेत में काम कर रहे थे | सूरज सर पर चढ़ आया था | दोपहर के भोजन का समय हो गया है, ये सोच कर काम रोक दिया | पसीने से लथपथ बदन को अंगोछे से पोछ  बरगद के पेड़ के नीचे छाया में जरा विश्राम कर रहे थे कि उनकी पत्नी रूपा देवी अपने 6 वर्ष के पुत्र शालिग्राम के साथ दोपहर का खाना ले कर आई | पिता खाना खाते हुए माँ को अंग्रेजों की गुलामी के बारे में बता रहे थे और नन्हा बालक उनकी बाते सुन रहा था |उसे स्वतंत्रता भले ही ना समझ आ रही हो पर गुलामी जरूर समझ आ रही थी|  माँ ने घी बुकनू लगा  रोटी का एक चुँगा बना कर कर पुत्र को पकड़ाना चाहा पर पुत्र भाग कर खेत के खर-पतवार उखाड़ने लगा | माँ ने आवाज दी, “अरे लला खेलन में लाग गए? चुँगा रोटी तो  खाए लियो|”

“नहीं अम्मा, अबै नाहीं, पहले अंग्रेजन को अपनी माटी से उखाड़ कर फेंक दें|”

उसकी बात पर माता -पिता हँस दिए पर वो क्या जानते थे की उनका प्यारा लाल एक दिन अंग्रेजों को उखाड़ने में अमर हो जाएगा |

इटावा के शालिग्राम शुक्ल की बचपन से ही देश को स्वतंत्र कराने की इच्छा बलवती होने लगी |

नन्हा बच्चा गाँव में निकलने वाली प्रभात फ़ेरियों में शामिल हो जाता, कभी जय हिंद कहता तो कभी वंदे मातरम | जिस उम्र में बच्चे खेल-खिलौनों के लिए आकर्षित होते हैं उसे गाँधी, नेहरू, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह  के किस्से  लुभाने लगे थे| गाँव में ही मन की माटी में देश को आजाद कराने का अंकुर फुट चुका था |

परिस्थितियाँ इच्छाओं की गुलाम होती है| संयोग बनने लगे |

किशोर शालिग्राम जब  पढ़ाई करने के लिए कानपुर के डी. ऐ. वी हाईस्कूल (वर्तमान समय में डी. ऐ. वी. कॉलेज )  में आए तो इच्छा को खाद-पानी मिलने लगा| ऐसे समय में चंद्रशेखर आजाद से मिलना हुआ | उम्र कम थीं पर देश भक्ति का जज्बा मन में हिलोरें मार रहा था | सहपाठी ही एक गुप्त सभा में मिलाने ले गया था | देखा तो देखते रह गए, सुना तो अपने मन का संकल्प निडर हो कर चंद्रशेखर आजाद को बता दिया |

 

चंद्रशेखर आजाद ने नजर भर देखा, “एक किशोर, देश पर अपने प्राण उत्सर्ग करने की अग्रिम पंक्ति में खड़ा होना चाहता है |” उसके उत्साह के आगे नत हुए चंद्रशेखर ने मन ही मन भारत माता को प्रणाम किया, “माँ तू ही ऐसे वीरों को जन सकती है” | कुछ ही मुलाकातों में वो शालिग्राम की वीरता और निडरता को समझ गए |शायद यही वजह थी की चंद्रशेखर आजाद जिन्होंने देश को आजादी दिलाने के लिए “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी” बनाई थी उसमें उन्हें भर्ती कर लिया |दरअसल उन्हें उस बालक का उत्साह भा गया, जिसके अभी मूँछों की रेख भी नहीं आई थी |

 

उन्हें बंदूक चलाने का प्रशिक्षण भी आजाद ने ही दिया | इसके लिए कभी बिठूर में सुनसान जगह चुनी जाती, कभी नवाब गंज का वो इलाका जहाँ अभी चिड़ियाघर है, तो कभी बिल्हौर का कोई कम आबादी वाला गाँव | धाँय -धाँय, केवल बंदूक की आवाज  ही नहीं थी वो निशाना  साधने, चकमा देने, ध्यान  बँटाने और कभी भाग कर सुरक्षित हो जाने का पर्याय भी थी | अंग्रेजों को मार गिराना ही नहीं, पकड़े जाने पर कुछ ना बताना और अगर संभव हो तो अपनी जान  देकर भी साथियों को बचाना जैसे हर सदस्य का धर्म था | उनकी योग्यताओं को देखते हुए  पार्टी का कानपुर  चीफ भी बना दिया गया | शुरू में उनका काम सूचनाओं को इधर -उधर पहुंचाना था | इस काम के लिए संदेशों में बातें करना और संदेशों को पहुंचना इसमें इन्होंने महारत हासिल कर ली |

 

देश के लिए कुछ भी कर गुजरने का जुनून जब सर चढ़ कर बोलता तो खाली समय में अपनी कॉपी से कागज फाड़कर वंदे मातरम लिखा करते | कई बार खून से भी लिख देते |

अक्सर माता -पिता से मिलने गाँव आना -जाना लगा रहता | माँ सांकेतिक भाषा में पत्र लिखते बेटे को देख पत्र पढ़  तो ना पाती पर  निश्चिंत हो जातीं की बेटा पढ़ाई में लगा है |  कभी-कभी, ऐसे ही खूब मन लगा कर पढ़ने की हिदायत भी देतीं तो माँ से लाड़ में कहते, “माँ एक दिन तुम्हारे लिए वो तोहफा लाऊँगा, तब तुम बलैया लोगी अपने लाल की | बेटे का ऊँचा लंबा कद देखकर कर इतराती माँ एक संस्कारी बहु के सपने सँजोने लगती | तब उन्हें अहसास भी नहीं था कि उनका बेटा, बहु को नहीं देश की स्वतंत्रता को लाने की राह में प्राण उत्सर्ग करने वाला बाराती है | वापस लौटते समय पिता जीवन की ऊँच-नीच समझाते हुए कहते,

“अपनी पढ़ाई के अलावा कौन्हो  बात में समय ना खराब करियों, अभी मूँछ की रेख भी नाही आई है, एहे कारन  समझावत हैं|”

 

शुरुआत दिनों की बात है, उनकी उम्र को देखते हुए  उन्हें पत्रवाहक का काम दिया गया था| ये काम भी आसान नहीं होता था| पुलिस से बचते बचाते जाना पड़ता था | सावधानी हटी  दुर्घटना घटी वाला हाल था | उन दिनों भगत  सिंह कानपुर की जेल में थे | शालिग्राम हुलिया बदल कर उनके  रिश्तेदार बन कर मिलने जाना था | कद तो लंबा था ही ऊपर से ठेट पंजाबी भेषभूषा,  उनके मित्र भी उन्हें नहीं पहचान पा रहे थे | पंजाबी लहजा लाने के लिए पंजाबी मित्रों के साथ भाषा का पूर्वाभ्यास किया  था | पकड़े जाने की संभावना ना के बराबर थी | जेल में  भगत सिंह को देखकर सलाम करने का जी किया, पर खुद पर अंकुश लगा कुशलक्षेम पूंछने लगे| मौका देखकर सांकेतिक भाषा में बात की |

 

भगत सिंह ने कुछ लिखने के लिए पेन मांगा, फिर जल्दी से  सुरेन्द्र नाथ को एक पत्र लिखा, जेलर से नजर बचा कर वो देने ही वाले थे की उन्हें ख्याल आया की नाम तो लिखा नहीं | गश्त करता हुआ सिपाही  उधर ही चला आ रहा था | जल्दी से कलम निकाली  आड़ा-तिरछा लिखा और पत्र जेब में छिपा लिया | सिपाही ने लाल आँखों से घूर कर देखा, पत्र देने वाला और लेने वाला दोनों अनजान बनने की कोशिश करते रहे | सिपाही “जल्दी करो” की ताकीद के साथ जेल कॉरीडोर के दूसरे छोर  पर जाने लगा | भगत सिंह ने जल्दी से पत्र निकाल कर शालिग्राम को पकड़ाया | दोनों की नजर नाम पर पड़ी जहाँ जल्दबाजी में सुरेन्दर  नाथ की जगह सरेंडर नॉट लिख गया था | ठीक करने का समय नहीं था |भगत सिंह ने आँखों से इशारा कर पूछा, “समझ लोगे?” शालिग्राम ने आँखों से गलत स्पेलिंग को सही जगह पहुंचाने की आश्वस्ति दी और जल्दी से पत्र को जेब में रख लिया |

 

धीरे-धीरे  शालिग्राम आजाद के करीब आते गए | कभी पत्र पहुंचना, कभी गुपचुप सभा  की सबको जानकारी देना तो कभी छिपे हुए आजादी के वीरों के लिए खाना-पानी की व्यवस्था करना उनका काम हो गया | सुरक्षा की दृष्टि से चंद्रशेखर आजाद हॉस्टल में उन्हीं के कमरे में छिपने लगे | रात -रात भर मीटिंगे चलती | आगे की योजना बनती |जरूरी सामान की खरीदारी की लिस्ट तैयार होती | और सुबह उसको अंजाम दिया जाता |

 

बात 1930 की है | आगामी शीतावकाश को देखते हुए हॉस्टल  कुछ-कुछ खाली हो चुके थे |

कुछ रोज पहले गाँव से आए चचेरे भाई माँ की खबर लाए थे,साथ में लाए थे देसी घी के सफेद तिल के लड्डू | और उन सामानों की सूची जो  शहर से खरीद कर गाँव ले जाना था| सूची में तो नहीं था पर शालिग्राम ने जेब खर्च के पैसों से बचा कर माँ के लिए लाल साड़ी और आलते की शीशी और काजल की डिबिया  खरीद ली थी | पिछली बार गाँव जाने पर  माँ को कहते सुना था की कानपुर की ऐलगिन मिल का कपड़ा बहुत अच्छा होता है | तभी से अरमान  सँजो लिया था | जरूरी खर्चों में भी कटौती की थी | पहली बार साड़ी खरीदी थी, तमाम साड़ियों में से छाँट कर | अगले दिन गाँव निकलने की योजना भी थी | साड़ी मिलने पर माँ की खुशी की कल्पना करते हुए सो गए | सुबह उठे तभी पता चला की चंद्रशेखर आजाद आ रहे हैं |

अपनी माँ के पास जाना स्थगित कर दिया |भारत माता के लिए ली गई सौगंध और कर्तव्य के आगे सब कुछ बेमानी था |

चंद्रशेखर आजाद हुलिया बदल कर आए थे और एक छात्र के रूप में उन्हीं के कमरे में ठहरे | हॉस्टल की मेस में ना ले जाकर शालिग्राम चुपके से कमरे में ही उनके लिए खाना ले आते, कभी ना ला पाते तो माँ के दिए लड्डू काम आते| दो लड्डू खा पानी गटक रात गुजर जाती |भोजन की परवाह किसे थी |

 

30 नवंबर 1930 की वो एक ऐसी ही रात थी |हॉस्टल का कमरा देशभक्त नौजवानों की हिलोर मारते  उत्साह से भरा हुआ था | रात भर योजनाएँ बनती रहीं | मेज, पलंग और दरवाजे की थाप पर देश भक्ति के गीत लहू में एक नया जोश भर रहे थे | युवा जोश से सर्द रात कांप रही थी |

चार बजे हल्की सी झपकी लगी, तभी साथी ने पीठ थपथपाई, “शालिग्राम, शालिग्राम, चलना नहीं है का भैया ?” शालिग्राम ने उनींदी आँखें खोली, ध्यान आया कि सुबह 5 बजे आजाद जी की योजना के अनुसार कचेहरी के पास कर्जन पार्क ( वर्तमान कौशिक पार्क ) में सुरेन्द्र, पांडेय, शालिग्राम शुक्ल, विश्वनाथ, जागेश्वर त्रिवेदी को पहुंच जाना था|  वहाँ  से आजाद सहित जाजमऊ टीलें के पास पिस्तौलों का परिक्षण करने जाना था | एक नजर सोते हुए चंद्रशेखर आजाद को देखा, और कोट और बूट  पहन कर चल पड़े |

 

1 दिसंबर 1930 की वो सुबह कोहरे से भरी थी | हाथ को हाथ सूझ नहीं रहा था | लगता था सूरज भी आज का भविष्य देख कर आना नहीं चाहता था | तेज सर्द हवाओं और कोहरे की परवाह ना करते हुए  शालिग्राम शुक्ल अपने साथियों के साथ साइकिल पर निकल पड़े | वो थोड़ा आगे पीछे चल रहे थे | सुरेन्द्र नाथ  और शालिग्राम शुक्ल  साथ –साथ साइकलों पर जा रहे थे, तभी सुरेन्द्र नाथ  की साईकिल पहिया खराब हो गया |  हास्टल करीब था सुरेन्द्र नाथ  ने शालिग्राम को साईकिल बदल कर लाने के लिए कहा |  जैसे ही शालिग्राम हास्टल के पास पहुंचे, अंधेरे में उन्हें पुलिस बूटों की आवाज सुनाई दी | साइकिल को एक तरफ खड़ा कर थोड़ा आगे बढ़ कर वो स्थिति का जायजा लेने लगे | उनकी आशंका सही थी हॉस्टल को पुलिस ने घेर लिया था |

 

उन्हें समझते देर ना लगी कि किसी मुखबिर ने चंद्रशेखर आजाद के वहाँ छिपे होने की खबर पुलिस को दे दी है | “तो क्या ..? एक पल में मन हजार आशंकाओं से घिर गया | चाहते तो भाग  सकते थे, किसी सुरक्षित स्थान में छुप सकते थे | पर आजादी के मतवालों ने खुद की परवाह कब की है | समस्या ये थी की सोते हुए चंद्रशेखर आजाद तक ये खबर पहुंचे कैसे ? जब तक वो पुलिस का घेरा तोड़ कर आगे जाएंगे तब तक तो पुलिस उन्हें पकड़ चुकी होगी | एक क्षण की देरी भी विपरीत परिणाम ला सकती थी | तुरंत जेब से पिस्तौल निकाली और हवा में कोहरे को चीरती एक आवाज गूंजी .. धाँय | आगे बढ़ते हुए बूटस आवाज की दिशा की ओर पलटे | धाँय -धाँय दोनों ओर से गोलियां चलने लगीं | सोते हुए चंद्रशेखर और साथी जग गए | पहल झपकते ही भेष बदला और बाहर निकलने की जुगत खोजने लगे |

 

साथी ने चंद्रशेखर को रोका, रुकिए, आप, आप उधर ना जाएँ, अगर आप को कुछ हो गया तो मिशन फेल हो जाएगा| हमें स्थिति का जायजा लेना होगा | हॉस्टल खाली करो की आवाज गूंजने लगी | मिशन की कामयाबी के लिए भीड़ के साथ निकल जाना बेहतर उपाय लगा | इधर शालिग्राम शुक्ल बरगद के पेड़ के पीछे छिप कर गोलियां चलाने लगे | एक गोली चली और एक अंग्रेज सिपाही गिर कर सड़क पर तड़पने लगा, दूसरी गोली सीआईडी इन्स्पेटर शम्भूनाथ को लगी और भाग कर छुप गया,  तीसरी गोली अंग्रेज पुलिस कप्तान के हाथ में लगी और वो भी घायल हो कर पीछे हट गया | इसी समय छात्रों की भीड़ के बीच चंद्रशेखर आजाद बाहर निकले | हल्की सी रोशिनी हो चुकी थी | दोनों की आँखें मिलीं | चंद्रशेखर आजाद का हाथ जेब में पिस्तौल की तरफ बढ़ने लगा | शालिग्राम शुक्ल ने आँखों में ही भाग जाने का इशारा करते हुए दूसरी दिशा में गोली चला दी | पुलिस के सिपाही उस ओर दौड़ गए |

 

पिस्तौल में बस एक गोली बची थी | बचना संभव नहीं था | “बेअर बी बेअर” का हुंकार भरते हुए शालिग्राम ने सामने आते  हुए एक सिपाही पर पिस्तौल तान दी | इशारा समझ चंद्रशेखर आजाद आगे बढ़ गए | मन में बेचारगी के  भाव को भारत माता को स्वतंत्र कराने के सपने ने सहलाया | वो कुछ आगे बढ़े ही थे तभी एक्जलरी फ़ोर्स के टामी सोल्जर्स की रायफल से निकली गोली उनकी पीठ में जा लगी | “वंदे मातरम” कहते हुए  वो जमीन पर गिर गए | माँ ने गोद में ले अपनी माटी से अपने वीर सपूत का अभिषेक किया |  सिपाहियों ने टोपी उतार दी | कोहरे के बीच निकलने की कोशिश करता सूरज फिर बादलों के बीच में छिप गया | ना जाने कहाँ से बादल घिर आए और आसमान रो उठा |

 

18 साल का वह नवयुवक ने जिसकी मूंछे भी नहीं आई थी, देश के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए | उनके इस अप्रतिम योगदान के लिए अपनी सुरक्षा की परवाह ना करते हुए  चंद्रशेखर आजाद भी उनकी अंतिम क्रिया में आए थे |

आखिर वो दोनों एक ही माँ के बेटे थे, भारत माँ के l

दूर गाँव में उनका सामान खोलती जन्मदेने वाली माँ देख रही थी, लाल साड़ी, काजल और आलते की शीशी और ढेर सारी पर्चियाँ जिन पर लिखा था “वंदे मातरम” | वो आज भी उन्हें पढ़ नहीं पा रहीं थीं पर अपने बेटे की याद में उमड़े आंसुओं का वेग रोके उनके होंठ धीमे -धीमे बुदबुदा रहे थे, “वंदे मातरम.. वंदे  मातरम”|

वंदना बाजपेयी

वंदना बाजपेयी

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सिन्हा बंधु- पाठक के नोट्स

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सीमा वशिष्ठ जौहरी जो कि वरिष्ठ साहित्यकार भगवतीचरण वर्मा की पोती हैं, ने अपने दादाजी भगवतीचरण वर्मा की स्मृति में समकालीन कहानी संग्रह का संपादन कर पुस्तक भगवतीचरण वर्मा स्मृति : समकालीन कहानी संग्रह का प्रकाशन संस्कृति, चेन्नई से करवाया है। सीमा जौहरी बाल साहित्य के क्षेत्र में लेखन में सक्रीय हैं। सीमा वशिष्ठ जौहरी ने इस संकलन की कहानियों का चयन और संपादन बड़ी कुशलता से किया हैं। इस संग्रह में देश-विदेश के सोलह  कथाकार शामिल हैं। संग्रह के 16 कथाकारों में भगवतीचरण वर्मा, ममता कालिया, ज़किया ज़ुबेरी, सूर्यबाला, चित्रा मुद्गल, तेजेन्द्र शर्मा, डॉ. हंसा दीप, सुधा ओम ढींगरा, अलका सरावगी, प्रहलाद श्रीमाली जैसे हिंदी के प्रतिष्ठित हस्ताक्षरों के साथ नयी और उभरते कथाकारों की कहानियाँ भी सम्मिलित हैं। इस संग्रह की कहानियाँ पाठकों के भीतर नए चिंतन, नई दृष्टि की चमक पैदा करती हैं।

भगवतीचरण वर्मा स्मृति : समकालीन कहानी संग्रह

सुप्रसिद्ध वरिष्ठ कथाकार भगवतीचरण वर्मा की वसीयत कहानी बेहद रोचक है। कहानी सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि में लिखी गई है। कहानी में संवाद चुटीले और मार्मिक हैं। इस कहानी के द्वारा भगवती चरण वर्मा ने समाज की आधुनिक व्यवस्था पर करारा कटाक्ष किया गया है। इस कहानी में हास्य है, व्यंग्य और मक्कारी से भरे चरित्र हैं। भगवतीचरण वर्मा की किस्सागोई का शिल्प अनूठा है। भगवतीचरण वर्मा की कहानियों में घटनाएँ, स्थितियाँ और पात्रों के हावभाव साकार हो उठाते हैं। वसीयत कहानी एक कालजयी रचना है। भगवतीचरण वर्मा की रचनाएँ युगीन विसंगतियों पर प्रहार करते हुए नवयुग के सृजन की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं। वरिष्ठ कथाकार ममता कालिया ने कहानी दो गज़ की दूरी कोरोना काल की त्रासदी को केंद्र में रख कर लिखी है। कहानी में सहजता और सरलता है। यह नारी अस्मिता की कहानी है। यहां समिधा को सशक्त किरदार में दर्शाया गया है। ममता कालिया ने समिधा की सूक्ष्म मनोवृत्तियों, जीवन की धड़कनों, मन में चलने वाली उथल पुथल को इस कहानी में सहजता से अभिव्यक्त किया है। ममता कालिया विडम्बना के सहारे आज के जीवन की अर्थहीनता को तलाशती हैं। इस कहानी में संबंधों के नाम पर समिधा का पति वरुण झूठ, धोखा, अविश्वास, छल-कपट और बनावटीपन का मुखौटा लगाये संबंधों को जीना चाहता है। ज़कीया ज़ुबैरी की गरीब तो कई बार मरता है अमीना की कहानी है। ज़किया जुबैरी स्त्रियों की ज़िन्दगी में आहिस्ता से दाख़िल होकर उनके मन की परतों को खोलती हैं। भीतरी तहों में दबे सच को सामने लाती हैं। ज़किया जुबैरी की कहानियाँ उनकी बेचैनी को शब्द देती है। ज़कीया ज़ुबैरी हिन्दी एवं उर्दू दोनों भाषाओं में समान अधिकार रखती हैं। ज़कीया ज़ुबैरी की भाषा में गंगा जमुनी तहज़ीब की लज़्ज़त महसूस होती है। अमीना का विवाह समी मियाँ से होता है। अमीना का प्रत्येक दिन समी मियाँ की चाकरी में गुजर जाता है। अमीना चार बच्चों की माँ बन जाती है। समी मियाँ बिज़नेस के सिलसिले में एक महीने के लिए बाहर चले जाते हैं, तब अकेलेपन से बचने के लिए अमीना सत्रह साल की नूराँ को अपने पास बुला लेती है। जब समी मियाँ वापस लौट कर आते है, तब एक दिन सुबह अमीना अपने पति समी मियाँ को उनके बेड रूम में जाकर देखती है कि नूराँ समी मियाँ के बिस्तर पर सोई हुई है। अमीना और नूराँ दोनों चौंक जाती हैं।  

सूर्यबाला की गौरा गुनवन्ती एक अनाथ लड़की की कहानी है जो अपनी ताई जी के यहाँ रहती है। सूर्यबाला अपनी कहानियों में व्यंग्य का प्रमुखता से प्रयोग करती हैं। सूर्यबाला की कहानियों में यथार्थवादी जीवन का सटीक चित्रण है। इनके कथा साहित्य में स्त्री के कई रूप दिखाई देते हैं। सूर्यबाला के नारी पात्र पुरुष से अधिक ईमानदार, व्यवहारिक, साहसी और कर्मठ दिखाई देती हैं। कहानीकार पाठकों को समकालीन यथार्थ से परिचित कराती हैं और उसके कई पक्षों के प्रति सचेत भी करती हैं। लेखिका जीवन-मूल्यों को विशेष महत्व देती हैं, इसलिए इनकी इस कहानी की मुख्य पात्र गौरा दुःख, अभाव, भय के बीच जीते हुए भी साहस के साथ उनका सामना करते हुए जीवन में सुकुन की तलाश कर ही लेती है। उसमें विद्रोह की भावना कहीं नहीं है। कथाकार चित्रा मुद्गल की कहानी ताशमहल पुरुष मानसिकता और माँ की ममता को अभिव्यक्त करने वाली है। यह एक परिवार की कहानी है, जिसमें संबंध बनते हैं, फिर बिगड़ते है और अंत में ताश के पत्तों की तरह ढह जाते हैं। माता-पिता के झगड़ों में बच्चों पर क्या गुजरती है? इस प्रश्न के उत्तर बारे में केवल माँ ही सोच सकती है। कहानी में बाल मनोविज्ञान का सूक्ष्म चित्रण भी दिखता है। यह एक सशक्त कहानी है जिसमें कथ्य का निर्वाह कुशलतापूर्वक किया गया है। कथाकार ने इस कहानी का गठन बहुत ही बेजोड़ ढंग से प्रस्तुत किया है।

रीता सिंह एक ऐसी कथाकार है जो मानवीय स्थितियों और सम्बन्धों को यथार्थ की कलम से उकेरती है और वे भावनाओं को गढ़ना जानती हैं। लेखिका के पास गहरी मनोवैज्ञानिक पकड़ है। साँझ की पीड़ा एक अकेली वृद्ध महिला विमला देवी की कहानी है जो बनारस में अपने घर में रहती है। एक दिन विमला देवी की बेटी और उनका दामाद विमला देवी के यहाँ आकर बनारस के उस घर को बेच देते हैं और विमला देवी को अपने साथ चंडीगढ़ लेकर चले जाते हैं। लेकिन कुछ दिनों बाद ही बेटी और दामाद विमला देवी के साथ बुरा बर्ताव करते हैं, तब एक दिन विमला देवी दिल्ली में अपने भाई रघुवीर के घर चली जाती है। रघुवीर के घर में भी विमला देवी के लिए जगह नहीं थी, तब रघुवीर विमला देवी को एक विधवाश्रम में छोड़ कर आ जाते हैं। चार दिन बाद ही रघुवीर के पास विधवाश्रम के संचालक का फोन आता है कि विमला देवी को दिल का दौरा पड़ा है। रघुवीर जब आश्रम पहुँचते हैं, तब तक विमला देवी का निधन हो चुका होता है। तेजेन्द्र शर्मा ने बुजुर्गों के अकेलेपन को खिड़की कहानी के द्वारा बहुत मार्मिकता के साथ बयां किया है। कहानी के नायक जो कि साठ वर्ष के हैं और अब परिवार में अकेले रह गए हैं, की ड्यूटी रेलवे की इन्क्वारी खिड़की पर होती है। वे इस इन्क्वारी खिड़की पर लोगों के साथ संवाद स्थापित कर के, उनकी सहायता कर के अपना अकेलापन दूर कर लेते हैं।   

प्रहलाद श्रीमाली की मुन्ना रो रहा है! कहानी आज के तथाकथित सभ्य समाज को आईना दिखाती है। यह कहानी एक साथ पारिवारिक और सामाजिक परतों को उधेड़ती हैं। यह कहानी बाल मन का मनोवैज्ञानिक तरीके से विश्लेषण करती है। गर्भ में बेटियों की हत्या कर बेटे के जन्म की आशा रखने वाले लोगों पर इस कहानी में करारा कटाक्ष है। मुन्ना रो रहा है! जमीनी यथार्थ से जुडी हुई कहानी है। इस कहानी को कहानीकार ने काफी संवेदनात्मक सघनता के साथ प्रस्तुत किया है। डॉ.हंसा दीप की एक बटे तीन हृदय को छूने वाली मार्मिक कहानी है। डॉ.हंसा दीप अपने कथा साहित्य में मानवीय मूल्यों को केंद्र में रखकर सृजन करती हैं। हंसा दीप एक ऐसी कथाकार है जो भारतीय जनमानस की पारिवारिक पारम्परिक स्थितियों, मानसिकता को यथार्थ की कलम से उकेरती है और वे भावनाओं को गढ़ना जानती हैं। डॉ.हंसा दीप की कहानियाँ मानवीय संबंधों को हर कोण से देखती हैं। भारत की मिट्टी से बंधा बचपन और भारतीय परिवारों से मिले अपार स्नेह की वज़ह से लेखिका ऐसी कहानियों का सृजन कर सकी हैं। कहानीकार ने माँ और उसके विदेश में बसे बड़े बेटे के असीम प्रेम के बहाने इस आर्थिक युग में स्वार्थ और लोलुपता की अच्छी पड़ताल की है। इस कहानी में हमारे देश के जीवन और प्रवासी जीवन की संवेदना की अभिव्यक्ति सहज रूप से हुई है। अलका प्रमोद की “बड़ी लकीर” एक मध्यम वर्गीय परिवार की कहानी है। “बड़ी लकीर” यथार्थ के धरातल पर रची गई मार्मिक कहानी है। कहानी के नायक सुमित की नौकरी चली जाती है। वह बात-बात पर चिढ़ने लगता है। उसे घर चलाने के लिए उसके ससुर द्वारा दी गई अपनी पत्नी की एफडी तुड़वानी पड़ती है। सुमित एफडी तुड़वाकर बैंक से घर वापस आता है तो उसे शंका आती है कि उसे कोरोना तो नहीं हो गया है? उसकी कोविड की रिपोर्ट नेगेटिव आती है तो उसे लगता है जीवित रहना बहुत जरुरी है। यदि वह ज़िंदा रहेगा तो वह सभी तरह की समस्याओं को हल कर सकता है।      

सुधा जी ने यह पत्र उस तक पहुँचा देना कहानी का प्रारंभ अमेरिका के सेंट लुइस शहर के बर्फ़ीले तूफानों से किया है। यह कहानी एक अमेरिकन लड़की जैनेट गोल्डस्मिथ और एक भारतीय लडके विजय मराठा के प्रेम संबंधों और संवेदनाओं की संस्मरणात्मक कहानी है। इस कहानी में दीपाली का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है – “गन्दी राजनीति जीत गई और सच्चा प्यार हार गया। पॉलिटिशियन किसी भी देश के हों, सब एक जैसे हैं।”  बेसहारा डॉ.रूचि श्रीवास्तव की भावपूर्ण, प्रवाहपूर्ण, करुणाजनक कहानी है। कहानी के केन्द्र में दुर्भाग्य एवं परिस्थितियों की मार झेलती रजनी है जो संघर्ष और अपनी जिजीविषा से अपने परिवार का लालन पोषण बेहतरीन तरीके से करती है। यह कहानी समाज में परिवर्तन के लिए हैं और समाज को बदलने का माद्दा भी रखती हैं। बेसहारा कहानी कथाकार की गहरी संवेदनशीलता को रेखांकित करने में पूर्णतः समर्थ है। कथाकार ने इस कहानी में पारिवारिक संबंधों की धड़कन को बखूबी उभारा है। शैलजा और रविंद्र की संवेदनाओं को लेखिका ने जिस तरह से इस कहानी में संप्रेषित किया है वह काबिलेतारीफ़ है। अलका सरावगी की कहानी ‘एक पेड़ की मौत’ केवल एक वृक्ष की कहानी नहीं है बल्कि इस कहानी के नायक जगन्नाथ बाबू की भी कहानी है। प्रकृति और मनुष्य के बीच बहुत गहरा संबंध है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। लेकिन जैसे जैसे विकास होता गया प्रकृति के साथ मनुष्य का सम्बन्ध टूट सा गया है। अलका जी ने एक कवि दृष्टि के साथ यह कहानी लिखी है। वाकई एक पेड़ की मौत कितनी दर्दनाक घटना है, जिसकी तरफ हम बहुधा ध्यान भी नहीं देते। कथाकार ने इस कहानी में मनुष्य की इस संवेदनशीलता को बचाये रखा है। उन्होंने पेड़ के माध्यम से कहानी को एक नई अर्थवत्ता प्रदान की है।  

डॉ.सुनीता जाजोदिया की मेला एक सशक्त कहानी है जिसमें कथ्य का निर्वाह कुशलतापूर्वक किया गया है। कथाकार ने इस कहानी का गठन बहुत ही बेजोड़ ढंग से प्रस्तुत किया है। कहानी की नायिका पल्लवी के मनोभावों की अभिव्यक्ति प्रभावशाली तरीके से हुई है। कहानीकार ने पल्लवी की छटपटाहट को स्वाभाविक रूप से रेखांकित किया है। कहानी में बाल मनोविज्ञान का सूक्ष्म चित्रण दिखता है। लेखिका ने बंसी की मन:स्थिति का विशद चित्रण किया है। डॉ. सुनीता जाजोदिया ने मुखर होकर अपने समाज और अपने समय की सच्चाइयों का वास्तविक चित्र प्रस्तुत किया हैं। सुधा त्रिवेदी की रण में रंभा – क़ैद कुबेर भावुक कर देने वाली कहानी है। रंभा की मनोदशा और पूरे हालात का दृश्यांकन चमत्कृत करने वाला है। कुबेर पोद्दार जैसे चरित्र हमारे समाज में भरे पड़े हैं जो रंभा जैसी लड़कियों को धोखा देते हैं। कहानी की नायिका रंभा के मनोभावों की अभिव्यक्ति प्रभावशाली तरीके से हुई है। कहानी में राजसत्ता की मानसिकता के स्पष्ट दर्शन है। रोचिका अरुण शर्मा की कहानी का शीर्षक “बंद सुरंग” कथानक के अनुरूप है। “बंद सुरंग” की विषय-वस्तु झकझोरने वाली है। रोचिका अरुण शर्मा की कहानियों की विशेषता है उनकी सहजता और रोचकता। सरल-सहज शब्दों में वो कहानी का तानाबाना बुनती हैं। कहानियों के पात्र हमारी रोजमर्रा की ज़िंदगी से जुड़े होते हैं, तभी वो काल्पनिक नहीं बल्कि यथार्थपरक दिखते है और प्रभावित भी करते हैं। जीवन के संघर्ष को, परेशानियों को मानसिक द्वन्द को वो बड़ी ही बारीकी से पाठकों के समक्ष रखती हैं। कथाकार रोचिका किसी विसंगति के दृश्य को पकड़ लेती हैं और उसे रचने का अपना कौशल इस्तेमाल करके लिखती हैं। लेखिका ने परिवेश के अनुरूप भाषा और दृश्यों के साथ कथा को कुछ इस तरह बुना है कि कथा खुद आँखों के आगे साकार होते चली जाती है। कथाकार ने इस कथा में समाज में व्याप्त नशे की लत को अपनी कहानी का विषय बनाया है और उसके दुष्परिणाम की भयावह तस्वीर प्रस्तुत की है।

इन कहानियों की कथावस्तु हमारे आसपास के जीवन की हैं। कथाकार इन कहानियों में स्मृति के पन्नों में पहुँचकर वहाँ के दृश्य साकार कर देते हैं। कथाकारों ने कहानियों के चरित्रों को परिवेश और परिस्थितियों के अनुसार ही प्रस्तुत किया हैं। कथाकारों की भाषा में चित्रात्मकता है। इस संग्रह की सभी कहानियाँ सशक्त है जिसमें कथ्य का निर्वाह कुशलतापूर्वक किया गया है। संग्रह की कहानियाँ वर्तमान समय को उजागर करती है। संवेदना के धरातल पर ये कहानियाँ सशक्त हैं। संग्रह की हर कहानी उल्लेखनीय तथा लाज़वाब है और साथ ही हर कहानी ख़ास शिल्प लिए हुए है। ये कहानियाँ सिर्फ़ हमारा मनोरंजन नहीं करती बल्कि समसामयिक यथार्थ से परिचित कराती हैं। इन कहानियों में प्रयुक्त कथानुकूलित परिवेश, पात्रों की अनुभूतियों, पात्रों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, कहानियों में कथाकारों की उत्कृष्ट कला-कौशलता का परिचय देती है। संग्रह की हर कहानी उल्लेखनीय तथा लाज़वाब है और साथ ही हर कहानी ख़ास शिल्प लिए हुए है। इस संग्रह की कहानियाँ अनुभूतियों से सराबोर करने वाली हैं। ये कहानियाँ कथ्य और अभिव्यक्ति दोनों ही दृष्टियों से पाठकीय चेतना पर अमिट प्रभाव छोड़ती है। इस संग्रह की कहानियों के शीर्षक कथानक के अनुसार है और शीर्षक कलात्मक भी है। कहानियों का यह संग्रह सिर्फ पठनीय ही नहीं है, संग्रहणीय भी है। आशा है कि सीमा वशिष्ठ जौहरी द्वारा सम्पादित इस नवीन कहानी संग्रह भगवतीचरण वर्मा स्मृति : समकालीन कहानी संग्रह का हिन्दी साहित्य जगत में भरपूर स्वागत होगा।

दीपक गिरकर

 

पुस्तक  : भगवतीचरण वर्मा स्मृति : समकालीन कहानी संग्रह

संपादक : सीमा वशिष्ठ जौहरी

प्रकाशक : संस्कृति, 45/83 कस्तूरी एवेन्यू , एमआरसी नगर, राजा अन्नामलाईपुरम, चैन्नई 600028  

आईएसबीएन नंबर : 978-81-960825-0-5

मूल्य   : 250 रूपए

दीपक गिरकर

समीक्षक

28-सी, वैभव नगर, कनाडिया रोड,

इंदौर- 452016

मोबाइल : 9425067036

मेल आईडी deepakgirkar2016@gmail.com 

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बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा https://www.atootbandhann.com/2024/01/%e0%a4%ac%e0%a5%87%e0%a4%97%e0%a4%ae-%e0%a4%b9%e0%a4%9c%e0%a4%bc%e0%a4%b0%e0%a4%a4-%e0%a4%ae%e0%a4%b9%e0%a4%b2-%e0%a4%8f%e0%a4%95-%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%ae%e0%a5%8d%e0%a4%a8%e0%a4%b5%e0%a4%b0.html https://www.atootbandhann.com/2024/01/%e0%a4%ac%e0%a5%87%e0%a4%97%e0%a4%ae-%e0%a4%b9%e0%a4%9c%e0%a4%bc%e0%a4%b0%e0%a4%a4-%e0%a4%ae%e0%a4%b9%e0%a4%b2-%e0%a4%8f%e0%a4%95-%e0%a4%a8%e0%a4%bf%e0%a4%ae%e0%a5%8d%e0%a4%a8%e0%a4%b5%e0%a4%b0.html#respond Wed, 03 Jan 2024 04:57:46 +0000 https://www.atootbandhann.com/?p=7769   1857 का संग्राम याद आते ही लखनऊ यानी की अवध की बेगम हज़रत महल के योगदान को कौन भूल सकता है l  खासकर तब जब आजादी के अमृत महोत्सव मना रहा देश अपने देश पर जाँ निसार करने वाले वीरों को इतिहास के पीले पन्नों से निकाल कर फिर से उसे समकाल और आज […]

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1857 का संग्राम याद आते ही लखनऊ यानी की अवध की बेगम हज़रत महल के योगदान को कौन भूल सकता है l  खासकर तब जब आजादी के अमृत महोत्सव मना रहा देश अपने देश पर जाँ निसार करने वाले वीरों को इतिहास के पीले पन्नों से निकाल कर फिर से उसे समकाल और आज की पीढ़ी से जोड़ने का प्रयास कर रहा हो l कितनी वीर गाथाएँ ऐसी रहीं, जिन्होने अपना पूरा जीवन अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए बिता दिया और हम उन्हें कृतघ्न संतानों की तरह भूल गए l बेगम हज़रत महल उन्हीं में से एक प्रमुख नाम है l

 

किसी भी ऐतिहासिक व्यक्तित्व पर लिखना आसान नहीं होता l ज्ञात इतिहास ज्यादातर जीतने वाले के हिसाब से लिखा जाता है जो कई बार सत्य से काफी दूर भी हो सकता है l अतः निष्पक्ष लेखन हेतु लेखक को समय के साथ जमींदोज हुए तथ्यों की बहुत खुदाई करनी पड़ती है, तब जा कर वो कहीं कृति के साथ न्याय कर पाता है l ऐसे में वीणा वत्सल सिंह इतिहास में लगभग भुला दी गई  “बेगम हज़रत महल’ को अपनी कलम के माध्यम से उनके हिस्से का गौरव दिलाने का बीड़ा उठाया है l वो बेगम को उनकी आन-बान-शान के साथ ही नहीं उनके बचपन, मुफलिसी के दिन जबरन परी बनाए जाने की करूण  कहानी से नवाब वाजिद अली शाह के दिल में और अवध में एक खास स्थान बनाने को किसी दस्तावेज की तरह ले कर आई हैं l ये किताब मासूम मुहम्मदी से महक परी और बेगम हज़रत महल तक सफर की बानगी है l जिसमें बेगम हज़रत महल के जीवन के हर पहलू को समेटा गया है l ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी की प्रगतिशील सोच रखने वाली एक जुझारू संघर्षशील स्त्री के सारे गुण मुहम्मदी में नजर आते हैं l

बेगम हज़रत महल- एक निम्नवर्ग में जन्मी लड़की से बेगम हज़रत महल बनने तक की संघर्षमय गाथा

 

बेगम हज़रत महल की संघर्ष यात्रा शुरू होती है एक निम्नवर्ग के परिवार में जन्मी बच्ची मुहम्मदी से l कहते है कि होनहार बिरवान के होत चीकने पात” l जब पाठक मुहम्मदी के बचपन से रूबरू होता है तो लकड़ी की तलवार लेने की जिद और जंगी हुनर सीखने कि खवाइश से ही उसके भविष्य की दिशा दिखने लगती है l एक कहावत है “होनहार बिरवान के होत चीकने पात”यानि  विशिष्ट व्यक्तित्व के निर्माण के बीज उनके बचपन से ही दिखने लगते हैं l ऐसा ही मुहम्मदी के साथ हुआ l बच्चों के खेल “बोलो रानी कितना पानी” जिसमें रानी को कभी ना कभी डूबना ही होता है का मुहम्मदी द्वारा विरोध “रानी नहीं डूबेगी” दिखा कर खूबसूरती से उपन्यास की शुरुआत की गई है l और पाठक तुरंत मुहम्मदी से जुड़ जाता है l शुरुआत से ही पाठक को मुहम्मदी में कुछ नया सीखने का जज्बा, जंगी हुनर सीखने का जुनून, करुणा, विपरीत परिस्थितियों को जीवन का एक हिस्सा समझ कर स्वीकार तो कर लेना पर उस में हार मान कर सहने की जगह वहीं से नए रास्ते निकाल कर जमीन से उठ खड़े होने की विशेषताएँ दिखाई देती हैं lये उसका अदम्य साहस ही कहा जाएगा कि जीवन उन्हें बार-बार गिराता है पर वो हर बार उठ कर परिस्थितियों की लगाम अपने हाथ में ले लेती हैं l  उपन्यास में इन सभी बिंदुओं को बहुत ही महत्वपूर्ण तरीके से उभारा गया है l

 

निम्न वर्ग के परिवार में तीन भाइयों के बाद आई सबसे छोटी मुहम्मदी यूँ तो पिता की बहुत लाड़ली थी पर गरीबी-मुफलिसी और सबसे बड़े भाई अनवर के हर समय बीमार रहने के कारण उसका बचपन आसान नहीं था l अनवर के इलाज लायक पैसे भी अक्सर घर में नहीं होते l ऐसे में जब भी अनवर को दिखाने हकीम के पास जाना होता उस दिन घर में चूल्हा भी नहीं जलता l ऐसे में उसके मामा सलीम ने जब अपनी बीमार पत्नी की देखभाल के लिए मुहम्मदी को अपने साथ ले जाने को कहा तो माता- पिता को अनुमति देनी ही पड़ी l इसका एक कारण यह भी था कि मुहम्मदी की बढ़ती उम्र और सुंदरता के कारण वो इस कमजोर दरवाजे वाले घर में सुरक्षा नहीं कर पाएंगे l पर खुश मिजाज मुहम्मदी ने माता-पिता के बिछोह को भी स्वीकार कर लिया l अपनी ममेरी बहन नरगिस के साथ उसने ना केवल घर के काम सीखे बल्कि मामूजान से उनका हुनर टोपी बनाना भी सीखा l ताकि आर्थिक संबल भी दे सके l हिफ़ाजत और जंग के लिए तलवार चलाना सीखने की खवाइश रखने वाली मुहम्मदी का दिल बेजूबानों के लिए भी करुणा से भरा था l  यहाँ तक की उपन्यास में मुर्गे की लड़ाई के एक दृश्य में मुहम्मदी मुर्गे को बचाती है l और कहती है कि

 

मुर्गे का सालन ही खाना है तो सीधे हलाल करके खाइए ना ! ऐसे क्यों इस गरीब को सताये जा रहे हैं ? क्या इसए दर्द नहीं होता होगा?”

 

मुहम्मदी की ममेरी बहन नरगिस और जावेद की प्रेम कथा उपन्यास की कथा में रूमानियत का अर्क डालती है l

नरगिस का चेहरा सुर्ख, नजरें झुकी हुई l जबकि जावेद का मुँह थोड़ा सा खुला हुआ और आँखें नरगिस के चेहरे पर टिकी हुई l दोनों के पैरों के इर्द-गिर्द गुलाब और मोगरे के फूल बिखरे हुए और बेचारा टोकरा लुढ़क कर थोड़ी दूर पर औंधा पड़ा हुआ l”

 

जब भी हम कोई ऐतिहासिक उपन्यास पढ़ते हैं तो हम उस कथा के साथ -साथ उस काल की अनेकों विशेषताओं से भी रूबरू होते हैं l उपन्यास में नृत्य नाटिका में वाजिद आली शाह का कृष्ण बनना उनके सभी धर्मों के प्रति सम्मान को दर्शाता हैं तो कथारस वहीं प्रेम की मधुर दस्तक का कारण बुनता है l कथा के अनुसार कृष्ण बने नवाब वाजिद अली शाह द्वारा जब मुहम्मदी की बनाई टोपी पहनते हैं तो जैसे कृष्ण उनके वजूद में उतर आते हैं l परंतु उसके बाद हुए सर दर्द में लोग उनके मन में डाल देते हैं कि उन्होंने शायद जूठी टोपी यानि किसी की पहनी हुई टोपी पहनी है, ये दर्द उसकी वजह से है l वाजिद के गुस्सा होते हुए तुरंत सलीम मियां को पकड़ कर लाने का आदेश दिया l और घर में कोई मर्द ना होने के कारण दो मिरसिने अम्मन और इमामन सलीम के घर पहुंचती है तो माज़रा समझते हुए मुहम्मदी स्वीकार करती है कि टोपी मामूजान सलीम ने नहीं उसने बनाई थी l और जब उससे पेशकश की जाती है कि इसके एवज में या तो तुम्हारा पूरा खानदान जेल में सड़ेगा या तुम परीखाने में चलो तो एक बार फिर मुहम्मदी निजी तकलीफ को परिवार की तकलीफ से कमतर मानते हुए परीखाने में जाना स्वीकार करती है ताकि उसके परिवार पर कोई आंच ना आए l

 

अपने परिवार की खातिर महक परी बन कर वाजिद के परीखाने में प्रवेश और वाजिद के हृदय परिवर्तन के खूबसूरत प्रेम प्रसंग जहाँ पाठक को एक अलग दुनिया में ले जाते हैं l ये प्रसंग एक स्त्री के स्वाभिमान की गाथा भी कहते हैं l जहाँ ताकत स्त्री का शरीर तो जीत सकती है, पर मन नहीं l यथा-

 

नवाब साहब औरत के जिस्मों की आपके परीखाने में कोई कमी नहीं है l आप जब चाहें हमारा शरीर भी ले सकते हैं l लेकिन एक सच हमारे और आपके बीच और भी है के हमारे दिल में आपके लिए मुहब्बत नहीं है l साथ ही आप भी हमें केवल एक खूबसूरत जिस्म के तौर पर देख रहे हैं l

 

महक की बेखौफ बातों ने नवाब के मन में भी उसके लिए मुहब्बत और मुहब्बत पाने की चाहत भर दी|”

 

वो महक परी ही थी जिसने देह कि कन्दराओं में भटकते वाजिद को पहली बार रूहानी प्रेम का एहसास करवाया था l और वाजिद उस पर सीधे अधिकार ना करके उसका दिल जीतने के लिए बेचैन हो उठे l “ज्यों जरदी हरदी तजे.. कौन मालिक कौन गुलाम, प्रेम तो तभी होता है जब दोनों एक तल पर हों l वो कहती है कि –

नवाब साहब इश्क की राह पर चलने से पहले इंसान को अपना रुतबा भूलना होता है l और यह हम नहीं कह रहे सदियों से ऐसा ही कहा जा रहा है l”

किसी और ही मिट्टी की बनी महक परी का मन ना परीखाने में लगता है ना ही ठुमरी और कत्थक में कुछ ही मुलाकातों के बाद बेखौफ होकर जंगी हुनर सीखने की खवाइश नवाब वाजिद अली शाह से कह देती है l और नवाब भी इसकी इस इच्छा का मान रखते हुए इसका बंदोबस्त भी करवा देते हैं l उपन्यास में जिक्र है कि उसकी वजह से ही नवाब वाजिद ने भी जंगी हुनर सीखने शुरू किये और वो अपनी बचपन की बीमारी पर भी काबू पाने में कुछ हद तक कामयाब रहे l फिर सबा व अन्य कुछ परियाँ भी उसके साथ जंगी हुनर सीखने में शामिल हो गईं l

 

हालंकी उसके रास्ते आसान नहीं थे l परीखाने की राजनीति का भी उपन्यास में बारीक चित्रण है l सुखनवर परी ने पहले भी वाजिद और उनकी पहली बेगम आलमआरा के प्रेम में बाधा डालने की कोशिश की थी l फिर हज़रत महल और वाजिद अली शाह का पाक प्रेम जब परवान चढ़ता है तो उसके साथ अन्य परियों को अपने हाथ से सत्ता जाती दिखती है l परीखाने की राजनीति सर चढ़  कर बोलती है l सुखनवर परी ही बाद में अंग्रेजों की मुखबिर बनती है l जंगी हुनर सीखती महक परी उर्फ बेगम हज़रत को बार-बार जहर बुझे तानों के वार झेलने पड़ते हैं l  एक बार तो हज़रत परेशान हो जाती है और पलायन करना चाहती हैं तब वाजिद उन्हें समझाते हैं …

 

बर्दाश्त करना सीखिए महक l ये छोटी-छोटी बातें जब इंसान बर्दाश्त करना सीख जाता है तभी जंग के बड़े-बड़े जख्म सहकर जीत हासिल करता है l”

हालांकि बहुत जल्दी ही महक परी इस दुविधा से निकल जाती है और अपने साथ जंगी हुनर सीखने के लिए आई परियों के साथ महिला सेना बनाने लगी l उसने एक कुशल महिला सेनापति ढूँढने के लिए अवध के कई अंदरूनी इलाकों की यात्रा भी करती है l उसकी तलाश पूरी होती है 12/13 साल की उदा को देखकर, जो जो टूटे पहिये की मरम्मत करने में लगी थी l आगे चलकर यही उदा बेगम हज़रत महल का दाहिना हाथ बनती है l वहीं अनाथ भवानी को वो बेटी की तरह अपनाकर युद्ध कला की शिक्षा देती है l उसका जुनून “भवानी महल” के निर्माण में सहायक बना, जहाँ 12/13 साल की उम्र से ऊपर की लड़कियों की संख्या 150 से ऊपर पहुँच गई थी l  जो रोज फौजी कपड़े पहन कर 7/8 घंटे युद्ध का अभ्यास करतीं l

 

उपन्यास में हज़रत महल के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को भी बखूबी उभारा गया है l भवानी जिसे वो अपनी पुत्री मानती थीं के हाथ में हनुमान जी की मूर्ति देखकर वाजिद और हज़रत ने मंगलवार को लखनऊ में पूजा और भोज का इंतजाम शुरू करवाया और बंदरों को मारने पर सजा देने का भी एलान किया l इस प्रसंग से हमारे देश की गंगा-जमुनी तहजीब के दर्शन होते हैं l

 

उपन्यास का तीसरा खंड “बेगम हज़रत महल” अंग्रेजों से युद्ध करती हज़रत के सशक्त नायिका वाले व्यक्तित्व को पन्ना दर पन्ना खोलता है l  लॉर्ड डलहौजी की राज्यों को हड़पने की कूटनीति का शिकार अवध भी होता है l जब लॉर्ड डलहौजी द्वारा नवाब को कलकत्ता भेजने का फरमान जारी होता है  तो बेगम हज़रत एक योद्धा के तौर  पर ही नहीं एक रणनीतिकार के रूप में भी उभरती हैं l कानपुर से गंगा के रास्ते कलकत्ता भेजे जाते हुए नवाब को कानपुर से छुड़ाने का प्रयास करती है l इसमें बशीरुददौला, मुम्मूँ खाँ और अका पासी ने उनका साथ दिया l पर उसकी ये योजना सफल नहीं हो पाई क्योंकि अंग्रेजों को मुखबिर बनी सुखनवर परी के द्वारा इसकी जानकारी पहले से हो जाती है l अंग्रेजों द्वारा आवाम में फैलाई गई गलतफहमियों को दूर करने और  सत्ता के प्रति लोगों का विश्वास जगाने के लिए वो अपने बेटे बिजरिस कद्र  को गद्दी पर बैठाती है और उसके एवज में शासन संभालती है l जनता से जुड़ती है और उनके अमन चैन को फिर से कायम करती है lआसपास के राजाओं को सहायता के लिए पत्र लिखती है l इसमें वो राज्य के  सबसे तेज घुड़सवार आगा मिर्जा का सहयोग लेती है l  युद्ध में स्वयं भी उतरती है l ये सारी विशेषताएँ उसे कुशल शासक प्रशासक सिद्ध करती हैं l

 

युद्ध के दृश्यों के सजीव चित्रण के अलावा उपन्यास मे विषकन्या  अवन्तिका से मुलाकत के दृश्य  प्रभाव छोड़ते हैं l गौर तलब पहलू ये है कि अंग्रेजों द्वारा हज़रत बेगम पर चरित्र का वही घिसा-पिटा इल्जाम लगाया गया जो कि आम भारतीय स्त्री को तोड़ देता है पर बेगम हज़रत ने उस जमाने में भी स्त्री को इन आरोपों के खिलाफ वो संदेश दिया जिसकी आज की स्त्री को भी दरकार है…

तुम्हारी सोच में हिन्दुस्तानी औरत एक कमजोर औरत है जो तुम्हारे बेबुनियाद और झूठे इल्जामों पर टूट जाएगी l लेकिन याद रखो हम उन औरतों से अलग हैं l ब्रिटिश हुकूमत को अब अपने गंदे लफ्जों की कीमत अदा करनी होगी l”

 

अंग्रेजों की कमर तोड़ देने के लिए वो एक समझौते के साथ नवाब शुजा-उ-ददौला द्वारा बसाये गए अफरीदी पठानों का सहयोग लेती है l चिन्हट  से ब्रिटिश सेना पर हमला करती है l उपन्यास में अंग्रेजों के सैनिक ठिकाने रेजिडेंसी को तबाह करने का विशद वर्णन है l

 

इसके अतिरिक्त  देश प्रेम के हवन  में आहुति देती डोरथी- आगा खाँ की प्रेम  कहानी हो या उदा और अका पासी की और उनका बलिदान पाठकों की आँखों में आँसू ही नहीं लाता उन्हें ये सोचने पर विवश भी कर देता है कि अंग्रेजों के कारण देश को क्या-क्या बलिदान करना पड़ा l डोरथी के अंतिम शब्द पाठक के लिए भूलना मुश्किल है l

इतना परिश्रम मत करो आगा l जो होना था हो चुका l मेरे शरीर के जिन हिस्सों पर जख्म नहीं है उन्हें प्यार से सहलाओ ल मुझे बहुत दर्द हो रहा है l मैं इस दर्द के ऊपर हमारे प्यार को महसूस करना चाहती हूँ l”

वहीं अका को विदा देती उदा कहती है कि

विदा अका, तुम्हारी कुर्बानी हम बेकार नहीं जाने देंगे l न तो तुम्हारा मुर्दा जिस्म देखकर रोए थे और ना अभी रो रहे हैं, और बाद में भी नहीं रोयेंगेl  कुर्बानी पर आँसून बहाना तुम्हारे जैसे बहादुर की बीबी को शोभा नहीं देता है l”

 

उपन्यास में लेखिका ने बेगम के बारे में बात करने साथ- साथ वाजिद अली शाह के साथ भी पूरा न्याय करने का प्रयास किया है l लेखिका 30 जुलाई 1822 में लखनऊ में जन्मे और 21 सितम्बर 1887 में मटियाबुर्ज में अपनी आखिरी सांस लेने वाले नवाब वाजिद अली शाह के 65 साल के जीवन को को अत्यंत मुश्किल से जुटाए गए साक्ष्यों के आधार पर एक अलग नजरिए से देखती है l जहाँ ज्यादातर इतिहासकार और लेखक अंग्रेजों के भ्रामक जाल का शिकार होकर नवाब वाजिद अली शाह को आराम-तलब, अय्याश, अक्षम और अयोग्य मानते हैं, तो वहीं उनका तर्क हैं कि कुछ नकारात्मक बिन्दुओं के बावजूद ये अवध की खुशकिस्मती थी जो उसे वाजिद अली शाह के रूप में अपना शासक मिला और पाठक के सामने एक अलग वाजिद आते हैं l

अपनी एक अलग दृष्टि के साथ उपन्यास जहाँ एक तरफ वाजिद अली शाह की स्‍त्रीलोलुपता का कारण उनके बचपन में जा कर बाल मनोविज्ञान के आधार पर बताने का प्रयास करता है l वहीं इस पर दृष्टि डालता है कि वाजिद ने अपने मिजाज की यह रईसी अपनी अम्मी किशवर से पाई थी l जो नवाब अमजद अली शाह की कई बेगमों में से प्रमुख थीं l तीन मौसमों के हिसाब से तीन अलग- अलग भवनों में रहने वाली किशवर को अपनी ऐश-आराम से ही फुरसत नहीं मिलती लिहाजा दासियों के साथ पलते वाजिद पर उनका ध्यान ही नहीं गया l जो बड़े होने पर उसके बनाए ‘परीखाना’ के रूप में सामने आता है l

 

वाजिद अली शाह का पूरा जीवन ही आम नवाबों से अलग और रचनात्मकता से भरा था l  कभी वाजिद अपने कभी शायरी करते हुए दिखते हैं तो कभी ठुमरी लिखतेl  एक पाठक के तौर पर हम कभी वाजिद अली शाह को उनके कत्थक प्रेम के लिए जानते हैं तो कभी साहित्य में अग्रणीय योगदानकर्ता के रूप में l परीखाना के बारे में एक जगह वो लिखती हैं कि…

परीखाना के अस्तित्व में आते ही वाजिद ने वहाँ कई तरह की गतिविधियां भी शुरू करवा दीं l परीखाना को उन्होंने कई खंडों में बाँट दिया l जो परियाँ नृत्य में निपुण थीं उनके लिए परिखाना का एक अलग खंड था तो संगीत की लगातार साधना के लिए अलग l नाटकों के लिए अलग l वाजिद का मन जब जिस कला में डूबा होत एवो उसे खंड में जाते और वहीं किसी परी के साथ रात बिताते l”

उपन्यास ये भी स्थापित करता है कि यदि अवध को वाजिद अली शाह न मिले होते तो आज हम जिस लखनऊ की नफासत और नजाकत की बात करते हैं उसका ये स्वरूप ना होता l

 

अंत में यही कहूँगी कि सन 1857 की क्रांति में भाग लेने वाली नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हज़रत महल की वीरता, धैर्य, रणनीति और जीवनानुभवों को लेखिका वीणा वत्सल सिंह ने काफ़ी शोध, पर्याप्त साक्ष्यों और उस काल में प्रवेश करने के बाद लिखा है l जिससे पाठक बेगम हज़रत महल के विराट व्यक्तित्व से रूबरू होता है और उसे आश्चर्य होता है कि निम्न वर्ग से उठकर इतनी सशक्त स्त्री के रूप में पहचान बनाने वाली बेगम हज़रत महल को इतिहास में वो स्थान क्यों नहीं मिल सका जिसकी वो हकदार थी l स्त्रियों के लिए बेगम हज़रत महल का जीवन बहुत प्रेरणादायक है l वीरता और जुनून के अतरिक्त उपन्यास में बेगम हज़रत महल के तमाम स्त्रियोचित गुणों पर प्रकाश डाला गया है l जंगी हुनर सीखने वाली वो ऐसी नायिका हैं जो जिस्मानी प्रेम के ऊपर रूहानी प्रेम को तरजीह देती हैं l इस वीर स्त्री का दिल भी तथाकथित इज्जत पर लागाए आरोपों से उसी तरह चोटिल होता ही जिस तरह से आम स्त्री का l लेकिन वो चुपचाप आँसू बहाने की जगह मुँह तोड़ जवाब देना जानती है l वाजिद अली शाह को लिखे पत्रों में मुहब्बत से भरी एक स्त्री क दिल खुल कर सामने आता है l उपन्यास का अंतिम खंड नेपाल में शरण ली एकाकी स्त्री के दर्द को पर्त दर पर्त खोलता है और वतन ना लौट पाने की उसकी कसक और  नवाब वाजिद अली शाह से ना मिल पाने का दर्द पाठक की आँखों से छलकता है l और उसकी अंतिम ठुमरी उसे उस पन्ने पर काफी देर रोक कर रखती है…

साथ दुनिया ने दिया और ना मुक्कदर ने दिया l

रहने जंगल ने कब दिया जो शहर ने ना दिया

एक तमन्ना थी कि आजाद वतन हो जाए

जिसने जीने ना दिया चैन से मरने ना दिया l

 

उपन्यास की सहज सरल भाषा में उर्दू की रवानी और “हम” का प्रयोग पाठक को उस काल में बहाए लिए जाता है l ऐतिहासिक उपन्यासों में जीवन के कुछ आम पहलू दिखाने के स्थान पर लेखक को कल्पना का सहारा लेना पड़ता है पर उपन्यास इतना सशक्त बना है कि सब कुछ सजीव सा पाठक की आँखों के आगे से गुज़रता है l आमतौर में उपन्यास में सहपात्रों की कथा में पाठकों की विशेष रुचि नहीं रहती पर इस उपन्यास की खास बात है कि सह पात्रों की कथा चाहें वो आगा खाँ और डोरथी की प्रेम कथा हो या उदा और अका पासी की या नरगिस और जावेद की पाठक उसमें और आगे जानने को उत्सुक रहता है l  उपन्यास का प्रवाह ऐसा है कि पाठक एक बार किताब उठाने के बाद इसे  छोड़ता नहीं है l

राजपाल प्रकाशन से प्रकाशित 192 पृष्ठ और 325 रुपये मूल्य वाले इस उपन्यास का कवर पृष्ठ आकर्षक है l  हमारे देश के इतिहास की इस वीर महत्वपूर्ण महिला पात्र को गुमनामी के अँधेरों से बचाने और उसे सहेजने में इस किताब को हमेशा याद किया जाएगा l

 

वंदना बाजपेयी

यह समीक्षा ऑफ लाइन पत्रिका कथाक्रम के “अक्टूबर -दिसंबर” 23 अंक में प्रकाशित हैं l

वंदना बाजपेयी

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गीता जयंती – करें श्रीमद्भगवद्गीता का रस पान https://www.atootbandhann.com/2023/12/%e0%a4%97%e0%a5%80%e0%a4%a4%e0%a4%be-%e0%a4%9c%e0%a4%af%e0%a4%82%e0%a4%a4%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b6%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%80%e0%a4%ae%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%ad.html https://www.atootbandhann.com/2023/12/%e0%a4%97%e0%a5%80%e0%a4%a4%e0%a4%be-%e0%a4%9c%e0%a4%af%e0%a4%82%e0%a4%a4%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b6%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%80%e0%a4%ae%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%ad.html#respond Fri, 22 Dec 2023 08:01:31 +0000 https://www.atootbandhann.com/?p=7754 यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे   जिस दिन श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था उस दिन मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी थी, इसीलिए इस दिन को गीता जयंती के रूप में मनाया जाता है। […]

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यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे

 

जिस दिन श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था उस दिन मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी थी, इसीलिए इस दिन को गीता जयंती के रूप में मनाया जाता है। आज के दिन लोग गीता सुनते हैं, सुनाते हैं, और बाँटते हैं | उनका उद्देश्य होता है कि गीता के ज्ञान को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाया जाए| ये पूरी तरह से एक ऐसा ग्रन्थ है जो ना सिर्फ आध्यात्मिक बल्कि , सफलता , रिश्तों और सही जीवन शैली की व्याख्या करता है |  ये पूरी तरह से एक ऐसा ग्रन्थ है जो ना सिर्फ आध्यात्मिक बल्कि , सफलता , रिश्तों और सही जीवन शैली की व्याख्या करता है |  ये पूरी तरह से एक ऐसा ग्रन्थ है, जो ना सिर्फ आध्यात्मिक बल्कि, सफलता, रिश्तों और सही जीवन शैली की व्याख्या करता है |गीता की यात्रा अततः तो आध्यात्मिक ही होती है पर शुरुआत में ही ये चमत्कार हो जाए ऐसा नहीं होताl पढ़ने वाला जिस अवस्था या मानसिक दशा में होता है उसी के अनुसार उसे समझता है l यह गलत भी नहीं है, क्योंकि बच्चों कि दवाइयाँ मीठी कोटिंग लपेट के दी जाति है l  पर जरूरी है जिज्ञासु होना और उसे किसी धर्मिक ग्रंथ की तरह ना रट कर नए नये अर्थ विस्तार देना l

गीता जयंती – करें श्रीमद्भगवद्गीता का रस पान

 

गीता की शुरुआत ही प्रश्न से होती है | प्रश्न और उत्तर के माध्यम से ही जीवन के सारे रहस्य खुलते जाते हैं | यूँ तो बचपन से ही मैंने गीता पढ़ी थी, पर पर गीता से मेरा विशेष अनुराग मेरे पिताजी के ना रहने पर शुरू हुआ | उस समय एक मित्र ने मुझे सलाह दी कि आप अपने पिता ने निमित्त करके गीता का १२ वां अध्याय रोज पढ़िए उससे आप को व् आपके पिता को उस लोक में शांति मिलेगी | उस समय मेरी मानसिक दशा ऐसी थी कि चलो ये भी कर के देखते हैं के आधार पर मैंने गीता पढना शुरू किया | मैंने केवल १२ वां अध्याय ही नहीं शुरू से अंत तक गीता को पढ़ा | बार –बार पढ़ा | कुछ मन शांत हुआ | जीवन के दूसरे आयामों के बारे में जाना | लेकिन जैसे –जैसे मैं गीता बार –बार पढ़ती गयी, हर बार कुछ नयी व्याख्या समझ में आयीं| दरअसल गीता एक ऐसा ग्रंथ है, जो पाठक के अंदर चिंतन कि प्रक्रिया प्रारंभ करती है l खुदी से ही खुदा मिलता है l एक आम समझ में गीता पुनर्जन्म की बात करती द्वैत दर्शन का ग्रंथ है पर आचार्य प्रशांत उसे अद्वैत से जोड़कर बहुत सुंदर व्याख्या करते हैं l

जैसे जब कृष्ण कहते हैं, “इन्हें मारने का शोक मत करो अर्जुन ये तो पहले से मर चुके हैंl तो द्वैत दर्शन इसकी व्याख्या सतत जीवन में इस शरीर के निश्चित अंत की बात करता है, परंतु आत्मा अमर है वो अलग- अलग शरीर ले कर बार -बार जन्म लेती है l पर अद्वैत इसकी व्याख्या चेतना के गिर जाने से करता है l  जिसकी चेतना गिर गई, समझो उसकी मृत्यु ही हो गई l उसे जीवित होते हुए भी मारा समझो l ऐसे के वाढ से या मर जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता l द्वैत और अद्वैत दोनों ही भारतीय दर्शन के सिद्धांत हैं, जैसे रुचिकर लगे समझ सकते हैं l दोनों की मंजिल एक ही है l आजकल संदीप माहेश्वरी / विवेक बिन्द्रा विवाद वाले विवेक जी ने इसकी व्याख्या कोरपेरेट जगत के अनुसार की थी lउनकी “गीता इन एकशन”  जितनी लोकप्रिय हुई उसकी आलोचना भी कुछ लोगों ने यह कह कर की, कि गीता की केवल एक और एक ही व्याख्या हो सकती है l पर मेरे विचार से जैसे भूखे को चाँद भी रोटी दिखता है, तो उसे रोटी ही समझने दो l लेकिन वो चाँद की सुंदरता देखना सीखने लगेगा l जब पेट भर जाएगा तो चाँद की सुंदरता को उस नजरिए से देखने लगेगा जैसा कवि चाहता है l लेखक, गुरु, ऋषि को हाथी नहीं होना चाहिए l जरूरी है जोड़ना जो जिस रूप से भी पढ़ना शुरू कर दे, अगर चिंतन करता रहेगा तो आगे का मार्ग खुलता रहेगा l

कुछ उद्धरणों के अनुसार इसे देखें, हम जिसे लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन कह कर अंग्रेजी पुस्तकों में पढ़ते हैं | हजारों साल पहले कृष्ण ने गीता में कहा है ….

यं यं वापि स्मरण भावं, त्यजयति अन्ते कलेवरं

जैसा –जैसा तेरा स्मरण भाव होगा तू  वैसा –वैसा बनता जाएगा |

यही तो है लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन … आप जैसा सोचते हो वैसा ही आपके जीवन में घटित होता जाता है | जो कहता है कि आप की सोच ही आप के जीवन में होने वाली घटनाओं का कारण है l जैसे आप ने किसी की सफलता देख कर ईर्ष्या करी  तो आप की सोच नकारात्मक है और आप को सफलता मिलेगी तो भी थोड़ी l लेकिन अगर किसी की सफलता देखकर दिल खुश होकर प्रेरणा लेता है तो मन में उस काम को करने के प्रति प्रेम होगा नाकि जीतने का भाव l फिर तो उपलबद्धियाँ भी बेशुमार होंगी l

इसी को तो फिल्म सरल लहजे में रणछोड़ दास छाछण उर्फ फुनशूक वाङडू समझाते हैं l कहने का अर्थ है विदेशी बेस्ट सेलर हों या देशी फिल्में … आ ये सारा ज्ञान गीत से ही रहा है l

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः

संशय से बड़ा कोई शत्रु नहीं है क्योंकि ये हमारी बुद्धि का नाश करता है | आज कितने लोग जीवन में कोई भी फैसला ले पाने में संशय ग्रस्त रहते हैं | असफलता का सबसे बड़ा कारण संशय ही है | मैं ये कर पाऊंगा या नहीं की उधेड़ बुन  में काम आधे मन से शुरू किये जाते हैं या शुरू ही नहीं किये जाते | ऐसे कामों में असफलता मिलना निश्चित है |

अब जरा इस श्लोक को देखिये …

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन |

बहुशाखा ह्यनन्ताश्र्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् || ४१ ||

किसी लक्ष्य को पाने के लिए इससे बेहतर ज्ञान और क्या हो सकता है | जब एक ही लक्ष्य पर पूरा ध्यान केन्द्रित हो सफलता तभी मिलती है | जिनकी बुद्धि कई शाखाओं में विभक्त है, जो पूरी तरह से एक लक्ष्य में नहीं लगे हैं उनकी सफलता संदिग्द्ध है | अभी भी देखिये शीर्ष पर वही पहुँचते हैं जिनकी बुद्धि एक ही काम में पूरी तरह से लगी है

ये तो मात्र कुछ उदाहरण हैं जब आप पूरी गीता पढेंगे तो आप को उस खजाने से बहुत कुछ मिलेगा | हाँ, कुछ चीजों को देशकाल से जोड़ कर भी देखना होगा l हर रचना में उसका देश काल तो होता ही है l आजकल थोड़ा बहुत इधर -उधर से कुछ पढ़कर खुद को आध्यात्मिक दिखाने का एक नया अहम फैशन में है, जैसे दूसरों से श्रेष्ठ हो गए l ज्ञान का अहंकार छोटापन है l श्रेष्ठ एक अनपढ़ भी हो सकता है l  इसलिए गीता पढ़कर दूसरों से ज्यादा श्रेष्ठ हो जाएंगे, आध्यात्मिक हो जाएंगे की जगह मैं ये कहना ज्यादा पसंद करूंगी कि इससे जीवन की समझ थोड़ी बढ़ेगी l धीरे -धीरे थोड़ी और…

वंदना बाजपेयी

वंदना बाजपेयी

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