emotional story Archives - अटूट बंधन https://www.atootbandhann.com/tag/emotional-story हिंदी साहित्य की बेहतरीन रचनाएँ एक ही जगह पर Thu, 05 Jan 2023 07:49:31 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.1.6 मां की सिलाई मशीन -कहानी दीपक शर्मा https://www.atootbandhann.com/2023/01/%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%b8%e0%a4%bf%e0%a4%b2%e0%a4%be%e0%a4%88-%e0%a4%ae%e0%a4%b6%e0%a5%80%e0%a4%a8-%e0%a4%95%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%80-%e0%a4%a6%e0%a5%80.html https://www.atootbandhann.com/2023/01/%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%82-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%b8%e0%a4%bf%e0%a4%b2%e0%a4%be%e0%a4%88-%e0%a4%ae%e0%a4%b6%e0%a5%80%e0%a4%a8-%e0%a4%95%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%80-%e0%a4%a6%e0%a5%80.html#respond Thu, 05 Jan 2023 07:49:31 +0000 https://www.atootbandhann.com/?p=7577 नारी जीवन बस दर्द का पर्याय है या बाहर निकलने का कोई रास्ता भी है ? बचपन में बड़े- बुजुर्गों के मुँह से सुनती थी,  ” ऊपर वाला लड़की दे तो भाग्यशाली दे ” l और उनके इस भाग्यशाली का अर्थ था ससुराल में खूब प्रेम करने वाला पति- परिवार मिले l नायिका कुंती की […]

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नारी जीवन बस दर्द का पर्याय है या बाहर निकलने का कोई रास्ता भी है ? बचपन में बड़े- बुजुर्गों के मुँह से सुनती थी,  ” ऊपर वाला लड़की दे तो भाग्यशाली दे ” l और उनके इस भाग्यशाली का अर्थ था ससुराल में खूब प्रेम करने वाला पति- परिवार मिले l नायिका कुंती की माँ तो हुनर मंद थी, आत्म निर्भर भी, फिर उसका जीवन दुखों के दलदल में क्यों धंसा था l  वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी ‘मां की सिलाई मशीन’ एक ऐसी कहानी है जिसे मैंने दो-तीन बार बार पढ़ा और हर बार अलग अर्थ निकले l एक आर्थिक रूप से स्वतंत्र स्त्री का भी आर्थिक शोषण हो सकता है l बाहर से दिखने वाले एक सामान्य संस्कारी परिवार के बीच अनैतिक रिश्ते अपनी पूरी ठसक के साथ चल सकते हैं l मारितयु से परे भी कुछ है जो मोह के धागों संग खींचा चला आता है l आइए पढे एक ऐसी कहानी जो अपने पूरे कहानी पन के साथ पाठक के मन में कई सावाल छोड़ जाती है और दर्द की एक गहरी रेखा भी…

मां की सिलाई मशीन -कहानी दीपक शर्मा

 

मां की सिलाई मशीन

              वरर्र ? वरर्र ?

सूनी रात के इस सुस्त अंधेरे में ?

डयोढ़ी में सो रही मैं जग गयी।

व्हिरर ! व्हिरर्र !!

फिर से सुना मैं ने ? मां की मशीन की दिशा से ?

धप ! मैं उठ बैठी । गली के खम्भे वाली बत्ती की मन्द रोशनी में मशीन दिख रही थी, लेकिन मां नहीं ।

वह वहां हो भी नहीं सकती थी। वह अस्पताल में थी। ट्रामा सेन्टर के बेड नम्बर तेरह पर, जहां उसे उस दिन दोपहर में पहुंचाया गया था। सिर से फूट रहे उनके लहू को बन्द कराने के वास्ते। बेहोशी की हालत में।

मशीन के पास मैं जा खड़ी हुई। उस से मेरा परिचय पुराना था। दस साल की अपनी उस उम्र जितना। मां बताया करतीं पहले मुझे गोदी में लिए लिए और फिर अपनी पीठ से सटाए सटाए उन्होंने अपनी कुर्सी से कितनी ही सिलाई पूरी की थी। मां टेलर थीं। खूब सिलाई करतीं। घर की, मुहल्ले की, शहर भर की।

मां की कुर्सी पर मैं जा बैठी। ठीक मां के अन्दाज़ में। ट्रेडिल पर दाहिना पैर थोड़ा आगे। बायां पैर थोड़ा पीछे।

क्लैन्क, क्लैन्क, क्लैन्क………

बिना चेतावनी दिए ट्रेडिल के कैम और लीवर चालू हो लिए।

फूलदार मेरी फ़्राक पर। जो मशीन की मेज़ पर बिछी थी। जिस की एक बांह अधूरी सिलाई लिए अभी पूरी चापी जानी थी।

और मेरे देखते देखते ऊपर वाली स्पूल के गिर्द लिपटा हुआ धागा लूप की फांद से सूई के नाके तक पहुंचने लगा और अन्दर वाली बौबिन, फिरकी, अपने गिर्द लिपटा हुआ धागा ऊपर ट्रैक पर उछालने लगी।

वरर्र……वरर्र……

सर्र……..सर्र

और मेरी फ़्राक की बांह मेरी फ़्राक के सीने से गूंथी जाने लगी, अपने बखियों के साथ सूई की चाप से निकल कर आगे बढ़ती हुई……..

खटाखट…..

“कौन ?’’ बुआ की आवाज़ पहले आयी। वह बप्पा की सगी बहन न थीं। दादी की दूर-दराज़ की भांजी थी जो एक ही साल के अन्दर असफल हुए अपने विवाह के बाद से अपना समय काटने के लिए कभी दादी के पास जा ठहरतीं और कभी हमारे घर पर आ टपकतीं।

“कौन ?’’ बप्पा भी चौंके।

फट से मैं ने अपने पैर ट्रैडिल से अलग किए और अपने बिस्तर पर लौट ली।

मशीन की वरर्र…..वरर्र, सर्र…..सर्र थम गयी।

छतदार उस डयोढ़ी का बल्ब जला तो बुआ चीख उठी, “अरे, अरे, अरे…….देखो…देखो…. देखो…..इधर मशीन की सुई ऊपर नीचे हो रही है और उसकी ढरकी आगे-पीछे। वह फ़्राक भी आगे सरक ली है….’’

जभी पिता का मोबाइल बज उठा।

“हलो,’’ वह जवाब दिए, ’’हां। मैं उस का पति बोल रहा हूँ…..बेड नम्बर तेरह….. मैं अभी पहुंच लेता हूं…..अभी पहुंच रहा हूं…. हां- कुन्ती…..कुन्ती ही नाम है….’’

“’मां ?’’ मैं तत्काल बिस्तर से उठ बैठी।

               “हां…”बप्पा मेरे पास  खिसक आए।

“क्या हुआ ?’’ बुआ ने पूछा।

“वह नहीं रही, अभी कुछ ही मिनट पहले। नर्स ग्लुकोज़ की बोतल बदल रही थी कि उसकी पुतलियां खुलते खुलते पलट लीं…’’

“अपना शरीर छोड़ कर वह तभी सीधी इधर ही आयी है, ’’बुआ की आवाज़ दुगुने वेग से लरज़ी, “अपनी मशीन पर….’’

“मुझे अभी वहां जाना होगा,’’ बप्पा ने मेरे कंधे थपथपाए, ’’तुम घबराना नहीं।’’

और उनके हाथ बाहर जाने वाले अपने कपड़ों की ओर बढ़ लिए। अपने कपड़ों को लेकर  वह बहुत सतर्क रहा करते। नयी या ख़ास जगह जाते समय ताजे़ धुले तथा इस्तरी किए हुए कपड़े ही पहनते। वह ड्राइवर थे। अपने हिसाब से, कैज़्युल। अवसरपरक। कुछ कार-मालिकों को अपना मोबाइल नम्बर दिए रहते, जिन के बुलाने पर उनकी कार चलाया करते। कभी घंटों के हिसाब से। तो कभी दिनों के।

“अभी मत जाएं,’’ बुआ ने डयोढ़ी की दीवार पर लगी मां की घड़ी पर अपनी नज़र दौड़ायी, “रात के दो बज रहे हैं। सुबह जाना। क्या मालुम मरने वाली ने मरते समय हम लोग को जिम्मेदार ठहरा दिया हो !’’

“नहीं। वह ऐसा कभी नहीं करेगी।

बेटी उसे बहुत प्यारी है। नहीं चाहेगी, उस का बाप 

जेल काटे और वह इधर उधर धक्का खाए…..’’

मैं डर गयी। रोती हुई बप्पा से जा चिपकी।

मां की मशीन और यह डयोढ़ी छोड़नी नहीं थी मुझे।

“तुम रोना नहीं, बच्ची,’’ बप्पा ने मेरी पीठ थपथपायी, “तुम्हारी मां रोती थी कभी ?’’

“नहीं,’’ मेरे आंसू थम गए।

“कैसे मुकाबला करती थी ? अपने ग्राहक-ग्राहिकाओं से ? पास पड़ोसिनों से ?  मुझ से ? बुआ से ? अम्मा से ?’’

यह सच था। ग्राहिकाएं या ग्राहक अगला काम दें न दें, वह अपने मेहनताने पर अड़ी रहतीं। पड़ोसिनें वक्त-बेवक्त चीनी-हल्दी हाज़िर करें न करें, वह अपनी तुनाकी कायम रखतीं। बप्पा लोग लाख भड़के-लपकें वह अविचल अपनी मशीन चलाए रखतीं।

“हां…’’ मैं ने अपने हाथ बप्पा की बगल से अलग कर लिए।

“अस्पताल जाना बहुत ज़रूरी है क्या ?’’ बुआ ने बप्पा का ध्यान बटांना चाहा। 

“जरूरी है।बहुत जरूरी है।कुन्ती लावारिस नहीं है। मेरी ब्याहता है….’’

इधर बप्पा की स्कूटी स्टार्ट हुई, उधर मैं मशीन वाली कुरसी पर जा बैठी। 

मां को महसूस करने।

मशीन में मौजूद उनकी गन्ध को अपने अन्दर भरने।

उन की छुअन को छूने।

“चल उठ,’’ तभी डयोढ़ी का बल्ब बुझा कर बुआ ने मेरा सिर आन झटका, “इधर मत बैठ। इस मशीन से तेरी मां का मोह अभी छूटा नहीं। आस पास इस के गिर्द वह इधर ही कहीं घूम रही है….’’

“हां,’’ मेरी रूलाई फिर छूट ली, ’’मां यहीं हैं। मैं यहीं बैठूगी….’’

“जभी तो बैठेगी जब मैं तुझे यहां बैठने दूंगी,’’ बुआ ने मेरे कंधों को टहोका, “चल उठ। उधर मेरे साथ चल। थोड़ा सुस्ताएंगी। कल का दिन क्या मालूम क्या नया दिखलाने वाला है !’’

मैं उसी दम उन के साथ चल पड़ी । पिछली दोपहर मां के संग उन की धक्का-मुक्की मैं भूली न थी।

 

बखेड़ा खड़ा किया था बप्पा द्वारा दीवाली के उपहार-स्वरूप लायी गयी दो साड़ियों ने।

“कुन्ती, इधर आओ तो,’’ बप्पा ने पहले मां को पुकारा था, “तुम दोनों के लिए साड़ी लाया हूं…’’

“दोनों ? मतलब ?’’ मां उस समय मेरी वही फूलदार फ़्राक तैयार कर रही थीं, जिसे वह मुझे दीवाली पर पहनाने का इरादा रखती थीं।

“मतलब मैं समझाए देती हूं,’’ रसोई में खाना बना रही बुआ तुरन्त वहां पहुंच ली थी, “एक तेरे लिए होगी, भौजायी, और एक मेरे लिए….’’

“अब तुम इतना अच्छा खाना हमें बना-खिला रही हो तो हम क्या तुम्हारे लिए कुछ न लिवाएंगे ?’’ बप्पा ने बुआ से लाड़  जताया था।

दीवाली नज़दीक होने के कारण उन दिनों मां के पास सिलाई को काम ज़्यादा था और बुआ ही रसोई देखा करती थीं। पूरे चाव से । बप्पा को अच्छा खाने का जितना शौक था, उतना ही शौक बुआ को अच्छा खिलाने का था।

“देखें तो ।’’ बुआ बप्पा के उस पैकेट पर जा झपटी थी जो बप्पा के हाथ ही में रखे रहा था।

“कुन्ती, तुम इधर आओ तो,’’ बप्पा ने मां को दोबारा पुकारा था।

“मैं नहीं आ सकती, ’’ पीठ किए मां अपनी कुरसी पर जमी रही थीं।

“आज तो भूत उतार दो, कुन्ती,’’ बप्पा ने मनुहार दिखाया था,’’ इधर आ कर देखो तो…..’’

बप्पा जब भी मां को मशीन पर मगन पाते, कहते, कुन्ती पर भूत सवार है। ऐसा अकसर होता भी था, मां जब मशीन पर होतीं मानो किसी दूसरे धरातल पर जा पहुंचतीं, किसी अन्य ग्रह पर।

“मुझे यह फ़्राक आज ज़रूर पूरी करनी है, ’’ मां ने मशीन चालू रखी थी।

“ऐसा क्या है ?’’ बुआ ने पैकेट वाली दोनों साड़ियां डयोढ़ी वाले इसी तख़्त पर बिछा दी थीं, ’’मैं तो देखूंगी ही……’’

दोनों के फूल एक जैसे थे।

अन्तर सिर्फ़ रंग का था।

एक की ज़मीन हरी थी और फूल, लाल। दूसरी की ज़मीन लाल थी और फूल, हरे।

उत्साह से भरी भरी बुआ दोनों को तुरन्त खोल बैठी थी।

बुआ के संग मैं ने भी देखा, हरे फूलों वाली साड़ी के दूसरे सिरे पर लाल रंग का ब्लाउज़ था और लाल फूलों वाली साड़ी के संग हरा।

“मैं हरे फूल नहीं पहनने वाली,’’ बुआ मचलीं, “मैं तो फूल भी लाल पहनूंगी और ब्लाउज भी लाल….’’

“इतना ठिनकती क्यों है ? तू दोनों ही पहन ले। मेरे पास अपनी कमाई बहुतेरी है। कुछ भी खरीद लूं….’’ मां तैश में आ कर बोली थीं।

“तुम मेरी लायी चीज़ नहीं देखना पहनना चाहती तो मत देखो – पहनो,’’ बप्पा को अपनी लायी साड़ियों का यह अनादर चुभ गया था, ’’वह दुकानदार मुझे पहचानता है। मैं उसे एक साड़ी वापस कर आऊंगा….’’

“मगर फिर मैं क्या करूंगी ?’’ बुआ ने दोनों साड़ियां अपनी छाती से चिपका लीं,”एक के फूल  मुझे पसंद हैं तो दूसरी का ब्लाउज़….’’

“तो तुम दोनों रख लो। कुन्ती ने कहा भी है वह अपनी कमाई से अपनी साड़ी खरीदेगी,’’ बप्पा ने मां को और चिढ़ाया था।

“अच्छी बात !’’ बुआ उछली थी, ’’फिर तो मैं लाल ब्लाउज ही पहले तैयार करती हूं। भौजायी नहीं सिएंगी तो मैं सी लूंगी। मशीन चलानी मुझे भी आती है-’’

“यह मशीन तुम से चलेगी ही नहीं,’’ मां वहीं से ठठायी थीं, “यह मेरी मशीन है। सिर्फ़ मेरे 

हाथ पहचानती है । सिर्फ़ मेरे पैर।’’

वह मशीन मेरी नानी और मेरी मां की सांझी कमाई से खरीदी गयी थी। नयी और अछूती। विधवा हो जाने पर, तीस साल पहले, जिस बंगले के मालिक-मालकिन व उनकी तीन बेटियों की सेवा-टहल मेरी नानी ने पकड़ी थी उस सेवा-टहल में मेरी मां भी शामिल रही थीं । अपने चौदहवें साल से अपने उन्नीसवें साल तक। जिस साल वह बप्पा से ब्याही गयी थीं ।

“कैसे नहीं चलेगी ?’’ बुआ ने अपने हाथ नचाए थे, “जरूर चलेगी…’’

“नहीं चलेगी,’’ मां ने दोहराया था। 

“भौजायी मुझे मशीन नहीं देगी तो मेरे ब्लाउज़ का क्या होगा ? बाहर बेगाने किसी दरज़ी से सिलवाना पडे़गा ? भौजायी को आप मशीन से उठा नहीं सकते क्या ?’’ बुआ ने बप्पा को तैश दिलायी थी ।

“मैं नहीं उठने वाली,’’ मां फिर चिल्लायी थीं, “तुम्हारी नाम की यह बहन तुम्हें छू सकती है, मगर मेरी मशीन को नहीं…’’

“नहीं उठोगी क्या ?’’ बप्पा और बुआ दोनों मां की कुरसी तक जा पहुंचे थे।

“नहीं,’’ मां दोहराए थीं।

“कैसे नहीं उठोगी ? मशीन तो क्या, तुम्हें तो मैं इस जहान से उठा सकता हूं…’’

“जहान से बेशक उठा सकते हो,’’ मां ने बप्पा को ललकारा था, ’’लेकिन मुझे मेरी मशीन से अलग न कर पाओगे…’’

“अपनी मालिकी फड़फड़ाती है ?’’ बप्पा और बुआ ने फिर एक साथ मां को कुरसी से दूर जा धकेला था और मां का सिर दीवार से जा टकराया था।

 

बप्पा देर शाम में लौटे।

आते ही मुझे बुलाए, ’’तुम से एक प्रौमिस लेना है….’’

“हां,’’ बप्पा की प्रतीक्षा में वह पूरा दिन मैं ने घड़ी के साथ बिताया था, उसकी बढ़ती का मिनट मिनट गिनते हुए। 

“अपनी नानी से कभी मत कहना तुम्हारी मां को चोट हम से लगी थी-’’

“नहीं कहूंगी…’’

नानी मेरे सामने घूम गयीं:

मां को अपने अंक में भरती हुईं, उन की गालें चूमती हुईं….

मुझ से अपने लाड़ लड़ाती हुईं- लूडो से, सांप-सीढ़ी से, समोसे से, गुलाब जामुन से…

बप्पा को उन की पसन्द के कपड़े दिलाती हुईं…..

हंसती हुईं…..

बतियाती-गपियाती हुईं………

“मरी कुछ बोल गयी क्या ?’’ बुआ ने शंका जतलायी।

“नहीं,’’ बप्पा ने कहा, ’’उस की बेहोशी आखि़र तक नहीं टूटी…’’

“उस की मां को कुछ बतलाया ?’’

“उस के सिवा कोई चारा ही न था। वरना मैं अकेले हाथ कैसे वह सब निपटा पाता? अस्पताल का बिल ? दाह-संस्कार का विधि-विधान ?’’

“निपट गया सब ?’’ बुआ पूछी।

“उस की मां ने सब किया करवाया । अपने मालिक लोग की मदद ले कर। उसकी मालकिन तो बल्कि कुन्ती का सुन कर रोयी भी…’’

“अरे !’’ बुआ हैरान हुईं।

“और मालिक हम दोनों के साथ अस्पताल गए। अपनी गाड़ी में। वहां के बड़े डाक्टर से मिले। अस्पताल का बिल चुकाए। एम्बुलैन्स का इन्तज़ाम करवाए।

“यह तो किसी फ़िल्म की मानिन्द है,’’ बुआ अपनी उंगलियां चबाने लगीं, ’’और कुन्ती की मां तनिक चीखी-चिल्लायी नहीं ?’’

“तनिक नहीं। पूरा टाइम अपने को सम्भाले रही। अस्पताल में । एम्बुलैन्स में। अपने क्वार्टर पर। कुन्ती को तैयार करते समय। शमशान घाट पर। सभी जगह बुत बन कर अपने हाथ-पैर चलाती रही….’’

“इधर घाट पर तुम दोनों अकेले गए ? और कोई दूसरा जन न रहा ?’’

“मालकिन रहीं । एकदम चुप और संजीदा। फिर अपने किसी कर्मचारी को कुछ समझा कर चली गयीं। कुन्ती की मां को अपने साथ ले जाती हुईं….’’

“ऐसे लोग भी दुनिया में होते हैं क्या ?’’

“क्या नहीं होते ? और होते न भी हो तो ऐसे बनाते बनाते बन जाया करते हैं। इन मां बेटी ने उन मालिक-लोग की जो सेवा-टहल कर रखी है, उस का फल तो फिर इन्हें मिलना ही था। साथ में उन लोग को मेरा लिहाज़ भी रहा। मौके-बेमौके मैं ने जो उन लोग के कितने ही मेहमान और सामान ढोए और पहुंचाए हैं…’’

मां और बप्पा की मुलाकात उन्हीं किन्हीं दिनों में हुई थी। जो फिर दोस्ती से होती हुई शादी में जा बदली थी।

 

वरर्र……वरर्र……

उस रात मशीन ने मुझे फिर पुकारा।

मेरे पैर ट्रेडिल पर फिर जा टिके और हाथ सूई के नीचे दबी रखी अपनी फ्राक पर।

ठीक मां के अन्दाज़ में।

वरर्र……वरर्र…..

व्हिरर…….व्हिरर……..

क्लैन्क……क्लैन्क…..

मशीन की चरखी, मशीन की फिरकी, मशीन की सूई सब हरकत में आती चली गयीं….

अधूरी सिली मेरी फ्राक को आगे सरकाती हुईं……

उसके सीने और उस की बांह पर नए बखिए उगाहती हुईं…..

जभी डयोढ़ी का बल्ब जल उठा और बप्पा मुझे मशीन पर देख कर भौचक गए, “इधर तू बैठी है ?’’

“हां,’’ मैं घबरा गयी ।

“तू यह मशीन चला लेती है ?’’

“हां। मां ने मुझे सब सिखा रखा है,’’ मैं ने हांका।

“सच ?’’ बप्पा की आवाज में एक नयी ही उमंग आन उतरी, मानो कोई पते की बात पता चली हो।

“यह सिलाई के लिए आए सभी कपड़े मैं सी सकती हूं,’’ मशीन पर मैं ज़्यादा से ज़्यादा समय बिताना चाहती । मां के साथ। 

“बढ़िया, बहुत बढ़िया…’’

मेरी सिलाई का सिलसिला फिर पूरी तरह से चल पड़ा। बप्पा के गुणगान के साथ। मुहल्ले वालों की वाहवाही के साथ। शहर वालों की शाबाशी के साथ।

इन में से कोई नहीं जानता मशीन अपने चक्कर मां की बदौलत पूरे करती है, मेरी बदौलत नहीं। सिवा बुआ के। क्योंकि दो एक बार जब भी वह इस पर बैठीं, मां ने उन पर हमला बोल दिया: सूई उनकी उंगलियों में धंसाते हुए, फिरकियों के धागे उलझाते हुए, ट्रैडिल जाम करते हुए। परिणाम, वह जान गयीं मां अपनी इस मशीन पर अपनी मालिकी अभी भी कायम रखे रही थी ।

 

दीपक शर्मा

दीपक शर्मा

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गईया-मईया- पी. शंभू सिंह जी की कहानी https://www.atootbandhann.com/2021/11/%e0%a4%97%e0%a4%88%e0%a4%af%e0%a4%be-%e0%a4%ae%e0%a4%88%e0%a4%af%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a5%80-%e0%a4%b6%e0%a4%82%e0%a4%ad%e0%a5%82-%e0%a4%b8%e0%a4%bf%e0%a4%82%e0%a4%b9-%e0%a4%9c%e0%a5%80-%e0%a4%95.html https://www.atootbandhann.com/2021/11/%e0%a4%97%e0%a4%88%e0%a4%af%e0%a4%be-%e0%a4%ae%e0%a4%88%e0%a4%af%e0%a4%be-%e0%a4%aa%e0%a5%80-%e0%a4%b6%e0%a4%82%e0%a4%ad%e0%a5%82-%e0%a4%b8%e0%a4%bf%e0%a4%82%e0%a4%b9-%e0%a4%9c%e0%a5%80-%e0%a4%95.html#comments Fri, 05 Nov 2021 09:25:48 +0000 https://www.atootbandhann.com/?p=7271   गाय    की तुलना अक्सर स्त्री से की जाती है | साम्यता भी तो कितनी है दोनों में गईया हो या स्त्री ..  जिस खूँटे से बाँध दी जाती है आजन्म उसी से बँधी    रहती है | चाहे सूखा घास -फूस ही खाने को मिलता रहे पर पूरे घर की सेवा करने में […]

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  गाय    की तुलना अक्सर स्त्री से की जाती है | साम्यता भी तो कितनी है दोनों में गईया हो या स्त्री ..  जिस खूँटे से बाँध दी जाती है आजन्म उसी से बँधी    रहती है | चाहे सूखा घास -फूस ही खाने को मिलता रहे पर पूरे घर की सेवा करने में जी जान से करती रहती हैं |  पर पितृसत्ता दोनों का ही दोहन करने में कोई कसर नहीं रख छोड़ती | वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय शंभू पी सिंह जी भी अपनी कहानी में गईया मैया और स्त्री के एक ऐसे दर्द की तुलना करते हैं ..अपनी प्रकृति में भिन्न होते हुए भी जिनमें साम्य  है, वो है एक माँ का दर्द |पितृसत्ता अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए जहँ गईया से बछिया चाहती है वहीं स्त्री से पुत्र | और अनचाही संतान का एक ही हश्र , चाहें वो जन्म से पहले हो या बाद में |  पढ़ते हैं .. दो माओं के दर्द को एक तन्तु में पिरोती मार्मिक कहानी ..
कहानी की समीक्षा यू ट्यूब पर देखें …

गईया मैया 

“रामायणी मैं जा रहा हूं खेत पर। आने में लेट होगी, तो गईया को सानी-पानी दे देना। उसका अंतिम महीना चल रहा है, इस बार बाछी हो जाए तो एक और गाय तैयार हो जायगी। अब ये बूढ़ी भी हो गई, समझो अंतिमें बियान है।” रामायणी को हिदायत करते, कंधे पर गमछा रख, गनौरी चला गया खेत पर। रामायणी मुंह में आंचल दबाए चुपचाप सुनती रही। गाय की इतनी चिंता है। दो दिन से कह रही हूं, एक बार डॉक्टर को दिखा दो, लेकिन मेरी बात का कोई असर नहीं। रामायणी ने टेलीविजन पर देखा है, डॉक्टर बोल रही थी कि गर्भ के बाद हर महीने जांच करानी चाहिए, सास उसे लेकर अस्पताल जाती नहीं, अकेले जाने देती नहीं और रोपनी का टाइम है, तो गनौरी को फुर्सत ही नहीं है। कुछ भी हो इस बार वह लिंग जांच तो नहीं करवाएगी। सास के दबाव में आकर तो दो बच्चे की हत्या कर चुकी है। इस बार जो भी हो, उसका भी अंतिमें होगा। रामायणी का यह तीसरा महीना चल रहा है। चार बच्चे तो जन चुकी, चारों बेटी। दो जिंदा है, दो को आने ही नहीं दिया। गर्भ में ही पता लग गया। अल्ट्रासाउंड की जांच में, दोनों बार लड़की ही थी। उसे तो कुछ भी नहीं पता, कब, क्या, क्यों किया, ये सब।जिसे आना है उसे आने दे, नहीं तो हमेशा के लिए टांका लगवा दे। अब बार-बार की जांच-पड़ताल। कहीं लड़की निकल गई तो दवा देकर अंदर ही मार देना कोई अच्छी बात थोड़े ही न है। मर कर बची थी रामायणी पिछले साल। इतना खून निकला कि लगता था अब दम ही निकल जाएगा। गनीमत ये हुई बड़े भैया आ गए। स्थिति देख तुरत एम्बुलेंस मंगाया गया और शहर के अस्पताल में भर्ती करा दिए, तो जान बची। मरद तो कुछ सुनता ही नहीं। बस रात में शरीर नोचने आ जाता है। उसकी किस्मत खोटी थी कि इस घर ब्याही गई। भैया चाहते तो किसी नौकरी वाले घर भी भेज सकते थे। पिता जिंदा होते तो यहां कभी नहीं ब्याहते। कितना प्यार करते थे। रोज बाबूजी को रामायण की चौपाई पढ़ते सुनाती थी।

पांच साल की उम्र में ही वह रामायण की चौपाई पढ़ने लग गई थी। तभी उन्होंने मेरा नाम रामायणी रख दिया। जहां भी जाते मुझे साथ ले जाते। लोगों को बैठाकर चौपाई सुनवाते थे। गर्व करते थे मुझपर। भैया तो सात साल बड़े हैं। पिता जैसा सम्मान देती रही है। भैया तो चाहते भी थे कि थोड़ा अधिक दहेज दे देने से नौकरी वाला लड़का मिल जाएगा, लेकिन भाभी ने एक न सुनी। बस एक ही रट लगाती रही, तीन बहन है तेरी। एक का ब्याह नौकरी वाले के घर करोगे, तो बाकी का भी सोच लो। अकेले कमाने वाले, सात खाने वाले हैं। एक अदना क्लर्क की नौकरी से क्या कर सकते हो। जो भी करो सोच समझकर करो। बाबूजी के गुजरने से पहले भाई की नौकरी हो गई थी। खेती-पथारी से तो साल भर खाने का अनाज भी नहीं हो पाता था। भाभी भैया को हमेशा घर की बाकी जिम्मेदारियों का एहसास कराती रहती। कुछ नहीं तो अपने बच्चों के भविष्य संवारने की बात करना नहीं भूलती। यह सुन भैया चुप हो जाते।

रामायणी किसी को दोष नहीं देती। सब किस्मत की बात है। जिसकी किस्मत जहां ले जाय, जाना ही पड़ेगा। आ गई इस घर में। साथ में भैया ने एक कर्यकी बाछी भी लगा दिया। आज वही कर्यकी बाछी, गाय बन गई है। इस घर में रामायणी और कर्यकी की हालत एक जैसी है। कर्यकी ने भी पिछले छह साल में चार बच्चा दे चुकी है। दुधारू गाय है। साल में नौ महीने दूध देती है। गाभिन होने के अंतिम तीन महीना ही दम मारती है। उसकी भी किस्मत रामायणी जैसी ही है। उसके चार बच्चों में पहली ही बाछी हुई, बाद का तीनों बाछा हुआ। दो को तो एक साल बाद ही कसाई के हवाले कर दिया। तीसरे को भी हटाने की तैयारी हो रही है। पता नहीं उतने छोटे बछड़े का कसाई क्या करता है। बछड़े के जन्म को लेकर भी रामायणी को ही सास का उलाहना सुननी पड़ती है। हर बात पर एक ही रट लगाए रहती है, जैसी कुलछिन अपने है, वैसी ही अपने साथ बाछी भी लेकर आई। अपने खाली बेटिये जनती है, तो नैहर से लाई बछिया खाली बछड़ा ही बियाती है। बाछी होती, तो एक साल के अंदर गाय बन जाती। इतनी दुधारू गाय है कि पचास हजार से कम में नहीं बिकती। बाछा तो अब किसी काम का रहा नहीं। हल से खेत जोतने का समय बीत गया। पहले हल और गाड़ी में बैल की जरूरत होती थी, तो लोग बछड़ा को पालते थे। अब खेत की जोताई ट्रैक्टर से होने लगी और बैलगाड़ी की जगह मोटर गाड़ी ने ले ली, तो भला अब बैल को कोई क्यों खरीदेगा। जब तक गईया दूध देती है, तभी तक बछड़ा दिखता है। जैसे ही उसकी कर्यकी गाय गाभिन होती है,  बेचारा बछड़ा कसाई के हवाले कर दिया जाता है।

पिछ्ली बार भी तो पांच सौ रुपये में ही बछड़ा को कसाई के हवाले कर दिया था। रामायणी को तो ठीक-ठीक नहीं पता, लेकिन लोग कहते हैं कि कसाई बछड़े को मारकर उसका मांस और खाल बेच देता है। बछड़े के खाल की मांग सुनते हैं बहुत होती है। मुलायम चमड़ा का अधिक दाम मिलता है। बड़े-बड़े पैसे वाले मुलायम खाल से बने जूते पहनते हैं। आदमी कितना निर्दयी हो गया है। मासूम बछड़े के बने खाल से बने जूते को शान से पहनते हैं। जबसे ब्याह होकर रामायणी आयी है, उसके दो साल बाद से ही सास के ताने सुन रही है। कभी खुद के बेटी जनने पर, तो कभी गाय के बछड़ा बियाने पर। हालांकि उसे अपने पति से कोई शिकायत नहीं है। बहुत प्यार करता है उसे। उसी का तो नतीजा है कि अभी सात साल भी नहीं हुआ है शादी को और ये पांचवां बच्चा आने वाला है। अब लड़का नहीं हुआ तो इसमें रामायणी का क्या दोष। डॉक्टर के पास भी तो ले गई थी उसकी सास। डॉक्टर ने तो दो टूक कह दिया, डॉक्टर के पास बेटा पैदा करने की कोई दवा नहीं है। ये सब ऊपर वाले की मर्जी है। फिर भी उसकी सास यह मानने को तैयार नहीं कि इसमें रामायणी का कोई दोष नहीं है। बेटा नहीं होने को रामायणी भी अपना ही दुर्भाग्य मानती है। उसी के साथ तो उसकी सहेली सरीतिया का ब्याह हुआ था। अभी उसको दो बेटा, एक बेटी है। टांका भी लगवाकर निश्चिंत हो गई, एक है मेरी किस्मत। जो होना है इस बार होने देगी, इसके बाद अब बच्चा आने भी नहीं देगी। हर बार मौत के मुंह से ही बाहर निकलती है।

सोचते हुए अचानक रामायणी को याद आया, गाय को सानी-पानी तो दी नहीं। गनौरी हिदायत कर गया था। बाल्टी उठाई और घर के पीछे बथान पर चली गई। कुआं भी पास ही था। बाल्टी कुएं में डाली ही थी कि भाभी-भाभी पुकारते चचेरी ननद ललिता आ गई।

“क्या कर रही हैं भाभी। पानी भर रही हैं। लाइये मैं भर देती हूं।” कहते हुए कुएं में डाली बाल्टी की रस्सी हाथ से छीन ली।

“क्या कीजिएगा पानी। रसोई में पहुंचा दूं।” ललिता को लगा शायद रसोई के लिए पानी चाहिए।

“अरे नहीं। गईया को सानी-पानी देना है। आपके भैया सुबह ही खेत पर चले गए। आज रोपनी लगी है। खेत में पानी का अकाल है, तो जैसे-तैसे सब जल्दी-जल्दी बीहन गांथ(रोप) दे रहा है। रोपनी हो जाएगा तो थोड़ी-बहुत बर्षा से भी कुछ न कुछ धान हो ही जाएगा। बोलकर गए थे कि लेट होगा तो सानी दे देना। हम तो भुलिए गए थे। अभी गईया की आवाज कान में आई, तो याद आया, बेचारी को भूख लगी होगी। नौंवा महीना है। गाय, माय तो एक जैसी होती है न। दो जान है, खाना नहीं मिलेगा, तो बच्चा तंदुरुस्त कैसे होगा।”

“अरे! वाह भाभी, गईया की तो बड़ी चिंता है। थोड़ी अपनी भी किया करिए। लाइये मैं सीधे नाद(सीमेंट का बना कड़ाही नुमा) में ही पानी डाल देती हूं।” कहते हुए ललिता खूंटे से बंधे पास के नाद में पानी डाल दी।

“कितना पानी देती हैं भाभी ?”

“एक और डाल दो लाली।”

“कब बच्चा देगी गईया भाभी।” ललिता कुएं की ओर बढ़ गई।
रामायणी भुसखार से थोड़ा चना, थोड़ा गेहूं का भूसा टोकड़ी से नाद में डाल, पानी में मिलाने लगी।

“देखो न इसका आजकल ही चल रहा है। बाछा देगी कि बाछी पता नहीं। ऊपर वाला जाने। पिछला तो दोनों बाछा था। सिर्फ पहली बार बाछी दी थी। छोटी में ही पांच हजार में बिकी थी। इस बार एक बाछी दे देती न, तो समझो एक और गाय तैयार हो जाती।”

“एक तो बाछा दिख रहा है, मां के बगल में। वो दोनों बाछा कहां है भाभी? दिखता नहीं है।” ललिता कुएं से बाल्टी भरा पानी नाद में डाल दी।

“कहां रहेगा। भगवान के घर गया और कहां जाएगा।” “मतलब?” ललिता रामायणी की बात समझ नहीं पाई।

“कसाई ले गया। मारकर खाल और मांस बेच दिया होगा और क्या करेगा उसका।” नारायणी सानी लगाते हुए बिना ललिता से नजर मिलाए बक दी।

“क्या भाभी! इतने छोटे बच्चे को कैसे कोई मार सकता है। कितना प्यारा था। हम देखे हैं, एक को। कसाई तो हमी हुए न भाभी।”

“हां कसाई तो हम हइये हैं। खरीदने वाला थोड़े न दोषी है। दोष तो बेचने वाले का है। जो काम का न हो, उसको जल्लाद के हवाले कर दो। यही रिवाज है दुनिया का। क्या करोगी, हम औरत भी तो गाय जैसी ही हैं। हमारी बेटी को लोग पेट में ही मार देते हैं। गाय के बछड़े की जिंदगी तभी तक है, जबतक उसकी मां दूध देती है। गाभिन होते ही बछड़ा कसाई के हवाले। अब खेत में हल नहीं चलता है न, न ही बैलगाड़ी चलती है। तो अब बछड़ा बेचारा जिंदा कैसे रहेगा। सब कहता है कि बछड़ा को नहीं बेचेंगे तो सांड़ हो जाएगा। अब सोचो न सांड़ नहीं रहेगा, तो गईया बच्चा कैसे देगी। बेटी को पेट में ही मार देता है। सोचो बेटी नहीं रहेगी, तो बेटा कहां से आएगा। अरे लाली बड़ी उलट-पुलट है ये दुनिया रे।”

“अब गाय को सरकार सुई दिलवाती है भाभी। पूरी जांच किया, हाइब्रिड सांड़ का सीमेन।” रामायणी एकटक ललिता को देखती रह गयी। कितना कुछ जानती है वह।

“आदमी में भी ऐसे ही होता तो शादी करने की जरूरत क्या थी।  हम अपने मन के मालिक होते न। मन होता तो खरीदकर ले आते, हाइब्रिड सी..।”

“वो भी हो गया है भाभी। बड़े-बड़े शहर में मिलता है। पढ़े हैं हम।” ललिता की इस बात पर दोनों ठठाकर हँस पड़े।

“भाभी। ये गाय बेचारी तो बोल नहीं पाती है। अपने सामने ही बच्चे को बिछड़ते देखती रहती है। सच में कितना जुल्म करते हैं हम।”

“हम तो बोल सकते हैं न लाली। लेकिन होता क्या है। मैंने तो विरोध किया। लेकिन मां-बेटा दोनों एक हो गया। जबरदस्ती जांच करवा कर ही माना। झूठ बोलकर ले गया था डॉक्टर के पास। हमको बोला बच्चा का जांच होगा, उसके हालत की, लेकिन जांच कराया लड़का है कि लड़की। हम का जाने औरत जात। हमको तो तब पता चला, जब ख़ूनजारी होने लगा। मर के ही बचे। पेट गिरा दिया मेरा। एक बार नहीं दो-दो बार।”

“इस बार भी तो पेट से हो भाभी। ई! साले-साल बच्चा दोगी, तो जिंदा नहीं रहोगी। अब बन्द कर दो। दो बेटी है न। ऑपरेशन करवा लो भाभी। ये लिंग की जांच कराना गैर कानूनी काम है। सबको जेल हो जाएगा।”

“नहीं रे! अब ये सब नहीं होने देंगे। क्या करें हम औरत के हाथ कुछ है भी नहीं न। सब निर्णय तो मरदे लोग करता है। गाय हो या माय। एक जैसे ही हालत हैं।”

“भाभी वो देखो! गईया की आंखों में आंसू। हमी लोगों को देख रो रही है। खाना भी नहीं खा रही।” दोनों दौड़ पड़े गाय के नाद की तरफ, नजदीक से देखा, गाय की आंखों से ढर-ढर आंसू बह रहा था। रामायणी ने गाय के सर को गले से लगाया।

“मत रो मेरी मां। मत रो। तुम हमारी बातों को सुन रही थी न। मैं भी एक मां हूं पगली। तुम्हारा दर्द समझती हूं। तुम्हारे बेटे को जिंदा नहीं रहने देते और मेरी बेटियों को। हमारा तुम्हारा दर्द तो एक ही है रे। मत रो मेरी कर्यकी..मत..रो।” गाय के गले लग फूट-फूट कर रोने लगी रामायणी। ललिता ने दोनों को अलग किया।
“मत रोइये भाभी। इन इंसानों से अच्छा तो ये जानवर है, जो हम औरतों के दर्द को समझती है।” ललिता बड़ी मुश्किल से रामायणी को गाय से अलग कर पाई। रामायणी की आंसुओं को पोछते हुए ललिता भी रो पड़ी।
गाय के रोने-सिसकने की आवाज तो नहीं आ रही थी, लेकिन लगातार बह रहे आंसू उसके दर्द को बयां करने को काफी थे। जैसे वो कह रही हो –
‘अरे पगली! मैं अपने लिए नहीं रो रही। मेरी आंखों के आंसू तेरे हैं। तेरा मरद मेरे जने बेटों को कसाई के हाथों बेचकर मरवाता है दो पैसों के लिए, लेकिन अपने जने बेटियों को क्यों मारता है? कसाई तो जानवरों की जान लेता है, तेरा मर्द तो अपनी बेटी का ही जल्लाद है। बेटी की जान का ही दुश्मन है।’

             सिसकती रामायणी को ललिता घर के अंदर ले गई, गाय एकटक रामायणी को देखती रह गई, सोचती ये मईया तो गईया से भी कमजोर है। वह तो अभी भी खूंटे को तोड़ भाग सकती है, दूध देती है, कहीं-न-कहीं पनाह मिल ही जाएगी, लेकिन ये कहां जाएगी, बिन खूंटे के भी बंधी है, इज्जत के धागे से।
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– शम्भु पी सिंह, पूर्व अधिकारी, दूरदर्शन, पटना

shambhu p singh

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