आध्यात्मिक लेख Archives - अटूट बंधन https://www.atootbandhann.com/category/आध्यात्मिक-लेख हिंदी साहित्य की बेहतरीन रचनाएँ एक ही जगह पर Fri, 22 Dec 2023 08:01:31 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.1.6 गीता जयंती – करें श्रीमद्भगवद्गीता का रस पान https://www.atootbandhann.com/2023/12/%e0%a4%97%e0%a5%80%e0%a4%a4%e0%a4%be-%e0%a4%9c%e0%a4%af%e0%a4%82%e0%a4%a4%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b6%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%80%e0%a4%ae%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%ad.html https://www.atootbandhann.com/2023/12/%e0%a4%97%e0%a5%80%e0%a4%a4%e0%a4%be-%e0%a4%9c%e0%a4%af%e0%a4%82%e0%a4%a4%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b6%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%80%e0%a4%ae%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%ad.html#respond Fri, 22 Dec 2023 08:01:31 +0000 https://www.atootbandhann.com/?p=7754 यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे   जिस दिन श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था उस दिन मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी थी, इसीलिए इस दिन को गीता जयंती के रूप में मनाया जाता है। […]

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यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे

 

जिस दिन श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था उस दिन मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी थी, इसीलिए इस दिन को गीता जयंती के रूप में मनाया जाता है। आज के दिन लोग गीता सुनते हैं, सुनाते हैं, और बाँटते हैं | उनका उद्देश्य होता है कि गीता के ज्ञान को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाया जाए| ये पूरी तरह से एक ऐसा ग्रन्थ है जो ना सिर्फ आध्यात्मिक बल्कि , सफलता , रिश्तों और सही जीवन शैली की व्याख्या करता है |  ये पूरी तरह से एक ऐसा ग्रन्थ है जो ना सिर्फ आध्यात्मिक बल्कि , सफलता , रिश्तों और सही जीवन शैली की व्याख्या करता है |  ये पूरी तरह से एक ऐसा ग्रन्थ है, जो ना सिर्फ आध्यात्मिक बल्कि, सफलता, रिश्तों और सही जीवन शैली की व्याख्या करता है |गीता की यात्रा अततः तो आध्यात्मिक ही होती है पर शुरुआत में ही ये चमत्कार हो जाए ऐसा नहीं होताl पढ़ने वाला जिस अवस्था या मानसिक दशा में होता है उसी के अनुसार उसे समझता है l यह गलत भी नहीं है, क्योंकि बच्चों कि दवाइयाँ मीठी कोटिंग लपेट के दी जाति है l  पर जरूरी है जिज्ञासु होना और उसे किसी धर्मिक ग्रंथ की तरह ना रट कर नए नये अर्थ विस्तार देना l

गीता जयंती – करें श्रीमद्भगवद्गीता का रस पान

 

गीता की शुरुआत ही प्रश्न से होती है | प्रश्न और उत्तर के माध्यम से ही जीवन के सारे रहस्य खुलते जाते हैं | यूँ तो बचपन से ही मैंने गीता पढ़ी थी, पर पर गीता से मेरा विशेष अनुराग मेरे पिताजी के ना रहने पर शुरू हुआ | उस समय एक मित्र ने मुझे सलाह दी कि आप अपने पिता ने निमित्त करके गीता का १२ वां अध्याय रोज पढ़िए उससे आप को व् आपके पिता को उस लोक में शांति मिलेगी | उस समय मेरी मानसिक दशा ऐसी थी कि चलो ये भी कर के देखते हैं के आधार पर मैंने गीता पढना शुरू किया | मैंने केवल १२ वां अध्याय ही नहीं शुरू से अंत तक गीता को पढ़ा | बार –बार पढ़ा | कुछ मन शांत हुआ | जीवन के दूसरे आयामों के बारे में जाना | लेकिन जैसे –जैसे मैं गीता बार –बार पढ़ती गयी, हर बार कुछ नयी व्याख्या समझ में आयीं| दरअसल गीता एक ऐसा ग्रंथ है, जो पाठक के अंदर चिंतन कि प्रक्रिया प्रारंभ करती है l खुदी से ही खुदा मिलता है l एक आम समझ में गीता पुनर्जन्म की बात करती द्वैत दर्शन का ग्रंथ है पर आचार्य प्रशांत उसे अद्वैत से जोड़कर बहुत सुंदर व्याख्या करते हैं l

जैसे जब कृष्ण कहते हैं, “इन्हें मारने का शोक मत करो अर्जुन ये तो पहले से मर चुके हैंl तो द्वैत दर्शन इसकी व्याख्या सतत जीवन में इस शरीर के निश्चित अंत की बात करता है, परंतु आत्मा अमर है वो अलग- अलग शरीर ले कर बार -बार जन्म लेती है l पर अद्वैत इसकी व्याख्या चेतना के गिर जाने से करता है l  जिसकी चेतना गिर गई, समझो उसकी मृत्यु ही हो गई l उसे जीवित होते हुए भी मारा समझो l ऐसे के वाढ से या मर जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता l द्वैत और अद्वैत दोनों ही भारतीय दर्शन के सिद्धांत हैं, जैसे रुचिकर लगे समझ सकते हैं l दोनों की मंजिल एक ही है l आजकल संदीप माहेश्वरी / विवेक बिन्द्रा विवाद वाले विवेक जी ने इसकी व्याख्या कोरपेरेट जगत के अनुसार की थी lउनकी “गीता इन एकशन”  जितनी लोकप्रिय हुई उसकी आलोचना भी कुछ लोगों ने यह कह कर की, कि गीता की केवल एक और एक ही व्याख्या हो सकती है l पर मेरे विचार से जैसे भूखे को चाँद भी रोटी दिखता है, तो उसे रोटी ही समझने दो l लेकिन वो चाँद की सुंदरता देखना सीखने लगेगा l जब पेट भर जाएगा तो चाँद की सुंदरता को उस नजरिए से देखने लगेगा जैसा कवि चाहता है l लेखक, गुरु, ऋषि को हाथी नहीं होना चाहिए l जरूरी है जोड़ना जो जिस रूप से भी पढ़ना शुरू कर दे, अगर चिंतन करता रहेगा तो आगे का मार्ग खुलता रहेगा l

कुछ उद्धरणों के अनुसार इसे देखें, हम जिसे लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन कह कर अंग्रेजी पुस्तकों में पढ़ते हैं | हजारों साल पहले कृष्ण ने गीता में कहा है ….

यं यं वापि स्मरण भावं, त्यजयति अन्ते कलेवरं

जैसा –जैसा तेरा स्मरण भाव होगा तू  वैसा –वैसा बनता जाएगा |

यही तो है लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन … आप जैसा सोचते हो वैसा ही आपके जीवन में घटित होता जाता है | जो कहता है कि आप की सोच ही आप के जीवन में होने वाली घटनाओं का कारण है l जैसे आप ने किसी की सफलता देख कर ईर्ष्या करी  तो आप की सोच नकारात्मक है और आप को सफलता मिलेगी तो भी थोड़ी l लेकिन अगर किसी की सफलता देखकर दिल खुश होकर प्रेरणा लेता है तो मन में उस काम को करने के प्रति प्रेम होगा नाकि जीतने का भाव l फिर तो उपलबद्धियाँ भी बेशुमार होंगी l

इसी को तो फिल्म सरल लहजे में रणछोड़ दास छाछण उर्फ फुनशूक वाङडू समझाते हैं l कहने का अर्थ है विदेशी बेस्ट सेलर हों या देशी फिल्में … आ ये सारा ज्ञान गीत से ही रहा है l

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः

संशय से बड़ा कोई शत्रु नहीं है क्योंकि ये हमारी बुद्धि का नाश करता है | आज कितने लोग जीवन में कोई भी फैसला ले पाने में संशय ग्रस्त रहते हैं | असफलता का सबसे बड़ा कारण संशय ही है | मैं ये कर पाऊंगा या नहीं की उधेड़ बुन  में काम आधे मन से शुरू किये जाते हैं या शुरू ही नहीं किये जाते | ऐसे कामों में असफलता मिलना निश्चित है |

अब जरा इस श्लोक को देखिये …

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन |

बहुशाखा ह्यनन्ताश्र्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् || ४१ ||

किसी लक्ष्य को पाने के लिए इससे बेहतर ज्ञान और क्या हो सकता है | जब एक ही लक्ष्य पर पूरा ध्यान केन्द्रित हो सफलता तभी मिलती है | जिनकी बुद्धि कई शाखाओं में विभक्त है, जो पूरी तरह से एक लक्ष्य में नहीं लगे हैं उनकी सफलता संदिग्द्ध है | अभी भी देखिये शीर्ष पर वही पहुँचते हैं जिनकी बुद्धि एक ही काम में पूरी तरह से लगी है

ये तो मात्र कुछ उदाहरण हैं जब आप पूरी गीता पढेंगे तो आप को उस खजाने से बहुत कुछ मिलेगा | हाँ, कुछ चीजों को देशकाल से जोड़ कर भी देखना होगा l हर रचना में उसका देश काल तो होता ही है l आजकल थोड़ा बहुत इधर -उधर से कुछ पढ़कर खुद को आध्यात्मिक दिखाने का एक नया अहम फैशन में है, जैसे दूसरों से श्रेष्ठ हो गए l ज्ञान का अहंकार छोटापन है l श्रेष्ठ एक अनपढ़ भी हो सकता है l  इसलिए गीता पढ़कर दूसरों से ज्यादा श्रेष्ठ हो जाएंगे, आध्यात्मिक हो जाएंगे की जगह मैं ये कहना ज्यादा पसंद करूंगी कि इससे जीवन की समझ थोड़ी बढ़ेगी l धीरे -धीरे थोड़ी और…

वंदना बाजपेयी

वंदना बाजपेयी

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अष्टावक्र गीता -3  https://www.atootbandhann.com/2020/11/%e0%a4%85%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a4%be%e0%a4%b5%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b0-%e0%a4%97%e0%a5%80%e0%a4%a4%e0%a4%be-3.html https://www.atootbandhann.com/2020/11/%e0%a4%85%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a4%be%e0%a4%b5%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b0-%e0%a4%97%e0%a5%80%e0%a4%a4%e0%a4%be-3.html#respond Thu, 05 Nov 2020 15:24:39 +0000 https://www.atootbandhann.com/?p=6885 अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का महत्वपूर्ण ग्रंथ है | इसके रचियता महान ऋषि अष्टावक्र थे | कहा जाता है की उन्हें गर्भ में ही आत्मज्ञान प्राप्त हो गया था | उनका नाम अष्टावक्र उनके शरीर के आठ स्थान से टेढ़े -मेढ़े होने के कारण पड़ा | यह गीता दरअसल मिथिला के राज्य जनक को को […]

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अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का महत्वपूर्ण ग्रंथ है | इसके रचियता महान ऋषि अष्टावक्र थे | कहा जाता है की उन्हें गर्भ में ही आत्मज्ञान प्राप्त हो गया था | उनका नाम अष्टावक्र उनके शरीर के आठ स्थान से टेढ़े -मेढ़े होने के कारण पड़ा | यह गीता दरअसल मिथिला के राज्य जनक को को उनके द्वारा दिए गए उपदेश के रूप में है जो प्रश्न उत्तर शैली में है | इस ज्ञान को प्राप्त करके ही राज्य जन्म विदेह राज कहलाये | आइए जानते हैं अष्टावक्र गीता के बारे में |

अष्टावक्र गीता -3 

कभी आप अपने गाँव या सुदूर क्षेत्रों में जरूर गए होंगे | देश के ऐसे कई अंदरूनी इलाके हैं जहाँ सड़क भी नहीं है तो हवाई जहाज तो क्या जीप भी नहीं जा सकती | मान लीजिए आप को  किसी सुदूर इलाके में जाना है |ऐसे में जब आप अपनी यात्रा  प्लान करते हैं तो इस तरह से करते हैं पहले दिल्ली से से नजदीक के हवाई अड्डे तक की फ्लाइट फिर वहाँ से उस गाँव तक की ट्रेन फिर गाँव के पास तक बस फिर बैलगाड़ी ,फिर थोड़ा पैदल | इस तरह से आप की यात्रा पूरी होती है | ऐसे में आप ये नहीं कहने लगते की ये हवाई जहाज या ये ट्रेन या ये बस मेरी है .. या उससे भी बढ़कर ये हवाई जहाज या ट्रेन या बस मैं हूँ | हमको पता होता है कि मैं यात्रा पर हूँ और ये सब साधन मात्र है जिनके द्वारा यात्रा की जा रही है | ऐसे ही हमारी आत्मा अनंत यात्रा पर निकली है | विभिन्न जन्मों में विभिन्न रूप नाम युक्त शरीर बस साधन मात्र हैं जिससे ये यात्रा पूरी होगी | उसे मैं या  मेरा मान लेना ही समस्त दुखों की जड़ है |

अष्टावक्र गीता के साथ हम परमात्मा (आत्म तत्व )को खोजने वाली ऐसी ही यात्रा पर निकलेंगे |  इस यात्रा की खूबसूरती ये है कि इसके लिए न हमें मंदिर जाने की जरूरत है न मस्जिद न गुरुद्वारे न ही और किसी पूजा स्थल | इसके लिए न किसी धूप दीप फूल पट्टी की आवश्यकता है ना किसी कर्मकांड की |

क्योंकि अष्टावक्र जी ने स्पष्ट रूप से कहते हैं कि ये मंदिर मस्जिद जाने वाला , ये धूप बत्ती जलाने वाला , ये धार्मिक अनुष्ठान करने वाला ही   परमात्मा है |

एक बच्चा जब अपने पिता के साथ लूडो या सांप -सीधी खेलता है तो जीतने के लिए पूरा कौशल लगा देता है |उसके लिए हार या जीत बहुत मायने रखती है | वही बच्चा एक दिन बड़ा होकर जब अपने बच्चे के साथ खेलता है तो जानबूझकर हारता है |हारते हुए भी मुसकुराता है |क्योंकि वो जान गया है की ये तो बस खेल है | वो बोध जो बचपन में नहीं था वो बड़े पर हो गया | यही बोध अगर हमें हो जाए कि परमात्मा (मैं )इस संसार के खेल को खेलने निकला है तो सारी सफरिंगस समाप्त हो जाएंगी | सुख -दुख मान  अपमान खेल लगने लगेंगे |

बोध बस इतना होना  है कि इन अनुभवों को लेने के लिए शरीर रूपी रथ पर सवार होने वाला परमात्मा ही है |

अष्टावक्र गीता -तत्वमसि 

जो तुम हो वही मैं हूँ |

जिस प्रकार व्यक्ति बिना दर्पण के अपना चेहरा नहीं देख सकता | उसी प्रकार परमात्मा अपनी ही बनाई या अपने से ही उत्पन्न हुई इस सृष्टि को जानने समझने अनुभव करने हेतु विभिन्न जड़ और चेतन स्वरूपों में विद्धमान है | इसलिए पेड़ हो , इंसान हो या मामूली कंकण पत्थर सबके अंदर दृष्टा रूप में परमात्मा ही है |

इस गोचर और अगोचर सृष्टि में परमात्मा के अतरिक्त कुछ है ही नहीं | केवल उसे मैं या मेरा मान  लेना ही सारी सफरिंगस की जड़ है |

जैसे एक बिजली के तार से बहुत सारे बल्ब जुड़े हुए है | कोई बल्ब फ्यूज है वो प्रकाशित नहीं हो रहा है पर उसमें भी बिजली जा रही है | जो प्रक्षित हो रहे हैं उनमें भी बिजली ही जा रही है | यहाँ बल्ब का रोशन होना या न होंना  जड़ और चेतन के रूप में समझ सकते है | सृष्टा दोनों में है |कहीं कुछ भिन्न है ही नहीं | अपने भौतिक स्वभाव के कारण ही वो कहीं  जड़ तो कहीं चेतन रूप में दिख रहा है | यानि मेरे अंदर और बाहर सब कुछ परमात्मा ही है या अंदर से ले कर बाहर तक मैं ही सब जगह व्याप्त हूँ |तो मेरा तेरा के सारे झगड़े और दोष समाप्त हो जाते हैं |

 अष्टावक्र के अनुसार अगर ये बात अभी इसी क्षण समझ लो .. तो अभी इसी क्षण से मुक्ति है |

आज जब सबसे ज्यादा झगड़े धर्म जाति और संप्रदाय के कारण ही होते हैं |सबसे ज्यादा रक्तपात इसी कारण होता है तो अष्टावक्र गीता को समझ लेना ,आत्मसात कर लेना इन सब झगड़ों को मिटा सकता है |और इस शरीर में रहते हुए भी परमानन्द प्राप्त किया जा सकता है |

यहाँ पर सबसे पहले ये समझना होगा की सुख और आनंद अलग अलग है 

सुख एक क्षणिक भाव है और आनंद हमेशा रहने वाला | सुख का कारण बताया जा सकता है | आनंद का नहीं |सुख के बाद दुख आना निश्चित है पर आनंद ठहर जाता है | सुख और आनंद की यात्रा में उलझे व्यक्ति के आधार पर तीन भागों में बांटा जासकता है|

सामान्य व्यक्ति -जिसने मान  लिया है की सुख बाहर है | वो सुख और दुख की यात्रा में निमग्न रहता है |वो अभी स्टेशन पर ही बैठ है |इस प्रकार के व्यक्ति को संसारी भी  कह सकते हैं |

सन्यासी -जो समझता है कि सुख अंदर है पर इस बात को पूरी तरह से आत्मसात नहीं कर पाता है |जरूरी नहीं ये व्यक्ति सन्यासी भेष धरण करे | उसका मन से सन्यासी होंना  पर्याप्त है |

ज्ञानी _जिसने  इस ज्ञान को आत्मसात कर लिया है |जिसका सुख अब अंदर से आ रहा है |यहाँ दुख है ही नहीं |सुख और दुख मन के आनंद सागर में उठने वाली लहरें मात्र है |

कृष्ण के सारे पुत्र गांधारी के श्राप के कारण मारे जाते हैं उन्हें दुख नहीं होता |

वो द्वारिकधीश बनते हैं उन्हें सुख नहीं होता |

वो पूर्ण ज्ञानी हैं , पूर्ण योगी |

अष्टावक्र के अनुसार राजा  हो या भिखारी .. वो कैसे भी कपड़े पहने |कैसे भी रहे, कैसा भी भोजन करे|  ज्ञानी सदा ही मुक्त है क्योंकि ये कपड़े बदलने वाला राज्य या भिखारी के रूप में रहने वाला ही परमात्मा है |

अब अगर आप आगे की यात्रा में चलना कहते हैं तो आपका सन्यासी होंना  जरूरी है | यानि ये समझ होनी जरूरी है कि सुख और आनंद में अंतर है और आनंद बाहर की वस्तुओं से नहीं अंदर से आता है |

अष्टावक्र ने जनक को ही क्यों चुना

इस बारे में ओशो एक बहुत सुंदर कथा बताते हैं |

एक बार एक व्यक्ति बुद्ध के पास गया और उनसे आत्म ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा जाहिर की | बुद्ध ने उसकी तरफ देखा और आँख बंद कर के बैठ गए | बोले कुछ नहीं |वो व्यक्ति देखता रहा उनकी तरफ ऐकटक …धीरे -धीरे उसने भी आँख बंद कर ली | करीब दो घंटे वैसे ही बैठा रहा |उसने नेत्रों से आँसुओं की धारा  बहने लगी | उसने आंखे खोली और बार -बार बुद्ध के चरण छू कर उनकी कृपा  के लिए आभार व्यक्त करने लगा | उसके चेहरे पर तेज और आँखों में आँसू थे |

उसके जाने के बाद बुद्ध के शिष्य को बहुत आश्चर्य हुआ | उसने पूछा,”हम लोगों को इतने समय से आत्मज्ञान नहीं हुआ इन्हें अचानक से कैसे हो गया |

बुद्ध ने कहा तुम तो पहले क्षत्रिय रहे हो |घोड़ों के बारे में जानकार रहे हो |

कुछ घोड़ों को कितना भी मारो ,चलते नहीं |

कुछ कोड़े  से मारने पर चलते हैं |

कुछ कोड़ा देख कर चल पड़ते हैं |

और कुछ कोड़े की छाया देखकर ही चल पड़ते हैं |

ये व्यक्ति ऐसा ही था | बस उसे समाधि का अहसास भर कराना था |और समाधि खुद ब खुद लग गई |

इसी तरह से अक्सर गुरु शिष्य के प्रश्न से समझ लेते हैं की उसकी सन्यास में या आत्मज्ञान की राह में कितनी पैठ है |कितनी पिपासा है | कई बार उनके उत्तर इसीलिए अलग अलग शिष्यों के लिए अलग अलग होते हैं |नर्सरी के स्टूडेंट को परास्नातक वाला उत्तर समझ नहीं आएगा |

वही अष्टावक्र जो बंदी के प्रश्नों का वेद आधारित उत्तर दे रहे थे | वो जनक की पिपासा समझ गए और उन्हें सीधे मुक्ति का मार्ग बताने लगे |

क्रमश :

अगले खंड में जनक के प्रश्न व उत्तर शुरू होंगे

अष्टावक्र गीता -1

अष्टावक्र गीता -2 

अष्टावक्र गीता का हमारा प्रयास कैसा लगा |अवश्य बताए |आप अपने प्रश्न भी पूछ सकते हैं | हमारी पोस्ट सीधे पाने के लिए अटूट बंधन फेसबूक पेज लाइक करें व atootbandhann.com को सबस्क्राइब करें |

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अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का महत्वपूर्ण ग्रंथ है | इसके रचियता महान ऋषि अष्टावक्र थे | कहा जाता है की उन्हें गर्भ में ही आत्मज्ञान प्राप्त हो गया था | उनका नाम अष्टावक्र उनके शरीर के आठ स्थान से टेढ़े -मेढ़े होने के कारण पड़ा | यह गीता दरअसल मिथिला के राज्य जनक को को उनके द्वारा दिए गए उपदेश के रूप में है जो प्रश्न उत्तर शैली में है | इस ज्ञान को प्राप्त करके ही राज्य जन्म विदेह राज कहलाये | आइए जानते हैं अष्टावक्र गीता के बारे में |

अष्टावक्र गीता -2 

अष्टावक्र गीता के बारे में जानने से पहले जरूरी है कि ऋषि अष्टावक्र के बारे में भी जान लिया जाए | हालांकि इस जानकारी से उस ज्ञान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा पर एक दिव्यअङ्ग बालक का आत्मबोध व ज्ञान से भरा  हुआ होना  आश्चर्य का विषय है तो प्रेरणा दायक भी | हालांकि अष्टावक्र के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं मिलती पर जितनी मिलती है उस आधार पर उनके प्रति श्रद्धा बढ़ती है |

कौन थे अष्टावक्र

अष्टावक्र को जानने के लिए उद्दालक ऋषि के आश्रम में जाना पड़ेगा |प्राचीनकाल में उद्दालक ऋषि के आश्रम में उनके एक शिष्य उनसे शिक्षा ग्रहण कर रहे थे | उनका नाम था कहोड़ | कहोड़ आत्मज्ञानी तो नहीं थे पर वेद मंत्रों आदि को कंठस्थ कर लेते थे | उद्दालक ऋषि की दो संतानें थीं एक पुत्री सुजाता और दूसरा पुत्र श्वेतकेतु | सुजाता और श्वेत केतु की उम्र में 15- 16 वर्ष का अंतर था | जब सुजाता विवाह योग हुई तो उद्दालक ऋषि ने कहोड़ से उनका विवाह किया | कहोड़ ज्ञानी नहीं थे वो वेद पाठी विद्वान थे | अक्सर उनके उच्चारण में गलतियाँ हो जाती थीं |

अष्टावक्र की प्रारम्भिक शिक्षा 

एक बार उन्होंने किसी श्लोक का आठ बार गलत उच्चारण किया तब अपनी माता के गर्भ में बैठे अष्टावक्र ने गर्भ से ही कहा पिताजी आपने आठ बार गलती की है इसे ऐसे कहें | कहोड़ को यह अपने ज्ञान का अपमान लगा |उन्होंने कुपित होकर अष्टावक्र को श्राप दिया,”तूने मेरी आठ बार गलतियाँ निकाली हैं जा  तेरा शरीर आठ जगह से वक्र हो जाए | कुछ कथाएँ कहती हैं कि उन्होंने गुस्से में सुजाता के पेट पर लात मार दी थी |जिस कारण वो पेट के बल गिर गईं थी और गर्भस्थ शिशु आठ जगह से मुड़ गया | जो भी हो इस घटना के बाद कहोड़ ऋषि को बहुत पश्चाताप हुआ और वो घर छोड़ कर चले गए | जगह -जगह जा  कर वो शास्त्रार्थ में भाग लेते और आगे बढ़ जाते |

अष्टावक्र और शास्त्रार्थ 

सुजाता अष्टावक्र के साथ अपने पिता उद्दालक ऋषि के आश्रम में चलीं आईं | अष्टावक्र अपने मामा श्वेतकेतु के साथ बड़े होने लगे | वहीं उन्होंने शिक्षा पाई | उनकी उम्र में दो -तीन वर्ष का ही अंतर था |अतः वे उद्दालक  को ही अपना पिता समझते थे | करीब 12 वर्ष की उम्र में खबर आई की राजा  जनक आत्म ज्ञान के लिए शास्त्रार्थ अपने दरबार में करवा रहें हैं |वहाँ उनके कहोड़ ऋषि भी गए हैं | जो सब पर विजय प्राप्त करने के बाद बंदी नामक ज्ञानी से हार रहे हैं |जब अष्टावक्र को इस बात का पता चला तो वह अपने पिता से मिलने राजमहल चले गए | वहाँ उनके आठ जगह से मुड़े शरीर को देखकर सब हंसने लगे | सबको हँसता देखकर अष्टावक्र भी हँसने  लगे |

उनको हँसता हुआ देखकर राजा जनक को आश्चर्य हुआ |उन्होंने पूछा,”सब तो तुझे देखकर हँस रहे हैं पर हे  बालक तुम क्यों हँस रहे हो ?”

अष्टावक्र बोले ,”हे  राजन ! मैं इस बात पर हँस रहा हूँ कि यहाँ चमड़े के व्यापारियों के मध्य आत्मबोध पर चर्चा हो रही है |तो फिर कैसी जीत और कैसी हार |’

उनका उत्तर सुन कर राजा  जनक ने फिर कहा,”बालक ! इतने बड़े विद्वानों को चमड़े का व्यापारी कहने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई ?”

अष्टावक्र बोले,”हे  राजन ! जिस तरह से घड़ा टेढ़ा होने पर आकाश टेढ़ा नहीं होता उसी तरह से मेरा शरीर टेढ़ा होने से मैं यानि आत्मस्वरूप ईश्वर कैसे टेढ़ा हो गया | इन्हें मेरा टेढ़ा शरीर दिखता है पर उसके भीतर मैं नहीं दिखता तो फिर हो गए ना ये चमड़े के व्यापारी |”

राजा जनक निरुत्तर हो गए | उन्हे स्वयं भी उस बच्चे हंसने के लिए अपराध बोध हुआ | तभी अष्टावक्र ने बंदी से शास्त्रार्थ करने की इच्छा व्यक्त की |

ये शास्त्रार्थ पढ़ी हुई विधा पर था पर एक श्लोक पर आकर बंदी अटक गए | अष्टावक्र ने वो श्लोक पूरा किया और विजयी घोषित हुए | उन्होंने बंदी द्वारा हराए गए सभी विद्वानों  को राजा  जनक के कारागार से मुक्त कराया |

अपने पिता कहोड़ को पा कर अष्टावक्र बहुत प्रसन्न हुए |

उस रात  राजा जनक सो ना सके | उन्हें समझ आ गया कि ये बालक कोई साधान बालक नहीं है और इसके पास अवश्य ही मेरे सारे प्रश्नों का हल होगा |

राजा जनक को आत्मबोध 

अगले दिन राजा जनक उन्हें ढूंढते हुए एक आश्रम के पास पहुंचे वहाँ वो खेल रहे थे |

राज्य जनक ने उनसे आत्मबोध करने की इच्छा की |

 

कहा जाता है कि राजा जनक जब घोड़े से उतर रहे थे |उनका एक पैर रकाब पर था और एक हवा में तभी अष्टावक्र ने उन्हें शिक्षा देनी शुरू की |इस असुविधा जनक स्थिति में वो घंटों आत्ममुग्ध से बने रहे | जब उन्होंने पैर जमीन पर रखा तब तक उन्हें आत्मबोध हो चुका था |

जनक विदेहराज बन चुके थे |ऐसे में उनका राज्य  पर शासन करने का मन भी नहीं रह गया था |तब अष्टावक्र ने ही उन्हें समझाया था की अब वो ज्यादा अच्छा शासन कर पाएंगे |जनता का अधिकार है कि कोई विदेह राजा उनके राज्य को संभाले |

ये सारा ज्ञान 20 अध्यायों  में निहित है जो आध्यात्मिक पथ के सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न “मैं कौन हूँ ” का उत्तर देता है | इसके बाद सारा अंधियारा नष्ट हो जाता है |

सरल से बीस अध्याय  का अर्थ सहज है पर उन्हें आत्मसात  करने के लिए व्याख्या आवश्यक है |

क्रमश :

अष्टावक्र गीता -1

 

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अष्टावक्र गीता अद्वैत वेदान्त का महत्वपूर्ण ग्रंथ है | इसके रचियता महान ऋषि अष्टावक्र थे | कहा जाता है की उन्हें गर्भ में ही आत्मज्ञान प्राप्त हो गया था | उनका नाम अष्टावक्र उनके शरीर के आठ स्थान से टेढ़े -मेढ़े होने के कारण पड़ा | यह गीता दरअसल मिथिला के राज्य जनक को को उनके द्वारा दिए गए उपदेश के रूप में है जो प्रश्न उत्तर शैली में है | इस ज्ञान को प्राप्त करके ही राज्य जन्म विदेह राज कहलाये | आइए जानते हैं अष्टावक्र गीता के बारे में |

अष्टावक्र गीता -1

आखिर क्या कष्ट रहा होगा बुद्ध को कि नवजात शिशु और अप्रतिम सुंदरी पत्नी यशोधरा को छोड़कर  इस संसार को दुख से मुक्त करने के लिए निकल गए | क्या दुख रहा होगा महावीर को कि राज महल के वैभव उन्हें बांध नहीं सके | दुख का कारण था एक ही प्रश्न ..संसार में इतने दुख क्यों हैं ?क्या कोई तरीका है कि संसार को इन दुखों से मुक्ति मिल जाए |

क्या हम और आप दुखों के जंजाल में घिर कर ये नहीं सोचते हैं कि आखिर क्या कारण है कि ईश्वर ने ये ये दुनिया बनाई और उसमें रोग, कष्ट , विछोह, मृत्यु जैसे दुख उत्पन्न कर दिए | आखिर क्या मजा आता होगा उस ईश्वर को ये खेल खेलने में ?

इस पर हसरत जयपुरी जी का लिखा हुआ एक बहुत ही प्रसिद्ध गीत भी  है ..

दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई .. काहे को दुनिया बनाई ..  

ऐसे में कोई आप से आकर कह दे कि ये आप ने ही बनाई है आप ही इसके कर्ता -धर्ता और नियंता हो .. तो ?

अहं ब्रह्मास्मि .. शिवोहम 

तो फिर स्वाभाविक सा प्रश्न होगा ,”फिर हमें क्यों नहीं पता ?”

उत्तर है :मन और बुद्धि ने हमें भरमाया हुआ है |

ठीक वैसे ही जैसे आइस -पाइस के खेल में बच्चे अपनी आँख पर खुद ही पट्टी बांधते हैं और सामने दिखाई देने वाली चीजों को पट्टी के कारण नहीं देख पाते और यहाँ-वहाँ टकराते जाते हैं |

ये खेल हमीं ने चुना है |

विभिन्न प्रकार के सुख -दुख हमारे बनने के काल समय और परिस्थिति पर निर्भर करते हैं |

ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या 

हम अपने ही बनाए इस जगत को इंद्रियों  द्वारा देखने -सुनने समझने के लिए विभिन्न जड़ -चेतन , जीव -जन्तु वनस्पति के रूप में आकार लेते हैं | ये बनना हमारा वैसे ही स्वभाव है जैसे लहर उठना समुद्र का स्वभाव है |

जैसे समुद्र में उठने वाली लहर पानी से अलग नहीं है |वैसे ही समग्र चेतना  हमारे अंदर समाई है |अज्ञान वश  हम अपने को अलग समझते हैं और यही दुख का कारण है |

फिर इससे मुक्ति कैसे हो ?

(इस आत्म स्वरूप को समझने के लिए द्वैत और अद्वैत दो सिद्धांत है )

अष्टावक्र कहते हैं ,“अभी और इसी वक्त “

जैसे सूर्य के उदय होते ही अंधकार मिट  जाता है |वैसे ही अज्ञानता की पट्टी उतारते ही एक पल में बोध हो जाता है | और ये सबके लिए एक ही सच है | इसका किसी धर्म  से जाति संप्रदाय से कोई लेना देना नहीं है | इसके लिए कोई विशेष विधि, अनुष्ठान , प्राणायाम करने की आवश्यकता नहीं है |

अब सवाल ये है कि इतना सहज ज्ञान होने के बाद भी अष्टावक्र गीता इतनी प्रसिद्ध क्यों नहीं है ?

इसका एक मात्र कारण है कि मनुष्य का स्वभाव है कि उसे कठिन पर विजय प्राप्त करने में आनंद आता है | कोई चीज सहज और सरल है तो उसको करने का उतसह ही जाता रहता है | कभी बच्चों को खाना बनाना सिखाना शुरू करिए तो देखेंगे उन्हें दाल -चावल सीखने में आनंद नहीं आता | ये तो रोज का खाना है |इसमें क्या मजा |मटर -पनीर से शुरू करें तो कोई बात है और आजकल तो यू ट्यूब से देखकर कोई अनोखी चीज से ही शुरू करने का मन करता है |

अडवेंचर पार्क में सबसे कठिन झूले पर बैठना है |

गणित का सबसे कठिन सवाल हल करना है |

आत्म बोध इतना ही आसान है तो उसका आनंद ही खत्म हो जाता है | अष्टावक्र जिस बात को इतनी सीधी और सरल भाषा में कहते हैं |द्वैत सिद्धांत में इसके लिए तमाम अनुष्ठान जप तप भी हैं |वहीं हठ योग ये मानता ही नहीं नहीं कि जिस शरीर ने ये सारा भेद उत्पन्न किया है उसे दंड दिए बिना बोध हो भी सकता है | इसलिए कोई खड़ा राहकरकर शरीर को कष्ट देता है तो कोई एक हाथ का इस्तेमाल न करके | हाथ सूख कर लकड़ी हो जाता है | बहुत कष्ट सहने के बाद कष्ट रहित अवस्था आती है | पर एक हाथ सदा के लिए बेकार हो जाता है | पर उसे उसी में आनंद आता है |

ओशो अपने प्रवचन में एक कहानी सुनाया करते हैं | 

एक बार मुल्ला नसीरुद्दीन अपने दोस्तों के साथ मछली पकड़ने गए | दो बगल बगल तलब बने हुए थे |जो तालाब मछलियों से लबालब भरा हुआ था ,सारे दोस्त वहीं मछलियाँ पकड़ने लगे | झाटझट मछलियाँ पकड़ में आने लगीं  |वो खुशी से चिल्ला रहे थे |मुल्ला बगल के तालाब में चले गए |उसमें मछलियाँ नहीं थीं | सारा दिन कांटा डाले बैठे रहे | मछली एक भी नहीं फंसी |एक व्यक्ति उन्हें लगातार देख रहा था |उनके पास जाकर बोला ,”आप उस तालाब में मछली पकड़ें यहाँ पर नहीं हैं | मुल्ला बोले,”वहाँ सब पकड़ रहें हैं |तालाब मछलियों से भर हुआ है वहाँ मछली पकड़ी तो क्या पकड़ी |यहाँ पकडू तो कोई बात है |”

दरसल आसान काम से हमारा अहंकार तुष्ट नहीं होता | इसलिए उसको करने में रुचि नहीं रहती | 

महात्मा  बुद्ध के बारे में कहा जाता था कि जब उन्होंने घर छोड़ कर भोग का त्याग किया और साधु  सन्यासियों की शरण ली तो भी उन्हें ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ |उन्होंने वो सब किया जो करना को कहा गया पर ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ | आत्म बोध नहीं हुआ | मन बहुत निराश हुआ | भोग को भी त्याग और योग को भी त्यागा तब एक रात एक पेड़ के नीचे सहज ज्ञान प्राप्त हो गया |सिद्धार्थ बुद्ध हो गए | आत्मबोध हो गया |मैं मिट गया |

कोई भी विधि हो इस मैं रूपी अहंकार का मिटना ही आत्मबोध का होंना  है |

समुद्र या लहर एक ही है | लहर बनने से पहले वो समुद्र ही थी और लहर मिटने के बाद भी वो समुद्र ही है | खास बात ये है कि लहर रूप में भी वो समुद्र ही है पर खुद को लहर कह कर उसने खुद को समुद्र से अलग समझा  हुआ है |

कबीर दास जी ने इस विषय में बहुत सुंदर लिखा है ..

हेरत हेरत हे सखि रह्या कबीर हेराई
बुंद समानी समुंद में सो कत हेरी जाई।

खोजते -खोजते कबीर खो गया | जब बूंद समुद्र में समा गई तो उसे कैसे खोज जाए |

लेकिन इसको लिखने के बाद कबीर दास जी को लगा की वो वो कुछ गलत लिख  गए हैं तो उन्होंने पुन : लिखा ..

हेरत हेरत हे सखि रह्या कबीर हेराई

समुंद समाना बुंद में सो कत हेरी जाई।

खोजते -खोजते कबीर खो गया | जब समुद्र बूंद में समा गया है तो उसे कैसे खोज जाए |

बूंद समुद्र में समा गई या समुद्र बूंद में समा गया | ये कहना मुश्किल है |

समग्र चेतना हमारे अंदर समाई हुई है या हम ही समग्र चेतना स्वरूप सारे संसार में आच्छादित हैं | एक ही बात है |

यही बात अष्टावक्र कहते हैं ..

अपने को देह से परे देखो 

तुम ही समग्र चेतन स्वरूप हो 

ऐसा देखते ही तुम एक क्षण में आनंदित , अविचलित और मुक्त हो जाओगे | 

कहते हैं नरेंद्र जब स्वामी राम-कृष्ण परमहंस के पास गए तो उन्होंने उनके प्रश्नों से जान लिया की इस बालक में सच्ची जिज्ञासा है अगर इसे शांत नहीं किया तो ये भटक जाएगा | हो सकता है अपना कोई संप्रदाय ही बना ले | उनके प्रश्नों का तुरंत निवारण करने हेतु उन्होंने अष्टावक्र गीता ही उनको पढ़ने को दी | जिसे  पढ़कर वो बंधनों से मुक्त हुए और स्वामी विवेकानंद बने | जिसके पास विवेक हो और मुक्ति का आनंद भी हो |

यही अष्टावक्र गीता का ज्ञान है |

ये ज्ञान बहुत ही सहज सरल है | जो बीस श्लोकों में कहा गया है | जिसे समझना बहुत आसान है पर आत्मसात करना थोड़ा मुश्किल है |

आगे के खंडों में हम इसके एक एक श्लोक की व्याख्या करते हुए समझने का प्रयास करेंगे |

शायद कोई लकीर हमारे मन पर खींच जाये ..

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व्यष्टि से समष्टि की ओर https://www.atootbandhann.com/2020/09/%e0%a4%b5%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a4%bf-%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%b8%e0%a4%ae%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a4%bf-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%93%e0%a4%b0.html https://www.atootbandhann.com/2020/09/%e0%a4%b5%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a4%bf-%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%b8%e0%a4%ae%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a4%bf-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%93%e0%a4%b0.html#respond Fri, 04 Sep 2020 13:44:38 +0000 https://www.atootbandhann.com/?p=6837     ये दौर भी बीत जाएगा। परिवर्तन प्रकृति का मूल स्वभाव है। यहाँ कुछ भी स्थाई नहीं है । मनुष्य अपने आविष्कारों के दंभ में सोचता है कि उसने प्रकृति पर विजय पा ली है। जो वह चाहेगा सब एक दिन पा सकता है।किंतु प्रकृति ने कोरोना महामारी के बहाने से एक बार फिर […]

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ये दौर भी बीत जाएगा। परिवर्तन प्रकृति का मूल स्वभाव है। यहाँ कुछ भी स्थाई नहीं है । मनुष्य अपने आविष्कारों के दंभ में सोचता है कि उसने प्रकृति पर विजय पा ली है। जो वह चाहेगा सब एक दिन पा सकता है।किंतु प्रकृति ने कोरोना महामारी के बहाने से एक बार फिर मनुष्य को सकल ब्रहमांड में उसकी कमजोर स्तिथि से पुन: परिचय करवा दिया।

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।

खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।

कबीर कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है।

कोरोना ने एक इंसान को नहीं पूरी दुनिया को अपने सामने घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। तेज रफ्तार से दौड़ती दुनिया थम गई है। कोरोना ने जैसे आ के कह दिया… स्टैचू । जहाँ हो वही बने रहो। बहुत भाग लिए। ठहरो जरा!
मौका मिला है तो सोचो। क्या खोया क्या पाया अब तक! अपनों के बीच रहो। जानो उन्हें। कितना जानते हो उन्हें जिनके लिए इतनी मेहनत-मशक्कत कर रहे थे। अपने आपको जानो। जो कर रहे थे अब तक। क्या वह तरीका सही था। क्या वाकई वही करना था। कब अपने बुर्जुगों के बीच बैठे थे। कितने वर्ष पहले उनके र्थर्थराते हाथों को अपने हाथ में लेकर कहा था आप कैसे हैं? हम सब आपके पास हैं।

कबीर दास कहते हैं-

दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ।

जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय।

जब जीवन में दुख आता है, कठिनाईयां आती हैं। ।तभी अपनों की याद आती हैँ।तभी उस परम सत्ता की याद आती है।जिसने इस अखिल विश्व को रचा है।

व्यष्टि से समष्टि की ओर

कोरोना काल ने बहुत बुरे दिन दिखाये हैं।अभी तक वैक्सीन नहीं बन पाया। अमेरीका जैसा  शक्ति-संपन्न देश भी अपने नागरिकों के लिए कुछ नहीं कर पाया।लाखों लोग मारे जा चुके हैं। आंकड़े दहला देने वाले हैं।हमारे देश में भी यह तेजी से फैल रहा है।जो डॉक्टर्स कोरोना मरीजों के ईलाज में लगे हुए हैं उनकी जान पर खतरा लगातार बना हुआ है।शुरुआत में कईयों की जान गई।

 

कल तक “बी पॉजिटिव “जब डॉक्टर किसी मरीज को हौसला देने के लिए कहते तो एक शुभकामना मंत्र की तरह वह उच्चारित होता था। आज वही शब्द किसी व्यक्ति को जब डॉक्टर कहते हैं तो उसे अपनी मौत सामने दिखने लगती होगी। वहीं जांच की रिपोर्ट आने के बाद “आपकी रिपोर्ट निगेटिव है” कहे जाने पर “जान बची लाखों पाए “की अनुभूति से भर जाता होगा।

समय ने शब्दों के मायने बदल दिए।जीने के तरीके में न चाहते हुए कई बदलाव लाने पड़े।रहन-सहन, खान-पान के तरीकों में विशेष सावधानी रखने के प्रयास में कई  अच्छी आदतों का समावेश हो गया।कई बुरी आदतों ने धीरे से खुद ही किनारा कर लिया। रिश्तों में नई गर्माहट , नई ऊर्जा भर दी है। दुख ने सबको करीब कर दिया। आइसोलेशन के इस फेज ने सबको सबके करीब कर दिया।अलग होते हुए भी सुख भी साझा। दुख भी साझा।हमारी सांझी संस्कृति रही हैं विविधताओं में भी हमने सांझापन खोज लिया था।

आधुनिक जीवन शैली ने हमें व्यक्तिनिष्ठ बना दिया था। हम आपसी संबंधों में ऑफिस में, समाज में हर वक्त एक अजीब तरह की मानसिक असुरक्षा , भविष्य की चिंता में घिरे रहते थे। संबंधों में एक अदृश्य खिंचाव रहता था। ऑफिस हो या घर संशकित दृष्टि से तौलने , खुद को ज्यादा काबिल की समझने की ग्रंथि से लैस , संबंधों की गरिमा खो बैठे थे।
अपना सुख प्यारा, अपना दुख सबसे बड़ा दुख की सोच हमें कितना छोटा कर देता है। ये समझ आ रहा है। हर इंसान किसी न किसी रोग या समस्या से दुखी है परेशान है। पर जीवन तो है उसके पास। अचानक सामने खड़ी मौत से तो उसका सामना नहीं हो रहा। जो अपनों के स्नेहिल छांव में समय बीता रहे हैं। वे भाग्यशाली हैं। भले ही किसी पीड़ा से गुजर रहे हों । पर वह अकेला तो नहीं है न। कितने लोग अकेले फंसे है। अवसाद , निराशा से जुझ रहे हैं। कामगार वर्ग भय से सड़को पर निकल आया है। घर से दूर और रोजगार नहीं मिलने की आशंका उन्हें मौत के मुंह मे ढकेल दिया है। उन्हें सही तरीके से समझाने और सुरक्षा देने की कोशिश में सरकार और समाजसेवी लगे हुए हैं। इस समय सबको सबका सानिध्य चाहिए। लोग इस तरह सोचने लगे हैं। सोच बदली है और ये सोच साकारात्मकता की ओर ले जा रही है।

सहायिका/सहायक का जीवन भी जीवन हैं।अपने साथ-साथ उनकी जिंदगियां भी कीमती हैं।हर घर में ये सोच आई है या लाई गई जैसे भी। समाज में समानता व मानवीय दृष्टिकोण में वृद्धि हुई है। मौत के भय ने सबको एक ही प्लेटफार्म पर ला दिया है। लेकिन यह भी सच है कि लगातार लोगों की नौकरियां जा रही हैं। रोज ही किसी न किसी फर्म में छंटनी हो रही है । या पूरा फर्म ही बंद किया जा रहा है।हजारों लोगों के जीवन में जीविका का आसन्न संकट आ खड़ा हुआ है। बिजनेस ठप्प पड़ा हुआ है। मॉल बंद होने के कगार पर हैं।ई-बिजनेस थोड़ा संभला है।भारत विश्व के साथ मिलकर अपनी जीजिविषा के सहारे इस संकटकाल को पार कर जाने का प्रयत्न कर रहा है।

आज पूरी विश्व की सोच व्यष्टि से समष्टि की ओर उन्मुख हो रही है। उत्तरोत्तर ये सोच और बढ़े । यही मंगलकामना।

  • महिमा श्री
  • mahima shree

 

परिचय:-

शिक्षा:- स्नातकोत्तर- पत्रकारिता व जनसंचार (मा.च.रा.प.ज.वि.),  एम.सी.ए.(इग्नु)

-सीनियर फेलोशिप(2019-2020)मिनिस्ट्ररी ऑफ कल्चर,नई दिल्ली

-स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता

-एकल काव्य संकलन “अकुलाहटें मेरे मन की”, अंजुमन प्रकाशन 2015,

-कई साझा संकलनों में कविताएं व लघुकथा प्रकाशित

-देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और ब्लाग्स में रचनाएं प्रकाशित

मेल:- mahima.rani@gmail.com

Blogs:www.mahimashree.blogspots.com

 

 

 

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जन्म-मरण की पीड़ा से मुक्त हो जाने का मार्ग है- विपश्यना https://www.atootbandhann.com/2020/04/janm-maran-se-mukti-ka-marg-hai-vipashyana.html https://www.atootbandhann.com/2020/04/janm-maran-se-mukti-ka-marg-hai-vipashyana.html#respond Mon, 13 Apr 2020 06:06:44 +0000 https://www.atootbandhann.com/?p=6581 हम सब अपनी पहचान  इस स्थूल शरीर से करते हैं | जब की इसके अन्दर अनित्य अविनाशी आत्मा का निवास होता है | इस आत्म स्वरुप को जानना ही आध्यात्म का मुख्य उद्देश्य है | जिसके बाद सारे बंधन ढीले पड़ जाते हैं | इसको जानने का एक तरीका ध्यान या meditation भी है | […]

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हम सब अपनी पहचान  इस स्थूल शरीर से करते हैं | जब की इसके अन्दर अनित्य अविनाशी आत्मा का निवास होता है | इस आत्म स्वरुप को जानना ही आध्यात्म का मुख्य उद्देश्य है | जिसके बाद सारे बंधन ढीले पड़ जाते हैं | इसको जानने का एक तरीका ध्यान या meditation भी है | ये ध्यान कई तरीके से किया जा सकता है | विपश्यना भी उसी का एक तरीका है | जो केवल साक्षी भाव से देखना समझना है | यहीं सेखुलते हैं बंधन और होता है आत्मविस्तार | कैसे ?आइये जानते हैं…

जन्म-मरण की पीड़ा से मुक्त हो जाने का मार्ग है- विपश्यना

राजकुमार सिद्धार्थ गौतम का बुद्ध हो जाने की यात्रा बिहार आकर ही पूरी हुई। मात्र 35 वर्ष के ही वय में उन्हें सत्य का ज्ञान हो गया। जिसे उन्होंने धम्म कहा।धम्म यानि जिसे धारण करते हैं। धारयति- इति धर्म:!। अर्थात जो धारण करने योग्य है। वही धर्म है। धर्म (संस्कृत) और धम्म (पालि)।  गौतम बुद्ध ने इसके लिए आष्टांगिक मार्ग दिखाया-

सम्यक दृष्टि : चार आर्य सत्यों को मानना, जीव हिंसा नहीं करना, चोरी नहीं करना, व्यभिचार नहीं करना( ये शारीरिक सदाचरण हैं। )

सम्यक संकल्प,

सम्यक वाणी ,

सम्यक कर्म,

सम्यक आजीविका ,

सम्यक व्यायाम ,

सम्यक स्मृति,

सम्यक समाधि।

सदाचरण को ही उन्होंने धम्म कहा। जो आज के धर्म से बिल्कुल भिन्न है।यहाँ आत्मा-परमात्मा, आस्तिक-नास्तिक, किसी प्रकार की आकृति, मंत्र, रंग किसी भी तरह की कल्पना का सहारा नहीं। किस भी प्रकार की बहस बाजी नहीं है। कोई बौद्दिक –विलास नहीं।किसी प्रकार की ईश्वरीय कल्पना नहीं, कोई कर्मकांड नहीं। सिर्फ अपनी सांसो और शरीर के प्रत्येक अंग में उठनेवाली संवेगों को देखना है।

 

धम्म हमें बर्हिमुखी से अंतर्मुखी होना सिखाता है। गौतम बुद्ध को बुद्दत्व या बोधि की प्राप्ति के पश्चात उन्हें संज्ञान हुआ कि सत्यमार्ग को विश्वजन तक ले जाना होगा। ताकि हर मनुष्य अपने दुख-संताप की सच्चाई से अवगत हो और इस जनम-मरण की पीड़ा से उठकर जीवन को भोगे नहीं स्वीकार कर इनसे तटस्थ रहने की कला को जाने। और उस विशेष प्रकार की दृष्टि को उन्होंने विपश्यना(संस्कृत), विपस्सना(पालि)  साधना कहा।

क्या है विपश्यना

विपश्यना का अर्थ है विशेष प्रकार से देखना। विपश्यना जीने का अभ्यास है इसके लिए जरुरी नहीं की कोई भिक्षु/ भिक्षुणी का जीवन चुने। गृहस्थ भी भली-भाती इसका पालन कर अपने सुख-दुख को सम्यक दृष्टि से देखने का अभ्यास करते रहें । और इसे किसी भी सम्प्रदाय, जाति व देश का व्यक्ति सीख सकता है। विपश्यना हमें सम्यक दृष्टि, सम्यक वाणी के साथ सत्याचारण के लिए प्रेरित करता है। विपश्यना में सिखाया जाता है – सब अनित्य है। जो भी अंदर घट रहा है- क्रोध, रोग, शोक, राग, द्वेष की अनुभूति उनमें बहने की बजाए उन्हें दृष्टा की तरह देखो। सुख की अनुभूति है –वह भी जाएगा। दुख है वह भी टिकेगा नहीं।सब अनित्य है। कुछ भी नित्य नहीं।  उन्हें बस अपने भीतर सांसो के आने-जाने की क्रिया के साथ घटते हुए देखते रहो।

 

बर्मा से हुई वापसी

कहा जाता है कि कई वर्षो के कठिन तप के बाद भी सिद्धार्थ गौतम को सत्य की प्राप्ति नहीं हो रही थी। फिर उन्होंने विपश्यना के द्वारा सत्य के मार्ग को ढूंढ निकाला। ऐसा नहीं था कि विपश्यना की खोज सिद्धार्थ गौतम ने किया था। इस विशेष प्रकार की साधना या कहें दृष्टि के बारे में  गीता, वेदो और उपनिषदों में भी कहा गया है।पर इसे जन-जन तक गौतम बुद्ध ने ही पहुँचाया।और इसके लिए उन्होंने संस्कृत नहीं जन की भाषा मागधी जिसे अब हम पालि भाषा कहते हैं  में दिया।

बर्मा ने संरक्षित किया मूल धम्म

माना जाता है कि बुद्ध के परिनिर्वाण के 500 वर्षो के बाद ही भारतवासी अपने असली धम्म/  धर्म को भूल बैठे। और कई प्रकार के अंधविश्वासों और कर्मकांडों में लिप्त हो कर , सम्प्रदायों में बंटकर सही जीवन दृष्टि को खो बैठे। किंतु बौद्ध भिक्षुओं द्वारा बर्मा, थाईलैंड आदि देशों में विशुद्द धर्म/ धम्म के प्रति सर्मपित आचार्यों ने इसे शुद्द  रुप में संरक्षित रखा।और पीढ़ी दर पीढ़ी अपने शिष्यों को हस्तांरित करते गए।

सयाजी उबा खिन

बर्मा के अचार्य सयाजी उबा खिन  आजीवन लोगों को शुद्ध धम्म से परिचय कराते रहे। उन्हें इस बात की हमेशा चिंता रही कि जिस शुद्ध धम्म को हमें भारत ने दिया आज वही भूला बैठा है । कैसे पुन: भारत में इसे पहुँचाया जाए। जब बर्मा के ही प्रतिष्ठित हिंदू व्यवसायी श्री सत्यनारायण गोयनका अपने शारिरिक कष्ट को दूर करने उनके पास गये। और जब उन्हें विपश्यना से लाभ हुआ। तो उनके शिष्य बन गए। करीब पंद्रह वर्षों की साधना करते हुए, वे अपने गुरु की पीड़ा को आत्मसात किया। औऱ संकल्प लिया गुरु दक्षिणा मेरी यही होगी कि भारत  जा कर विपश्यना से सबको फिर से परिचय करवाउं। सत्यनारायण गोयनका ने नासिक के पास इगतपूरी(1976) में विपश्यना धाम की स्थापना की।उसके बाद देश-विदेश में इस तरह के कई विपश्यना केंद्र खोले। जहाँ निशुल्क 10 दिवसीय विपश्यना साधना का प्रशिक्षण दिया जाता है।

इस दौरान सन 1983 किरण बेदी के कार्यकाल में तिहाड़ जेल में खुंखार कैदियों को 10 दिवसीय विपश्यना साधना सिखाई। उसके बाद लगातार कई शिविर लगाकर कैदियों की जीवन दृष्टि ही बदल दी।इस सफलता से प्रभावित होकर सरकार ने तिहाड़ जेल में स्थाई विपश्यना शिविर की स्थापना करने की इजाजत दे दी ।

10 दिवसीय विपश्यना प्रशिक्षण शिविर

हर महीने भारत और दुनिया भर के विपश्यना धाम केंद्रो में 10 दिन के दो निशुल्क शिविर लगते हैं। रहना-खाना सभी इसमें शामिल है। जिनमें करीब 70 के आस-पास प्रशिक्षु ऑनलाइन रेजिस्ट्रेशन द्वारा लिए जाते हैं। जिनमें हर आयु , वर्ग के स्त्री-पुरुष शामिल होते हैं। शुरुआत में यह शिविर सवा महिने का होता था। किंतु प्रशिक्षुओं को इतने दिन अपनी शिक्षा, व्यवसाय, गृहस्थी और नौकरी छोड़ कर शिविर में रहना मुश्किल होता था।

आर्य मौन साधना

आर्य मौन यानि शरीर, वाणी एवं मन का मौन।करीब दस दिनों तक 10 घंटे की मौन साधना चलती है। इस दौरान और उसके बाद भी प्रशिक्षुओं /साधकों आपस में आँखों से भी कुछ इशारा नहीं कर सकते। अगर कोई परेशानी हो रही है या कुछ जानना है तो सहायक अचार्य से इस बारें निर्धारित समय पर चर्चा कर सकते हैं। इन दस दिनों में परिवार और दुनिया से कोई सम्पर्क साधक नहीं रख सकते। ना ही शिविर छोड़ कर जा सकते हैं। कोई शारीरिक परेशानी आ गई तो डॉक्टर शिविर में ही आ कर देख जाते हैं। मोबाईल आदि पहले दिन ही लेकर लॉक अप में रखवा दिया जाता है।

आनापानसति साधना

प्रशिक्षण के तीन दिन आनापान साधना सिखाई जाती है।10 घंटे की नियमावली होती। जो प्रात: 4 बजे से शुरु होकर रात्रि के 9:30 तक चलती है।

पालि भाषा में ‘आन’ का अर्थ है श्वांस लेना, ‘अपान’ का अर्थ है श्वांस छोड़ना, ‘सति’ का अर्थ है के साथ मिलकर रहना।

आनापान साधना में श्वांसों के प्रति सजगता का अभ्यास करवाया जाता है। दृष्टा भाव से आँखे बंद कर भी सजगता के साथ नासिका केंद्रो के अग्र भाग पर बहुत ही ध्यानपूर्वक  श्वासों को आते-जाते महसूस करना होता है।सांसे गहरी हैं या धीरे चल रही हैं। दाई नासिका चल रही है या बाई या फिर दोनों एक साथ। उन्हें बस महसूस करते रहना उनको योग क्रिया की तरह किसी प्रकार की कंट्रोल या छेड़-छाड़ या प्रशिक्षित नहीं करना होता । वह जैसी है वैसी ही बने रहने देना है। इसके अभ्यास के फलस्वरुप साधक अपने मन को नियंत्रित करना सीखने लगता है। मन शांत और स्थिर रहने लगता है। अनावश्यक सोच , तनाव और चिंता से मुक्त होने लगता है।

विपश्यना साधना

आनापानसति साधना में साधक पाँच शीलों का साधना करते हुए समाधि की अवस्था में पहूँचता है।प्रशिक्षण के चौथे दिन विपश्यना क्या है?विपश्यना के लाभ आदि के बारें बताने के बाद। इसे करने की विधि बताई जाती है। विपश्यना द्वारा वह इन शीलों का पालन करते हुए प्रज्ञा के क्षेत्र में उतरता है।

विपश्यना में शील, समाधि के अभ्यास के बाद प्रज्ञा की ओर निरंतर बढ़ने का प्रशिक्षण मिलता है।बार-बार अभ्यास कर साधक को सूक्ष्मता से सूक्ष्मतम की ओर बढ़ना होता है। विपश्यना में आँखें बंद कर सिर से पांव तक और पांव से सिर तक लगातार यात्रा करते हुए, अपने चित से विकार निकालता है। और प्रज्ञा जगाता है। शरीर के सभी अंगों पर होनेवाले संवेगो को अनुभव कर स्थिर चित रखना होता है। किसी अंग में दर्द हो रहा है तो उसे भी दृष्टा की तरह ही देखना होता है। किसी अंग में स्फुरण या हृदय में प्रसन्नता की अनुभूति हुई उसे भी दृष्टा की तरह ही देखना है।योग की भाषा में कहें तो इस साधना में आँखे बंद कर माथे के बीच जिसे क्राउन चक्र कहते हैं से शुरु कर नीचे मुलाधार तक देखते जाना है फिर मुलाधार से क्राउन चक्र तक लौट कर आना। इसी क्रिया को बार-बार दोहराना होता है।

 

मंगल मैत्री साधना

साधना के 10 वें  दिन मंगल मैत्री भाव रख के विश्व के कल्याण की प्रार्थना सिखायी जाती है । जिसमें सर्व मंगल भवतु का भाव विकसित होता है।  आचार्य सत्यनारायण गोयना जी पालि में सबके मंगल की प्रार्थना तो प्रतिदिन साधना के प्रत्येक बैठकी में करते ही हैं। 10 वें दिन मंगल मैत्री साधना के बाद साधको को मौन तोड़ आपस में परिचय और बातचित करने का मौका दिया जाता है। शाम चार बजे सभी के लैपटॉप, मोबाइल इत्यादि वापस कर दिये जाते हैं। और 11 वें दिन साधना के बाद प्रतिदिन सुबह-शाम अभ्यास करने के लिए हिदायत देने के पश्चात प्रात: 9 बजे शिविर समाप्त हो जाता है। वर्ष में दो से तीन बार साधक इस शिविर में शामिल हो सकते हैं।

  • महिमा श्री

लेखिका -महिमा श्री

 

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ध्यान की पाठशाला -भाग -1

ध्यान या meditation आज के तनावपूर्ण समय की मांग है | ये हम कई जगह पढ़ते हैं | ध्यान के प्रति आकर्षित  हैं | लेकिन ध्यान करने बैठते हैं तो ध्यान नहीं  हो पाता | मन भटक जाता है | किसी को रोना बहुत आता है तो कोई उदास हो जाता है | अगर आपने आज सोचा की ध्यान करा जाए और आज से ध्यान पर बैठने लगे तो आपको अपना दिमाग सुस्त  महसूस होने लगेगा | याहन समझने की जरूरत है कि दिमाग का सुस्त होना और अवेयर होनादो अलग चीजे हैं | असली ध्यान दिमाग को सुस्त नहीं करता बल्कि कमल की तरह खिला देता है | व्यक्ति ज्यादा तरोताजा महसूस करता है |

ध्यान की पाठशाला -mindful eating

जिस तरफ से हम विज्ञान, कला या किसी अन्य विध्या को एक दिन में नहीं सीख जाते उसी तरह से ध्यान भी एक दिन में सीखना संभव नहीं | इसमें भी समय लगता है | अभी तक हमने जो कुछ भी सीखा होता है उसका संबंध बाह्य जगत से होता है पर ध्यान का संबंध अंत: जगत से होता है | पहली बार हम कुछ ऐसा सीख रहे होते हैं हैं जो हमने आज तक नहीं सीखा होता है | इसलिए समय लगना  स्वाभाविक है |

सबसे पहले तो ये समझना होगा की ध्यान है क्या ?

आम भाषा में कहें तो ध्यान का अर्थ है अपने विचारों को देखना , उन्हें अपनी इच्छानुसार बदल देना |

इतनी आसान सी लगनी वाली बात वास्तव में उतनी आसान नहीं है | ऐसा ही एक प्रश्न लेकर एक व्यक्ति अपने गुरु के पास गया | उसने अपने गुरु से पूछा , ” गुरुदेव ध्यान की कोई आसान विधि बताये ?”

गुरु ने कहा, “ये बहुत आसान है | बस तुम्हें इस बात का ध्यान रखना है कि तुम्हारे दिमाग में बन्दर ना आये | ”

उत्तर पा कर व्यक्ति बहुत खुश हो गया | वो घर आकर ध्यान लगाने के लिए आँखे बंद कर जैसे ही बैठा उसे सबसे पहले बन्दर दिखाई दिया | उसने बहुत कोशिश की कि उसे बन्दर ना दिखाई दे | पर हर बार आँख बंद करते ही बन्दर आकर खड़ा हो जाता | धीरे -धीरे उसकी स्थिति ये हो गयी कि उसे खाते -पीते उठते बैठते भी बन्दर का ही  विचार मन पर हावी रहता | वो फिर गुरु के पास गया और बोला ,  ” गुरुदेव ये तो संभव ही नहीं है | जितना मैं कोशिश करता हूँ कि बन्दर ना दिखे उतना ही बन्दर सामने आकर खड़ा हो जाता है |”

गुरुदेव मुस्कुराये, ” मन का स्वाभाव ही ऐसा है | जिस चीज से रोकोगे | यह वहीँ वहीँ दौड़ेगा | तो ध्यान का पहला नियम है रोकना नहीं हैं | आँख बंद कर ध्यान पर बैठने से पहले बहुत सारे छोटे -छोटे बेसिक स्टेप्स बार -बार करके अपने आप को ध्यान के  लिए तैयार करना है |

क्या हैं ध्यान के लिए ये बेसिक स्टेप्स ?

सबसे महत्वपूर्ण स्टेप ये हैं कि जो आप कर रहे हैं उसे करने में अपना पूरा ध्यान दें |  मान लीजिये कि आप खाना -खा रहे हैं | तो एक -एक शब्द को स्वाद , रूप , रस , गंध का अनुभव करते हुए खाएं |इसे mindful eating भी कहते हैं |

आमतौर पर हमारी वैचारिक प्रक्रिया कैसी होती हैं | उदाहरण के लिए अगर आज आप ध्यान से खाना खाने जा रहे हैं | तो विचार कुछ इस तरह से आयेंगे …

टमाटर आलू की  सब्जी तो स्वादिष्ट बनी है |
थोडा तीखा और होता तो ..
वैसे मुझे मटर पनीर ज्यादा पसंद हैं |
फलानी चाची  कितना अच्छा मटर पनीर बनाती हैं |
पर रेसिपी नहीं बताती …पिछली बार तो पार्टी में सबके सामने कह दिया था , तुम नहीं बना पाओगी | पता नहीं क्या समझती हैं अपने आपको | हां , आजकल बेटे की पढाई का टेंशन हैं | पर किसको अपने बच्चों की पढाई का टेंशन नहीं है ? मेरे भी तो बच्चे हैं | बिट्टू की मैथ्स की टीचर अच्छी नहीं हैं …….

तो आपने देखा खाने से शुरू हुए विचार बिट्टू की मैथ्स तक पहुँच गए | श्रृंखला कुछ भी हो सकती है | पर हमारे सोचने की प्रक्रिया बेरोकटोक ऐसी ही है | कहते हैं कि एक घंटे में हमारा दिमाग करीब ५० से ६० हज़ार विचारों को डिकोड करता है | मन की सारी  भटकन इन्ही विचारों की वजह से है | इसलिए अवेयर होकर खाने के लिए जरूरी है की जब आप खाएं और दिमाग भटक कर इधर -उधर पहुंचे | उसे वापस खाने के रूप, रस गंध पर ले आये |

mindful eating के लिए आपको अपने खाने पर फोकस धीरे -धीरे इस तरह से बढ़ाते जाना है …

1) आपको यह देखना है आप के लिए क्या खाना बेहतर है | खाने की लिस्ट बनाते समय सेहत को स्वाद से या स्ट्रेस बर्नर फ़ूड से ऊपर रखें |
2) खाना हमेशा टेबल या खास स्थान पर खाएं | टी वी देखते समय या कहीं भी नहीं | हल्का म्यूजिक चला सकते हैं |
3) खाने की टेबल पर केवल भूख लगने पर ही जाएँ | अगर आप स्ट्रेस में खाते हैं तो आप बार -बार मेज की तरफ दौड़ेंगे | हर बार दौड़ने पर आप ठहर कर सोचें की क्या वास्तव में मुझे भूख लगी है |
4) थोड़ी मात्रा में छोटी प्लेट में खाना लें और धीमे धीमे स्वाद लेते हुए खाएं |
5) अपनी सारी इंदियों को भोजन पर केन्द्रित कर दें |

आप देखेंगे कि धीरे धीरे आप खाते समय सिर्फ खाने पर फोकस कर पायेंगे | आपको अपने विचारों पर थोडा सा नियंत्रण शुरू हो पायेगा | इससे दो फायदे और होंगे …

१- आप बहुत कम खाने में तृप्त हो जायेंगे | जो व्यक्ति वजन घटाना चाहते हैं उनके लिए ये बहुत कारगर तरीका है |
२…आपका पाचन तंत्र मजबूत होगा | अच्छे से एंजाइम निकलेंगे और आप शरीर पहले से ज्यादा स्वस्थ व् उर्जावान महसूस करने लगेगा |

सबसे पहले आप इस अवेयरनेस के साथ कम से कम दिन में एक बार खाना खाइए | फिर अन्य कामों में भी इसे अपनाइए |

आप देखेंगे कि आपके विचार कुछ थमने लगेंगे |

क्रमश :

वंदना बाजपेयी

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लेख -सच -सच कहना यार मिस करते हो कि नहीं : एक चिंतन

 शायद आपको याद हो अभी कुछ दिन पहले मैंने गीता जयंती पर एक पोस्ट डाली थी , जिस में मैंने उस पर कुछ और लिखने की इच्छा व्यक्त की थी | इधर कुछ दिन उसी के अध्यन में बीते | ” जीवन क्या है , क्यों है या सहज जीवन के प्रश्नों का मंथन मन में हो रहा था | इसके विषय में कुछ लेख atootbandhann.com में लिखूँगी , ताकी जिनके मन में ऐसे सवाल उठते हैं, या इस विषय में रूचि हो,  वो उन्हें आसानी से पढ़ सकें | वास्तव में यह लेख नहीं एक परिचर्चा होगी जहाँ आपके विचारों का खुले दिल से स्वागत होगा |

सच -सच कहना यार मिस करते हो कि नहीं : एक चिंतन 

                                 पर आज कुछ लिखने का कारण शैलेश लोढ़ा जी ( तारक मेहता , वाह -वाह क्या बात है , फ्रेम ) की कविता है , जो मैने  यू ट्यूब पर सुनी | कविता का शीर्षक है , ” सच -सच कहना यार मिस करते हो कि नहीं |” दरअसल ये कविता एक आम मध्यम वर्गीय परिवार से सफलता की ऊँचाइयों पर पहुंचे व्यक्ति की है | ये कविता उनके दिल के करीब है | इस कविता के माध्यम  से वो अपने बचपन के अभावों वाले दिनों को याद करते हैं और आज के धन वैभव युक्त जीवन से उसे बेहतर पाते हैं | बहुत ही मार्मिक बेहतरीन कविता है |  हम सब जो  उम्र के एक  दौर को पार कर चुके हैं कुछ -कुछ ऐसा ही सोचते हैं | मैंने भी इस विषय पर तब कई कवितायें लिखी हैं जब मैं अपने गृह नगर में सभी रिश्ते -नातों को छोड़ कर महानगर के अकेलेपन से रूबरू हुई थी |

क्योंकि इधर मैं स्वयं की खोज में लगी हूँ इस लिए कविता व् भावनाओं की बात ना करके तर्क की बात कर रही हूँ |  शायद हम किसी निष्कर्ष पर पहुँचे  | आज हम गुज़रा जमाना याद करते हैं पर जरा सोचिये  हम खतों की खुश्बू को खोजते हैं , भावुक होते हैं लेकिन जैसे ही बेटा दूसरे शहर पहुँचता  है तुरंत फोन ना आये , तो घबरा जाते हैं | क्या खत के सुख के साथ ये दुःख नहीं जुड़ा था , कि बेटे या किसी प्रियजन के पहुँचने का समाचार भी हफ़्तों बाद मिलता था | जो दूर हैं उन अपनों से कितनी बातें अनकही रह जाती थीं |

क्या ये सच नहीं है कि साइकिल पर चलने वाला स्कूटर और कार के सपने देखता है | इसके लिए वो कड़ी मेहनत करता है |

सफल होता है , तो स्कूटर खरीदता है , नहीं सफल होता है तो जीवन भर निराशा , कुंठा रहती है |  वहीँ कुछ लोग इतने सफल होते हैं कि वो मर्सिडीज तक पहुँच जाते हैं | फिर वो याद करते हैं कि सुख तो साइकिल में ही था | लेकिन अगर सुख होता तो आगे की यात्रा करते ही क्यों ? क्यों स्कूटर, घर, बड़ा घर , कार , बड़ी कार के सपने पालते , क्यों उस सब को प्राप्त करने के लिए मेहनत करते | जाहिर है सुख तब भी नहीं था कुछ बेचैनी थी जिसने आगे बढ़ने को प्रेरित किया | किसने कहा था मारुती ८०० लेने के बाद मर्सीडीज तक जाओ | जाहिर है हमीं ने कहा था , हमीं ने चाहा था , फिर दुःख कैसा ? क्योंकि जब उसे पा लिया तो पता चला यहाँ भी सुख नहीं है | कुछ -कुछ ऐसा ही हाल नौकरी की तलाश में दूसरे शहर देश गए लोगों का होता है | पर अपने शहर में, देश में वो नौकरी होती तो क्या वो जाते |अगर वहां बिना नौकरी के रह रहे होते तो क्या वहां पर वो प्यार या सम्मान मिल रहा होता जो आज थोड़े दिन जाने पर मिल रहा है | क्या वहां रहने वाले लोग ये नहीं कहते , “अच्छा है आप तो यहाँ से निकल गए |”

पिताजी कहा करते थे , ईश्वरीय व्यवस्था ऐसी है कि दोनों हाथों में लड्डू किसी के नहीं होते | जो हमारे पास होता है उसके लिए धन्यवाद कहने के स्थान पर जो हमारे पास नहीं होता है हम उस के लिए दुखी है | तभी तो नानक कहते हैं , ” नानक दुखिया सब संसारा |”लेकिन हम में से अधिकतर लोग नौस्टालजिया में जीते हैं ….जो है उससे विरक्ति जो नहीं है उससे आसक्ति | मुझे अक्सर संगीता पाण्डेय जी की कविता याद आती है , ” पास थे तब खास नहीं थे |”मृगतृष्णा इसी का नाम है …. हर किसी को दूर सुख दिख रहा है , हर कोई भाग रहा है |

ख़ुशी शायद यात्रा में है , जब हम आगे बढ़ने के लिए यात्रा करते हैं ख़ुशी तब होती है … कुछ पाने की कोशिश में की जाने वाली यात्रा का उत्साह  होता है | पर शर्त है ये यात्रा निराशा कुंठा के साथ नहीं प्रेम के साथ होनी चाहिए | यह तभी संभव है  जब ये समझ हो कि ख़ुशी आज जहाँ हैं वहीँ  जो अभी मिला हुआ है उसी में निराश होने  के स्थान पर खुश रहने में हैं | ख़ुशी ये समझने में है कि जब हम -आप अपने बच्चों के साथ ठेले पर  गोलगप्पे खाते हुए पास से गुज़रती मर्सीडीज को देख कर आहे भर रहे होते हैं, ठीक उसी समय वो मर्सीडीज वाला बच्चों के साथ समय बिताते , जिन्दगी के इत्मीनान और लुत्फ़ का आनंद उठाते हुए हम को -आपको देख कर आह भर रहा होता है | तो क्यों ना हम तुलना करने के स्थान पर आज  अभी जो हमें मिला है उस पल का आनंद लेना सीखे … क्योंकि किसी के लिए वो सपना है , भले ही जीवन की दौड़ में वो उससे पीछे हो या आगे , क्योंकि पीछे की यात्रा संभव नहीं |

जब ये समझ आ जायेगी तो संतोष आएगा और कुछ भी मिस करने की जरूरत नहीं पड़ेगी |

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वंदना बाजपेयी

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सोहम या सोऽहं ध्यान साधना-विधि व् लाभ https://www.atootbandhann.com/2018/10/soham-meditation-in-hindi.html https://www.atootbandhann.com/2018/10/soham-meditation-in-hindi.html#comments Mon, 22 Oct 2018 05:00:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2018/10/22/soham-meditation-in-hindi/ आज के तनाव युक्त जीवन में हम बहुत कम आयु में ही तमाम मनोशारीरिक रोगों का शिकार हो रहे हैं | एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ तनाव , जीवनशैली में बदलाव आदि इसके कारण हैं |  ऐसे में जरूरी है कि शुरू से ही इस ओर ध्यान दिया जाए | ध्यान या मेडिटेशन […]

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सोहम या सोsहं ध्यान साधना

आज के तनाव युक्त जीवन में हम बहुत कम आयु में ही तमाम मनोशारीरिक रोगों का शिकार हो रहे हैं | एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ तनाव , जीवनशैली में बदलाव आदि इसके कारण हैं |  ऐसे में जरूरी है कि शुरू से ही इस ओर ध्यान दिया जाए | ध्यान या मेडिटेशन के द्वारा हम अपने मनोभावों को नियंत्रित कर सकते हैं व् तनाव रहित बेहतर जिन्दगी जी सकते हैं | सोहम या सोsहं  साधना ध्यान की एक ऐसी ही विधि है |

सोहम या सोऽहं ध्यान साधना 

जब हम प्राण शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो हमारा सबसे पहले ध्यान साँसों पर जाता है | सांस अन्दर लेने और बाहर निकालने की प्रक्रिया ही जीवन है | सांस लेना छोड़ते ही व्यक्ति मृत हो जाता है | जीवन जीने के लिए साँसों का बहुत महत्व है और इन्हीं साँसों का इस्तेमाल हम सोहम या सोऽहं ध्यान साधना में करते हैं |

सबसे पहले तो हमें ये समझना होगा कि ध्यान का अर्थ है अपने को या अपनी असीमित उर्जा को पहचानना | जिस तरह से मानुष का बच्चा मनुष्य , घोड़े का बच्चा घोडा , गाय का बच्चा गाय ही होता है उसी तरह से परमात्मा जिसे हम परमपिता भी कहते हैं की संतान हमारी आत्मा भी बिलकुल उन्हीं की तरह है यानि परमात्मा की तरह ही हमारी आत्मा भी सर्वशक्तिमान है पर हम उसे पहचान नहीं पाते हैं क्योंकि हम अपनी शारीरिक पहचान में खोये रहते हैं | ध्यान के द्वारा हम अपनी असली पहचान को जान पाते हैं | हम जान पाते हैं कि हम सब अमर  व् असीमित उर्जा स्वरुप  परमात्मा हैं …सोऽहं  जैसा वो वैसे ही हम |अगर विज्ञानं की भाषा में कहें तो ये कुछ breathing techniques हैं , जिसके द्वारा हम अपनी साँसों को नियंत्रित करते हैं |

कैसे करते हैं सोहम या सोऽहं ध्यान साधना 

सोहम या सोऽहं ध्यान साधना  में अपनी साँसों पर ध्यान देना है | प्रकृति में हर चीज में एक ध्वनि है चाहें वो हमें सुनाई दे या ना दे | एक छोटे से इलेक्ट्रान और भूकंप की ध्वनि को भले ही हम ना सुन पाए पर हम सब जानते हैं कि उसका अस्तित्व है | कहते हैं कि ॐ एक ऐसे ध्वनि है जिस पर पूरा ब्रह्माण्ड कम्पन कर रहा है , इसे अंतर्नाद भी कहते हैं | हमारी सासों में भी एक ध्वनि है जो उसी ब्रह्मांडीय ध्वनि का एक रूप है | जब हम अपनी साँसों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं तो हमें महसूस होता है कि हम सां लेते समय सो अ अ अ अ की धवनि होती है अ अ अ की ध्वनि जब वायु का आदान प्रदान हमारे फेफड़े के कोशों के बीच में हो रहा हो तब होता है | वायु के निकलते समय हं कि ध्वनि होती है | जैसे जैसे ध्यान गहरा होता जाता है ये साफ़ -साफ़ सुनाई देने लगती है |

सोहम या सोऽहं  ध्यान साधना की विधि 

वैसे तो आप इसे किसी भी समय कर सकते हैं पर सूर्योदय का समय सबसे अच्छा रहता है ..
१ ) सूर्योदय के समय किसी खुले स्थान पर बैठ जाएँ |अगर पद्मासन में नहीं बैठ पा रहे हैं तो कुर्सी पर बैठ जाएँ और पैरों से क्रॉस बनाएं , हाथों की उँगलियों को आपस में फंसा कर रखें |  सुनिश्चित करें की आप एक आरामदायक अवस्था में बैठे हैं और आपका सारा शरीर मन , दिमाग सुकून में है , तभी आप् साँसों पर ध्यान केन्द्रित कर पाएंगे |
२)  अपनी रीढ़ की हड्डी सीढ़ी रखें | इससे पेल्विस, फेफड़े और सर एक सीढ़ी रेखा में आ जाते हैं और साँस निर्विघ्न व् दिमाग ज्यादा चेतन और रिलैक्स अवस्था में रहता है |
3) सांस अंदर लें और सो s s की ध्वनि पर ध्यान केन्द्रित करें |
4) सांस  थोड़ी देर रोकें |
5) सांस बाहर करते हुए हं कि ध्वनि पर ध्यान केन्द्रित करें |
6) सोहम या सोsहं मतलब जो तुम हो वाही हम हैं … सांस लेते समय महसूस करें की सांस के साथ ईश्वर आपके अन्दर प्रवेश कर रहा है और जो निकल रहा है वो आप हैं … दोनों में अंतर नहीं है , आप ही ईश्वर का रूप हैं |

 

सोहम या सोSहं ध्यान साधना के लाभ

                                       सोहम ध्यान साधना मन मष्तिष्क और शरीर तीनों के लिए लाभप्रद है | आइये जानते हैं इसके विभिन्न लाभों के बारे में …

आध्यात्मिक लाभ 

                   आज का जीवन तनाव युक्त जीवन है | सोहम ध्यान साधना मन व् विचारों को थामती है जिससे तनाव कम हो जाता है , गुस्सा कम आने लगता है व् मन शांत रहने लगता है | एक बार ब्रह्मकुमारी शिवानी ने अपने प्रवचन में कहा था कि आश्रम में आपका मन क्यों शांत रहता है ? लोगों का उत्तर था क्योंकि यहाँ तनाव पैदा करने वाले कारक नहीं होते | शिवानी जी ने कहा , नहीं यहाँ हम ध्यान द्वारा मन को संयमित करना करते हैं , तो कारक हावी नहीं हो पाते , बाहर जा कर करक हावी हो जाते हैं | इस कारण ध्यान जरूरी है चाहें आश्रम  में रहे या बाहर |

खून का सही प्रवाह 

                                 जिन लोगों को भी कमर या घुटने के दर्द की तकलीफ है उन्होंने महसूस किया होगा कि जब वो तनाव करते हैं तो दर्द बढ़ जाता है | दर्द बढ़ने का कारण मांस पेशियों में तनाव के कारण हुआ खिंचाव है | सोहम ध्यान विधि से  सांस पूरी और सही तरीके से जाती है , सुबह की खुली हवा में प्रयाप्त ओक्सिजन मिलती है , मन के रिलैक्स होते ही खून का प्रवाह सही होता है , मांस-पेशियों का तनाव भी कम होता है जिस कारण दर्द में आराम मिलता है |

दिमाग व् शरीर के मध्य समन्वय 

                                     सोऽहं साधना से मन व् शरीर के बीच समन्वय स्थापित हो जाता है | ध्यान करते समय हम पूरे शरीर को रिलैक्स करते हैं जिस कारन मांस -पेशियाँ तनाव रहित हो जातीहैं | साँसों पर ध्यान केन्द्रित करने के लिए मन को पूरी तरह से थामना होता है |
मन को थामने के लिए शरीर व् मन के बीच में एक पुल स्थापित होना जरूरी होता है | यह पुल नर्व कोशिकाओं से स्थापित होता है | जैसे -जैसे हम ध्यान में आगे बढ़ते जाते हैं नर्वस सिस्टम बेहतर पुल बनाने लगता है | जिससे मन व् शरीर में एकात्म स्थापित हो जाता है | ऐसा भ्रम  होता है कि शरीर हैं ही नहीं |
सद्गुरु जग्गी वशुदेव अपना अनुभव बताते हैं कि एक बार वो ध्यान में गए और जब उन्होंने आँखे खोलीं तो आस -पास भीड़ इकट्ठी हो गयी थी जबकि उन्हें लगा कि कुछ पल ही गुज़रे हैं , उन्होंने लोगों से पुछा तो पता चला कि १३दिन बीत गए हैं | यानि १३ दिन तक उन्हें अपने शरीर का भ्रम  तक नहीं हुआ | ऐसा केवल मन और शरीर के समन्वय से ही हो सकता है | इसमें शरीर को चलने के लियेंयुनतम उर्जा की आवश्यकता होती है |
आज लोग मोटापे से परेशान हैं क्योंकि वो मन की भूख मिटाने का प्रयास करते हैं जो कभी मिटती नहीं जबकि ध्यान करने वाले को ज्यादा भोजन की आवश्यकता ही नहीं होती |

किसी काम पर फोकस करने की क्षमता बढ़ना 

                                               आने देखा होगा कि कोई संगीतकार जब धुन बना रहा हो , कोई लेखक कुछ लिख रहा हो , कोई चित्रकार जब चित्र बना रहा हो या कोई वैज्ञानिक जब किसी सूत्र को पूरे मनोयोग से खोज रहा हो तो उसका अपने काम में फोकस इतना ज्यादा होता है कि उसे बाहर की कोई आवाज़ सुनाई ही नहीं देती | एक तरह से वो ध्यान की अवस्था में होता है | इसके विपरीत सोऽहं ध्यान में हम साँसों पर ध्यान लगा लार किसी काम पर फोकस ही सीखते हैं | एक ध्यान लगाने वाला व्यक्ति जिस भी काम को करेगा उसका फोकस काम पर ही केन्द्रित होगा | जीवन की छोटी बड़ी गुत्थियां जिनमें आम लोग उलझे रहते हैं उन्हें वो एकनिष्ठ फोकस के माध्यम से आसानी से सुलझा लेगा | एक निष्ठ फोकस सफलता का सूत्र भी है |

मानसिक  क्षमताओं का विकास 

                                 जब व्यक्ति ध्यान करता है तो मन शरीर में एकात्म स्थापित होने , फोकस होने पर उसे अपने प्रश्नों के उत्तर मिलने लगते हैं जैसे वो कौन है | हम् में से अधिकतर अपने शरीर की पहचान को ही अपनी पहचान मानते हैं | तमाम रिश्ते नाते , जान -पहचान के लोग आदि हमारे सुख -दुःख का कारण होते हैं | दूसरों द्वारा किया गलत व्यवहार हम भुला नहीं पाते और बार -बार उन्हीं बातों के चक्रव्यूह में घूम कर दुखी होते रहते हैं | ध्यान द्वारा अपनी वास्तविक पहचान जानने से सारे रिश्ते बस सहयात्री लगने लगते हैं | उनकी बातें अस्थिर लगने लगतीं हैं उन पर सोचना कम हो जाता है | इसके अतरिक्त हम किसी समस्या को भावुक हुए बिना गहराई से सोच कर किसी नतीजे पर आसानी से पहुँच सकते हैं |

खुशनुमा जिन्दगी की ओर 

                                 संसार में सब कुछ कम्पन शील है , स्थिर कुछ नहीं है जब हमारी साँसे और हमारी आत्मा के कम्पन के बीच तादाम स्थापित हो जाता है तो हामरी सोच का जीवन का स्वास्थ्य का आयाम बढ़ जाता है और हम एक स्वस्थ , सुखद जीवन की ओर बढ़ जाते हैं |
                                                तो सोऽहं मंत्र द्वारा अपनी चेतना का विस्तार करिए और एक स्वस्थ व् सुखद जीवन को पाइए |
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महाशिवरात्रि -एक रात " इनर इंजिनीयरिंग" के नाम

शिव नाम अपने आप में मन्त्र हैं | शिव अर्थात जो नहीं है |  जो नहीं है वो असीम है | क्योंकि वहीं कुछ नया प्रस्फुटित   होने की सम्भावना है | इस बात में जितना विरोधाभास नज़र आता है उतना ही विरोधाभाव स्वयं शिव में हैं |  जो आध्यात्म के मार्ग की ओर अग्रसर हैं वो जानते हैं कि जिसने शिव को जान लिया, नहीं होने  में होने को जान लिया , अज्ञानता में ज्ञान को जान लिया उसके व्यक्तित्व में संतुलन आ गया | शिव का व्यक्तित्व सात्विक गुण और तमो गुण दोनों को समेटे हुआ है | वो सदाशिव हैं स्थिर , शांत अविचल और रौद्र रूप रखने वाले भी जो संसार को नष्ट करते हैं | वो योगी भी हैं और परिवार से अतिशय प्रेम करने वाले भी, वो महा पवित्र हैं और अघोरी भी , मनुष्य , देवता और दानव  सभी शिव की पूजा करते हैं क्योंकि शिव के लिए कुछ भी अनछुआ नहीं है | जब हम शिव को अपना लेते हैं तो हम समग्र जीवन को अपना लेते है | यहाँ अच्छे और बुरे में चयन बंद हो जाता हैं | ये चयन बुद्धि करती है | बुद्धि से परे सहज रूप से जीवन को स्वीकारना , असीम को स्वीकारना अंत: चेतना के  सीमाओं से परे जाने पर ही संभव है |

महाशिवरात्रि -एक रात  ” इनर इंजिनीयरिंग” के नाम 

महाशिवरात्रि की रात हमें अपनी अंत: चेतना को असीम उर्जा से जोड़ने का अवसर देती है | इसे ऐसे समझा जा सकता है कि इस बाह्य जगत में जितनी चीजे इंजीनीयरों ने बनायीं उन सब को चलाने के लिए ऊर्जा की जरूरत थी | वो उर्जा प्रकृति में थी , उसे बस वहाँ  से लिया है | जब हम उस उर्जा को जो हमारे अंत: जगत में है उसे असीम उर्जा से जोड़ देते हैं तो हमारा ये शरीर दिव्य हो जाता है , जहाँ शक्ति असीम है पर जीवन सहज है , शांत है | वैदिक कथाओं में ऋषि – मुनि इस ज्ञान को जानते थे | असीम उर्जा को अपने अन्दर समाहित करके वो ऐसे काम कर पाते थे जो सामान्य मनुष्यों के बस के नहीं थे | इसी आधार पर तमाम मंत्रों का सृजन हुआ जो लोक कल्याणकारी हैं |
महा शिवरात्रि की रात एक ऐसी ही अनुपम रात्रि है जब आम मानव को इस उर्जा को अपने अन्दर प्रविष्ट कराने का और असीम से जुड़ने का अवसर मिलता है | अर्थात ये रात्रि “इनर इंजिनीयरिंग “की रात्रि है |

महाशिवरात्रि और उर्जा का उर्ध्वगमन

आप की जानकारी के लिए बता दें कि हर महीने चंद्रमास के चौदहवें दिन और आमवस्या से एक दिन पहले शिवरात्रि होती है | इस दिन इंसानी  प्रकृति का ऐसा विधान है कि उर्जा ऊपर की ओर बढती है | फरवरी मार्च के महीने में पड़ने वाली शिवरात्रि को महा शिवरात्री कहा गया है | प्रकृति का ऐसा विधान है की इस दिन यह उर्जा बढाने में सहायता करती है |

जब कोई भी आध्यात्मिक प्रक्रिया की जाती है चाहे वो शस्त्रीय नृत्य हो , गायन , योग या ध्यान सब का उद्देश्य उर्जा को ऊपर की और ले जाना होता है | महाशिवरात्रि की रात प्रकृति स्वयं ही इसमें सहयोग करती हैं | अगर आप चाहते हैं कि आप चेतना के दूसरे स्तर तक पहुंचे तो आप को इस  रात का विशेष लाभ उठाना चाहिए |

महाशिवरात्रि कि तैयारी कुछ दिन पहले से करें 

अगर आप आम गृहस्थ भाव  महाशिवरात्रि को शिव-पार्वती  के विवाह के रूप में मनाना चाहते हैं , तो ये एक अच्छा अवसर है जब आप  शिव पर अपनी तमाम बुराइयों को अर्पित कर दें व् शिव कृपा हासिल करे | | शिव को चढ़ाई जाने वाली तमाम वस्तुएं नकारात्मकता को सोखती हैं | विधान ऐसा बना दिया गया है कि  प्रेम भाव से शिव पर अर्पित करने के बाद आपके जीवन की नकारत्मकता  में कमी आये |

महत्वाकांक्षी लोग इसे उस दिन के तौर पर मानते हैं जब शिव ने अपने विरोधियों पर विजय प्राप्त की | यह बात उनको उर्जा से भर देती है |

वहीं योगियों के अनुसार यह वो रात है जब शिव कैलाश में स्थिर हो गए थे | जीवन में स्थिरता , आनंद और शांति चाहने वाले इसे इसी रूप में मनाते हैं |

आप किसी भी रूप में इसे मनाएं , अगर आप चेतना के दूसरे स्तर पर जाना चाहते हैं तो आप को इस रात का प्रयोग करना होगा | लेकिन उसकी तैयारी कुछ दिन पहले से करनी होगी |

 

महाशिवरात्रि से पहले क्या तैयारी  करें –

महाशिवरात्रि से २ या ३ दिन पहले से शुरू कर दें |

1)हल्का भोजन लें |
2) ॐ नम: शिवाय मन्त्र का जप प्रारम्भ करें
3) महाशिव रात्रि के दिन अपनी रीढ़ की हड्डी को जितना संभव हो सीधा रखे | मूल से ऊपर की और उर्जा का चढ़ना ही चेतना के अलग स्तरों तक पहुंचना है |
4) रात्रि जागरण करें |
5) अगर नहीं जागते हैं तो सामानांतर या क्षैतिज  न सोये |
6) पंचाक्षरी मन्त्र का जाप् करने  के साथ पंचभूतों की सेवा का संकल्प लें | पंचभूत यानि वो तत्व जिनसे हमारा शरीर बना हैं |

ऊर्जा के उर्ध्वगमन से आपके जीवन में क्या अंतर आएगा 

जैसे -जैसे उर्जा ऊपर के चक्रों की ओर चलती है , मन शांत होने लगता है , कई बार आपने महसूस किया होगा कि अच्छी जॉब व् तनख्वाह के बाद भी मन शांत नहीं रहता , ऐसा उर्जा चक्रों में बाधा के कारण होता है |
जीवन को सहज भाव से लेना  आ जाता है |
ख़ुशी की जगह आनंद की भावना आने लगती है | यहाँ ये ध्यान देना है कि ख़ुशी किसी चीज को पाने में है वो अल्पकालिक है जबकि आनंद मन की अवस्था है वो बहुत देर तक स्थायी भाव में रहता है | इसके बाद सुख -दुःख को संभव से लेना आ जाता है |

महाशिवरात्रि की रात आप इनर इंजिनीयरिंग करके स्वयं को ज्यादा शांत , स्थिर व् आनन्दमय बना सकते हैं |

आप सभी को महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं

वंदना बाजपेयी

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