गीता जयंती – करें श्रीमद्भगवद्गीता का रस पान

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गीता जयंती -करें श्रीमद्भगवद्गीता का रस पान
गीता जयंती -करें श्रीमद्भगवद्गीता का रस पान

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे

 

जिस दिन श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया था उस दिन मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी थी, इसीलिए इस दिन को गीता जयंती के रूप में मनाया जाता है। आज के दिन लोग गीता सुनते हैं, सुनाते हैं, और बाँटते हैं | उनका उद्देश्य होता है कि गीता के ज्ञान को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचाया जाए| ये पूरी तरह से एक ऐसा ग्रन्थ है जो ना सिर्फ आध्यात्मिक बल्कि , सफलता , रिश्तों और सही जीवन शैली की व्याख्या करता है |  ये पूरी तरह से एक ऐसा ग्रन्थ है जो ना सिर्फ आध्यात्मिक बल्कि , सफलता , रिश्तों और सही जीवन शैली की व्याख्या करता है |  ये पूरी तरह से एक ऐसा ग्रन्थ है, जो ना सिर्फ आध्यात्मिक बल्कि, सफलता, रिश्तों और सही जीवन शैली की व्याख्या करता है |गीता की यात्रा अततः तो आध्यात्मिक ही होती है पर शुरुआत में ही ये चमत्कार हो जाए ऐसा नहीं होताl पढ़ने वाला जिस अवस्था या मानसिक दशा में होता है उसी के अनुसार उसे समझता है l यह गलत भी नहीं है, क्योंकि बच्चों कि दवाइयाँ मीठी कोटिंग लपेट के दी जाति है l  पर जरूरी है जिज्ञासु होना और उसे किसी धर्मिक ग्रंथ की तरह ना रट कर नए नये अर्थ विस्तार देना l

गीता जयंती – करें श्रीमद्भगवद्गीता का रस पान

 

गीता की शुरुआत ही प्रश्न से होती है | प्रश्न और उत्तर के माध्यम से ही जीवन के सारे रहस्य खुलते जाते हैं | यूँ तो बचपन से ही मैंने गीता पढ़ी थी, पर पर गीता से मेरा विशेष अनुराग मेरे पिताजी के ना रहने पर शुरू हुआ | उस समय एक मित्र ने मुझे सलाह दी कि आप अपने पिता ने निमित्त करके गीता का १२ वां अध्याय रोज पढ़िए उससे आप को व् आपके पिता को उस लोक में शांति मिलेगी | उस समय मेरी मानसिक दशा ऐसी थी कि चलो ये भी कर के देखते हैं के आधार पर मैंने गीता पढना शुरू किया | मैंने केवल १२ वां अध्याय ही नहीं शुरू से अंत तक गीता को पढ़ा | बार –बार पढ़ा | कुछ मन शांत हुआ | जीवन के दूसरे आयामों के बारे में जाना | लेकिन जैसे –जैसे मैं गीता बार –बार पढ़ती गयी, हर बार कुछ नयी व्याख्या समझ में आयीं| दरअसल गीता एक ऐसा ग्रंथ है, जो पाठक के अंदर चिंतन कि प्रक्रिया प्रारंभ करती है l खुदी से ही खुदा मिलता है l एक आम समझ में गीता पुनर्जन्म की बात करती द्वैत दर्शन का ग्रंथ है पर आचार्य प्रशांत उसे अद्वैत से जोड़कर बहुत सुंदर व्याख्या करते हैं l

जैसे जब कृष्ण कहते हैं, “इन्हें मारने का शोक मत करो अर्जुन ये तो पहले से मर चुके हैंl तो द्वैत दर्शन इसकी व्याख्या सतत जीवन में इस शरीर के निश्चित अंत की बात करता है, परंतु आत्मा अमर है वो अलग- अलग शरीर ले कर बार -बार जन्म लेती है l पर अद्वैत इसकी व्याख्या चेतना के गिर जाने से करता है l  जिसकी चेतना गिर गई, समझो उसकी मृत्यु ही हो गई l उसे जीवित होते हुए भी मारा समझो l ऐसे के वाढ से या मर जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता l द्वैत और अद्वैत दोनों ही भारतीय दर्शन के सिद्धांत हैं, जैसे रुचिकर लगे समझ सकते हैं l दोनों की मंजिल एक ही है l आजकल संदीप माहेश्वरी / विवेक बिन्द्रा विवाद वाले विवेक जी ने इसकी व्याख्या कोरपेरेट जगत के अनुसार की थी lउनकी “गीता इन एकशन”  जितनी लोकप्रिय हुई उसकी आलोचना भी कुछ लोगों ने यह कह कर की, कि गीता की केवल एक और एक ही व्याख्या हो सकती है l पर मेरे विचार से जैसे भूखे को चाँद भी रोटी दिखता है, तो उसे रोटी ही समझने दो l लेकिन वो चाँद की सुंदरता देखना सीखने लगेगा l जब पेट भर जाएगा तो चाँद की सुंदरता को उस नजरिए से देखने लगेगा जैसा कवि चाहता है l लेखक, गुरु, ऋषि को हाथी नहीं होना चाहिए l जरूरी है जोड़ना जो जिस रूप से भी पढ़ना शुरू कर दे, अगर चिंतन करता रहेगा तो आगे का मार्ग खुलता रहेगा l

कुछ उद्धरणों के अनुसार इसे देखें, हम जिसे लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन कह कर अंग्रेजी पुस्तकों में पढ़ते हैं | हजारों साल पहले कृष्ण ने गीता में कहा है ….

यं यं वापि स्मरण भावं, त्यजयति अन्ते कलेवरं

जैसा –जैसा तेरा स्मरण भाव होगा तू  वैसा –वैसा बनता जाएगा |

यही तो है लॉ ऑफ़ अट्रैक्शन … आप जैसा सोचते हो वैसा ही आपके जीवन में घटित होता जाता है | जो कहता है कि आप की सोच ही आप के जीवन में होने वाली घटनाओं का कारण है l जैसे आप ने किसी की सफलता देख कर ईर्ष्या करी  तो आप की सोच नकारात्मक है और आप को सफलता मिलेगी तो भी थोड़ी l लेकिन अगर किसी की सफलता देखकर दिल खुश होकर प्रेरणा लेता है तो मन में उस काम को करने के प्रति प्रेम होगा नाकि जीतने का भाव l फिर तो उपलबद्धियाँ भी बेशुमार होंगी l

इसी को तो फिल्म सरल लहजे में रणछोड़ दास छाछण उर्फ फुनशूक वाङडू समझाते हैं l कहने का अर्थ है विदेशी बेस्ट सेलर हों या देशी फिल्में … आ ये सारा ज्ञान गीत से ही रहा है l

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः

संशय से बड़ा कोई शत्रु नहीं है क्योंकि ये हमारी बुद्धि का नाश करता है | आज कितने लोग जीवन में कोई भी फैसला ले पाने में संशय ग्रस्त रहते हैं | असफलता का सबसे बड़ा कारण संशय ही है | मैं ये कर पाऊंगा या नहीं की उधेड़ बुन  में काम आधे मन से शुरू किये जाते हैं या शुरू ही नहीं किये जाते | ऐसे कामों में असफलता मिलना निश्चित है |

अब जरा इस श्लोक को देखिये …

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन |

बहुशाखा ह्यनन्ताश्र्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् || ४१ ||

किसी लक्ष्य को पाने के लिए इससे बेहतर ज्ञान और क्या हो सकता है | जब एक ही लक्ष्य पर पूरा ध्यान केन्द्रित हो सफलता तभी मिलती है | जिनकी बुद्धि कई शाखाओं में विभक्त है, जो पूरी तरह से एक लक्ष्य में नहीं लगे हैं उनकी सफलता संदिग्द्ध है | अभी भी देखिये शीर्ष पर वही पहुँचते हैं जिनकी बुद्धि एक ही काम में पूरी तरह से लगी है

ये तो मात्र कुछ उदाहरण हैं जब आप पूरी गीता पढेंगे तो आप को उस खजाने से बहुत कुछ मिलेगा | हाँ, कुछ चीजों को देशकाल से जोड़ कर भी देखना होगा l हर रचना में उसका देश काल तो होता ही है l आजकल थोड़ा बहुत इधर -उधर से कुछ पढ़कर खुद को आध्यात्मिक दिखाने का एक नया अहम फैशन में है, जैसे दूसरों से श्रेष्ठ हो गए l ज्ञान का अहंकार छोटापन है l श्रेष्ठ एक अनपढ़ भी हो सकता है l  इसलिए गीता पढ़कर दूसरों से ज्यादा श्रेष्ठ हो जाएंगे, आध्यात्मिक हो जाएंगे की जगह मैं ये कहना ज्यादा पसंद करूंगी कि इससे जीवन की समझ थोड़ी बढ़ेगी l धीरे -धीरे थोड़ी और…

वंदना बाजपेयी

वंदना बाजपेयी

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