atoot bandhan editorial Archives - अटूट बंधन https://www.atootbandhann.com/category/atoot-bandhan-editorial हिंदी साहित्य की बेहतरीन रचनाएँ एक ही जगह पर Thu, 19 Nov 2020 08:30:18 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.1.6 अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस -परिवार में अपनी भूमिका के प्रति सम्मान की मांग https://www.atootbandhann.com/2017/11/antarrastriy-purus-divas-ek-padtaal-hindi.html https://www.atootbandhann.com/2017/11/antarrastriy-purus-divas-ek-padtaal-hindi.html#comments Sun, 19 Nov 2017 15:40:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2017/11/19/antarrastriy-purus-divas-ek-padtaal-hindi/   मिसेज गुप्ता कहती हैं की उस समय परिवार में सब  कहते थे, “लड़की है बहुत पढाओ  मत | एक पापा थे जिन्होंने सर पर हाथ फेरते हुए कहा, “तुम जितना चाहो पढो” |   श्रीमती देसाई बड़े गर्व से बताती हैं की उनका भाई शादी में सबसे ज्यादा रोया था | अभी भी हर […]

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अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस -परिवार में अपनी भूमिका के प्रति सम्मान की मांग
 
मिसेज गुप्ता कहती हैं की उस समय परिवार में सब  कहते थे, “लड़की है बहुत पढाओ  मत | एक पापा थे जिन्होंने सर पर हाथ फेरते हुए कहा, “तुम जितना चाहो पढो” |
 
श्रीमती देसाई बड़े गर्व से बताती हैं की उनका भाई शादी में सबसे ज्यादा रोया था | अभी भी हर छोटी बड़ी जरूरत में उसके घर दौड़ा चला जाता है |
 

कात्यायनी जी ( काल्पनिक नाम ) अपने लेखन का सारा श्री पति को देती हैं | अगर ये न साथ देते तो मैं एक शब्द भी न लिख पाती | जब मैं लिखती तो घंटो सुध न रहती | खाना लेट हो जाता पर ये कुछ कहते नहीं | भले ही भूख के मारे पेट में चूहे कूद रहे हों |


श्रीमान देशमुख अपनी पत्नी की ख़ुशी के लिए  स्कूटर न लेकर उसके लिए उसकी पसंद का सामान लेते हैं | 
                          फेहरिस्त लम्बी है पर  ये सब हमारे आपके जैसे आम घरों के उदाहरण है | ये सही है  कि हमारे पिता , भाई , पति बेटे और मित्र हमारे लिए बहुत कुछ करते हैं |पर क्या हम उनके स्नेह को नज़रअंदाज कर देते हैं | अगर ऐसा नहीं है तो क्यों पुरुष ऐसा महसूस कर रहे हैं | 






अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस -परिवार में अपनी भूमिका के प्रति  सम्मान की मांग है 



कल व्हाट्स एप्प पर एक
वीडियो वायरल हुआ जिसमें एक खूबसूरत गीत के साथ अन्तराष्ट्रीय पुरुष दिवस मानाने
की अपील की गयी थी .. 
गीत के बोल कुछ इस तरह से थे मेन्स डे पर ही क्यों सन्नाटा एवेरीवेयर , सो नॉट फेयर-२”
पूरे गीत में उन कामों का वर्णन था जो पुरुष घर परिवार के लिए करता है, फिर भी उसके कामों को कोईश्रेय नहीं मिलता है | जाहिर है उसे देख कर कुछ पल मुस्कुराने के बाद एक
प्रश्न दिमाग में उठा
मेन्स डे’ ? ये क्या है ? तुरंत विकिपिडिया पर सर्च किया | जी हां गाना सही था

अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस कब मनाया जाता है 

 

१९ नवम्बर को इंटरनेशनल मेन्स डे होता है | यह लगातार १९९२ से मनाया जा रहा है | पहले पहल इसे ७ फरवरी को
मनाया गया
| फिर १९९९ में इसे दोबारा त्रिनिदाद और टुबैगो में
शुरू किया गया
|

 
 
अब पूरे विश्व भर में पुरुषों द्वारा किये गए कामों को मुख्य रूप से घर में , शादी को बनाये रखने में , बच्चों की परवरिश में , या समाज में निभाई जाने वाली भूमिका के लिए सम्मान की मांग उठी है |
 
 
पुरुष हो या स्त्री घर की गाडी के दो पहिये हैं | दोनों का सही संतुलन , कामों का वर्गीकरण एक खुशहाल परिवार के लिए बेहद जरूरी होता है | क्योंकि परिवार समाज की इकाई है | परिवारों का संतुलन समाज का संतुलन है | इसलिए स्त्री या पुरुष हर किसी के काम का सम्मान
किया जाना जरूरी हैं
| काम का सम्मान न सिर्फ उसे महत्वपूर्ण होने का
अहसास दिलाता है अपितु उसे और बेहतर काम करने के लिए प्रेरित भी करता है
|

क्यों उठ रही है अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस की मांग 

 
यह एक  सच्चाई  है की दिन उन्हीं के बनाये जाते हैं जो कमजोर होते हैं |पितृसत्तात्मक  समाज में हुए महिलाओं के शोषण को से कोई इनकार नहीं कर सकता | महिला बराबरी की मांग जायज है | उसे किसी तरह से गलत नहीं ठहराया जा सकता है | पर इस अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस  की मांग क्यों ?
तस्वीर का एक पक्ष यह है की दिनों की मांग वही करतें हैं जो कमजोर होते हैं | तो क्या स्त्री इतनी सशक्त
हो चुकी है की पुरुष को मेन्स डे सेलेब्रेट करने की आवश्यकता आन पड़ी
| या ये एक बेहूदा मज़ाक है |




जैसा पहले स्त्री के बारे में कहा जाता था की पुरुष से बराबरी की चाह में स्त्री अपने प्रकृति प्रदत्त गुणों का नाश कर रही है , अपनी कोमलता खो रही है | क्योंकि उसने पुरुष की सफलता को मानक मान लिया है | इसलिए वो पुरुषोचित गुण अपना रही हैं |अब पुरुष स्त्री की बराबरी करने लगे हैं | 
 
 
सवाल ये उठता है की पुरुषों को ऐसी कौन सी आवश्यकता आ गयी की वो स्त्री के नक़्शे कदम पर चल कर मेन्स डे की मांग कर बैठा | क्या नारी को अपनी इस सफलता पर हर्षित होना चाहिए की वास्तव में वो सशक्त साबित हो गयी है | पर आस पास के समाज में देखे तो ऐसा तो लगता नहीं , फिर अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस की मांग क्यों ?
 
 
अपने प्रश्नों के साथ मैंने फिर से वीडियो देखा …. और उत्तर भी मिला | इस वीडियों के अनुसार पुरुष घर के अन्दर अपने कामों के प्रति सम्मान व् स्नेह की मांग कर रहा है | कहीं न कहीं मुझे लग रहा है की ये बदलते समाज की सच्चाई है | पहले महिलाएं घर में रहती थी और पुरुष बाहर धनोपार्जन में | पुरुष को घर के बाहर सम्मान मिलता था और वो घर में परिवार व् बच्चों
के लिए पूर्णतया समर्पित स्त्री का घर में बच्चो व् परिवार द्वारा ज्यादा मान दिया
जाना सहर्ष स्वीकार कर लेता था
|समय बदला , परिसतिथियाँ  बदली |आज उन घरों में जहाँ स्त्री और पुरुष दोनों बाहर धनोपार्जन कर रहे हैं |
 
बाहर दोनों को सम्मान मिल रहा है | घर आने के बाद जहाँ स्त्रियाँ रसोई का मोर्चा
संभालती हैं वही पुरुष बिल भरने
,घर की टूट फूट की मरम्मत कराने , सब्जी तरकारी लाने का काम करते हैं | संभ्रांत पुरुषों का एक बड़ा वर्ग इन सब से आगे निकल कर बच्चों के
डायपर बदलने
, रसोई में थोडा बहुत पत्नी की मदद करने और बच्चों को कहानी सुना कर सुलाने की नयी भूमिका में नज़र आ रहा है | पर कहीं न कहीं उसे लग रहा है की बढ़ते महिला समर्थन या पुरुष विरोध के चलते उसे उसे घर के अन्दर या समाज में उसके स्नेह भरे कामों के लिए पर्याप्त सम्मान नहीं मिल रहा है |
 
 
अपने परिचित का एक उदाहरण याद आ रहा है | दिवाली का त्यौहार था | घर की महिला त्यौहार पर मिठाई बना रही थी | जब खुशबू बच्चों के पास तक गयी तो बच्चे रसोई में
आ कर माँ से लिपट कर बोले
मम्मी मिठाई बना रही हो , यू आर सो स्वीट |
तभी उधर से आ रहे पिता मुस्कुरा कर बोले अरे , हम जो पिछले चार घंटे से
दीवार पर लटक
लटक कर झालर लगा रहे हैं , हम स्वीट नहीं हैं ,
बस मम्मी ही स्वीट हैं ? कल की ये स्नेह भरी शिकायत आज पुरुष के दर्द का रूप ले रही है |
 
 
अटूट बंधन में प्रकाशित कहानी घरेलू पति कहीं न कहीं यह सोचने पर
विवश करती है की एक महिला हाउस वाइफ बन कर सम्मान से जी सकती है पर जब एक पुरुष परिवार के हित में घर में रह कर बच्चों की परवरिश का निर्णय लेता है तो उसे कोई
सम्मान से नहीं देखता
, न समाज , न परिवार , न पत्नी और न बड़े होने के बाद बच्चे |
अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस  की मांग करने वाले पुरुष वर्ग का कहना है की जब घर के बाहर पत्नी को उसके काम से पहचान व् सम्मान मिल रहा है तो घर के अन्दर पुरुष को भी उसके काम व् स्नेह , ममता के गुणों के लिए सम्मान मिलना चाहिए
 
 
पुरुष बाहर से कितना भी कठोर हो पर उसके अन्दर भी भावनाओं का दरिया बहता है
जो एक भाई के रूप में पिता के रूप में
, पति के रूप में, पुत्र के रूप में परिलक्षित  होता रहता है |घर के बहुत सारे कामों में पुरुष का योगदान है | सोचना ये है की क्या महिला समर्थन की बढ़ती आवाज़ में पुरुष अपने कामों व् स्नेह को घर की स्त्री के कामों व् स्नेह की तुलना में कम आँका जाना महसूस कर रहा है | वो स्नेह के मामले में कहीं न कहीं असुरक्षित
महसूस कर रहा है
| या वो जबरदस्ती पैर पर पैर रख कर इस क्षेत्र में भी बराबरी करने की सोच रहा है |ये नए समाज के पुरुष का दर्द है या या स्त्री आंदोलनों का अहंकार से भरा प्रतिवाद | जिसकी वजह से आज वह भी अपने इस स्नेह व् अपने द्वारा परिवार के कामों
में योगदान के बदले स्नेह व् सम्मान की मांग कर रहा है और प्रश्न कर रहा है | इसमें
गलत क्या है


अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस स्त्री के हित में है 

जो भी हो अगर ये मांग चाहरदीवारी के भीतर है | इसमें किसी बेटी ,
बहन , पत्नी माँ और समाज को इनकार नहीं करना चाहिए | अगर किसी के घर में ऐसा शुरू हो चुका है तो फिर अपने घर के पुरुषों
को स्नेह व् सम्मान देने में देर नहीं करनी चाहिए
| समाज समानता के सिद्धांतों
पर ही बेहतर पल्लवित पुष्पित होता है
|
 
यहीं पर मुझे स्त्री होने
के नाते आशा की एक किरण ये भी दिखाई दे रही है कि जैसे -जैसे पुरुषों में अपने
द्वारा किये गए घर के कामों के प्रति सम्मान चाहने की मांग बलवती होगी
| घर में रहने वाली स्त्रियाँ भी जिनकी आवाज़ आखिर तुम दिन भर करती क्या रहती हो के तानों के आगे दब जाती है, मुखर होंगी |जब पुरुष घर के अन्दर अपने काम का सम्मान न मिलने
पर हताश होगा तब ही उसे शायद समझ में आएगा की नारी को घर
, बाहर अपने काम के लिए युगों युगों से जो सम्मान नहीं मिल रहा था ये सारा विद्रोह , ये सारा स्त्री विमर्श उसी बीज से उत्पन्न वृक्ष
की शाखाएं हैं
|
 
 
जो भी हो प्रेम और काम के लिए सम्मान हर् व्यक्ति
(चाहे वो स्त्री हो या पुरुष दोनों की) मूलभूत आवश्यकताएं हैं
| और सभी को मिलनी चाहिए |भले ही आज हमें अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस एक मज़ाक लग रहा हो | पर अगर ये मांग उठी है तो कहीं न कहीं पुरुष अपने काम के प्रति परिवार को  उदासीन महसूस कर रहा है | तो आइये , अपने पिता पति , पुत्र , मित्र को बता दे की आप का होना हमारे लिए कितना महवपूर्ण है | 

 

वंदना बाजपेयी 


यह भी पढ़ें ………

 
 
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अच्छा सोंचो … अच्छा ही होगा https://www.atootbandhann.com/2017/07/blog-post_47-2.html https://www.atootbandhann.com/2017/07/blog-post_47-2.html#respond Mon, 03 Jul 2017 08:22:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2017/07/03/blog-post_47-2/ वो देखो प्राची पर फ़ैल रहा है उजास दूर क्षितज से  चल् पड़ा है नव जीवन रथ एक टुकड़ा धूप पसर गयी है मेरे आँगन में जल्दी –जल्दी चुनती हूँ आशा की कुछ किरण  हंसती हूँ ठठाकर क्योंकि अब मेरी मुट्ठी में बंद है मेरी शक्ति  हर नयी चीज का आगमन मन को प्रसन्नता  से […]

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वो देखो प्राची पर
फ़ैल रहा है उजास
दूर क्षितज से 
चल् पड़ा है
नव जीवन रथ
एक टुकड़ा धूप
पसर गयी है मेरे आँगन में
जल्दी जल्दी चुनती हूँ
आशा की कुछ किरण 
हंसती हूँ ठठाकर
क्योंकि अब
मेरी मुट्ठी में बंद है
मेरी शक्ति

 हर नयी चीज का आगमन मन को प्रसन्नता  से भर
देता है। हर निशा के बाद नव भोर को भास्कर का अपनी किरणों का रथ ले कर आना
 ,चिड़ियों की चहचाहट ,नए फूलों का खिलना ,घर में अतिथि का आगमन भला किसके मन को हर्षातिरेक
से नहीं भर देता। आज
   हम समय के एक ऐसे मुहाने पर खड़े हैं , जहाँ आने वाले वर्ष  का नन्हा
शिशु  माँ के गर्भ से निकल  अपने आकर -प्रकार के साथ धरती पर आने को
 उत्सुक है। यह एक संक्रमण काल है | जहाँ बीता वर्ष  अपनी बहुत सारी  खट्टी -मीठी यादें देकर जा
रहा है वहीं नूतन वर्ष से बहुत सारे सपनों के पूरा होने की आशा है |समय अपनी गति
के साथ आगे बढ़ता है।
 एक का अवसान ही दूसरे का उदय है। निशा का अंत ही
सूर्य का आगमन है
 ,सूर्य के उदय के साथ ही भोर के तारे का अस्त है।
मृत्यु के शोक के साथ ही नव जीवन का हर्ष है।

जय शंकर प्रसाद
“कामायनी में कहते हैं।
 ……………

दुःख की पिछली रजनी बीचविकसता सुख का नवल प्रभात,एक परदा यह झीना नीलछिपाये है जिसमें सुख गात।

     
                    
ध्यान से देखा जाये तो हम जीवन पर्यंत एक संक्रमण
बिंदु पर खड़े रहते हैं
 ,जहाँ हमारे सामने होता है एक गिलास आधा भरा हुआ ,आधा खाली। ये मुझ पर आप पर हम सब पर निर्भर है कि हम उसे किस दृष्टी
से देखे। हमारे पास चयन की स्वतंत्रता है। सुकरात के सामने विष का प्याला रखा है
 ,शिष्य साँस रोके अंतिम प्रवचन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सुकरात
प्याले को देख कर कहते है
 “आई ऍम स्टिल अलाइव “मैं अभी भी जिन्दा हूँ ,सुकरात प्याला हाथ में ले कर कहते हैं “मैं अभी भी जिन्दा हूँ ,सुकरात जहर मुँह में लगाते हैं “मैं अभी भी जिन्दा हूँ ,कहकर उनकी गर्दन एक तरफ लुढ़क जाती है। …सुकरात
अभी भी ज़िंदा हैं
अपने विचारों के माध्यम से ,क्योंकि उन्होंने मृत्यु  को
नहीं माना जीवन को स्वीकार किया।
 यही अभूतपूर्व सोच उन्हें आम लोगों से अलग करती
है।
     
                     
      
प्रसिद्ध दार्शनिक ओशो कहते हैं “मेरे पास आओ मैं तुम्हे कुछ दूंगा नहीं बल्कि जो तुम्हारे पास हैं वो
ले लूंगा।”
 और तुम यहाँ से खाली हो कर जाओगे। यहाँ ओशों के
अनुसार सद्गुरु एक चलनी की तरह हैं। जो शिष्य के समस्त नकारात्मक विचारों को निकाल
देता है व् सकारात्मक विचारों को शेष रहने देता है। सर का बोझ हट्ते ही मनुष्य सफल
सुखी व् प्रसन्न हो जाता है।  
     
                     
         
वास्तव में हर मनुष्य की जीवन गाथा उसके अमूर्त विचारों का मूर्त रूप
है। विचार ही देवत्व प्रदान करते है विचार ही राक्षसत्व के धरातल पर गिराते हैं।
अगर मोटे तौर पर वर्गीकरण किया जाये तो  विचार दो प्रकार के होते हैं.
 …सकारात्मक (प्रेम ,दया ,करुना ,उत्साह ,हर्ष आदि ),नकारात्मक (ईर्ष्या ,घृणा ,क्रोध ,वैमस्यता
आदि )दिन भर में हमारे मष्तिष्क में आने वाले लगभग ६०
,००० विचारों में जिन विचारों की प्रधानता होती है वही  हमरी मूल
प्रकृति होती है.सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति नकारात्मक सोच वाले व्यक्तियों
 की तुलना में अधिक खुश व् सफल देखे गए हैं।

     
                     
      
भारतीय संस्कृति भी अपने मूल -मन्त्र (सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे
सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।)
 में सकरात्मक सोच की अवधारणा को ही पुष्ट करती है |  निर्विवाद सत्य है ,
जो लोग सब का भला सोचते हैं उनमें ऊर्जा का स्तर  ज्यादा होता
है
|

     
                     
                     
         
विचारों का मानव जीवन पर कितना प्रभाव है ,इसका उदहारण मनसा वाचा कर्मणा के सिद्धांत पर चलने वाले  हिन्दू धर्म ग्रन्थ गीता में देखने को मिलता है |जहाँ व्रत ,पूजा
उपवास से लेकर अच्छे और बुरे हर कर्म को विचार या भावना के आधार पर तामसी
 ,राजसी या सात्विक कर्म में बांटा जाता है। श्री कृष्ण गीता में कहते
हैं “हे अर्जुन मृत्यु के समय समस्त इन्द्रियाँ मन में समाहित हो जाती हैं और
मन आत्मा में समाहित हो कर प्राणो के साथ निकल जाता है।
 संभवत:ये मन विचारों से ही निर्मित है। हमारे कर्म हमारे विचारों के
आधीन हैं और कर्मों के आधीन परिस्तिथियाँ हैं |ब्रह्म कुमारी शिवानी जी भी अपने हर
प्रवचन में विचार का महत्व बताती हैं | उनके अनुसार जिसे हम कर्म कहते हैं | वह एक
न होकर तीन बिन्दुओं से बना है | विचार शब्द और क्रिया | अर्थात हम जो सोंचते ,
बोलते और करते हैं | तीनों मिल कर कर्म बनाते हैं | अगर हम किसी व्यक्ति काम और
घटना के प्रति विचार दूषित रखते हैं परन्तु संभल कर बोलते हैं और काम भी ठीक से
करते हैं | तब भी परिणाम नकारात्मक ही आएगा | इसलिए हम सब अक्सर ये प्रश्न करते
हैं की हम तो सबके साथ अच्छा करते हैं फिर मेरे साथ ही बुरा क्यों होता है | कारण
स्पष्ट है हमारे विचार नकारात्मक होते हैं |.
               धर्म ग्रंथों में भी विचारों का महत्व बताया
गया है | क्योंकि विचारों का प्रभाव कर्म से भाग्य के सिद्धन्त पर इस जन्म में ही
नहीं अगले जन्म में भी होता हैं |  कहते
हैं  
 जैसा हम
जीवन भर सोचते हैं वैसा ही मन पर अंकित होता जाता है यही गुप्त भाषा (कोडेड
लैंगुएज )हमारे अगले जन्म का प्रारब्ध बनती है
 स्वामी  विवेकानंद के अनुसार नकारत्मक व् सकारत्मक
उर्जायें मृत्यु के बाद हमारी आत्मा को खींचती हैं | हम अपने जीवन काल में रखे गए
विचारों के आधार पर ही वहां पहुँचते हैं व् वैसा ही नकारात्मक या सकारात्मक जन्म
पाते हैं |  
अतः न सिर्फ इस जीवन के लिए बल्कि अगले जीवन के
लिए भी एक- एक विचार महत्वपूर्ण है।
  धर्म से
इतर अगर दुनयावी दृष्टि से भी देखा जाए तो भी मृत्यु के बाद हमारे विचार अमर रहते
हैं | महान लोगों के विचार तो हम सूक्तियों या कोट्स के रूपमें पढ़ते ही हैं | पर
क्या हम आप यह नहीं कहते हैं की हमारी दादी ऐसे कहा करती थीं , नानी ऐसे कहा करती
थीं |दादी नानी के विचार उनकी मृत्यु के बाद भी जिन्दा रहते हैं | पर दादी पर नानी
के विचार जन श्रुति के रूप में जिन्दा रहते हैं | कहने का तात्पर्य बस इतना है की
विचार अमर हैं |यानी की हमें तय करना है की हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को क्या दे
कर जा रहे हैं |  तो क्यों न हम अच्छे
विचार रखे , सिर्फ जुबान पर नहीं मन में |
        
                     
     
                  
 
वैज्ञानिक तथ्यों  द्वारा अब यह सिद्ध हो गया है की विचारों में
द्रव्यमान होता है
 ,और उनमें ऊर्जा भी होती है |  (इस दिशा में शोध चल रहे है
व् विज्ञान की एक शाखा इसी पर प्रयोगात्मक परिक्षण कर रही है )
  ज्ञात सूत्रों के अनुसार सकारात्मक
विचारों में धनात्मक ऊर्जा होती है व् नकारात्मक
  विचारों में ऋणात्मक ऊर्जा होती है। प्रकृति में जितना भी शुभ है ,अच्छा है ,,उल्लास दायक है ,सब
सकारात्मक विचारों की ऊर्जा द्वारा अपनी तरफ खींचा जा सकता है। नकारात्मक विचारों
में कोई शक्ति नहीं होती
 ,अतः वो किसी भी शुभ परिस्तिथि व् घटना को अपनी और
खीच नहीं पाते। जो लोग दिन में दस बार यह कहते हैं कि मैं बहुत दुखी हूँ उनके जीवन
में ऐसी परिस्तिथियाँ घटनाएं बार -बार दोहराई जाने लगती हैं परिणामतः वो और
,और दुखी होते जाते हैं।  अनजाने ही वो दुखो को अपनी और खीचते
चले जाते हैं
 |

     
                     
           
  
हर सफल व्यक्ति पर हुए शोध पर एक साम्यता देखने को
मिलती है कि भले ही वो जीवन की अलग -अलग विपरीत परिस्तिथि से जूझ रहे हो पर
उन्होंने आशा और सकारात्म सोच का दामन कभी नहीं छोडा
 ,उनका एक ही नारा रहा “जिंदगी जिंदादिली का नाम है ,मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं।  इस उत्त्साह उमंग से प्राप्त  ऊर्जा को सही दिशा में लगाया और सफलता के कीर्तिमान स्थापित किये।
            
   
                 
                     
  

             विख्यात वैज्ञानिक आइंस्टीन कहते हैं ….. बार -बार पूछों”
क्या समस्त ब्रह्माण्ड हमारा मित्र है”और स्वयं ही उत्तर देते है “हां
!समस्त ब्रह्मांड हमारा मित्र है।
 और यहीं
से खुल जाती है रहस्य की गुफा
 ,समस्त ब्रह्माण्डीय सकारात्मक ऊर्जा हमारी तरफ चल
पड़ती है। सकारात्मक विचारों द्वारा न केवल हम अपना बल्कि समाज का और यहाँ तक पूरे
विश्व का जीवन बदल सकते हैं . कुछ प्रयोग तो यह तक कहते हैं कि सामूहिक नकारात्मक
विचार महामारी
,आकाल,दुर्घटनाओं के कारण भी बनते
हैं | वस्तुतः
  अब यह सिद्ध हो चुका है कि विचारों  का हमारे जीवन में बहुत महत्व  है साथ ही दुखद है कि हम अपने बच्चों को इतना कुछ
सिखाते हैं पर विचारों को नियंत्रित करना नहीं सिखाते। अगर हम शुरू से बच्चों को
विचारों की शक्ति
  का परिचय करा दे,और सदा सकारात्मक सोच पर बल
दें तो वह दिन दूर नहीं जब हमारा घर
 ,मौहल्ला ,देश ,विश्व ,समस्त
विश्व
  खुशियों से न भर जाए। 
                     
जो बीत गयी सो बात गयी
……….हरिवंश राय बच्चन  
     
                     
  
नव -वर्ष का आगमन हो गया
है। नव वर्ष में हम अनेक संकल्प करते हैं। कुछ अपनी गलतियों से सबक
  लेते हुए बुराइयों को छोड़ने का कुछ किसी नए सपने
को
नए हौसलों की उड़ान के लिए अथक परिश्रम का।  ये सच है हर किसी के सपने अलग ,हर किसी की मंजिल अलग ,हर किसी
की उड़ान अलग।
 हर किसी का आसमान अलग। परन्तु उसको पाने के लिए सब के पास है केवल एक ही शक्ति ,वो है सकारात्मक विचारों की शक्ति  |  जो हमें प्रेरणा देती है ,साहस
देती है और लगन से कार्य करने की ताकत भी।
 यही वो
शक्ति है जो हमारी खुली मुट्ठियों में भी बंद है।  तो क्यों न हम इस शक्ति को
पहचाने
 ,और नव -वर्ष में संकल्प करे सदा सकारात्मक सोचने
का
 ………और हाथ  बढ़ा कर पा ले अपने सपनों का आसमान। 

एक कोशिश है कर के देखते हैं ……..

वंदना बाजपेयी 


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फेसबुक और महिला लेखन https://www.atootbandhann.com/2017/06/blog-post_61-2.html https://www.atootbandhann.com/2017/06/blog-post_61-2.html#comments Wed, 28 Jun 2017 09:25:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2017/06/28/blog-post_61-2/ कितनी कवितायें  भाप बन  कर उड़ गयी थी  उबलती चाय के साथ  कितनी मिल गयी आपस में  मसालदान में  नमक मिर्च के साथ  कितनी फटकार कर सुखा दी गयी  गीले कपड़ों के साथ धूप में  तुम पढ़ते हो   सिर्फ शब्दों की भाषा  पर मैं रच रही थी कवितायें  सब्जी छुकते हुए  पालना झुलाते हुए  नींद […]

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कितनी कवितायें  भाप बन  कर उड़ गयी थी 
उबलती चाय के साथ 
कितनी मिल गयी आपस में 
मसालदान में 
नमक मिर्च के साथ 
कितनी फटकार कर सुखा दी गयी 
गीले कपड़ों के साथ धूप में 
तुम पढ़ते हो 
 सिर्फ शब्दों की भाषा 
पर मैं रच रही थी कवितायें 
सब्जी छुकते हुए 
पालना झुलाते हुए 
नींद में बडबडाते हुए 
कभी सुनी , कभी पढ़ी नहीं गयी 
कितनी रचनाएँ 
जो रच रहीहै 
हर स्त्री 
हर रोज 
                             सृजन और स्त्री का गहरा नाता है | पहला रचियता वो ईश्वर है और दूसरी स्त्री स्वयं | ये जीवन ईश्वर की कल्पना तो है पर मूर्त रूप में स्त्री की कोख   में आकार ले पाया है | सृजन स्त्री का गुण है , धर्म है | वह हमेशा से कुछ रचती है | कभी उन्हीं मसालों से रसोई में कुछ नया बना देती है की परिवार में सब अंगुलियाँ चाटते रह जाएँ | कभी फंदे – फंदे जोड़ कर रच देती है स्वेटर | जिसके स्नेह की गर्माहट सर्द हवाओ से टकरा जाती है | कभी पुराने तौलिया से रच देती है नयी  दरी | जब वो इतना सब कुछ रच सकती है तो फिर साहित्य क्यों नहीं ? कभी – कभी तो मुझे लगता है की क्या हर स्त्री के अंदर कविता बहती है , किसी नदी की तरह या कविता स्वयं ही स्त्री है ? फिर भी भी लम्बे समय तक स्त्री रचनकार अँगुलियों पर गिने जाते रहे | क्या कारण हो सकता है इसका … संयुक्त परिवारों में काम की अधिकता , स्त्री की अशिक्षा या अपनी खुद की ख़ुशी के लिए कुछ भी करने में अपराध बोध | या शायद तीनों |
                                आज स्त्री ,स्त्री की परिभाषा से आज़ाद हो रही है | सदियों से परम्परा ने स्त्री को यही सिखाया है की उसे केवल त्याग करना है | परन्तु वो इस अपराध बोध से मुक्त हो रही है की वो थोडा सा अपने लिए भी जी ले | उसने अपने पंखों को खोलना शुरू किया है | यकीनन इसमें स्त्री शिक्षा का भी योगदान है | जिसने औरतों में यह आत्मविश्वास भरा है की आसमान केवल पुरुषों का नहीं है | इसके विस्तृत नीले विस्तार में एक हरा  कोना उनका भी है | ये भी सच है की आज तमाम मशीनी उपकरणों के इजाद के बाद घरेलु कामों में भी  आसानी हुई है | जिसके कारण महिलाओं को रसोई से थोड़ी सी आज़ादी मिली है | जिसके कारण वो अपने समय का अपनी  इच्छानुसार इस्तेमाल करने में थोडा सा स्वतंत्र हुई है | साहित्य से इतर यह हर क्षेत्र में दिख रहा है | फिर से वही प्रश्न … तो फिर साहित्य क्यों नहीं ? निश्चित तौर पर इसका उत्तर हाँ  है | पर उसके साथ ही एक नया प्रश्न खड़ा हो गया …कहाँ और किस तरह ? और इसका उत्तर ले कर आये मार्क जुकरबर्ग फेसबुक के रूप में | फेसबुक ने एक मच प्रदान किया अपनी अभिव्यक्ति का | 
                                                यूँ तो पुरुष हो या महिला फेसबुक सबको समान रूप से प्लेटफ़ॉर्म उपलब्द्ध करा रहा है | परन्तु इसका ज्यादा लाभ महिलाओं को मिल रहा है | कारण यह भी है की ज्यादातर महिलाओ को अपनी लेखन प्रतिभा का पता नहीं होता | साहित्य से इतर शिक्षा प्राप्त महिलाएं कहीं न कहीं इस भावना का शिकार रहती थी की उन्होंने हिंदी से तो शिक्षा प्राप्त की नहीं है, तो क्या वो सही – सही लिख सकती हैं | और अगर लिख भी देती हैं तो क्या तमाम साहित्यिक पत्रिकाएँ उनकी रचनाएँ स्वीकार करेंगी या नहीं | फेसबुक पर पाठकों की तुरंत प्रतिक्रिया से उन्हें पता चलता है की उनकी रचना छपने योग्य है या उन्हें उसकी गुणवत्ता में क्या -क्या सुधार  करने है |   कुछ महिलाएं जिन्हें अपनी प्रतिभा का पता होता भी है  प्रतिभा बच्चो को पालने व् बड़ा करने में खो जाती है |वो भी  जब पुन : अपने को समेटते हुए लिखना शुरू करती हैं तो  पता चलता कि  की साहित्य के आकाश में मठ होते हैं जो तय करते हैं कौन उठेगा ,कौन गिरेगा। किसको स्थापित  किया जायेगा किसको विस्थापित।इतनी दांव – पेंच हर महिला के बस की बात नहीं | क्योंकि अक्सर साहित्य के क्षेत्र में जूझती महिलाओ को ये सुनने को अवश्य मिलता है की ,” ये भी कोई काम है बस कागज़ रंगती रहो | मन निराश होता है फिर भी कम से कम हर रचनाकार यह तो चाहता है कि उसकी रचना पाठकों तक पहुँचे।  रचना के लिए पाठक उतने ही जरूरी हैं जितना जीने के लिए ऑक्सीज़न।  इन मठाधीशों के चलते कितनी रचनायें घुट -घुट कर दम  तोड़ देती थी और साथ में दम  तोड़ देता था रचनाकार का स्वाभिमान ,उसका आत्मविश्वास। यह एक ऐसी हत्या है जो दिखती नहीं है |कम से कम फेस बुक नें रचनाकारों को पाठक उपलब्ध करा कर इस हत्या को रोका है।

                                           हालंकि महिलाओ के लिए यहाँ भी रास्ते आसान  नहीं है | उन्हें तमाम सारे गुड मॉर्निंग , श्लील  , अश्लील मेसेजेस का सामना करना पड़ता है |  अभी मेरी सहेली ने बताया की उसने अपनी प्रोफाइल पिक बदली तो किसी ने कमेंट किया ” मस्त आइटम ” | ये कमेन्ट करने वाले की बेहद छोटी सोंच थी | ये छोटी सोंचे महिलाओं को कितना आहत करती हैं इसे सोंचने की फुर्सत किसके पास है | वही किसी महिला के फेसबुक पर आते ही ऐसे लोग कुकरमुत्ते की तरह उग आते हैं जो उसके लेखन को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए उसे रातों रात स्टार बनाने में मदद देने को तैयार रहते हैं | याहन इतना ही कहने की जरूरत है की छठी इन्द्रिय हर महिला के पास है और उसे लोगों के इरादों को भांपने और परखने में जरा भी देर नहीं लगती | क्योंकि देखा जाए तो   ऐसे लोग कहाँ नहीं हैं | ऐसे लोगों की भीड़ में ही महिलाओं ने चलना सीख लिया है | अब वो रुकने वाली नहीं हैं | कम से कम फेसबुक ऐसे अवांछनीय तत्वों को अनफ्रेंड या ब्लाक करने की सुविधा तो देता है | हम सब नें कक्षा ५ से ८ के बीच में एक निबंध जरूर लिखा होगा “विज्ञानं वरदान या अभिशाप “इसमें हम विज्ञानं के अच्छे बुरे पहलुओं को लिखने के बाद एक निष्कर्ष निकालते थे …… कि यह हमारे ऊपर   है की हम विज्ञानं का किस प्रकार प्रयोग करते हैं।  हम चाहे तो मुट्ठी भर यूरेनियम से हज़ारों मेगावॉट की बिजली बना कर कोई घरों में उजाला कर सकते हैं या परमाणु बम बना कर पूरी की पूरी सभ्यता समाप्त कर सकते हैं।कुछ -कुछ यही बात हमारी फेस बुक पर भी लागू होती है , हम चाहे तो इसे मात्र फालतू मैसज करने , श्लील – अश्लील फोटो अपलोड करने या  महज चैटिंग करके अपना और दूसरों का समय बर्बाद करने का अड्डा  बना सकते हैं या फिर कविता कहानी और लेख के माध्यम से अपने विचारों के विनिमय का केंद्र बना सकते हैं। 

               फेसबुक पर बड़ी संख्या में लेखको के आने पर एक नया शब्द  इजाद हुआ ” फेसबूकिया साहित्यकार ” | सुनने में ये शब्द कितना भी प्यारा क्यों न लगता है पर इसका इस्तेमाल अपमान या तिरिस्कार के रूपमें होता है | सीधे – सीधे आप इसे नए ज़माने की नयी गाली कह सकते हैं | क्योंकि कहने वाले तो यह तक कहते हैं की फेसबुक पर लिख कर कोई साहित्यकार नहीं बन सकता  | सबसे पहले तो मैं इस वक्तव्य का खंडन करना चाहूंगी “कि फेस बुक पर लिख कर कोई साहित्यकार नहीं बन सकता। “जरा सोचिये कबीर दास जी नें  तो कागज़ पर भी नहीं लिखा था ………… “मसि कागद छुओ नहीं ‘, उनके शिष्यों नें उनके काम का संकलन किया था। तब उनका काम हमारे सामने आया अन्यथा हम कबीर दास जी के श्रेष्ठ साहित्य से वंचित ही रहते।  प्रतिभा का सामने आना जरूरी है। आज कौन सा सहित्यकार होगा जिसने कबीर को न पढ़ा हो ? उनके ज्ञान के आगे बड़े – बड़े ज्ञानी नतमस्तक हैं |यही काम आज के युग में फेस बुक कर रहा है वो नव -रचनाकारों को एक मंच उपलब्ध करा रहा है।  नव प्रतिभाओं को पहचाना जा रहा है , और उन्हें अपना आकाश मिल रहा है।

हालांकि ये अलग बात है की इसको देख कर कुछ लोग डर गए हैं | उन्हें लगता है जो पाठक वर्ग हमने इतने जूते – चप्पल घिसने  के बाद तैयार किया था | वो इन्हें यूँ ही मिला जा रहा है | मैंने खासतौर से जूते चप्पल शब्द का इस्तेमाल किया है , क्योंकि सब जानते हैं की दो – चार प्रतिष्ठित पत्रिकाओ में छपने के लिए कितने चक्कर काटने होते थे या  या कितने साहित्यिक कार्यक्रमों में अपनी शक्ल दिखानी होती थी | तभी तो साहित्य केवल कुछ बड़े शहरों  में सिमट कर रह गया था | जैसे छोटे शहरों में कोई लिखता ही नहीं | और अपने बचपन के कारण जो छोटे शहरों के नाम की मलाई खा  भी रहे थे वह भी वास्तव में युवावस्था के बाद से बड़े शहरों में ही रह रहे थे  | कुछ अपवाद हो सकते हैं |   कुछ वरिष्ठ लेखिकाओं द्वारा ये सवाल भी बार – बार उठाया जा रहा है कि लेखन के क्षेत्र में महिलाओं की भीड़ आ रही है | जो पुरुस्कारों जलसों में उलझ कर रह गयी हैं | गंभीर लेखन का आभाव है | इसलिए ये उम्मीद कम है की भविष्य में कुछ ऐसे नाम उभरेंगे जो स्त्री विमर्श के ध्वजा वाहक होंगे | जहाँ तक मुझे समझ में आता है तो यह सच है की सोशल मीडिया के उदय के बाद बहुत से लोगों को फेसबुक ट्विटर , व्हाट्स एप के माध्यम से अपने विचारों को अभिवयक्त करने का अवसर मिला है और वो कर भी रहे हैं | तो इसमे गलत क्या है ? लेखन में रत महिलाओं को भीड़ मान लेना कहीं न कहीं उचित प्रतीत नहीं होता | अगर इसे महिलाओं की भीड़ मान भी लिया जाए तो भी मुझे लगता है की लेखन ही क्यों महिला शिक्षा के साथ – साथ हर क्षेत्र महिलाओं की संख्या बढ़ी है | ये निराशा का नहीं उत्साह का विषय है | विशेष तौर पर लेखन को ही लें तो अगर इतने सारे स्वर एक सुर में बोलेंगे तो हम समाज के बदलने की आशा कर सकते हैं | निर्विवाद सत्य है की समूह में शक्ति होती है | स्त्री होने के नाते हमारा उद्देश्य तो इस सामाज को बदलने का ही है |सुखद है की भिन्न विषयों पर स्त्रियों के विचार खुल कर सामने आ रहे हैं | आने भी चाहिए |आज शहर की स्त्री के अपने अलग संघर्ष हैं जो उसकी दादी के संघर्षों से अलग हैं | वो जिन समस्याओं से जूझ रही है उन्हें स्वर देना चाहती है , उन्हें ही पढना चाहती है |उनका हल ढूंढना चाहती है | दादी का संघर्ष घर के अंदर था , पोती का घर के बाहर | ये सच है की अगर दादी ने घर के अंदर संघर्ष न किया होता तो पोती को घर के घर के बाहर संघर्ष करने का अवसर न मिलता | पोती का संघर्ष दादी के संघर्ष का विस्तार है प्रतिद्वंदी नहीं | जहाँ पोती के ह्रदय में दादी के संघर्षों के लिए अथाह सम्मान होना चाहिए | वहीं दादी को संघर्ष करती पोती की आगे बढ़कर पीठ थपथपानी चाहिए | घर हो , साहित्य हो या कोई अन्य क्षेत्र पुरानी पीढ़ी को नयी पीढ़ी की परिस्तिथियों , उनकी पीड़ा व् उनके संघर्ष को समझ कर उनकी हौसलाअफजाई करना नयी पीढ़ी के मन में पुरानी पीढ़ी के सम्मान को कई गुना बढा देती है | वर्ना अपने संघर्षों से जूझते हुए हर पीढ़ी अपना रास्ता स्वयं बना ही लेती हैं |
                
                                       रही किसी एक विशेष नाम के उभरने की बात तो पुरुस्कारों और जलसों से परे हर नाम उतनी ही ऊंचाई तक जाएगा जितनी उसके बीज में क्षमता है | कुछ एक वर्षीय पौधे होंगे , कुछ झाड़ियाँ , कुछ छोटे पेड़ परन्तु निश्चित रूप से कुछ बरगद भी बनेंगे | ऐसा मेरा विश्वास है | समय हर युग में बरगद तैयार करता है | यह प्रकृति की विशेषता है | हाँ , कई बार हम अपने समय में , अपने समय के बरगदों को पहचान नहीं पाते | ऐसा सिर्फ साहित्य के क्षेत्र में नहीं है हर क्षेत्र में है | साहित्य से इतर एक उदाहरण मेरे जेहन में आ रहा है | सर ग्रेगर जॉन मेंडल का | वो अपने समय के बरगद थे पर उनका काम उनकी मृत्यु के 100 – १५० वर्ष बाद पहचाना गया | बाद में उन्हें फादर ऑफ़ जेनेटिक्स का खिताब मिला |मेरे विचार से तमाम निराशों को दरकिनार कर आवश्यक है की
बीज रोपते चलें क्या पता कौन गुलाब बनें ,कौन बरगद बने |

                                                अंत में महिला लेखन के क्षेत्र में फेसबुक के योगदान पर कायम रहते हुए मैं कहना चाहती हूँ, किसी भी साहित्य को जो पाठकों की , संपादकों की , रचनाकारों की कसौटी पर शिल्प , भाव,  संवेदनाओं व् प्रस्तुतीकरण के आधार पर खरा उतरता है चाहे वो फेस बुक में ही क्यों न लिखा गया हो उसे फसबुकिया साहित्य कह कर अपमानित नहीं करना चाहिए।   मैं अमीश त्रिपाठी की “इममॉर्टल्स ऑफ़ मेलुहा ‘”को उदाहरण के तौर पर पेश करना चाहती हूँ ,जिसे शुरू में कोई प्रकाशक नहीं मिल रहा था फिर उसके कुछ अंश फेस बुक में डालने के बाद कहानी के प्रति प्रकाशकों व् पाठकों की रूचि बढ़ी। . जैसा की सर्व विदित है इस किताब ने “बेस्ट सेलर ‘ के नए कीर्तिमान स्थापित किये।
                                                किसी ने सच कहा है “प्रतिभा जन्मजात होती है बस उसे लिखते -लिखते  परिमार्जित करना पड़ता है ठीक हीरे की तरह तभी दिख पाती  है उसकी असली चमक। ऐसे में बहुत जरूरी है एक ऐसा मंच जहाँ महिलाएं  लिखे ,, निखरे और सीधे उसकी रचनायें पाठकों तक पहुँचे। , उसके काम को पहचाना जाये, किसी गुट  बंदी का शिकार हुए बिना, मठाधीशों के आगे सर झुकाएं बिना। फेस बुक यह काम बखूबी से कर रहा है।तमाम महिलाओं की तरफ से ये हृदय के उदगार … 




       मैं गुम  सी हो रही थी अपने विचारों की भीड़ में 
      तुम मसीहा बन के आये रास्ता दिखला दिया 

वंदना बाजपेयी 
                              




             












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मदर्स डे पर विशेष- प्रिय बेटे सौरभ https://www.atootbandhann.com/2017/05/blog-post_98.html https://www.atootbandhann.com/2017/05/blog-post_98.html#comments Sat, 13 May 2017 14:26:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2017/05/13/blog-post_98/ एक माँ का पत्र बेटे के नाम               प्रिय बेटे सौरभ ,                              आज तुम पूरे एक साल के हो गए | मन भावुक है याद आता है आज ही का दिन जब ईश्वर ने तुम्हे मेरी गोद में डाला था तब मैं तो जैसे पूर्ण हो गयी थी | जिसे पूरे नौ महीने अपने […]

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एक माँ का पत्र बेटे के नाम
              प्रिय बेटे सौरभ ,
                             आज तुम
पूरे एक साल के हो गए | मन भावुक है याद आता है आज ही का दिन जब ईश्वर ने तुम्हे
मेरी गोद में डाला था तब मैं तो जैसे पूर्ण हो गयी थी | जिसे पूरे नौ महीने अपने
अन्दर छुपा कर रखा , पल –पल जिसका इंतज़ार किया उसे देखना छूना कितना सुखद है | हाँ
 महसूस तो मैं तुम्हे पहले से ही कर रही थी
अपने गर्भ  के अन्दर | जब लगता था किसी कली
 को अपने अन्दर कैद कर लिया है | जो पल –पल
खिल रही है | मेरी जिंदगी अब तुम्हारे चारों और घूमती है , सुबह से रात तक | जानती
हो तुम्हारी नानी हँसती  हैं , कहती है ,”
ये कल की बिटिया मम्मी बनते ही बदल गयी | और क्यों न बदलूँ  , तुम हो ही इतने प्यारे | जब तुम खेलते –खेलते
आकर मुझे देख जाते हो , मुझे देखते ही किसी की गोदी से उतर कर मेरे पास आने की जिद
करते हो या मुझे किसी दूसरे बच्चे को गोद में उठाता हुआ देखकर रोने लगते हो , तो
अपने वजूद पर अभिमान हो उठता है | मेरे नन्हे से फ़रिश्ते ईश्वर तुम्हे खूब लंबी  आयु  व्
जीवन की हर ख़ुशी दें | अले ले ले … का तुमने तो रोना शुरू कर दिया … अब पत्र
लिखना बंद , मेरा बेटू  बुलाएगा तो मम्मी
सबसे पहले उसके पास जायेगी |

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प्रिय बेटे सौरभ
           आज तुम पूरे ५ साल के हो गए
| तुम्हारा स्कूल का पहला दिन | जब तुम्हे तुम्हारी टीचर मुझसे दूर कर के क्लास
में ले जा रही थी और तुम बेतरह मुझे देख कर मम्मी , मम्मी चीख रहे थे | उफ़ ! जैसे
मेरा कालेज कटा  जा रहा था | फिर भी उपर –ऊपर
से तुम्हे मोटिवेट कर रही थी ,” अरे पढ़ेगा नहीं तो ,  तो कमाएगा कैसे ? फिर  अपनी मम्मी के लिए सुंदर  साड़ी   कैसे लाएगा , क्या मैं हमेशा पापा की लायी साड़ी
 ही पहनती रहूंगी , बेटे की दी  नहीं | इतना सुनते ही तुम जैसे जिम्मेदारी  के अहसास से भर गए | थोडा सुबकते ही सही पर
आँसू पोंछ कर चुपचाप क्लास में चले गए | और मैं पूरा दिन घर में बेचैनी से
तुम्हारा इंतज़ार करती रही | कितना बुरा लग रहा था आज करीने से सजा घर | हर चीज
जहाँ की तहां | न बात – बात पर रोने चीखने की आवाज़े न खिलखिलाकर हंसने की | ये भी
कोई घर है | पर शुक्र है भगवान् का तुम्हारे  आते ही सब कुछ पहले जैसा हो गया |  हाँ  इतना फर्क जरूर आया है की अब तुम समझदार होने
लगे हो ,” तभी तो मेरे पिछले बर्थ डे पर छुप –छुप  कर मेरे लिए कार्ड बनाते रहे और सुबह मेरे उठते
ही , “ हैप्पी  बर्थडे टू यू  मम्मी कह कर गले  से लग गए | कार्ड क्या . कुछ आड़ी  तिरछी  रेखाए , पर ये कार्ड मेरे जीवन का सबसे अनमोल
तोहफा है | और उससे भी अनमोल तोहफा है बात बात पर तुम्हारा कहना ,” मम्मी आप
दुनिया की सबसे अच्छी मम्मी हो | |मेरी बगिया  के फूल जीते रहो मेरे लाल |
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प्रिय बेटे सौरभ
             आज तुम पूरे १४ साल के हो
गए | मन में अपने पौधे  को बढ़ते हुए देखने
की ख़ुशी तो है पर ये क्या … क्या हो गया मेरे लाल , क्यों  तुम मुझसे दूर जा रहे हो |  मैं तो वही हूँ , फिर क्यों तुम्हे मेरी हर बात
गलत दिखाई देती है | मैं तो पहले की ही तरह खाने –पीने सोने हर बात में तुम्हारा
ध्यान रखती हूँ | पर अब तुम्हे वो ध्यान नहीं टोंका टोंकी लगने लागा है | “ माय
लाइफ , माय  रूल्स “ का जुमला जो तुम बार –
बार उछालते हो तो सुन लो बेटा मैं ऐसे कैसे तुम्हे अपनी मर्जी चलने दूं | आखिरकार
तुम मुझसे पृथक तो नहीं हो | तुम मेरे अंश हो | और वो क्या जो तुम दोस्तों से कहते
फिरते हो ,” मम्मी चैनल “ जो दिन भर नॉन स्टॉप चलता रहता है |  अपने बच्चे का ध्यान रखना गलत है क्या ? पर
किससे कहूँ  तुम्हे तो मेरी हर बात से
शिकायत है , मेरा बनाया खाना अच्छा नहीं लगता … दोस्त की मम्मी अच्छा बनाती है ,
मैं ठीक से कपडे प्रेस नहीं करती , सलवट रह जाती है | दोस्त की मम्मी ने
साइंस  पढ़ा दी  इसलिए उसके नंबर अच्छे आ गए … और फिर उलाहना
में कहना ,” मैं कहाँ से अच्छे नम्बर लाऊं तुम्हे तो साइंस भी नहीं आती | बेटा
क्या साइंस न आना किसी माँ का इतना बड़ा दोष होता है | उस दिन जो तुम कहते –कहते
रूक गए , “ हिटलर माँ टोंका –टांकी  न करो
,” आप तो दुनिया की सबसे बुरी … “ | तुमने तो कह दिया पर मैं घंटों तकिये में
मुँह छिपाए रोती  रही | तुम्हारे पापा कह
रहे थे इस उम्र में होता है , सब ठीक हो जाएगा | हे प्रभु सब ठीक हो जाए ,मेरा
जीवन तुम्हारे इर्द –गिर्द घूमता है | तुम मुझे गलत समझो … सहन नहीं होता …
सहन नहीं होता | खूब तरक्की करो मेरे लाल |
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प्रिय बेटे सौरभ
                प्रतियोगी परीक्षाओं
में तुम्हारा चयन इतने अच्छे कॉलेज में हो गया | मन बहुत खुश है | सभी पड़ोसनें
मुझे बहुत भाग्यशाली बता रही हैं | सच में हूँ तो मैं भाग्यशाली जो तुम्हारे जैसा
बेटा पाया है | पर तुम्हे घर से दूर  भेजने
में बहुत बेचैनी है | कौन तुम्हारा ध्यान रखेगा | कौन कमरा साफ़ करेगा , कौन कपडे
धोएगा , और तुम तो हो ही लापरवाह .. खाने पीने की सुध तो रहती नहीं | यहाँ भी तो
खाना सामने पड़ा –पड़ा ठंडा होता रहता है | जब तक मैं याद न दिलाऊ , तुम खाते ही
नहीं | अब वहाँ क्या खाओगे | सोंच –सोंच कर कलेजे में हूक सी उठ रही है | तुम्हारे
पापा कह रहे थे वहीँ से कैम्पस इंटरव्यू से नौकरी मिल जायेगी | पर मिलेगी बड़े शहर
में , हमारे छोटे शहर में नहीं | तो क्या बेटा अब तुम मुझसे दूर ही रहोगे | अभी भी
पिछले दो सालों से जब तुम परीक्षा की तैयारी में लगे  हुए थे तो भी कहाँ मुझसे बात कर पाते थे | पर
मैं तुम्हे देख कर ही तसल्ली कर लेती | तुम्हारी मेहनत को देख कर  मन ही मन ढेरों दुआएं देती | पर अब सोचती हूँ उस
समय दो पल बात कर लेती | फिर संजो कर रख लेती उन्हें अपनी यादों में | हे प्रभु !
ये दिन इतनी जल्दी क्यों बीत जाते हैं |  कौन
कहता है की बेटियाँ परायी होती हैं | अब तो बेटे भी विदा किये जाते हैं .. कैरियर
के लिए | पर ये मत सोचना की मैं तुम्हे 
मोह के बंधन में डाल रही हूँ | ये तो माँ का दिल है कुछ भी बड़बड़ाता  रहता है | खूब तरक्की करो बेटा , खूब नाम कमाओ |
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प्रिय बेटे सौरभ
              आज तुम्हारी  शादी हुए
पूरा  एक साल बीत गया | आज भी याद आता है
जब बरात निकरौसी के समय सब औरतें कह रही थी ,” अभी चला लो हुकुम , अब तो बेटा बहु
का हो जाएगा , तुम्हारा नहीं रहेगा | और मैं गर्व से कहती , “ दुनिया बदल जाए पर
मेरा बेटा नहीं बदलेगा | तुमने भी तो उस समय मेरा हाथ पकड कर कहा था ,” मेरे लिए दुनिया
में सबसे पहले आप  हो माँ , बाकी सब बाद
में | पर अफ़सोस औरतें सही थीं और मैं गलत ,” तुम बदल गए हो बेटा “|  पहले तो हर छुट्टी में आ जाते थे | अब तो
पन्द्रह – पंद्रह दिन हो जाते फोन भी नहीं करते | इतने लापरवाह तो तुम कभी नहीं थे
| शिकायत नहीं  कर रही हूँ | पर तुम्हे
देखने की इच्छा तो होती है | तुम्हारा हाल जानने के लिए मन तड़प उठता है | खुश रहो
, प्रसन्न रहो बेटा , पर कभी –कभी आ तो जाया करो | अब तो तुम्हारे पापा भी रिटायर
हो गए हैं | उनकी भी आँखें दरवाजे पर लगी रहती हैं |
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प्रिय बेटे सौरभ
       लो अब तो तुम अपनी माँ तो माँ
भारत माँ को भी छोड़ कर विदेश में बस गए | 
मुझे पता है बहु ने ही कहा था विदेश में नौकरी को | निकले न जोरू के गुलाम
| पैसा ही प्यारा है | हम लोगों की कोई  कद्र नहीं | अभी तुम्हारे पापा गिर गए थे | पैर
की हड्डी टूट गयी | अब मुझसे तो उठाये न जाते | रात – बिरात पड़ोसियों  को बुलाना पड़ा | क्या अच्छा लगता है | क्या इसी
लिए इतने मंदिर पूजे थे , मन्नते मानी थी तुम्हे पाने को | पता नहीं मरने पर भी
आओगे  की नहीं या मिटटी भी पराये ही ठिकाने
लगायेंगे | सोच लो , अपना किया सामने आता है |  तुम्हारे भी तो बेटा है , जिसको सीने से लगाये
आगे पीछे घूमते हो | वही एक दिन तुम्हे हमारे दर्द का अहसास कराएगा | खैर तुम चाहे
जो करो , मेरा तो माँ का दिल है आशीर्वाद ही देगा | सुखी रहो |
*************************************************************************प्रिय
बेटे सौरभ
               अभी ६ महीने पहले ही तो आये थे | अब क्यों  आना चाहते हो | अब ५० के अल्ले –पल्ले तो हो
रहे हो | बार – बार आने से कहीं बीमार न पड़ जाओ | फोन कर लेते  हो हाल चल मालूम पड़ जाता है , तसल्ली हो जाती
है | पिछली बार आये थे तो मेरा हाथ पकड़ कर कितना रूआसे हो गए थे , “ मम्मी पता
नहीं अगली बार तुम्हे देख पाऊंगा या नहीं , ठीक रहना “|  तुम्हारे आँसू मुझे नन्हे सौरभ की याद दिला देते
हैं |   अभी भी उतने ही गड़ते हैं मेरे दिल
में | सच में कितना स्नेह करते हो तुम मुझसे , आत्मा तक भीग गयी | हमारा क्या है ,
हम तो पके आम हैं कब टपक जाए | कभी कभी रात में नींद खुलती है तो सोंचती हूँ काश
जब प्राण निकले तो तुम्हे देख पाऊ | फिर खुद ही मन को समझा लेती हूँ ,” अरे देख तो
लूंगी ही ,मन तो तुम्हारे पास ही रहता है | पर तुम चिंता न करना , बूढ़े तो जाते ही
हैं , अपना घर देखो तुम्हारे ऊपर बहुत जिम्मेदारियां हैं बेटा | बच्चों की पढाई का
भी टेंशन है | बहु का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता | उससे कहना अपना ध्यान रखे |
अगर घर की औरत स्वस्थ रहती है तभी घर सुचारू रूप से चलता है | अपना भी ब्लड प्रेशर
का इलाज करवा  लो बेटा | अब बुढ़ापा आने
वाला है |  बुढ़ापा यानी बुरापा | सेहत का
ध्यान रखना | ईश्वर तुम्हारी झोली में हर ख़ुशी डाल दे |
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आँसू
भरे नेत्रों के साथ सौरभ देखता है दीवार पर माला चढ़ी एक तस्वीर जैसे बोल उठती हैं
,” प्रिय बेटे सौरभ , पगले रोता क्यों है | मैं गयी कहाँ हूँ | माँ अपने बच्चों के
साथ हमेशा रहती है … याद के रूप में , अहसास के रूप में , आशीर्वाद के रूप में
……………….

वंदना बाजपेयी 


आप सभी को मदर्स डे की हार्दिक शुभकामनाएं 


                   

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“माँ“ … कहीं बस संबोधन बन कर ही न रह जाए https://www.atootbandhann.com/2016/05/blog-post_8-10.html https://www.atootbandhann.com/2016/05/blog-post_8-10.html#comments Sun, 08 May 2016 14:51:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2016/05/08/blog-post_8-10/ माँ केवल एक भावनात्मक संबोधन ही नहीं है , ना सिर्फ बिना शर्त प्रेम करने की मशीन ….माँ के प्रति कुछ कर्तव्य भी है …. “माँ” … कहीं बस संबोधन बन कर ही न रह जाए डुग – डुग , डुग , डुग … मेहरबान कद्रदान, आइये ,आइयेमदारी का खेल शुरू होता है | तो […]

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माँ केवल एक भावनात्मक संबोधन ही नहीं है , ना सिर्फ बिना शर्त प्रेम करने की मशीन ….माँ के प्रति कुछ कर्तव्य भी है ….
“माँ” … कहीं बस संबोधन बन कर ही न रह जाए
डुग – डुग , डुग , डुग … मेहरबान
कद्रदान, आइये ,आइयेमदारी का खेल शुरू होता है |
तो बोल जमूरे …
जी हजूर
सच –सच बताएगा
जी हजूर
आइना दिखाएगा
जी हजूर
दूध का दूध और पानी का पानी करेगा
जी हजूर
तो दिखा …. क्या लाया है अपने झोले में
हजूर, मैं अपने झोले में लाया हूँ मनुष्य को ईश्वर का दिया सबसे नायब तोहफा
“सबसे नायब तोहफा … वो क्या है जमूरे, जल्दी बता?”
“हुजूर, ये वो तोहफा है, जिसका इंसान अपने स्वार्थ के लिए दोहन कर के फिर बड़ी  बेकदरी करता है |”
“ईश्वर के दिए नायब तोहफे की बेकद्री ,ऐसा क्या तोहफा है जमूरे ?”
“हूजूर ..वो तोहफा है … माँ”
“माँ ???”
“जी हजूर , न सिर्फ जन्म देने वाली बल्कि पालने और सँभालने वाली भी”
“वो कैसे जमूरे”
“बताता हूँ हजूर , खेल दिखता हूँ हजूर ……
हाँ ! तो मेहरबान  कद्रदान , जरा गौर से देखिये … ये हैं एक माँ,चारबच्चों की माँ , ९० साल की रामरती देवी |झुर्रियों से भरा चेहरा कंपकपाती आवाज़, अब चला भी नहीं जाता | रामरती देवी वृद्ध आश्रम के एक बिस्तर पर  पड़ी जब – तब कराह उठती हैं | पनीली आँखे फिर दरवाज़े की और टकटकी लगा कर देखती हैं | शायद प्रतीक्षारत हैं | मृत्यु का यथार्थ सामने है पर मानने को मन तैयार नहीं की उसके चार बेटे जिन्हें उसने गरीबी के बावजूद अपने दूध और रक्त से बड़ा किया |

जो बचपन में उन्हेंचारों ओर घेरे हुए ,” अम्मा ये चाहिए , अम्मा वो चाहिए कहते रहते थे | जब तक वो देने योग्य थी , देती रही | पर अब जब वो अशक्त हुई तो उसको मिला आश्रम का अकेलापन | आज बड़े आदमी बनने के बाद उसके बच्चे यह भी भूल गए की कम से कम एक बार तो पू छना चाहिएथा , “अम्मा तुम्हें क्या चाहिये “?पूछना तो दूर उनका साथ रहना बेटों के लिए भारी हो गया | आश्रम में लायी गयी रामरती देवी बस “माँ ” ही हो सकती है | जो समझते हुए भी नहीं समझ पाती तभी तो प्रतीक्षारत है अपने बेटों की , की आश्रम द्वारा बार – बार नोटिस भेजे जाने पर, “तुम्हारी माँ का अंतिम समय है , आ कर देख जाओ” शायद आ जाये | शायद एक बार दुनिया से कूँच करने से
पहले उन्हें सीने से लगा सके | बरसों से अकेले , उपेक्षित रहने का दर्द शायद …शायद कुछ कम हो सके | पर साहिबान रामरती देवी अकेली नहीं है आज न जाने कितनी माएं अपनी वृद्धावस्था में घर के अन्दर ही उपेक्षित , अवांछित सी पड़ी है | जिनका काम बस आशीर्वाद देना भर रह गया है |

ये देखिये साहिबान वो भी माँ ही है …..जिसे हमारे पूर्वजों ने धरती मैया कहना सिखाया | सिखाया की सुबह सवेरे उठ कर सबसे पहले उसके पैर छुआ करो | माँ शब्द से अभिभूत धरती माता हँस हँस कर उठा लेती है अपनी संतानों के भार को |
जब – जब रौंदी जाती है हल से उपजाती है तरह –तरह की वनस्पतियाँ … कहीं भूँखी न रह जाएँ उसकी संतानें | न जाने कितने अनमोल रत्न छिपाए रहती है अपने गर्भ में , अपनी संतति को सौपने के लिए | पर हमने धरती के साथ क्या किया | पहाड़ काटे , नदियों का रास्ता मोड़ा … यहाँ तक तो कुछ हद तक समझ में आता है | पर जंगल जलाना, ये क्रूरता ही हद है | जिस समय मैं ये कह रहा हूँ उत्तराखंड के जंगल धूँ, धूँ कर के जल रहे हैं | कितने पेड़, कितने जीव –जंतु रक्षा, दया के लिए याचना करते – करते काल के गाल में भस्म हो रहे होंगे | सुनते हैं भू माफिया का काम है | जगल साफ़ होंगे | शहर बसेंगे | बड़े –बड़े भवन खड़े होंगे | पैसे –पैसे और पैसे आयेंगे | माँ तड़प रही है | किसे परवाह है | और तो और जहाँ – जहाँ धरती मैया अपने अन्दर जल समेटे हैं | वहाँ उसका बुरी तरह दोहन हो रहा है |घर – घर बोरिंग हो रही है | ट्यूबवेल लग रहे हैं |धरती दे रही है तो चाहे जितना इस्तेमाल करो |बहाओ , बहाओ , खूब बहाओ | रोज कारे धुल रहीं हैं , नल खुले छूट रहे हैं , पानी की टंकी घंटो ओवर फ्लो कर रही है | किसे चिंता है लातूर औरबुंदेलखंडबूंद – बूँद पानी को तडपते लोगो की |किसे चिंता है धरती माता के अन्दर प्लेटों के रगड़ने की | कितना कष्ट होता होगा धरती माँ को | पर किसे परवाह है |
ये देखिये साहिबान एक और माँ … अपनी गंगा मैया | अभिभूत संतति “ जय गंगा मैया “ का उद्घोष कर हर प्रकार का कूड़ा – करकट गन्दगी उसे समर्पित कर देती है | माँ है … सब सह लेंगी की तर्ज पर | और गंगा मैया, सिसकती होगीशायद | हर बार उसके आँसू मिल जाते
होंगे उसी के जल में | कहाँ देख पाते हैं हम | वैसे भी आँसू देखने की नहीं महसूस करने की चीज है | तभी तो अब थक गयी रोते –रोते |सिकुड़ने लगी है | समेटने लगी है अपने अस्तित्व को |माँ का आदर प्राप्त “ गंगा मैया “ अक्सर याद करती होंगी अपने अतीत को | जब भागीरथ उसे स्वर्ग से उतार लाये थे | तब ममता पिघल – पिघल कर दौड़ पड़ी थी अपने शिशुओं की प्यास बुझाने को | संतानों ने
भी माँ कह कर सम्मानित किया | उसके तटो पर बस गयी हमारे देश की संस्कृति | पर कहाँ गया वो सम्मान | आश्चर्य हर – हर गंगे कह कर गंगा से अपनी पीर हरवाने वाली संतति नाले में तब्दील होती जा रही गंगा की पीर से अनजान कैसे हैं?
और देखिये साहिबान …ये हैं वो गौ माता … ३३ करोंण देवताओं का जिसमें वास है | जिसे दो रोटी की दरकार नहीं है | उसे बस घास चाहिए | पर हम गौ माता के लिए घास छोड़ना कहाँ चाहते हैं |जगल , छीने , खेत – खलिहान छीने फिर घर के आगे की कच्ची जामीन भी पक्की करा ली | चारों तरफ कंक्रीट के जंगल बसा लिए | जमीन कीमती है इंच – इंच बिकती है | गौ माता का क्या है , इधर – उधर कुछ भी खा लेगी | तभी तो युगों –युगों से माता के अलंकार से विभूषितगौ माता सड़क पर कूड़े में मुँह मारने को विवश हुई | कूड़ा ही नहीं, सड़कों पर कूड़ा डालने की प्रक्रिया के साथ जो
पोलिथीन डाला जाता है | उसको खाकर गौमाता की कितनी तड़प – तड़प कर मृत्यु होती है | ये स्वार्थी संताने कहाँ सोंचती हैं | जिसको माँ कहता है | जिसको सम्मानित करता है, परंपरा मनाने के लिए पूजता है मनुष्य | ओक्सीटोसिंन का इंजेक्शन लगा –लगा कर उसी माँ के दूध का एक एक बूँद खींच लेना चाहता हैं | हमारे स्वाद में कमी न आये माँ का क्या है | माँ तो देती ही रहती है |
देखिये साहिबान एक और माँ… मदर नेचर | माँ ही कह कर तो संबोधित करते हैं उसे | इसी मदर नेचर की जल और धरा के हाल तो आप को दिखा ही दिए | अब जरा हवा के हाल सुनिए | हवा में जहर घोल रही हैं उसकी संताने |कारखानो चिमनियों का बेरोक टोंक धुँआ हम उसमें इस कदर मिला रहे हैं की हवा भी साँसलेने को तरस रही है | दमघुट रहा है उसका | इतना क्लोरो फ्लोरो कार्बन हवा में घोला जा रहा है की बरसों से मदर नेचर को सूर्य की अल्ट्रा वायोलेट किरणोंसे बचाने के लिएछतरी बनी ओजोन लेयर में भी छेद होने लगे | माँ तप रही है , माँ जल रही है | परवाह किसे है | रुकिए रुकिए , ठहरिये , ठहरिये , ये देखिये साहिबान … सिसकती हुई एक माता और है | जिसे हम माँ कह कर सम्मानित करते हैं वो है भारत माता | हमारा देश | माँ है | पर उसके बारे में सोचने की जगह भारत माता की जयबोले या न बोले इस पर विवाद किया जा रहा है |माँ की जय बोलना एक सहज उदगार है पर इसक अहंकार का प्रश्न बना लिया गया | जो “भारत माता की जय” बोलते है और जो नहीं बोलते वो दोनों ही अपने को देशभक्तसिद्ध करने में लगे हैं | बड़े –बड़े व्याख्यान हो रहे हैं, सभाएं हो रही हैं | तर्क ,वितर्क कुतर्क हो रहे है | इस बीच सब कुछ ठप्प है | हर बात गौढ़ हो गयी है | जिसे माँ कहते हैं उसकी परवाह किसी को नहीं है| उसकी आत्मा कितनी आहत हो रही होगी | जो भारत माता से प्यार करते तो झगड़ते ही क्यों ? उसकी हिफाजत , उसकी समस्याएं और उसके विकास की बात सोंचते | पर परवाह किसे है |
तो साहिबान कद्रदान मदारी का खेल खत्म हुआ | अपने –अपने घर जाइए | सोचिये …. और सोचिये ,जरूर सोचिये … जिसे माँ कहा उसके साथ हम क्या कर रहे हैं | क्या माँ शब्द सिर्फ कहने के लिए हैं | या
संतान का कोई दायित्व भी है |
खेल खत्म होने के साथ ही सिक्के उछले | और सिक्कों की खनकार में फिर दब गया मूल प्रश्न | वही मूल प्रश्न जो विकास की दौड़ में दौड़ते – दौड़ते न जाने कहाँ छूट गया है | पर परवाह किसे है | अचानक ही मुझे याद आ गया एक लोकप्रिय भजन
“ हे रे कन्हैया , किसको कहेगा तूमैया |
एक ने तुझको जन्म दिया है , एक ने तुझको पाला ||
और दोनों माँओं  को सामान रूप सेमाता का दर्जा दिया गया | जहाँ जन्म देने वाली माता और पालने वाली माता के मध्य कोई अंतर नहीं है |यहाँउस ममता को पहचाना गया जो माँ के हृदय में अपने शिशु के लिएउमड़ी | “माँ” शब्द सिर्फ कहने भर के लिए नहीं है | ये एक सम्मान है उस निस्वार्थ प्रेम
का , ये शब्द अपने अंदर अनंतश्रृद्धा और कृतज्ञता का भाव समेटे है | और उससे भी बढ़करकर कर्तव्य का |माँ शब्द कहते ही श्रद्धा और सम्मान के साथ कर्तव्य की डोर भी बंध जाती है | ईश्वर हो या साधारण प्राणी माँ के ऋण से कोई उऋणनहीं हुआ है | हो भी नहीं सकता | इसीलिए तो माँ शब्द सबसे अलग सबसे अनूठा है, सबसे अलहदा है| पुन :एक यक्ष प्रश्न की तरह मेरेसामने खड़ीहो गयी वो सारीमाएं |जिन्हें कभी बड़े प्यार से “ माँ “शब्द से संबोधित किया था | चाहे वो जन्म देने वाली माँ हो, या पालन –पोषण करने वाली, धरती माँ, प्रकृति माँ, गंगा मैया, गौमाता या भारत माता |जहाँ शब्द केवल कहने या खाना पूरी के लिए नहीं बनाए गए थे | ये शब्द नहीं श्रद्धा की भावना थी | जहाँ कृतज्ञता का भाव था |कर्तव्य की जिम्मेदारी थी | जरा सोंच कर देखिये जन्म लेने के बाद हमारा जो विकास हुआ है | जो वजन में किलोग्राम की वृद्धि हुई है | उसमें शामिल है, वो अन्न वो जल वो वायु वो दूध हमने इन पालन करने वाली माताओं से ही ग्रहण किया है | उनके प्रति भी हमारा कोई कर्तव्य है | पर नहीं … हमने माना कहाँ हैं | कहीं नकहीं हमने माँ को “टेकन फॉर ग्रांटेड”लिया है | चाहे वो जन्म देने वाली हो या पालन करने वाली |

हमने सिर्फ लिया है | अपने स्वार्थ के लिए सिर्फ उसका दोहन किया है | जब वो हदेते देते जीर्ण – शीर्ण अवस्था में पहुँच गयी तो अपने कर्तव्य से मुँह चुराते हुए, सफलता का का झंडा लिए विकास –विकास कहते  हुए हम आगे बढ़ गए हैं | “नदिया से बादल बने बादल से बरसात “ की परंपरा को हम भूल गए हैं | हम भूल गए हैं की प्रकृति का संतुलन एक चक्राकार रूप में चलता है | जो लेने और लौटाने के एक चक्र में पूरा होता है | वो चाहे देखभाल हो ,अन्न, जल स्वास्थ्य आदि परध्यान देना हो या स्नेह| लेने के साथ देना भी जरूरी है | पर अपने स्वार्थ में माँ से सिर्फ लेने –लेने की धुन में में हम विकास की ओर नहीं विनाश की ओर बढ़ रहे हैं … प्राकृतिक विनाश , सामाजिक विनाश और भावनात्मक विनाश |
 मई के दूसरे रविवार को “मदर्स डे” मनाते हैं | एक दिन माँ के नाम  का एक आधुनिक त्यौहार | जिसे मना कर हम अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते है | हमारे पास माँ को देने के लिए  कुछ फूल , कुछ कार्ड , फोन पर कुछ  मेसेज, व्हाट्स  एप पर कुछ चुराए गए अलफ़ाज़ ही हैं  | जिसमें समर्पण का भाव नहीं अहसान की गंध आती है | | ठीक वैसे ही अर्थ डे , वाटर डे , मदर नेचर डे , फारेस्ट डे आदि आदि मनाया जाता है | जहाँ बैठके , घोषणाएं व् नारेबाजी तक ही बात सीमित रहती है | अगले दिन से स्वार्थी संताने  और उपेक्षित माँ अपने अपने स्थान पर वहीं लौट आते हैं | देशी या विदेशी कोई भी त्यौहार मानना बुरा नहीं है | पर किसी भी रश्ते को सिर्फ त्यौहार तक सीमित कर देना सही नहीं है | हमें ध्यान रखना होगा की “ माँ “ शब्द कहीं  संबोधन मात्र बन कर न  रह जाए | 

हमें हर पल उसके पीछे छिपी भावना और कर्तव्य को याद रखना होगा | जिसने हमें बिना शर्त बस दिया ही दिया है | उसे हमें लौटाना भी होगा | हमें समझना होगा की हर दिन माँ का दिन है | फिर चाहे वो माँ जन्म देने वाली हो या पालने वाली | हर दिन उसके प्रेम के प्रति समर्पण का दिन है | अपने कर्तव्य
निभाने का दिन है | तो आगे आइये और हर दिन को “मदर्स डे” की तरह मनाइए |
एक कोशिश है …. करके देखतें हैं …….
वंदना बाजपेयी 
कार्यकारी संपादक 
अटूट बंधन 
हिंदी मासिक पत्रिका
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अटूट बंधन वर्ष -२ अंक -६ सम्पादकीय :समग्र जीवन की सफलता https://www.atootbandhann.com/2016/04/blog-post_73-6.html https://www.atootbandhann.com/2016/04/blog-post_73-6.html#comments Fri, 08 Apr 2016 16:25:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2016/04/08/blog-post_73-6/ समग्र जीवन की  सफलता जब जानी थी सुख –दुःख की परिभाषा तब बड़ी ही सावधानी से खींच दिया था एक वृत्त सुख के चारों ओर की कहीं मिल न जाए सुख के चटख रंगों में दुःख के स्याह रंग और मैं एक सजग प्रहरी की भांति अनवरत रही युद्ध रत अंधेरों के खिलाफ पर जीवन […]

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समग्र जीवन की  सफलता
जब जानी थी
सुख –दुःख की परिभाषा
तब बड़ी ही सावधानी से खींच दिया था
एक वृत्त
सुख के चारों ओर
की कहीं मिल न जाए
सुख के चटख रंगों में
दुःख के स्याह रंग
और मैं एक सजग प्रहरी की भांति
अनवरत रही युद्ध रत
अंधेरों के खिलाफ
पर जीवन तो परिधि पर ही बीत गया

जिसकी रक्षा में रत
उसे भोगा कहाँ
इसलिए मुक्त कर  मन को
तोड़ दी है परिधि 
पड़ गए हैं सुख के चटख रंगों में
स्याह राग के छींटे
पर मन
अब शांत है , सहज है
क्योंकि ,यही तो जीवन है
                           सुधा और
अरुण पति –पत्नी हैं | दो बच्चों का  छोटा
सा सुखी परिवार |  इस छोटे से घर , टी वी
वाशिंग मशीन व् तमाम सुख सुविधायें हैं | जो अरुण की छोटी तनख्वाह के बस में नहीं
थीं | अरुण ने सब कुछ लोन पर ले लिया | उसका उदेश्य सिर्फ परिवार  को खुशियाँ देना नहीं था | वो चाहता था उसके
दोस्तों व् उसकी पत्नी की सहेलियों के बीच उनकी  नाक सबसे  ऊँची रहे |पर लोन की मासिक क़िस्त  भरने के कारण अरुण की तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा
खर्च हो जाता है | थोड़े से पैसों में बच्चों की छोटी –छोटी माँगे   अधूरी रह जाती हैं | खाने –पीने और  बच्चों की सेहत से कई बार समझौता करना पड़ता हैं
| नयी साड़ी  न खरीद पाने के कारण सुधा कई
बार मुहल्ले के कार्यक्रमों में नहीं जा पाती  है | क्योंकि वहाँ  कपड़ों से इंसान की औकात तय की जाती है | सुधा  और अरुण कई बार पछताते हैं की  सब कुछ जल्दी पा लेने ही होड़ में लोन न लेकर
धीरे –धीरे बचत कर के लेते तो शायद ये आभाव न लगता |
      रितेश व् दीपा दोनों बड़ी कम्पनी
में कार्यरत हैं | ऊँचा  ओहदा , ऊँचा  वेतन , घर में ऐशो आराम की सब चीजे सब कुछ है ,
नहीं है तो बस समय | खुद के लिए ,  एक
दूसरे के लिए , बच्चों के लिए | कभी कभी रितेश को अपनी माँ याद आती है |जब वो अल
सुबह एक एक फूल चुन कर भगवान के लिए माला बनाया करती थी व् उनके सुरीले भजन से
उनकी आँख खुलती थी | अब तो कभी वो या  कभी
दीपा,” हे भगवान दो मिनट लेट हो गया” कहते हुए उठते हैं | आया के हाथों पला एकलौता
बेटा कब माँ की लोरी का इंतज़ार करते –करते ड्रग्स के चंगुल  में फंस गया पता ही नहीं चला | उन्हें कभी कभी
लगता है जैसे सब कुछ पा के भी खाली हाथ हैं |
          नर्सरी की टीचर रोहन की माँ
को बुला कर कहती हैं | पिछले ३ दिन से  रोहन स्कूल नहीं आया | क्या बात है आप रोहन का
फ्यूचर स्पॉइल कर रही हैं | निकिता जी को बेटी का फ्यूचर  बनाने की जरूरत से ज्यादा चिंता है | वह ७ साल
की बेटी के स्कूल से घर आते ही उसका होम वर्क कराती हैं | फिर स्वीमिंग क्लासेज
में ले जाती हैं | फिर ट्यूशन पढने भेजती हैं | ट्यूशन  से आने बाद डांस क्लासेज में  | खाना खिलाते समय जब निकिता को नींद के झोंके
आने लगते हैं तो उसकी मम्मी उसे जगा –जगा कर आज के सब पाठ याद कराती हैं | ७ साल
की बच्ची के पास खेलने का समय नहीं है | पर माँ को अभी भी फ़िक्र है उसकी, जो सीखने
से  छूटा 
जा रहा है | जिंदगी की दौड़ में निकिता को विजेता कैसे बनाये |
                 आज के युग का नारा है | जिंदगी एक दौड़
है | दौड़ो विजेता बनों | हम सब जीतने आये हैं | तारे जमीं पर का एक गीत मुझे याद आ
रहा है , “ दुनिया का नारा जमे रहो , मंजिल का इशारा जमे रहो | और हम सब बेतहाशा
भाग रहे हैं |फिर  भी सब में खाली पन है
अकेला पन है | जो भीतर ही भीतर हर किसी को खाए जा रहा है |  ये अनकंट्रोल्ड ट्रैफिक ही दुर्घटनाओं का कारण
बनता है | दुर्घटनायें शारीरिक , दुर्घटनायें मानसिक और दुर्घटनायें सामाजिक | आज
हर दिन अख़बार में आत्महत्याओं , रोड रेज की घटनाएं पढने को मिलती हैं | आज जब ऐसे
साइकोपैथ लोगों की संख्या बढ़ गयी है जिनके 
अपने ही बच्चे  व् परिवार के सदस्य दिन
–रात वर्बल ऐब्युज़ का शिकार होते रहते हैं | आज अनेक घटनाएं सफलता के युग में
मानवता को आदिम युग तक पीछे छोडती प्रतीत होती हैं |  चाहे वो घर में अपने बेटे के साथ क्रिकेट  खेलते डॉ नारंग की उनके बेटे के सामने की गयी
नृशंस  हत्या हो , बॉयफ्रेंड का छल झेलती
आनंदी उर्फ़ प्रत्यूषा  बनर्जी की आत्महत्या
हो या माँ – बाप के झगड़ों से आजिज़ आ व्हाट्स एप पर अपने दोस्तों को जिंदगी और मौत
के मेसेज भेज कर आत्महत्या करने वाला वो नन्हा बच्चा हो  | और क्यों न हो ऐसे घटनाएं , जब सफलता की दौड़
में जीतना ही सब कुछ है , और नंबर वन बनना ही धेय्य तो  ‘एव्री थिंग इस फेयर इन  लव एंड वार’ 
का नारा लगाते समाज में एक दूसरे की टांग खीच कर लंगड़ी  मार कर आगे बढ़ जाना स्वाभाविक है |
                      एक भगदड़ मची है
| सब को भागना है |क्यों दौड़ रहे हैं पता नहीं | 
मंजिल कहाँ है कई लोगों  को यह भी
पता नहीं | पर भागना है | रुको नहीं भागो | मुझे बरबस लियो टॉलस्टाय की कहानी “
हाउ मच लैंड ए  मैं डज नीड “ याद आ रही है
| कहानी का नायक जब’ जितना भाग लोगे उतनी जमीन तुम्हारी ‘का नियम सुनता है , तो
बेतहाशा भागने लगता है | थोडा और थोडा और … साँस फूलने लगती है | पर आगे की जमीन
तो और उपजाऊ है , वो और भागता है | वो इतना भागता है की अन्तत : उसकी मृत्यु हो
जाती है | कब्र खुद जाती है और उसके हिस्से जमीन आती है मात्र ६ फुट २ इंच | आज
यही तो हमारे साथ हो रहा है |  एक –एक मिनट
कीमती है | पल –पल तनाव बढ़ रहा है | जो धीरे –धीरे हमें मृत्यु की ओर ले जा रहा है
| विडंबना ही है की जब हम चाँद छूने ही जा रहे होते हैं | अगले ही पल भोर हो जाती
है और सूरज की तपिश से हमारे हाथ जल जाते हैं | आज बरबस कभी कहीं पढ़ी कुछ लोकप्रिय
पंक्तियाँ याद आ रही हैं |
फूल मत डालो
कागज़ की तरी मत तैराओ
खेल में तुमको पुलक उन्मेष होता है
लहर बनने में सलिल को क्लेश होता है |
         सकारात्मक सोच सफल
जीवन का मूल मन्त्र है | पर कहीं न कहीं मेजोरिटी ने इसे बहुत नकारात्मक तरीके से
ले लिया है | हम सब में प्रतिभा है हम सब यहाँ सफल होने आये हैं | ये विचार हमारे
मन में लहर का निर्माण करने लगता है | यह पढ़ते सुनते हम सब सोच में पड़ जाते हैं |
अपने अन्दर  टेलेंट हंट शुरू हो जाता है |
शांत जिंदगी बेचैन भी हो जाती है | हम सब अपने को सिद्ध करना चाहते हैं | हम उन  क्षेत्रों में अपनी क्षमता झोंक देना चाहते हैं
जिनमें हमें कभी सफल होना ही नहीं है | लाख बताया जाए की काम से प्यार करो पर
प्रतिभा की परिभाषा हमने नाम और पैसा मान ली है | हर कोई  गायक , अभिनेता , लेखक, डॉ या इंजिनीयर  बनना चाहता है |खेल से प्यार है पर सिर्फ क्रिकेट से ….हर कोई क्रिकेट का खिलाडी बनना चाहता है हॉकी का क्यों नहीं | या ये जबरदस्ती शोहरत और पैसे के क्षेत्रों में प्रतिभा ठूंस ठूंस कर भरने की नाकामयाब कोशिश है | अपच होना लाजिमी है | इसीलिए सफलता की दौड़ में भागते लोगों
में से एक खासी भीड़ निराश , हताश कुंठित लोगो की तैयार हो रही है | अगर महिलाओ की
बात करें तो समाज में धीरे – धीरे हाउस वाइफ शब्द गाली जैसा लगने लगा है | यह माना
जाने लगा है हॉउस वाईफ मतलब कुछ न करना | किसी ख़ास मार्ग को चुन कर उस पर
जबरदस्ती अपने को
सिद्ध करने के लिए  चलना प्रतिभा की गलत
परिभाषा है | ये सच है की अंधकार  में कौन
रहना चाहता है |  पर ये जड़ की प्रतिभा है ,
जो वो अंधकार  में रह कर पौधे को साधती है
| धरती की प्रतिभा ये है की वो सूरज के चारों  और चक्कर लगा सकती है | एक आध्यात्मिक व्यक्ति
को संसारी दौड़ में लगा दिया जायेगा तो उसको आनंद नहीं आएगा | उसकी प्रतिभा  सुदूर गिरी कंदराओ में आध्यात्मिक उन्नति करने
में है |  और समाज को उसकी भी जरूरत है |
वो भी महत्वपूर्ण है | किसी अज्ञात शायर का एक खूबसूरत शेर सच बयाँ करता है |
तामीरे कायनात को गहरी नज़र से देख
वो जर्रा कौन सा है जो की  अहम् नहीं     
                  एक महात्मा  के पास एक निराश , हताश लड़की जाती है वो कहती
है ,” मेरा जीवन भी कोई जीवन है | मैं जल्दी से जल्दी दूर उस घाटी में जाना चाहती
हूँ जहाँ सुंदर फूल खिले हैं | चिड़िया चह्चहा 
रही हैं | महात्मा कहते हैं कुछ पल तो यहाँ रुको | पर वो हठ  करती है | उसे जल्दी पहुँचना  है बहुत जल्दी | महात्मा उसे मार्ग बता देते हैं
पर वादा करवाते हैं की तुम वहाँ  पहुँच कर
एक बार पीछे मुड़  कर जरूर देखना | लड़की
भागते –भागते वहाँ  पहुँचती है | जब पीछे
मुड़  कर देखती है तो पीछे  यहाँ से भी ज्यादा सुन्दर फूल खिले हुए होते हैं
| जिनके लिए भागी थी वो अब बौने प्रतीत हो रहे हैं | दरसल जब उसने भागना शुरू किया
था तब वहाँ जमीन में  बीज दबे हुए थे | जो
समय के साथ स्वयं ही अंकुरित हो गये | परन्तु वो लड़की तो उस स्थान को छोड़ चुकी थी
|  जीवन के वृत्त पर भागते हुए हम दो सिरे
कभी नहीं पकड सकते | केवल भागना और जीतना ही महत्वपूर्ण नहीं है | महत्वपूर्ण तो
सफ़र है | सफ़र में किनारे उगे पेड़ नहीं देखे | बिजली का चमकना  नहीं देखा , फूलों और बारिश का आनंद  नहीं लिया तो जिए ही कहाँ | महत्वपूर्ण तो यह भी
है की हम क्या पा रहे हैं और क्या खो रहे हैं | या किस कीमत पर पा रहे हैं | सफलता
के मार्ग पर चलना अच्छी बात है पर जीवन में संतुलन बनाना ज्यादा आवश्यक है | समाज
खुद मानकों के एक फ्रेम में कसा हुआ है  | और
हम भी खुद को उसी फ्रेम में कसे हुए हैं | दोनों एक दूसरे को निकलने नहीं दे रहे
हैं |  आखिर समाज हमीं  से ही तो बनता है | जिस तरह सफलता , सफलता सफलता
कह कर एक भगदड़ मची है | वो सफल लोगों से दोगुनी रफ़्तार से निराश , हताश कुंठित
लोगों की फ़ौज खड़ी कर रही है | गिरती हुई मानवीय संवेदनाएं इसका परिणाम हैं |
आध्यत्मिक गुरुओ के पास भीड़ लगी है | क्या अचानक से समाज इतना आध्यात्मिक हो गया
है या इतना कुंठित हो गया है की किसी तरह से उसे स्ट्रेस से बचने के लिए इन
शिविरों में जाना पड़ रहा है | जिस तरह से सामाजिक संवेदनाओ का हास  हो रहा है उससे तो दूसरा कारण ही सही  प्रतीत होता है |अगर आध्यात्मिक तरीके को ही
माने तो हम सब के अन्दर आत्मा है | जो आनंद स्वरुप है | वो एक निश्चित फ्रीकुएन्सी
पर स्पंदन कर रही है | जो एक विशेष  काम की
तलाश में है | यह ही शायद वो  प्रतिभा है जिसके
साथ हमें भेजा गया है | इसी क्षेत्र में किये गए काम में हमारा आनंद छिपा है | अन्यथा
एक तड़प, एक अधूरापन  एक खोज जारी रहता  है |
                    अंत में एक अच्छे
जीवन के लिए सफलता जरूरी है | पर केवल नाम और पैसे के पीछे भागते हुए किसी क्षेत्र
विशेष में जबरदस्ती अपनी प्रतिभा सिद्ध करने की आकांक्षा रखना  निराशा और कुंठा का कारण बनता है | आनंद, भगदड़
में नहीं काम को करने में होना चाहए | जरूरी है अपनी प्रतिभा को पहचानना उसे
स्वीकार करना , चाहे वो जड़ बनकर घर के पौधे को साधना हो , या नेता बन कर देश को
साधना हो, हो   | जिस काम को कर रहे हैं
उसे नाम पैसे की हाय हाय से न जोड़कर उस काम को करने का आनंद लेना है | जरूरी यह भी
 है की काम और परिवार के बीच संतुलन
स्थापित कर सफ़र का आनंद  लेना | यही समग्र
जीवन की सफलता है |

एक कोशिश है …… कर के देखते हैं … 
वंदना बाजपेयी 

              

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अटूट बंधन वर्ष -२ अंक -५ सम्पादकीय : किसी का जाना …कभी जाना नहीं होता https://www.atootbandhann.com/2016/04/blog-post_8-11.html https://www.atootbandhann.com/2016/04/blog-post_8-11.html#respond Fri, 08 Apr 2016 16:15:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2016/04/08/blog-post_8-11/ किसी का जाना ….कभी जाना नहीं होता लाल –पीले हरे नीले रंगों से इतर कुछ अलग ही होते हैं रिश्तों के रंग जहाँ चलतें हैं सापेक्षता के सिद्धांत की पल पल बनते बिगड़ते त्रिकोंड़ो में साथ –साथ आगे बढ़ी हुई रेखायें नहीं ले पाती हैं कोई आकर की दृश्य –अदृश्य रूप में मौजूद रहता है […]

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किसी का जाना ….कभी जाना नहीं होता
लाल –पीले हरे नीले
रंगों से इतर
कुछ अलग ही होते हैं
रिश्तों के रंग
जहाँ चलतें हैं सापेक्षता के सिद्धांत
की पल पल बनते बिगड़ते
त्रिकोंड़ो में
साथ –साथ आगे बढ़ी हुई रेखायें
नहीं ले पाती हैं कोई आकर
की दृश्य –अदृश्य रूप में

मौजूद रहता है तीसरा कोण
ध्वस्त हो जातें हैं कल्पना के बिम्ब
शेष रहता है क्रूर यथार्थ
रोक सको तो रोक लो
उसको
जो नहीं हो कर भी
तैरता है
किसी न किसी रूप में ,
किसी न किसी आकार में
दो रेखाओं के मध्य
क्योंकि
किसी का जाना …कभी जाना नहीं होता
                   रंगों का त्यौहार
होली आने वाला   है | पत्रिका के इस अंक
में हर रंग को समेटने का प्रयास किया है |अब अंतिम प्रस्तुति मेरा पाठकों के साथ
संवाद | जब –जब यह संवाद स्थापित करती हूँ अतीत की न जाने कितनी स्मृतियाँ मन के
आँगन में पुकारने लगती हैं | और क्यों न हो ये अनुभव , ये स्मृतियाँ , ये मनोभावों
का विश्लेषण किसी लेखक की धरोहर होती हैं | परन्तु एक विरोधाभास भी है | जीवन की
अनेक घटनाएं जो महत्वहीन होती हैं | जिनका होना या न होना बराबर होता है |
स्मृतियों में बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाती हैं | मैं अपने विचारों लीं थी की  भतीजे का फोन आ गया | हँसते हुए कहा “ मौसी कल
तो कॉलेज में बेवजह की डांट  पड़ गयी | दरसल
सभी बच्चे सामूहिक बंक ( एक साथ क्लास न अटेंड करना ) चाहते थे | पर हम तीन –चार
बच्चे यह सोच कर क्लास में गए की अध्यापिका जब पढ़ाने आएगी तो सारी  क्लास अनुपस्तिथ देख कर उन्हें  अपमानित महसूस होगा | वैसे भी कुछ न कुछ तो
पढायेंगी  ही | क्लास में जाने का कुछ तो
लाभ मिलेगा  ही | परन्तु हुआ उल्टा | केवल
कुछ बच्चों को देख कर अध्यापिका क्रोधित हो गयीं | वह हम लोगों को डाँटने लगीं की
आप लोग पढ़ाई पर ध्यान नहीं देतें हैं क्लास बंक करतें हैं | ये एक बेहद गैर
जिम्मेदाराना हरकत है | हम सब बच्चे हैरान थे | हम सब जो कक्षा में उपस्तिथ थे
उनके हिस्से की डांट खा रहे थे जो अनुपस्तिथ थे | जो अनुपस्तिथ थे वो बाहर मजे ले
रहे थे | कुल मिलाकर जो क्लास में नहीं थे वो थे और जो थे वो नहीं थे | बात
सामान्य थी पर उसकी बात का आखिरी वाक्य मुझे कहीं गहरे प्रभावित कर गया | किसी  का न हो कर भी होना और किसी का होकर भी नहीं
होना |
                  पहले भी मुझे कुछ पुरानी
फिल्में सोचने पर विवश करती रहीं हैं | जिन में प्रेम त्रिकोण होता है | दो नायक
एक नायिका या एक नायक दो नायिका | ज्यादातर फिल्मों में कथाकार सहूलियत की दृष्टि
से  इस त्रिकोण में से एक व्यक्ति ( नायक
या नायिका ) की मृत्यु दिखा देता है | और दो लोग जीवन के पथ पर आगे बढ़ जातें हैं |
हैप्पी एनडिंग हिंदी फिल्मों का अपना अंदाज़ है | पर क्या वास्तविक जिंदगी में ऐसा
होता है | क्या दो व्यक्ति तीसरे की छाया से पूर्णतया  मुक्त हो कर जीवन पथ पर आगे बढ़ पाते हैं |
सच्चाई ये है की जीवत हो या मृत ,वह तीसरा व्यक्ति उनके मध्य हमेशा रहता है | कभी
तानों के रूप में , कभी उलाहनों के रूप में , कभी 
दर्द के रूप में | वो जा कर के भी नहीं जाता |   
          भले ही ये किस्सा फ़िल्मी हो
, नायक नायिका का हो | पर जीवन में ऐसे हजारों प्रेम त्रिकोण बनते हैं | जिसमें एक
केंद्र होता है और दो परिधि पर | ये त्रिकोण दो बहुओं और सास के बीच में बनता है |
पुरुष और उसकी माँ पत्नी के मध्य  बनता है
| दो बहनों और भाई के मध्य बनता है | विवाद की स्थिति में जहाँ एक जाता दिखता है ,
हटता  दिखता है और दो लोग साथ में आगे बढ़ते
दिखतें हैं | पर जाने वाला कभी नहीं जाता वो उनके मध्य तैरता  है जीवन पर्यंत | किसी न किसी रूप में किसी न
किसी आकार में , चाहे –अनचाहे |  मुझे याद
आ रहीं है एक बुजुर्ग महिला ‘राधा जी ‘ | राधा जी अपनी दो बहुओं के मध्य संतुलन
बनाने में असमर्थ रहीं | रोज़ –रोज़ की किच –किच का परिणाम यह हुआ की उन्होंने दोनों
बहुओं को अलग –अलग रहने का आदेश दे दिया | एक बहु ख़ुशी –खुशी  अलग रहने लगी | दूसरी नें  राधा जी के साथ उनकी सेवा करते हुए रहने का
निर्णय  लिया | उस समय वो राधा जी को प्रिय
लगी किन्तु दिन बीतने के साथ वो अलग –अलग कारणों से दोनों बहुओं  की तुलना करने लगीं | उन दोनों के बीच में वो (
पहली बहु ) सदा  रही | आश्चर्य जो बहु
त्याग , सेवा और समर्पण के साथ राधा जी के साथ 
थी | वो ह्रदय में नहीं थी | जो नहीं थी , वो ह्रदय में थी |
        अभी ज्यादा समय नहीं हुआ एक
व्यक्ति ने मुझे मेसेज किया ,” वंदना जी आपकी कहानी पढ़ी | आप  मानवीय भावनाओं को कागज़ पर पूरे अहसासों के साथ
उकेर देती हैं | क्या आप एक ऐसे बेटे की कहानी लिखेंगी जिसने अपने माता –पिता के
लिए अपने सब सुख त्याग दिए , यहाँ तक की पत्नी और परिवार भी | पर माता –पिता हमेशा
उस बड़े भाई की प्रशंसा करते है ,  जो अपने
परिवार के साथ अलग रहता है | क्या आप उस लड़के की टीस को , दर्द को उकेरेंगी |
जाहिर सी बात है यह उसका अपना दर्द होगा | मैंने अभी कहानी नहीं लिखी पर इससे मेरी
बात को बल मिला | जो पास नहीं है वो है और जो है वो नहीं है |  नेहा का दर्द भी कुछ अलग नहीं है | मुक्ता  जी ने नेहा जी व् कुछ अन्य महिलाओंको लेकर
सामाजिक संस्था बनायीं | धीरे –धीरे सदस्यों में मतभेद हुए | एक –एक करके सब
मुक्ता की संस्था  को छोड़ कर चल गयीं |
नेहा संस्था के कार्यों में पूर्ववत लगी रही पर नेहा और मुक्ता का रिश्ता प्रभावित
हुए बिना नहीं रह सका | उन दोनों के बीच में वो सब उपस्तिथ रही जो जा चुकी थी |
तानो , उलाहनों और दर्द के रूप में |
                            आपको याद हो कुछ समय पहले  एक फिल्म आई थी “ तारे जमीं पर “ |उसका एक दृश्य
मेरे आँखों के सामने तैर गया | जब हिंदी की कक्षा में कविता का अर्थ पूंछने पर
ईशान कुछ अटकते हुए सा जबाब देता है ,” जो है वो नहीं है और जो नहीं है वो है |
ईशान  का उत्तर खारिज हो जाता है | उसी के
मित्र का उत्तर अध्यापक की नज़र में सही है ,” कवि  बिम्ब बनाता है और मिटाता है | ईशान  सच्चाई का प्रतिनिधित्व करता है और उसका मित्र
सधे  सुन्दर शब्दों में कल्पना का | हम सब
कल्पना में जीते हैं | बिम्ब बनाते हैं और मिटाते हैं | हर बिम्ब बनने  और मिटने के बीच एक आवरण होता है | उस आवरण के
अन्दर कैद होता है ईशान का सच | जो है वो नहीं है और जो नहीं  है वो हैं | एक कडवा सच | एक जीवन दर्शन | एक
फिलौस्फी  |
                   एक ऐसी  फिलास्फी  जो हमारे मुहावरों में पीढ़ी दर पीढ़ी सिखाई जा
रही है | दूर के ढोल सुहाने होते हैं | जब दूर से ढोल की आवाज़ सुनाई देती है तो मन
मधुर कल्पनाओं में खो जाता  है |
घूंघट  में सजी खूबसूरत दुल्हन के | विवाह
के समय गाये जाने वाले सुरीले गीतों के | मधुर पकवानों की खुशबू के | एक
उल्लासित  उमंग  भरे वातावरण के | मन  एक बिम्ब गढ़ता है | पर यह आदर्श व्यवस्था कहाँ
है ?हकीकत  कवि  का बिम्ब नहीं , ईशान का यथार्थ है | जहाँ ढोल
की कानफाडू आवाज़ है |ढेरों अव्यवस्थाएं है | दहेज के लिए झगड़ते वर पक्ष के लोग है
|और घूँघट के नीचे आँखों में आँसू भरे दुल्हन है जो आज स्त्री नहीं दान की जाने
वाली वस्तु है | यथार्थ ईशान का सच है जो है वो नहीं है जो नहीं है वो है | जिसे
परे धकेल कर हम बिम्ब गढ़ते है | बिम्ब सुखद होते है | आनंद दायक होते हैं | इसलिए
स्वीकार्य होते हैं |
     बचपन  में पिता 
जी जब कहा करते थे की हम सब जो अभी कर रहे | वो सब एक फिल्म में कैद हो रहा
है | वो फिल्म आकाश की तरफ बढ़ रही है |धीरे –धीरे 
सुदूर अन्तरिक्ष में फैले सितारों तक जा रही है | एक न एक दिन वो सब यह
देखेंगे | मेरी आँखें आश्चर्य से फ़ैल जाती जब पिता  जी बताते अभी तो सितारों पर बैठे लोग महाभारत के
दृश्य देख रहे होंगे | धनुष बाण पकडे अर्जुन , गीता का ज्ञान देते श्री कृष्ण व्
चालाक शकुनी | बाद में जब विज्ञान की पढाई  की और प्रकाश की गति और अन्तरिक्ष में तारों की
दूरी के बारे में अनुमान लगाया तो सहज ही वो बाल सुलभ आश्चर्य कपोल कल्पना नहीं रह
गया | होने और नहीं होने की बात समझ आने लगी | जो यहाँ पर है वो सुदूर ग्रहों के
लिए नहीं है और जो नहीं है वो है | सापेक्षता का सिद्धांत समझ आने लगा |अंग्रेजी
में इसके लिए दो बड़े ही खूबसूरत शब्द हैं | एब्सोल्यूट व् क्म्पेरिटिव | रिश्तों
की दुनिया में सब कुछ काम्पेरिटिव होता है , एब्सोल्यूट नहीं |
                    होली आने वाली है |  एक बार पुन : 
अपने बचपन की स्मृतियों  में वापस
लौटती हूँ | जब होली पर बैठक की मेज विभिन्न रंग –बिरंगी पत्र –पत्रिकाओं से सज
जाती थी | पढने –लिखने के शौक़ीन हम बच्चों 
के लिए इम्तहान समाप्त होने के बाद पिताजी द्वारा त्यौहार के मौके पर दिया
गया यह एक विशेष उपहार होता था |पर  उनमें
से कई पत्रिकायें ऐसी थी | जिनकी कहानियों की शुरुआत किसी रिश्ते की अनबन से होती
थी व् अंत होली रंग  व् अबीर –गुलाल से
रिश्तों की कलुषता समाप्त हो गयी , जीवन खिल उठा से  होता था 
| मैं सोचती , क्या ऐसा संभव है ? हर बार अबीर –गुलाल से रिश्ते कैसे प्रेम
के रंगों  में रंग जाते हैं | पर आज समझती
हूँ की ये पूर्णतया सत्य भले ही न हो पर अंशत : सत्य है | ये त्यौहार हमें एक अवसर
देते है | रिश्तों को सुधारने का | होली सिर्फ रंगों का त्यौहार नहीं है यह
रिश्तों का त्यौहार भी है |  जहाँ हंसी
खुशी और उल्लास के रंगों में रिश्ते रंग जाते है | द्रण हो जातें होते है |  करीब सप्ताह भर चलने वाला होली मिलन कार्यक्रम
जिसमें हर छोटे –बड़े रिश्तेदार से मिलने की परंपरा रही है | यह हमारे पूर्वजों
द्वारा अपने अनुभव के आधार पर की गयी एक व्यवस्था है जो रिश्तों को सँभालने सहेजने
के लिए बनायी गयी हैं |  यही रिश्तों  की सापेक्षता का सिद्धांत है | एब्सोल्यूट कुछ
भी नहीं सब कुछ क्म्पेरिटिव | इसलिए मन  –मुटाव
भुलाकर साथ चलने की वृत्ति अपनानी है | क्योंकि जाने वाला कहीं नहीं जाता वह रहता
है दो के मध्य में किसी न किसी रूप में किसी न किसी आकार में , चाहे –अनचाहे | मन
कल्पना के चाहे जितने बिम्ब बना  ले | पर
सच्चाई ईशान के शब्दों में है … जो नहीं है वो होता है और जो है वो नहीं होता है
| अगर आप की भी अपने किसी रिश्तेदार से अनबन हो गयी हो या आप  भी किसी त्रिकोण में एक के साथ आगे बढ़ने  में प्रयासरत हों ,  तो होली के रंगों से उस मन –मुटाव धो डालिए
|अपने सभी रिश्तों को प्रेम आशा और उल्लास के रंगों में रंग डालिए |
          आप सभी को होली की हार्दिक
शुभकामनाएं
                                                   वंदना बाजपेयी 





            

    

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अटूट बंधन वर्ष -२ अंक -४ सम्पादकीय -नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत न करियो कोय https://www.atootbandhann.com/2016/02/blog-post_13-7.html https://www.atootbandhann.com/2016/02/blog-post_13-7.html#respond Sun, 14 Feb 2016 13:40:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2016/02/14/blog-post_13-7/         नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत न करियो कोय …………. शायद ,बहुत पीड़ा से गुज़रता होगा प्रेम जब –जब हम सिद्ध करते होंगे उसकी उपस्तिथि किसी पिज़्ज़ा हट में किसी महंगे टेडी बीयर में या किसी दिल के आकार के खिलौने में लेने और देने में तब –तब शायद , बहुत याद करता […]

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नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत न करियो कोय ………….
शायद ,बहुत पीड़ा से गुज़रता होगा प्रेम
जब –जब हम सिद्ध करते होंगे
उसकी उपस्तिथि
किसी पिज़्ज़ा हट में
किसी महंगे टेडी बीयर में
या किसी दिल के आकार के खिलौने में
लेने और देने में
तब –तब शायद , बहुत याद करता होगा प्रेम
किसी  तुलसी को
जो स्वेक्षा से बन जाते  है दास
किसी राधा को
जो छोड़ देती है हर रंग
या किसी मीरा को
जो अपना एक तारा लेकर
दीवानी बन निकल पड़ती हैं जगलों में

शायद , बहुत समझाता होगा प्रेम
की मात्र शब्द नहीं हैवो  मिलन या
जुदाई में प्रयुक्त
की दर्द के पार जा कर ही
खिलते हैं असली प्रेम पुष्प
जहाँ एकात्म भाव में
मूल्यहीन हो जाता है
पाना  और खोना  
            वसंत ऋतु आस और उल्लास की
ऋतु , जब धरती भी शीत ऋतु में पहना हुआ स्वेत कफ़न उतार कर हरित वस्त्र धारण करती
है| समस्त वसुंधरा सुनहरे पीले पुष्पों  के
आभूषणों से खुद का श्रृंगार कर लेती है तो मन मयूर कैसे न नाचे | आदिकाल से वसंत
ऋतु प्रेम की ऋतु के रूप में मनाई जाती रही है | मौसम भी इन मानवीय भावों को
उकसाता है | नृत्य का गीत का अनुराग का एक आल्हादित या उन्मादित करने वाला वातावरण
बन जाता है | प्रेम गीतों की स्वर लहरियां हवा में गूँजने  लगती हैं | इसी बीच में आता है प्रेम का आयातित
त्यौहार “वैलेंटाइन डे “ | प्रेम के लिए प्राण देने वाले एक संत की शहादत दुनिया
भर के प्रेमियों में मन में अपने प्रेम को अभिवक्त करने का , उसे खुल कर स्वीकार
करने का एक साहस दे  गयी | कुछ लोग इसे नए
ज़माने का प्रेम कह कर संबोधित करते हैं | पर अगर वास्तव में प्रेम है तो वह प्रेम
एक भाव है , एक मिठास जो नए  या पुराने
ज़माने की नहीं होती | जो सदा से थी है और रहेगी | कहने सुनने का अभिव्यक्ति का
माध्यम भले ही बदला हो पर प्रेम की यह सरिता अनवरत बहती रहेगी और हृदयों को सींचती
रहेगी |
                         प्रेम शाश्वत है फिर भी प्रेम की ऋतु में प्रेम विषय पर  मैं क्या लिखने जा रही हूँ मुझे स्वयं ही नहीं पता | बड़ा ही विरोधाभास है मेरे मन में | क्यों ? क्योंकि मेरी आँखों के सामने रह रह कर दो दृश्य तैर रहे हैं | एक तरफ  लाल रंग के गुब्बारे , टेडी बीयर , दिल के आकार के खिलौने लिए युवा जो नशे में धुत आई लव यू , आई लव यू चिल्ला रहे होंगे |जश्न मना रहे होगे |  वही दूसरी तरफ इक  तारा लिए बेचैन मीरा जो जो तडफ –तडफ कर गा रही हैं , “नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत न करियों कोय “ | कृष्ण की आराधिका कृष्ण की उपासिका मीरा जिनके बारे में कहा जाता है की उन्हें कृष्ण साक्षात् दिखाई देते थे| उनके साथ कृष्ण खाते –पीते सोते थे | मीरा की ये तड़प इस तरह सचेत करना कहीं न
कहीं यह दर्शाता है जिसे हम प्रेम कहते हैं प्रेम की परिभाषा उससे कहीं अलग ,कहीं अनूठी होगी | हम सब ने अपने जीवन में प्रेम किया है या मात्र उसका स्पर्श किया है या हम सब प्रेम की पहली पायदान
पर ही खड़े हैं |  कहना मुश्किल है |
                 वास्तव में हम सब जिसे प्रेम कहते  हैं वो प्रेम है ही नहीं|  वो हार्मोन का उतार चढाव है | प्रकृति का एक रासायनिक षड्यंत्र | जो स्त्री पुरुष को एक दूसरे की तरफ धकेलता हैं | क्योंकि उसे अपने को जीवित रखना है अपनी व्यवस्था चलानी है | जब तक यह रसायन काम करता है प्रेम
का बुखार सर पर चढ़ा रहता है | रसायन कम होते ही बुखार उतर जाता है | विवाह भी एक
व्यवस्था है |  जहाँ लेने और देने का व्यापार है | तुम मुझे ये ये ये दोगे  तो मैं तुम्हे वो वो वो दूँगी | तभी तो विवाह में  मंत्रोच्चार द्वारा ऊर्जा को बाँध कर मन को बाँधा जाता है | इसमें  जन्म –जन्मान्तर का बंधन विकल्प रहित करने की व्यवस्था रही है | जिससे समाज सुचारू रूप से चलता रहे |
परन्तु यहाँ भी देने और लेने की तुला में पलड़े बराबर न होने पर विरोध उत्पन्न होता
है | एक शोषित व् एक शोषक बन जाता है | प्रेम के बंधन में प्रेम कब खत्म हो जाता
है और बस बंधन ही रह जाता है | पता ही नहीं चलता | मुझे महादेवी वर्मा की
पंक्तियाँ बरबस याद आ जाती हैं …
“ क्या इससे भी कम होगी मेरे प्राणों की ब्रीड़ा
 तुमको पीड़ा में ढूंढा , तुममें ढूंढूंगी  पीड़ा “
                     जिसे हम प्रेम कहते हैं वह वास्तव में यही है | जब तक नहीं मिला तब तक पाने की बेचैनी जब मिल गया तो दो दिन में जी भर गया | आरोप –प्रत्यारोप शुरू हो गए | प्रेम न हुआ कोई बच्चे का खिलौना हो गया | तभी तो ज्यादातर प्रेम विवाह असफल हो जाते हैं | पाते ही
आकर्षण क्षीण होने लगता है | आस –पास वालों की नज़र में विद्रोह करते वक्त जो हीरो बनने
की भावना थी वो समाप्त होने लगती है | साथी के दोष दिखने लगते है | प्रेम अदालतों
के चक्कर लगाने लगता है |प्रेम , जिसको समझने में ऋषि मुनियों ने अपना पूरा जीवन
लगा दिया | जिसको पाने वाले अँगुलियों पर गिने जा सकते हैं|  वो प्रेम किसी मेकडोनाल्ड के रेस्ट्रोंन में बैठ कर बर्गर खाते हुए आई लव यू कहने जितना हल्का तो नहीं हो सकता | पर हमने इसे हल्का
समझ रखा है |हल्का बना रखा है |
     अंग्रेजी में प्रेम के लिए एक बड़ा ही खूबसूरत वाक्य प्रयोग किया जाता है ,” फाल इन लव “ अगर इसका हिंदी अनुवाद करें  तो “ प्यार में गिर पड़ना  “यानी प्रेम में आदमी न बैठ सकता है न खड़ा रह
सकता है बस गिर सकता है | ये गिरना मामूली गिरना नहीं है | यह गिरना मैं का गिरना
है , अहंकार का गिरना है | थोडा सा मिटना है ताकि दूसरे के लिए स्थान खाली हो सके
| जहाँ मेरा कुछ न रहे जो कुछ है सो तेरा का भाव उत्पन्न हो जाए | हमारे देश में
जितने भक्त हुए हैं उनके आगे दास लगाने की परंपरा रही है जैसे सूरदास , तुलसी दास
| जहाँ व्यक्ति सहज ही दास बन जाता है | पर दास बनना  इतना स्वाभाविक नहीं हैं | खुद पर दूसरे का
पूर्ण अधिकार स्थापित करने के लिए अहंकार का समूल नाश जरूरी है | प्रेम मिटने की
प्रक्रिया है बनने की नहीं | इसी लिए पीड़ा दायक है , कष्टप्रद है | इस मिटने के
बाद ही आनंद  मिलता है जहाँ दो हैं ही नहीं | बस एक है | राधा और कृष्ण की तरह | दर्द के एक आग के दरिया को पार करने के बाद ही यह संभव है |
प्रेम हमें दूसरे के रंग में रंग देता है पर प्रेम का रंग क्या होगा यह कहना
मुश्किल है | रंगों का विज्ञान हमें समझाता है की रंग वस्तुओं में नहीं प्रकाश में
होता है |  हमें जो वस्तु जिस रंग की दिखाई देती है वह उस रंग को छोडती है | बाकी सब रंगों को अपने पास रख लेती है केवल उस रंग को छोडती है | कोई वस्तु हरी दिखाई देती है वो  बाकी सारे रंग अवशोषित ( अपने अन्दर समाहित ) कर लेती है और जो रंग परावर्तित ( छोडती ) है हमें उस रंग की दिखाई पड़ती है | नीली वस्तु नीला रंग , लाल वास्तु लाल रंग का त्याग करती है | अगर यही सिद्धांत चिर
नूतन चिर शाश्वत राधा –कृष्ण के प्रेम पर लगाये तो राधा का रंग श्वेत है वो कृष्ण मय हैं वो अपने जीवन में हर रंग का त्याग कर देती हैं | पूर्ण समर्पित प्रेमिका जिसके जीवन में सिर्फ कृष्ण हैं और कोई रंग नहीं | हर रंग उनसे टकराकर लौट जाता है| कोई रंग असर नहीं डालता | कृष्ण स्याम हैं वो हर रंग अपनाते हैं | अच्छा बुरा , दुखी , सुखी | इसलिए वो  ईश्वर हैं | शायद
यही प्रेम का रंग है | या सब कुछ छोड़ दो , या सब को अपना लो | दोनों में मैं
टूटेगा ही टूटेगा | या मेरे अन्दर सब या सब के अन्दर मैं | प्रेम जब जब व्यक्ति से
समष्टि की ओर बढा  | प्रेम विशाल हो गया |
प्रेम राधा हो गया , प्रेम श्याम हो गया | प्रेम ईश्वर हो गया |
              आज बहुत प्रेम प्रेम चिल्लाया जा रहा है | क्योंकि असली प्रेम का सर्वत्र आभाव है | यह जो कुछ भी महज आकर्षण है | हर कोई प्रेम चाहता है| पर  देना नहीं , लेना | समाज साक्षी है  जब –जब हमारे जीवन में कोई कमी होती है हमें वह ही दिखाई पड़ता है | हम उसी को चाहते हैं | भूखा रोटी चाहता है | गरीब धन चाहता है, बीमार व्यक्ति स्वास्थ्य चाहता है | प्रेम का आभाव है इसलिए सब प्रेम –प्रेम
चिल्लाते हैं | चाहते सब हैं | देता कोई नहीं | सब भिखारी हों तो दे  कौन | यह आभाव निरंतर बढ़ता जा रहा है | इसलिए हर कोई दुखी है | उसे लगता है उसके जीवन में कंमी है | आभाव है | कोई विरला ही उसे पा पाता  है | जो पा लेता है वह न केवल स्वयं तृप्त होता है बल्कि छलकाता भी है |
                      प्रेम महज शब्द नहीं  है | जिसे हम यूँही इस्तेमाल कर देते
हैं | प्रेम एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है | दो उर्जाओ  का एक हो जाना एक न्यूक्लीयर फ्यूजन , एक
विस्फोट | बहुत कुछ टूटना तब नया बनना |
प्रेम की पहली पर्त  बहुत लुहावनी होती है | जिसकी ओर व्यक्ति आकर्षित होता है | दूसरी बहुत सख्त होती है | जिस पर कदम रखते ही व्यक्ति वापस पलट जाता है | सहन नहीं कर पाता है | पल –पल पीड़ा बढती है | तभी तो मीरा चेतावनी देती हैं,” नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत न करियो कोय “| और
सच्चे प्रेमी के उसे पार करते ही पूर्ण आनंद की स्थिति  आ जाती है | जहाँ प्रेमी और प्रेमिका में एकात्म भाव स्थापित हो जाता है | जहाँ खोना और पाना मूल्यहीन हो जाता है | तभी कृष्ण की मृत्यु का समाचार सुन कर राधा हंसते हुए कहती हैं ,” पगले कृष्ण गए कहाँ हैं , वो कहाँ जा सकते हैं … वो तो पत्ते –पत्ते में हैं , पुष्प –पुष्प पर हैं , कण –कण में हैं |
            जिन्हें सुख भोगना है उनके लिए प्रेम चॉकलेट हैं , टेडी बीयर हैं , गिफ्ट्स हैं , वैलेंटाइन डे है , आई लव यू का उद्घोष है | जो पहली सतह  पर आते ही
धूमिल हो जाएगा |
परन्तु जिनको आनंद की आकांक्षा है उन्हें दर्द की पर्त को  पार करना ही पड़ेगा | जहाँ सिर्फ देने का भाव होगा | तभी प्रेम व्यक्ति से
समष्टि की और चलेगा | प्रेम विशाल होगा | प्रेम अमर होगा |    
 वंदना बाजपेयी 
कार्यकारी संपादक 
‘अटूट बंधन ‘
राष्ट्रिय हिंदी मासिक पत्रिका 

 

            

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अटूट बंधन वर्ष -२ अंक -३ सम्पादकीय https://www.atootbandhann.com/2016/02/blog-post_14-12.html https://www.atootbandhann.com/2016/02/blog-post_14-12.html#respond Sun, 14 Feb 2016 13:31:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2016/02/14/blog-post_14-12/ कुछ खो कर पाना है …….. चलों कि जाने कि बेला आई है तैयार हैं पालकी , सिंदूर मांग टीका , बड़ी लाल टिकुली कहीं कमी न रह जाए दुल्हन के श्रृंगार में फिर एक बार गले लग के जी भर के रो लें समेट लें यादों कि पोटली को और कर दें विदा समय […]

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कुछ खो कर पाना है ……..
चलों
कि जाने कि बेला आई है
तैयार हैं पालकी ,
सिंदूर मांग टीका , बड़ी लाल टिकुली
कहीं कमी न रह जाए दुल्हन के श्रृंगार में
फिर एक बार गले लग के
जी भर के रो लें
समेट लें यादों कि पोटली को
और कर दें विदा समय कि दुल्हन को
जो चली जायेगी क्षितिज के उस पार
छोड़ कर अपनी ढेर सारी  स्मृतियाँ
कुछ हंसने को
कुछ रोने को
फिर नयी सुबह के साथ स्वागत करे आगत का
किसी का जाना किसी का  आना
यूँही बस
जीवन नदिया
तुम
अनवरत  बहते जाना
           नया साल ! पर कुछ भी तो
नहीं बदला है | कल जो सूरज डूबा था , वही तो आज उदित हुआ  है | उतना ही लाल , उतना ही जलता हुआ उतना  ही प्रिय | हां ! शायद  ओढ़नी जरूर  बदल ली है | कल तक जिस पर लिखा था २०१५ आज उसी
पर २०१६ लिख गया है | ये महज ओढ़नी बदलने का कमाल है |  या तारीख बदलते ही बहुत कुछ बदल जाता है | समय
उम्र की एक पायदान और ऊपर चढ़ जाता है | आश्चर्य है , समय के पास भी निश्चित समय
होता है | जिसके साथ साथ  हम भी  केंद्र से परिधि की ओर और खिसकते जाते हैं |
बचपन से युवा , युवा से प्रौढ , प्रौढ़ से वृद्ध | और इसी बीतते समय के साथ हम आकलन
करने लगते हैं खोने और पाने का |रात के बारह बजे | ठीक एक क्षण | मिलन और जुदाई का
आने और जाने का , खोने और पाने का | पुराने को समेटने की नाकाम कोशिशों  के साथ नए के साथ आगे बढ़ जाने का | युवा
जोश  में 
हैप्पी न्यू इयर चिल्लाते हैं | बच्चे कौतुहल से ये कौतुहल सीखते है | और
वृद्ध चुपचाप रजाई मुँह पर  और ऊपर घसीट
लेते हैं |अरे !  नया क्या है | एक साल खो
कर एक साल पा लिया है |  इस साल का
गूगल  डूडल देख कर बरबस ही चेहरे पर
मुस्कान आ गयी | अंडे से फूट कर निकला २०१६ का नया साल सब को भौचक हो खुशियाँ
मानाते देख रहा है | आखिर उसने पा क्या लिया है | 
                    अभी कुछ दिन पहले
कि ही तो बात है | साल का आखिरी महीना लगा था , गर्मी विदा हो रही थी  और   सर्दी शुरू हो रही थी | ऊनी कपडें , हीटर ब्लोअर
, जो पिछले एक वर्ष से प्रतीक्षा कर रहे थे कब हमें इस कैद से छुटकारा मिलेगा कब
हम दोबारा खुली हवा में सांस लेंगे , उनकी  प्रतीक्षा आज पूरी हुई थी | मैं महसूस कर रही थी
कि घर में मद्धिम सी आवाज़े शायद उन्ही के चहकने की  हैं | इन्हीं सामानों के बीच में रखी थी  एक अंगीठी , कुछ मायूस सी | जो निकाली तो जायेगी
पर जलायी नहीं जायेगी | यह वही अंगीठी है जिसे मैं मायके से ले आयी थी अपनी कुछ
यादों को समेटते –समेटते | मैं शायद भूल गयी पर अंगीठी याद करती है वह दिन, जब माँ
उसे सुलगा जाड़े में खाना बनाया करती थी और 
हम चारों भाई बहन उसके चारों ओर अपनी –अपनी थाली ले कर बैठ जाते | माँ एक
रोटी के चार टुकड़े कर हम सब की  थाली में
डाल  देती | हम बहनें अपनी थाली के टुकड़े
भाइयों कि थाली में डाल  देते | एक अजीब
संतोष का भाव उभरता | खाने से ज्यादा खिलाने में आनंद था | उस समय अंगीठी
मुस्कुराती , उसकी मुकुराहट से घर में धुँआ भर जाता पर हमारी हँसती  आँखों में कभी उस धुँए कि कारण आँसू  नहीं आये | मन का उजास दीवाल के काले पन  को ढँक  देता जो अंगीठी अपनी छाप डालने के कारण बना देती
| अब अंगीठी नहीं निकलती , वो शिकायत नहीं करती बस एक नज़र देख कर बैठ जाती है
चुपचाप दीवान के अन्दर |
                                     
अंगीठी को देखकर मुझे माँ याद आ जाती हैं | झुर्रीदार चेहरे में अनुभव कि
परतें समेटे | वो  ढूढ़ लेती हैं घर का कोना
, और शुरू कर देती हैं  माला फेरना | माँ
शिकायत नहीं करती एक नज़र देख कर सिर्फ दुआएं देती हैं , अंगीठी की  तरह | माँ जानती हैं अब अंगीठी नहीं निकलती,  निकलते हैं ब्लोअर | पूरा कमरा गर्म  एक साथ | पास बैठने कि जरूरत नहीं | इसलिए तो इस
गर्माहट में स्नेह कि गर्माहट नहीं होती | न टुकड़ा , टुकड़ा रोटियाँ बँटती  हैं , 
जब बंटे  हो दिल | आलिशान घरों कि
दीवारें कालापन बर्दाश्त नहीं करना चाहती |स्टेटस मेन्टेन करने की राह में दीवारों  का कालापन हैसियत पर धब्बा है | तभी तो  वो स्यामलता भर जाती है मन में | अंगीठियां अब
भी सुलगती हैं पर कमरे में नहीं मन में अकेलेपन की  अंगीठियाँ | भर जाता है धुँआ अन्दर ही अन्दर ,
और उस धुंध में खो जाता  है अपनापन |यह
विकास का फल है | एक क्षितिज पाने और खोने का | कुछ खोते हुए कुछ  पाते हुए आगे बढ़ जाना है |
          रज्जो घर में रहती है | सुबह
उठ जाती है | घर आँगन बुहारती है | क्यारी में लगे पौधों को पानी देती है | एक –एक
फूल चुनती है | माला पिरोती है | भजन गाती है | रज्जो खिड़की से बाहर देखती है |
बाहर उसे दिखाई देती है मीरा | ऊपर से नीचे तक टिप –टॉप | सुबह सुबह पर्स ले
कर  बस पकड़ने को भागती | एक आज़ाद नारी , एक
कमाऊ स्त्री | दोनों की नज़ारे अक्सर टकरा जाती हैं | दोनों ही निराशा से भर जाती
हैं | रज्जो के पास आज़ादी नहीं है | मीरा के पास आज़ादी का उत्सव मनाने का समय नहीं
है| दोनों ने ही कुछ पाया है कुछ खोया है | इंदिरा नुई कहती हैं , “ स्त्री के
दोनों हाथों में लड्डू नहीं होते | पर यह स्तिथि केवल स्त्री तक ही सीमित नहीं है
| ये समान रूप से हर किसी पर लागू एक ध्रुव सत्य है |
          हम कहतें हैं आज के बच्चे
बहुत तेज हैं |  क्या सचमुच ? सच है कि
उनकी अंगुलियाँ की बोर्ड पर तेजी से दौड़ती हैं | पर क्या वो एक दो पीढ़ी पीछे के
बच्चों कि तरह  पेड़ पर भी उतनी ही तेजी से
चढ़ पाते हैं ?उनके पास शोसल साइट्स हैं | 
फेस बुक हैं | जहाँ  पर हजारों
दोस्त हैं | पर हैं तो एक स्क्रीन के आगे आभासी | इतने  दोस्तों के होते हुए भी क्या उनके  साथ कोई ऐसा है जो  बारिश के पानी में छप –छप करे | जो साथ में
चल  पड़ोस के श्यामू चाचा की सायकिल का टायर
पंचर कर दे और छुप  जाए | फिर श्यामू चाचा
का  का उतरा , परेशान  चेहरा देख कर ठहाके लगाए | इन बच्चों ने भी
हज़ारों फेस बुक फ्रेंड्स की कीमत चुकाई है | जोक्स भरे स्टेटस पर मुस्कुरा सहज
हास्य खोया है | वैसे ही जो अमीर  हैं उनके
पास पैसे कि चकाचौध है | महंगे कपडे हैं , ज्वेलरी है पर गरीब कि तरह परिवार के
साथ सुकून की चाय नहीं है | जो गरीब हैं उनके पास बस चाय ही है |       
                            स्वेता  , जो रोज़ फोन पर भाई –बहन से बात करती है |
अक्सर मिलने जाती है | रक्षा बंधन पर महँगी राखी बांधती है | मिठाई की जगह स्विस
चॉकलेट  गिफ्ट में देती है |  रक्षा बंधन पर एक  फेस बुक स्टेटस पढ़ कर फफक कर रो पड़ती है | उसमें
जानती है उस स्त्री के राधा के बारे में  पूरे एक बरस बाद भाई से मिलती थी |  जहाँ बहते आँसुओ  के बीच साल का भर के दुःख –दर्द का आदान प्रदान
होता था | भाई को हाथों से बनी राखी 
बाँधती थी | और घर  की खिडकी सी
जाते हुए भाई  को नज़रों से ओझल हो जाने तक
निहारती थी | अचानक से स्वेता को अपने जीवन में मिला सब कुछ बेमानी लगने लगता है |
उसे अपने भाई के स्नेह में वो ममत्व नहीं 
दिखता जो राधा के भाई में है | चंपा अपने ऑफिसर पति  की तुलना 
अपने किसान पिता  से कर के निराश हो
जाती है | जो शारीरिक परिश्रम करने के कारण मानसिक रूप से स्वस्थ घर आते थे | थके
टूटे मुँह लटकाए नहीं दीखते थे |विनोद जी का दुःख किसी से छुपा नहीं है जो तीनों
लायक बेटों के विदेश में बस जाने पर कहते हैं , “ काश उनका एक नालायक बेटा होता |
       विचित्र विडम्बना है |  रज्जो 
अपने जीवन में मीरा को खोज रही है , मीरा रज्जो को , महंगे मोबाइल पकडने
वाला बच्चा अपने जीवन में सड़क पर डंडे से टायर दौडाने वाले  बच्चे को खोज रहा है तो वो बच्चा मोबाइल वाले
बच्चे को | स्वेता  अपने जीवन में राधा
जैसा भाई खोज रही है और राधा स्वेता जैसा | चंपा पति में पिता को खोज रही हैं तो
शर्मा जी पत्नी में माँ को | और मैं…. मैं 
भी तो खोज रही हूँ पुरानी अंगीठी में रिश्तों  कि आंच  को , दीवाल पर धुएं के निशान  को , थाली में एक टुकड़ा रोटी को , भुने हुए
सिंघाडों  को , | अपने बच्चों को बीच मैं
खोज रही हूँ अपनी पुरानी सफ़ेद झालर वाली 
फ्राक को | हम सबके अन्दर एक गहरी हुक है | हम संब एक नोस्टाल्जिया  में जी रहे हैं | जो पाया है उसे छोड़ कर जो छूट
गया है या जो नहीं मिला है उसे पकड़ने की चाह | एक प्रसिद्द लेखक के कथन के अनुसार
“ हमारे सबसे खुशनुमा दिन सबसे दुखनुमा  यादें बन जाते हैं | “
                 विध्वंश  पर ही नव 
निर्माण  की  नींव है |बीज टूट कर ही वृक्ष बनता है |  कुछ खोना और पाना ही जीवन का मूलभूत सिद्धांत है
| और इस सिद्धांत को बिसरा देना ही दुखों का मूल है | या यूँ कहे दोनों हाथों में
लड्डू किसी के नहीं होते | कुछ खो कर ही कुछ मिलता है |  केवल पाना ही पाना संभव नहीं है | सांझ की
दुल्हन कितना भी श्रृंगार कर लें उषा की पालकी में बैठ कर उसे विदा होना  ही पड़ेगा | हमारी भारतीय संस्कृति ने पहले ही इस
तथ्य को समझ लिया था | इसलिए गीता दर्शन जीवन को तटस्थ भाव से लेने का दर्शन है | जीवन
को स्वीकार करने करने का दर्शन | जीवन जैसा है वैसा ही अनमोल है | आज विदेशी रैपर
में  इसे पावर  ऑफ़ नाउ कहा जाता है |जो भी है बस यही एक पल है
| इसी को खुल कर जीना है |   हम ही अतीत में या भविष्य में खोजते हुए इसे
दुरूह बना देते है |यह  जितना सहज है उतना
ही सरल है | और इसकी सहज स्वीकार्यता में ही शांति है |
सभी पाठकों को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं 

वंदना बाजपेयी 
कार्यकारी संपादक 
‘अटूट बंधन ‘
राष्ट्रिय हिंदी मासिक पत्रिका 
               
               
  

                           

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जीतनें के लिए चाहिए जोश और जूनून  

दिसंबर का महीना , साल का  आखिरी महीना
| समय के वृक्ष पर २०१५ कि पीली  पत्तियाँ
झड़ने को और २०१६ कि नन्हीं हरी कोंपलें उगने को तैयार हैं | आगत के स्वागत के
उत्साह  में दबे पांव चलता  रहता है 
बीते वर्ष का आकलन | क्योंकि शाश्वत जीवन में कुछ भी आखिरी नहीं होता न पल
, न दिन , न वर्ष , न ही यह जन्म | हर आखिरी एक बुनियाद बनता है नए की | चाहे वो
पल हो , दिन हो या जीवन | उसी बुनियाद पर रखी जाती है नए कि नींव | इसीलिये हमारे
पूर्वज समझा गए हर पल का महत्व है | मैं  भी बीते वर्ष के लाखों पलों का हिसाब  करना 
चाहती हूँ |  मुझे लगता है जैसे
मैं  एक विशाल सागर के तट पर खड़ीं हूँ और
स्मृतियों कि लहरे आ कर मेरे मानस  को भिगो
कर लौट रहीं हैं |मैं चुन लेती हूँ हूँ कुछ पलों के मोती |

             एक  लहर आती है 
बहुत सारी स्मृतियाँ “ अटूट बंधन “ के जनवरी अंक  की  लेकर | पिछले साल जनवरी की कडकडाती ठंड में  “ अटूट बंधन “ का तीसरा अंक ‘हौसलों की  उड़ान’ | जिसके पन्ने पन्ने पर बिखरी थी उन लोगों
कि  गाथाएं जिन्होंने जिन्होंने भाग्य के  , दुखों के , असफलताओं के आगे कभी हार नहीं मानी
और हर हार को जीत में बदल दिया | ये अंक अटूट बंधन का तीसरा अंक था | जो दो अंकों
(बाल और बेमेल  विवाह ) के बाद पूर्व
नियोजित दिशा में ही  अस्तित्व में आया था
| पर उस अंक को मिली अभूतपूर्व सराहना के बाद हमें अहसास हो गया कि प्रेरणादायक  विचारों और दिशा देते साहित्य को पाठक कितनी
व्याकुलता से खोज रहे हैं  | यह प्रेरणादायी
अंक हमारे लिए प्रेरणा बन गया | “ अटूट बंधन परिवार कृत संकल्प हो गया कि वो
पत्रिका को पॉजिटिव  थिंकिंग का महा अभियान
बना कर लोगों के दिलों से न सिर्फ निराशा का अँधेरा दूर करेगा अपितु आशा और सफलता
का दीप भी प्रज्वलित करेगा |  
              एक बार पथ निश्चित हो
जाने के बाद  हमने निराशा के पथ पर अटूट
बंधन का सकारात्मक दीप जला दिया |  लोग भले
ही अटूट बंधन को पत्रिका कहे , हमारे लिए वो एक दीपक है | दीप का काम ही है प्रकाश
देना | दीप चाहे अपने लिए जलाया जाए या दूसरे के लिए | उसका  प्रकाश एक स्थान पर नहीं रहता वो पूरे  पथ का अंधियारा दूर करता है | वो
निश्चिंत  जलता रहे , प्रकाश फैलाता रहे
उसके लिए हम तेल बन कर जलते रहे | निरंतर , अनवरत … बिना रुके बिना थके | जब
दुनिया पाने,  और पाने कि राह पर चल रही है
ऐसे दौर में खुद जल कर रौशनी देने का अपना ही आनंद  है | पर कब तक ? तेल सीमित था |  लोगों ने इस त्याग को समझा , स्वेक्षा से आगे
आये , और दीपक को जलाये रखने में हमारी मदद 
की | अटूट बंधन परिवार बना और बढ़ा | ? ये अलग तरह का संघर्ष था |पर एक
जुटता की  ताकत से सफ़र आसान  हो गया |
                 धीरे –धीरे समय का
काफिला आगे बढ़ा | हम हर अंक को बेहतर और बेहतर बनाने के प्रयास में लगे रहे |
हमारी दिशा तय थी | हमने क्वांटिटी के स्थान पर क्वालिटी को चुना | एक –एक रचना का
चयन इस प्रकार किया कि पाठक जब कुछ पढ़े तो उसे यह न लगे कि उसके साथ धोखा  हुआ है | हालांकि  सुंदर 
कवर में धोखा अनेक पत्रिकाएँ देती रही हैं | यही शायद उनकी अल्पायु का कारण
बनता है | हजारों –लाखों रुपये प्रचार प्रसार में लगाने के बाद
भी वही
पत्रिकाएँ  अपना स्थान बना पाती हैं जिनके
कंटेंट या विषय वस्तु में दम हो  | कठोर चयन
कि यह प्रक्रिया हमने अटूट बंधन के ब्लॉग में भी जारी रखी | और उसी के अनुसार पाठकों
की  तरफ से सकारात्मक परिणाम आने लगे | पाठकों
के स्नेह व् प्रशंशा भरे इ मेल चिट्ठियां , मेसेज हमारी अनमोल निधि हैं |
                         
                          अटूट बंधन
कि कितनी सारी स्मृतियाँ जीवित होते हुए मन पहुँच गया “ अटूट बंधन सम्मान समारोह
-२०१५ पर | जब अटूट बंधन एक वर्ष पूरा कर के नए वर्ष में प्रवेश कर रही थी तो हमने
सोचा कि जिस तरह से हमने संघर्ष करके विजय हासिल करी है उसी तरह ऐसे कई लोग हैं
जिन्होंने विपरीत परिस्तिथियों कि परवाह न करते हुए अपनी जीतने कि इक्क्षा  अपनी जिजीविषा को जीवित रखा और हजारों असफलताओं
को झेलने के बाद अंतत : सफल हुए | हमने 
देश भर के ११ लोगों को चुना जिन्होंने अपने –अपने क्षेत्र में  विशेष योगदान दिया है |  उनको सम्मानित करने का उद्देश्य महज़ इतना था कि
हम उस संघर्ष को सम्मान दें जो लोगों के लिए प्रेरणादायक  है |
             करीब ३ घंटे चले सम्मान
समारोह कि हजारों स्मृतियाँ मेरे जेहन में अंकित हैं | पर एक स्मृति जो मेरे लिए
सबसे अनमोल है वो है कार्यक्रम कि मुख्य अतिथि मैत्रेयी पुष्पा  जी का सानिध्य | वो जिन्हें आप पढ़ते रहे हों ,
जिसका लेखन मन को छूता  हो , यह लगता हो हो
कि जैसे मेरे ही मन की बात कह  दी | अपने
प्रिय लेखक/ लेखिका  के रूबरू होने का मन
हर पाठक का होता ही है |  आज मैत्रेयी
पुष्पा जी साहित्याकाश में सबसे दैदिपय्मान 
सितारा है | वो न जाने कितनी महिलाओं की  रोल मॉडल  हैं | उनको करीब से देखना , सुनना किसी सपने के
पूरे होने जैसा है | महिलाओं के विषय में कही गयी उनकी एक –एक बात मुझे अपने  दिल कि बात लगी | जब मैत्रेयी पुष्पा  जी कहती है कि, “  एक स्त्री ही स्त्री कि शक्ति है |  एक स्त्री कि मौजूदगी दूसरी स्त्री में सुरक्षा
का अहसास दिलाती है |क्योंकि घर के बाहर काम करने के लिए सुरक्षा स्त्री कि
बुनियादी जरूरत है | “  तो  न जाने अतीत कि कितनी लहरें मेरे मानस से आकर
टकरा जाती हैं | जब बचपन में दादी नानी के किस्सों के बीच  मन ढूंढता रहता था  कि इन्हीं पिछली  पीढ़ी कि महिलाओं  में से  वो कौन सी स्त्री होगी जिसने उस परमपरागत स्त्री
के साँचें  को तोड़ कर पढने की इक्क्षा  जताई होगी |शायद वह अपनी कक्षा में अकेली महिला
होगी | उसने बहुत से ताने अपमान सहे होंगे पर उसी ने द्वार खोला स्त्री शिक्षा का
| और बाद में स्वाबलंबन का |
                                         
स्त्री हो या पुरुष , बच्चा हो या बड़ा सफलता कि कामना सभी करतें है पर कहीं
न कहीं कुछ कमी रह जाती है | असफलता मन को तोड़ देती है |  अटूट बंधन के उद्गम से ले कर एक वर्ष पूरा करने
तक का सफ़र अटूट बंधन परिवार के लिए बहुत 
सफल रहा |आज जब अनगिनत नयी पत्रिकाएँ कुछ महीनों में ही दम  तोड़ देती हैं या संयुक्तांक निकालने लगती हैं |
ऐसे में अटूट बंधन का लोकप्रिय पत्रिका के रूप में स्थापित हो जाना किसी चमत्कार
से कम नहीं है | सफलता अपने साथ जिम्मेदारियां लेकर आती है | लोगों कि अपेक्षाओं  पर निरंतर खरे उतरते रहें |  यह हमारा प्रयास है | यह एक निरंतर चलने वाली
प्रक्रिया है | पॉजिटिव थिंकिंग का महाअभियान होने के कारण बहुत से लोग अटूट बंधन
परिवार  से  सफलता का रहस्य पूँछतें हैं |क्यों न पूँछे ?
पाठकों के साथ एक अटूट बंधन जो बन गया है |  क्षेत्र कोई भी हो , सभी सफल हों यही अटूट बंधन
का उदेश्य है  और हम इस दिशा में निरंतर
प्रयासरत हैं | सफलता के लिए सबसे जरूरी है जोश व् जूनून | दरसल कई बार लोग छोटी –छोटी
असफलताओं के आगे हथियार डाल  देते हैं और
सफल व्यक्ति के प्रति दुराग्रह पाल लेते हैं | पर एक सच्चाई  जो कोई भी सफल व्यक्ति कह सकता है वह यह  है कि , “ ३६५ रातें हमने भी देखी  हैं”  |
उनकों झेला है , समझा है कि  हर रात यह
सन्देश ले कर आती है कि ये आखिरी नहीं है | इसके बाद फिर दिन निकलेगा , फिर सुबह
होगी , चिड़ियाँ चह्केंगी | वास्तव में आखिरी कुछ भी नहीं होता | हर आखिरी बस समय
कि दीवार में एक ईंट होती है जिस पर हम सपनों का महल खड़ा कर सकते हैं |  हर छोटा कदम महत्वपूर्ण होता है | अगर किसी
व्यक्ति के मन में सफल होने की आकांक्षा है तो उसे असफलताओं से घबडाकर जब अपना रास्ता
बद्लनें  या छोड़ने का मन करे तो दो पल  ठहरकर यह जरूर सोचना चाहिए कि आखिरकार वो अभी तक
इस रास्ते पर चल क्यों रहा था | निर्विवाद सत्य है कि हम जब आधे रास्ते से पीछे
लौटते हैं तो हम उतने ही कदम चल कर मंजिल तक पहुँच सकते थे | यहीं अपने मार्ग पर
स्थिर रह कर सफलता पाने का सूत्र भी है |बिना संघर्ष झेले कोई भी सफल नहीं हुआ है
|  
                    मुझे याद आता है
पिताजी एक अंग्रेजी कहावत कहा करते थे , “ रोलिंग स्टोंस गैदर्स नो मार्क्स “| आप
जिस भी क्षेत्र में प्रयासरत हैं निरंतर उसी में लगे रहिये | देर सबेर सफलता आपकी
परीक्षा लेना बंद कर ही देगी | चर्चिल का एक वाक्य मुझे याद आ रहा है , “ जब आप
नरक से गुज़र रहे हों तो भी चलते रहिये | चलते रहने से बाधाएं अपने आप पार हो जाती
हैं | जब हम कील ठोंकते हैं तो कई प्रहार व्यर्थ जाते हैं पर अंतत : किसी एक
प्रहार में कील ठुक ही जाती हैं | कई बार हम उस आखिरी प्रहार से पहले ही हिम्मत
हार जाते हैं | विजय से ठीक पहले पराजय स्वीकार करलेते हैं | हम भूल जातें हैं कि
खरगोश और कछुए कि रेस में जीत आज भी कछुए कि ही होती है | जीत दौड़ कर सुस्ताने से
नहीं , छोटे ही सही पर निरंतर प्रयासों का नतीजा है | हमारे  पास पूर्वजों का दिया हुआ बहुत कुछ संग्रहित  ज्ञान है 
है जो हमें सीखना है , सिखाना है | यह सिलसिला चलते जाना है |
                                                                    किसी की भी  सफलता का एक कारण यह भी है कि उसका  उदेश्य कितना बड़ा और व्यापक है | जितना बड़ा
उदेश्य होगा उतनी ही सफलता  को पाने कि
इक्क्षा बलवती होगी | विफलता क डर अपने आप समाप्त हो जाएगा | उदाहरण के तौर पर मैं
एक वाकया  साझा करना चाहूंगी  जो मेरी हिंदी कि अध्यापिका हम सब को बताती थी
वो हमेशा यह कहती थी कि अगर आप किसी सड़क पर जा रहे हैं कोई इंसान आप को अच्छा लगता
है आप उससे बात करना चाहते हैं पर संकोच वश कि “वो मेरे बारे में क्या सोचेगा”  आप आगे नहीं बढ़ते | परन्तु जैसे ही आप किसी को
लडखडाते , गिरते  हुए देखते हैं आप तुरंत
उसे उठाने  पहुँच  जाते हैं | तब आप को कोई संकोच नहीं लगता |
दोनों ही परिस्तिथियों में आप  और अजनबी समान
थे फर्क सिर्फ आपके उदेश्य में था | जब भी हम कोई बड़ा उद्देश्य रखते हैं हम
निसंकोच उस में अपनी  पूरी  ताकत लगा देते हैं |  
                यहाँ  खाम ख्याली नहीं वरन क्रूर यथार्थ चलता है | अक्सर
हमें पता  होता है कि सफलता कितनी दूर है
पर हम इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करना चाहते | हम शतुरमुर्ग की  तरह अपना सर जमीन में घुसा कर अपने को तसल्ली
देते रहते हैं कि सब ठीक है | यह तसल्ली ही हमारी सबसे बड़ी दुश्मन बन जाती है |
ऐसे समय अब हमारा दिल और दिमाग अलग अलग बोल रहा होता है तब दिमाग कि सुनने वाले ही
आगे बढ़ते हैं | विपरीत परिस्तिथियों से लड़ कर विजेता बनने  के स्थान पर हम उन्हें अपने ऊपर हावी होने देते
हैं और अंतत:  हार जाते हैं | जरूरी है की  विपरीत परिस्तिथियों में समस्या को दूसरी तरह से
देखा जाए | जैसा की  एप्पल के संस्थापक स्टीव
जॉब्स ने किया था | युवा  स्टीव जॉब्स ने
अपने पिता के गैराज में एप्पल कंपनी कि स्थापना की |  जो दस साल में २ बिलियन  डॉलर व् दो लोगों से बढ़कर ४०० लोगों कि  कंपनी बन गयी | तभी उन्हें कंपनी से निकाल दिया
गया | स्टीव जॉब्स वह पहले व्यक्ति थे जिन्हें अपनी ही बनायीं हुई कंपनी से निकाल
दिया गया | दरसल बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर कि मीटिंग में उनका प्रतिद्वंदी जिसे स्वयं
उन्होंने ही नौकरी पर रखा था से किसी विषय पर विवाद हो गया | सारे लोग उसके पक्ष
में हो गए | और जॉब्स को अपनी ही कंपनी  से
अपमानित करके  निकाल दिया गया | ऐसे समय
में जॉब्स ने हिम्मत नहीं हारी | दूसरी कंपनी बनायी | उसे एक साल में इतना
शक्तिशाली बनाया कि एप्पल  को उसका  अधिग्रहण करना पड़ा | और स्टीव जॉब्स वापस एप्पल
में आ गए | स्टीव जॉब्स का कहना था अगर आप को अपनी प्रतिभा और क्षमता पर विश्वास
है तो आप समस्या को दूसरी तरह से देख सकते हैं |
                   अगर आप सफलता कि चाह रखतें
हैं तो आपको  यह स्वीकार करना पड़ेगा कि  
सफलता के  लिये आपको अकेले ही चलना
होगा। आजतक इस दुनिया मेँ जितनेँ भी महापुरूष हुए हैँ
, सबके सफलताओँ की शुरूआत अकेले ही हुई है।
यहाँ आपको जितानें  के लिये कोई दुसरा नहीँ
आयेगा
,
आपको खुद का साथ
चुनना होगा। मंजिल आपके ठीक सामने है इसलिये अभी से आपको अपनेँ कदम बढानें होंगे ।
आप बेकार में  पीछे मुड़कर मत देखिये |
 भले ही अभी कोई आपके साथ नहीँ हो पर वो दिन भी दूर  नहीँ जब दुनिया आपकी मुट्ठी मेँ होगी। जैसा की मुंशी
प्रेम चन्द्र रंगभूमि में लिखते हैं , “ सफलता अत्यंत सजीवता  होती है और विफलता में असहय अशांति “|  इसीलिये अभी अकेले ही आपको आगे बढ़कर जीतना होगा।
यह समझना होगा कि कि हर किसी को ईश्वर ने कुछ ख़ास बना कर भेजा है | यह जिँदगी आपको
सिर्फ समय काटनेँ के लिये और सिर्फ भीड़ का हिस्सा बनने के लिये ही नहीँ मिली है।
इसलिये परिंदों की तरह  स्वतंत्र होकर
जिँदगी जीनी है ।जैसा कि मैत्रेयी पुष्पा जी ने दूर्दाशन में  एक साक्षात्कार में कहा था , “ शुरू में कोई
साथ नहीं देता , पर आप अपने मार्ग में अविचल आगे बढ़ते जाइए कारवाँ जुड़ता जाएगा | “
                                        सफलता के मार्ग में सकारात्मक  विचारों का बहुत योगदान है | स्वामी विवेकानंद
जी ने कहा है कि
, “ तुम जो कुछ सोचोगे, तुम वही हो जाओगे, यदि तुम अपने को दुर्बल समझोगे, तो तुम दुर्बल हो जाओगे। वीर्यवान सोचोगे तो वीर्यवान बन जाओगे। हमारे विचार ही
हमें सफल असफल बनाते हैं | विचारों में गज़ब कि चुम्बकीय शक्ति होती है वह अपने
सामान परिस्तिथियों  को खींच कर ले आते है
| जिसे सफलता कि कामना है उसे निराशा के स्थान पर सदा सफलता के विचार मन में लाने
चाहिए | सफलता के विचार मन में हिम्मत और जोश भरतें  हैं और अंतत : सफलता का मार्ग प्रशस्त  करतें हैं |
            कहीं और
ढूँढने   कि जरूरत नहीं स्टुअर्ट ने तो
सफलता का मूलमंत्र ही दे डाला  “ स्टे
हंगरी स्टे फुलिश “ | जैसा कि सब जानते हैं 
जब आप के अन्दर किसी चीज को प्राप्त करने कि भूख होगी तभी वो चीज आपको
मिलेगी | अन्यथा आधी अधूरी ही मिलेगी | 
जिस क्षेत्र में काम कर रहे हैं उसमें ज्यादा से जयादा सीखने कि इक्क्षा  होनी चाहिए | जितना सीखेंगे उतना ही निखार आएगा
|  स्टे फुलिश का सीधा सादा अर्थ है
दुस्साहस | जब आप किसी काम को करने का दुस्साहस करतें जो कि असंभव सा जान पड़ता हो
| ऐसे में आप एक बार असफल भले हों पर हर बार नया सीखतें हैं और इतिहास रचतें हैं |
जैसा कि अटूट बंधन के प्रधान संपादक ओमकार मणि त्रिपाठी का कथन है , “ अटूट
बंधन एक पत्रिका नहीं एक स्वप्न दृष्टा का दुस्साहस हैं | “
सफलता दुस्साहस का
परिणाम ही तो होती है |सफलता के लिए सबसे ज्यादा आवश्यक ये दुस्साहस या जूनून होता
है |
                      अंत में  सफलता के बारे में इतना ही कहना चाहती हूँ कि  कोई भी, चाहे वो व्यक्ति  हो या संगठन उसकी
कामयाबी के पीछे बहुत सारे लोगों का हाथ होता है। जो कई रूप में हमारे सामने होते
हैं जैसे- शिक्षक
, माता-पिता, प्रशंसक, साथी , सहकर्मी  , सलाहकार, मित्र , रिश्ते नातेदार , जीवनसाथी।जैसा की मैंने  शुरू
में कहा था कोई भी सफलता या विफलता अंतिम  नहीं होती बस यह एक पड़ाव होता है जिसके आगे जाना
है| जहाँ प्रतीक्षा रत हैं  नयी राहे और नयी
मंजिल |  आइये पुन: आशा विश्वास के साथ,
पूरे  जोश –खरोश  के साथ सफलता के मार्ग पर एक कदम और  उठाये| साथ ही तय कर लें कि है आप में वो जोश ,
वो जूनून …
एक कोशिश है …. करके देखतें हैं ..
वंदना बाजपेयी 

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