धर्म Archives - अटूट बंधन https://www.atootbandhann.com/category/धर्म हिंदी साहित्य की बेहतरीन रचनाएँ एक ही जगह पर Tue, 03 Oct 2023 06:23:30 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.1.6 श्राद्ध पक्ष – क्या वास्तव में आते हैं पितर  https://www.atootbandhann.com/2023/10/%e0%a4%b6%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%a7-%e0%a4%aa%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b7-%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%be-%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%b5.html https://www.atootbandhann.com/2023/10/%e0%a4%b6%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%a7-%e0%a4%aa%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b7-%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%af%e0%a4%be-%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%a4%e0%a4%b5.html#comments Tue, 03 Oct 2023 06:23:30 +0000 https://www.atootbandhann.com/?p=7733     चाहें ना धन-संपदा, ना चाहें पकवान l पितरों को बस चाहिए, श्रद्धा और सम्मान ll    आश्विन के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के काल को श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष कहा जाता हैl यह वो समय है, जिसमें हम अपने उन पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और सम्मान व्यक्त […]

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चाहें ना धन-संपदा, ना चाहें पकवान l

पितरों को बस चाहिए, श्रद्धा और सम्मान ll   

आश्विन के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के काल को श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष कहा जाता हैl यह वो समय है, जिसमें हम अपने उन पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और सम्मान व्यक्त करते हैं l  पितरों को पिंड व् जल अर्पित करते हैं | मान्यताओं के अनुसार पितृ पक्ष में यमराज सभी सूक्ष्म शरीरों को मुक्त कर देते हैं, जिससे वे अपने परिवार से मिल आये व् उनके द्वरा श्रद्धा से अर्पित जल और पिंड ग्रहण कर सके l  श्राद्ध पक्ष की अमावस्या को महालया  भी कहा जाता है| इसका बहुत महत्व है| ये दिन इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जिन्हें अपने पितरों की पुन्य तिथि का ज्ञान नहीं होता वो भी इस दिन श्रद्धांजलि या पिंडदान करते हैं |

 

क्या बदल रही है श्राद्ध पक्ष के प्रति धारणा 

 

कहते हैं श्राद्ध में सबसे अधिक महत्व श्रद्धा का होता है | परन्तु क्या आज हम उसे उसी भाव से देखते हैं? कल यूँहीं कुछ परिचितों से मिलना हुआ |उनमें से एक  ने श्राद्ध पक्ष की अमावस्या के लिए अपने पति के साथ सभी पितरों का आह्वान करके श्राद्ध करने की बात शुरू कर दी | बातों ही बातों में खर्चे की बात करने लगी | फिर बोलीं की क्या किया जाये महंगाई चाहे जितनी हो खर्च तो करना ही पड़ेगा, पता नहीं कौन सा पितर नाराज़ बैठा हो, और भी रुष्ट हो जाए | उनको भय था की पितरों के रुष्ट हो जाने से उनके इहलोक के सारे काम बिगड़ने लगेंगे | उनके द्वारा किया गया  श्राद्ध कर्म में श्रद्धा से ज्यादा भय था | किसी अनजाने अहित का भय |

वहीँ दूसरे परिचित ने कहा कि  श्राद्ध पक्ष में अपनी सासू माँ की श्राद्ध पर वे किसी अनाथ आश्रम में जा कर खाना व् कपडे बाँट देती हैं, व् पितरों का आह्वान कर जल अर्पित कर देती है | ऐसा करने से उसको संतोष मिलता है | उसका कहना है की जो चले गए वो तो अब वापस नहीं आ सकते पर उनके नाम का स्मरण कर चाहे ब्राह्मणों को खिलाओ या अनाथ बच्चों को, या कौओ को …. क्या फर्क पड़ता है |

तीसरे परिचित ने बात काटते हुए कहा, “ये सब पुराने ज़माने की बातें है | आज की भाग दौड़ भरी जिन्दगी में न किसी के पास इतना समय है न पैसा की श्राद्ध के नाम पर बर्बाद करे | और कौन सा वो देखने आ रहे हैं ? आज के वैज्ञानिक युग में ये बातें पुरानी हो गयी हैं हम तो कुछ नहीं करते | ये दिन भी आम दिनों की तरह हैं | वैसे भी छोटी सी जिंदगी है खाओ, पियो ऐश करो | क्या रखा है श्राद्ध व्राद्ध करने में |

तीनों परिचितों की सोच, श्राद्ध करने का कारण व् श्रद्धा अलग – अलग है |प्रश्न ये है की जहाँ श्रद्धा नहीं है केवल भय का भाव है क्या वो असली श्राद्ध हो सकता है? प्रश्न ये भी है कि जीते जी हम सौ दुःख सह कर भी अपने बच्चों की आँखों में आँसू नहीं देखना कहते हैं तो परलोक गमन के बाद हमारे माता –पिता या पूर्वज बेगानों की तरह हमें श्राप क्यों देने लगेंगें? जिनकी वसीयत तो हमने ले ली पर साल में एक दिन भी उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करने में हम “खाओ, पियो, ऐश करो की संस्कृति में कहीं अपने और आगामी संतानों को अकेलेपन से जूझती कृतघ्न पीढ़ी की ओर तो नहीं धकेल रहे l

 

श्राद्ध के बारे में भिन्न भिन्न हैं पंडितों के मत 

 

भाव बिना सब आदर झूठा, झूठा है सम्मान

 शास्त्रों के ज्ञाता पंडितों की भी इस बारे में अलग – अलग राय है ………..

उज्जैन में संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रमुख ‘संतोष पंड्या’ के अनुसार, श्राद्ध में भय का कोई स्थान नहीं है। कुछ लोग जरूर भय रखते होंगे जो सोचते हैं कि हमारे पितृ नाराज न हो जाएं, लेकिन ऐसा नहीं होता। जिन लोगों के साथ हमने जीवन के इतने वर्ष बिताएं हैं, वे हमसे नाखुश कैसे हो सकते हैं। उन आत्माओं से भय कैसा?

वहीं इलाहाबाद से ‘पं. रामनरेश त्रिपाठी’ भी मानते हैं कि श्राद्ध भय की उपज नहीं है। इसके पीछे एक मात्र उद्देश्य शांति है। श्राद्ध में हम प्याज-लहसून का त्याग करते हैं, खान-पान, रहन-सहन, सबकुछ संयमित होता है। इस तरह श्राद्ध जीवन को संयमित करता है, ना कि भयभीत l जो कुछ भी हम अपने पितरों के लिए करते हैं, वो शांति देता है।

क्या वास्तव में आते हैं पितर 

जब मानते हैं व्यापी जल भूमि में अनल में

तारा  शशांक में भी आकाश में अनल में

फिर क्यों ये हाथ है प्यारे, मंदिर में वह नहीं है

ये शब्द जो नहीं है, उसके लिए नहीं है

प्रतिमा ही देखकर के क्यों भाल  में है रेखा

निर्मित किया किसी ने, इसको यही है देखा

हर एक पत्थरों में यह मूर्ति ही छिपी है

शिल्पी ने स्वच्छ करके दिखला दिया यही है l

जयशंकर प्रसाद

 

पितर वास्तव में धरती पर आते हैं इस बात पर तर्क करने से पहले हमें हिन्दू धर्म की मान्यताओं को समझना पड़ेगा, सगुण उपासना पद्धति को समझना होगा l सगुण उपासना उस विराट ईश्वर को मानव रूप में मान कर उसके साथ एक ही धरातल पर पारिवारिक संबंध बनाने के ऊपर आधारित है l इसी मान्यता के अनुसार सावन में शिव जी धरती पर आते हैं l गणेश चतुर्थी से अनंत चौदस तक गणेश जी आते हैं l नवरात्रि में नौ देवियाँ आती है और देवउठनी एकादशी में भगवान विष्णु योग निद्रा  से उठकर अपना कार्यभार संभालते हैं l तो इसी क्रम में अगर मान्यता है कि अपने वंशजों से मिलने पितर धरती पर आते हैं, तो इसमें तकर्क रहित क्या है ? सगुणोंपासना ईश्वर के मूर्त रूप से, प्राणी मात्र में, फिर अमूर्त और फिर कण-कण में व्याप्त ईश्वर के दर्शन की भी यात्रा हैं l और जब मूर्ति से वास्तविक प्रेम होता है तो यह यात्रा स्वतः ही होने लगती है l कबीर दास जी कहते हैं कि-

एक राम दशरथ का बेटा , एक राम घट घट में बैठा !
एक राम का सकल पसारा , एक राम है सबसे न्यारा !

मुक्ति की यात्रा भी पहले राम से चौथे राम तक की यात्रा है l जो बात ईश्वर के लिए हैं, वही बात पितरों  के लिए भी है l यह उस रिश्ते से जुड़े अहसासों को फिर से जीना है l उनके प्रति सम्मान व्यक्त करना है… मूर्त से अमूर्त की ओर बढ़ना l जो लोग प्रकृति और यूनिवर्स की बात करते हैं वो भी तो निराकार की ही बात करते हैं l पितर भी निराकार हैं l अग्नि, जल, वायु के रूप में समाहित मान कर भी निराकार मान  सकते हैं l कुछ भी मानने से कहीं ज्यादा जरूरी है अपना सम्मान व्यक्ति करना शुकराना व्यक्त करना l

क्यों जरूरी है श्राद्ध 

 

हिन्दू धर्म पुनर्जन्म के सिद्धांत को मानता है l मृत्यु शरीर की होती है पर आत्मा अजर अमर है l जब जीव का नश्वर शरीर खत्म हो जाता है,तो वो सूक्ष्म रूप में रहता है l  हम जिस जड़ से उत्पन्न हुए हैं हमारे जिन पूर्वजों ने न केवल धन सम्पत्ति व् संस्कार अपितु धरती, आकाश, जल, वायु का उचित उपयोग करके हमारे लिए छोड़ा है| जिन्होंने हमारे जीवन को आसान बनाया है | उनके प्रति हमें वर्ष में कम से कम एक बार तो सम्मान व्यक्त करना चाहिए|

पूर्वज न जाने किस योनि में गया होगा … उसी आधार पर अपनी समझ के अनुसार ब्राह्मण , गाय , कौवा व् कुत्ता सम्बंधित योनि  के प्रतीक के रूप में चयनित कर लिए गए |आज के समय में नए प्रतीक लिए जा सकते हैं l धर्म ने इतनी स्वतंत्रता सदा से प्रदान की हुई है l

लेकिन जैसे – जैसे ज्ञान बढ़ा इन प्रतीकों पर प्रश्नचिन्ह लगने लगे | केवल इन्हें ही क्यों चुना गया इस पर विवाद होने लगा | और अगर उनका दूसरा जन्म हो गया है तो फिर वो श्राद्ध पक्ष में हमसे मिलने आते भी हैं या नहीं? कुछ लोगों में श्राद्ध कर्म से अरुचि होने लगी और कुछ लोग उसे मात्र किसी भय , या अनिष्ट आशंका मान कर लकीर के फ़कीर की तरह ढोने लगे |कुछ लोग जीवित माता-पिता की सेवा नहीं करते और श्राद्ध में अनाप -शनाप धन व्यय करते हैं l

तर्क और भी हो सकते हैं  पर इतना तो सच है की उनकी यादें स्मृतियाँ हमारे साथ धरोहर के रूप में रहती हैं | स्नेह और प्रेम की भावनाएं भी रहती हैं | ये उन्हीं भावनाओं की अभिव्यक्ति का समय है l भावना हीन भोजन जब हम नहीं स्वीकारते,तो पितर जो आत्मा रूप में हैं वो क्योंकर स्वीकारेंगे | उन्हें अगर कुछ चाहिए भी तो बस भावना की पवित्रता और श्रद्धा | कर्मकांड किसी भी स्तर पर अगर भावना के ऊपर हो जाएगा तो वो श्राद्ध नहीं है l

विदेशों में भी अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए खास दिन/त्योहार  नियत हैं l जैसे जापान में बॉन फेस्टिवल, चीन में छीग-मिंग, जर्मनी में अल सेंटस डे,कोरिया में  ” थैंक्स गिविंग डे” मलेशिया, थाईलैंड, सिंगापुर हंगरी गोस्ट आदि त्योहार मनाए जाते हैं | जहाँ अपने उनको उनके द्वारा दिए गए प्रेम के लिए धन्यवाद देने की परंपरा है | यह भी लगभग इन्ही दिनों पड़ता है |

 

 

रूढ़ियों की सफाई करिए परंपराओं की नहीं 

श्राद्ध कर्म में पूर्वजों के सम्मान में भोजन  -जल या केवल जल या मात्र हाथ उठा कर श्रद्धा व्यक्त करना भी स्वीकार्य है l समय के साथ धर्म में रूढ़ियाँ आ जाना असंभव नहीं है l खासतौर पर सनातन धर्म जैसे पुरातन धर्म में l परंतु हिन्दू धर्म की खास बात ये हैं कि वो हमें इसका अवसर देता है कि हम इन् रूढ़ियों को हटा सकें l समय- समय सुधार आंदोलन हुए हैं और आम लोगों द्वरा स्वीकार किए गए हैं l अगर पंडे-पुजारियों ने इस प्रथा को विकृत किया है तो बाज़ारवाद और अहंकार तुष्टि और दिखावा ने इसका मूल भाव छीन लिया है l इसको दूर करने के लिए पहल स्वयं से करनी होगी l और अगर आप इससे परिवर्तन करते हैं तो आपको धर्म से बहिष्कृत नहीं किया जाएगा l जैसे बेटियाँ भी अपने माता- पिता का श्राद्ध करने लगीं है l लोग कौवा, गाय, पंडित की जगह अनाथालय में या गरीबों को खिलाने लगे हैं l वो भी स्वीकार्य है l

लेकिन अगर कोई स्वयं ही दिखावा कर रहा हो l किसी धनी व्यक्ति की तुलना कर उतना ही खर्च कर अपना अहंकार दिखाना चाह रहा हो l बड़ा आयोजन करने अपने कॉन्टेक्टस बढ़ाने का प्रयास कर रहा हो तो इसमें व्यक्ति को दोष दिया जा सकता है, परंपरा को नहीं l

 

लौकिक हों या अलौकिक रिश्ते टूटते नहीं हैं 

 

अगर हम थोड़ा गहराई में जाए तो देखेंगे की हमारे देश में रिश्तों को संभालने व् सहेजने की भावना पर बहुत बल दिया गया हैl तमाम त्यौहार रिश्तों को सजाने व् संवारने के लिए बनाए गए हैं | श्राद्ध पक्ष इसी परंपरा की एक कड़ी है | रिश्ते चाहे लौकिक हो या लोक के परे | जो हमारे अत्यंत प्रिय हैं या रहे हैं उनके प्रति हमारा भी कुछ कर्तव्य बनता है | जितने रिश्ते जीवित हैं उन्हें हम सम्बंधित त्योहारों पर उपहार, सम्मान देकर या अपनी प्रेमपूर्ण व्यवहार करके उनके प्रति अपनी भावनाएं व्यक्त करते हैं | हमारे प्रियजन जो इस लोक से परे चले गए हैं, उनके प्रति हम अपना प्रेम कैसे व्यक्त करे, अपनी कृतज्ञता कैसे व्यक्त करे? क्योंकि रिश्ते टूट कर भी नहीं टूटते, चाहे आप इसे विज्ञान के धरातल पर डीएनए से जोड़ कर देखे या भावना के धरातल पर प्रेम से जोड़ कर देखे |

 

अंधविश्वास नहीं विश्वास के साथ व्यक्त करिए श्रद्धा 

 

पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता का भाव, श्रद्धा का भाव हमारे मन में असीम संतोष उत्पन्न करता है | मजबूत  करता है उस डोर को जो टूट कर भी नहीं टूटती | इसलिए श्राद्ध पक्ष में लकीर के फ़कीर न बन कर चाहे तो पुरानी परम्परा के अनुसार , चाहे किसी नई परंपरा की शुरुआत करके या महज नाम स्मरण कर हाथ जोड़ कर अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा तो व्यक्त करिए हर उस पूर्वज के लिए जिसने हमारे जीवन को आसान बनाया है | साथ ही ये संकल्प लें कि हमें भी आने वाली नस्लों के लिए जीवन आसान बनाना है | आर्थिक रूप में नहीं धरती, जल, वायु और पर्यावरण की दृष्टि से भी l

वंदना बाजपेयी

वंदना बाजपेयी

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बुद्ध पूर्णिमा – भगवान् बुद्ध ने दिया समता का सन्देश https://www.atootbandhann.com/2018/04/buddha-purnima-special-in-hindi.html https://www.atootbandhann.com/2018/04/buddha-purnima-special-in-hindi.html#respond Sun, 29 Apr 2018 14:09:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2018/04/29/buddha-purnima-special-in-hindi/ आज से 2500 वर्ष पूर्व निपट भौतिकता बढ़ जाने के कारण मानव के मन में हिंसा का वेग काफी बढ़ गया था। इस कारण से मानव का जीवन दुःखी होता चला जा रहा था, तब परमात्मा ने मनुष्यों पर दया करके और उन्हें अहिंसक विचार का व्यक्ति बनाकर उनके दुखों को दूर करने के लिए […]

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बुद्ध पूर्णिमा - भगवान् बुद्ध ने दिया समता का सन्देश


आज से 2500 वर्ष पूर्व निपट भौतिकता बढ़ जाने के कारण मानव के मन में हिंसा का वेग काफी बढ़ गया था। इस कारण से मानव का जीवन दुःखी होता चला जा रहा था, तब परमात्मा ने मनुष्यों पर दया करके और उन्हें अहिंसक विचार का व्यक्ति बनाकर उनके दुखों को दूर करने के लिए भगवान बुद्ध को धरती पर भेजा।

बुद्ध पूर्णिमा – भगवान् बुद्ध ने प्रदान किया  समता का सन्देश 

बुद्ध जयन्ती/बुद्ध पूर्णिमा बौद्ध धर्म में आस्था रखने वालों का एक प्रमुख त्यौहार है। बुद्ध जयन्ती वैशाख पूर्णिमा को मनाया जाता हैं। पूर्णिमा के दिन ही गौतम बुद्ध का स्वर्गारोहण समारोह भी मनाया जाता है। इस पूर्णिमा के दिन ही 483 ई.पू. में 80 वर्ष की आयु में, देवरिया जिले के कुशीनगर में निर्वाण प्राप्त किया था। भगवान बुद्ध का जन्म, ज्ञान प्राप्ति और महापरिनिर्वाण ये तीनों एक ही दिन अर्थात वैशाख पूर्णिमा के दिन ही हुए थे। इसी दिन भगवान बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। आज बौद्ध धर्म को मानने वाले विश्व में करोड़ों लोग इस दिन को बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। हिन्दू धर्मावलंबियों के लिए बुद्ध विष्णु के नौवें अवतार हैं। अतः हिन्दुओं के लिए भी यह दिन पवित्र माना जाता है। यह त्यौहार भारत, नेपाल, सिंगापुर, वियतनाम, थाइलैंड, कंबोडिया, मलेशिया, श्रीलंका, म्यांमार, इंडोनेशिया तथा पाकिस्तान में मनाया जाता है।

(2) बुद्ध के मन में बचपन से ही द्वन्द्व शुरू हो गया था:- 

गौतम बुद्ध का जन्म कपिलवस्तु राज्य के लुंबिनी (जो इस समय नेपाल में है) में हुआ था। उनके पिता राजा शुद्धोदन व माता का नाम महामाया था। आपके बचपन का नाम सिद्धार्थ गौतम था। सिद्धार्थ का हृदय बचपन से करूणा, अहिंसा एवं दया से लबालब था। बचपन से ही उनके अंदर अनेक मानवीय एवं सामाजिक प्रश्नों का द्वन्द्व शुरू हो गया था। जैसे – एक आदमी दूसरे का शोषण करें तो क्या इसे ठीक कहा जाएगा?, एक आदमी का दूसरे आदमी को मारना कैसे एक क्षत्रिय का धर्म हो सकता है?

पूजा के समय सुनाई जाने वाली गणेश जी की चार कहानियाँ

वह एक घायल पक्षी के प्राणों की रक्षा के लिए मामले को राज न्यायालय तक ले गये। न्यायालय ने सिद्धार्थ के इस तर्क को माना कि मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है। सिद्धार्थ एक बीमार, एक वृद्ध तथा एक शव यात्रा को देखकर अत्यन्त व्याकुल हो गये। सिद्धार्थ युद्ध के सर्वथा विरूद्ध थे। सिद्धार्थ का मत था कि युद्ध कभी किसी समस्या का हल नहीं होता, परस्पर एक दूसरे का नाश करने में बुद्धिमानी नहीं है।

(3) ‘बुद्ध’ ने बचपन में ही प्रभु की इच्छा और आज्ञा को पहचान लिया था:-

बुद्ध ने बचपन में ही ईश्वरीय सत्ता को पहचान लिया और मानवता की मुक्ति तथा ईश्वरीय प्रकाश ;क्पअपदम म्दसपहीजमदउमदजद्ध का मार्ग ढूंढ़ने के लिए उन्होंने राजसी भोगविलास त्याग दिया और अनेक प्रकार के शारीरिक कष्ट झेले। अंगुलिमाल जैसे दुष्टों ने अनेक तरह से उन्हें यातनायें पहुँचाई किन्तु धरती और आकाश की कोई भी शक्ति उन्हें दिव्य मार्ग की ओर चलने से रोक नहीं पायी। परमात्मा ने पवित्र पुस्तक त्रिपिटक की शिक्षाओं के द्वारा बुद्ध के माध्यम से समता का सन्देश सारी मानव जाति को दिया। त्रिपटक प्रेरणा देती है कि समता ईश्वरीय आज्ञा है, छोटी-बड़ी जाति-पाति पर आधारित वर्ण व्यवस्था मनुष्य के बीच में भेदभाव पैदा करती है। इसलिए वर्ण व्यवस्था ईश्वरीय आज्ञा नहीं है।  अतः हमें भी बुद्ध की तरह अपनी इच्छा नहीं वरन् प्रभु की इच्छा और प्रभु की आज्ञा का पालन करते हुए प्रभु का कार्य करना चाहिए।

(4) वैर से वैर कभी कभी नहीं मिटता अवैर (मैत्री) से ही वैर मिटता है:-

जो मनुष्य बुद्ध की, धर्म की और संघ की शरण में आता है, वह सम्यक् ज्ञान से चार आर्य सत्यों को जानकर निर्वाण की परम स्थिति को पाने में सफल होता है। ये चार आर्य सत्य हैं – पहला दुःख, दूसरा दुःख का हेतु, तीसरा दुःख से मुक्ति और चैथा दुःख से मुक्ति की ओर ले जाने वाला अष्टांगिक मार्ग। इसी मार्ग की शरण लेने से मनुष्य का कल्याण होता है तथा वह सभी दुःखों से छुटकारा पा जाता है। निर्वाण के मायने है तृष्णाओं तथा वासनाओं का शान्त हो जाना। साथ ही दुखों से सर्वथा छुटकारे का नाम है- निर्वाण। बुद्ध का मानना था कि अति किसी बात की अच्छी नहीं होती है। मध्यम मार्ग ही ठीक होता है। बुद्ध ने कहा है – वैर से वैर कभी नहीं मिटता। अवैर (मैत्री) से ही वैर मिटता है – यही सनातन नियम है।

(5) पवित्र त्रिपिटक बौद्ध धर्म की पवित्र पुस्तक है:- 

भगवान बुद्ध ने सीधी-सरल लोकभाषा ‘पाली’ में धर्म का प्रचार किया। बुद्ध के सरल, सच्चे तथा सीधे उपदेश जनमानस के हृदय को गहराई तक स्पर्श करते थे। भगवान बुद्ध के उपदेशों को उनके शिष्यों ने कठस्थ करके लिख लिया। वे उन उपदेशों को पेटियों में रखते थे। इसी से इनका नाम पिटक पड़ा। पिटक तीन प्रकार के होते हैं – पहला विनय पिटक, दूसरा सुत्त पिटक और तीसरा अभिधम्म पिटक। इन्हें पवित्र त्रिपिटक कहा जाता है। हिन्दू धर्म में चार वेदों का जो पवित्र स्थान है वही स्थान बौद्ध धर्म में पिटकों का है।

सूर्योपासना का महापर्व छठ

 बौद्ध धर्म को समझने के लिए धम्मपद का ज्ञान मनुष्य को अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाने के लिए प्रज्जवलित दीपक के समान है। संसार में पवित्र गीता, कुरान, बाइबिल, गुरू ग्रन्थ साहब का जो श्रद्धापूर्ण स्थान है, बौद्ध धर्म में वही स्थान धम्मपद का है। त्रिपटक का संदेश एक लाइन में यह है कि वर्ण (जाति) व्यवस्था ईश्वरीय आज्ञा नहीं है वरन् समता ईश्वरीय आज्ञा है। जाति के नाम से छोटे-बड़े का भेदभाव करना पाप है। 

(6) सभी धर्मों के हृदय से मानव मात्र की एकता का सन्देश प्रवाहित हो रहा है:-   

मानव के विकास तथा उन्नति में धर्म का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। वास्तव में धर्म मानव जीवन की
आधारशिला है। भिन्न-भिन्न धर्मों के पूजा-उपासना की अलग-अलग पद्धतियों, पूजा स्थलों तथा ऊपरी आचार-विचार में हमें अन्तर दिखाई पड़ता है, पर हम उनकी गहराई में जाकर देखे तो हमें ज्ञान होगा कि सभी धर्मों के हृदय से मानव मात्र की एकता का सन्देश प्रवाहित हो रहा है। भगवान बुद्ध का आदर्श जीवन एवं सन्देश युगों-युगों तक मानव मात्र को समता तथा एकता की प्रेरणा देता रहेगा। 

(7) सम्राट अशोक ने हिंसा का मार्ग छोड़कर अहिंसा परमो धर्म का मार्ग अपनाया:-

बुद्ध के समय में सम्राट अशोक राज्य के विस्तार की भावना से युद्ध के द्वारा खून की नदियाँ बहा रहा था। वह अपने बेटे-बेटी को संसार का सारा सुख देने के लिए यह महापाप कर रहा था। अशोक के कानों में जब बुद्ध का अहिंसा परमो धर्म का सन्देश सुनायी पड़ा। तब अशोक ने सोचा अरे अहिंसा परमो धर्म होता है। मैं तो हिंसा कर रहा हूँ। अशोक के अंदर द्वन्द्व शुरू हो गया। वह बुद्ध की शरण में चला गया। बुद्ध की शिक्षाओं से अशोक का हृदय परिवर्तन हो गया। अशोक की प्रेरणा से उसके बेटे महेन्द्र तथा बेटी संघमित्रा ने अनेक देशों में जाकर बुद्ध के समता व अहिंसा के सन्देश को व्यापक रूप से पहुँचाया।

(8) बुद्ध के जीवन से मानव कल्याण की सीख मिलती है:-


बुद्ध ने डाकू अंगुलिमाल, नगर वधू आम्रपाली, सम्राट अशोक, शुद्धोदन, पुत्र राहुल आदि सभी को अहिंसा की राह दिखायी। बुद्ध ने बुद्धं शरणं गच्छामि (अर्थात मैं बुद्ध की शरण में जाता हूँ), धम्मं शरणं गच्छामि (अर्थात मैं धर्म की शरण में जाता हूँ) तथा संघं शरणं गच्छामि (अर्थात मैं संघ की शरण में जाता हूँ) की शिक्षा दी। बुद्ध ने कहा कि केवल बुद्ध की शरण में आने से काम नहीं चलेगा, धर्म की शरण में आओ फिर उन्होंने कहा कि इससे भी काम नहीं चलेगा संघ की शरण में आकर उसके नये-नये सामाजिक नियमों को भी मानने से अब काम चलेगा। भगवान बुद्ध का जीवन हमें सीख देता है कि कैसे एक साधारण गृहस्थ व्यक्ति भी अहिंसा, समता तथा परहित की भावना से मानव कल्याण की उच्च से उच्चतम अवस्था तक पहुँच सकता है।

(9) सभी धर्मों का सार मानव कल्याण है:- 

मानव समाज आज नवीन और महान युग में प्रवेश कर रहा है। प्रगतिशील धर्म का उद्देश्य प्राचीन विश्वासों के महत्व को कम करना नहीं है बल्कि उन्हें पूर्ण करना है। आज के समाज को विख्ंाडित करने वाले परस्पर विरोधी विचारों की विविधता पर जोर नहीं बल्कि उन्हें एक मिलन-बिन्दु पर लाना है। अतीत काल के अवतारों की महानता अथवा उनकी शिक्षाओं के महत्व को कम करना नहीं बल्कि उनमें निहित आधारभूत सच्चाईयों को वर्तमान युग की आवश्यकताओं, क्षमताओं, समस्याओं और जटिलताओं के अनुरूप दुहराना है।

सीता के पक्ष में हमें खड़ा  करने वाले भी राम ही है

सारी सृष्टि को बनाने वाला और संसार के सभी प्राणियों को जन्म देने वाला परमात्मा एक ही है। सभी अवतारों एवं पवित्र ग्रंथों का स्रोत एक ही परमात्मा है। हम प्रार्थना कहीं भी करें, किसी भी भाषा में करें, उनको सुनने वाला परमात्मा एक ही है। अतः परिवार तथा समाज में भी स्कूल की तरह ही सभी लोग बिना किसी भेदभाव के एक साथ मिलकर एक प्रभु की प्रार्थना करें तो सबमें आपसी प्रेम भाव भी बढ़ जायेगा और संसार में सुख, एकता, शान्ति, करूणा, त्याग, न्याय एवं अभूतपूर्व समृद्धि आ जायेगी।
’’’’’ 

– डा0 जगदीष गांधी, षिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक
सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ

षिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक   सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ

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दीपोत्सव – स्वास्थ्य सामाजिकता व् पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण    


       धनतेरस – दीपोत्सव का प्रथम दिन        

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सीता के पक्ष में हमें खड़ा करने वाले भी राम ही है https://www.atootbandhann.com/2018/03/blog-post_5-18.html https://www.atootbandhann.com/2018/03/blog-post_5-18.html#respond Sat, 24 Mar 2018 04:00:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2018/03/24/blog-post_5/                                 राम , हमारे आराध्य श्री राम , मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम | राम का चरित इतना ऊंचा , इतना विशाल है की वो इतिहास के पन्नों से निकल कर मानव के मन में बस गया |  जनश्रुति और महाकाव्यों […]

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राम , हमारे आराध्य श्री राम , मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम | राम का चरित इतना ऊंचा , इतना विशाल है की वो इतिहास के पन्नों से निकल कर मानव के मन में बस गया |  जनश्रुति और महाकाव्यों के माध्यम से राम अपने उत्तम चरित्र के कारण युगों युगों तक मर्यादित आचरण की शिक्षा देते आये हैं |
                                                    राम – दो अक्षर का प्यारा सा नाम जो पतित पावनी गंगा की तरह मनुष्य के मन के सब पापों को हरता है | अगर प्रभु राम को ईश्वर रूप में न भी देखे तो भी उन चरित्र इतना ऊंचा है की की उन्हें महा मानव की संज्ञा दी जा सकती है |  बाल राम , ताड़का  का वध करने वाले राम , शिव जी धनुष तोड़ने वाले राम , पिता की आज्ञा  मान कर वन  जाने वाले राम , केवट के राम ,सिया के विरह में वन – वन आंसूं बहाते राम  अहिल्या का उद्धार करने वाले राम , शवरी के जूठे बेरों को प्रेम से स्वीकार करने वाले राम , रावण का वध करने वाले राम | राम के इन सारे रूपों में एक रूप ऐसा है जो की राम   के  लोक लुभावन रूप  पर प्रश्नचिन्ह लगाता है |
वो है सीता को धोबी के कहने पर गर्भावस्था  में निष्काषित कर वन में भेज देना  देना |

राम के लिए भी आसन नहीं होगा सीता को वन में भेजने का निर्णय 

                                                                           राम के लिए भी ये निर्णय आसान नहीं रहा होगा | कितनी जद्दो- जहद बाद उन्होंने ये निर्णय  लिया होगा | कितने आँसू बहाए होंगे | प्रजा पालक राम , राजा राम , मर्यादा पुरुषोत्तम राम … सबके के राम , अपने निजी जीवन में कितने अकेले कितने एकाकी रहे होंगे | कितनी बार सीता के विरह पर छुप छुप  कर आँसू बहाए होंगे , हर – सुख में हर दुःख में सीता को याद किया होगा , इसका आकलन करना मुश्किल है | आज हम सहज ही राम के इस निर्णय  के खिलाफ सीता के पक्ष में खड़े हो जाते हैं | बहस करते , वाद – विवाद करते हम भूल जाते हैं की राम के लिए भी ये कितना कष्टप्रद रहा होगा |

हमें सीता के पक्ष में खड़े करने वाले भी राम ही है 

                                                कोई भी घटना देश और काल के अनुसार ही देखी  जाती है | अगर तात्कालिक परिस्तिथियों पर गौर करें तो जब धोबी द्वारा सीता के चरित्र पर आरोप लगाने के बाद अयोध्या में सीता के विरुद्ध स्वर उठने लगे थे | तो राम क्या कर सकते थे |
1 … वो प्रजा से कह देते की वो अग्नि परीक्षा ले चुके हैं उन्हें सीता की पवित्रता पर विश्वास है | अत : सीता कहीं नहीं जायेंगी | यहीं उनके साथ रहेंगी |
                                               अगर ऐसा होता तो लोग दवाब में ये फैसला स्वीकार कर लेते पर सीता के विरुद्ध चोरी – छिपे ही सही आरोप लगाते रहते  |

जब भगवान् राम ने सिखाया कार्पोरेट जगत का महत्वपूर्ण पाठ

२ …. राम सीता को निष्काषित कर ये कहते की वो भी राज गद्दी छोड़ सीता के साथ जा रहे हैं | इससे भी वो सीता को वो सम्मान व् दर्जा नहीं दिला पाते जिसकी वो अधिकारी थीं | इसके अतरिक्त युगों – युगों तक एक ऐसे राजा के रूप में याद किये जाते जो निजी हितों को प्रजा से ऊपर रखता है | राजा का कर्तव्य बहुत बड़ा होता है | उसे निजी सुख प्रजा के सुख के कारण त्यागने पड़ते हैं |
३ … राम ने निजी सुख त्यागने  का निर्णय लिया | उन्होंने सीता को निष्काषित कर कर स्वयं भी एक पत्नी के अपने वचन पर कायम रहने के कारण अकेलेपन का दर्द झेला | राम के शब्द शायद सीता की पवित्रता को सिद्ध न कर पाते परन्तु उनके अकेलेपन के दर्द ने हर पल प्रजा को यह अहसास कराया की वो सिया के साथ हैं | क्योंकि उन्हें उन पर विश्वास है |राम ये जानते थे की आज के ये दुःख – दर्द भविष्य में सीता  की गरिमा मर्यादा व् उत्तम चरित्र को स्थापित करने में सहयक होंगे |
                                    राम होना आसान  नहीं है | राम होने का अर्थ उन आरोपों के साथ अकेले जीना है जो मन खुद पर लगाता है ,जिसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं है |
                                           जय सिया राम
वंदना बाजपेयी

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सूर्योपासना का महापर्व छठ – धार्मिक वैज्ञानिक व् सामाजिक महत्व https://www.atootbandhann.com/2017/10/suryopasna-mahaparv-chath-mahtv.html https://www.atootbandhann.com/2017/10/suryopasna-mahaparv-chath-mahtv.html#comments Tue, 24 Oct 2017 08:35:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2017/10/24/suryopasna-mahaparv-chath-mahtv/   सूर्योपासना का महापर्व छठ कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाने वाला हिन्दुओं का एक प्रमुख पर्व है |षष्ठी को मनाये जाने के कारण इसे छठ कहते हैं | हालांकि ये पर्व  चार दिन चतुर्थी से ले कर सप्तमी तक चलता है | परन्तु इसका मुख्य दिन षष्ठी ही होता है | छठ पर्व साल […]

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सूर्योपासना का महापर्व छठ - धार्मिक , विज्ञानिक व् सामाजिक महत्व

 

सूर्योपासना का महापर्व छठ कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाने वाला हिन्दुओं का एक प्रमुख पर्व है |षष्ठी को मनाये जाने के कारण इसे छठ कहते हैं | हालांकि ये पर्व  चार दिन चतुर्थी से ले कर सप्तमी तक चलता है | परन्तु इसका मुख्य दिन षष्ठी ही होता है | छठ पर्व साल में दो बार मनाया जाता है | पहली बार चैत्र व् दूसरी बार कार्तिक में | कार्तिक में मनाये जाने वाले छठ को कार्तिकी  छठ  भी कहते हैं | वैसे मूलत : यह बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में मनाया जाता है | परन्तु धीरे – धीरे अपनी सरहदों से निकलकर यह पूरे भारत व् विश्व के कई देशों में मनाया जाने लगा हैं |



 
 लोक आस्था के महापर्व छठ को स्त्री पुरुष सामान रूप से करते हैं | व्रत करते हैं और ढलते व्  उगते सूर्य को पानी में खड़े होकर अर्घ्य देते हैं | इस पर्व में बिहार उत्तर प्रदेश व् देश के अन्य शहरों में नदी तालाब पोखरों के घाटों की विशेष सफाई की जाती है | ताकि छठ पूजा के व्रती सुविधापूर्वक उपासना कर सके व् सूर्य को अर्घ्य दे सके | हर घाट पर व्रती हाथ में सूप व् सूर्यदेव को अर्पित किये जाने वाले सामान लेकर उत्साह के साथ दिखाई पड़ते हैं | छठ मैया के मनभावन भक्ति पूर्ण गीतों से सारा वातावरण गुंजायमान हो जाता है | मान्यता है आज के दिन छठ मैया से जो भी मांगों वो मिल जाता है |घाट  में उपस्थित  हर व्यक्ति अपने ह्रदय में आस्था लेकर छठ मैया से अपनी मनोकामना को पूर्ण करने की प्रार्थना करता है |

 

सूर्योपासना का महापर्व छठ 

 
छठ मुख्यत : सूर्य उपासना का पर्व है | सूर्य हिन्दुओं के प्रमुख देवता है | सूर्य ही वो देवता हैं जिनका हम साक्षात दर्शन कर सकते हैं | सूर्य की उपासना सभ्यता के विकास के साथ ही शुरू हो गयी थी | सूर्य पूजा का उल्लेख पहली बार ऋग्वेद में मिलता है | उपनिषद व् हिन्दुओं के अन्य धर्म ग्रंथों में भी सूर्य को आदि देव मान कर उनकी उपासना का वर्णन हैं | धीरे – धीरे सूर्य की कल्पना मानवाकार के रूपमें होने लगी | पुराणों  के समय में सूर्य की मूर्ति की पूजा होने लगी | व् देश के अनेकों भागों में सूर्य मंदिर बने | 

पौराणिक काल में सूर्य की किरणों के आरोग्यकारी गुणों की खोज हुई | पाया गया की कुछ खास दिनों में सूर्य की ये आरोग्यकारी किरणे  प्रचुर मात्र में निकलती हैं | संभवत : वो षष्ठी रही हो और तभी से  छठ एक पर्व के रूप में मनाया जाने लगा हो |




छठ के साथ एक ख़ास बात और है इसमें सूर्य के साथ – साथ उसकी शक्ति की भी अराधना होती है | कहा जाता है सूर्य की शक्ति उसकी पत्नियों उषा व् प्रत्युषा में निहित है | छठ में सूर्य के साथ – साथ उसकी दोनों शक्तियों की भी संयुक्त रूपसे उपासना होती है | प्रात: काल में सूर्य की पहली पत्नी ऊषा व् सांय काल में सूर्य की दूसरी पत्नी प्रत्युषा  को अर्घ्य दे कर नमन किया जाता है |

किस प्रकार मनाया जाता है छठ



             छठ चार दिन का पर्व है | यह कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से शुरू हो कर कार्तिक शुक्ल सप्तमी तक चलता है | इस दौरान व्रती ३६ घंटे का व्रत रखते हैं |



चतुर्थी (नहाय खाय )



                  ये छठ पूजा का पहला दिन है | इस दिन घर की साफ़ सफाई कर के उसे पवित्र बनाया जाता है | फिर व्रती स्नान करके शुद्ध शाकाहारी ढंग से बनाया हुआ भोजन ग्रहण करते हैं | इसमें सेंधा  नमक से बनी हुई कद्दू की सब्जी व् अरवा चावल होते हैं | घर के अन्य लोग व्रती के बाद ही भोजन करते हैं |

पंचमी ( लोखंडा और खरना )

 इस दिन पूरे दिन का उपवास होता है | शाम को  प्रसाद लगाया जाता है | जिसमें घी चुपड़ी रोटी , गन्ने के रस में बनी हुई चावल की खीर का भोग लगाया जाता हैं | प्रसाद  लेने के लिए आस – पास के लोगों को भी बुलाया जाता है |  व्रती एक बार भोजन ग्रहण करते हैं |



षष्ठी (संध्या अर्घ्य )

               कार्तिक शुक्ल षष्ठी को संध्या अर्घ्य देने का विधान है | इस दिन प्रसाद बनाया जाता है | प्रसाद में ठेकुये व् चावल के आते के लड्डू बनाए जाते हैं | इसके आलावा छठ मैया को अर्पित करने के लिए मौसमी फल व् सांचा भी लिया जाता है |
सभी सामन को बांस की बनी एक टोकरी में सूप में रखा जाता है | व्रती के साथ – साथ उसके परिवार के लोग भी जाते हैं | सूर्य देव को दूध  व् जल का अर्घ्य दिया जाता है | अर्घ्य सामूहिक रूप से दिया जाता है | जो अप्रतिम दृश्य उत्पन्न करता है | सूप की सामग्री  छठ मैया को समर्पित की जाती है |

सप्तमी (परना , ऊषा अर्घ्य )

              सप्तमी को ऊषा अर्घ्य या उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है | यह सुबह के समय बिलकुल संध्या अर्घ्य की तरह होता है | व्रती वहीँ अर्घ्य देते हैं जहाँ उन्होंने एक दिन पहले अर्घ्य दिया होता है |वहीँ प्रसाद वितरण होता है | व्रती व्रत  खोलते हैं जिसे परना या पारण भी कहा जाता है |

क्यों विशेष है सूर्योपासना का महापर्व छठ 




छठ व्रत की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित है …



  • यह एक कठिन व्रत है | जिसे पुरुष व् महिलाएं दोनों  कर सकते  हैं | पर मुख्यत : महिलाएं हीं इस व्रत को करती हैं |
  • व्रत में साफ़ – सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है |
  • जिस घर में कोई व्रती है वहां मांस , लहसुन , प्याज़ नहीं पक  सकता |
  • व्रत के दौरान सात्विक आचरण ही करना पड़ता है |
  • व्रती को बिस्तर का त्याग करना पड़ता है | फर्श पर कम्बल या चादर के सहारे ही रात बितानी पड़ती है |
  • अर्घ्य देते समय नए कपडे पहनने होते हैं | कपडे सिले नहीं होने चाहिए | इसलिए महिलाएं  साड़ी व् पुरुष धोती पहनते हैं |
  • एक बार संकल्प लेने के बाद यह व्रत तब तक करना होता है जब तक अगली पीढ़ी की कोई विवाहित महिला इस व्रत को करने को तैयार न हो जाए |
  • घर में किसी की मृत्यु हो जाने पर यह पर्व नहीं मनाया जा सकता है |



छठ पूजा का इतिहास

भगवान् राम-सीता  ने किया था पहली बार छठ ?
          मान्यता है की भगवान् राम व् माता सीता ने पहली बार इस व्रत को किया था | कहते हैं की जब रावण का वध कर प्रभु राम माता सीता के साथ अयोध्या वापस आये तो अपने कुल देव सूर्य का आशीर्वाद पाने के लिए उन्होंने माता – सीता के साथ छठ व्रत किया था | जैसा की विदित है की प्रभु श्री राम सूर्यवंशी थे व् सूर्य उनके कुल देवता थे | पहले डूबते फिर उगते सूर्य को अर्घ्य देने के बाद प्रभु श्री राम ने राज काज संभाला था |उनके बाद से सभी लोग इस व्रत को करने लगे | 
कर्ण ने शुरू किया था छठ पर्व ?

           महाभारत में वर्णन है की दुर्योधन ने अपने मित्र कर्ण को अंग देश ( आज का भागलपुर , बिहार) का राजा बना कर भेज  दिया था | जैसा की ज्ञात है कर्ण कुंती व् सूर्यदेव का पुत्र था | कर्ण सूर्योपासक भी था | वो रोज जल में खड़े हो कर सूर्य को अर्घ्य देता था | उसके बाद उससे जो भी कुछ माँगता वो अवश्य दान करता | कार्तिक शुक्ल षष्ठी व् सप्तमी को वो विशेष पूजा करता | कहते हैं अपने राजा से प्रभावित हो कर प्रजा ने भी छठ व्रत करना शुरू कर दिया |



कुंती व् द्रौपदी का छठ व्रत ?



   महाभारत के अनुसार महाराजा पंडू ने जब एक ऋषि का धोखे से वध कर दिया तो वह प्रायश्चित के तौर पर अपनी पत्नियों कुंती व्  मांडवी के साथ जंगल में रहने लगे | ऋषि के श्राप के कारण वो पिता नहीं बन सकते थे | तब कुंती ने सूर्योपासना की जिससे उसे संतान की प्राप्ति हुई | तब से संतान प्राप्ति के लिए छठ का महत्व बढ़ गया |



इसके अतिरिक्त एक कथा और है | कुंती की पुत्रवधू द्रौपदी जब अपने पतियों के साथ जंगल में अज्ञातवास  में भटक रही थी तो उसने राजपाट वापस पाने व् अपने पतियों के उत्तम स्वास्थ्य के लिए सूर्योपासना की | कुछ लोग मानते हैं की सुख व् सौभाग्य के लिए छठ पर्व तभी से शुरू हुआ |



 छठ  का धर्मिक महत्व -व्रत कथा

 

पुराणों  की कथा के अनुसार प्रथम मनु प्रियव्रत के कोई संतान नहीं थी | महर्षि कश्यप के कहने पर उन्होंने अपनी पत्नी मालिनी के साथ पुत्रेष्ठी  यज्ञ  किया | जिससे उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति तो हुई | पर दुर्भाग्यवश पुत्र मरा हुआ पैदा हुआ | वह रोते – बिलखते पुत्र का अंतिम संस्कार करने गए | तभी एक आश्चयर्य जनक घटना घटी | एक चमकता हुआ विमान वहां आया | उस विमान में उन्होंने देखा की एक दिव्य नारी बैठी हुई है | उसने देवव्रत से कहा



मैं ब्रह्मा की मानस पुत्री हूँ | मेरा नाम देवसेना है | सृष्टि की मूल प्रवत्ति के छठे अंश से पैदा होने के कारण मैं षष्ठी कह्लाती  हूँ | मैं संतान प्राप्ति की इच्छा रखने वालों को संतान प्रदान करतीहूं  |





 तुम मेरा पूजन करो व् अन्य लोगों से भी कहो , मैं सबको संतान का सुख दूँगी | राजा ने देवी की पूजा की और उसका पुत्र जीवित हो गया | तब से सभी लोग छठ मैया की पूजा करने लगे | कुछ स्थानों पर छठ मैया को सूर्य की बहन भिकः गया है |

छठ का वैज्ञानिक महत्व

 

छठ का वैज्ञानिक महत्व भी  है | कहते हैं की छठ के समय कुछ खगोलीय परिवर्तन होते हैं जिस कारण पृथ्वी पर सूर्य की पराबैगनी किरने ज्यादा मात्र में पहुँच जाती हैं | जैसा की हम सभी जानते हैं की सूर्य की पराबैगनी किरणे जीवों के लिए हानिकारक हैं | परन्तु जब यह वायुमंडल में प्रवेश करती हैं तो ऑक्सिजन के साथ रीअक्ट करके ओजोन में बदल जाती हैं | यह पृथ्वी के वायुमंडल के ऊपर एक छत बना देती है जिसे ओजोन लेयर कहते हैं | जिससे अधिक मात्र में पराबैगनी किरणे पृथ्वी तक नहीं आ पाती और जीवों को कोई नुक्सान नहीं पहुंचा पातीं | 




परन्तु छठ के समय खगोलीय स्थिति ऐसी रहती है की ये परा बैगनी किरणे चंदमा से परावर्तित होकर व् पृथ्वी के गोलीय अपवर्तन के कारण अधिक मात्रा  में पृथ्वी पर आ जाती हैं | ऐसे समय में व्रत व् लम्बे  समय तक जल में खड़े रहना उनके  हानिकारक प्रभाव से बचाता है |

छठ पर्व का सामाजिक महत्व 

            छठ पर्व का सामजिक महत्व हैं | इसका आयोजन सामूहिक रूप से होता है | आस – पास व् घाटों की सफाई लोग स्वयं समूह में करते हैं | व्रत पूजा आयोजन स्वयं ही किया जाता है | किसी पंडे की आवश्यकता नहीं होती | प्रसाद में चढ़ाई  जाने वाली  वस्तुएं सर्व सुलभ हैं व् कृषक वर्ग से जुडी हैं | इसलिए इसे लोक पर्व भी कहा जाता है | साथ – साथ पूजा करने अर्घ्य देने से समूह की भावना का विकास  होता है |

                 सूर्योपासना  व् लोक आस्था का पर्व छठ अपने धर्मिक सामजिक व् वैज्ञानिक महत्व के साथ – साथ  समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है |

स्मिता शुक्ला
पटना (बिहार ) 

 

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शरद पूर्णिमा – १६ कलाओं से युक्त चाँद जो बरसाता है प्रेम व् आरोग्यता

क्यों ख़ास है ईद का चाँद

दीपोत्सव – स्वास्थ्य सामाजिकता व् पर्यावरण की दृष्टि से महत्वपूर्ण

धनतेरस – दीपोत्सव का प्रथम दिन

 

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शरद पूर्णिमा : 16 कलाओं से युक्त चाँद जो बरसाता है प्रेम व् आरोग्यता https://www.atootbandhann.com/2017/10/sharad-purnima-16-kalayein-chand-hindi-blog-post93.html https://www.atootbandhann.com/2017/10/sharad-purnima-16-kalayein-chand-hindi-blog-post93.html#comments Thu, 05 Oct 2017 05:49:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2017/10/05/sharad-purnima-16-kalayein-chand-hindi-blog-post93/ शरद पूर्णिमा की रात यानी एक ऐसी रात जब चाँद और उसका अहसास कुछ ख़ास होता है | सोलह कलाओ से युक्त चाँद और  धरती पर फैली चाँद की चांदनी रहस्य , रोमांच और प्रेम का अद्भुत ताना बाना बुनती हैं | इस ताने बाने के पीछे एक सुखद संयोग है जब वृद्ध हो चुकी […]

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शरद पूर्णिमा की रात यानी एक ऐसी रात जब चाँद और उसका अहसास कुछ ख़ास
होता है | सोलह कलाओ से युक्त चाँद और  
धरती
पर फैली चाँद की चांदनी रहस्य , रोमांच और प्रेम का अद्भुत ताना बाना बुनती हैं |
इस ताने बाने के पीछे एक सुखद संयोग है जब वृद्ध हो चुकी वर्षा ऋतु बाल सुलभ
चंचलता लिए हुए शरद ऋतु के चाँद से मिलती है | दोनों का ये अटूट बंधन कुछ अनुपम ही
छटा बिखेरता है |


क्या है शरद पूर्णिमा के चाँद की सोलह कलाएं

 शरद पूर्णिमा का चाँद सोलह कलाओ से युक्त होता है | आम भाषा में कहें
तो सोलह कलाओ का अर्थ है पूर्ण ईश्वर | पुराणों  के अनुसार
 प्रभु राम 12 कलाओ से युक्त व् श्रीकृष्ण 16
कलाओ से युक्त थे | शरद पूर्णिमा का चाँद भी 16  कलाओं से युक्त होता है | अर्थात
शरद पूर्णिमा के दिन चन्द्र दर्शन का विशेष महत्व  है | अमृत , मनदा , पुष्प ,
पुष्टि , तुष्टि ,घ्रुती , शशिनी , चन्द्रिका
 काँटी ज्योत्स्ना , श्री , प्रीती , अंगदा , पूर्ण
और पुर्नामृत | ये चंद्रमा की 16  अवस्थाएं होती हैं | चन्द्र की इन 16 अवस्थाओ से
16 कलाओ का जन्म हुआ |

आध्यात्म और 16 कलाएं

 आध्यात्म के
अनुसार मन को चंद्रमा के सामान माना गया है | उसका अपना एक प्रकाश होता है | हम
मानव जीवन की तीन अवस्थाएं जानते हैं | इन अवस्थाओ से इतर जब मनुष्य सोलह कलाओं से
युक्त हो जाता है तब उसमें ईश्वरीय गुण आ जाते हैं | मन पूर्ण रूप से प्रकाशित हो
जाता है |यानी मन और बुद्धि के परे स्वयं का बोध हो जाता है | अमावस्या पूर्ण
अज्ञान की व् पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान की अवस्था है |


शरद पूर्णिमा के चाँद से झरता है अमृत


शरद पूर्णिमा को कौमुदी पूर्णिमा व् कोजागिरी पूर्णिमा भी कहते हैं
|मान्यता है की प्रभु श्री कृष्ण ने इसी दिन महा रास रचाया था | कहते हैं इस दिन
चंद्रमा की किरणों से अमृत झरता है | यह अमृत आध्यात्मिक महत्व वाला तो हैं ही
मनष्य के लौकिक जीवन के दो स्तम्भ स्वास्थ्य व् रिश्तों पर विशेष प्रभावशाली है
|जो जोड़े इस दिन चंद्रमा की चाँदनी का स्नान करते है वो “ अटूट बंधन “ में बंध  जाते हैं |

इसके अतरिक्त चंद्रमा की चांदनी में रखी हुई खीर सुबह खाने पर अनेकों
रोगों का नाश होता है | उत्तर भारत में इस दिन खीर बना कर चांदनी में रखने की परंपरा
है | जिसे सुबह प्रसाद के रूप में खाया जाता है |


शरद पूर्णिमा का धार्मिक महत्व


*मान्यता है की शरद पूर्णिमा के दिन माता लक्ष्मी का जन्म हुआ था | इस
कारण उनका विशेष पूजन अर्चन किया जाता है | इस दिन खरीदारी करने की भी परंपरा रही
है |

*कहते हैं की द्वापर युग में जब प्रभु श्री कृष्ण ने अवतार लिया था |
तब माँ लक्ष्मी ने राधा के रूप में अवतार लिया था | इसी दिन दोनों ने महारास रचाया
था और अपने अटूट बंधन को पहचाना था |
*मान्यता है की शिव पार्वती के पुत्र कुमार कार्तिकेय कास जन्म इसी
दिन हुआ था | शैव भक्त इसे कुमार पूर्णिमा भी कहते हैं |
* पश्चिमी बंगाल में कन्याएं आज के दिन सुबह नहा धो कर सूर्य चन्द्र
का पूजन करती हैं | व् सुयोग्य वर की प्रार्थना करती हैं |
* मान्यता ये भी है की शरद पूर्णिमा का व्रत पूजन करने से संतान
निरोगी व् दीर्घायु होती है |
* कहते है रावण भी शरद पूर्णिमा के दिन अपनी नाभि में चांदनी ग्रहण
करता था | जिसके कारण उसे अमर तत्व प्राप्त था |


शरद पूर्णिमा का वैज्ञानिक महत्व


विज्ञान के अनुसार शरद पूर्णिमा की चांदनी में वनस्पतियों व् औषधियों  की स्पंदन
क्षमता बढ़ जाती है | इसकी किरने भी विशेष आरोग्य दायक होती है | अत : व्यक्ति को
कम कपडे पहन कर चन्द्र स्नान अवश्य करना चाहिए |
शरद पूर्णिमा में क्यों खीर बनती है अमृत

             
शरद पूर्णिमा में खीर  खाने का विशेष महत्व हैं |कहते हैं की इस दिन
खीर अमृत बन जाती है | उसे रात्रि  10 से बारह बजे के बीच चांदनी में अवश्य रखना
चाहिए | दरसल दूध के लैक्टिक एसिड में चांदनी को ग्रह करने की क्षमता होती है | व्
चांदी
 के पात्र में रखने के कारण इसके कीटाणु
भी मर जाते हैं |
  इसे खाना इसलिए भी
जरूरी समझा गया क्योंकि ये खीर एक प्रतीक है की अब मौसम बदल रहा है ठंडी चीजें छोड़
कर गर्म चीजें खानी हैं | इसका एक कारण और भी है | शरद ऋतु  और वर्षा ऋतु के
संधिकाल में पित्त कुपित होता
 है | ठंडी  खीर पित्त को शांत करती है व् मौसमी रोगों से बचाती भी हैं |


शरद पूर्णिमा की पौराणिक व्रत कथा

शरद पूर्णिमा की व्रत कथा के अनुसार एक साहूकार था | उसके दो बेटियाँ
थी | दोनों बेटियों के
 बड़ी होने पर उसने दोनों
का विवाह कर दिया | विवाह के समय ही उसने दोनों बेटियों को समझाया की शरद पूर्णिमा
का व्रत लिया करो | दोनों बेटियों ने पिता की बात मानते हुए व्रत करना शुरू कर
दिया | जहाँ बड़ी बेटी पूरी श्रद्धा के साथ व्रत करती | छोटी व्रत शुरू तो करती पर
आधा ही छोड़ देती | समय बीतने लगा दोनों बेटियों के बच्चे हुए | बड़ी बेटी का परिवार
तो हंसी ख़ुशी से भर गया | पर छोटी बेटी के संतान होते ही मर जाती | वो दुखी रहने
लगी |


पिताजी को भी दुःख हुआ | वो बेटी की कुंडली पुरोहित को दिखाने ले गए |
पुरोहित ने कहा कि आपकी बेटी व्रत आधा छोड़ देती है इस कारण संतान जन्म लेते ही मर
जाती है | उन्होंने बेटी को पूरा व्रत करने को कहा | उस साल की शरद पूर्णिमा पर
छोटी बेटी ने व्रत रखा | व् पूरा पूजन कर के व्रत खोला | कुछ दिन बाद उसके बेटा
हुआ | पर वो भी जन्म लेते ही मर गया | छोटी बेटी बड़ी दुखी हुई |

उसने बच्चे की देह को कपडे से लपेट कर पाटे  पर रख दिया | बाहर से
देखने पर वो पाटे  पर रखा कुशन लग रहा था | फिर उसने अपनी बड़ी बहन को अपने घर खाने
पर बुलाया | बड़ी बहन उस पाटे
 पर बैठने ही
वाली थी की उसका घाघरा बच्चे से छू गया | बच्चा जीवित हो कर रोने लगा | बड़ी बहन ने
बच्चे को देखा तो छोटी से बोली ,” री पगली टू मुझसे इतन बड़ा पाप करवाने जा रही थी
| कहीं बच्चा मर जाता तो ? छोटी बहन बोली ,” नहीं दीदी ये तो मरा हुआ ही पैदा हुआ
था | आपके पुन्य के प्रताप से जीवित हो गया |
उसी समय आकाश वाणी हुई की जो कोई शरद पूर्णिमा का विधि पूर्वक व्रत
करेगा व् कथा सुनेगा उसके धन – धान्य , संतान की रक्षा होगी |
                     

शरद पूर्णिमा का धार्मिक ,
आध्यात्मिक व् वैज्ञानिक महत्व होने के साथ – साथ यह अप्रतिम सौन्दर्य के मनोहारी
छठा भी उत्पन्न करती हैं | जिसको देखना , अपनी समस्त इन्द्रियों के साथ महसूस करना
एक बड़ा ही अद्भुत अनुभव है |

ये था शरद पूर्णिमा पर निबंध : १६ कलाओं से युक्त चाँद जो बरसाता है
प्रेम व् आरोग्यता | आपको कैसा लगा | पसंद आने पर शेयर करें व् हमारा फेसबुक पेज लाइक  करें |
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नवरात्रि पर ले बेटी बचाओ , बेटी पढाओ का संकल्प https://www.atootbandhann.com/2017/09/blog-post_22-4.html https://www.atootbandhann.com/2017/09/blog-post_22-4.html#comments Fri, 22 Sep 2017 14:09:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2017/09/22/blog-post_22-4/ किरण सिंह  हिन्दू धर्म में व्रत तीज त्योहार और अनुष्ठान का विशेष महत्व है। हर वर्ष चलने वाले इन उत्सवों और धार्मिक अनुष्ठानों को हिन्दू धर्म का प्राण माना जाता है  इसीलिये अधिकांश लोग इन व्रत और त्योहारों को बेहद श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाते हैं।व्रत उपवास का धार्मिक रूप से क्या फल मिलता […]

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किरण सिंह 
हिन्दू धर्म में व्रत तीज त्योहार और अनुष्ठान का विशेष महत्व है। हर वर्ष चलने वाले इन उत्सवों और धार्मिक अनुष्ठानों को हिन्दू धर्म का प्राण माना जाता है  इसीलिये अधिकांश लोग इन व्रत और त्योहारों को बेहद श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाते हैं।व्रत उपवास का धार्मिक रूप से क्या फल मिलता है यह तो अलग बात है लेकिन इतना तो प्रमाणित है कि व्रत उपवास हमें संतुलित और संयमित जीवन जीने के लिए मन को सशक्त तो करते ही हैं साथ ही सही मायने में मानवता का पाठ भी पढ़ाते हैं!
वैसे तो सभी व्रत और त्योहारों के अलग अलग महत्व हैं किन्तु इस समय नवरात्रि चल रहा है तो नवरात्रि की विशिष्टता पर ही कुछ प्रकाश डालना चाहूंगी! नवरात्रि विशेष रूप से शक्ति अर्जन का पर्व है जहाँ माँ दुर्गा के नौ रूपों की पूजा की जाती है! 
शैलपुत्री – इसका अर्थ- पहाड़ों की पुत्री होता है।

ब्रह्मचारिणी – इसका अर्थ- ब्रह्मचारीणी।
चंद्रघंटा – इसका अर्थ- चाँद की तरह चमकने वाली।
कूष्माण्डा – इसका अर्थ- पूरा जगत उनके पैर में है।
स्कंदमाता – इसका अर्थ- कार्तिक स्वामी की माता।
कात्यायनी – इसका अर्थ- कात्यायन आश्रम में जन्मि।
कालरात्रि – इसका अर्थ- काल का नाश करने वली।
महागौरी – इसका अर्थ- सफेद रंग वाली मां।
सिद्धिदात्री – इसका अर्थ- सर्व सिद्धि देने वाली।

माँ दुर्गा के नौ रूपों से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि एक स्त्री समय समय पर अपना अलग अलग रूप धारण कर सकती है ! वह सहज है तो कठोर भी है, सुन्दर है तो कुरूप भी है, कमजोर है तो सशक्त भी है……तभी तो महिसासुर जैसे राक्षस जिससे कि सभी देवता भी त्रस्त थे उसका वध एक देवी  के द्वारा ही हो सका.! .  इसीलिए कन्या पूजन का विधान बनाया गया है ताकि स्त्रियों के प्रति सम्मान का भाव उत्पन्न हो सके ! 
शक्ति की उपासना का पर्व शारदीय नवरात्र का अनुष्ठान सर्वप्रथम श्रीरामचंद्रजी ने  समुद्र तट पर किया था और उसके बाद दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय भी प्राप्त की। तब से असत्य, अधर्म पर सत्य, धर्म की जीत का पर्व दशहरा विजय पर्व के रूप में मनाया जाने लगा।
जिस भारत वर्ष की संस्कृति और सभ्यता इतनी समृद्ध हो वहाँ पर स्त्रियों की यह दुर्दशा देखकर बहुत दुख होता है जिसके लिए स्त्री स्वयं भी दोषी हैं ! ठीक है त्याग, ममता, शील, सौन्दर्य उनका बहुमूल्य निधि है किन्तु अत्याचार होने पर सहने के बजाय काली का रूप धारण करना न भूलें !
आज की सबसे बड़ी समस्या है कन्या भ्रुण हत्या जिसे रोका जाना अति आवश्यक है! आज हरेक क्षेत्र में बेटियाँ बेटों से भी आगे निकल रही हैं तो क्यों न इस महापर्व में हम बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का मन से दृढ़ संकल्प लें! 
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देवी को पूजने वालों देवी को जन्म तो लेने दो https://www.atootbandhann.com/2017/09/devi-ko-janm-hindiblog-post79.html https://www.atootbandhann.com/2017/09/devi-ko-janm-hindiblog-post79.html#comments Thu, 21 Sep 2017 13:59:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2017/09/21/devi-ko-janm-hindiblog-post79/ संजीत शुक्ला नवरात्रों के दिन चल रहे हैं | हर तरफ श्रद्धालु अपनी मांगों की लम्बी कतार लिए देवी के दर्शन के लिए घंटों कतार में लगे रहते हैं | हर तरफ जय माता दी के नारे गूँज रहे हैं , भंडारे हो रहे हैं , कन्या पूजन हो रहा है | और क्यों न […]

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संजीत शुक्ला
नवरात्रों के दिन चल रहे हैं |
हर तरफ श्रद्धालु अपनी मांगों की लम्बी कतार लिए देवी के दर्शन के
लिए घंटों कतार में लगे रहते हैं
| हर तरफ जय माता दी के
नारे गूँज रहे हैं
, भंडारे हो रहे हैं , कन्या पूजन हो रहा है | और क्यों न हो जब माँ सिर्फ
माँ न हो कर शक्ति की प्रतीक हैं
|परंपरा बनाने वालों ने
सोचा होगा की शायद इस बहाने आम स्त्री को कुछ सम्मान मिले
, उसके
प्रति मर्यादित दृष्टिकोण हो
| कन्या को पूजने वाले अपने घर
की कन्याओं पर हो रहे अत्याचारों पर रोक लगाए
| पर दुर्भाग्य
,” कथनी और करनी में बहुत अंतर है | आज
भी आम स्त्री आम स्त्री ही है
| ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ
क्योंकि मेरे हाथ में अखबार है
| और उसमें छपी खबर मुझे
विचलित कर रही है
| खबर है दूसरी बार
कन्या पड़ा करने के जुर्म में एक स्त्री को उसके ससुराल वालों ने इतना मारा की उसकी
मृत्यु हो गयी
|


अभी ये खबर ज्यादा पुरानी नहीं हुई है जब दिल्ली में रहने वाली
मधुमति दो लड़कियों की माँ बनने के बाद जब तीसरी बार गर्भवती हुई तो उसने भ्रूण
परीक्षण कराया. ये पता लगने पर कि उसके भ्रूण में फिर एक कन्या पल रही है उसने
गर्भपात करा लिया|
भ्रूण हत्या की यह प्रक्रिया उसने इस उम्मीद के साथ आठ बार दोहराई
कि वो एक बेटे की माँ बन सके.एक अनुमान के अनुसार भारत में पिछले दस वर्षों में
क़रीब डेढ़ करोड़ लड़कियों को जन्म से पहले ही मार डाला गया या फिर पैदाइश के बाद
6
वर्षों के अंदर ही उनको मौत के मुँह में धकेल दिया गया |


कितना विरोधाभास है | एक तरफ हम कन्याओं की
पूजा करते हैं दूसरी तरफ कन्याओं को अवांछित  मान कर गर्भ में ही उनका समापन किया
जा रहा है
| बिगड़ते हुए लिंगानुपात चीक -चीख कर इस बात की
गवाही दे रहे हैं
| भले ही आज सरकार की तरफ से लिंग परिक्षण
पर रोक हो
| परन्तु चोरी छुपे यह व्यवसाय बहुत फल -फूल रहा
है
| और क्यों न हो ,जब समस्या सामाजिक
हो तो सरकारी प्रयास नाकाफी होते हैं
|आश्चर्य की बात है की
जितने विकसित राज्य है वहां लिगानुपात भयंकर तरीके से बिगड़ा हुआ है
| एक सामाजिक संस्था इसके खिलाफ चेताते हुए कहती है की अगर यह अनुपात इसी
तरह से घटता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब
विवाह के लिए कन्या
का अपहरण किया जाएगा
, उसकी इज़्ज़त पर हमले होंगे, उसे ज़बरदस्ती एक से अधिक पुरूषों की पत्नी बनने पर मजबूर भी किया जा सकता
है.
अरब जातियों में लड़कियों को ज़िंदा दफ़न करने की प्रथा
असभ्य काल में प्रचलित थी लेकिन भारत में कन्या भ्रूण हत्या की प्रथा उन क्षेत्रों
में उभरी है जहाँ शिक्षा
, ख़ासकर महिलाओं की शिक्षा काफी
उच्च दर पर है और लोगों का आर्थिक स्तर भी अच्छा है
|

अखिल भारतीय जनवादी महिला संगठन का कहना है ,
कि पिछले साल से मौजूदा साल में भ्रूण हत्या अधिक हो रही है । इस
बढ़ती भ्रूण हत्या के लिए केवल पुरुष को दोषी ठहराना ठीक नहीं होगा । आजकल तो पढ़ी-
लिखी महिलाएँ स्वयं भी क्लिनिक में जाकर लिंग टेस्ट करवाती हैं । अगर पहले बेटी है
और दूसरी आने वाली संतान भी कन्या है
, तब खुद ही डाक्टर से
कहती है
, हमें इसे खतम कराना है । फ़िर डाक्टर को भारी भरकम
पैसे का लोभ देकर कन्या भ्रूण हत्या करवाती है ।

ये सच है की हमारे देश में कन्या भ्रूण हत्या के पीछे सामाजिक सोंच
है
| चाहे वो बेटी को परायी मानने व् तर्पंण की अधिकारी न
होने की हो
, दहेज हो या बेटी को पालने में उसकी सुरक्षा का
ज्यादा ध्यान रखना हो
| कारण कुछ भी गिनाये जा सकते हैं |
उन को धीरे -धीरे दूर करने का प्रयास किया जा सकता है | सरकार अपनी तरफ से बेटी वाले घरों को कुछ विशेष सहूलियतें भी दे रही है |
पर जरूरट सोच बदलने की , मानसिकता बदलने और ये
समझने समझाने की

 देवी को पूजने
वालों देवी को जन्म तो लेने दो




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पूजा के समय सुनाई जाने वाली गणेश जी की चार कहानियाँ https://www.atootbandhann.com/2017/08/blog-post_90.html https://www.atootbandhann.com/2017/08/blog-post_90.html#comments Fri, 25 Aug 2017 05:59:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2017/08/25/blog-post_90/ गणेश चतुर्थी पर विशेष  प्रथम पूज्य गणेश जी की पूजा के बाद ही किसी दूसरे देवी देवता की पूजा होती है | अत : हर पूजा में गणेश जी की पूजा अनिवार्य है | पूजा के साथ गणेश जी की कहानियाँ  भी सुनाई जाती हैं | आज हम आके लिए वो चार कहानियाँ लाये हैं […]

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गणेश चतुर्थी पर विशेष 
प्रथम पूज्य गणेश जी की पूजा के बाद ही किसी दूसरे देवी देवता की पूजा होती है | अत : हर पूजा में गणेश जी की पूजा अनिवार्य है | पूजा के साथ गणेश जी की कहानियाँ  भी सुनाई जाती हैं | आज हम आके लिए वो चार कहानियाँ लाये हैं जो पूजा के समय सुनाई जाती हैं | 



कविता बिंदल 
जब राजा का महल टेढ़ा हो गया 


                             एक बुढिया थी | वह गणेश जी की बहुत पूजा किया करती थी | उसने घर में एक मंदिर में गणेश जी की छोटी सी प्रतिमा स्थापित कर रखी थी | बुढिया की बहू उसकी पूजा पथ से बहुत चिढती थी | एक दिन उसने मौका देख कर गणेश जी किप्रतिमा  कुंएं में फेंक दी | जब बुढिया वापस मंदिर में गयी तो प्रतिमा न पाकर जोर – जोर से रोने लगी | वह अर्द्ध विक्षिप्त सी शहर की ओर निकल पड़ी और हर आते – जाते व्यक्ति से कहने लगी ,” कोई मेरे गणेश जी की प्रतिमा बना दो | ” पर कौन बना पाता ? तभी उसे एक कारीगर मिला जो राजा का महल तैयार कर रहा था | बुढिया ने उससे भी वही बात कही | कारीगर ने उसे डांटते हुए कहा ,” अरे जितनी देर में मैं तेरे गणेश बनाऊंगा कोई दूसरा काम न कर लूँ जो मुझे पैसा मिले | बुढिया रोते हुए आगे बढ़ गयी | तभी कारीगर के पास खबर आई की राजा का महल तिरछा हो गया है व् राजा बहुत गुस्से में है | कारीगर को माजरा समझते देर न लगी | वो तुरंत बुढिया के पास गया और बोला ,” अम्मा ला मैं न तेरे गणेश बनाऊंगा बल्कि उनका मंदिर भी बनाऊंगा | कारीगर ने मंदिर बनाना शुरू किया | जैसे ही मंदिर में मूर्ति की स्थापना हुई राजा का महल सीधा हो गया | 


जैसे गणेश भगवान् ने राजा व् बुढिया पर दया की सब पर अपनी कृपा बनाए रखें | 
बोलो गणेश जी की जय 
————————————–


बुढिया की खीर 


                     एक बार गणेश जी एक बालक का रूप धर कर थोड़े से चावल व् चुल्लू भर दूध ले कर गाँव में घूमने निकले | वह हर किसी से प्रार्थना करते की मेरी खीर बना दो | सब उन पर हँसते ,” आते इत्ते से चावल व् दूध से क्या खीर बनेगी | तभी वो एक गरीब बुढिया के पास गए व् उससे भी खीर बनाने का आग्रह किया | बुढिया बच्चे का मन देख कर राजी हो गयी | उसने घर पहुँच कर दूध को कटोरी में डाला तो कटोरी भर गयी , फिर उसे भगौने में पलता तो वो भी भर गया | फिर बुढिया ने उसे घर के सबसे बड़े बर्तन में दूध पलता तो वो भी भर गया |बुढिया ये देख कर सकते में आ गयी वो गाँव की सबसे बड़ी देगची ले कर आई उसमें दूध पलटने पर वो भी भर गयी | बुढिया ने उसे चूल्हे पर चढ़ा कर खीर पकानी शुरू की | खीर की खुशबूं पूरे घर में फैलने लगी | बुढिया ने अपनी बहू से कहा ,मैं उस बच्चे को बुलाने जा रही हूँ तू खीर का ध्यान रखना | बुढिया के जाते ही बहू खुद को रोक न पायी उसने कटोरी में खीर निकाली व् एक चम्मच गणेश जी के नाम से दरवाजे के पीछे डाल कर खा ली | बुढिया ने उस बच्चे को ढूंढ कर उससे खीर खाने को कहा तो बच्चा बोला ,” अम्मा तुम्हारी बहू ने तो पहले ही मुझे भोग लगा दिया है | मेरा पेट भर गया | अब यह खीर गाँव भर में बाँट दो | बुढिया ने बच्चे की बात मान कर गाँव भर में खीर बाँट दी | सबने पेट भर के खायी | 


                                       जिस बुढिया के घर में खाने को नहीं था गणेश जी की कृपा से उसका घर धन धान्य से भर गया | ऐसे ही गणेश जी हर भक्त पर दया  करें | 
                                बोलो गणेश जी की जय 
————————————————–


जब गणेश जी को अपना वचन पूरा करना पड़ा 
                               एक बुढिया थी | वह अंधी थी व् अपने बेटे बहू के पास रहती थी | वह रात – दिन गणेश जीकी पूजा किया करती थी | एक दिन गणेश जी ने उससे पर प्रसन्न हो कर कहा , माई मैं तेरी पूजा से खुश हूँ तो जो चाहे मांग ले | 
अब बुढिया ने कहा ,” प्रभु मेरे पास तो सब कुछ है मैं क्या मांगूं | 
गणेश जी बोले ,” ठीक है तू अपने बेटे बहू से पूँछ कर मांग ले |
बुढिया  ने बेटे बहू से पूंछा 
बेटे ने कहा , ” अम्मा करोंड़ों रूपये मांग ले 
बहू ने कहा ,” अम्मा पोता मांग ले 
बुढिया असमंजस में पड़ गयी उसने पड़ोसी से पूंछा तो उन्होंने कहा , ” रुपया पैसा तेरे किस काम का अम्मा तू आँखों की रोशिनी मांग ले | 
रात भर बुढिया सोंचती रही | सुबह गणेश भगवान् फिर प्रगट हुए | बुढिया पहले से तैयार थी | वो बोली प्रभु आप मुझे ये वरदान दें की मैं करोंड़ों रूपये के महल में , मांग सिदुर टीका लगाए हुए , अपने पोते को गोद में बिठा कर उसे किताब पढ़ाते हुए मरुँ |
गणेश जी मुस्कुरा कर बोले अम्मा तुमने तो सब कुछ मांग लिया | पर मैंने वादा किया है इसलिए तुम्हे सब कुछ मिलेगा | तथास्तु कह कर गणेश जी अंतर्ध्यान हो गए | 


तो , जो भी गणेश जी की पूजा सच्चे ह्रदय से करता है उसे सब कुछ मिलता है |


बोलो गणेश भगवान् की जय 
…………………………………………………..


माता – पिता में ही हैं ईश्वर 
                           एक बार देवताओ पर बहुत बड़ी विपदा आई | देवता उसका समाधान करवाने शिव जी के पास गए | वहीँ गणेश जी व् कार्तिकेय जी भी बैठे थे | भगवान् शिव ने देवताओं का संकट सुन कर दोनों से पूंछा की कौन देवताओं की मदद के लिए जाएगा | दोनों ही तैयार थे | शिव जी एक को ही भेजना चाहते थे | अत : बोले ,”जो तीनों लोकों की परिक्रमा कर के पहले लौटे गा वही देवताओं की सहायता कर सकेगा | अब कार्तिकेय जी तो मोर पर बैठ कर फुर्र से उड़ गए |  परन्तु गणेश जी वहीं खड़े सोंचते रहे की मूषक पर बैठ कर कैसे तीनों लोकों का चक्कर लगायेंगे | गणेश जी ने थोड़ी देर सोंचा व् शिव – पारवती की की सात बार परिक्रमा कर कहा ,” क्योंकि माता – पिता में सभी लोक बसते हैं अत : आप दोनों की परिक्रमा कर मैंने सभी लोकों की परिक्रमा कर ली | शिव जी मुस्कुराए और उन्होंने गणेश जी को विजेता घोषित कर दिया | 


                                     माता – पिता ही धरती पर ईश्वर का रूप हैं | यह गणेश जी ने सिद्ध कर दिया | जो माता – पिता की सेवा करता है उसे हर सुख प्राप्त होता है | 


बोलो गणेश जी की जय | 


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देवशयनी एकादशी -जब श्रीहरी विष्णु होंगे योगनिद्रा में लीन https://www.atootbandhann.com/2017/07/blog-post_34.html https://www.atootbandhann.com/2017/07/blog-post_34.html#respond Tue, 04 Jul 2017 06:19:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2017/07/04/blog-post_34/                                     नीलम गुप्ता दोस्तों ,  आज देवशयनी एकादशी है | हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार आज ही के दिन श्री हरी विष्णु योग निद्रा में लीन हो जायेंगे व् चार मॉस बाद  पुन : उठ कर अपना […]

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नीलम गुप्ता

दोस्तों ,
 आज देवशयनी एकादशी है | हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार आज ही के दिन श्री हरी विष्णु योग निद्रा में लीन हो जायेंगे व् चार मॉस बाद  पुन : उठ कर अपना कार्यभार  समभालेंगें | क्योंकि विष्णु भगवान् धरती को सुचारू रूप से चलाने का काम करते हैं | इसके लिए उनके पास देवताओं की एक पूरी टीम होती है | पर   उनके सोते ही देवता भी सो जाते हैं | सही भी है जब प्रधान सो जाएगा तो सेवक भी सो ही जायेंगे | जैसे क्लास टीचर अगर एक झपकी मार ले तो बच्चे शरारत पर उतर ही आते हैं | ठीक वैसे ही  इस शयन काल में पाप बढ़ जाने का भी रहता है | क्योंकि मानव के अंदर छुपा शरारती बच्चा शरारतों अथार्त पापों की और आसक्त होने लगता है | इसी  कारण भक्तों के लिए ये जरूरी हो जाता है की वो चार मॉस तक सचेत रहे | पूजा पाठ  में ध्यान लगायें | जिससे पाप का प्रतिशत बढ़ने न पाए | यानी की ये देवशयनी एकादशी भक्तों के लिए ” वार्निंग “है … की भाई हम तो अब सो रहे हैं धरती को पापों से बचाना तुम्हारा काम है | यानी देवताओं के सोने का समय भक्तों के जागने का समय है |

जानिये कब सोते – कब उठते हैं देवता 
                                  हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार आसाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी एकादशी कहते हैं | इस दिन देवता शयन करते हैं | इसे पद्मनाभा भी कहते हैं | यह दिन सूर्य के मिथुन राशि में आने के बाद आता है | फिर चार  महीने सोने के बाद सूर्य के तुला राशि में आने के बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को उन्हें उठाया जाता है | उस दिन को देवउठानी एकादशी कहते हैं | इस चार महीने के समय को चातुर्मास कहा गया है |

क्यों सोते हैं देवता 
                         जब प्रथ्वी पर जीवन उत्पन्न करने का ख्याल ईश्वर  के मन में आया | तो उन्होंने इसके तीन भाग बना दिए | जन्म , जीवन काल और मरण | तीनों का समुचित सञ्चालन करने के लिए तीनों देवों ने अपना – अपना कार्यभार बाँट लिया | अब तीनों देवता एक साथ तो सो नहीं सकते | इसलिए उन्होंने
न शयन काल भी बाँट लिया | यानी तीनों देव बारी – बारी से चार महीने के लिए सोते हैं | देवशयनी एकादशी से देव उत्थानी तक विष्णु , देवुत्थानी से महाशिवरात्रि तक शिव व् महाशिवरात्रि से देवशयनी तक ब्रह्मा |  ये सब चार – चार महीने की नींद लेते हैं | 24 घंटे का दिन प्रथ्वी पर होता है | हो सकता है देव लोक का दिन एक वर्ष का होता हो | उस आधार पर भी ये गड़ना सही प्रतीत होती है |

क्या है धर्मिक कारण 
                                  हिन्दू धर्म  की मान्यता के अनुसार जब श्री हरी प्रभु ने वामन रूप रख कर राजा बलि से दक्षिणा में तीन पाँव धरती मांगी तो उन्होंने एक पाँव से धरती आकाश ढक लिया , दूसरे  में स्वर्ग लोक और तीसरे के लिए राजा बलि ने खुद को प्रभु चरणों में समर्पित  कर दिया |प्रभु उसकी भक्ति से प्रसन्न हुए | बलि ने  श्री हरी से उनके लोक में ही रहने का वरदान मांग लिया | अब लक्ष्मी जी चिंतित हुई | उन्होंने बलि को भाई बना लिया व् उनसे वादा ले लिया की श्री हरी केवल चार महीने उसके लोक में रहेंगे | यही समय चातुर्मास कहलाया |

देवशयनी एकादशी  विज्ञान के अनुसार 
                                            हमारी धर्मिक मान्यताओं का कोई न कोई वैज्ञानिक कारण तो होता ही है | अब देवशयनि एकादशी को ही लें | हरी शब्द के कई अर्थ होते हैं | यह देवताओं , विष्णु के अतिरिक्त सूर्य चंद्रमा के लिए भी प्रयुक्त होता है | जैसा की आप जानते हैं की ये चातुर्मास बारिश का मौसम भी है |बारिश यानी बादल , सूर्य और चंद्रमा का तेज कम हो जाना , वर्षा और कीचड | यानी ये मौसम है बीमारियों का मौसम | वैज्ञानिकों  के अनुसार भी बारिश के मौसम में  आद्रता व् गर्मी का खतरनाक संयोंग होता है | जो कीटाणुओं के बढ़ने के लिए   बहुत मुफीद समय है | अब इस मौसम में  कीटाणु बहुतायत से पनपते हैं इस लिए सावधान रहने की जरूरत है | नहीं तो बीमार पड़ने की पूरी सम्भावना है | इसी कारण  यज्ञ मांगलिक कार्य आदि   सब प्रतिबंधित कर दिए  | जिससे उसमें व्यवधान न आये | वहीं शादी ब्याह , कामकाज इन अन्न जल दूषित हो कर एक बड़े समूह के रोग या मृत्यु का कारण न बने |
व्रत विधि 
                    एक रात्रि पहले से ही बरह्मचर्य व्रत का पालन करें , स्न्नंदी करे व् गीता पाठ करें , ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र का पाठ करें | भगवान् के सामने प्रण करें की सभी नेम – नियमों का पालन करूँगा | व्रत में फलाहार लें | अगले दिन सुबह व्रत का पारण करें |


जानिये व्रत कथा 

एक बार देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से इस एकादशी के
विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की
, तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया- सतयुग
में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत
सुखी थी। किंतु भविष्य में क्या हो जाए
, यह कोई नहीं जानता।
अतः वे भी इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला
है।
उनके राज्य में पूरे तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल
पड़ा। इस दुर्भिक्ष (अकाल) से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ
, हवन,
पिंडदान, कथा-व्रत आदि में कमी हो गई। जब
मुसीबत पड़ी हो तो धार्मिक कार्यों में प्राणी की रुचि कहाँ रह जाती है। प्रजा ने
राजा के पास जाकर अपनी वेदना की दुहाई दी।
राजा तो इस स्थिति को लेकर पहले से ही दुःखी थे। वे सोचने लगे कि
आखिर मैंने ऐसा कौन- सा पाप-कर्म किया है
, जिसका दंड मुझे इस रूप में मिल रहा है?
फिर इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा
सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए। वहाँ विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्माजी के
पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुँचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। ऋषिवर ने
आशीर्वचनोपरांत कुशल क्षेम पूछा। फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का
प्रयोजन जानना चाहा।
तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा- महात्मन्‌! सभी प्रकार से धर्म का पालन
करता हुआ भी मैं अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूँ। आखिर किस कारण से
ऐसा हो रहा है
, कृपया इसका समाधान करें।यह सुनकर महर्षि अंगिरा ने कहा- हे राजन! सब युगों
से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है।
इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है। ब्राह्मण के
अतिरिक्त किसी अन्य जाति को तप करने का अधिकार नहीं है जबकि आपके राज्य में एक
शूद्र तपस्या कर रहा है। यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। जब
तक वह काल को प्राप्त नहीं होगा
, तब तक यह दुर्भिक्ष शांत नहीं होगा।
दुर्भिक्ष की शांति उसे मारने से ही संभव है।
किंतु राजा का हृदय एक नरपराधशूद्र तपस्वी का शमन करने को तैयार
नहीं हुआ। उन्होंने कहा-
हे देव मैं उस निरपराध को मार दूँ,
यह बात मेरा मन स्वीकार नहीं कर रहा है। कृपा करके आप कोई और उपाय
बताएँ।
महर्षि अंगिरा ने बताया- आषाढ़
माह के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत करें। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा
होगी।
राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए और चारों वर्णों सहित पद्मा
एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलधार वर्षा
हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।
                            तो आप भी आध्यात्मिक उन्नति के लिए करे एकादशी व्रत व् रोगों से बचने के लिए चातुर्मास में अपनी सेहत का विशेष ख्याल रखे | 


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शिवलिंग की व्याख्या अलग -अलग लोग अलग अलग तरीके से देते हैं |कामदेव को जीतने वाले प्रभु शिव के ज्योतिर्लिंग की कुछ व्याख्याएं तो शिव भक्तों के गले से नीचे नहीं उतरती हैं | परन्तु जानकारी का आभाव तर्क को काट नहीं पाता | आज हम आप को शिवलिंग की शास्त्रोक्त व्याख्या बताते हैं ……….
शिवलिंग वातावरण सहित घूमती धरती तथा सारे अनन्त ब्रह्माण्ड (क्योंकि, ब्रह्माण्ड गतिमान है) का अक्स/धुरी (axis) ही लिंग है।
दरअसल ये गलतफहमी भाषा के रूपांतरण और, हमारे पुरातन धर्म ग्रंथों को नष्ट कर दिए जाने तथा, अंग्रेजों द्वारा इसकी व्याख्या से उत्पन्न हुआ हो सकता है! खैरजैसा कि हम सभी जानते है कि एक ही शब्द के विभिन्न भाषाओँ में अलग-अलग अर्थ निकलते हैं! उदाहरण के लिए यदि हम हिंदी के एक शब्द “सूत्र” को ही ले लें तो सूत्र मतलब डोरी/ धागागणितीय सूत्र कोई भाष्य अथवा लेखन भी हो सकता है जैसे कि नासदीय सूत्रब्रह्म सूत्र इत्यादि! उसी प्रकार “अर्थ” शब्द का भावार्थ: सम्पति भी हो सकता है और मतलब भी! ठीक बिल्कुल उसी प्रकार शिवलिंग के सन्दर्भ में लिंग शब्द से अभिप्राय चिह्न, निशानी, गुण, व्यवहार या प्रतीक है। ध्यान देने योग्य बात है कि “लिंग” एक संस्कृत का शब्द है जिसके निम्न अर्थ है :
1.) त आकाशे न विधन्ते -वै०। अ ० २ । आ ० १ । सू ० ५

अर्थात रूप, रस, गंध और स्पर्श ये लक्षण आकाश में नही है किन्तु शब्द ही आकाश का गुण है ।
2.) निष्क्रमणम् प्रवेशनमित्याकश स्य लिंगम् -वै०। अ ० २ । आ ० १ । सू ० २०
अर्थात जिसमे प्रवेश करना व् निकलना होता है वह आकाश का लिंग है अर्थात ये आकाश के गुण है ।
3.) अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि । -वै०। अ ० २। आ ० २ । सू ० ६
अर्थात जिसमे अपर, पर, (युगपत) एक वर, (चिरम) विलम्ब, क्षिप्रम शीघ्र इत्यादि प्रयोग होते है, इसे काल कहते है, और ये काल के लिंग है ।
4.) इत इदमिति यतस्यद्दिश्यं लिंगम । -वै०। अ ० २ । आ ० २ । सू ० १ ०
अर्थात जिसमे पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर व् नीचे का व्यवहार होता है उसी को दिशा कहते है मतलब किये सभी दिशा के लिंग है ।
5.) इच्छाद्वेषप्रयत ्नसुखदुःखज्ञाना न्यात्मनो लिंगमिति – न्याय० अ ० १ । आ ० १ । सू ० १ ०
अर्थात जिसमे (इच्छा) राग, (द्वेष) वैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ, सुख, दुःख, (ज्ञान) जानना आदि गुण हो, वो जीवात्मा है और, ये सभी जीवात्मा के लिंग अर्थात कर्म व् गुण है । इसीलिए शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने के कारन इसे लिंग कहा गया है। स्कन्दपुराण में स्पष्ट कहा है कि आकाश स्वयं लिंग है एवं, धरती उसका पीठ या आधार है और, ब्रह्माण्ड का हर चीज अनन्त शून्य से पैदा होकर अंततः उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा है|
यही कारण है कि इसे कई अन्य नामो से भी संबोधित किया गया है जैसे कि: प्रकाश स्तंभ/लिंग, अग्नि स्तंभ/लिंग, उर्जा स्तंभ/लिंग, ब्रह्माण्डीय स्तंभ/लिंग इत्यादि! यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि इस ब्रह्माण्ड में दो ही चीजे है| ऊर्जा और प्रदार्थ! इसमें से हमारा शरीर प्रदार्थ से निर्मित है जबकि आत्मा एक ऊर्जा है| ठीक इसी प्रकार शिव पदार्थ और शक्ति ऊर्जा का प्रतीक बन कर शिवलिंग कहलाते हैं|
वैज्ञानिक दृष्टिकोण
क्योंकि ब्रह्मांड में उपस्थित समस्त ठोस तथा उर्जा शिवलिंग में निहित है! अगर इसे धार्मिक अथवा आध्यात्म की दृष्टि से बोलने की जगह शुद्ध वैज्ञानिक भाषा में बोला जाए तो हम कह सकते हैं कि शिवलिंग और कुछ नहीं बल्कि हमारे ब्रह्मांड की आकृति है और अगर इसे धार्मिक अथवा आध्यात्म की भाषा में बोला जाए तो शिवलिंग भगवान शिव और देवी शक्ति (पार्वती) का आदि-अनादि एकल रूप है तथा पुरुष और प्रकृति की समानता का प्रतीक है! अर्थात शिवलिंग हमें बताता है कि इस संसार में न केवल पुरुष का और न ही केवल प्रकृति (स्त्री) का वर्चस्व है बल्कि, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और दोनों ही समान हैं|शिवलिंग की पूजा को ठीक से समझने के लिए आप जरा आईसटीन का वो सूत्र याद करें जिसके आधार पर उसने परमाणु बम बनाया था! क्योंकि उस सूत्र ने ही परमाणु के अन्दर छिपी अनंत ऊर्जा की एक झलक दिखाई जो कितनी विध्वंसक थी ये सर्वविदित है| और परमाणु बम का वो सूत्र था e / c = m c {e=mc^2} अब ध्यान दें कि ये सूत्र एक सिद्धांत है जिसके अनुसार पदार्थ को पूर्णतया ऊर्जा में बदला जा सकता है अर्थात, अर्थात पदार्थ और उर्जा दो अलग-अलग चीज नहीं बल्कि, एक ही चीज हैं परन्तु वे दो अलग-अलग चीज बनकर ही सृष्टि का निर्माण करते हैं!
जिस बात को आईसटीन ने अभी बताया उस रहस्य को हमारे ऋषियो ने हजारो-लाखों साल पहले ही ख़ोज लिया था| यह सर्वविदित है कि हमारे संतों/ऋषियों ने हमें वेदों और उपनिषदों का ज्ञान लिखित रूप में प्रदान किया है, परन्तु, उन्होंने कभी यह दावा नहीं किया कि यह उनका काम है बल्कि, उन्होंने हर काम के अंत में स्वीकार किया कि वे हमें वही बता रहे हैं ज उन्हें अपने पूर्वजों द्वारा कहा गया है| लगभग १३७ खरब वर्ष पुराना सार्वभौमिक ज्ञान हमें तमिल और संस्कृत जैसी महान भाषाओँ में उपलब्ध होता है और भावार्थ बदल जाने के कारण इसे किसी अन्य भाषा में पूर्णतया अनुवाद नही किया जा सकता| कम से कम अंग्रेजी जैसी कमजोर भाषा में तो बिलकुल नही।
इसके लिए एक बहुत ही छोटा सा उदाहरण देना ही पर्याप्त होगा कि आज “गूगल ट्रांसलेटर” में लगभग सभी भाषाओँ का समावेश है परन्तु संस्कृत का नही क्योंकि संस्कृत का व्याकरण विशाल तथा दुर्लभ है! कुछ समय पहले जब नासा के वैज्ञानिकों नें अपने उपग्रह आकाश में भेजे और उनसे रेडार के द्वारा इंग्लिश में संपर्क करने की कोशिश की, जो वाक्य उन्होंने पृथ्वी से आकाश में भेजे उपग्रह के प्रोग्राम में वो सब उल्टा हो गया और उन सबका उच्चारण ही बदल गया| इसी तरह वैज्ञानिक नै १०० से ज्यादा भाषाओँ का प्रयोग किया लेकिन सभी में यही परेशानी हुई कि वाक्यों का अर्थ ही बदल जा रहा था| बाद में वैज्ञानिकों नें संस्कृत भाषा का उपयोग किया तो सारे वाक्य सही अर्थ में उपग्रह को मिले और फिर सही से सभी वाक्यों का सही संपर्क मिल सका| कोई भी प्प्राणी नासा वाली बात का सबूत गूगल पर सर्च कर सकते हैं|
खैर हम फिर शिवलिंग पर आते हैं शिवलिंग का प्रकृति में बनना हम अपने दैनिक जीवन में भी देख सकते है जब कि किसी स्थान पर अकस्मात् उर्जा का उत्सर्जन होता है तो, उर्जा का फैलाव अपने मूल स्थान के चारों ओर एक वृताकार पथ में तथा उपर व नीचे की ओर अग्रसर होता है अर्थात दशो दिशाओं (आठों दिशों की प्रत्येक डिग्री (360 डिग्री)+ ऊपर व नीचे ) होता है| जिसके फलस्वरूप एक क्षणिक शिवलिंग आकृति की प्राप्ति होती है उसी प्रकार बम विस्फोट से प्राप्त उर्जा का प्रतिरूप एवं, शांत जल में कंकर फेंकने पर प्राप्त तरंग (उर्जा) का प्रतिरूप भी शिवलिंग का निर्माण करते हैं! दरअसल सृष्टि के आरम्भ में महाविस्फोट के पश्चात् उर्जा का प्रवाह वृत्ताकार पथ में तथा ऊपर व नीचे की ओर हुआ फलस्वरूप एक महाशिवलिंग का प्राकट्य हुआ जिसका वर्णन हमें लिंगपुराण, शिवमहापुराण, स्कन्द पुराण आदि में इस प्रकार मिलता है कि आरम्भ में निर्मित शिवलिंग इतना विशाल (अनंत) तथा की देवता आदि मिल कर भी उस लिंग के आदि और अंत का छोर या शाश्वत अंत न पा सके।
हमारे पुराणो में कहा गया है कि प्रत्येक महायुग के पश्चात समस्त संसार इसी शिवलिंग में समाहित (लय) होता है तथा इसी से पुनः सृजन होता है । इस तरह सामान्य भाषा में कहा जाए तो उसी आदि शक्ति के आदि स्वरुप (शिवलिंग ) से इस समस्त संसार की उत्पति हुई तथा उसका यह गोलाकार/ सर्पिलाकार स्वरुप प्रत्यक्ष अथवा प्ररोक्ष तथा प्राकृतिक अथवा कृत्रिम रूप से हमारे चारों और स्थित है और, शिवलिंग का प्रतिरूप ब्रह्माण्ड के हर जगह मौजूद है जैसे कि 1 हमारी आकाश गंगा , हमारी पडोसी अन्य आकाश गंगाएँ (पांच -सात -दस नही, अनंत है), ग्रहों, उल्काओं आदि की गति (पथ), ब्लैक होल की रचना , संपूर्ण पृथ्वी पर पाए गये सर्पिलाकार चिन्ह (जो अभी तक रहस्य बने हए है और, हजारों की संख्या में है तथा, जिनमे से अधिकतर पिरामिडों से भी पुराने है। ), समुद्री तूफान , मानव डीएनए, परमाणु की संरचना इत्यादि! इसीलिए तो शिव को शाश्वत एवं अनादी, अनत निरंतर भी कहा जाता है! याद रखो सही ज्ञान ही आधुनिक युग का सबसे बड़ा हथियार है|

प्रेषक – कविता बिंदल

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