mental disorder Archives - अटूट बंधन https://www.atootbandhann.com/tag/mental-disorder हिंदी साहित्य की बेहतरीन रचनाएँ एक ही जगह पर Tue, 30 Jun 2020 12:06:28 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.1.6 अधजली https://www.atootbandhann.com/2020/06/%e0%a4%85%e0%a4%a7%e0%a4%9c%e0%a4%b2%e0%a5%80.html https://www.atootbandhann.com/2020/06/%e0%a4%85%e0%a4%a7%e0%a4%9c%e0%a4%b2%e0%a5%80.html#respond Tue, 30 Jun 2020 06:00:40 +0000 https://www.atootbandhann.com/?p=6692 हिस्टीरिया तन से कहीं अधिक मन का रोग है | तनाव का वो कौन सा बिंदु है जिसमें मन अपना सारा तनाव शरीर को सौप देता है …यही वो समय है जब रोगी के हाथ पैर अकड़ जाते हैं, मुँह भींच जाता है और आँखें खुली घूरती सी हो जाती है | हिस्टीरिया का मरीज […]

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हिस्टीरिया तन से कहीं अधिक मन का रोग है | तनाव का वो कौन सा बिंदु है जिसमें मन अपना सारा तनाव शरीर को सौप देता है …यही वो समय है जब रोगी के हाथ पैर अकड़ जाते हैं, मुँह भींच जाता है और आँखें खुली घूरती सी हो जाती है | हिस्टीरिया का मरीज ज्यादातर लोगों ने देखा होगा …दुनिया से बेखबर, अर्धचेतन अवस्था  में अपने सारे तनाव को शरीर को सौपते हुए, किसी ऐसे बिंदु पर जहाँ चेतन और अवचेतन जगत एकाकार हो जाते हैं |   ऐसी ही तो थी कुमकुम …सुन्दर , सुशील सहज जिसकी ख़ुशी की खातिर  उसके बेरोजगार भाई ने पकडूआ ब्याह (बिहार के कुछ हिस्सों  की एक प्रथा जिसमे लड़कों को पकड कर जबरदस्ती विवाह करा दिया जाता है )के तहत ब्याह दिया एक नौकरी वाले लड़के से |जिसने उसे कभी नहीं अपनाया | बरसों बिंदी, चूड़ी और सिंदूर के साथ प्रतीक्षारत कुमकुम के तन  का तनाव मन पर उतर आया, उसे खुद भी पता नहीं चला | जिसका गुनहगार भाई ने खुद को माना और सजा मिली एक और निर्दोष स्त्री को, भले ही वो कुमकुम की भाभी हो पर उसके साथ बहनापा भी था उसका | अधजली  कहानी है मन की उलझन की, तन और मन के रिश्ते की …बहनापे और इर्ष्या के द्वन्द की और स्त्री की अपूर्ण इच्छाओं की | स्त्री यौनिकता की बात करती ये कहानी भाषा के स्तर पर कहीं भी दायें बाये नहीं होती | आइये पढ़ें सिनीवाली शर्मा जी की कहानी ….

अधजली

 

इस घर के पीछे ये नीम का पेड़ पचास सालों से खड़ा है। देख रहा है सब कुछ। चुप है पर गवाही देता है बीते समय की! आज से तीस साल पहले, हाँ तीस साल पहले !

इस पेड़ पर चिड़ियाँ दिन भर फुदकती रहती, इस डाल से उस डाल। घर आँगन इनकी आवाज से गुलजार रहता। आज सुबह सुबह ही चिड़ियों के झुंड ने चहचहाना शुरू कर दिया था, चीं…चीं… चूं…चूं…! बीच बीच में कोयल की कूहू की आवाज शांत वातावरण में संगीत भर रही थी कि तभी कई पत्थर के टुकड़े इस पेड़ पर बरसने लगे! चिड़ियों के साथ उनकी चहचहाहट भी उड़ गई, रह गई तो केवल पत्थरों के फेंकने की आवाज के साथ एक और आवाज, ‘‘ उड़, तू भी उड़…उड़ तू भी! सब उड़ गईं और तू…तू क्यों अकेली बैठी है…तू भी उड़ !‘‘

‘‘ क्या कर रही हो बबुनी ? यहाँ कोई चिड़िया नहीं है… एक भी नहीं, सब उड़ गईं, चलो भीतर चलो‘‘ , शांति कुमकुम का हाथ खींचती हुई बोली।

‘‘ नहीं, वो नहीं उड़ी ! मेरे उड़ाने पर भी नहीं उड़ती। उससे कहो न उड़ जाए, नहीं तो अकेली रह जाएगी मेरी ही तरह !‘‘ बोलते

हुए उसकी आवाज काँपने लगी, भँवें तनने लगीं और आँखें कड़ी होने लगीं। वो तेजी से भागती हुई बरामदे पर आई और बोलती रही, ‘‘ अकेली रह जाएगी, अकेली…उड़, तू भी उड़…उड़…!‘‘

बोलते बोलते कुमकुम वहीं बरामदे पर गिर गई। सिंदूर के ठीक नीचे की नस ललाट पर जो है वो अक्सर बेहोश होने पर तन जाती है उसकी। हाथ पैर की उंगलियां अकड़ जाती हैं। कभी दाँत बैठ जाता है तो कभी बेहोशी में बड़बड़ाती रहती है।

शांति कुमकुम की ये हालत देखकर दरवाजे की ओर भागी और घबराती हुई बोली, ‘‘ सुनिएगा !‘‘

ये शब्द महेंद्र न जाने कितनी बार सुन चुका है। शांति की घबराती आवाज ही बता देती है कि कुमकुम को फिर बेहोशी का दौरा आया है। कितने डॅाक्टर, वैध से इलाज करा चुका है, सभी एक ही बात कहते हैं, मन की बीमारी है!

‘‘आ…आ ‘‘

‘‘तुम…तुम, मैं…मैं…!‘‘

ये सब देखकर महेंद्र के भीतर दबी अपराध बोध की भावना सीना तानकर उसके सामने खड़ी हो जाती। कुमकुम की बंद आँखों से भी वो नजर नहीं मिला पाता। सिरहाने बैठकर वो उसके माथे को सहलाने लगता और शांति कुमकुम के हाथ पैर की अकड़ी हुई उंगलियों को दबा कर सीधा करने की कोशिश करने लगती।

महेन्द्र पानी का जोर जोर से छींटा तब तक उसके चेहरे पर मारता जब तक कुमकुम को होश नहीं आ जाता। होश आने के बाद कुछ

देर तक कुमकुम की आँखों में अनजानापन रहता। वो चारों ओर ऐसे शून्य निगाहों से देखती जैसे यहाँ से उसका कोई नाता ही न हो। धीरे धीरे पहचान उसकी आँखों में उतरती।

कुमकुम धीरे से बुदबुदायी, ‘‘ दादा…दादा !‘‘

महेंद्र के भीतर आँसुओं का अथाह समुद्र था पर आँखें सूखी ! वो कुमकुम का माथा सहलाता रहा।

‘‘ दादा, क्या हुआ था मुझे ?‘‘ कुमकुम की आवाज कमजोर थी।

‘‘कुछ नहीं…बस तुम्हें जरा सा चक्कर आ गया था।ये तो होता रहता है। अब तुम एकदम ठीक हो।‘‘

‘‘ हाथ पैर में दर्द हो रहा है, लगता है देह में जान ही नहीं हो,

जैसे किसी ने पूरा खून चूस लिया हो‘‘

‘‘ तुम आराम करो, भौजी पैर दबा रही है।‘‘

‘‘ पता नहीं क्यों…मैं बराबर चक्कर खा कर गिर जाती हूँ !‘‘

महेंद्र के पास इसका कोई जवाब नहीं था। ‘‘ इसका ध्यान रखना‘‘, इतना बोलकर उसका माथा एक बार बहुत स्नेह से सहला कर वो चला गया।

महेंद्र के जाने के कुछ देर बाद तक कुमकुम, शांति को गौर से देखती रही।

‘‘भौजी, दादा कुछ बताते नहीं, मुझे क्या हुआ है ! डाक्टर क्या कहता है मुझे बताओ तो !‘‘

‘‘ तुम्हें आराम करने के लिए कहा है‘‘, कुमकुम का हाथ सहलाती हुई शांति बोली।

‘‘ भौजी, क्या डाक्टर सब समझता है, मुझे क्या हुआ है ?‘‘

‘‘ हाँ, बबुनी ! वो डाक्टर है न !‘‘

‘‘तुम तो ऐसे बोल रही हो जैसे वो डाक्टर नहीं भतार हो !‘‘

शांति के चेहरे पर मुस्कुराहट की बड़ी महीन सी लकीर खिंच गई।

‘‘ जाओ भौजी, तुम्हें भी काम होगा। मैं भी थोड़ी देर में आती

हूँ…अभी उठा नहीं जाता !‘‘

‘‘ मैं तो कहती हूँ थोड़ी देर सो जाओ, रात में भी देर तक जगना होगा।‘‘

‘‘ क्यों ?‘‘

‘‘ याद नहीं कल गौरी का ब्याह है और आज रात मड़वा ( मंडपाच्छादन ) है। मैं तो जा नहीं सकती, तुम्हें ही जाना पड़ेगा, नहीं तो कल कौन…!‘‘ बोलते बोलते शांति बिना बात पूरी किए तेजी से बाहर निकल गई। बेहोशी से आई कमजोरी के कारण कुमकुम की आँख लग गई।

सपने में कुमकुम ने देखा, नीले आकाश में उजले उजले बादल रुई की तरह तैर रहे हैं। दो उजले बादलों का टुकड़ा आपस में टकराया और नीला आकाश सिंदूरी हो गया। जहाँ दोनों बादल टकराए थे, वहीं से एक सुंदर युवक निकल कर उसकी ओर आ रहा है। उसकी माँग और वो भी सिंदूरी हुई जा रही है । युवक उसकी ओर मुस्कुराते हुए बढ़ता चला आ रहा है, आहिस्ता आहिस्ता। उसका सीना चैड़ा है और बाहें बलिष्ठ, होठों पर गुलाबी मुस्कान है और बाल काले घुंघराले हैं। आँखें, उसकी आँखों को देखने से पहले ही कुमकुम की आँखें लाज से झुकी जा रही हैं। युवक उसके पास, बहुत पास आ जाता है, कुमकुम की सांसें तेज होने लगती हैं। उन दोनों की सांसें एक होतीं कि बादलों का रंग अचानक काला हो गया और तभी, दो काले बादल आपस में टकरा गयें ! भयंकर गर्जना हुयी, आकाश में बिजली चमकने लगी। इस चमक में उस युवक का चेहरा इतना डरावना और भयंकर दिखा कि कुमकुम डर से चीखने लगी और वह पसीने

से नहा गयी। तभी उसकी नींद टूट गयी।

घबराई हुई वो उठ बैठी और सोचने लगी, ‘‘ वही, हाँ वही तो थे पर इतना डरावना चेहरा ! क्यों हो गया उनका ! पर कैसे कहूँ कि वही थे…उनका चेहरा आजतक तो ठीक से देखा भी नहीं है मैंने ! सालों बीत गए।‘‘

ठंडी सांस लेकर कुमकुम बिछावन पर लेट गई। ‘‘हमारा ऐसा ब्याह हुआ कि… माँग तो भरी मेरी पर जीवन सूना रह गया। बारह बरस बीत गए इसी चैत में। मेरी कानों में भी बात आई थी पर मुझे किसी ने बताया नहीं था कि ब्याह कहाँ होगा, किससे होगा। मुझे

बस यही पता था कि घरवाले जहाँ कहेंगे, जब कहेंगे मुझे तैयार रहना है। कुछ पूछना नहीं है बस चुपचाप सब करते जाना है।अच्छी बेटियां वही होती हैं, जिनके पास प्रश्न नहीं होते!‘‘

भौजी ने दादा से कहा था, ‘‘ कर दो ब्याह, इतना अच्छा घर वर तो हम किसी जनम में नहीं कर पाएंगे। इस तरह का ब्याह तो होता रहता है। लड़का लड़की साथ रहते हैं तो सब ठीक हो जाता है और अपनी कुमकुम तो सुंदर भी है।‘‘

मेरी सुंदरता और मेरी देह! सबके लिए एक आशा की किरण थी कि सब कुछ ठीक हो जाएगा। दादा कुछ नहीं बोले।

लड़का अच्छी नौकरी करता है। दादा के दोस्त सूरज दा हैं न, उन्हीं के ननीहाल का है। कल लड़का घर लाया जाएगा। बढ़िया मुहूर्त है। पता लगा लिया गया है। ऐसी शादी में जो तैयारी हो सकती है, कर दी गई है। पुआल के साथ कच्चा बाँस, बसबिट्टी से कटवा कर आँगन में एक किनारे रख दिया गया है। पीली धोती और लाल साड़ी पलंग पर रखा देखा था मैंने। दोनों कपड़े एक साथ देखकर मीठी सी सिहरन तो हुई पर उससे अधिक डर गई

मैं!

ब्याह के नाम पर सतरंगी सपने जो आँखें देखतीं, उनमें खुशी की जगह डर समा गया। क्या होगा ? कैसे होगा ? जबरदस्ती के ब्याह में अगर वो नहीं माने तो ! लेकिन मैं किससे कहती ! इस डर से तो लड़कियां गुजरती ही हैं। ये सोचकर अपने को समझा लिया। कहीं न कहीं अपने भीतर ये भरोसा भी था कि किसी भी तरह मैं उनका मन जीत लूंगी।

पर, कहाँ जीत पाई ! इतने बरस बीत गए, ब्याह करके जो गए फिर लौट कर नहीं आए ! बाबू जी उनके आने का रास्ता देखते देखते दुनिया से चले गए और मैं…! रास्ता देखते देखते अहिल्या बन गई !

ब्याह के समय एक बार तुम्हारे चेहरे पर नजर गई थी। पंडी जी मंत्र पढ़ रहे थे। उसी पवित्र अग्नि में तुम्हारा चेहरा दिखा था। तुम गुस्से से तमतमाए हुए थे। उस गुस्से में भी अपनापन दिखा मुझे, बस, तुम्हारी हो गई । पंडी जी ब्याह के बाद बोले कि सियाराम की जोड़ी है। सच में सियाराम की जोड़ी ही है मेरी आँखें कभी मेरी सूखती ही नहीं!

उसी समय मेरे जीवन में सूरज उगा था पर क्या पता था कि ये सूरज उगने के साथ ही डूब जाएगा। मेरे जीवन में बच जाएंगी बस काली अंधेरी रातें! कौन कौन सा पूजा पाठ न किया, किस मंदिर के द्वार पर माथा न रगड़ा। कई बार दादा तुम्हारे घर गए।

तुम्हारे घर वालों ने उन्हें क्या नहीं कहा पर वो मुझे हर बार आकर यही कहते, घरवाले बहुत अच्छे हैं, लड़का नौकरी के काम से बाहर गया है, लौटते ही यहाँ आएगा। शुरु शुरु में तो वो यही कहते रहे फिर लौटते तो कुछ नहीं बोलते। लेकिन उनकी चुप्पी कहती, नहीं आने वाले, कभी नहीं आते!

आ जाते तुम एक बार, तो मैं तुम्हें बताती कैसे बीते हैं ये बारह साल! वनवास तो बारह बरस का था उनका पर मेरा तो पूरा जीवन ही वनवास बन गया। तुम्हारे मन में न बसी, तुम्हारे साथ घर न बसा सकी, तो…मैं वनवासिनी हुई न, अकेली जंगल में भटकती हुई। एक एक दिन ऐसे बीतता है जैसे हर दिन जहरीला काँटा बनकर मेरी देह में चुभता जाता है। इन बीते सालों में मेरी पूरी देह में काँटा ही काँटा भर गया है। छटपटाती हूँ दर्द से। इन काँटों का घाव भीतर तक होता है लेकिन इन घावों से सिर्फ आँसू निकलते हैं। इन बीते दिनों का दर्द मेरी हाथ की लकीरों में उतर आया है तभी तो सभी रेखाएँ एक दूसरे को काटती रहती हैं और मेरी भाग्य रेखा तुम्हारी भाग्य रेखा से नहीं मिल पाती !

सोचती हूँ इस ब्याह से क्या मिला ? काँच की चूड़ियाँ और माँग में सिंदूर ! कुमकुम नाम है मेरा पर काली स्याही पुती है मेरे जीवन में! तुमसे ब्याह होते ही जहर घुल गई जिंदगी में। तुम्हारा तो कुछ नहीं बदला पर मेरा शरीर छोड़ कर सब कुछ बदल गया। यहां तक कि मेरा घर भी मेरा नहीं रहा, ये घर नहीं नैहर हो

गया। सब कहते हैं, बेटियाँ नैहर में अच्छी नहीं लगतीं। परगोत्री हो गई। दान होते ही बेटी दूसरे गोत्र, दूसरे घर की हो जाती है। जैसे मैं इंसान नहीं सामान हूँ। मेरी कोई इच्छा नहीं, कोई जरूरत नहीं। सामान हूँ, दान कर दी गई। सामान हूँ तुम चाहो तो ले जाओ नहीं चाहो तो…! कभी कभी सोचती हूँ मैं तुम्हारा नाम लेते लेते मर जाऊँ तो …! तुम्हारे हाथ का आग भी मुझे नहीं मिलेगा, मुझे पैठ नहीं मिलेगी। मैं पूछती हूँ तुमसे, हमारे सारे धर्म ग्रंथ क्या पुरुषों ने ही बनाए हैं कि बिना पुरुष के औरतों की कोई गति नहीं। धर्म कहता है, मेरी देह पर पहला अधिकार तुम्हारा है!

देह हाँ देह, न जाने क्या सोचकर ईश्वर ने बनाया इसे कि इसे भी भूख लगती है। उस समय डर जाती हूँ मैं। मेरे बिछावन पर साँप

लोटने लगते हैं। हाँ, काला, सरसराता , रेंगता हुआ सांप मेरी ओर बढ़ता चला आता है। डर जाती हूँ पर भाग नहीं पाती। देखती रह जाती हूँ। सरसराता हुआ विषधर मेरी देह पर चढ़ता है, हर अंग पर रेंगता है आहिस्ता आहिस्ता! उफ्फ, कैसे बताऊँ तुम्हें ये सिहरन ! फिर साँप मुझे डँसता है। पूरे शरीर में जहर चढ़ता जाता है। जहर भरी देह में एक और जहर! कभी कभी डरती हूं लेकिन, लाज की बात है कैसे कहूं कि ये सांप … हां ये सांप ! मुझे अच्छा लगने लगा है। उस जहर में भी प्रेम है। लिपटी हूँ मैं उस साँप से ! देखो जरा भी लाज नहीं बची मुझमें ! हाँ नहीं बची, क्योंकि लाज के परे भी तो कुछ होता है!

सब बेकार हो गया! मेरी देह, मेरा मन, मेरा जीवन, एक तुम्हारे बिना! तुम पर गुस्सा आता है। जब तुम आओगे तब तुम्हें बताऊंगी, मैं चंदन की लकड़ी कितनी तपी कितनी जली, एक तुम्हारे बिना। फिर भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ा, तुमसे प्रेम करना।

सब कहते हैं तुम कभी नहीं आओगे पर मैं जानती हूँ कि तुम आओगे…और वो रात भी आएगी, जिसमें सांसें एक होती हैं।

तन और मन शांति का भी सूखा था। सब कहते हैं, उसकी कोख भी सूख गई। नहीं तो इतने बरस बीते, इस घर में बच्चों की किलकारी नहीं गूँजती! कहने वाले तो ये भी कहने लगे हैं कि अब इस घर का वंश ही खत्म हो गया। भौजाई को न सही, ननद का

ही होता । कहने के लिए भी तो इस घर का कोई होता। कुमकुम ऐसी अभागिन निकली कि पति का मुंह दुहराकर नहीं देखा और

शांति तो बांझ ही हो गई। ‘‘ बांझ ‘‘ शब्द शांति के कानों के भीतर ऐसे उतरता जैसे किसी ने लाल दहकता कोयला डाल दिया हो और ये आग उसके कलेजे को धू धू कर जलाती है। पर वो किससे कहे, कैसे कहे कि वो वसंत तो आया ही नहीं कि उसकी कोख में कोंपल फूटता ! उसका जीवन तपता रेगिस्तान बन गया जिसमें एक हरी दूब भी नहीं बची। दूर दूर तक बस तपता जलता बालू ही बालू।

पति महेंद्र को बस घर से खाने तक का ही मतलब रह गया था। दिनभर गाय और खेती के कामों में उलझे रहते। जो समय बचता भी उसे द्वार पर बैठ कर बिता देते। कभी दो चार लोगों के साथ तो कभी अकेले ही। रात भी उंगली पकड़ कर महेंद्र को शांति के कमरे तक नहीं पहुंचा पाती। इस घर के भाग्य में लगता है सूनी रातें ही लिखी हैं।

सब बातों से शांति समझौता कर लेती पर अपने भीतर की ममता को कैसे समझाती! अनजाने ही उसकी कोख में हलचल होने

लगती। छाती फाड़कर भीतर से कुछ निकल जाना चाहता। उसका मन कहता कि उसे भी कोई ‘‘ माँ ‘‘ कहे। कान कहते आज तक

इतना कुछ तो सुना पर माँ न सुना। यह संसार का सबसे मीठा शब्द होता है।

शांति की भी इच्छा होती कि इस घर आँगन में वो डगमगाते हुए चले। जिसकी काजल भरी आँखें और तुतलाते हुए बोल माँ कहे और वो दूर से ही सुन ले। दौड़ती हुई आकर उसे उठाकर अपनी छाती से लगा ले। पर…पर नहीं उसकी छाती जलती रहेगी, इसमें कभी दूध न उतरेगा। कोई उसे माँ नहीं कहेगा। वो बांझ ही रहेगी बांझ!

एक जिद ने शांति के हँसते जीवन में आँसुओं की बाढ़ ला दी। उसने कहा था, ‘‘ ब्याह दो कुमकुम को उस नौकरिया लड़के से। किसी भी हाल में ऐसा लड़का नहीं उतार पाएंगे हम। ‘‘

ऐसा तो उसने बहुत बार देखा था। शुरु शुरू में लड़के वाले नखरा करते हैं लेकिन लड़की एक बार घर में घुसते ही अपनी सेवा के दम पर पूरे परिवार का मन जीत लेती है। फिर तो वही उस घर में पुजाने लगती है। कुमकुम भी जीत लेगी सब कुछ, वहाँ जाकर। लेकिन जीतती तो तब जब वो वहाँ जाती। कैसा कसाई परिवार है, एक बार भी नहीं ले गया कुमकुम को। हर कोशिश कर के हार गए। उस परिवार से बेइज्जती के सिवाय कुछ नहीं मिला।

लोगों ने कहा, देवस्थान जाकर धरना दो। महीनों कुमकुम को लेकर वहाँ भी रही। सुबह शाम मंदिर में झाड़ू बुहारु, पूजा पाठ, व्रत उपवास सब कराया।

ये करते हुए वर्षों बीत गए पर भाग्य नहीं बदला। शायद विधाता के पास इस घर का भाग्य बदलने के लिए स्याही ही नहीं है। अब

तो ऊपर वाले से भी कोई आस नहीं रही।

कुमकुम बोलती कुछ नहीं, सब कुछ ऐसे पी जाती है जैसे पानी ! लेकिन जब उसे दौरा आता है तो उसे भी पता नहीं चलता, वो क्या क्या बकती है। शुरु में तो लगा नाटक करती है। फिर लगा गेहूँ की तरह तपती उमर है, ऐसी उमर में भूत प्रेत पकड़ते हैं अकेली पाकर। जब बालियाँ कटने को तैयार हो जाती हैं, हवा के झोकों के साथ झन झन बजती हैं, न काटो तो उसी हवा के थपेड़ों से जमीन पर बिखरते हुए कितनी देर लगती है !

मुझे डर लगने लगा, उसका वो रुप देखकर! उसकी देह थरथराने लगती। आँखें लाल लाल जैसे चिता की आग हो! मुँह ऐसे खोलती जैसे सबको चबा जाएगी। फिर जोर जोर से रोने लगती, चिल्लाने लगती, जाने दो…चल चल…! फिर कहाँ कहाँ से भूत झाड़ने के

लिए ओझा न आया। कितने कबूतर, दारु, पान, सुपारी, सिंदूर, बताशा और अड़हुल के फूल चढ़ाए गए। मंत्र पढ़ा गया। ओझा कहता, ये जिन्न है, ऐसे नहीं छोड़ेगा! अपने साथ लेकर जाएगा… कुंवारा जवान लड़का मरा है…वो प्यासा है! इसे अपने साथ लेकर

जाएगा… नहीं मानेगा… किसी भी हाल में नहीं मानेगा! लेकिन वो नहीं आया जिसकी जरुरत थी। पान पर सिंदूर लगता रहा और

कुमकुम अपने लिए रंगहीन हो चुके सिंदूर में कुमकुम सा लाल रंग खोजती रही। ओझा से ठीक न हुआ तो डाक्टर के पास गए।

डाक्टर बोला कोई बीमारी नहीं है। केवल पति का साथ ही इसे ठीक कर सकता है।

एक गलती ने किस तरह बदल दिया सबका जीवन ! जबरदस्ती नहीं सहमति से साथ होता है। जीवन भर का साथ रंग, रूप, देह पर टिकता है लेकिन सबसे ज्यादा जरूरी मन का मिलना है, अब समझ में आ रहा है। इस गलती की कीमत कुमकुम ही नहीं, ये घर भी चुका रहा है। मैं माँ नहीं बन पाई, वो पति को तरसती है।

सब उसका दुख समझते हैं, मैं तो पति के सामने रहते पति को तरसती हूँ, मेरा दुख कौन समझेगा !

कई साल हो गए, उस रात के बाद ‘‘ वो रात ‘‘ कभी नहीं आई। उसी रात से मेरा पलंग सूना हो गया और मैं भी! उस रात बाहर से ऐसे चीखने की आवाज आई जैसे किसी ने किसी का गला दबा दिया हो। अभी भी याद कर सिहर उठती हूँ। मुझे लगा रात के इस पहर भूत की आवाज है। मैं डर कर उनके सीने से लिपट गई। उन्होंने कहा, डरो नहीं कुछ होगा। मैं उनके सीने से लगी उनकी धड़कन सुनकर हिम्मत बांध ही रही थी कि किवाड़ पीटने की आवाज आने लगी। अब तो मेरे प्राण सूख गए! दरवाजा पीटते पीटते, फूट फूट कर रोने की आवाज रही थी। रोते हुए बोलने लगी, तुमने ही मुझे उजाड़ा, तेरे ही कारण मेरी रातें सूनी रह गईं और तु…! ये कुमकुम की ही आवाज थी। उसे फिर दौरा आया था। आवाज डरावनी हो गई थी। उन्होंने उठकर किवाड़ खोला।

पहली बार कुमकुम हमारे कमरे का दरवाजा पीटती हुई बेहोश हुई थी। उसी रात के अंधेरे में मेरी सारी रातें खो गईं। शुरु शुरु में तो मुझे बहुत गुस्सा आता। बात बात पर लड़ लेती

उससे। पर कुमकुम ऐसे सुनती जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो! आकाश की ओर न जाने क्या देखती रहती और चुपचाप मेरी बातें

सुनती रहती। कभी कोई जवाब नहीं देती। आखिर थककर धीरे धीरे मैंने भी समझौता कर लिया। सारी इच्छाओं को मन में समेटे

मैं सूखी नदी हो गई, दो नदियां पास पास पर दोनों सूखी और तपती हुई। जहाँ जीवन पलता वहाँ सन्नाटा भांय भांय करता।

कभी कभी कुमकुम बाल गोपाल का फोटो दिखाती हुई मुझसे कहती, ‘‘ भौजी, एक ऐसा ही गोलमटोल भतीजा मुझे चाहिए, मैं उसे नहलाउंगी, तेल लगाउंगी…और वो बस गाय का दूध पीएगा, भैंस का एकदम नहीं क्योंकि भैंस का दूध पीने से बुद्धि मोटी हो जाती है। ‘‘ कुमकुम की बातें सुनकर मैं न रो पाती न हँस पाती।

कब से शांति ये बातें सोच रही थी। उसका ध्यान तब टूटा जब फंटूश की माँ ने हड़बड़ाते हुए आकर कहा, ‘‘ दुल्हिन, जब जानती हो कम्मो का आसन हल्का है तो अकेले क्यों जाने देती हो इधर उधर, वो भी सांझ के इस पहर में। जाकर देखो बैर गाछ के नीचे बेहोस पड़ी है। गाँव भर जानता है उस गाछ पर भूत रहता है।‘‘

‘‘ लेकिन !‘‘ इतना ही बोलते हुए शांति दौड़ती हुई वहाँ पहुँच गई, देखा कुमकुम गाछ के नीचे बेहोश पड़ी है। वहीं उसके बगल में बच्चे का लाल लाल कपड़ा, हाथ पैर में बांधने वाला लाल काला फुदनी और कजरौटा बिखरा पड़ा है। कल ही कह रही थी, सुग्गी

आई है ससुराल से अपने बेटे को लेकर देखने जाएगी। अपने दादा से कहकर उसने बच्चे के लिए कपड़ा और फुदनी मंगवाया था। रात भर जगकर उसने काजल बनाया था। शांति को याद आया कि पूरी रात कुमकुम आँगन में बेचैन सी घूमती रही थी और अभी, कुमकुम और सबकुछ यहाँ बिखरा है!

शांति जिस गति से घर के भीतर गई, वो आज तक महेंद्र ने इतने सालों में नहीं देखा था। उसका मन किसी आशंका से काँप गया। जब तक वह कुछ समझता, मिट्टी के तेल की तेज गंध आने लगी। वह तेजी से भागता हुआ घर के भीतर गया। जो उसकी आँखें देख रही थी उसे देखकर वह कुछ पल के लिए जैसे ठिठक गया। शांति ऊपर से नीचे तक मिट्टी तेल से नहाई हुई थी। आँखें जल रही थी और गुस्से में उसकी देह थरथरा रही थी।

महेंद्र को जैसे अचानक होश आया, उसे झिंझोड़ते हुए कहा ‘‘ क्या कर रही हो ? एकाएक क्या हो गया ?‘‘

‘‘ एकाएक कहते हो, मेरा तिल तिल कर मरना तुम्हें दिखाई नहीं देता… अपने खून का दर्द तुम्हें दिख जाता है। हां, मेरे लिए सोचने वाला कौन है!न साँय न बच्चा ! बांझ हूँ मैं…बांझ ! वो भी तुम्हारे कारण ! ‘‘

‘‘ किसी ने कुछ कहा…? ‘‘

‘‘ सब कहते हैं….बांझ हूँ मैं !‘‘

‘‘ कितनी बार कहा , कहीं मत जाया करो लोग जीने नहीं देंगे।‘‘

‘‘ मंदिर गई थी, तो क्या वहाँ भी नहीं जाऊँ ? इसी घर का सुख माँगने गई थी लेकिन जिसका सुहाग नहीं सुनता उस पर भगवान भी सहाय नहीं होता। लोग मुझे बांझ कहते हैं, अपनी बहू बेटियों को मेरी छाया से भी दूर रखते हैं। बताओ, क्या मैं बांझ हूँ ?‘‘

महेंद्र की समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दे। इधर शांति चिल्लाती रही।

‘‘ मैं दुनिया भर की बातें सुनूँ और तुम चुप रहो। तुम दोनों भाई बहन ने मिलकर मुझे बर्बाद कर दिया। सबसे बड़ा सुख मुझसे छीन लिया। मुझसे तुम्हारा खाने तक का ही मतलब है। दिनरात मैं तुम्हारे घर की चाकरी करुँ पर मेरे मतलब का क्या !‘‘

महेंद्र केवल शांति को देखता रहा और वो गुस्से में बकती रही।

‘‘ मैं मर भी जाऊँ तो तुम्हारा पेट और ये घर तुम्हारी बहन भी चला लेगी। उस कुलच्छिनी को तो यहीं रहना है जब तक कि सब की जान न चली जाए। न जाने किस नछत्तर में ब्याह हुआ था इसका…! ‘‘

महेंद्र शांति के गुस्से की आँधी के आगे थरथराता दीया बनकर रह गया। उसने आसपास चुपचाप नजर घुमाकर देखा कि कहीं कुमकुम तो नहीं है पर वो कहीं नहीं दिखाई दी।

‘‘ बताओ, मैं क्यों जीऊँ ? तुम्हारा पेट और घर चलाने के लिए… न पति का सुख न बच्चे का ऊपर से लोगों की तरह तरह की बातें। इससे तो अच्छा मेरा मर जाना है। क्या यही सुख देने के लिए मुझे ब्याह कर लाए थे ?‘‘

महेंद्र के पास कोई जवाब नहीं था। वह चुपचाप उसे देखता रहा फिर आगे बढ़ कर शांति को कसकर अपने सीने से लगा लिया।

बहुत दिनों के बाद दोनों साथ मिलकर बहुत देर तक रोते रहे। महेंद्र सोच रहा था कि एक गलती की सजा कितने लोगों को मिली। हाँ गलती ही थी एक बेरोजगार भाई ने अपनी बहन के लिए सुनहरे सपने देखे थे। उसने सोचा था कुमकुम बड़े घर जाएगी, सुख करेगी। समाज में प्रतिष्ठा बढ़ेगी पर इसके लिए उसके पास पैसा नहीं था।

महेश चाचा जो बैंक में किरानी हैं, बड़ा घर और इंजीनियर जमाई उतार लाए। खेत तो मुझसे भी कम है लेकिन दो नम्बर की नौकरी

के दम पर बेटी को सुखी कर दिया और समाज में इज्जत भी बढ़ गई। मैं भी तो कुमकुम को वही जिंदगी देना चाहता था। बाबू जी से कहा भी था, खेत बेचकर दे देते हैं! उन्होंने कहा था, ‘‘ कितना है जो बेच कर दे दोगे, फिर तुम्हारा क्या होगा ? खेत नहीं रहेगा तो कल खाओगे कैसे ? ‘‘

‘‘ कैसे ‘‘ का जवाब हम जैसे किसानों के पास कहाँ होता है! मेरे पास और क्या रास्ता था ! वही जो ऐसी हालत में लोग करते हैं। लड़का उठाकर ब्याह लेते हैं फिर समय के साथ नाव किनारे लगती है या फिर मंझदार में डूब जाती है ! मैंने भी जोखिम लिया। एक यही रास्ता बचा था। किसी गरीब के हाथ बहन देता तो वो जिंदगी भर सिसकती हुई मर जाती। शुरु शुरु में परेशानी तो होगी, बहुत कुछ बरदाश्त करना होगा, कर लूंगा। पर ये न सोचा था जीवन मरण के बराबर हो जाएगा। बाबू जी कुमकुम को विदा करने की साध मन में लिए ही विदा हो गए। कुमकुम जीते जी लाश बन गई। उसकी इस हालत का जिम्मेदार तो मैं ही हूँ।

उसकी लाश पर मैं अपनी दुनिया कैसे बसा लूँ ? कुमकुम, शांति और ये घर, सबका अपराधी तो मैं ही हूँ। धीरे धीरे एक एक पत्ता झड़कर जैसे पेड़ को सूना कर जाता है उसी तरह इस घर की सभी खुशियाँ झड़ गई थी। घर, नंगे पेड़ की तरह हो गया था। नंगे पेड़ और जलते समय के साथ कुछ महीने बीत गए।

एक दिन कुमकुम बरामदे में बैठ कर कुछ कर रही थी कि देखा शांति आँगन में चक्कर खाकर गिर पड़ी। ‘‘ अरे ! ये क्या हो गया ? ‘‘ बोलती हुई कुमकुम उसके पास दौड़ कर गई। देखा शांति का हाथ पैर ठंडा है। दादा दादा चिल्लाती हुई उसका पैर रगड़ने लगी।

महेंद्र ने पहली बार इस तरह शांति को अचेत देखा तो उसकी आँखें भर आईं। क्या इसी दिन के लिए वो इसे ब्याह कर लाया था ! आजतक कोई सुख नहीं दे पाया। वो चुपचाप तिल तिल कर मरती रही और वो…! अगर उसे कुछ हो गया तो कोई नहीं है इस घर को और उसे देखने वाला।

गाँव के डॅाक्टर ने कहा, ‘‘ दुल्हिन को जनानी डॅाक्टर के पास शहर ले जाओ।‘‘

महेंद्र ने परेशान हो कर पूछा, ‘‘ क्या हुआ है ?‘‘

‘‘ जो तुमने सोचा भी नहीं होगा ‘‘, डॅाक्टर ने कहा।

‘‘ हे भगवान, ये क्या हो गया !‘‘ , कुमकुम का धीरज जवाब दे गया।

उसी समय महेंद्र और कुमकुम दोनों शांति को लेकर शहर गए। महिला डॅाक्टर ने जो कहा, सुनकर दोनों भाई बहन के चेहरे पर कमल खिल गए। कुमकुम चहक पड़ी, ‘‘तो क्या भगवान ने हमलोगों के ऊपर भी नजर फेरी है ! इस घर के भी दिन बदलेंगे।‘‘

फिर तो इस घर के दिन ही बदल गए। गुमसुम उदास सा घर गुनगुनाने लगा। फूलों के साथ खुशियाँ भी खिलने लगीं। कुमकुम धीरे धीरे सोहर गाती हुई देखती कि शांति के चेहरे का रंग बदल गया है। हमेशा मुरझाई रहने वाली भौजी अब खिली खिली रहती है। शांति को खुश देखकर उसे भी अच्छा लगता। वो अब शांति को अधिक काम नहीं करने देती। भौजी के खाने का वो खास खयाल रखती और उसकी पसंद का खाना बनाकर खिलाती रहती।

शांति ने कुमकुम का ये रुप कभी नहीं देखा था। इतनी ममता है इसके भीतर। इसके पहले कभी कुमकुम इतनी खुश नजर नहीं

आई थी। सचमुच एक बच्चे के आने की आहट भर से कितना कुछ बदल गया। कुमकुम इठलाती हुई कहती, ‘‘ भौजी, उसके आने के बाद मैं तुम्हारी खातिरदारी नहीं कर पाउंगी। मेरे पास समय कहाँ रहेगा, उसे नहलाना, खिलाना, सुलाना, घुमाना…सब मुझे ही तो करना है।‘‘ ये सब सुनकर शांति मन ही मन हँस देती।

शांति का छठा महीना लग गया। दिन जैसे जैसे करीब आता जाता, सबके चेहरे पर खुशियाँ बढ़ती जाती। आज सुबह ही महेंद्र

किसी जरूरी काम से गाँव से बाहर गया था। रात तक लौटकर आएगा।

दोपहर होते होते शांति का मन भारी लगने लगा। वो आँगन में चटाई पर लेट गई। कुमकुम धीरे धीरे घर का काम निपटाती रही।

गुनगुनी धूप में शांति की आँख लग गई।

‘‘ खा लो भौजी !‘‘

‘‘ नहीं बबुनी, मन अच्छा नहीं लग रहा है, बाद में खा लूंगी।‘‘

‘‘ भौजी खा लो…पकौड़ी भी बनाई है तुम्हारे लिए, मन की कोई साध मन में ही न रह जाए, कल बोल रही थी। ‘‘

‘‘ खाने का मन नहीं है…जी ठीक नहीं लग रहा।‘‘

एक बार फिर कुमकुम ने खाने के लिए कहा।

शांति ने कहा, ‘‘ रख दो न बाद में खा लूंगी। ‘‘

मनुहार करके कुमकुम रोज शांति को खिलाती थी लेकिन आज धीरे धीरे कुमकुम जिद पर उतर आई।

‘‘ कहा न खा लो…नहीं सुनती ! ‘‘

कुमकुम की आवाज बदलने लगी। शांति इस बदलाव को पहचानती थी। वो डर गई। उसने सहमते हुए कुमकुम की ओर देखा।

कुमकुम की भँवें तनने लगी और आँखें लाल होने लगीं। उसका ये रुप देखकर शांति का खून सूख गया। घर में आज अकेली है वो भी इस हालत में। डरते डरते हिम्मत बांध कर इतना ही कह पाई, ‘‘ मैं, मैं खा लेती हूँ… मैं तो ऐसे ही कह रही थी… मुझे बहुत जोरों की भूख लगी है।‘‘

‘‘ तुम्ही तो खा गई मेरा सब कुछ, और नखरा दिखाती है मुझे… मेरा जीवन तबाह करके अपना गोद भरने चली है! तुम्हारे ही कारण मेरी सेज और गोद सूनी रही और तु …! ‘‘

बोलते बोलते कुमकुम का चेहरा और विकराल होने लगा। भवें तनने लगीं, आँखें आग उगलने लगी। उसने झुककर खाना उठाया और जोर से पिछवाड़े की तरफ फेंक दिया जो नीम के पेड़ से टकरा कर वहीं बिखर गया। वो पलट कर शांति को एक टक

देखने लगी। शांति ने कई बार पहले भी देखा था, जब उसे दौरा आता है अगर वो होश में रह गई तो बहुत ताकत इसकी देह में न जाने कहाँ से आ जाती है। एक दो मर्दों को झटक कर ऐसे फेंक देती है जैसे तिनका। कुमकुम की आँखों में खून उतरने लगा और शांति के देह का खून जम गया। आज तो कोई है भी नहीं, वो क्या कर पाएगी। ‘‘ नहीं नहीं मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ ‘‘बोलती हुई शांति वहाँ से धीरे धीरे उठने की कोशिश करने लगी। जब तक शांति उठती, कुमकुम के दोनों हाथ उसकी गर्दन पर थे। इस बार शांति का हाथ पैर थरथरा रहा था, भवें तनी थी और आँखें…!

कुमकुम के चेहरे पर अट्टहास था। शांति गिड़गिड़ाती हुई बेहोश हो गई। कुमकुम अट्टहास करते हुए शांति को वहीं छोड़ कर पूरे घर में दौड़ती रही।

पीछे खड़ा नीम का पेड़ जोर जोर से डोलता रहा।

सिनीवाली शर्मा

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तुम्हारे बिना

 

उसकी मौत


यकीन

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स्मृतियाँ हमें तोडती भी हैं हमें जोडती भी हैं | ये हमारी जीवन यात्रा की एक धरोहर है | हम इन्हें कभी यादों के गुद्स्तों की तरह सहेज कर रख लेना चाहते हैं तो कभी सीखे गए पाठ की तरह |स्मृति का जाना एक दुखद घटना है | पर क्या कभी कोई व्यक्ति स्वयं ही स्मृति लोप चुन लेता है | ऐसा क्यों होता है अत्यधिक तनाव के कारण उपजी एक मानसिक अस्वस्थता या फिर जीवन के किसी से भागने का एक मनोवैज्ञानिक उपक्रम | आखिर क्या था रूपक्रांति  की जिंदगी में जो वो इसका शिकार हुई |जानते हैं दीपक शर्मा जी की एक सशक्त कहानी से …

निगोड़ी 

रूपकान्ति से मेरी भेंट सन् १९७० में हुई थी|

उसके पचासवें साल में| उन दिनों मैं मानवीय मनोविकृतियों परअपनेशोध-ग्रन्थ की सामग्री तैयार कर रही थी और रूपकान्ति का मुझसे परिचय ‘एक्यूट स्ट्रेस डिसऑर्डर’, अतिपाती तनाव से जन्मे स्मृति-लोप कीरोगिणी के रूप में कराया गया था|

मेरे ही कस्बापुर के एक निजी अस्पताल के मनोरोग चिकित्सा विभाग में|

अस्पताल उसे उसके पिता, सेठ सुमेरनाथ, लाए थे| उसकी स्मृति लौटा लाने के वास्ते|

स्मृति केबाहर वह स्वेच्छा सेनिकलीथी| शीतलताईकी खोज में| यह मैंने उसके संग हुई अपनी मैत्री के अन्तर्गत बाद में जाना था|

क्योंकि याद उसे सब था| स्मृति के भीतर निरन्तर चिनग रही थी उस भट्टी की एक-एक चिनगारी, एक-एक अगिन गोला, जिसमें वह पिछले पाँच वर्षों से सुलगती रही थी, सुलग रही थी और जिस पर साझा लगाने में मैं सफल रही थी|

(१)

“किरणमयी को गर्भ ठहर गया है,” भट्टी को आग दिखायी थी उसके पति कुन्दनलाल ने|

“कैसे? किससे?” वहहक-बकायी थी|

किरणमयीरूपकान्तिकी बुआ की आठवीं बेटी थी जिसे दो माह की उसकी अवस्था में सेठ सुमेरनाथबेटी की गोद में धर गए थे, ‘अब तुम निस्संतान नहीं| इस कन्या की माँ हो| वैध उत्तराधिकारिणी|’ अपने दाम्पत्य के बारहवें वर्ष तक निस्संतान रही रूपकान्ति अपने विधुर पिता की इकलौती सन्तान थी और वह नहीं चाहते थे कुन्दनलाल अपने भांजों अथवा भतीजों में से किसी एक को गोद ले ले|

“मुझी से| मुझे अपनी सन्तान चाहिए थी| अपने शुक्राणु की| अपने बीज-खाद की| जैविकी,” कुन्दनलालतनिक न झेंपा था| शुरू ही से निस्तेज रहा उनका वैवाहिक जीवन उस वर्ष तक आते-आते पूर्ण रूप से निष्क्रियता ग्रहण कर चुका था|

“मगर किरणमयी से? जिसके बाप का दरजा पाए हो? जोअभी बच्ची है?” भट्टी में चूना भभका था| पति की मटरगश्ती व फरेब दिली से रूपकान्ति अनभिज्ञ तो नहीं ही रही थी किन्तु वह उसे किरणमयी की ओर ले जाएँगी, यह उसके सिर पर पत्थर रखने से भी भयंकर उत्क्रमण था|

“वह न तो मेरी बेटी है और न ही बच्ची है| उसे पन्द्रहवां साल लग चुका है,” कुन्दनलाल हँसा था|

“बाबूजी को यह समझाना,” पति की लबड़-घौं-घौं जब भी बढ़ने लगती रूपकान्ति उसका निपटान पिता ही के हाथ सौंप दिया करती थी|

जोखिम उठाना उसकी प्रकृति में न था|

“उन्हें बताना ज़रूरी है क्या?” कुन्दनलाल ससुर से भय खाता था| कारण, दामाद बनने से पहले वह इधर बस्तीपुर के उस सिनेमा घर का मात्र मैनेजर रहा था जिसके मालिक सेठ सुमेरनाथ थे| औरदामाद बनने की एवज़ में उस सिनेमाघर की जो सर्वसत्ता उसके पास पहुँच चुकी थी, उसे अब वह कतई, गंवाना नहीं चाहताथा|

“उन्हें बताना ज़रूरी ही है,” रूपकान्ति ने दृढ़ता दिखायी थी, “किरणमयी उनकी भांजी है और उसकी ज़िम्मेदारी बुआ ने उन्हीं के कंधों पर लाद रखी है…..”

“मगर एक विनती है तुमसे,” कुन्दनलाल एकाएक नरम पड़ गया था, “वह सन्तान तुम किरणमयी को जन लेने दोगी…..”

“देखती हूँ बाबूजी क्या कहते हैं,” रूपकान्तिने जवाब में अपने कंधे उचका दिए थे|

(२)

“जीजी?” किरणमयी को रूपकान्ति ने अपने कमरे में बुलवाया था और उसने वहाँ पहुँचने में तनिक समय न गंवाया था|

रूपकान्ति ने उस पर निगाह दौड़ायी थी| शायद पहली ही बार| गौर से| और बुरी तरह चौंक गयी थी|

कुन्दनलाल ने सच ही कहा था, किरणमयी बच्ची नहीं रही थी| ऊँची कददार थी| साढ़े-पांच फुटिया| कुन्दनलाल से भी शायद दो-तीन इंच ज्यादा लम्बी|

चेहरा भी उसका नया स्वरुप लिए था| उसकी आँखेंविशालतथा और चमकीली हो आयी थीं| नाकऔर नुकीली| गाल और भारी| होंठ और सुडौल तथा जबड़े अधिक सुगठित|

सपाट रहे उसके धड़ में नयी गोलाइयां आन जुड़ी थीं जिनमें से एक उसकी गर्भावस्था को प्रत्यक्ष कर रही थी|

“मेरे पास इधर आओ,” रूपकान्ति अपनी आरामकुर्सी पर बैठी रही थी|

जानती थी पौने पांच फुट के ठिगने अपने कद तथा स्थूल अपने कूबड़ के साथ खड़ी हुई तो किरणमयी पर हावी होना आसान नहीं रहेगा|

रूपकान्तिअभी किशोरी ही थी जब उसकी रीढ़ के कशेरूका विन्यास ने असामान्य वक्रता धारण कर ली थी| बेटी के उस घुमाव को खत्म करने के लिए सेठ सुमेरनाथ उसे कितने ही डॉक्टरों के पास ले जाते भी रहे थे| सभी ने उस उभार के एक्स-रे करवाए थे, उसका कौब एन्गल, उसका सैजिटल बैलेन्स मापाजोखा था| पीठ पर बन्धनी बंधवायी थी| व्यायाम सिखाए थे| दर्द कम करने की दवाएँ दिलवायी थींऔर सिर हिला दिए थे, ‘यह कष्ट और यह कूबड़ इनके साथ जीवन भर रहने वाला है…..’

“यह क्या है?” रूपकान्ति ने अपने निकटतम रहे किरणमयी के पेट के उभार पर अपना हाथ जा टिकाया था|

“नहीं मालूम,” किरणमयी कांपने लगी थी|

“काठ की भम्बो है तू?” रूपकान्ति भड़क ली थी, “तेरी आबरू बिगाड़ी गयी| तुझेइस जंजाल में फँसाया गया आयर तुझे कुछ मालूम नहीं?”

“जीजा ने कहा आपको सब मालूम है| आप यही चाहती हैं,” किरणमयी कुन्दनलाल को ‘जीजा’ ही के नाम से पहचानती-पुकारती थी और रूपकान्ति को ‘जीजी’ के नाम से| रूपकान्ति ही के आग्रह पर| परायी बेटी से ‘माँ’ कहलाना रूपकान्ति को स्वीकार नहीं रहा था|

“मुझसे आकर पूछी क्यों नहीं? मुझसे कुछ बतलायी क्यों नहीं?” रूपकान्ति गरजी थी|

“बिन बुलाए आती तो आप हड़का नहीं देतीं?” किरणमयीडहकी थी| रूपकान्ति का ही आदेश था, उसके बुलाने पर ही किरणमयी उसके पास आएगी| वास्तव में वह शुरू ही से किरणमयी के प्रति उदासीन रही थी| पिता उसे जब रूपकान्ति के पास लाए भी थे तोउसने आपत्ति जतलायी थी, मुझेइस झमेले में मत फंसाइए| मगर पिता ने उसे समझाया था, घरमें एक सन्तान रखनी बहुत ज़रूरी है| तुम्हें इसके लिए कुछ भी करने की कोई ज़रुरत नहीं| मानकर चलना यह तुम्हारी गोशाला की दूसरी गाय है| याफिर तीसरी भैंस| या फिर तुम्हारे मछली-कुण्ड की तीसवीं मछली| याफिर तुम्हारे चिड़िया खाने की चालीसवीं चिखौनी| इसेइसके साथ कस्बापुर से लिवा लायी गयी इसकी टहलिन पालेगी| तुमहमेशाकीतरहमग्नरहना| अपनारेडियोसुनना| रिकॉर्डबजाना| किताबपढ़ना| पत्रिकादेखना…..

“बकमत, क्षोभवक्रोधकेबीचभूलरहीरूपकान्ति, दोबारा गरज ली थी,” सच बोल| अपना पाप बिसाते समय उस पातकी ने तुम्हें क्या लोभ दिया था? जो तुम्हें उसका पाप-कर्म मेरे हड़के से ज्यादा गवारा रहा…..”

“जीजा ने कहा था वह मुझसे शादी करेंगे…..”

“क्या-या-या-या?” एक के बाद एक चिनगारी उसके पेट में छूटी थी और वह बोल पड़ी थी| उसे कै व पेचिशदेतेहुए| जिस पर फिर विराम लगाया था उसकी मूर्च्छा ने|

मेरा अनुमान है रूपकान्ति पर हमारे मनोचिकित्सकों द्वारा परिभाषित ‘जेनरल अडैप्टेशन सिन्ड्रोम’, व्यापकअनुकूलन संलक्षण, का वही पहला आक्रमण था| और उसी के बाद में ‘एक्यूट स्ट्रेस डिसऑर्डर’, अतिपाती तनाव से उपजे मनोविकार का रूप ले लेना था| तीन चिन्हित चरणों समेत|

सिन्ड्रोम के पहले चरण में रोगी रूपकान्ति ही की भांति अलार्म, संत्रास, की‘फाइट और फ्लाइट’ (लड़ो या भागो) वाली अवस्था से दूसरे चरण, रिसिस्टेन्स, प्रतिरोध से होते हुए तीसरे चरण, एग्ज़ीस्शन, निःशेषण पर जो ‘रेस्ट एन्ड डाएजेस्ट’ (विराम तथा पाचन) की अवस्था है| जिसके अन्तर्गत आक्रान्त व्यक्ति की चेतना के लोप हो जाने की सम्भावना प्रबल रहा करती है| बेशक अस्थायी रूप ही में| ताकिचेतना के लौटने पर उसका शक्ति संतुलन पुनः स्थापित हो सके|

(३)

चेत में आने पर रूपकान्ति ने हिम्मत बटोरी थी और पिता के नाम पर ‘अरजेन्ट कॉल’ बुक करवा दी थी| उस समय एस.टी.डी. न तो उसके अपने बस्तीपुर ही में उपलब्ध रहा था और न ही पिता के कस्बापुर में, मोबाइल तो दूर की बात थी|

बेटी का टेलीफोन पाते ही सेठ सुमेरनाथ ने अपनीमोटर निकलवायी थी और ड्राइवर के साथ बस्तीपुर पहुँच लिए थे|

कुन्दनलाल भी कान में रुई नहीं डाले था| अवसर मिलते ही ससुर के पैरों पर जा गिरा था|

“आप मुझे जो भी दंड देंगे मैं काट लूँगा| किन्तु दंड देने से पहले मेरी बात ज़रूर सुन लीजिए| सन्तान की इच्छा-पूर्ति के लिए किसी दूसरी स्त्री के पास जाने की बजाए मैं किरणमयी के पास इसलिए गया था क्योंकि वह आपके परिवार से थी| हमारी सजातीया थी| सवर्ण थी| और फिर जब रूपकान्ति ही ने उसे अपनी बेटीकभी नहीं माना था तो मेरे लिए भी बेटी कभी नहीं रही थी| केवल रूपकान्ति की बहन थी, आपकीभांजी थी…..”

“किरणमयी से पूरी बात मैं पहले पा लूँ फिर मैं देखता हूँ मुझे क्या करना होगा,” सेठ सुमेरनाथजान रहे थे दामाद ढोंग बाँध रखे था किन्तु वह भी टाप मारना जानते थे| सांप-छछूंदर की उस दशा से बेटी को बाहर निकालने के लिए किरणमयी को अपने साथ कस्बापुर लौटा ले जाने का मनसूबा बाँध चुके थे| दामाद कोपापमुक्त करना तो असम्भव था ही, लेकिन साथ ही उसे अपने हत्थे पर टिकाए रखना भी अनिवार्य था|

“यह बलानसीब आपसे एक वादा चाहता है,” कुन्दनलाल ने ससुर के पैर छोड़े नहीं थे, “मेरी सन्तान को आप सुरक्षित रखेंगे| उसे आप मुझ तक पहुँचने ज़रूर देंगे| बाकी किरणमयी आपकी है| आप उसे कहीं भी रखिए, कहीं भी ब्याहिए, मुझेकोई रोष नहीं| मैं वादा करता हूँ उससे अब मेरा कोई लेना-देना नहीं रहेगा…..”

“ईश्वर से प्रार्थना करो, वह हमें मार्ग दिखाए,” सेठसुमेरनाथदामाद को असमंजस की स्थिति में अड़ा-फँसा कर जाना चाहते थे, “हम मानुष-जात का दशा-फल उसके हाथ में है, हमारे हाथ में नहीं…..”

“पाप की गठरी साथ ले जाएंगे?” रूपकान्ति ने पिता को विदा देते समय आश्वासन चाहा था, “उसे भाड़ में झोंकेंगे नहीं?”

“तुम निश्चिन्त रहो,” सेठ सुमेरनाथ ने बेटी के सिर पर हाथ फेरा था, “दांव ताकती रहो| दांव लेना मैं जानता हूँ| समय आने पर दोनों कोठिकाने लगा दिया जाएगा| उस पापिन को उसके गर्भ समेत तथा इस दुष्ट को इधर ही ऐसा सबक दिया जाएगा कि यह दांतों ज़मीन पकड़ने पर मजबूर हो जाएगा…..”

(४)

सेठ सुमेरनाथ का दंड-विधान चौथे महीने प्रकाश में आया|

दुधारा|

पहली धार पर रखी गयी किरणमयी तथा दूसरी परबाँधा गया कुन्दनलाल|

कस्बापुरसे अपनी मोटर में साथ लायी एक नयी बच्ची को कुन्दनलालकी गोद मेंउतारते समय बोल दिए, इसे जन्म देते समय किरणमयी जान से गुज़र गयी|

झूठ को सच बनाते हुए|

सच उन्होंने बेटी के सामने खोला|

अपनी जेब से एक फोटो और एक डेथ सर्टिफिकेट रूपकान्ति के सामने रखते हुए|

फोटो किरणमयी के शव की थी| उन्नत गर्भाधान की अवस्था में|

सर्टिफिकेट नौ दिन पहले की तिथि में था| कस्बापुर की एक निजी डॉक्टर का, जिसमें मृतका व उसके गर्भ के विवरण दर्ज थे|

मृतका की आयु, लगभग सोलह वर्ष|

गर्भ की आयु, आठ महीना, चार दिन|

दोनों की मृत्यु का कारण पीलिया बताया गया था|

“हम बाप-बेटी को जश्न मनाना चाहिए,” सेठ सुमेरनाथ ने अपने विजय-भाव में बेटी की साझेदारी मांगी थी,” अब की बार कुन्दनलाल ने दूसरी यारी गांठी तो उसको गरदन नापने में किरणमयी वाली तस्वीर और सर्टिफिकेट कारामद रहेंगे…..

(५)

उत्तरवर्ती दिन नयी झांकी लाए थे|

पिता का दरजा पाते ही कुन्दनलाल उसी एक कोली पर सवार हो लिया था|

उसी केन्द्र-बिन्दु पर स्थापित|

कहाँ वह घर से बाहर निकलने के लिए हरदम आतुर रहा करता था और कहाँ अब वह सिनेमा-घर तक जाने की बात पर भी किसी हीले-हवाले से आगे-पीछे हो लिया करता था|

यह जानने में रूपकान्ति को अधिक समय न लगा था कि भाजन केवल वह नयी बच्ची ही नहीं थी, बल्कि उसकी नयी टहलिन पंखी भी थी| बीस-वर्षीया| मांसल कुंवारी| और जिसे कुन्दनलाल अपने पुराने पड़ोस से बच्ची की टहल व सम्भाल के नाम पर इधर लिवालाया था|

रूपकान्ति जान गयी थी कि बच्ची की चें-चें, ठिन-ठिन व पिन-पिन तथा कुन्दनलाल के हुंकारे के बीच पंखी अपनी तुरही भी बजाने लगी थी|

पंखी के दिखाव-बनाव व नखरे-तिल्ले में भी नित नए चुननजुड़ते जा रहे थे| चुनौतीपूर्ण|

रूपकान्ति को क्रोध व अवसाद, हताशा व विपण्णता, एकांकीपन व प्रत्याहार के बीच डूबते-उतारते हुए|

उसकी सत्ता को सेंध लगाते हुए|

उसे बारम्बार कै-पेचिश देते हुए| मूर्च्छावस्था में पहुँचाते हुए|

यत्रतत्रिक|

कभी अनियमित रूप से तो कभी उत्तरोत्तर|

‘जेनरल अडैप्टेशनसिन्ड्रोम’ के अन्तर्गत|

भंग हो रहे अनुशासन को वापिस लीक पर लाने का काम फिर सेठ सुमेरनाथ की सुपुर्दगी में लाया गया था|

लेकिन इस बार न उनके साधन काम आए थे, न साध्य|

कुन्दनलाल के सामने उस नयी बच्ची का सच जब खोला भी गया था तो हचका खाने की बजाएवह बाप-बेटी को हचका खिला गया था|

निमिष मात्र के लिए भी विचलित न हुआ था|

बोला, “आप जब चाहें उस बच्ची को वहीं पहुँचा सकते हैं जहाँ से आप उसे लाए थे| मुझे कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला| पंखी गर्भ धारण कर चुकी है और पिता बनने की मेरी साध पूरी होने वाली है| इस बार न तो पंखी आपकी कोई ज़िम्मेदारी है और न ही किरणमयी जैसी नादान जो आप उसेकुछफुसला-बुझा सकें…..”

“और उस बार जो तुमने जाति-वाति की बात बनायी थी, वर्ण-विवर्ण का वास्ता दिया था, वह क्या था? दोमुंहापन?” सेठ सुमेरनाथ आपे से बाहर हो लिए थे और उनका हाथ कुन्दनलाल के चेहरे की ओर बढ़ लिया था| उसे तमाचा जड़ने के इरादे से|

“दोमुंहा मैं नहीं, आप हैं,” कुन्दनलाल ने ससुर का हाथ बीच ही में रोक दिया था- बिनाकिसी हिचर-मिचर के- “मुझसे बात मुंह-देखे ही करते हैं और बेटी से मुंह जोड़कर कुछ और ही बोल जाते हैं…..”

“मुंह संभाल अपना,” सेठ सुमेरनाथ ने लाल आँखें दिखायी थीं, धमकी दीथी, “तूजानता है मैं इसी पल तुम्हें इस हवेली से बाहर कर सकता हूँ, अपने सिनेमा-घर सेअलग कर सकता हूँ, अपनी बेटी से तुम्हें, तलाक दिलवा सकता हूँ…..”

“नहीं चाहिए फटीचर वह सिनेमाघर मुझे,” कुन्दनलाल ने भी लाल-पीली आँखें निकाल ली थीं, “नहीं चाहिए मनहूस निपूती यह हवेली मुझे| नहींचाहिए बेडौल यह बाँझ कुबड़ी मुझे|”

“निकल यहाँ से,” सेठसुमेरनाथ चिल्लाए थे, “बहुतेरी बुरी कर ली तुमने| बहुतेरा पाप चढ़ाया तूने| बहुतेरा बुरा-भला किया और करवाया तूने| अब और नहीं| एक शब्द और नहीं| एक सांस और नहीं|

“जा रहा हूँ,” कुन्दनलाल हंसा था और चल दिया था|

उसकी हंसी ने रूपकान्ति पर एक अगिन गोले का काम किया था|

और बताना न होगा यही वह पल था जब रूपकान्ति ने स्मृति से बाहर आने का निर्णय लिया था|

जो कूबड़ उसके मांगे का न था, जो कूबड़ कष्टकर था, फिर भी जिसके साथ रहने के लिए रूपकान्ति में समांतराली धैर्य की जो एक ज़मीन तैयार कर रखी थी वह जमीनउसने उसी पल खिसक जाने दी थी|

एक कै की थी और मूर्च्छा ओढ़ ली थी|

(६)

पिता उसे अपने साथ कस्बापुर लिवा लाए थे|

अपनी चिड़ियों, मछलियों, किताबों, रिकार्डों व फिल्मों की ओर अब उससे देखे न बनता था|

तुच्छ अनुकल्प थे वे…..

मात्र आडम्बर…..

अपर्याप्त निरूपण…..

सतही दिलासे…..

भव्य अनुकल्प तो पातकी उस कुन्दनलाल ने चुना था…..

मानुष जात की बानगी लिए जीती-जागती हाड़-मांस की स्पन्दमान अपनी प्रतिकृति…..

एकल अपनी इकाई को गुणा करने की धुन में…..

एक ही झटके में सारे जवाब-सवाल जिसने खत्म कर दिए थे और रूपकान्तिके शेषांश को शून्य के तल पर ले आया था|

ऐसे में रूपकान्ति को अपना आपा खो देने में ही अपना गौरव नजर आया था और वह अपने बाकी दिन अस्पताल में गुज़ार लेने के लिए तैयारहो गयी थी|

दीपक शर्मा

दीपक शर्मा
लेखिका -दीपक शर्मा

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आपको कहानी   निगोड़ी   कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |

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स्लीप मोड https://www.atootbandhann.com/2020/06/%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%b2%e0%a5%80%e0%a4%aa-%e0%a4%ae%e0%a5%8b%e0%a4%a1.html https://www.atootbandhann.com/2020/06/%e0%a4%b8%e0%a5%8d%e0%a4%b2%e0%a5%80%e0%a4%aa-%e0%a4%ae%e0%a5%8b%e0%a4%a1.html#respond Sat, 27 Jun 2020 07:34:53 +0000 https://www.atootbandhann.com/?p=6677 “आज कल मुझे कुछ याद नहीं रहता” कितनी बार हम खुद ये शब्द कहते हैं और कितनी बार अपनों के मुँह से सुनते हैं | पर क्या एक कदम ठहर कर सोचते हैं कि ऐसा क्यों होता है ? क्या हम रोगी के साथ उस तरह से जुड़ पाते हैं जिस तरह से जुड़ना चाहिए […]

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“आज कल मुझे कुछ याद नहीं रहता” कितनी बार हम खुद ये शब्द कहते हैं और कितनी बार अपनों के मुँह से सुनते हैं | पर क्या एक कदम ठहर कर सोचते हैं कि ऐसा क्यों होता है ? क्या हम रोगी के साथ उस तरह से जुड़ पाते हैं जिस तरह से जुड़ना चाहिए | मेडिकल भाषा में कहें तो dissociative disorder के अंतर्गत आने वाला memory loss (amnesia) दो प्रकार का होता है | एक अचानक से और एक धीरे -धीरे | धीरे -धीरे यानी कि भूलने की बिमारी | आज इसी भूलने की बिमारी पर आज हम पढेंगे वंदना गुप्ता जी की कहानी स्लीप मोड | बहुत लोगों ने इस कहानी को पढने की इच्छा व्यक्त की थी | इस कहानी की खास बात है कि ये कहानी एक रोगी की डायरी का हिस्सा है | रोगी किस तरह से एक एक चीज भूलते जाने की अपनी व्यथा कथा डायरी में अंकित करता जाता है | आइये पढ़ें बेहद मार्मिक कहानी …

स्लीप मोड

 

रो पड़ी श्वेता माँ की डायरी का ये पन्ना पढ़कर . 

उफ़ , ममा आपको पहले से ही बोध हो गया था अपनी इस दशा का और एक हम बच्चे हैं जिन्होंने कभी भी आपकी बातों को सीरियसली नहीं लिया . ममा आप तो हमारे लिए हमारी ममा थी न . हमें कभी लगा ही नहीं कि आपको कुछ समस्या हो सकती है . शायद हमारी ये सोच होती है ममा सब हैंडल कर सकती हैं और कर लेंगी . और आप इतना अन्दर तक खुद को जान गयीं . इस हद तक कि भविष्य इंगित कर दिया और हम अपने स्वप्न महलों में सोये रहे .‘ 

 

रोहित , रोहित देख , पढ़ इसे और जान , ममा पहले ही जान गयी थीं उन्हें क्या होने वाला है ” रोते हुए श्वेता ने जब डायरी रोहित को पढवाई उसका हाल भी अपनी बहन से कम न था . बिना पतवार की नाव सी हिचकोले खा रही थी उनकी नैया . वो वहां हैं जहाँ न शब्दों का महत्त्व है न अर्थों का . न माँ की ममता न दुलार . सब अतीत का पन्ना हो गए . दोनों ने अगला पन्ना पल्टा जहाँ लिखा था :

 

आज श्वेता दौड़ती दौड़ती आई और मुँह बना बना कर कहने लगी ,” ममा जानती हो आज क्या हुआ ?” 

क्या हुआ ?”

आँखें चौड़ी कर फाड़ते हुए बोली , “ममा आज अलुमनाई मीट थी न तो सभी पुराने दोस्तों से मिलकर बहुत अच्छा लग रहा था लेकिन तभी एक आकर मेरे गले लगी और बहुत प्यार से बतियाने लगी . मैं बात करने लगी उससे लेकिन उसका नाम ही याद नहीं आ रहा था . चेहरा तो पहचानती ही थी लेकिन उसका नाम क्या था सोच सोच परेशान भी हो रही थी तभी किसी ने उसे आवाज़ दी ,अरे रूही , वहीँ मिलती रहेगी या हमसे भी मिलेगी ? तब जाकर याद आया सिर पर हाथ मारते हुए जब उसने बताया तो मेरी सोच के काँटे फिर अपने अस्तित्व की ओर उठ गए . ओह ! तो इसका मतलब ये सभी के साथ होता है फिर मैं क्यों नाहक परेशान होती हूँ . जबकि सच ये है मुझे चेहरे याद नहीं रहते . यदि चेहरे याद रहते हैं तो नाम भूल जाती हूँ . जब तक उनसे २-४ बार मिलकर बात न कर लूँ , स्मृतिकोष में फीड ही नहीं होते .‘ 

 

रोहित अगला पन्ना पलटता है ,

आज मिसेज गुप्ता बता रही थीं जब वो बाज़ार जा रही थीं तो कोई उनका पीछा करने लगा. वो तेज तेज चलने लगीं तो पीछे चलने वाले ने भी गति पकड़ ली . किसी तरह वो बाज़ार पहुँची तो साँस में साँस आई . बहुत सुन्दर हैं मिसेज गुप्ता . लगता ही नहीं शादीशुदा और दो बच्चों की माँ हैं . यूं लगता है अभी रिश्ता करवा दिया जाए . उस पर वेस्टर्न ड्रेस में तो उम्र और छोटी दिखने लगती है ऐसे में वो क्या कहते हैं ………..और सोच की बत्ती गुल हो गयी . शब्द किसी बीहड़ में जाकर दफ़न हो गया . मैं सोचती रहती हूँ और सोचती ही रहती हूँ उस अंग्रेजी नाम को मगर सिरे से नदारद . हाँ हाँ जानती हूँ , दिमाग से निकल गया है , अभी आएगा याद मगर हर कोशिश नाकाम हो जाती है . मैं उनके साथ इस बातचीत में शामिल होना चाहती थी क्योंकि वो बार बार उसी घटना को दोहरा रही थीं मगर इतनी सी देर में ही शब्द स्मृति से फिसलकर जाने किस खाई में खो गया कि मैंने हिंदी में ही बात करना ठीक समझा . वैसे भी अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करना मेरी आदत में शुमार है इसलिए गाडी वहीँ अटक गयी . लेकिन अब याद आ गया हाँ , स्टाकर(stalker). जैसे ही याद आता है बच्चे सी खिल उठती हूँ जैसे कोई खजाना हाथ लग गया हो . जाने वो क्या करता सोच परेशान जो थी . बस उतर गयी पटरी से गाड़ी . सोचती हूँ कब तक चलेगी या चल पाएगी ऐसे भी ज़िन्दगी . जब जरूरत हो वांछित शब्द मेरे पास नहीं आते जाने कहाँ स्मृति तकिया लगाकर सो  जाती है . शायद नियति किसी तथ्य से वाकिफ कराना चाह रही हो जो अभी समझ से परे है . 

 

अगला पन्ना 

 

पटाक्षेप जल्दी नहीं होता लाइलाज बीमारियों का . सुना है लाइलाज है . तो क्या मुझे भूलने की बीमारी हो गयी है . चलो अच्छा ही है . भूल जाऊँ सब कुछ . करता है मन कभी कभी ऐसा . एक बिल्कुल शांत , अलौकिक आनंद में उतर जाऊँ . खुद को डूबा डालूँ तो स्मृति लोप अभिशाप से वरदान बन जाए . मगर हकीकत की बेड़ियों ने इस कदर जकड़ा है कि सोचती हूँ , क्या याद रहेगी  मुझे वो अलौकिक आनंद की अनुभूति ? समस्या तो यही है . समाधान सिर्फ दवाइयों और दिनचर्या में …….. कहा था डॉक्टर ने . चलने लगी खींची गयी पगडण्डी पर . शायद बदल जाए जीवन और लिखे एक नयी इबारत . मगर क्या संभव है अकेले के बलबूते पहाड़ चढ़ना . जरूरत थी मुझे सबके साथ और विश्वास की . सबके प्यार की , अपनेपन की . मुझे समझने की , मेरी समस्या से जुड़ने की . मगर ………सिर्फ मगर तक ही रह गयी हूँ मैं . अकेली , बिल्कुल अकेली . राकेश मस्तमौला इंसान . तकलीफ है डॉक्टर को दिखा आओ . अब इसमें हम क्या करें . तुम्हें समस्या है तो तुम्हें ही सावधानियां बरतनी पड़ेंगी न . इसमें बताओ मैं क्या कर सकता हूँ . मैं तो चलो तुम्हारे कामों में हाथ बंटा सकता हूँ लेकिन अपने लिए करना तो तुम्हें ही पड़ेगा न . कर देते हैं इतना कहकर निरुत्तर . वही राकेश, मेरी इसी समस्या की वजह से उत्पन्न स्थिति में भूल जाते हैं और तोहमतों के टोकरे मेरे सिर पर लाद देते हैं . बस उन्होंने जो कहा जैसा कहा वो पूरा होना चाहिए . भूलना लिस्ट में शामिल ही नहीं होता . भूलो तो जीवन भर का किया धरा पल भर में धराशायी . जाने कैसा  है उनका मेरे प्रति लगाव या ध्यान रखने का नजरिया . समझ नहीं पाती लेकिन कहूँ किससे ? कौन समझता है ? सबके लिए जैसी पहले थी वैसी ही हूँ . भूलना मेरा दोष है समस्या नहीं . फिर बच्चे हों या बाप . 

 

अगला पन्ना 

 

आजकल साइन भी ढंग से नहीं कर पाती . कई बार कहा राकेश और बच्चों को . बैंक में मेरे साइन बदलवा दो . हाथ कांपते हैं और सही नहीं लिख पाते लेकिन वो कहते हैं , सही तो कर रही हो , कुछ नहीं हुआ है . जब नहीं मिलेंगे तब देखेंगे . श्वेता हँसते हुए कहती है , पापा , अंगूठा लगवा देंगे ममा का और वातावरण एकदम खुशनुमा हो जाता है . मगर मेरी सोच के अंधड़ मुझे सचेत करते रहते हैं . गलत हो रहा है ये सब . कुछ तो गलत है . मगर किसी को फर्क नहीं पड़ रहा . सबको लगता है मुझे वहम है . शायद मेरा वहम ही हो सोच तसल्ली करती रही .

 

अगला पन्ना 

 

आजकल बच्चों और राकेश पर ज्यादा निर्भर करने लगी हूँ . कह सकती हूँ उनके बिना कुछ भी करने की हिम्मत ही नहीं होती . सब मुझे डांटते हैं . ममा आप अकेली सब कर सकती हो . हमेशा करती रही हो न तो अब क्या हुआ . हम कहाँ कहाँ आपके साथ जायेंगे ? हम कैसे नौकरी करें और तुम्हारे सारे काम भी . ममा एक बार कोशिश तो किया करो अगर तब भी न हो तो हम करेंगे चाहे जैसे भी . और मैं कोशिश के पायदान चढ़ती हूँ लेकिन निराशा और हताशा दो सहेलियों सी अक्सर मेरे साथ मंडराती रहती हैं . मुझे डर लगता है अकेले जाने में . कोई मेरे साथ चले बस . मगर सच है ये कोई हर वक्त मेरे साथ कैसे हो सकता है ? उन पर और भी जिम्मेदारियां हैं . ये मुझे समझना होगा और अपना हर काम खुद करना होगा . करती हूँ एक बार फिर कोशिश . मगर तब क्या करूँ जब याद सिकुड़ कर सूखे पत्ते सी हो जाती है और मैं बेबस . दूसरी तरफ डर  धराशायी कर देता है हर हौसले के गुम्बद को . मैं अकेली कुछ नहीं कर सकती . नहीं नहीं , कर सकती हूँ , लेकिन फिर वही भय . एक अंदरूनी डर , मुझसे ये नहीं हो सकता , मुझे फिर निरीह बना देता है . जबकि कुछ साल पहले तक तो ऐसा नहीं था . कहीं आधी रात भी जाना हो बेधड़क निकल जाती थी . कोई काम हो चुटकी में कर देती थी मगर अब किस काले साए ने जकड ली है मेरी चेतना कि खुद से विश्वास ही उठ गया है .

 

अगला पन्ना 

 

आजकल शब्दों के उच्चारण में जाने कौन सा कबूतर फडफडाने लगता है कि शब्द साफ़ निकल ही नहीं पाते . मुझे जाना होता है कई आयोजनों में जहाँ मैं मुख्य वक्ता होती हूँ लेकिन अब कतराने लगी हूँ जाने से , कुछ बोलने से . शब्द स्पष्ट नहीं बोल पाती . कुछ बोल पाती हूँ और कुछ नहीं . बंद हो रही है हर गली , हर नुक्कड़ , हर शहर . मैं आजकल कैद हो रही हूँ खुद के तिलिस्म में . ये क्यों हो रहा है जानती हूँ लेकिन कैसे सही होगा , नहीं जानती . डॉक्टर ने एक बार कहा था लिखा करो . लिखने से याददाश्त बढती है इसलिए इस डायरी में लिखने लगी . जो जैसा महसूस किया सब . शायद फर्क पड़े . शायद जिस दिन मैं खुद को पूरी तरह खो दूँ उस दिन वो डॉक्टर इसे पढ़ मेरी कुछ सहायता कर सके . 

 

अगला पन्ना 

 

आजकल बात बात पर सबसे लड़ पड़ती हूँ .. गुस्सा होने लगती हूँ . मेरे मन मुताबिक कुछ नहीं होता तो चीखना मेरी आदत में शुमार होने लगा है . सब मुझसे कतराने लगे हैं . कम बात करते हैं . न जाने किस बात पर भड़क जाऊँ . मैं नितांत अकेली होती जा रही हूँ . क्यों नहीं समझते ये सब मुझे ? मैंने ऐसा क्या कर दिया . अब अपनी बात रखना क्या बुरा है या गलत ? लेकिन मेरी बात को काटना इन लोगों की आदत बन चुकी है . कभी नहीं मानते . तो क्या गुस्सा नहीं आएगा . क्या मैं हर बार ही गलत होती हूँ . मैंने उनसे और उन सबने मुझसे एक दूरी बना ली है . ज़िन्दगी एक उलझन का पर्याय बनकर रह गयी है . जब दिल दिमाग उलझने लगे , अपने पर विश्वास ख़त्म होने लगे , कहीं कोई पर्याय नज़र ही न आये , एक बेबसी की तुला पर हर वक्त खुद को लटका पाओ तो कैसे संभव है शांत रहना . कोई नहीं समझता न समझना चाहता तो फिर मैं भी आखिर कब तक सबको समझाऊँ . होने दो जो होता है . जिस दिन अपने आप से भी दूर हो जाऊँगी शायद उस दिन समझ सकें सब मेरी दशा .

 

अगला पन्ना 

 

शायद एक दिन सब भूल जाऊँ लेकिन मुझे पता है मेरे बच्चे मुझे यहाँ जरूर ढूँढेंगे . बच्चों कुछ चीजें जब स्लीप मोड़ में चली जाती हैं तो वहां प्रतिध्वनियाँ नहीं मिलतीं . तुम्हारी माँ जिस दिन ऐसे किसी मोड में चली जाए तो परेशान मत होना क्योंकि हर सोया हुआ जाग जाए जरूरी नहीं होता . बस परेशान हूँ तो सिर्फ तुम्हारे लिए . अभी तुमने देखा ही क्या है . उम्र का पहला हिस्सा भी पूरी तरह नहीं . ऐसे में मेरा अचानक ऐसे खो जाना कहीं तुम बर्दाश्त न कर पाओ इसलिए कहती हूँ . मेरी चिंता छोड़ ज़िन्दगी में आगे बढ़ जाना . स्पर्श करते रहना मुझे . हो सकता है किसी दिन जाग जाऊँ . यदि ऐसा भी न हुआ तो भी तुम्हारा स्पर्श मुझ तक जरूर पहुँचेगा . माँ और बच्चों के रिश्ते के बीच कोई बीमारी दीवार बन कर कभी खडी नहीं हो सकती . 

 

अंतिम पन्ना 

 

यूँ तो भूलने की आदत बरसों पहले शुरू हो गयी थी जो अब इतनी पक गयी है कि उसके असमय बाल सफ़ेद हो गए हैं . आज इन्हें रंगने का कोई रंग भी नहीं बना बाज़ार में जो जाएँ खरीदें और रंग दें . अब इन्होने तो सोच लिया है इसका तो जनाजा निकाल कर ही रहना है तभी तो जब चाहे जहाँ चाहे दगा दे जाती है खासतौर से तब जब किसी से बात करती हूँ  शब्द नदारद . दिमाग में होते हुए भी अदृश्य . एक अजीब सी बेचैनी से घिर उठती हूँ . 

 

यूँ आये दिन सबसे कहती हूँ मुझे याद नहीं रहता लेकिन सबके लिए वो भी महज एक साधारण बात है फिर चाहे भूलने की वजह से जाने कितनी महाभारत हुईं घर में लेकिन तब भी सबके लिए इसमें कुछ ख़ास नहीं तो मैं ही भला क्यों सोचूं कि मुझे कुछ हुआ है . ठीक हूँ , ऐसा तो उम्र के साथ होता ही है , सब कहते हैं , मान लेती हूँ . क्या सच में ऐसा होता है ? क्या ये किसी रोग का कोई लक्षण तो नहीं ? डरती हूँ कभी कभी . जब सोचती हूँ ऐसा न हो किसी दिन अपना नाम ही भूल जाऊँ , अपना घर , अपना पता और अपने रिश्ते . होता है कभी कभी आभास सा . जैसे भूल सा गयी हूँ सब कुछ . एक कोरा कागज़ बिना किसी स्मृति के . तब ? तब क्या होगा

 

आवाज़े घोषणापत्र होती हैं जीवन्तता का तो  स्मृति उसकी धड़कन . बिना धड़कन के कैसा जीवन ? शून्य का पसर जाना तो ज़िन्दगी नहीं . विस्मृति से नहीं होंगे चिन्हित रास्ते . जानती हूँ . तो फिर क्या करूँ , कौन सा उपाय करूँ जो खुद को एक अंधी खाई में उतरने से बचा सकूँ . 

 

न अब ये मत कहना लिख कर रखो तो याद रहता है क्योंकि तब भी याद रहना जरूरी है कि कहीं कुछ लिखा है . गाँठ मार लो पल्लू को , चुन्नी को या चोटी को मगर क्या करूँ गाँठ तो दिख जाती है मगर याद तब भी धोखा दे जाती है आखिर ये बाँधी क्यों ?

 

एक अजीब सी सिम्फनी है ज़िन्दगी की . जब यादों में उगा करते थे सुरमई फूल तब सोचा भी नहीं था ऐसा वक्त आएगा या आ सकता है . आज लौटा नहीं जा सकता अतीत में लेकिन भविष्य के दर्पण से मुँह चुराने के अलावा कोई विकल्प नज़र नहीं आता . 

 

वो मेरा कौन सा वक्त था ये मेरा कौन सा वक्त है . दहशत का साया अक्सर लीलता है मुझे . यूं उम्र भर विस्मृत करना चाहा बहुत कुछ लेकिन नहीं हुआ . मगर आज विस्मृति का दंश  झकझोर रहा है . आज विस्मृति के भय से व्याकुल हैं मेरी धमनियाँ और उनमे बहता रक्त जैसे यहीं रुक जाना चाहता है . आगे बढ़ना भयावह समय की कल्पना से भी ज्यादा भयावह प्रतीत हो रहा है . पढ़ा और जाना अपनी बीमारी के बारे में . लेकिन जब पढ़ा तो लगा गलत मैं नहीं वो सब हैं . 

 

मैं बैठी हूँ . कहाँ नहीं मालूम . शायद कोई कमरा . कोई नहीं वहां . शायद मैं भी नहीं . एक शून्य का शून्य से मिलन . जहाँ होने को सूर्य का प्रकाश भी है और हवा का स्पर्श भी मगर नहीं है तो मेरे पास उसे महसूसने की क्षमता . शब्द , वाक्य सब चुक चुके . जोर नहीं दे सकती स्मृति पर . जानती जो नहीं जोर देना होता है क्या ? ये एक बिना वाक्य के बना विन्यास है जहाँ कल्पना है न हकीकत . वस्तुतः अंत यहीं से निश्चित हो चुका है क्योंकि अवांछित तत्व बेजान वस्तु अपनी उपादेयता जब खो देते हैं , उनके सन्दर्भ बदल जाते हैं . शायद यही है मेरा कल जो आज मुझसे मिलवा रहा है . भविष्यवक्ता तो नहीं लेकिन बदलते सन्दर्भ बोध करा जाते हैं आने वाली सुनामियों का .

 

स्मृति ह्रास तो विलाप का भी मौका नहीं देता इसलिए शोकमुक्त होने को जरूरी था ये विधवा विलाप . समय अपनी चाल चलने को कटिबद्ध है .

 

उफ़ ! ममा आपने कितना कुछ सहा और एक हम थे कि अपनी ही दुनिया में मगन रहे . कभी तुम्हें सीरियसली लिया ही नहीं . आज ममा होकर भी नहीं हैं हमारे साथ . ऐसा सिर्फ और सिर्फ हमारी लापरवाही के कारण ही हुआ श्वेता . अब हमें ममा को वापस ज़िन्दगी से जोड़ना होगा .

मगर कैसे रोहित ?”

उनकी समस्या को समझकर , उन्हें अपना साथ देकर” 

बहुत देर हो चुकी है अब रोहित . मैं सब पूछ चुकी हूँ डॉ से . लाइलाज बीमारी है ये . समय रहते उपचार ही निदान है .” 

ममा को कल हमने छोड़ा और उन्होंने हमें आज . अब चाहकर भी फिर से जीवन आकार नहीं लेगा . अब पूरा ध्यान पापा पर लगाओ . कहीं ऐसा न हो इस बार कहीं हम अपनी अनदेखी के कारण पापा ………. ममा के गम में पापा ने खुद को कैसे कैद सा कर लिया है . वो खुद को उनकी इस दशा का दोषी मानने लगे हैं .

श्वेता दोषी तो हम सभी हैं ………यदि ममा ने ये सब न लिखा होता तो शायद हम उन्हें और उनकी समस्या को आज भी न समझ पाते . ममा जानती थीं अपना भविष्य ….

वंदना गुप्ता

 

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