स्लीप मोड

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वंदना गुप्ता
वंदना गुप्ता की कहानी स्लीप मोड

“आज कल मुझे कुछ याद नहीं रहता” कितनी बार हम खुद ये शब्द कहते हैं और कितनी बार अपनों के मुँह से सुनते हैं | पर क्या एक कदम ठहर कर सोचते हैं कि ऐसा क्यों होता है ? क्या हम रोगी के साथ उस तरह से जुड़ पाते हैं जिस तरह से जुड़ना चाहिए | मेडिकल भाषा में कहें तो dissociative disorder के अंतर्गत आने वाला memory loss (amnesia) दो प्रकार का होता है | एक अचानक से और एक धीरे -धीरे | धीरे -धीरे यानी कि भूलने की बिमारी | आज इसी भूलने की बिमारी पर आज हम पढेंगे वंदना गुप्ता जी की कहानी स्लीप मोड | बहुत लोगों ने इस कहानी को पढने की इच्छा व्यक्त की थी | इस कहानी की खास बात है कि ये कहानी एक रोगी की डायरी का हिस्सा है | रोगी किस तरह से एक एक चीज भूलते जाने की अपनी व्यथा कथा डायरी में अंकित करता जाता है | आइये पढ़ें बेहद मार्मिक कहानी …

स्लीप मोड

 

रो पड़ी श्वेता माँ की डायरी का ये पन्ना पढ़कर . 

उफ़ , ममा आपको पहले से ही बोध हो गया था अपनी इस दशा का और एक हम बच्चे हैं जिन्होंने कभी भी आपकी बातों को सीरियसली नहीं लिया . ममा आप तो हमारे लिए हमारी ममा थी न . हमें कभी लगा ही नहीं कि आपको कुछ समस्या हो सकती है . शायद हमारी ये सोच होती है ममा सब हैंडल कर सकती हैं और कर लेंगी . और आप इतना अन्दर तक खुद को जान गयीं . इस हद तक कि भविष्य इंगित कर दिया और हम अपने स्वप्न महलों में सोये रहे .‘ 

 

रोहित , रोहित देख , पढ़ इसे और जान , ममा पहले ही जान गयी थीं उन्हें क्या होने वाला है ” रोते हुए श्वेता ने जब डायरी रोहित को पढवाई उसका हाल भी अपनी बहन से कम न था . बिना पतवार की नाव सी हिचकोले खा रही थी उनकी नैया . वो वहां हैं जहाँ न शब्दों का महत्त्व है न अर्थों का . न माँ की ममता न दुलार . सब अतीत का पन्ना हो गए . दोनों ने अगला पन्ना पल्टा जहाँ लिखा था :

 

आज श्वेता दौड़ती दौड़ती आई और मुँह बना बना कर कहने लगी ,” ममा जानती हो आज क्या हुआ ?” 

क्या हुआ ?”

आँखें चौड़ी कर फाड़ते हुए बोली , “ममा आज अलुमनाई मीट थी न तो सभी पुराने दोस्तों से मिलकर बहुत अच्छा लग रहा था लेकिन तभी एक आकर मेरे गले लगी और बहुत प्यार से बतियाने लगी . मैं बात करने लगी उससे लेकिन उसका नाम ही याद नहीं आ रहा था . चेहरा तो पहचानती ही थी लेकिन उसका नाम क्या था सोच सोच परेशान भी हो रही थी तभी किसी ने उसे आवाज़ दी ,अरे रूही , वहीँ मिलती रहेगी या हमसे भी मिलेगी ? तब जाकर याद आया सिर पर हाथ मारते हुए जब उसने बताया तो मेरी सोच के काँटे फिर अपने अस्तित्व की ओर उठ गए . ओह ! तो इसका मतलब ये सभी के साथ होता है फिर मैं क्यों नाहक परेशान होती हूँ . जबकि सच ये है मुझे चेहरे याद नहीं रहते . यदि चेहरे याद रहते हैं तो नाम भूल जाती हूँ . जब तक उनसे २-४ बार मिलकर बात न कर लूँ , स्मृतिकोष में फीड ही नहीं होते .‘ 

 

रोहित अगला पन्ना पलटता है ,

आज मिसेज गुप्ता बता रही थीं जब वो बाज़ार जा रही थीं तो कोई उनका पीछा करने लगा. वो तेज तेज चलने लगीं तो पीछे चलने वाले ने भी गति पकड़ ली . किसी तरह वो बाज़ार पहुँची तो साँस में साँस आई . बहुत सुन्दर हैं मिसेज गुप्ता . लगता ही नहीं शादीशुदा और दो बच्चों की माँ हैं . यूं लगता है अभी रिश्ता करवा दिया जाए . उस पर वेस्टर्न ड्रेस में तो उम्र और छोटी दिखने लगती है ऐसे में वो क्या कहते हैं ………..और सोच की बत्ती गुल हो गयी . शब्द किसी बीहड़ में जाकर दफ़न हो गया . मैं सोचती रहती हूँ और सोचती ही रहती हूँ उस अंग्रेजी नाम को मगर सिरे से नदारद . हाँ हाँ जानती हूँ , दिमाग से निकल गया है , अभी आएगा याद मगर हर कोशिश नाकाम हो जाती है . मैं उनके साथ इस बातचीत में शामिल होना चाहती थी क्योंकि वो बार बार उसी घटना को दोहरा रही थीं मगर इतनी सी देर में ही शब्द स्मृति से फिसलकर जाने किस खाई में खो गया कि मैंने हिंदी में ही बात करना ठीक समझा . वैसे भी अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करना मेरी आदत में शुमार है इसलिए गाडी वहीँ अटक गयी . लेकिन अब याद आ गया हाँ , स्टाकर(stalker). जैसे ही याद आता है बच्चे सी खिल उठती हूँ जैसे कोई खजाना हाथ लग गया हो . जाने वो क्या करता सोच परेशान जो थी . बस उतर गयी पटरी से गाड़ी . सोचती हूँ कब तक चलेगी या चल पाएगी ऐसे भी ज़िन्दगी . जब जरूरत हो वांछित शब्द मेरे पास नहीं आते जाने कहाँ स्मृति तकिया लगाकर सो  जाती है . शायद नियति किसी तथ्य से वाकिफ कराना चाह रही हो जो अभी समझ से परे है . 

 

अगला पन्ना 

 

पटाक्षेप जल्दी नहीं होता लाइलाज बीमारियों का . सुना है लाइलाज है . तो क्या मुझे भूलने की बीमारी हो गयी है . चलो अच्छा ही है . भूल जाऊँ सब कुछ . करता है मन कभी कभी ऐसा . एक बिल्कुल शांत , अलौकिक आनंद में उतर जाऊँ . खुद को डूबा डालूँ तो स्मृति लोप अभिशाप से वरदान बन जाए . मगर हकीकत की बेड़ियों ने इस कदर जकड़ा है कि सोचती हूँ , क्या याद रहेगी  मुझे वो अलौकिक आनंद की अनुभूति ? समस्या तो यही है . समाधान सिर्फ दवाइयों और दिनचर्या में …….. कहा था डॉक्टर ने . चलने लगी खींची गयी पगडण्डी पर . शायद बदल जाए जीवन और लिखे एक नयी इबारत . मगर क्या संभव है अकेले के बलबूते पहाड़ चढ़ना . जरूरत थी मुझे सबके साथ और विश्वास की . सबके प्यार की , अपनेपन की . मुझे समझने की , मेरी समस्या से जुड़ने की . मगर ………सिर्फ मगर तक ही रह गयी हूँ मैं . अकेली , बिल्कुल अकेली . राकेश मस्तमौला इंसान . तकलीफ है डॉक्टर को दिखा आओ . अब इसमें हम क्या करें . तुम्हें समस्या है तो तुम्हें ही सावधानियां बरतनी पड़ेंगी न . इसमें बताओ मैं क्या कर सकता हूँ . मैं तो चलो तुम्हारे कामों में हाथ बंटा सकता हूँ लेकिन अपने लिए करना तो तुम्हें ही पड़ेगा न . कर देते हैं इतना कहकर निरुत्तर . वही राकेश, मेरी इसी समस्या की वजह से उत्पन्न स्थिति में भूल जाते हैं और तोहमतों के टोकरे मेरे सिर पर लाद देते हैं . बस उन्होंने जो कहा जैसा कहा वो पूरा होना चाहिए . भूलना लिस्ट में शामिल ही नहीं होता . भूलो तो जीवन भर का किया धरा पल भर में धराशायी . जाने कैसा  है उनका मेरे प्रति लगाव या ध्यान रखने का नजरिया . समझ नहीं पाती लेकिन कहूँ किससे ? कौन समझता है ? सबके लिए जैसी पहले थी वैसी ही हूँ . भूलना मेरा दोष है समस्या नहीं . फिर बच्चे हों या बाप . 

 

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आजकल साइन भी ढंग से नहीं कर पाती . कई बार कहा राकेश और बच्चों को . बैंक में मेरे साइन बदलवा दो . हाथ कांपते हैं और सही नहीं लिख पाते लेकिन वो कहते हैं , सही तो कर रही हो , कुछ नहीं हुआ है . जब नहीं मिलेंगे तब देखेंगे . श्वेता हँसते हुए कहती है , पापा , अंगूठा लगवा देंगे ममा का और वातावरण एकदम खुशनुमा हो जाता है . मगर मेरी सोच के अंधड़ मुझे सचेत करते रहते हैं . गलत हो रहा है ये सब . कुछ तो गलत है . मगर किसी को फर्क नहीं पड़ रहा . सबको लगता है मुझे वहम है . शायद मेरा वहम ही हो सोच तसल्ली करती रही .

 

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आजकल बच्चों और राकेश पर ज्यादा निर्भर करने लगी हूँ . कह सकती हूँ उनके बिना कुछ भी करने की हिम्मत ही नहीं होती . सब मुझे डांटते हैं . ममा आप अकेली सब कर सकती हो . हमेशा करती रही हो न तो अब क्या हुआ . हम कहाँ कहाँ आपके साथ जायेंगे ? हम कैसे नौकरी करें और तुम्हारे सारे काम भी . ममा एक बार कोशिश तो किया करो अगर तब भी न हो तो हम करेंगे चाहे जैसे भी . और मैं कोशिश के पायदान चढ़ती हूँ लेकिन निराशा और हताशा दो सहेलियों सी अक्सर मेरे साथ मंडराती रहती हैं . मुझे डर लगता है अकेले जाने में . कोई मेरे साथ चले बस . मगर सच है ये कोई हर वक्त मेरे साथ कैसे हो सकता है ? उन पर और भी जिम्मेदारियां हैं . ये मुझे समझना होगा और अपना हर काम खुद करना होगा . करती हूँ एक बार फिर कोशिश . मगर तब क्या करूँ जब याद सिकुड़ कर सूखे पत्ते सी हो जाती है और मैं बेबस . दूसरी तरफ डर  धराशायी कर देता है हर हौसले के गुम्बद को . मैं अकेली कुछ नहीं कर सकती . नहीं नहीं , कर सकती हूँ , लेकिन फिर वही भय . एक अंदरूनी डर , मुझसे ये नहीं हो सकता , मुझे फिर निरीह बना देता है . जबकि कुछ साल पहले तक तो ऐसा नहीं था . कहीं आधी रात भी जाना हो बेधड़क निकल जाती थी . कोई काम हो चुटकी में कर देती थी मगर अब किस काले साए ने जकड ली है मेरी चेतना कि खुद से विश्वास ही उठ गया है .

 

अगला पन्ना 

 

आजकल शब्दों के उच्चारण में जाने कौन सा कबूतर फडफडाने लगता है कि शब्द साफ़ निकल ही नहीं पाते . मुझे जाना होता है कई आयोजनों में जहाँ मैं मुख्य वक्ता होती हूँ लेकिन अब कतराने लगी हूँ जाने से , कुछ बोलने से . शब्द स्पष्ट नहीं बोल पाती . कुछ बोल पाती हूँ और कुछ नहीं . बंद हो रही है हर गली , हर नुक्कड़ , हर शहर . मैं आजकल कैद हो रही हूँ खुद के तिलिस्म में . ये क्यों हो रहा है जानती हूँ लेकिन कैसे सही होगा , नहीं जानती . डॉक्टर ने एक बार कहा था लिखा करो . लिखने से याददाश्त बढती है इसलिए इस डायरी में लिखने लगी . जो जैसा महसूस किया सब . शायद फर्क पड़े . शायद जिस दिन मैं खुद को पूरी तरह खो दूँ उस दिन वो डॉक्टर इसे पढ़ मेरी कुछ सहायता कर सके . 

 

अगला पन्ना 

 

आजकल बात बात पर सबसे लड़ पड़ती हूँ .. गुस्सा होने लगती हूँ . मेरे मन मुताबिक कुछ नहीं होता तो चीखना मेरी आदत में शुमार होने लगा है . सब मुझसे कतराने लगे हैं . कम बात करते हैं . न जाने किस बात पर भड़क जाऊँ . मैं नितांत अकेली होती जा रही हूँ . क्यों नहीं समझते ये सब मुझे ? मैंने ऐसा क्या कर दिया . अब अपनी बात रखना क्या बुरा है या गलत ? लेकिन मेरी बात को काटना इन लोगों की आदत बन चुकी है . कभी नहीं मानते . तो क्या गुस्सा नहीं आएगा . क्या मैं हर बार ही गलत होती हूँ . मैंने उनसे और उन सबने मुझसे एक दूरी बना ली है . ज़िन्दगी एक उलझन का पर्याय बनकर रह गयी है . जब दिल दिमाग उलझने लगे , अपने पर विश्वास ख़त्म होने लगे , कहीं कोई पर्याय नज़र ही न आये , एक बेबसी की तुला पर हर वक्त खुद को लटका पाओ तो कैसे संभव है शांत रहना . कोई नहीं समझता न समझना चाहता तो फिर मैं भी आखिर कब तक सबको समझाऊँ . होने दो जो होता है . जिस दिन अपने आप से भी दूर हो जाऊँगी शायद उस दिन समझ सकें सब मेरी दशा .

 

अगला पन्ना 

 

शायद एक दिन सब भूल जाऊँ लेकिन मुझे पता है मेरे बच्चे मुझे यहाँ जरूर ढूँढेंगे . बच्चों कुछ चीजें जब स्लीप मोड़ में चली जाती हैं तो वहां प्रतिध्वनियाँ नहीं मिलतीं . तुम्हारी माँ जिस दिन ऐसे किसी मोड में चली जाए तो परेशान मत होना क्योंकि हर सोया हुआ जाग जाए जरूरी नहीं होता . बस परेशान हूँ तो सिर्फ तुम्हारे लिए . अभी तुमने देखा ही क्या है . उम्र का पहला हिस्सा भी पूरी तरह नहीं . ऐसे में मेरा अचानक ऐसे खो जाना कहीं तुम बर्दाश्त न कर पाओ इसलिए कहती हूँ . मेरी चिंता छोड़ ज़िन्दगी में आगे बढ़ जाना . स्पर्श करते रहना मुझे . हो सकता है किसी दिन जाग जाऊँ . यदि ऐसा भी न हुआ तो भी तुम्हारा स्पर्श मुझ तक जरूर पहुँचेगा . माँ और बच्चों के रिश्ते के बीच कोई बीमारी दीवार बन कर कभी खडी नहीं हो सकती . 

 

अंतिम पन्ना 

 

यूँ तो भूलने की आदत बरसों पहले शुरू हो गयी थी जो अब इतनी पक गयी है कि उसके असमय बाल सफ़ेद हो गए हैं . आज इन्हें रंगने का कोई रंग भी नहीं बना बाज़ार में जो जाएँ खरीदें और रंग दें . अब इन्होने तो सोच लिया है इसका तो जनाजा निकाल कर ही रहना है तभी तो जब चाहे जहाँ चाहे दगा दे जाती है खासतौर से तब जब किसी से बात करती हूँ  शब्द नदारद . दिमाग में होते हुए भी अदृश्य . एक अजीब सी बेचैनी से घिर उठती हूँ . 

 

यूँ आये दिन सबसे कहती हूँ मुझे याद नहीं रहता लेकिन सबके लिए वो भी महज एक साधारण बात है फिर चाहे भूलने की वजह से जाने कितनी महाभारत हुईं घर में लेकिन तब भी सबके लिए इसमें कुछ ख़ास नहीं तो मैं ही भला क्यों सोचूं कि मुझे कुछ हुआ है . ठीक हूँ , ऐसा तो उम्र के साथ होता ही है , सब कहते हैं , मान लेती हूँ . क्या सच में ऐसा होता है ? क्या ये किसी रोग का कोई लक्षण तो नहीं ? डरती हूँ कभी कभी . जब सोचती हूँ ऐसा न हो किसी दिन अपना नाम ही भूल जाऊँ , अपना घर , अपना पता और अपने रिश्ते . होता है कभी कभी आभास सा . जैसे भूल सा गयी हूँ सब कुछ . एक कोरा कागज़ बिना किसी स्मृति के . तब ? तब क्या होगा

 

आवाज़े घोषणापत्र होती हैं जीवन्तता का तो  स्मृति उसकी धड़कन . बिना धड़कन के कैसा जीवन ? शून्य का पसर जाना तो ज़िन्दगी नहीं . विस्मृति से नहीं होंगे चिन्हित रास्ते . जानती हूँ . तो फिर क्या करूँ , कौन सा उपाय करूँ जो खुद को एक अंधी खाई में उतरने से बचा सकूँ . 

 

न अब ये मत कहना लिख कर रखो तो याद रहता है क्योंकि तब भी याद रहना जरूरी है कि कहीं कुछ लिखा है . गाँठ मार लो पल्लू को , चुन्नी को या चोटी को मगर क्या करूँ गाँठ तो दिख जाती है मगर याद तब भी धोखा दे जाती है आखिर ये बाँधी क्यों ?

 

एक अजीब सी सिम्फनी है ज़िन्दगी की . जब यादों में उगा करते थे सुरमई फूल तब सोचा भी नहीं था ऐसा वक्त आएगा या आ सकता है . आज लौटा नहीं जा सकता अतीत में लेकिन भविष्य के दर्पण से मुँह चुराने के अलावा कोई विकल्प नज़र नहीं आता . 

 

वो मेरा कौन सा वक्त था ये मेरा कौन सा वक्त है . दहशत का साया अक्सर लीलता है मुझे . यूं उम्र भर विस्मृत करना चाहा बहुत कुछ लेकिन नहीं हुआ . मगर आज विस्मृति का दंश  झकझोर रहा है . आज विस्मृति के भय से व्याकुल हैं मेरी धमनियाँ और उनमे बहता रक्त जैसे यहीं रुक जाना चाहता है . आगे बढ़ना भयावह समय की कल्पना से भी ज्यादा भयावह प्रतीत हो रहा है . पढ़ा और जाना अपनी बीमारी के बारे में . लेकिन जब पढ़ा तो लगा गलत मैं नहीं वो सब हैं . 

 

मैं बैठी हूँ . कहाँ नहीं मालूम . शायद कोई कमरा . कोई नहीं वहां . शायद मैं भी नहीं . एक शून्य का शून्य से मिलन . जहाँ होने को सूर्य का प्रकाश भी है और हवा का स्पर्श भी मगर नहीं है तो मेरे पास उसे महसूसने की क्षमता . शब्द , वाक्य सब चुक चुके . जोर नहीं दे सकती स्मृति पर . जानती जो नहीं जोर देना होता है क्या ? ये एक बिना वाक्य के बना विन्यास है जहाँ कल्पना है न हकीकत . वस्तुतः अंत यहीं से निश्चित हो चुका है क्योंकि अवांछित तत्व बेजान वस्तु अपनी उपादेयता जब खो देते हैं , उनके सन्दर्भ बदल जाते हैं . शायद यही है मेरा कल जो आज मुझसे मिलवा रहा है . भविष्यवक्ता तो नहीं लेकिन बदलते सन्दर्भ बोध करा जाते हैं आने वाली सुनामियों का .

 

स्मृति ह्रास तो विलाप का भी मौका नहीं देता इसलिए शोकमुक्त होने को जरूरी था ये विधवा विलाप . समय अपनी चाल चलने को कटिबद्ध है .

 

उफ़ ! ममा आपने कितना कुछ सहा और एक हम थे कि अपनी ही दुनिया में मगन रहे . कभी तुम्हें सीरियसली लिया ही नहीं . आज ममा होकर भी नहीं हैं हमारे साथ . ऐसा सिर्फ और सिर्फ हमारी लापरवाही के कारण ही हुआ श्वेता . अब हमें ममा को वापस ज़िन्दगी से जोड़ना होगा .

मगर कैसे रोहित ?”

उनकी समस्या को समझकर , उन्हें अपना साथ देकर” 

बहुत देर हो चुकी है अब रोहित . मैं सब पूछ चुकी हूँ डॉ से . लाइलाज बीमारी है ये . समय रहते उपचार ही निदान है .” 

ममा को कल हमने छोड़ा और उन्होंने हमें आज . अब चाहकर भी फिर से जीवन आकार नहीं लेगा . अब पूरा ध्यान पापा पर लगाओ . कहीं ऐसा न हो इस बार कहीं हम अपनी अनदेखी के कारण पापा ………. ममा के गम में पापा ने खुद को कैसे कैद सा कर लिया है . वो खुद को उनकी इस दशा का दोषी मानने लगे हैं .

श्वेता दोषी तो हम सभी हैं ………यदि ममा ने ये सब न लिखा होता तो शायद हम उन्हें और उनकी समस्या को आज भी न समझ पाते . ममा जानती थीं अपना भविष्य ….

वंदना गुप्ता

 

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