श्रीराम द्वारा सीता का त्याग : सत्य या इतिहास के साथ की गयी छेड़ छाड़

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अभी कुछ दिन पहले इस लॉक डाउन काल में  दूरदर्शन में पूराने लोकप्रिय सीरियल रामायण और महाभारत का पुन: प्रसारण शुरू हुआ | जिसने भी निर्दोष, पति से अनन्य प्रेम करने वाली माता सीता का निर्वासन और धरती में समा जाने का दृश्य देखा उनका ह्रदय आर्तनाद कर उठा |क्या अपनी पत्नी के प्रति धर्म निभाना राज धर्म में  नहीं आता ? आज अटूट बंधन में चिंतन -मंथन में हम इसे बिलकुल नए नज़रिए से देखेंगे | जिसे अपनी तार्किक भाषा में सिद्ध करने का प्रयास किया है नयी कलम के सिपाही मोहित उपाध्याय ने …

श्रीराम द्वारा सीता का त्याग : सत्य या इतिहास के साथ की गयी छेड़ छाड़

निस्संदेह यह बात सत्य हैं कि हमारी बड़ी मां सीता के बिना श्रीराम का कोई अस्तित्व नहीं हैं इसलिए भारतवर्ष में जय श्रीराम नहीं बल्कि जय सियाराम बोला जाता है । जिनके नाम को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता भला कहीं ऐसा हो सकता हैं कि वह व्यक्ति अपनी धर्मपत्नी को, जिससे वह अपने में सर्वाधिक प्यार करता है, का त्याग कर दें । यह किसी नर भुजंग द्वारा श्रीराम के मर्यादित जीवन पर कलंक लगाने के लिए भारतवर्ष के इतिहास  और सभ्यता के साथ की गई छेड़छाड़ का परिणाम हैं ताकि मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम को स्त्री विरोधी दर्शाया जा सके ।महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित महाकाव्य रामायण में ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है । सोचकर देखिए कि जिन महर्षि वाल्मीकि ने राम और सीता जैसे आदर्श चरित्र की कल्पना की है वही महर्षि वाल्मीकि ऐसी अमर्यादित और तुच्छ आचरण की घटनाओं को अपने साहित्य में जगह प्रदान करेंगे ! वाल्मीकि जैसा उच्च कोटि के कवि ऐसी मनगढ़ंत कल्पना करेंगे !

 

हम सभी  इस तथ्य से अवगत हैं कि रामायण काल में भारत की राज्य-व्यवस्था वर्तमान समय की  लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणाली के विपरीत राजतंत्रात्मक थी और इस राजतंत्रात्मक शासन प्रणाली के सामाजिक जीवन में राजा महाराजा के यहां  अनेक पत्नियों को धारण करने की प्रथा प्रचलित थी । यहां तक कि स्वयं श्रीराम के पिता चक्रवर्ती सम्राट महाराजा दशरथ की तीन पत्नियां थी जिसमें श्रीराम महारानी कौशल्या के पुत्र थे । लेकिन स्वयं श्रीराम ने इस प्रथा के विपरीत जाकर आजीवन एक पत्नी व्रत धारण किया और उनके  इसी  एकपत्नी व्रत का परिणाम था कि जब वनवास काल के दौरान रावण की बहन सूर्पणखा दण्डकारण्य में श्रीराम की सुंदरता पर मोहित होकर उनसे प्रणय निवेदन स्वीकार करने की याचना करती हैं तो श्रीराम  अपने  एक पत्नी व्रत धारण करने की बात कहकर सूर्पणखा के प्रणय निवेदन को  अस्वीकार कर देते है । यानि स्त्रियों को उपभोग की वस्तु  समझने की  इस रूढ़िरूढ़िवादी प्रथा को समाप्त करने के लिए और उन्हें समानता  और गौरवपूर्ण जीवन जीने का अधिकार प्रदान करने वाले श्रीराम पर ऐसे लांछन लगाना कहां तक उचित होगा !

 

 

इस संदर्भ में एक बड़ा महत्वपूर्ण प्रसंग हैं जिसका उल्लेख किये बिना शायद हम मां सीता और श्रीराम  और यहां तक की स्वयं महर्षि वाल्मीकि के साथ न्याय नहीं कर पाएंगे …इस प्रसंग की अपनी उपयोगिता  इतनी अधिक है कि यह आज के इस सामाजिक जीवन में भी  अपनी प्रासंगिकता को बनाए हुए

 

आज की  जिस इक्कीसवीं सदी में हम जी रहे हैं और जिसे हम आधुनिक जीवन की संज्ञा देते हैं, उसी  आधुनिक जीवन में जब कोई स्त्री या लड़की हमारे  इस सभ्य समाज में छिपे नर भुजंगों की कुटिलता का शिकार हो जाती हैं तब यही हमारा सभ्य समाज  उस स्त्री को जो इन राक्षसों  की वहशीपन का शिकार हो जाती हैं और जिसमें  उसका कोई दोष नहीं होता है,  उस स्त्री को नीची निगाह से देखता है, उसको यह विश्वास नहीं दिला पाता है कि यह पूरा समाज तुम्हारे हक के लिए लड़ेगा,  तुम्हें न्याय प्रदान करेंगा बल्कि  यही सभ्य समाज उस निरपराध स्त्री को आत्महत्या तक करने की लिए मजबूर कर देता है

 

 

लेकिन श्रीराम ने यही महान कार्य किया जो आज का हमारा समाज नहीं कर पा रहा हैं…

 

उन्होंने अहिल्या के साथ अन्याय नहीं होने होने दिया । वह अहिल्या जो किसी तथाकथित सभ्य पुरुष की वहशीपन का शिकार हो गई और जिसको उसके पति ने दुश्चरित्र कहकर  अकेला छोड़ दिया  और समाज में वह अलग-थलग पड़ गयी तब श्रीराम , जो उस समय एक चक्रवर्ती सम्राट के पुत्र थे  और अयोध्या के राजकुमार थे, महर्षि विश्वामित्र  और अपने  अनुज लक्ष्मण के साथ अहिल्या के पास गए और  उसके कमजोर मनोबल को  उच्चता प्रदान की और उसे यह विश्वास दिलाया कि दोष तुम्हारा नहीं, तुम तो पवित्रता की मूर्ति हो, दोष तो तुम्हारे पति  और इस पूरे समाज का  हैं जिसने तुम्हारे साथ अन्याय किया और किसी दुश्चरित्र व्यक्ति द्वारा तुम्हारी यौन शुचिता भंग कर देने पर तुम्हारी शारीरिक  और मानसिक पवित्रता पर संदेह उत्पन्न किया और तुम्हें अकेला छोड़ दिया । इतना ही नहीं श्रीराम ने उस समाज को, जिसने अहिल्या को दुश्चरित्र कहकर  अकेला छोड़ दिया था, फटकार लगाई  और अहिल्या को फिर से सामाजिक मान्यता प्रदान की । इसीलिए कहा जाता हैं कि श्रीराम ने  अहिल्या का उद्धार किया ……

 

मानसिक तर्क का प्रयोग करते हुए सोचकर देखिए कि जो श्रीराम  अहिल्या के संबंध में झूठी सामाजिक मान्यता के सामने नहीं झुके उन्हीं मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम ने अपनी पत्नी के संदर्भ में इस समाज की झूठी बातों में आकर मौन आत्मसमर्पण कर दिया होगा !कदापि ऐसा नहीं किया होगा …हम तो सदियों से लकीर के फकीर बनते चले आ रहे हैं और  एक झूठी लकीर को पीटते चले  आ रहे हैं ……….

 

 

 

सदियों से हम इस बोझ को ढोते आ रहे हैं, हम इस मनगढ़ंत कहानी को स्वीकार करते चले आ रहे हैं कि श्रीराम ने सीता का त्याग किया और आखिर में आकर सीता ने मजबूर होकर अपने प्राण त्याग दिए ……

हम लकीर के फकीर बनते चले आ रहे हैं ………..आखिर क्यों ? क्या हमारे पास बुद्धि नहीं हैं?…क्या हमारे पास तर्क नहीं हैं कि हम इस बात का आकलन कर सकें कि ऐसी कोई घटना घटित हुई थी या नहीं !जीवन में हमेशा इस तथ्य को याद रखिए कि कोई भी आस्था यदि तर्क पर खरी नहीं उतरती है तो उसका मानवीय जीवन में कोई उपयोग नहीं हैं, वह केवल मिट्टी के ढेले के समान है ……….

 

 

 

शक,हूण, कुषाण, तुर्क,यवन, मंगोल, मुगल, पुर्तगाली, डच, फ्रांसीसी, अंग्रेज़ आदि आक्रान्ताओं ने भारत पर आक्रमण किया और निस्संदेह यह बात सत्य हैं कि  इन आक्रान्ताओं ने भारत की सभ्यता, संस्कृति, शिक्षा और महान इतिहास को नष्ट करने का प्रयास किया और  इतिहास में ऐसे अनेक मामले देखने को मिलते हैं कि यह  आक्रान्ता एक सीमा तक अपने इस तुच्छ मानसिकता और अनैतिक आचरण के कार्य में सफल भी रहे ……….क्या ऐसा नहीं घटित हुआ होगा कि इन आक्रान्ताओं ने अपनी तुच्छ मानसिकता और कायरता का परिचय देते हुए और यह देखते कि भारत के इतिहास में मां सीता और श्रीराम जैसे इतने आदर्श और उच्च कोटि के व्यक्ति हैं इसीलिए यदि हमें भारतीयों की मानसिकता को कमजोर करना, भारतीयों के इतिहास को कमतर दिखाना है, भारतीयों के मनोबल को तोड़ना है,  भारतीय सभ्यता और संस्कृति को निर्बल बनाना है तो महर्षि वाल्मीकि के महाकाव्य रामायण, जो भारतीयों के नस-नस में समाया है और जो मर्यादा  एवं नैतिकता की मिसाल कायम करता हैं, के साथ छेड़छाड़ करके  ऐसी अमर्यादित और अनैतिक आचरण की बातें शामिल कर दी जाए जिससे इस महाकाव्य के सबसे दो पात्र सीता और श्रीराम का चरित्र कमजोर हो जाए और यही खेल बड़ी चालाकी से हमारी भावनाओं के साथ खिलवाड़ करके और स्वाभाविक मानवीय दुर्बलताओं का लाभ उठाकर मनगढ़ंत उत्तर रामायण को महर्षि वाल्मीकि के पवित्र और सात्विक महाकाव्य रामायण में शामिल कर दिया गया…और हम समझ भी नहीं पाए या हो सकता हैं कि हमने भौतिक प्रगति की चाह में जानबूझकर समझने का प्रयास नहीं किया और इसी का दुष्परिणाम निकला कि हमारा स्वाभिमान कमजोर हो गया और हम वर्षों तक विदेशी आक्रान्ताओं के अधीन रहे……

 

 

महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित महाकाव्य रामायण के यह दो पात्र – श्रीराम और सीता हम सभी भारतीयों के सांस्कृतिक अभिभावक हैं और हम किसी भी परिस्थिति में और कहीं भी यह सहन नहीं कर पाएंगे कि हमारे सांस्कृतिक अभिभावक को कोई अपनी तुच्छ लालसा को पूरा करने के लिए बदनाम करें या फिर उनके मर्यादित चरित्र पर प्रश्नचिह्न लगाए !

 

विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा अपनी तुच्छ कामना को पूरा करने के लिए रचे गए इस उत्तर रामायण रूपी झूठ के पुलिंदे का न केवल पुरजोर विरोध किया जाना चाहिए बल्कि इसे सभी भारतीयों द्वारा  अस्वीकार किए जाने की आवश्यकता है…..शताब्दियों से जो हम यह लकीर के फकीर बनते चले आ रहे हैं और झूठी लकीर पीटते आ रहे हैं  एवं भारतीय सभ्यता, संस्कृति और इतिहास के साथ की गई छेड़छाड़ को सत्य के रूप में स्वीकार करते चले आ रहे हैं,  अब वह समय  आ गया हैं कि हम सभी भारतीयों को एकता, बंधुता  एवं अखंडता का परिचय देते हुए श्रीराम द्वारा सीता त्याग की इस मनगढ़ंत कहानी से बाहर निकलना आना है ………..

 

मोहित कुमार उपाध्याय

फोटो क्रेडिट –प्रभु भक्ति .कॉम

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