पुस्तक समीक्षा -शंख पर असंख्य क्रंदन

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संख पर असंख्य क्रंदन

 

 

जो देश और काल को परिभाषित कर दे, उसकी समस्याओं, तकलीफों, बेचैनियों को शब्द दे दे, दुःख सुख, युद्ध शांति, संयोग वियोग, मानवता नृशंसता को व्याख्यायित कर दे, जीवन को आधार प्रदान करे, श्वास लेने के लिए मुफीद जगह उपलब्ध करवा दे, वही कविता है. कविता का संसार अत्यंत व्यापक है जिसका कोई ओर छोर नहीं है. हरी अनंत हरी कथा अनंता की भांति कविता भी अनंत है. कविता को किसी देश काल में विभक्त नहीं किया जा सकता. ये जानते हुए जब कवि की कलम चलती है तब उसकी कविताओं में न केवल हमारा परिवेश, प्रकृति उसकी चिंताएं समाहित होती हैं बल्कि उसमें हमारा समाज, राजनीति, धर्म, स्त्री, मानव जाति, मनुष्य का व्यवहार और स्वभाव सभी का समावेश होता है. कविता किसी एक देश की बात नहीं करती हैं, ये सम्पूर्ण विश्व, सम्पूर्ण मानवता की बात करती हैं. इनकी कविताओं का भी फलक उसी तरह व्यापक है जिस तरह कहानियों का था. कविताओं में पूरे विश्व की चिंताएं समाहित हैं चाहे इतिहास हो या भूगोल. एक ऐसी ही कवयित्री हैं डॉ सुनीता जिनका पहला कविता संग्रह ‘शंख पर असंख्य क्रंदन’ अपने व्यापक फलक का दर्शन कराता है. कविता क्या होती है और क्या कर सकती है, दोनों का दर्शन संग्रह में होता है. इनकी कविताओं में केवल देश या अपना समाज ही नहीं है बल्कि एक कविता सम्पूर्ण विश्व की पीड़ा का दर्शन करा देती है इस प्रकार इन्होंने इतिहास भूगोल और संवेदनाओं को कविताओं में पिरोया है. 

शंख पर असंख्य क्रंदन- गाँव की पगडंडी से लेकर वैश्विक चिंताओं को समेटे कविताएँ 

 

पहली ही कविता ‘दोपहर का कोरस’ अपनी संवेदना से ह्रदय विगलित कर देती है जहाँ संवेदनहीनता किस प्रकार मनुष्य के अस्तित्व का हिस्सा बन गयी है उसका दर्शन होता है. 

अनगिनत लाशें सूख चुकी थीं जिनको किसी ने दफन नहीं किया आज तक/ क्योंकि वहां मानवीयता के लिए मानव थे ही नहीं/ कुछ परिंदे चोंच मार रहे थे उसकी देह पर 

रेगिस्तान की त्रासदी और मानवता के ह्रास का दर्शन है ये कविता जहाँ ऐसे भयावह मंज़र नज़रों के सामने होते हैं और आप उन्हें देख कर सिहर उठते हैं और आगे बढ़ जाते हैं. आप के अन्दर की करुणा आपसे संवाद नहीं करती. एक ऐसे दौर में जी रहा है आज का मानव. संवेदनशील ह्रदय जब भी मानवीय त्रासदी देखता है आहत हो जाता है. आंतरिक घुटन बेचैनी को शब्दबद्ध करने को बेचैन हो जाता है. ऐसे में पहले ही सफ़र में जब ऐसा मंज़र रेगिस्तान में देखता है द्रवीभूत हो जाता है, सोचने को विवश हो जाता है, आखिर किस दौर के साक्षी बन रहे हैं हम? हम सरकारों को कोसते हैं लेकिन क्या हमने कुछ किया? हम भी मुंह फेर आगे बढ़ जाते हैं, त्रासदियाँ घटित होती रहती हैं. कवि ह्रदय मानवता की त्रासदी पर दुखी हो सकता है और अपनी पीड़ा को शब्दबद्ध कर स्वयं को हल्का करने का प्रयास करता है तो साथ ही समाज के सम्मुख एक कटु यथार्थ सामने लाता है. 

‘प्रेम की बारिश को पत्तियों ने जज़्ब किया’ एक ऐसी कविता जहाँ प्रेम का वास्तविक स्वरूप क्या है उसका दर्शन होता है. मानवीय प्रेम नहीं, आत्मिक प्रेम नहीं अपितु प्रकृति का दुलार, प्रकृति का उपहार, बिना किसी भेदभाव के सब पर समान रूप से बरसता प्रकृति का प्रेम ही इस धरा की अमूल्य निधि है. प्रकृति अपना निस्वार्थ प्रेम इसीलिए बांटती है कि धरती पर जीवन पनपता रहे. प्यार बाँटते चलो का सन्देश देती नदियाँ, पहाड़, बादल, धरती, वृक्ष सभी प्रेमगीत गुनगुनाते हैं. जब भी सभ्यता का क्षरण होता है अर्थात प्रलय आती है, यही रखते हैं मानवता की, प्रेम की नींव ताकि जीवन कायम रहे, उम्मीद कायम रहे. यूं ही नहीं कहा – दरार से प्रेम मिटाता नहीं/ सूरज से तेज चमकने लगता है/ जिस दिन धरती डोलना बंद करेगी उस दिन/ बादल पहाड़ों का चुम्बन अन्तरिक्ष में बाँट देंगे/आकाशगंगा पर लिख देंगे स्थायी इश्तहार/ जब धरती प्रलय की योजना बनाएगी तब हम नए सृजन के नाम/ प्रेम में डूबे देश की नींव रखेंगे 

ये है प्रकृति का सन्देश, उसका निस्वार्थ प्रेम जिसे मानव समझ नहीं पा रहा, अपने हाथ अपना दोहन कर रहा है. 

 

 

‘सदियों से खड़ी मैं दिल्ली’ इस कविता में कवयित्री दिल्ली के माध्यम से केवल दिल्ली की बात नहीं कर रहीं हैं. दिल्ली क्या है – क्या केवल उतनी जितनी हम देखते हैं? आज की दिल्ली या कुछ वर्षों पहले की दिल्ली की हम बात करते हैं जबकि दिल्ली के सीने में सम्पूर्ण सभ्यता का इतिहास समाया है बस उसे देखने वाली नज़र चाहिए. यहाँ एक देश की राजधानी की बात नहीं है. दिल्ली एक प्रवृत्ति का आख्यान है. एक इतिहास विश्व का जिसे दिल्ली न केवल देख रही है बल्कि अपने सीने में जज़्ब कर रही है. डॉ सुनीता दिल्ली के माध्यम से वैश्विक फलक तक की बात करती हैं. वर्तमान समाज और समय की चिंताओं का समावेश इस कविता में हो रहा है. मनुष्यता  की चिंता है इन्हें. जहाँ १९१० का काल भी समाहित हो रहा है तो मदर टेरेसा की करुणा भी इसमें समाहित हो रही है, कैसे युगोस्लाविया से कोलकता तक का सफ़र तय करती है. युद्ध की विभीषिका, मालवीय के प्रयास से पहले अखिल भारतीय हिंदी सम्मलेन कैसे संपन्न हुआ, सभी का आख्यान प्रस्तुत कर रही है. दिल्ली के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व की चिंताएं समाहित हो रही हैं. युद्ध हों या सम्मलेन, किसने क्या किया, कैसे सफलता प्राप्त की या असफलता सबकी मूक भाव से साक्षी बनती है. 

यहाँ दिल्ली होना सहज नहीं, इतिहास ही नहीं, भूगोल का दर्शन भी होता है. कविता के माध्यम से  सोलहवीं शताब्दी का दर्शन कराती दिल्ली, एक नोस्टाल्जिया में ले जाती हैं और समय की करवट का दर्शन करवा देती हैं.

प्राचीनतावाद में डूबे विश्व के बदलते भूगोल को लोमहर्षक नज़रों से देखती/उन सभी पलों में कई सदियों को देख रही होती हूँ  

खेती एक सार्वजनिक सेवा है – इनकी कविताओं में प्रतीक और बिम्ब और शैली को समझने के लिए गहराई में उतरना पड़ेगा, विश्लेषण करना पड़ेगा. खेती एक सार्वजनिक सेवा है, इस भाव को वही ग्राह्य कर सकता है जो खेती के महत्त्व को समझता हो, जो अन्न के महत्त्व को जानता हो. जो जानता हो, यदि खेती नहीं की जायेगी तो संसार में तबाही आ जायेगी, मनुष्य, मनुष्य के खून का प्यासा हो जाएगा. वास्तव में किसान को मिलता ही क्या है खेती करके, यदि इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो डॉ सुनीता सही कहती हैं, खेती एक सार्वजनिक सेवा है. जहाँ किसान दो वक्त की रोटी के लिए स्वयं मोहताज हो जाता हो, वही सबके विषय में सोचकर कर्ज पर कर्ज लेकर भी खेती करता रहे तो ये एक सार्वजनिक सेवा ही हुई.

राजनीति, समाजनीति और सरोकार के बनियों से मिलकर/शिक्षा संस्कृति और सभ्यता की आड़ में/ नरसंहार करने वाले भेदियों को पनाह देने को मजबूर/’एक किसान मूलतः एक खेत होता है’ की पंक्तियाँ धृष्टता से छापती हूँ 

ये दिल्ली कह रही है दिल्ली यानि हमारे अन्दर की आवाज़. दिल्ली केवल दिल्ली नहीं है, हमारी पीड़ा की आवाज़ है, हमारे दर्द की आवाज़ है. कवयित्री ने माध्यम दिल्ली को बनाया है लेकिन किसानों की पीड़ा को रेखांकित कर दिया. किसानों के लिए तीन कानून लाये गए, उनका विद्रोह किसानों द्वारा किया गया और सरकार को वापस लेने को मजबूर कर दिया. वास्तव में सही कह रही हैं किसान मूलतः एक खेत होता है लेकिन कौन समझता है, प्रश्न समाज के सम्मुख छोड़ रही है कविता. आज का समय कितना भयावह है कि राजनीति, समाज और उसके सरोकारों से किसी का कोई सम्बन्ध नहीं. सबके अपने स्वार्थ हैं. शिक्षा, संस्कृति और सभ्यता की आड़ में होता नरसंहार अर्थात देश की वर्तमान स्थिति को बिना किसी शोर के रेखांकित कर रही हैं. कैसे, सरकारें हों या समाज, सब अपने हितों की ओर ही झुके हुए हैं उसके लिए चाहे कितने ही आमजन मृत्यु की भेंट चढ़ जाएँ, उन्हें फर्क नहीं पड़ता, जैसा कि किसान आन्दोलन के समय हुआ. कितने ही किसान मृत्यु को प्राप्त हो गए. इनकी कविता की गहराई को पाठक को स्वयं समझना पड़ेगा आखिर कवयित्री क्या कहना चाहती हैं. दिल्ली के माध्यम से व्यवस्था पर करारी चोट कर रही हैं. 

शब्द जो मफीम हैं वे कभी अकेले खड़े नहीं होते/ और मैं ‘धर्म की आड़’ में शतरंज की गोटियाँ बिखेरती हूँ/ मज़हब के नाम, खेमे में बनते बहरूपियों को पास बैठने से रोक नहीं पाती/ अपने हिस्से के कर्तव्यों की आयतें नरकंकाल की छाती पर लिखती/ भविष्य के भारत को देखती भीमकाय अवस्था में खड़ी हूँ 

दिल्ली देख रही है धर्म के नाम पर मानवता का दोहन हो रहा है, जाति के नाम पर इंसानियत का शोषण हो रहा है, कैसे जाति, धर्म और मानवता के नाम पर सियासत खेली जाती है, मूक हो देखने को विवश है, अपने ह्रदय पर पड़े छाले किसी को दिखा नहीं पाती लेकिन जानती है देश भविष्य क्या है. यदि ऐसा ही माहौल रहा तो देश धर्म और जाति में बँटकर तबाही की ओर अग्रसर हो जाएगा जैसे अन्य कई देश तबाह हो रहे हैं केवल धर्म के नाम पर, मानो चेता रही हैं डॉ सुनीता. 

धर्म और जाति के नाम पर होते घिनौने खेल क्या हमें भविष्य के भारत का दर्शन नहीं करा रहे. ये हमें ही सोचना पड़ेगा, हम कहाँ पहुंचेंगे. हम कैसे भारत का निर्माण कर रहे हैं. साहित्य, युद्ध और मिथक किसी भी पहलू को नहीं छोड़तीं. दिल्ली के माध्यम से प्रत्येक पहलू को शब्दबद्ध करते हुए जैसे डॉ सुनीता बार बार चेता रही हैं, अब नहीं संभले तो भविष्य अंधकारमय हो जाएगा. युद्ध किसी भी समस्या का समाधान नहीं होते का सन्देश भी कविता देती चलती है- 

नींव के मिथकों और युद्ध शांति के असाधारण कार्यों को आधुनिक लड़ाइयों की शक्लें/ खाली स्लेटनुमा धरती पर हथगोले की तरह बरसाती हूँ 

 

कविता में कथा और कथा में कविता का आस्वाद मिलेगा. ये इनकी कविताओं की खूबसूरती है. पेड़ों की कटाई से पर्यावरण पर पड़ते विपरीत प्रभाव को न केवल रेखांकित किया है बल्कि स्वयं को अर्थात मानव जो दिल्ली में रहें अथवा कहीं भी, उसकी मानसिकता को एक वाक्य में परिभाषित कर दिया – मैं रावण की भूमिका में अपराजिताओं को लुटते हुए देखती, शर्मिंदा खड़ी हूँ क्या वाकई हम स्वयं अपने शोषण और दोहन के लिए उत्तरदायी नहीं हैं, एक यक्ष प्रश्न छोड़ रही हैं? लेकिन उनके कहने का अपना एक तरीका है जिसे पाठक को स्वयं समझना होगा. 

‘प्रेम मानसिक अवस्थाओं की श्रृंखला है  के माध्यम से कहीं प्लेटोनिक लव तो कहीं क्रश के आयामों को देखती दिल्ली करती है सवाल, यह कैसा प्रेम है तुम्हारा जहाँ कभी सोलमेट का नारा बुलंद होता है कहीं पपी लव का लेकिन प्रेम की परिभाषा से अब तक सभी अनजान हैं. जीवन के किसी भी आयाम को छोड़ नहीं रहीं, दिल्ली के माध्यम से मनुष्य में व्याप्त अनेक विसंगतियों को भी उजागर करती चल रही हैं. प्रेम जो मनुष्य की आदिम भूख है उसका स्वरूप आज क्या हो गया है, उसकी साक्षी भी दिल्ली बन रही है अर्थात हम बन रहे हैं. देख रहे हैं प्रेम के गिरते स्तर को लेकिन कुछ कर पाने में असमर्थ हैं. विकास और तेज दौड़ में मनुष्य ने अपने आप को खो दिया है. अपना सबसे बड़ा सुख खो दिया है मानो इस श्रृंखला में प्रेम की आवश्यकता और उसके बल पर ध्यान आकर्षित करना चाहती हैं. प्रेम जीवन का आधार होता है लेकिन मानव ने आज प्रेम के भी जैसे टुकड़े टुकड़े कर दिए हैं. प्रेम के वास्तविक अर्थ कहीं खो गए हैं. आज का प्रेम वन नाईट स्टैंड में बदल चुका है. वैलेंटाइन युग में प्रेम का फ्रेम अब फिट नहीं होता, मानो दिल्ली यही कहकर अपनी टीस व्यक्त कर रही है. हवाओं में घुले खुलेपन के सम्मोहन को यौन तत्व वर्जित प्रदेश में छोड़कर/ ‘ द जनरल ऑफ़ सेक्स रिसर्च’ का मीटर जोर से खींचती/ युवाओं के सपनों में उम्मीद की सेक्सोलोजी के अध्ययन की धुरी पर पार्क की बत्तियों को नाचते देखती हूँ – कैसे आज के युवा के लिए प्रेम केवल सेक्स तक सीमित होकर रहा गया है, इसका दर्शन भी दिल्ली कराती है. आज के दौर में प्रेम, रोमांस केवल सेक्स तक सीमित होकर रह गया है, प्रेम भी जैसे मैटिरियेलिस्टिक हो गया है, का दर्शन कविता कराती है. 

कहीं न कहीं हर चीज के लिए मनुष्य उत्तरदायी है. बहादुरशाह ज़फर, शेरशाह सूरी, हुमायूं से लेकर वर्तमान तक का सफ़र तय करती दिल्ली, प्रेम, प्रेमी और बलात्कार के युग की साक्षी बनती है तो दूसरी तरफ भूमंडलीकरण के दौर में अपनी जमीन अपने संस्कारों को खोती एक नए दौर की साक्षी बन रही है जहाँ मृत्यु का आलिंगन कितना सहज हो गया है यह प्रत्येक मनुष्य देख रहा है. कैसे राजनीति की करवट से दिशाएँ सहम रही हैं, अपनी दिशा बदल रही हैं, ऐसे प्रत्येक क्षण की साक्षी है दिल्ली. उसकी पीड़ा का दर्शन इन पंक्तियों में होता है जब दिल्ली कहती है, संस्कारों के संत अर्थात संसद सरकार और सरोकार कैसे सब मिलकर उसका दोहन करते हैं लेकिन उसकी मजबूरी ये है, वो भाग नहीं सकती. उसे सब सहना ही होगा, बर्दाश्त करना ही होगा क्योंकि आज के दौर में संस्कारों की परिभाषा भी बदल चुकी है-  

घटनाओं के थपेड़े में तब भी खड़ी ‘संस्कारों के संतों’ को सुनती/लव कुश सरीखे प्रहरी बनने की जिद में त्रिकोणीय सिद्धांत को बार बार घूरती हूँ/ माँ का रूप धारण कर संसद, सरकार और सरोकार ने आदेश की पर्ची पकड़ाई/ करोड़ों विघ्न बाधाओं के बाद भी मैं भाग नहीं सकती/ क्योंकि मैं ‘भगोड़ा’ नाम बर्दाश्त नहीं कर सकती/ जिसे जब चाहे शेरशाह सूरी जैसे लोग हुमायूं की तरह दौड़ा दौड़ाकर मार सकें 

 

बेशक कितना बदलाव आये, कितने युद्ध हों किन्तु हर ज्यादती को सहकर भी दिल्ली कल भी थी, आज भी है और हमेशा रहेगी, यही है इसकी जिंदादिली. बस युद्ध नहीं शांति की प्रतीक बन हर हृदय में वास करना चाहती है दिल्ली मानो यही कवयित्री कहना चाहती हैं. 

मैं दिल्ली सदियों से सैंकड़ों शताब्दियों के बदलने के बाद भी खड़ी थी, हूँ और रहूंगी/ अब मैं ‘द आर्ट ऑफ़ वॉर’ की दस्तक को नयी सदी से सदा के लिए विदा करती हूँ 

यही होती है अमनपसंद मनुष्य की चाहत जहाँ वो नहीं चाहता युद्ध. वो चाहता है शांति, सहज खुशहाल जीवन किन्तु मनुष्यता के दुश्मन ऐसा नहीं चाहते. नयी सदी में कम से कम मनुष्य संभल जाए और युद्धों से धरा को मुक्त कर दे, मानो यही आह्वान है दिल्ली का, हर मनुष्य का किन्तु ऐसा हो नहीं पा रहा. युद्ध कभी खत्म नहीं होते. 

 अंत में दिल्ली की पीड़ा इस रूप में भी उभरकर आती है जैसा कि दुःख सहते सहते मनुष्य कह उठता है उसी प्रकार दिल्ली कह उठती है – 

अब थक गयी हूँ / बुद्ध की आत्मा से एकांत चुनती / मैं दिल्ली अब खामोश खड़ी होती हूँ 

किसी के भी सहन करने की एक सीमा होती है और जब वो चुक जाती है तब एक थके हारे मानव की भांति अंततः कहने को विवश हो जाता है – बहुत हुआ, बस, अब और नहीं. एक सीमा के बाद खामोश होना ही पड़ता है. आप कितना ही संसार को, मानव को जगाने का प्रयास करते रहें लेकिन युद्धोन्माद के हामियों पर कोई असर नहीं होता. यही इस सृष्टि की विडंबना है जहाँ सभी विकल्प निष्फल हो जाते हैं. मनुष्य दिल्ली की भांति मूक हो हर त्रासदी को देखने और भोगने को विवश हो जाता है. 

दिल्ली के माध्यम से एक कितना बड़ा फलक डॉ सुनीता ने बुना है जिसमें समस्त वैश्विक फलक दृष्टिगोचर होने लगता है. एक में सब समाहित हो जाते हैं. एक से अनेक और अनेक से एक होने की प्रक्रिया को जैसे एक कविता में समाहित कर दिया है. 

‘इस ज़िन्दगी के बदले’ कविता मनुष्य और ज़िन्दगी की खींचतान और इम्तिहान का दर्शन कराती है. एक ज़िन्दगी के बदले मनुष्य कितना कुछ सहता है उसका आख्यान है ये कविता. स्त्री हो या पुरुष दोनों ही जैसे एक देह की भांति जीवन गुजारते हैं. कितना कुछ खोते हैं. पीड़ा सहते हैं और मरहम ज़िन्दगी कभी लगाती नहीं. पल पल एक नए इम्तिहान खडा कर देती है, इस भाव को कविता संजोती है – 

इस ज़िन्दगी के बदले/ दो जून की रोटी नहीं मिली/ सौदों के अम्बार मिले/ इस ज़िन्दगी के बदले/ हमें बना दिया गया/ आसमान से गिरती हुई ओस की बूँद/ हमें दिए गए/ बदलते बिस्तर की तरह रोज़ एक नयी सेज/तपती रेत पर छोड़ दिए गए/ महल की नींव रखने के लिए

‘खाली कमरे का नाम दुःख है’ – दुःख क्या है, क्यों है, कैसा अनुभव होता है, सभी जानते हैं फिर भी कवयित्री यहाँ दुःख को परिभाषित कर रही हैं. दुःख खाली कमरे का नाम है अर्थात यहाँ आकर किसी के हाथ कुछ नहीं लगता लेकिन फिर भी इस कमरे में आये बिना जीवन बसर नहीं हो सकता. अब आप ख़ुशी से आयें या मजबूरी में, दुःख के दांव से मुक्ति संभव नहीं यानि ठीक उसी प्रकार जैसे मृत्यु शोक का नहीं मुनादी का विषय है. बिलकुल मृत्यु एक मुनादी ही तो है जो जन्म के साथ ही हो जाती है, जिसके विषय में ज्ञात है उससे मुख कैसे चुराया जा सकता है, क्यों न उसे स्वीकार लिया जाए, न कि अटल सत्य को झूठ बनाने की कवायद की जाए. मृत्यु से बड़ा सत्य कोई नहीं, उसी प्रकार दुःख और मृत्यु का चोली दामन का साथ है, कैसे उससे मुक्ति संभव है. अतः ऐसे में आवश्यक है इसे भी स्वीकार लिया जाये और जो क्षण आयें उन्हें सहजता से गुजारा जाए. 

दुःख एक खाली कमरे का नाम है/ भूगोल की तलाश में छिपते हैं जहां यात्री/ नयी सदी में मृत्यु शोक का नहीं मुनादी का विषय है/ जहाँ सच धीरे धीरे झूठ बनता/ मृत्यु सच में सच है/ दुःख का कमरा सदा से खाली है/ वहां पहुँचने वाले हर शख्स को बड़ी जल्दी रहती है लौटने की/ लुटे क़दमों में स्थायित्व नहीं ठहरता 

कवयित्री के अनुसार दुःख वो देवता है जो आपको न केवल आपके मन की थाह लेने का अवसर प्रदान करता है अपितु देश समाज और मनुष्यों के भीतरी कोनों तक पहुँचने का मार्ग भी देता है. दुःख जोड़ता है तभी तो कहा गया है. यही कारण है दुःख को कवयित्री देवता बना रही हैं. माना दुःख का समय सहज नहीं होता, उसे काटना लगभग असंभव प्रतीत होता है और लगता है जैसे दुःख की अधिकता ने जीवन ही छीन लिया हो, जीते जी मनुष्य मृत समान बन गया हो फिर भी इससे मुक्ति संभव नहीं तभी कवयित्री कह रही हैं सब कुछ स्वीकार लिया जाए फिर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता दुःख सोच समझकर की गयी हत्या जैसा है. यही मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है. 

दरअसल दुःख देवता है/ दांव मन का थाह लेने का पता देता/ दुःख खुद में खुरदुरा है/ दुःख दो देशों में छिड़े युद्ध की तरह है/ जिसमें जीतने की जिद शामिल रहती/ बावजूद दुःख सोच समझकर की गयी ह्त्या के जैसा है  

 

‘जंगलों में घुला ज़हर’ कविता के माध्यम से नक्सली हिंसा का दिग्दर्शन कराती हैं. कैसे इस कारण जंगल अपना सहज स्वरूप खो चुके हैं. 

वे बेबस हैं जीने को/ डर, भय, भूख और यातना के साए में/ बूँद बूँद रिसती जा रही है ज़िन्दगी/ किन्तु निवारण के रास्ते बंद से लगते हैं 

यही यथार्थ है आज उन जंगलों का जहाँ नक्सली हिंसा अपने चरम पर है. 

घिर जाता है एक और भय का बादल/ और जंगलों में घुला ज़हर याद आता है/ हम अचानक उस बन्दूक के सामने आ जाते हैं/ जिस पर हमारा नाम तो नहीं होता/ मगर हम उसके निशाने पर होते हैं 

मानवीय जीवन की कितनी बड़ी त्रासदी है ये, इस धरती पर जन्म लेकर भी उसे सहज जीवन जीने को नहीं मिलता. सभी जगह हिंसा का साम्राज्य व्याप्त है. कहीं हक़ की लड़ाई है, कहीं उसूल की तो कहीं स्वार्थ की किन्तु उसमें एक आम मानव की सहज चाहत पर किसी का ध्यान आकर्षित नहीं होता आखिर वो क्या चाहता है. 

आखिर यह सब कब तक है?/ जब देखो दुरदुरा दिए गए/ अवसर के क्षण में क्षमा करते हुए बुलाये गए/ यह दुस्साहस करते हुए डर भी था लेकिन/ उदर की भूख की अनवरत पीड़ा ने/ अंततः विद्रोह का रास्ता चुन लिया/ यह कहते हुए कि/ आश्वासन के गीतों से पेट की आग नहीं बुझती/ शायद विद्रोह की ज्वाला से ही कुछ हाथ लगे…

उपरोक्त पंक्तियों में ‘पेट की आग’ कविता का सार समाया है. कहते हैं पेट की आग से बड़ी कोई आग नहीं होती. पेट की आग से सभी परिचित हैं. जब किसी को उसका हक़ नहीं मिलता तब विद्रोह पनपता है. वंचितों को जब उनका हक़ नहीं मिलता तब केवल आश्वासनों से पेट नहीं भरा करता, हम जानते हैं, अतः विद्रोह होना लाजिमी है. मनुष्य तभी तक हर आतंक सहन करता है जब तक उसे भरपेट मिलता रहे, लेकिन जब पेट भरने के उसके अधिकार पर कुठाराघात होता है तब सह्य नहीं होता. किसी को इतना मजबूर नहीं किया जाना चाहिए कि विद्रोह पर उतर आये मानो यही कविता कहना चाहती है. 

दलदल की मिटटी रेह से बोली/हे बबुआ/ हम भी अनमनस्क हो रहे हैं कि किसको क्या दूं/ आधी आबादी को जो घुट रही है जाने कब से/ गोल गोल आकार लेते कद्दू से उसके उदर/ कुछ कहने से पहले ही ठहरा दी जाती है/ वाचाल, छिनाल, बेहया व बेहूदा 

उपरोक्त पंक्तियाँ ‘गण का तंत्र’ कविता से ली गयी हैं जो एक मानीखेज कविता है. एक ऐसी कविता जो मन के अन्दर उतर जाए और बताये गणतंत्र का आखिर अर्थ क्या है. जब चहुँ ओर असमानता और विसंगतियों का बोलबाला है, सारे देश में माँ हो, सत्ता हो, स्त्री हो या दलित हो सभी एक कतार में खड़े हैं और समाज व राजनीति से प्रश्न कर रहे हैं आप किस गणतंत्र की बात कर रहे हैं. गणतंत्र का अर्थ कितना गहन है ये समझने वाली बात है. 

स्त्री की क्या तस्वीर है इस गणतंत्र में उसका दर्शन ये पंक्तियाँ कराती हैं. ऐसे में कौन किसे शुभकामनाएं दे और कैसे दे? ये एक जरूरी प्रश्न है. क्या वाकई शुभकामनाएं देनी बनती हैं जहाँ स्त्री को मनुष्य भी नहीं माना गया हो, जहाँ वो केवल एक वस्तु हो और जिस दिन आवश्यकता हो उस दिन पूज ली जाए और बाकी दिन दुत्कार दी जाए या उसका बलात्कार कर दिया जाए. हमने स्त्री को कितनी बेड़ियों में जकड़ा हुआ है और हम अपने आप को मनुष्य कहते हैं क्या हम उसके अधिकारी हैं? 

उन वंचितों को, जो उबड़ खाबड़ जंगलों में जी रहे हैं/ या उस दलित को, जिसके नाम पर संस्थाएं करोड़ों डकार कर/ दरिया से समंदर तक अपने परचम का अट्टहास दिखा रही हैं/ उस जनता को जो कुनबेवाद का शिकार है/सीमा के उस सिपाही को जो दिन रात ठिठुरते मौसम में बन्दूक ताने खड़े हैं/ या उन दरिन्दे लोगों को/ जो अपने नापाक इरादे से देश को शर्मसार किये हुए हैं/ उस जमात को जो लिखते हैं पुरस्कार पाते हैं / लेकिन जाति, धर्म और मजहब के नाम पर खेमे में बंट जाते हैं / उस माँ को जो बेटे बेटी में करती है फर्क 

कैसे सेलिब्रेट करें गणतंत्र को जब तक हम मनुष्य को उन बेड़ियों से आजाद नहीं करते और वंचितों को उनका हक़ न दें, व्यर्थ प्रवाद है. कहीं कुनबेवाद का परचम लहरा रहा है और जनता आँखें मूंदे बैठी है, कहीं तो सिपाही सीमा पर हर मौसम में तैनात रहते हैं दूसरी ओर देश के दुश्मन अपनी हरकतों से देश को शर्मसार किये जाते हैं मानो पूछना चाह रही हों, क्या ऐसे लोगों के लिए सैनिक अपनी जान सीमा पर देते हैं? सारे आयामों को समेट रही है कविता. हर पहलू को रेखांकित कर रही है. किसी को नहीं बख्श रही. ये है कविता का विशाल फलक. एक स्त्री जो माँ है अपने बेटी बेटे में जब फर्क करती है, वही बेटा जब घर से बाहर निकाल देता है तब दो रोटी को तरसती है, लिंगभेद करती है एक माँ भी, विचारणीय है ये पहलू. एक मानीखेज प्रश्न उठाती है कविता. अनुत्तरित सवाल. अब हम किसे दें शुभकामना सन्देश जो अपने मायने खो रहे हैं. एक बहुत बड़ी कविता सोचने को विवश कर रही है. कविता नहीं है ये यथार्थ है. हमें सोचना होगा हम मनुष्य हैं क्या? समाज को सोचना होगा, राजनेताओं को सोचना होगा. 

श्वेतलाना की नायिका कहती है मनुहार से आज भारत आज़ाद है/ लेकिन फिर नंगे बदन यहाँ कौन खड़ा है?/ रंगीन सा कुछ लपेटे हुए/ वह कौन है?

एक ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर देश, समाज और जनता को मिलकर खोजना होगा. क्या हमने ऐसे गणतंत्र की कल्पना की थी? एक ओर विकास के चश्मे से भारत को दिखाया जा रहा है दूजी और गरीबी और भुखमरी का परचम लहरा रहा हो, ऐसे हालात में क्या जश्न मनाने बनते हैं? क्या विकास का ढिंढोरा पीटना जायज है? कौन है वे लोग जो इस दुर्दशा के शिकार हैं? क्या वे भारत के नागरिक नहीं? क्या उन्हें ससम्मान जीने का अधिकार नहीं? ऐसे अनेक प्रश्न छोडती कविता पूछ रही है किस गण के तंत्र की आप बात करते हैं? कौन और किसे शुभकामना दे और किस बात के लिए, ये एक अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न कविता छोड़ रही है. 

‘चेहरे’ कविता देवासुर संग्राम, राम रावण युद्ध हो या महाभारत, प्रथम या द्वितीय विश्व युद्ध अथवा रूस युक्रेन, कोई युद्ध हो, कुछ नहीं बदला, स्वभाव कभी नहीं बदलते, मानवीय प्रवृत्तियां कभी नहीं बदलतीं, का आख्यान रचती है. केवल चेहरे बदलते हैं, घटनाएँ और कारण ज्यों के त्यों रहते हैं. स्वार्थ और लालच में मनुष्य सब कुछ पाना चाहते हैं, अपना एकछत्र साम्राज्य चाहता है, वहां मनुष्यता का ही ह्रास होता है. चेहरे कविता जैसे प्रत्येक चेहरे का नकाब उलट रही है जो शांति का गीत गाते हैं लेकिन उसकी आड़ में अशांति के बीज बोते हैं. कितना दोगला चेहरा लिए मानव घूमता है उसका दर्शन कराती है कविता तभी कहती है – युद्ध का चेहरा बुद्ध बनने में रोड़ा है – निसंदेह, जहाँ बुद्ध होंगे वहां शांति होगी, युद्ध और शांति एक ही पलड़े में कभी नहीं बैठ सकते, अतः चेहरे पर नकाब डालकर ही स्वार्थ सिद्ध किये जा सकते हैं. 

 बेकाबू गाड़ियों के बरक्स सड़कें और पटरियां निर्दोष होती हैं/जबकि गुनाहगार गाड़ियां खून से लथपथ/ सड़कें संवेदना का अभ्यास नहीं करतीं/क्योंकि उनके सबक में वेदना के लिए/ कोई जगह सुरक्षित नहीं है/ कभी न कभी मन का बेकाबू होना/ सड़क जैसा सुख देता है 

बेकाबू’ कविता सड़क का बिम्ब लेकर मनुष्य के मन की थाह लेती है. सड़क के बिम्ब को मानवीय मन से जोड़कर थाह लेती रचना सोचने को विवश करती है, कैसे मनुष्य इतने संवेदनहीन हो गए हैं कौन मारा जा रहा है, कुचला मसला जा रहा है, उसकी परवाह न करते हुए जो चाहिए वो हर हाल में पाना है, केवल स्व की इच्छा को पूर्ण करने के लिए किसी भी हद से गुजर जाते हैं. सड़कों के माध्यम से कविता मनुष्य के मन की बात करती हैं. सड़कें संवेदना का अभ्यास नहीं करतीं, वाकई मनुष्य ने संवेदना का दामन छोड़ दिया है. एक संवेदनहीन मनुष्य से उम्मीद की समस्त कड़ियाँ टूट जाती हैं. वो दौर और था जब मनुष्य के अन्दर दया करुणा और ममता का स्रोता बहता था लेकिन आज के खुरदुरे समय में भावनाएं भी खुरदुरी हो गयी हैं, मनुष्य एक ऐसी राह पर निकल पड़ा है जहाँ स्व से परे अन्य मनुष्य मायने नहीं रखता. यथार्थ के दर्शन कराती मानीखेज कविता है. 

उफ़! यह कैसी दुनिया बना ली हमने/ मिटटी के स्पर्श से गंध आती है/जिसे कभी मस्तक पर मलकर शहीद हुए थे भगत सिंह/ अब सीमेंट की खुशबुओं से नहाकर निकलती हैं संवेदनाएं/ दरअसल शहर सही पहचान को परिवर्तित कर/ नई पहचान दे देने का नाम है 

‘शहर हमसे छीन लेता है’ कविता में, शहर हमसे क्या छीन लेता है इस प्रश्न का उत्तर पहली ही पंक्ति में दे देती हैं. शहर हम से छीन लेता है मिटटी का लोंदा और थमा देता है धूल. कंक्रीट के जंगल में तब्दील होते शहरों की व्यथा को उकेरा है. अपनी संवेदनाओं को रूखे कब्रगाह में परिवर्तित कर दिया है. यहाँ आपको कुछ नहीं मिलेगा. एक रुक्ष जीवन जीना पड़ेगा यहाँ. जिस मिटटी के लिए जान न्यौछावर कर दी जाती थी आज न वो मिटटी रही, न वो जज़्बात. सबको जैसे एक मायाजाल ने अपने आगोश में ले लिया है, उस सम्मोहन से सम्मोहित मनुष्य अपनी कब्रगाह खुद खोद रहा है और खुश हो रहा है. विकास के नाम पर दोहन की परिपाटी ने शहरों की सूरत ही नहीं, मनुष्य की पहचान भी बदल दी है जो आने वाले कल के लिए किसी चेतावनी से कम नहीं. क्या ऐसी दुनिया की चाह थी जहाँ मनुष्य में मनुष्यता ही बाकी न रहे. संवेदनाओं का वृक्ष सूखकर ठूंठ बन जाए. मनुष्य के वास्तव में मनुष्य होने की पहचान भी कंक्रीट का जंगल बन जाए. एक थोपा हुआ व्यक्तित्व ओढ़ स्वयं को मनुष्य कहने लगे, नकली संवेदनाओं से न केवल मनुष्यता को बल्कि स्वयं को भी धोखा देने लगे, क्या इस तरह शहर मनुष्य को परिवर्तित कर देते हैं तो क्या लाभ शहरी होने का. इससे अच्छा तो वो गाँव थे, जहाँ अपनापन, प्रेम और सद्भाव की नदी बहा करती थी, मानो इस कविता का यही उद्देश्य कवयित्री सम्मुख रखना चाहती हैं.  

एक खूंखार बहेलिया ऐसे में दिखता/ जिसके हाथ में कुल्हाड़ी नहीं है/ बावजूद सारे पेड़ टूटकर जमीं पर बिखर जाते हैं/ जानते हो क्यूँ?/ क्योंकि किसी को नष्ट करने के लिए औजार की नहीं/ औजार जैसी हरकतें भी अपना काम कर जाती हैं 

‘मैं और हम’ कविता के माध्यम से पर्यावरण की चिंता की तस्वीर प्रस्तुत करती हैं जहाँ कार्बन उत्सर्जन कर ओजोन लेयर में छेद कर दिया है. सूर्य की हाहाकारी प्रचंड लपटों को हमें ही झेलना पड़ेगा क्योंकि यह हमारे ही किये गए कार्यों का दुष्परिणाम है. जब तक हम प्रकृति के रक्षक नहीं बनेंगे, भक्षक बने रहेंगे, मैं से हम का सफ़र तय नहीं होगा. उसके दुष्परिणाम हमें ही सहन करने पड़ेंगे. 

सूरज ने अपनी नज़र फेर ली है यह कहते हुए कि/ मैं ही फ़िक्र की आग में जलता रहूँ?

जहाँ सूर्य कह रहा है तुमने जो मेरे साथ किया है उसका दुष्परिणाम आपको स्वयं सहना है. किसी को नष्ट करने पर स्वयं भी नष्ट होना ही पड़ेगा. फ़िक्र स्वयं करनी होगी अपनी और आने वाली पीढ़ियों की. जिस दिन पर्यावरण का महत्त्व समझ आ जाएगा ‘मैं’ से ‘हम’ का सफ़र तय हो जाएगा. 

शंख पर असंख्य क्रंदन – विशाल फलक की कविता कहीं न कहीं स्त्री जीवन का आख्यान रचती है, लिंगभेद को झेलती स्त्री की कविता है जो मिथकीय काल से वर्तमान तक अपनी सत्ता बनाए है. स्त्री के धैर्य प्रेम और करुणा ने कैसे समस्त संसार को बचाया हुआ है. जब स्त्री हुंकार भरती है तो एक नया आख्यान रचती है. 

शंख पर असंख्य क्रंदन नहीं होते. पुत्र जन्म शंख बजाने का पर्याय और पुत्री जन्म क्रंदन का बायस, एक ऐसे कटु यथार्थ को कविता उजागर कर रही है जिससे सभी परिचित हैं. स्त्री का दोहन किन किन माध्यमों से होता रहा उसे सिलसिलेवार इस कविता में पिरोया गया है. लिंगभेद की शिकार स्त्री का कैसे कदम कदम पर शोषण होता रहा, उसका आख्यान रचती है कविता. कैसे धर्म को आधार बनाया गया और स्त्री को शिकार उसे भी कविता रेखांकित करती है. न केवल भारतीय  परिप्रेक्ष्य में अपितु समस्त विश्व की माइथोलोजी को भी इस कविता में समेट लेती हैं मानो कहना चाहती हैं, मिथकों के बहाने स्त्री शोषण की नयी नयी परिपाटियाँ आदिकाल से ही विकसित की गयीं. कहीं प्रेम के नाम पर दोहन होता है तो कहीं कहलायी जाती हैं निर्लज्ज, कहीं देवी तो कहीं जलपरियाँ. रूसी दंतकथाएं हों या यूनानी कहानियां, सभी में स्त्री के शोषण का विशाल फलक उभरकर आता है. आत्मा परमात्मा, शैव, वैष्णव आदि सभी आयामों के माध्यम से शंख की उपयोगिता और स्त्री के शोषण की पहेलियों को सुलझाती है ये कविता. पुराकाल से वर्तमान तक को इस कविता में कवयित्री संजोती हैं जहाँ आज भी शंख एक उद्घोष है, धर्म की अफीम है, जिसे जनता चाट रही है और स्त्री की भांति शोषण के लिए सज्ज है. शंख और विज्ञान के सम्बन्ध को भी कवयित्री ने प्रस्तुत किया है कैसे उसकी आवाज़ से कीटाणुओं का नाश होता है. शंख के माध्यम से विभाजन और युद्ध दोनों कलाओं को प्रस्तुत किया है. इस कविता में शंख और सीपी का सम्बन्ध, मनुष्यता का सम्बन्ध, वैश्विक फलक, अनेक देशों की संस्कृति और सभ्यता का आकलन, वहां के अनेक परिदृश्यों से पर्दा उठाती हैं तो साथ ही एक प्रश्न भी छोड़ रही हैं जहाँ शंख को अनेक हत्याओं का दोषी भी बताया जा रहा है तो उन करोड़ों हत्याओं का दोष किसके सर पर है? असंख्य क्रंदन करती धरती ये प्रश्न पूछ रही है क्योंकि वो कह रहे हैं – स्त्री ही शंख है और शंख ही स्त्री है – यानि येन केन प्रकारेण दोषी स्त्री ही है फिर वो शंख लिंगभेद का बायस ही क्यों न हो. एक अत्यंत विशाल फलक की कविता अनेक अर्थ संजोये हैं. अनेक कहानियां स्वयमेव लिपटी चली आती हैं और अपने विषय में बात करने को प्रेरित करती हैं. ऐसी कविताओं को लिखना सहज नहीं. गहन चिंतन मनन का परिणाम होती हैं ऐसी कवितायें जहाँ स्त्री केंद्र हो और उसके चहुँ ओर एक वैश्विक फलक की कविता विचरण कर रही हो. 

सत्ता की आँख में विष्णु संस्कृति का वास/ भला वे कैसे करें शिव संस्कृति का सर्वस्वीकार/ स्त्री जीवन शिव है जबकि पुरुष विष्णु अवतार 

ये पंक्तियाँ काफी है इस अंतर को समझाने के लिए कैसे विष्णु संस्कृति और शिव संस्कृति के माध्यम से स्त्री और पुरुष के मध्य फांक की गयी है. कैसे पितृसत्ता नहीं चाहती शिव जैसी संस्कृति का विकास क्योंकि शिव ने पार्वती को आधे अंग का दर्जा दिया है अर्थात बराबर का दर्जा, अतः उन्हें नहीं स्वीकार हो सकती ऐसी संस्कृति जहाँ बराबरी का भास् हो. उन्हें तो विष्णु संस्कृति ही प्रिय है अर्थात जैसे लक्ष्मी विष्णु के चरण चारण करती रहती है, वैसे ही स्त्रियाँ उसी बनाए हुए दायरे में घूमती रहें. स्वतंत्रता और बराबरी जैसे शब्दों के अर्थ उन तक न पहुंचें. 

डॉ सुनीता की कविताओं को समझना सहज नहीं. हर कविता एक विमर्श को जन्म देती है. समाज की हर चिंता को साथ लेकर चलती हैं. इन कविताओं को समझने के लिए आवश्यक है पहले आपको इतिहास की जानकारी हो. आपको धरती के भूगोल का ज्ञान हो. आपको पुराणों की कथाओं का ज्ञान हो. राजनीति की चौसर पर पासे कैसे फेंके जाते हैं, उसका ज्ञान हो, तब जाकर आप इनकी कविताओं के मर्म तक पहुँच पायेंगे. यही कारण है आम पाठक ऐसी कविताओं से जल्दी जुड़ नहीं पाता लेकिन इसका ये अर्थ नहीं, इन कविताओं को नकार दिया जाए. इन कविताओं का एक विशिष्ठ पाठक वर्ग होता है जो बौद्धिक कविता की मांग करता है. जो हर कविता के माध्यम से एक नए विमर्श की मांग करता है. ऐसी कवितायें पाठ्यक्रम में लगाईं जाएँ तो अध्यापकों को इन्हें पढ़ाने से पहले इनके अर्थों तक पहुँचने हेतु काफी दिमागी कवायद करनी होगी बिल्कुल उसी प्रकार जैसे जायसी, कबीर, सूर, तुलसी, केशव आदि के कहे के अर्थ समझने के लिए करनी पड़ती है. उनकी कविताओं का भावार्थ और उसमें निहित उनके अर्थ दोनों का विश्लेषण करना पड़ता है, ठीक उसी प्रकार डॉ सुनीता की कवितायें हैं. एक एक पंक्ति के अर्थ समझने के लिए इतिहास, भूगोल सभी खंगालने पड़ेंगे. जो एक अच्छा कार्य होगा क्योंकि कविता के माध्यम से इतिहास भूगोल सहज संप्रेषित हो जाएगा। 

वंदना गुप्ता

वंदना गुप्ता

 

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