लेकिन वो बात कहाँ – कहाँ तक सच है ?

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दो लोगों की तुलना नहीं हो सकती | जो रास्ता आपके लिए सही है , हो सकता है दूसरे के लिए गलत हो |हर किसी की अपनी विशेष यात्रा है |हम सब की यात्रा न सही है न गलत न अच्छी है न बुरी …. बस अलग है – डैनियल कोपके 
                           तुलना का इतिहास बहुत पुराना है | शायद जब से प्रकृति में दूसरा मानव बना तब से तुलना करना शुरू हो गया होगा | ये तुलना भले ही सही  हो या गलत पर जीवन के हर क्षेत्र में होती है | तुलना
करने से किसको क्या मिलता है , पता नहीं पर तुलना रंग –  रूप में होती है , आकार प्रकार में होती है | सफलता असफलता में में होती है |हालांकि तुलना करना न्याय संगत  नहीं है | क्योंकि दो लोगों की परिस्तिथियाँ व् सोंच , दृष्टिकोण अलग – अलग हो सकता है | उनके संसाधन भी अलग – अलग हो सकते हैं |  उस पर भी अगर बात दो पीढ़ियों की तुलना की हो , वो भी उनकी सफलता की  तो ?

                                             कला हो  , विज्ञानं , साहित्य , खेल या कोई और क्षेत्र दो पीढ़ियों की तुलना करना बड़ा कठिन काम है | क्योंकि दोनों पीढ़ियों की परिस्तिथियाँ अलग – अलग  होती हैं | उनका संघर्ष और उनके साथ के पतिस्पर्धा करने वालों की काबिलियत भी अलग | पुरानी पीढ़ी के सफल लोग इस  प्रश्न को दो तरह से लेते हैं  | कुछ तो नए लोगों के संघर्ष और उनकी प्रतिभा का सम्मान करते हैं और कुछ उन्हें सिरे से नकार देते हैं | उन्हें लगता है की अब तो इस क्षेत्र  में लोगों की “बाढ़ “सी आ गयी है | कुछ अच्छा हो ही नहीं रहा है | उदहारण के तौर पर अब तो क्रिकेट ही क्रिकेट हो रहा है | हमारे ज़माने में पांच दिन के मैच होते थे अब तो टी – २० रह गया | कैसे कोई बेहतर खिलाड़ी सिद्ध करेगा | हमारे ज़माने में  आई . आई टी की हज़ार सीटे  भी नहीं होती थी | अब तो ५००० सीटे हैं , exam का पैटर्न भी अलग है वैसा  दिमाग कैसे पता चलेगा | लेखन में तो इतने लोग आ रहे हैं पर अब गहराई रह ही नहीं गयी है , सब फ़ास्ट फ़ूड है |

भाषा को समृद्ध करने का अभिप्राय साहित्य विरोध से नहीं

               इन सब के बावजूद नयी प्रतिभाएं हर क्षेत्र में आ रही हैं |उनके अपने संघर्ष हैं , अपनी लड़ाई है और सफलता की अपनी दास्ताँ है |  “बाढ़ ” शायद बढ़ी हुई जनसँख्या , बढ़ी हुई शिक्षा और अपने पैशन को अधिक समय देने की लालसा के कारण है | जिसे नकारात्मक रूप में नहीं देखना चाहिए | ये स्वागत  करने वाली बात है | जो कोई भी कुछ अच्छा करने की कोशिश कर रहा है उसके प्रयास  का उपहास नहीं उड़ाया जाना चाहिए | हर ज़माने में  अपनी कला को , प्रतिभा को आम लोगों तक पहुचाने के लिए प्रचार किया जाता रहा है | हां उसके तरीके अलग होते थे | पर वो तरीके सर्वसुलभ नहीं थे | आज टीवी पर तमाम प्रतिभा खोज कार्यक्रम इस बात के गवाह है की हमारे देश में गांवों – गाँवों में प्रतिभा छुपी हुई है |  तकनीकी बढ़ी है जिससे सफ़र आसान भी हुआ है और कठिन भी | क्योंकि अब अपनी कला को आम लोगों तक पहुँचाना आसान हुआ है | परन्तु अब हजारों के बीच में अपनी एक अलग पहचान बनाना उतना ही मुश्किल |
                                            अब आती हूँ अपने प्रिय विषय लेखन पर | अगर लेखन की बात करें तो आज लेखन में बहुत प्रयोग हो रहे हैं | क्योंकि आज केवल साहित्य ही नहीं वुभिन्न विषयों से शिक्षित लोग लिख रहे हैं है | चाहे  वो डॉक्टर हो , इंजिनीयर , विज्ञानं के छात्र  सब ने अपने भीतर छिपे लेखक की कुलबुलाहट को शब्द देना शुरू कर दिया | लेखन की पहली शर्त ही विचार हैं | जब विभिन्न  तरह के विचार सामने आयेंगे तो नयी संभावनाएं बनेगी |  कबीर अनपढ़ थे | फिर भी साहित्य की ऊँची कक्षाओं में पढाये जाते हैं | पर आज किसी दूसरे विषय से शिक्षित व्यक्ति को साहित्यकार का दर्जा देने में आनाकानी करना साहित्य के नहीं व्यक्ति के  हित में हो सकता है | अगर पाठकों की बात करें तो पाठकों की पसंद भी बदली है उनके पास समय का आभाव भी है | अब गाँव में भी चौपाल या बरगद  तले लेट कर घंटों पढने का समय नहीं है |  पढने वाला भी एक पैराग्राफ घुमाते हुए बात पर आने की जगह टू दी पॉइंट पढना चाहता है |ये समय  फ़ास्ट फ़ूड कल्चर को जन्म दे रहा है |क्या इस पर गौर किया गया है की ये लेखक या पाठक की ख़ुशी नहीं विवशता भी हो सकती है |

व्यर्थ में न बनाएं साहित्य को अखाडा

                                                अगर हम स्त्री विमर्श या महिला लेखन की ही बात करें  तो आज महिलाएं बड़ी संख्या में लिख रही हैं | भले ही इसे “बाढ़ “का दर्जा दिया जाए पर विभिन्न विषयों पर स्त्रियों के विचार खुल कर सामने आ रहे हैं | आने भी चाहिए |आज शहर की स्त्री के अपने अलग संघर्ष हैं जो उसकी दादी के संघर्षों से अलग हैं | वो जिन समस्याओं से जूझ रही है उन्हें स्वर देना चाहती है , उन्हें ही पढना चाहती है |उनका हल ढूंढना चाहती है | जबसे  दादी का संघर्ष  घर के अंदर था , पोती का घर के बाहर | ये सच है की अगर दादी ने घर के अंदर संघर्ष न किया होता तो पोती को घर के घर के बाहर संघर्ष करने का अवसर न मिलता | पोती का संघर्ष दादी के संघर्ष का विस्तार है प्रतिद्वंदी नहीं | जहाँ पोती के ह्रदय में दादी के संघर्षों के लिए अथाह सम्मान होना चाहिए | वहीं दादी को संघर्ष करती पोती की आगे बढ़कर पीठ थपथपानी चाहिए |
                                    परिवर्तन ,अपरिवर्तनशील है | हर ज़माने के बाद दूसरा जमाना आएगा | कच्चे घर से पक्के घर पक्के घर से फ़्लैट में परिवर्तन होगा , चूल्हे से , गैस व् उससे माइक्रोवेव  में परिवर्तन होगा , 5 दिन के मैच का टी -२० में व् बड़े उपन्यासों का लघुकथाओं की तरफ रुझान में परिवर्तन होगा | प्रचार माध्यमों में परिवर्तन होगा | हर परिवर्तन  के साथ कुछ प्लस व् माइनस पॉइंट हैं | पर परिवर्तन अवश्यम्भावी है और परिवर्तित समय के नए संघर्ष भी अवश्यसंभावी है |  घर हो , साहित्य हो या कोई अन्य क्षेत्र पुरानी पीढ़ी को नयी पीढ़ी की परिस्तिथियों , उनकी पीड़ा  व् उनके संघर्ष को समझ कर उनकी हौसलाअफजाई करना नयी पीढ़ी के मन में पुरानी पीढ़ी के सम्मान को कई गुना बढा  देती है | वर्ना अपने संघर्षों से जूझते हुए हर पीढ़ी अपना रास्ता स्वयं बना ही लेती हैं |

वंदना बाजपेयी
                                                               
                                                

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