अर्थ डे और कविता

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 अर्थ डे  और मैं कविता लिखने की नाकामयाब कोशिश में लगी हूँ  | मीडिया
पर धरती को बचाने  का शोर है  | मैं मन की
धरती को बचाने में प्रयासरत | धरती पर पानी की कमी बढती जा रही है और मन में
आद्रता की | सूख रही है धरती और सूख रही है कविता | हाँ  कविता ! जो  जीवन के प्रात: काल में उगते सूर्य के साथ लबालब
भरे मन के सरोवर पर किसी कमल के फूल सी खिल उठती  है | कितनी कोमल , कितनी मनोहर |  भ्रमर  गीत गाती सी खिलाती है पत्ती – पत्ती माँ , बहन
व् अन्य रिश्तों को सितार के तार सा  छेड़ते
हुए आ जाती है प्रेम के पायदान पर और  फैलाने
 लगती है सुगंध | पर जीवन सिर्फ प्रेम और
वसंत ही तो नहीं | की जब बढ़ चलता है उम्र का सूर्य , खिल जाती है धूप तो नज़र आने
लगती हैं जीवन की  विद्रूपताएं |सूख ही
जाता है थोडा सा सरोवर , तभी …

शायद तभी परिवार और प्रेम की सीमाएं लांघ कर नज़र
आने लगती है , गरीबी , बेचारगी , लाचारी , समस्याएं बहुत साधती है , बहुत संभालती
है पर जीवन के मरुस्थल में आगे बढ़ते हुए  इतनी कम आद्रता में, हाँफने  लगती है कविता | लय  सुर छन्द न जाने कब गायब हो जाते हैं और बेचारी गद्य
( ठोस ) हो जाती है | और हम हो जाने देते हैं | हमें आद्रता की फ़िक्र नहीं , हमें
कविता की फ़िक्र नहीं , हमें धरती की फ़िक्र नहीं | हमें बस भागना है एक ऐसी दौड़ में
जो हमें लील रही है | पर हमारे पास सोंचने का समय नहीं | अगर हम रुक कर सोंचेंगे
तो कहीं अगला हमसे आगे न चला जाए | चाहे हम सब हार जाएँ | काश की इस आत्मघाती दौड़ में
हम समझ पाते की दौड़ को कायम रखने के लिए भी जरूरी है की आद्रता बची रहे , कविता
बची रहे , धरती बची रहे | 


वंदना बाजपेयी 

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