मदर्स डे : माँ और बेटी को पत्र

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मेरी प्यारी बेटी
कैसी हो?कितने दिन हो गए तुम्हें अपने गले से लगाए हुए। कहाँ तो एक दिन भी तुम्हें याद किए बिना बीतता नहीं था मेरा। पर अब कितनी विवश हूँ मैं। याद रोज़ करती हूँ, रोज़ अपनी अश्रुपूर्ण आँखों से तुम्हारे पापा के साथ उन रूपों के बीच निहारती हूँ तुम्हें, जिनमेँ जब-तब हमें याद कर आँसू बहाते हुए ढूँढती हो तुम। पर मैं तुम्हारे आँसू पोंछ नहीं सकती, तुम्हें सांत्वना नहीं दे दे सकती, तुम्हें अपनी छाती से लगा कर चुप नहीं करा सकती, क्योंकि अब मैं तुम्हारे पापा के साथ उस संसार में हूँ जहाँ से , लोग कहते हैं कोई लौट कर नहीं आता। बस दूर से अपनों को देख सकता है। अब यही हमारे बस में है बेटी


जब तुम्हारा जन्म हुआ था तब कितने धनवान हो गए थे हम। उस मजनूँ को, जो हमारे यहाँ काम करने आया करता था, को तो तुम जानती हो न, के साथ तुम्हारे पापा ने पूरी कॉलोनी में लड्डू बाँटे थे। तुम्हें पाकर फूले नहीं समाते थे हम। सब कुछ भूल हम दोनों तुम्हीं में खोए रहते थे। एक बार तुम बीमार पड़ी तो हमारे हाथ-पाँव फूल गए थे। टाइफाइड का बुखार चढ़ता, उतरता, पर ठीक होने में नहीं आ रहा था। हम तो जैसे सोना ही भूल गए थे। बस चारपाई पर लेती हुई तुम्हें देखते रहते। हर समय एक डर मन में बना रहता कि कहीं तुम हमें छोड़ कर न चली जाओ। ईश्वर की कृपा हुई और एक नए डॉक्टर हमें मिले, जिनकी दवाई से तुम ठीक होती गई। हमारे सपने फिर खिलने लगे और तुम उनमें नए रंग भरने लगी। धीरे-धीरे तुम बड़ी हुई, स्कूल जाने लगी।
अरे! एक बात बताऊँ तुम्हें। तुम्हें छोटे बच्चे बहुत अच्छे लगते थे। बहुत दिनों तक तुम्हारा कोई भाई-बहिन नहीं हुए तो तुम पड़ोसियों के छोटे बच्चों को गोद में लिए उन्हें खिलाया करती थी। बाद में जब तुम्हारे अपने दो भाई घर आए तो तुमने पड़ोसियों के बच्चों को गोद में भी लेना छोड़ दिया था। कोई तुम्हें बुलाता तो तुम तपाक से कहती- अब तो मेरे भाई है न ,मैं क्यों आऊं? ऐसी थी तुम नटखट, शैतान की नानी।
कब मेरी बेटी इतनी बड़ी हो गई थी कि स्कूल से कॉलेज और पढाई पूरी कर, अध्यापिका बन एक दूसरे प्रांत में नौकरी भी करने चली गई , पता ही नहीं चला। तुम्हारे जाने के बाद मैं बहुत रोई थी क्योंकि मैं अकेली जो रह गयी थी। हर काम हम मिल कर किया करते थे। कहीं जाना हो हो, शॉपिंग करनी हो, फ़िल्म देखनी हो, घर में काम हो, सब मिल कर ही तो करते थे हम और तुम्हारे जाने से मेरी सहेली जैसे दूर हो गई थी।
जानती हो, जब तुम चली गई थी तो पड़ोसियों, रिश्तेदारों, जान-पहचान वालों….सभी ने मुझसे कहा था कि कैसी और कितनी पत्थरदिल हो तुम! तुम्हारी एक ही बेटी और उसे भी तुमने इतनी दूर भेज दिया! तो मैंने कहा था था कि हां, मैं तो ऐसी ही पत्थर दिल हूँ। पर बेटी मेरा सोचना था कि अपने बच्चों को सपने देखने के लिए खुला आसमान देना चाहिए और उन सपनों को पूरा करने की उड़ान भरने में माता-पिता को बाधक नहीं सहायक होना चाहिए और मैंने यही किया।
इन वर्षों में कितना कुछ घटा। तुम्हारा और तुम्हारे भाइयों का विवाह हुआ, तुम तीनों बहिन-भाई माता-पिता बने और हम नाना-नानी और दादा-दादी बने। हमारा परिवार पूर्ण हुआ । इस बीच दो-तीन बार तुम्हारे पापा इतने बीमार भी पड़े कि ऐसा लगने लगता था कहीं हमें छोड़ कर न चले जाएँ। तब तुम्हारा बार बार छुट्टियाँ लेकर आना, रह कर हमें मजबूती देना और अपने पापा की सेवा करना, मुझे ढाँढस बँधाना, घर के सारे काम करना, क्या मैं कभी भूल सकती हूँ?
दिन बदले, समय बदला, पर मेरा-तुम्हारा सहेलियों वाला रिश्ता नहीं बदला। थोड़े-बहुत उतार-चढाव आये जरूर, पर रिश्तों की सुंदरता और गर्माहट वैसी ही बनी रही। उम्र बढ़ने के साथ शक्ति कम होने से मैं तुम पर और भी अधिक निर्भर होने लगी थी। फोन पर लंबी-लंबी बातें किए बिना हमें तो जैसे चैन ही नहीं आता था। तुम्हारे पापा भी कहते थे कि तुम दोनों माँ-बेटी द्रौपदी के चीर की तरह इतनी देर तक क्या बतियाती रहती हो। तभी तो जब तुम अपनी नौकरी से स्वैच्छिक सेवनिवृत्ति लेकर आई तो सबसे ज्यादा खुश मैं और तुम्हारे पापा ही थे , क्योंकि हम तुम्हारे आने से अपने को मजबूत समझने लगे थे। हमारा अकेलापन कम हो गया था।
लिखने की तो मेरी बेटी इतनी बातें हैं मेरे पास कि अगर उन सब बातों को लिखना शुरू करूँ तो ये पत्र कभी खत्म ही न हो।
हमारी खुशियाँ लौट आईं थी की पहले तुम्हारे पापा बीमार हुए, वे संभले तो मैंने बिस्तर पकड़ लिया। उस समय तुम और तुम्हारे पूरे परिवार ने जिस तरह हमें संभाला, उसके लिए हमें तुम पर गर्व है। बेटियाँ किस तरह अपने माता-पिता का शक्ति स्तंभ बिना कहे बन जाती हैं ये तुम्हें देख कर ही मैंने जाना। मुझे एक ही दुःख सालता है कि मैं चलते समय तुम्हें कुछ कह नहीं सकी। मैंने तुम्हारा इंतज़ार नहीं किया। मैं तुम्हारे पापा और तुम्हारी आँखों में अपने खोने का डर रोज़ देख रही रही थी। मैं चाहती थी कि मैं ख़ुशी बन कर तुम दोनों की यादों में जीऊँ, डर बन कर नहीं, बस इसीलिए बिना कुछ कहे, तुम दोनों का इंतज़ार किए बिना चली गई। इंतज़ार करती तो तुम दोनों क्या मुझे जाने देते। ये बात अलग है कि मेरे जाते ही तुम्हारे पापा भी तुम्हें छोड़ कर मेरे पास आ गए। हमारे बिना तुम कितनी अकेली हो, कितनी दुखी हो, बस इसी से हम बहुत दुखी हैं। पर मैं जानती हूँ कि मेरी साहसी बेटी हमे अपनी स्मृति में बसाए हुए हमारे अधूरे और अपने पूरे सपनों को अवश्य पूरा करेगी।
पुनर्जन्म में हमें पूरा विश्वास है और तुमने हमारे लिए एक कविता लिखी थी न, उसकी कुछ पंक्तियाँ मुझे याद आ रही हैं…..
पुनर्जन्म जब भी हो तुम्हारा
फिर से जीवन साथी बनना
और जब माता-पिता बनो तुम

मुझको ही अपनी बेटी चुनना।
इसलिए हम तो अब इसी प्रतीक्षा में हैं अपने इसी विश्वास को लिए हुए कि हमारा पुनर्जन्म अवश्य होगा, हम फिर जीवन साथी बनेंगे और तुम्हीं पुनः हमारे घर में बेटी बन कर जन्म लोगी।
तो मेरी साहसी और अच्छी बेटी, खुश रहना। आखिर तुम्हें भी तो अपने बेटे-बेटी को अपने और अपने पति की तरह शक्तिशाली बनाना है। एक बात कहूँ…तुम जैसी बेटियाँ सौभाग्य से मिलती हैं, जैसे तुम हमें मिली।
अब दुखी न होना, नहीं तो मुझे फिर पत्र लिखना पड़ेगा न। बाकि बातें फिर कभी। इस बार इतना ही।
तुम्हारी माँ
डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई।

मेरी प्यारी माँ 
आज बहुत दिनों बाद तुम्हें पत्र लिख रही हूँ। मदर्स डे सप्ताह सब मना रहे हैं, अपनी-अपनी माँ को अपने-अपने तरीके से याद कर रहे हैं। मैं तो तुम्हें रोज़ फ़ोटो में देखती हूँ, तुम्हारे लिखे पत्रों में ढूँढती हूँ, तुम्हारी चीज़ों को स्पर्श करती हूँ और जब तुम्हें याद करते-करते बहुत बैचैन हो जाती हूँ तो तुम्हारी साड़ी पहनती हूँ और तुम्हें अनुभव करती हूँ। कभी मैं तो कभी तुम बन जाती हूँ।
मैं तुम्हारी पहली संतान थी, तो सबसे बड़ी हुई न। पर आपके होते हुए मैं अपने को छोटा ही समझती थी, क्योंकि जिम्मेदारियों का बोझ उठाने में आपसे सलाह-सुझाव मिलने से उन्हें निभाना मेरे लिए आसान होता था। पर असमय जाकर तुमने मुझे बहुत बड़ा बना दिया माँ। अब मैं अपनी परेशानियों-जिम्मेदारियों को सुलझाने-निभाने में सलाह माँगने किसके पास जाऊँ? मैं बहुत अकेली हो गई हूँ माँ। कहने को तो अपने, संबंधी, जान-पहचान वाले कितने ही हैं यहाँ, पर मन की बात जिससे कह सकूँ, ऐसा कोई नहीं। मुझे कभी-कभी बहुत घुटन होती है। मैं बहुत कुछ कहना चाहती हूँ आपसे, पर कैसे कहूँ?
आप और पापा क्या गए मेरे लिए तो त्योहार का उत्साह ही खत्म हो गया। गुझिया तो मैंने तब से बनाई ही नहीं। शकरपारे और गुझिया तो बच्चों को आपकी बनाई हुई ही पसंद थी। मुझसे तो आप जैसी बनती ही नहीं। आपके बनाए हुए स्वेटर लोग जब देखते हैं और उनकी प्रशंसा करते हैं तो मैं गर्व से भर उठती हूँ। कितनी ही बातें जो मैंने आपको करते हुए देखा, और अब जब अपने जीवन में उन्हें अपना कर काम कर रही हूँ तो समझ आता है कि माता-पिता जाने-अनजाने बहुत सी बातें खेल-खेल में ही सिखा कर अपने बच्चों का जीवन कितना सुगम बना देते हैं। सबसे बड़ी चीज़ जो मैंने आपसे सीखी वो है मितव्ययिता। इस गुण को आपसे अपना कर मुझे अपनी गृहस्थी चलाने में कितनी आसानी हुई यह मैं ही
जानती हूँ।
हम सबके जन्मदिन पर सवेरे ऑटो से आप दोनों का आना, वो गाजर-सूजी का हलवा, गुझिया, शकरपारे लेकर आना, बच्चों का आपका सामान छुपा कर कई-कई दिन जाने न देना….अब तो सब बस एक याद बन कर रह गया है। गली में जब भी कोई ऑटो आकर रुकता हैं तो आँखे स्वतः ही उधर देखने लगती हैं और निराश हो जाती हैं यह सोच कर कि अब ऑटो में हमारे जन्मदिन पर कोई नहीं आएगा।
सब कुछ वैसा ही चल रहा है, दुनिया उसी तरह चल रही है, पर माँ, मेरी दुनिया आप दोनों के जाने के बाद जैसे वहीँ रुकी पड़ी है। मैं करूँ तो क्या करूँ? मेरे दुःख में दुखी होने वाला कोई नहीं, मेरे सुख में खुश होकर सिर पर आशीर्वाद का हाथ रखने वाला कोई नहीं। आप तो मेरी सहेली थी, सुख-दुःख की साथी। सब काम तुम मुझसे सलाह लेकर, पूछ कर किया करती थी, फिर हमेशा के लिए जाने के समय आपने मुझसे क्यों नहीं पूछा कि मैं जाऊँ या नहीं। इतना बड़ा निर्णय लेने से पहले आपने मुझसे एक बार भी नहीं कहा, मेरा और पापा का इंतज़ार तक नहीं किया। मैं आपसे बहुत नाराज़ हूँ माँ और पापा से भी। क्योंकि उन्होंने भी केवल आपकी चिंता की, मेरी नहीं। वे भी बिना कुछ कहे पहुँच गए आपके पास। एक बार भी नहीं सोचा कि दुनिया की इस भीड़ में आपकी बेटी आपके बिना कैसे जिएगी।
लौट आओ माँ! पापा के साथ लौट आओ माँ।
हर जगह आपको ढूँढती
आपकी बेटी
 – डॉ.भारती वर्मा




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