मदर्स डे : कौन है बेहतर माँ या मॉम

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कहते है हर चीज परिवर्तनशील है समय बदलता है तो सब कुछ बदल जाता है | पर सृष्टि का पहला रिश्ता माँ और संतानं का आज भी यथावत है………. आज भी माँ का अपनी संतान के प्रति वही स्नेह है वही कोमल भावनाएं हैं |फिर भी समय के साथ माँ की सोंच में उसके दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ है | अगर एक एक पीढ़ी पहले तक कि माँ की बात करे तो माँ की धुरी केवल बच्चे हुआ करते थे | उसका पूरा समय बच्चो में जाया करता था |उसके ईतर वो अपने लिए कुछ भी नहीं सोचती थी |बच्चे बड़े होते थे …. अपने अपने घर बसाते थे और माँ एकाकी महसूस करती थी,अपने को छला हुआ महसूस करती थी | वहीं आज माओं में परिवर्तन आया है |माँ और बच्चे का ममता का रिश्ता यथावत है पर वो अपने बारे में भी सोंचती है ,कुछ समय अपने लिए भी निकालती है,उसके कुछ शौक हैं जिन्हें वो पूरा करना चाहती है कुछ सपने है जिन्हें वो पाना चाहती है ऐसे में कई बार वो अपने बच्चो को उतना समय नहीं दे पाती जितना वो चाहते हैं ,पर जीवन के विविध पहलुओ पर राय ज्यादा बेहतर दे पाती है |तो फिर बेहतर कौन है “माँ या मॉम “अटूट बंधन टीम नें इस विषय पर विचार आमंत्रित किये …… यह एक बहुत रोचक प्रयोग रहा हर आयु वर्ग के लोगों ने बढ़ –चढ़ कर हिस्सा लिया | उनमें से कुछ के विचार हम यहाँ आप सब के लिए लाये हैं |

नो डाउट मॉम बेहतर है
मेरे विचार से मॉम बेहतर है | एक माँ का अपने बारे में कुछ सोचना कैसे गलत हो सकता है पहले कई पीढ़ियों में माँ पढ़ी –लिखी नहीं थी | उसकी धुरी बच्चों के अलावा कुछ और बन ही नहीं सकता था |पहले बच्चों को पालती –पोसती थी |और उनके बड़े हो जाने पर ,अपनी दुनियाँ बसाने पर कहीं न कहीं खुद को छला महूस करती थी |आज की मॉम ने उस पीढ़ी को देखा है वो पढ़ी –लिखी है ,अपना निर्णय कर सकती है इसलिए इसलिए उसने अपने बारे में सोचना शुरू किया है जिससे वो बाद में एकाकी न हो |मेरे विचार से यह बच्चों के लिए भी बेहतर है |जानवर अपने बच्चों को एक सर्टेन ऐज तक पाल कर छोड़ देते है , तभी उनमें खुद से लड़ने कि ,खुद से सीखने कि क्षमता डीवैलप होती है |अगर माँ चौबीसों घंटे अपने बच्चों में व्यस्त रहती है |कहीं न कहीं उसके बच्चे ओवरडिपेंडेंट होते हैं ,जब वो बाद में दूसरे शहरों में नौकरी के लिए जाते हैं तो उन्हें परिस्तिथियों से एडजस्ट करने में बहुत तकलीफ होती है | जिन बच्चों ने पहले से ही यह सीखा होता है वह जल्दी एडजस्ट कर लेते हैं |…….. सरिता जैन (गृहणी ,दिल्ली )
माँ है कहाँ अब तो सब मॉम ही हैं –
किस जमाने कि बात कर रहे हैं ,आज तो जहाँ देखो वहा मॉम ही हैं माँ है कहाँ ? कितनी औरते है जिन्होंने अपने सपनों को पकड़ने कि अंधी दौड़ में अपनी ममता को ही मार दिया है |सुबह नौकरी का काम पर जाने वाली माताओ का अपने बच्चों को क्रेच में छोड़ना एक अलग ही संस्कृति को जन्म दे रहा है| आज आप ओल्ड ऐज होम्स को दोष देते हैं ,पर मेरे विचार से जितने क्रेच बनेगे उसके दुगने ओल्ड ऐज होम्स बनेगे |जब बच्चों ने जाना ही नहीं कि परिवार को समय कैसे दिया जाता है तो वो केवल यही जानते हैं कि समय देने कि जरूरत है ही नहीं केवल सुविधायें देने कि जरूरत है वो तो ओल्ड ऐज होम्स में मिल ही जाती है | स्त्री का स्वप्न देखना गलत नहीं है पर महत्वाकांक्षा कब अति मव्त्वाकांक्षा में बदल जाती है स्वयं माँ को ही नहीं पता चलता |पहले समाज में बराबर वर्गीकरण था पुरुष घर के बाहर रहते थे और औरतें घर में |तभी बच्चों कि सही परवरिश हो सकती थी |अब दोनों जब अपने –अपने काम का बोझ ले कर घर लौटते हैं तो बस बुल फाइटिंग होती है ,आरोप –प्रत्यारोप होते हैं कि “बच्चों कि जिम्मेदारी तेरी है ,बच्चों कि जिम्मेदारी तेरी है ,और बच्चे कोने में दुबक कर अपने नसीब को रोते हैं “हे भगवन मुझे क्यों जन्म दिया |जहाँ तक मैं समझता हूँ स्त्री किसी परिवार का दिल है और इस दिल को हमेशा धड़कते रहने के लिए उसका सिर्फ मां होना काफी है, उसे मॉम बनने की कोशिश करने की जरूरत नहीं।
संजीत शुक्ला ( व्यवसायी )
समय प्रबंधन मॉम को बेहतर बनाता है 

माँ और बच्चे का रिश्ता हर युग में वैसा ही रहा है वैसा ही रहेगा |पर मेरे विचार से अगर माँ अपने बच्चे को ठीक ढंग से पाल रही है उस की शिक्षा और जरूरतों को पूरा कर रही है और फिर अपने लिए भी थोड़ा सा आकाश चाह रही है तो इसमें गलत क्या है|आज जब की संयुक्त परिवार घट गए हैं|हर घर में एक या दो बच्चे हैं तो माँ दिन भर घर में बच्चों के चारों ओर घूम कर क्या करे ?जाहिर सी बात है वो अपना समय फालतू की गॉसिप में टी वी बरबाद करेगी | ऐसे में अगर माँ अपने बारे में कुछ सोचती है तो ,अपने सपनों का आकाश पाना चाहती है ,तो बच्चों पर कोई गलत असर नहीं पडेगा |कई बार माँ घर में ही रहती है ,अपने बारे में कुछ नहीं भी सोचती है फिर भी रिश्तों –नातों और घर के कामों में इतना उलझी रहती है कि बच्चों को पूरा समय नहीं दे पाती है …. फिर उसकी जिंदगी कि धुरी में बच्चे रहने से भी क्या फायदा ?एक कहावत है “अगर आप चाहते हैं कि कोई काम समय पर पूरा हो जाए तो उसे दुनियाँ के सबसे व्यस्त व्यक्ति को दे दो “ |क्योंकि व्यस्त व्यक्ति को समय प्रबंधन आता है ,इसलिए वो काम कर ले जाएगा | यही बात मॉमपर लागू होती है |मॉम को समय प्रबंधन आता है |वो अपने लिए व् बच्चों के लिए समय इस तरह से बांटती है कि सब सुचारू रूप से चले न बच्चों को असुविधा झेलनी पड़े न उसके काम को | समाय का यह प्रबंधन मॉम को निश्चित रूप से बेहतर बनाता है |
सुनीता शुक्ला (ऐसोसिएट प्रोफेसर,अंग्रेजी विभाग ,कानपुर )
माँ ही बेहतर है –
हो सकता है मेरी सोच आप सब को सही न लगे पर मेरे विचार से माँ ही बेहतर है | बच्चों को क्रेच में छोड़ कर जाना कहाँ का न्याय है |अक्सर बहुत सज संवर कर अपने में अति व्यस्त रहने वाली मॉम का घर बहुत बिखरा हुआ रहता है | बच्चे भी बद्तमीज होते हैं |उन्हें बड़ों का अदब करना नहीं आता ,और माँ के पास उनको देने का ,संस्कार सिखाने का समय ही नहीं होता है ,महंगे खिलौनों से ममता कि कमी कैसे पूरी हो सकती है |वैसे जब बच्चे थोडा बड़े हो जाए ,उन में संस्कार आ जाए ,अपना काम स्वयं कर सके तो माँ अपने बारे में सोचे अपनी धुरी घर के बाहर बनाये उसमें क्या हर्ज है ………… माँ का अपने बारे में सोचना अच्छा है पर माँ के मॉम बनने में थोडा समय निर्धारित होना चाहिए |………
अनु गुप्ता 
मॉम कर देती है गिल्ट फ्री –
मेरे विचार से मॉम बेहतर है ,न आज वो ज़माना रहा ,न वो समाज रहा |अगर एक वर्किंग मदर है तो वो अपने बच्चों की समस्याओं को ज्यादा बेहतर ढंग से समझ पाएगी , और सही राय दे पाएगी |क्योंकि उसने बाहरी दुनियाँ फेस की हैं वह कोरे आदर्शों में नहीं जीती ,न ही बच्चों से यह अपेक्षा करती है की वो रुल बुक के हिसाब से जीवन जीये ,ऐसे में माँ और बच्चों के सम्बन्ध ज्यादा फ्रेंडली हो गए हैं |कुछ हद तक देखा जाए तो बच्चे प्राउड फील करते हैं कि उनकी माँ दोनों परिस्तिथियों को टैक्ट फूली डील करती हैं |तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि बच्चों की आँखों में तो सपने होंगे ही वो तो बाहर पढने और नौकरी करने जायेंगे ही |ऐसे में अगर एक –दो जनरेशन पीछे की माँ को देखे तो माँ को छोड़ कर अपने सपनो को चेस करने वाले बच्चों में एक गिल्ट फीलिंग रहती थी ,माँ ने मेरे बिना तो कुछ सोचा नहीं अब मैं अपने बारे में सोच रहा हूँ …. ये शायद गलत है ? ये गिल्ट फीलिंग बच्चों में हर समय हावी रहती थी ,जो पढ़ाई या काम को प्रभावित करती थी |परन्तु मॉम के बच्चे इस फीलिंग से दूर रहते हैं | हां ये सच है ,कि बच्चे जानते हैं कि उनकी माँ हर समय उनके लिए एवलेवेल नहीं है ,कभी –कभी एक फोन कॉल के लिए भी उन्हें वेट करना पड़ता है ,फिर भी वो संतुष्ट रहते हैं कि उनसे ईतर उनकी माँ कि एक दुनियाँ है जिसमें वो बिजी हैं | ऐसे में बच्चे गिल्ट फ्री हो कर अपने काम पर फोकस कर पाते हैं | पर जरूरत पड़ने पर दोनों एक दूसरे को पूरा समय देते हैं| सच है माँ और बच्चो का भावनात्मक रिश्ता कभी कम नहीं हो सकता वो हमेशा से था है और रहेगा………..
श्रुति 
मॉम या सुपर मॉम शब्द केवल मानसिक गुलामी का प्रतीक
माँ तो माँ ही है सदियाँ बदली पर माँ कि ममता आज भी उतनी ही सौ सोने जितनी खरी है |आज कल की मिडिया , टीवी चैनलों और अपने आप को ज्यादा आधुनिक समझने वाले लोगो ने कौन है परफेक्ट मॉम…. सुपर मॉम कोंटेक्सट… सरीखे प्रोग्राम बनाकर माँ के साथ क्या कर रहे है ?…उनका कैसा चित्रण कर रहे है ?….वो बताना क्या चाहते है….? दिखाना क्या चाहते है …?। लेकिन यह सुपर मॉम, पर्फेक्ट मॉम.. सरीखा फैशनेबल शब्द औरतों को कैसे नए तरह से गुलाम बना रहा है, ये वही समझ रही हैं।
वह घर में होती है तो दफ्तर के छूटे हुए काम याद आते हैं। दफ्तर जाती है तो याद आता है कि बच्चे का होमवर्क ठीक से नहीं करा पाई। घर पहुंचते ही उसकी बाट जोहती वॉशिंग मशीन उम्मीद करती है कि स्विच ऑन किया जाए, बर्तनों से भरा सिंक और बिखरा पड़ा किचन दिन भर का उलाहना देता है और बच्चे-बूढ़े शाम के नाश्ते की फ़रमाइश करते मिलते हैं….। कहां से शुरू करे….।
परिवारों का ढांचा परंपरागत है और बाहरी दुनिया में अभी उनकी कामकाजी छवि को लोग मन से स्वीकार नहीं पा रहे हैं। ख़ुद स्त्रियों को भी मानना होगा कि वे हर जगह पर्फेक्ट नहीं हो सकतीं। अगर बच्चों को मनचाहा समय नहीं दे पा रही हैं तो उनमें ग्लानी की भावना आएगी ही |मेरेविचार से माँ ही बेहतर है …….जो बिना किसी द्वन्द के अपना जीवन जीती है |……
राम राज कटियार
माँ को मॉम बनना ही होगा –
माँ और ममता एक दूसरे के पूरक शब्द हैं |माँ को मॉम कहो ,अम्मा कहो , माता कहो …. माँ और बच्चों के रिश्ते पर कोई फर्क नहीं पड़ता है |परन्तु समय का तकाजा है कि माँ को मॉम बनना ही पड़ेगा | इसकी सबसे बड़ी वजह स्त्री का शिक्षित होना है |जिसकी वजह से उसमें अपने अस्तित्व का अहसास है ,अपने वजूद का स्वाभिमान है |एक शिक्षित नारी यह फैसला कर सकती हैं कि वो घर के बाहर जा कर काम करे या न करे |या कोई ऐन जी ओ ज्वाइन करे ,मंदिर में जाए , या शौपिंग पर धार्मिक पुस्तके पढ़े या हेल्थ ,पॉजिटिव thinking से रिलेटिड मैगजीन्स |इससे उसके मॉम होने पर कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उसने बच्चों से अलग अपनी एक दुनियाँ बना ली है ,जहाँ उसके दोस्त है ,उसकी होबीस हैं ,उसका अपना समय है …. जहाँ वो थोड़ी देर अपने लिए बिताना चाहती है |और यह कुछ गलत भी नहीं है क्योंकि जिस तरह से शरीर कि भूख होती है वैसे ही दिमाग कि भी भूख होती है |अपने विचार होते हैं जिनसे जूझना ,कुछ नया पढना ,डिस्कस करना अच्छा लगता है |आज एक पढ़ी लिखी स्त्री पुराने जमाने कि माँ कि तरह केवल चुल्हा –चकिया कर के जीवन व्यतीत नहीं कर सकती ,खुश नहीं रह सकती |कहावत है जब तक घर की स्त्री सुखी नहीं रह सकती घर में कोई सुखी नहीं रह सकता |अपने लिए थोड़ी सी हंसी थोड़ी सी ख़ुशी और थोड़े से सपने रखने वाली माँ कि मॉम कि तरफ यात्रा शुरू हो गयी है जो अपरिवर्तन शील है |
अर्चना बाजपेयी
रायपुर छत्तीसगढ़

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