मीठा अहसास

लघुकथा -मीठा अहसास



यूँ तो हमारे हर रिश्ते भावनाओं से जुड़े होते हैं परन्तु संतान के साथ रिश्ते के मीठे अहसास की तुलना किसी और रिश्ते से नहीं की जा सकती | इसी अहसास के कारण तो माता -पिता वो कर जाते हैं अपनी संतान के लिए जिसका अहसास उन्हें खुद नहीं होता | ऐसी ही एक लघु कथा ….

लघुकथा -मीठा अहसास



लोहडी व संक्रान्त जैसे त्यौहार भी विदा ले चुके थे।

लेकिन अब कि बार ग्लोबलाइजेशन के चलते ठंड कम होने का नाम नही ले रही थी।ठंड के बारे बूढे लोगो का तो बुरा हाल था,जिसे देखो वही बीमार।हाड-कांप ठंड ने सब अस्त-व्यस्त कर दिया था।देर रात जागने वाले लोग भी अलाव छोड बिस्तरो मे घुसे रहते शाम होते ही।




बर्फिली हवा से सब दुखी थे।कही बैठा ना जाता।सब सुनसान हो रहा था।रात छोड दिन मे भी कोहरा दोपहर तक ना खुलता।सूर्य देव आंख -मिचौली मे लगे रहते,कभी दिखते कभी गायब हो जाते।
स्कूलो मे भी 15-15दिनो की छुट्टियाँ कर दी गयी थी!पर छोटे बच्चे कहां टिकते है? पर इस ठंड मे वो भी बिस्तर मे दुबक गये थे।




बिस्तर पर पडे-पडे मै भी कब यादो के जंगल मे घूमने निकल गयी थी!पुरानी यादे,चलचित्र की रील की तरह मेरे सामने घूम रही थी।मुझे याद आया जब आज से 30 साल पहले मेरे पति की नाइट डयूटी थी।





ये उस दिन की बात है जब मेरे पति रात की पारी मे दो बजे घर से चाय पीकर डयूटी पर जा चुके थे!मुझे आठवां महीना लगा हुआ था,और मेरा चार साल का बेटा बिस्तर पर सोया मीठी नींद ले रहा था।पतिदेव जब जाने लगे थे,तो मै उन्हे “बाय” कहने जब गेट पर आयी तो इतने कोहरे को देख मै भी ठंड से कांपने लगी।


पतिदेव के जाने के बाद मे कुछ सोचने लगी,अभी दीवाली आने मे समय था,!हर दीवाली पर मै अपने बेटे को नयी डैस जरूर दिलवाती,इस बार सोचा,नयी स्कूल डैस दिलवाऊगी,मेरे बेटे को निकर पहन कर स्कूल जाने की आदत थी,अभी छोटा सा लगता था कद मे।फिर इसी साल स्कूल जाना शुरु किया था।मैनै स्कूल पैन्ट का कपडा लाकर रखा हुआ था,सोच रही थी,किसी दिन टेलर को देकर आऊगी,पर अपनी ऐसी हालत मे जा ही नही पायी,झेप के मारे!

आज के कोहरे को देख,कुछ सोचने लगी।इतनी ठंड मे मेरा बेटा स्कूल कैसे जायेगा?कुछ सोचने के बाद मैने खुद उसकी पैन्ट सिलने का फैसला किया!रात के तीन बजे से छह बजे तक मैने पैन्ट सिलकर तैयार कर दी।सात बजे मेरा बेटा जागा,और मैनै उसे गरम पानी से नहला कर नयी पैन्ट पहना दी,वो बडा खुश हो गया,!उसके चेहरे की खुशी देकर मै भी भावविभोर हो गयी और अपनी सारी थकावट भूल गयी,भूल गयी ऐसी हालत मे मुझे मशीन चलानी चाहिये थी या नही।




उसकी स्कूल वैन आने वाली थी,मैने उसे लंचबाक्स व बैग देकर विदा किया! पर,ये क्या?वो थोडी देर मे ही वापिस आ गया!मैने पूछा,बेटा,वापिस क्यो आ गये हो? बडी मासूमियत व भोलेपन से बोला,”मम्मी जी”बाहर तो कुछ दिख ही नही रहा!मै समझ गयी असल मे दूर तक फैले कोहरे के कारण उसे घर से दूर खडी स्कूल वैन दिखाई ही नही दे रही थी।



तभी उसे मैने प्यार से समझाईश दी,-“बेटा” आप बेफिक्र होकर आगे-आगे चलते चलो,आपको आपकी स्कूल वैन दिख जायेगी।मेरे प्यार से समझाने के बाद वो चला गया था अपने स्कूल।।आज फिर इतने सालो बाद इस कोहरे ने उन दिनो की याद ताजा कर दी थी।एक मीठी याद के रूप मे मेरे मन मस्तिष्क मे गहरी छाप छोड गयी थी।


और एक प्रश्न भी,कि अपनी औलाद के स्नेह मे बंधे हम कुछ भी,काम किसी भी समय करने बैठ जाते है ये मीठा अहसास ही तो है जो हमसे करवाता है।


रीतू गुलाटी

लेखिका -रीतू गुलाटी





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