चचेरी

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कहानी -चचेरी

सिबलिंग राइवलरी एक ऐसा शब्द है जिससे  कोई अनभिज्ञ नहीं हैं | मामला दो चचेरी बहनों का हो तो ये और भी कहर ढाने वाला हो जाता है | ये बिना बात की जलन ऐसी ,कि जरूरत हो ना जरूरत हो दूसरे के काम को बनता देख दिल में उथल -पुथल शुरू हो जाती है  और दिमाग टांग अडाने की तकनीके सोचने लगता है | आज हम आपके लिए लाये हैं दो चचेरी बहनों की इर्ष्या  पर आधारित एक ऐसे ही कहानी | ये कहानी 2015 में हंस में प्रकाशित हो चुकी है | आइये पढ़ें वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी …

चचेरी 

“प्रभात कुमार?”
वाचनालय के बाहर वाले गलियारे में अपने मोबाइल से उलझ रहे प्रभात कुमार को चीन्हने
में मुझे अधिक समय नहीं लगा|
“जी….. जी हाँ,”
वह अचकचा गया|


“मुझे उषा ने आपके
पास भेजा है…..”


“वह कहाँ है?” उसे
हड़बड़ी लग गयी, “उसका मोबाइल भी मिल नहीं रहा…..”


“कल शाम दोनों बरिश
में ऐसे भीगे कि उषा को बुखार चढ़ आया और उस का मोबाइल ठप्प हो गया,” मैं
मुस्कुरायी|
कल शाम उषा ने
प्रभात कुमार ही के साथ बिताई थी|


चंडीगढ़ में पांच दिन
के लिए आयोजित की गयी इस साहित्यिक गोष्ठी में हम चचेरी बहनें लखनऊ से आयी थीं और
प्रभात कुमार कोलकाता से| किन्तु दूसरे दिन के पहले सत्र में ‘आधुनिक साहित्य-बोध’
के अन्तर्गत हुई चर्चा में उषा की भागीदारी ने प्रभात कुमार पर ऐसी ठगोरी लगायी थी
कि वह अगले ही सत्र में उसके अरे-परे आकर बैठने लगा था| परिणाम, उषा का सुनना-सुनाना
फिर गोष्ठी से हटकर प्रभात कुमार पर जा केन्द्रित हुआ था| तीसरा दिन दोनों ने
विश्वविद्यालय के इस वाचनालय में बिताया था और चौथे दिन, यानी कल, दोपहर ही में वे
सैर-सपाटे के लिए बाहर निकल लिए थे|


“कितना बुखार है?”
प्रभात कुमार का स्वर तक तपने लगा|
“एक सौ चार| इसीलिए
डॉक्टर ने दिसम्बर की इस हाड़-कंपाने वाली सर्दी में उसे बाहर निकलने से सख़्त मना
किया है…..”
“मगर मेरा उससे
मिलना बहुत ज़रूरी था| कोलकाता का मेरा टिकट कल सुबह के लिए बुक्ड है और वह आज ही
बाहर नहीं निकल पा रही,” प्रभात कुमार रोने-रोने को हो आया|
“जभी तो उसने यह
पत्र आपके नाम भेजा है,” उषा द्वारा तैयार किया गया लिफाफा मैंने उसकी तरफ़ बढ़ा
दिया|
“लाइए,” उसने लिफाफा
खोला और अन्दर रखे पत्र पर झपट पड़ा|
“तुम फ़िल्म ज़रूर
देखना,” उचक कर उषा की कलम-घिसटती लिखाई में प्रभात कुमार के साथ मैंने भी पढ़ा, “और
दूसरी टिकट पर रेवा को साथ ले जाना| वह मेरे ताऊ की बेटी है| औरफ़िल्मों की शौकीन|
आज हमारा मिलना ज़रूर असम्भव रहा है मगर यह अन्त नहीं है| स्पेन की उस कहावत को याद
रखते हुए जो कल तुम मुझे सुना रहे थे : ‘लव विदाउट एंड हैज़ नो एंड’ (मनसूबा बांधे बिना
किया गया प्यार कभी विदा नहीं लेता)- तुम्हारी उषा|”
“आइए|” प्रभात कुमार
वाचनालय के मुख्य द्वार की ओर लपक पड़ा|
“वुडी एलन की ‘मिडनाइट
इनपेरिस’ देखी थी, तभी उसकी यह ‘ब्लु जैसमीन’ मेरे लिए देखना ज़रूरी हो गया था,”
प्रभात कुमार की हड़बड़ीपूर्ण तेज़ी के साथ कदम मिलाते हुए मैंने वातावरण के भारीपन
को छितरा देना चाहा|



पढ़िए -हकदारी

प्रभात कुमार ने कोई
उत्तर नहीं दिया|
“आपको वुडी एलन
पसन्द नहीं क्या?”
“स्कूटर,” प्रभात कुमार
चिल्लाया और स्कूटर पर चढ़ लिया|
और जब उसने ‘ब्लु
जैसमीन’ बिनाबोले गुज़ार दी तो मैंने अपने भीतर एक उत्सुक जिज्ञासा को जागते हुए पाया|


“क्या कहीं घूमा
जाए?” सिनेमा-हॉल से बाहर निकलते ही मैंने सुझा
या|
“कहाँ घूमेंगे?”
प्रभात कुमार की आँखें और वीरान हो उठीं|
“जहाँ उषा के साथ
घूमना था,” मैंनेउसे डोर पर लाना चाहा, “जहाँ उसके साथ डोलना-फिरना था…..”
“उसने आपको बताया
था?”
“बिलकुल,” मैंने झूठ
कह दिया, “मत भूलिए, हम दोनों चचेरी बहनें हैं और अपने अपने जयपत्र एक-दूसरे के
संग साझे तो करती ही हैं…..”


कहानी -चचेरी


मगर सच पूछें तो ऐसा
कतई नहीं था| उषा और मैं बहनेली कभी नहीं रही थीं| कारण पारिवारिक मनमुटाव था| जो
सन् चौरासी के दिसम्बर में शुरू हुआ था| जिस माह दादा ने चाचा से उनकी भोपाल वाली
नौकरी छुड़वाकर उन्हेंलखनऊमें एक कारखाना खरीद दिया था, परिवार की सांझी पूंजी से|
“तो क्या पिंजौर चलेंगी
आप?” प्रभात कुमार ने पहली बार मुझे अपनी पूरी नज़र में उतारा|




“क्यों नहीं?” अपने
स्वर में चोचलहाई भरकर मैंने कहा, “नए लोग और नयी जगहें मुझे बेहद आकर्षित करती
हैं| जभी तो मैं उषा के साथ चंडीगढ़चलीआयी वरना साहित्य और साहित्य-बोध में मेरी
लेश मात्र भी रूचि नहीं…..”


“आप ने अभी जिस
जयपत्र शब्द का प्रयोग किया उसका प्रसंग मैं समझ नहीं पाया,” पिंजौर की ओर जाने
वाली बस में सवार होते ही प्रभात कुमार ने उत्सुकता से मेरी ओर देखा|
“प्रसंग उषा की विजय
का है, बल्कि महाविजय का है…..”
“महाविजय? कैसी
महाविजय?”


“इतने कम समय में आप
जैसे यशस्वी व युवा कवि का मन जीत लेना उसकी महाविजय नहीं तो और क्या है?”


“मन तो उसने मेरा
जीता
ही है| जो दृढ़संकल्प
और आत्मविश्वास उसने मेरे भीतर जगाया है, उसने तो मेरा जीवन ही पल
ट दिया है,” वह
लाल-सुर
ख़ हो चला|


“वह स्वयं भी तो दृढ़-संकल्प
व आत्मविश्वास की प्रतिमूर्ति है,” अपनी डोर मज़बूत रखने के लिए मैंने तिरछी हवा का
सहारा लिया, “बचपन से लेकर अब तक जो पढ़ाई में लगी है, सो लगी है| स्कूल-कॉलेज के
समय उसे अगले साल के लिए छात्रवृत्ति पानी होती और अब अपनी अध्यापिकी में उसे ऊँचा
स्केल पाने के लिए पी. एच. डी. करनी है…..भाई की इंजीनियरिंग और बहन की आई. आई.
एम. का र्चा तब तक उठाती रहेगी जब तक उन की पढ़ाई पूरी न हो लेगी और वह आर्थिक
निर्भरता हासिल न कर लेंगे…..”


“मगर उसके पिता का तो लखनऊ
में अपना कारखाना है…..”
“है तो! मगर वह शुरू ही से
डांवाडोल स्थिति में रहा है| चाचा उसे लीक पर ला ही नहीं पाए| असलमें अपनी
इंजीनियरिंग केबाद भोपाल में वह अच्छी नौकरी पा गए थे और वह नौकरी उन्हें कभी छोड़नी
नहीं चाहिए थी…..”





“हाँ, उषा बता रही थी सन चौरासी की जिस दो दिसम्बर
के 

दिन उसके माता-पिता लखनऊ में विवाह-सूत्र में बंध रहे थे, उसी दिन यूनियन
कारबाइड की उस इनसैक्ट
िसाइड फैक्टरी में हुए गैस-स्त्राव ने पूरे भोपाल को अपनी चपेट में लिया था और वैसी
परिस्थितियों में उनका भोपाल जाना स्थगित होता चला गया था,” प्रभात कुमार अभी भीदुर्ग की उसी
चौकी पर डटा खड़ा था जिसे उषा चीन्ह गयी थी| उसकी पहरेदारी का कार्यभार सौंप गयी
थी|



“वह गैस-स्त्राव तो लखनऊ
में बने रहने का बहाना भर था,” मैंने एक लम्बा डग भरा, “समूचे का समूचा भोपाल थोड़े
न उस गैस-स्त्राव से ग्रस्त हुआ था| इतने तो ताल हैं भोपाल में| उनके पानियों ने
बहुत बड़ी मात्रा में वह ज़हरीली गैस सोख ली थी और कुछ ही दिनों में हवा साफ़ हो गयी
थी| असली कारण तो हमारे दादा का पुत्र-प्रेम था जिसने उन्हें यहीं रोक लिया था और चाचा
को पेंट्स का वह कारखाना खरीद दिया था जो उस समय अच्छा लाभ दे रहा था| मेरे पिता
तो अकसर कहा करते हैं, “बाबूजीवह कारखाना यदि मुझे ले दिए होते तो मेरे पेंट्स का
मार्का बाज़ार के कई ऊंचे नामों कोभांज रहा होता…..”


“आपके पिता क्या करते हैं?”




“तिमंजिला एक जनरल स्टोर
चलाते हैं| जिसकी ऊपर वाली दो मंज़िलें उन्होंने अपने हाथों खड़ी की हैं| हमारे दादा
के देहान्त के बाद| अपनी व्यापारिक सूझ-बूझ और
दूरदर्शिता के बूते
पर| जहाँ पहले केवल घी-तेल, दाल-अनाज और साबुन-फ़िनाएल बिका करते थे अब वहां
तरह-तरह के डिब्बे-बंद पनीर, धान्य और दलिए से लेकर ताज़े फल-सब्जी भी सजे हैं
देशीय-विदेशीय, सब| दूसरी मंज़िल पर बच्चों का माल रखा गया है| उनकी पोशाक, उनकी
गेम्ज़, उनके खिलौने, उनकी कौटस, बाइक्स, बाबा-गाड़ियाँ सब उसी एक छत के नीचे उपलब्ध
हैं…..”



पढ़िए -अरक्षित



“और तीसरी मंज़िल पर?”
प्रभात कुमार का स्वर कुतुहली रहा|
“वहां महिलाओं का हाटलगाया
गया है” मैंने अपना कदम आसमान पर जा टिकाया, “उनकी सज्जा-सामग्री से लेकर हैंडबैग्ज़और
बेल्ट्स जैसी सभी एक्सेसरीज, उपसाधन, वहां उपलब्ध हैं…..”
“आपके पिता सचमुच ही
एक कर्मठ व उद्यमी व्यक्ति हैं,” उसने एक सीटी छोड़ी| थोड़ी मौजी, थोड़ी विनोदी|




“आप चाहें तो उनसे
मिल भी सकते हैं,” मैं उसकी मौज पर सवारहो ली, “हमारी वाली गाड़ी कोलकातातक तो जाती
ही है| आपकल सुबह जाने की बजाय हमारे साथ परसों चलिएगा और लखनऊ स्टेशन पर हमें लिवानेआए
मेरे पिता से मिल…..”
“मगर परसों मेरा
कोलकाता में उपस्थित रहना बहुत ज़रूरी है…..”
“तलाक की तारीख लगी
है?” मैंशरारत पर उतर आई|
“नहीं, नहीं, मेरी
शादी ही अभी कहाँ हुई है?” वह बौखला उठा|
“तो क्या शादी की
तारीख है?” अपनी चुहलबाज़ी मैंने जारी रखी|
“नहीं, नहीं| शादी
के लिए मेरे मन में अभी न तो कोई इच्छा-विचार है और न ही कोई संकल्प-विकल्प| मेरी
परिस्थितियाँ तो उषा से भी अधिक दु:साध्य हैं| उसके पास पिता हैं, पारिवारिक पूंजी
है, स्थायी नौकरी है जबकि मेरे पास ज़िम्मेदारियों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं| न
पिता, न मकान, न नौकरी…..”


“मतलब?” मैं आसमान
से नीचे आ गिरी| उषा की जमा-बाकी अभी भी उससे ऊपर थी|


“मतलब यह कि मुझे
कहीं से भी कोई नियमित अथवा निश्चित राशि नहीं मिलती| यों समझिए, भाड़े का मज़दूर
हूँ| मालिक कहता है, हाज़िर हो, रोकड़ लो और लोप हो जाओ और रोकड़ मुझे चाहिए ही चाहिए|
अपनी विधवा माँ के लिए, स्कूल-कॉलेज में पढ़ाई कर रही अपनी तीन बहनों के लिए|
इसीलिए एक साथ कई काम पकड़े हूँ| दसवीं जमात वाले बच्चों को एक कोचिंग सेन्टर में
पढ़ाने का, इन्टर कॉलेज के एक प्रिंसिपल से ‘डिक्टेशन’ लेकर उनके कम्प्यूटर पर उनके
शासकीय पत्र तैयार करने का, उसी कॉलेज के पुस्तकालय में नयी-पुरानी किताबों पर नए
लेबल चिप

काने का, एक प्रिंटिंग प्रेस के प्रूफ़ पढ़ने का…..”
“आपने यह सब उषा को
बताया?” मेरा सिर घूमने लगा| ऐसा भयंकर नामे-खाता!
“हाँ, बताया, सब
बताया|”
“और उसने क्या कहा?”
“उसने कहा यह सब
पारिस्थितिक है| परिवर्तनीय है, चिरस्थायी नहीं| कॉलेज में पढ़ रही मेरी बहन अधिक
समय तक मेरी आश्रित नहीं रहेगी| निकट भविष्य ही में मेरी सहायक बनकर मुझे अपनी बांह
की छांह देगी और मैं अपनी मूलभूत परियोजनाओं कोआगे बढ़ा सकूंगा-श्रेष्ठ शिक्षा की,
उत्तम नौकरी की, प्रफुल्ल जीवन की…..”


“छांह देने के लिए
उषा ने अपनी बांह नहीं बढ़ाई?” मैंने उलटा धड़ बांधा, ‘आप होंगे कामयाब’ कहा और कतरा
कर आगे निकल ली| राजा के लिए नए कपड़े बुने जा रहे हैं मगर करघा खाली है| दुर्ग के
बाहर पहरा बिठलाया गया है और दुर्ग छूछा है…..”


कहानी -चचेरी


“आप ऐसा समझती हैं?”
प्रभात कुमार ने चतुराई तौली|
“बिलकुल ऐसा ही
समझती हूँ,” जिस घात की ताक में मैं रही थी वह घात मुझे मिल गयी थी|


“फिर आप कहिए, कैसे
होऊंगा मैं ‘कामयाब’? कब होऊंगा मैं ‘काम
याब’?”
“आप पहले मुझे एक ‘मिस्ड
कॉल दीजिए,” अपना फ़ोन मैंने हवा 
में जा लहराया|
“मेरे नम्बर से क्या
होगा” अस्थिर हो रहे अपने स्वर को सँभा
लने में उसे प्रयास करना पड़ा|
“आपका नम्बर इसमें
‘सेव’ करूंगी| फिर लखनऊ पहुँचते ही अपने पिता से आपकी बात करवाऊंगी| कोलकाता से
उनका माल कई जगह से आता है| वहां उनके तमाम परिचित हैं| उनमें से शायद कोई आपको
कच्ची सड़क पर जा पहुंचाए| मेरे पिता बाजू देने परआते हैं तो फिर पीछे नहीं हटते…..”


जानती थी मेरे पिता
उसके हिताहित को बातों में उड़ा देंगे| किन्तु बातें गढ़ने में हर्ज ही क्या था? उषा
ने भी तो प्रभात कुमार को बातों ही में बहलाया-फुसलाया था|


“अपना नम्बर बताइए|”
उसने अपनी जेब से अपना मोबाइल हाथमें ले लिया|


“पिंजौर आ गया|”बस
के कंडक्टर ने जैसे ही घोषणा की हम दोनों एक साथ खड़े हो लिए|
बस से नीचे उतरने
में पहल प्रभात कुमार ने की|
“आइए,” और उतरते ही
अपना हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया|
“बस से मुझे नीचे उतारने
के लिए|”


“धन्यवाद,” मैंने
अपना हाथ उसके हाथ में दे दिया और बस को पीछे, बहुत पीछे छोड़कर हम फूलों की ओर
निकल पड़े|



दीपक शर्मा 

लेखिका -दीपक शर्मा



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