विदर्भ के किसानों की जीवंत दास्तान
आशा पाण्डेय का उपन्यास ‘खरगाँव का चौक’ विदर्भ के किसानों की जिजीविषा, सपनों, अपने जीवन को बेहतरी की ओर ले जाने के उनके प्रयासों और सामूहिकता व सहकारिता के मूल्यों को लेकर लिखा गया हमारे समय का एक महत्वपूर्ण उपन्यास है।
आशा पाण्डेय ने अपने इस उपन्यास में विदर्भ के सांस्कृतिक जीवन से भी रूबरू कराया है। जिसमें विवाह के संदर्भ हैं, त्योहारों के उल्लास हैं, जीवन के सुख-दुख हैं और उनके बीच जीवन जीने की अदम्य लालसा है। उपन्यास पाठकों को विदर्भ के ग्रामीड़ परिवेश में ले जाकर खड़ा कर देता है। विदरभ का यह परिवेश जितना विस्मित करता है उतना ही बेचैन भी । यह उपन्यास विदर्भ के यथार्थ को पकड़ते हुए एक सार्थक सोच सामने लाता है।
हरियश राय
बलर्ब का अंश
उपन्यास अंश (खरगांव का चौक)
प्रथमेश को मानमोड़े के घर दो-तीन घंटे लग गए थे। जब वह घर लौटा तो श्रीहरी ओसरी (बरामदे) में बैठ कर समीर को पढ़ा रहा था। श्रीहरी प्रथमेश के भाई संतोष का बड़ा बेटा है। अभी कुछ दिन पहले अट्ठारह वर्ष पूरे कर उन्नीसवें में पड़ा है। जब वह छोटा था तब उसके नामकरण को लेकर संतोष और शारदा में खूब कहा सुनी होती थी। संतोष को भगवान के नाम जैसा कोई नाम चाहिए था, जिससे जीवन के अंतिम समय में यदि वह बेटे को बुलाए तब भी भगवान का नाम मुँह से निकल सके मगर शारदा को अनिल,सुनील,अतुल, राजेश जैसे नाम पसन्द थे।
अन्त में संतोष ही जीता और बेटे का नाम रखा गया ‘श्रीहरी’।
श्रीहरी ने इसी साल बारहवीं पास किया है। बी ए में एडमीशन के लिए लगने वाले खर्च की व्यवस्था के लिए वह समीर को ट्यूशन पढ़ा रहा है।
प्रथमेश ने पिछले आँगन के कोने में हँसिया-दराती टिका कर पहले दांत साफ किये फिर लोटा भर पानी मटके से निकालकर गटागट पी लिया। शारदा धुँआई रसोई में सब्जी छौंक रही है। उसकी आँखें लाल हो गई हैं। शारदा की दशा देखकर प्रथमेश दुखी हुआ। वह हर साल फसल की बुआई के समय सोचता है कि इस बार गैस कनेक्शन ज़रूर ले लेगा। लेकिन फसल कटने के बाद इरादा बदलना पड़ता है। किसी नये सामान को खरीदने की कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाती है।
प्रथमेश को आया देखकर शारदा ने कहा,“कहाँ चला गया था रे! सबेरे-सबेरे? चहा तक नहीं पिया। रखी है तेरी चहा , गरम करके देती हूँ।”
“नहीं, रहने दे वहिनी(भाभी) अब सीधे खाना ही खाऊँगा।”
“तेरी मर्जी।” कहकर शारदा चूल्हे में फूँक मारने लगी।
प्रथमेश को पता है कि भोजन मिलने में अभी देर है। उसने ओसारी में एक ओर पड़ी खाट को बिछाया और उस पर लुढ़क कर आँखें मूँद ली।
श्रीहरी समीर पर खीझ रहा है,“तेरे माँ-बाप को बड़ा शौक चढ़ा है तुझे पढ़ाने का, कलेक्टर बनायेंगे…! कुछ आता भी है तुझे? आठ साल का हो गया दो और दो का जोड़ भी नहीं बता पाता। चल, लिख दस बार - २+२=४, .....मूरख की जात, खाली पैसा आ जाने से कुछ नहीं होता।”
प्रथमेश को श्रीहरी का इस तरह बोलना नागवार लगता है। समीर के बाप की बड़ी हैसियत श्रीहरी को क्यों चिढ़ा रही है? अरे! पढ़ाना है तो पढ़ाये, जाति और दिमाग पर क्यों चढ़ जाता है ये लड़का! वैसे भी समीर हमेशा कहाँ आयेगा इसके पास पढ़ने। बस, यही एक महीने की छुट्टी भर ही तो? दुगुनी फीस दे रही है नंदा। बेचारी क्या जाने कि दुगुनी फीस दे देने से पढ़ाई नहीं आ जाती। उसके लिए तो दिमाग और मन लगना चाहिए।
नंदा का पति बोल गया है कि मायके में छुट्टियाँ तू इसी शर्त पर बितायेगी कि समीर को अब तक पढ़े एक भी पाठ भूले न। बेचारी दौड़ पड़ी श्रीहरी के पास- “पैसा चाहे जितना ले लो पर जो कुछ ये पढ़ा है भूलने न पाये। नहीं तो आगे से इस गाँव का मुँह देखना भी मेरे लिए मुश्किल हो जायेगा।”
लगता है सबेरे से श्रीहरी ने कुछ खाया नहीं है। भूख और झुंझलाहट दोनों माँ पर उतारता है – “कब बनेगी तेरी रोटी माँ?...भूख के मारे जान निकली जा रही है....पता नहीं क्या करती रहती है तू! सूखी रोटी भी समय पर नहीं दे पाती।”
रसोईं से कुछ पटकने की आवाज आई। जब से संतोष इस दुनिया से गया है, शारदा अपने गुस्से को इसी तरह से निकालती है। अब उसने श्रीहरी एवं गोविन्दा को गाली देना छोड़ दिया है। ये दोनों संतोष के भगवान थे। अब शायद वह भी मान गई है।
जब संतोष इस दुनिया में था तब शारदा बेटे पर या संतोष पर गुस्साती थी तो संतोष को सुनाकर चिल्लाती– “श्रीहरी, हरामजादे.... नालायक।” श्रीहरी शब्द को तो दाँतो के नीचे इतनी देर तक पीसती कि संतोष समझ जाये कि वह उसके भगवान की ऐसी की तैसी कर रही है। शारदा को कई और गालियाँ आती थीं, जिसका प्रयोग वह संतोष को दबाने के लिए बच्चों पर करती थी।
संतोष सब सुनता,सब समझता पर ध्यान न देता। शारदा और चिढ़ती। जब शारदा को दूसरा बेटा हुआ तब भी संतोष की ही चली और उसका नाम रखा गया ‘गोविन्दा’।
अंतिम समय संतोष अकेला था। क्या पता उसने श्रीहरी का नाम लिया था या गोविन्दा का? या दोनों का साथ-साथ? या किसी का भी नहीं?
प्रथमेश के मन में हमेशा ये खयाल आता है कि क्या मेरे भाई ने अंतिम समय में मेरा भी नाम लिया होगा? वैसे वह जानता था कि उसका भाई उसे खीझ-खीझ कर प्यार करता है और उसकी भाभी उसके भाई को खीझ-खीझ कर गरियाती है। पर साथ ही साथ वह ये भी जानता था कि उसके भाई और भाभी का प्रेम उसके प्रति बहुत गहरा है। इतना कि दोनों उसके माँ-बाप जैसे लगते हैं। वह पाँच साल का रहा होगा जब उसकी भाभी इस घर में आई थी।
जब प्रथमेश साल भर का था तभी उसके पिता को साँप ने डस लिया था और जब छ साल का हुआ तो उसकी माँ कुएँ में गिर पड़ी। पता नहीं गलती से गिर पड़ी थी या कूद पड़ी थी! वैसे गाँव के लोग कहते हैं कि उसके पिता के मरने के बाद से उसकी माँ का दिमाग कभी-कभी सटक जाता था।
माँ-बाप के गुजर जाने के बाद से प्रथमेश को उसके भाई-भाभी ने ही पाला है।
प्रथमेश जब बड़ा हो रहा था तो उसे लगता था कि उसके गाँव में बड़ी खुशहाली है। खेत लहलहा रहे हैं। लोग खुश हैं। फिर धीर-धीरे जब घर की जरूरतें उधार लेकर पूरी होने लगीं तब उसे पता चला कि गाँव के अन्य घरों में भले ही खुशहाली होगी किन्तु उसका घर कर्ज में डूब रहा है। बाद के दिनों में तो वह ये भी जान गया कि कुछ घरों को छोड़ कर गाँव के अन्य घरों में भी उसके घर जैसा ही हाल है।
वह अपने भाई को कर्ज से उबार लेने की सोचता पर तरीका उसकी समझ में न आता।
गोविन्दा कहीं से घूम-फिर के आया है। माँ का झुंझलाया चेहरा और श्रीहरी का चिल्लाना दोनों उसे चिढ़ा देते हैं – “ये घर नहीं, महाभारत का मैदान है। तभी तो मैं दिन भर घूमता रहता हूँ इधर-उधर। घर में आने का मन ही नहीं करता...। और काका, तुम क्या झुट्ठे आँख मूँदे लेटे हो.... भीष्म पितामह बनते हो क्या?... ये नहीं कि समझाओ इन लोगों को....नरक बनाकर रख दिया है घर को।”
वैसे तो श्रीहरी बड़ा है किन्तु गोविन्दा के नाराज होने पर वह चुप ही रहता है। गोविन्दा ठहरा अक्खड़ मिजाज का, उखड़ गया तो सम्भाले नहीं सम्भलता। इसी स्वभाव के चलते पढ़ाई में भी आठवीं के आगे नहीं बढ़ पाया वह।
हुआ ये कि एक दिन मास्टर साहब ने उससे कुछ सवाल पूछ लिये, जिसे वह बता नहीं पाया। मास्टर साहब ने भरी क्लाश में उसकी पिटाई कर दी। वहाँ तो वह कुछ नहीं बोला किन्तु शाम को जब छुट्टी हुई तो वह कुछ आगे बढ़कर रास्ते में मास्टर साहब का इन्तजार करता खड़ा हो गया। मास्टर साहब को इस बात का अन्दाजा नहीं था। गोविन्दा ने भी उन्हें समझने का मौका नहीं दिया और जब वह उसके पास पहुँचे तो लपक कर उसने उनकी साइकिल का हैन्डिल पकड़ लिया। मास्टर साहब लड़खड़ा कर गिर पड़े। गोविन्दा दो चार- हाथ मास्टर जी को जमाकर वहाँ से भाग खड़ा हुआ और दूसरे दिन से फिर स्कूल नहीं गया।
श्रीहरी समझदार है। परिवार की परेशानी का उसे खयाल है। अपने काका प्रथमेश का दिन-रात का परिश्रम भी उससे देखा नहीं जाता है। वह शांत मन से अपनी पढ़ाई में लगा रहता है। और सोचता है कि पढ़ाई पूरी करके जल्दी ही कोई न कोई नौकरी कर लेगा किन्तु है तो वह भी चढ़ती उमर में ही। कभी-कभी गुस्सा बलबला कर उसकी भी आँखों में उतर आता है।
गोविन्दा ने जो जहर उगला, उसका असर सीधे तौर पर समीर पर पड़ा। श्रीहरी ने तड़ातड़ दो-चार झापड़ समीर को लगा दिये और कहा, “कल जब पहाड़ा याद हो जाये तब ही ट्यूशन के लिए आना।
गोल-मटोल, गोरा-सा समीर अपने नन्हें-नन्हें हाथों से आँसू पोछता जा रहा है और काँपी-किताब समेटता जा रहा है। थप्पड़ों से उसका गाल लाल हो गया है। प्रथमेश तड़प उठा, बेचारा बच्चा! इन कमीनों की लड़ाई में पिस गया!
प्रथमेश ने समीर को दुलराकर चुप कराया। फिर उसकी काँपी-किताब बैग में डालकर उसे घर जाने के लिए कहा।
आशा पाण्डेय ,अमरावती,महाराष्ट्र
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