परिचय
प्रियंवदा तिवारी
शिक्षा: एम.एस.सी, बी. एड
विविध : अध्यापन काय
लेखन काय : समाचार पत्रों में कहानियाँ एवं कविताएँ प्रकाशित हुई हैं|
आकाशवाणी से स्वरचित कहानी प्रसारित हुई हैं| लेखन विधा: कहानियाँ, कविताएँ
कलम की यात्रा: विद्यालय स्तर में कई कहानियाँ लिखी और कई प्रतियोगिताओं में प्रथम स्थान मिला है| कहानियाँ एवं कविताएँ समाचार पत्र में प्रकाशित हुईं है| इसके पश्चात आकाशवाणी से स्वरचित कहानी भी
प्रसारित हुईं है|
संपर्क : priyatiwari91866@gmail.com
ओस की बूंद
एक ओस की बूंद
मैं अपनी हथेली में समेट लाया था।
सीप की तरह समेटे हुए सारी दुनिया से छुपा लाया था।
भय था, कहीं छलक न पड़े
मेरे आँसूओं की तरह या टुकड़े-टुकड़े न हो जाए
मेरी आरजू की तरह
एक जज़्बा था जो खत्म होने आया था।
एक ओस की बूंद मैं अपनी हथेली में समेट लाया था |
बढ़ो साथियो’ बढ़ो–बढ़ो
बढ़ो साथियों बढ़ो-बढ़ो
हर दुश्मन से लड़ो-लड़ो
चाहे चट्टानें रोके राहें
चाहे आए बर्फीली धाराएँ
उन्नत पर्वत पर चढ़ा-चढ़ो
नजर घुमाकर देखो पीछे
देश खड़ा है आँखें मींचें
बंधे हुए हैं तुमसे सारे
अभिलाषा की जंजीरों से
नहीं वहीं पर अड़ो-अड़ों
गुंजित होती दिल में तेरे
हर भारतवासी की धकड़न
रक्त गिरेगा जहां तुम्हारा
नमन करेगा देश ये सारा
नव-गौरव को गढ़ों-गढ़ों
बढ़ो साथियो बढ़ो-बढ़ो

मन का कोना
मन के उस कोने में जहाँ कोई न था
शोरगुल से दूर-दराज दुनिया की नजर बचाए सोया था कहीं।
पड़ते ही उस वैभवी की नजर
आशंकित हो उठा कोमल मन
कहीं मेरा हश्र भी औरों की तरह न हो जाए
वो चीखता रहा
परंतु उसकी सिसकियों की आह दबी रह गई उन ऊंचे-लंबे कंगूरों के बीच
जिसके ऊपर उगते थे कभी हरे मलमल के बिछौने
जगह ले ली है उनकी अब संगमरमर के टुकड़ों ने।
टापू
दुनिया की भीड़ में धकेला गया हूं ऐसे
सागर में स्थित टापू हो जैसे |
इंतजार है कोई आयेगा मेरे पास
पर सब चले जाते हैं लहरों से खेलने के बाद।
कभी-कभी उठती है जब ऊँची लहरें
निमग्र कर लेते हैं मुझे उसके हिलोरे ।
बढ़ाता हूं जब उसके सम्मुख दोस्ती का हाथ
छोड़ देता है वह भी मुझे ज्वार-भाटा उतर जाने के बाद
दुहाई देता हूं मैं चांद से तब,
चांद मुझसे कहता है
निराश मत हो अपनी तन्हाई से
भटके हुए मुसाफिर जब आयेगें तेरे पास
तो देना उन्हें सहारा तू
वाबस्ता होगें वो तेरी अच्छाई से।
याद है न तुम्हें
वो बचपन की बातें जो गुजारे थे हमने
उन यादों की कसक
याद है न तुम्हें…
उस घर के चौबारे में तुम्हारा छेड़कर छुप जाना
हो वैसे, कहीं मेघा ने पावस मनाया
हो जैसे, उन लंबे देवदार वृक्षों के पीछे
खड़े थे जो हिम शिखर उनसे टकराकर
लौट आती आवाज याद है न तुम्हें…
कभी बनाए थे हमने जो सागर किनारे
उन घरौंदों को तोड़कर पुनः बनाने का जुनून
याद है न तुम्हें…
निराशाओं के अंधेरे में जो जलाये थे द्वीप-पुंज उन किरणों का पुंज
याद है न तुम्हें…।
तलाश
इधर-उधर भटकती हूं
न जाने किसकी खोज में ढूँढती ये निगाहें मेरी है
न जाने किसकी तलाश में।
मन में डूबते-उतराते विचार सागर में
लहरों की तरह छोड़ दिया सपनों ने साथ
बंद मुट्ठी से फिसली रेत की तरह सूखे हुए वृक्ष में कुछ तलाशती है मेरी नजर
कुछ सुननेने की कुछ कहने की चाह में कुरेदता है मन मेरा
कुछ प्रेरित करने की चाह में।
खंडहर बन चुके उन इतिहास के स्मारकों से क्यों चुप हो मेरी तरह
पूछती हूं बार-बार उनसे
या फिर आगे बढ़ जाऊ
न जाने किसकी तलाश में।
क्यों बढ़ते हैं दाम
जो बनते हैं सम्राट वो कहते हैं हमसे आज
देश में पैदा हुआ बहुत अनाज
जिक्र है इसका करेंगे निर्यात
फिर भी बढ़ जाते हैं दाम
करते हैं बहाना वे, विदेशी मुद्रा प्राप्त करेंगे देश में नया विकास करेंगे
फिर भी बढ़ जाते हैं दाम
हर साल किए जाते हैं प्रण कम किए जाएंगे दाम
फिर भी बढ़ जाते हैं दाम
कारण पूछो तो इसका कहते हैं, लाचारी से
देश में इतना भ्रष्टाचार
इसलिए मचा चारों ओर हा-हाकार
हमने सोचा होगी कोई बला
जिसका नाम है भ्रष्टाचार
जिसमे नकामयाब रही हमारी सरकार
फिर भी बढ़ जाते हैं दाम
मन की आस
मन में लगन है तन में तपन है
नजर उठाकर देखो
हर तरफ की हवा गरम है
ऐसे मौसम में शीतलता की आस लिए बैठा एक किसान
कब खेतों में वर्षा होगी
कब फसल पककर तैयार होगी
कब घर आएगा अनाज
कब चूल्हा जलेगा
कब पकवान बनेगें त्योहारों जैसे
कब रौनक होगी मेले जैसी
कब पूरी होगी यह आस
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