ज़िंदगी की पगडंडी पर हमारे पाँवों में न जाने कितनी फाँसे चुभती हैं। कुछ लगातार गड़ती रहती हैं, कुछ की चुभन कम हो जाती है और कुछ को इतना आत्मसात हो जाती हैं कि खून में किसी सोये हुए वायरस की तरह बहती रहती हैं। एक कथाकार का उद्देश्य इन्हीं फाँसों को दिखाना है। कहीं वह समाधान साथ लेकर आता है तो कहीं प्रश्न के रूप में एक बार फिर मानस में चुभा देता है।
आस-पास के माहौल और पात्रों को लेकर यथार्थ की खुरदुरी ज़मीन पर बुनी गई विनय कुमार जी के प्रथम कहानी संग्रह ‘सुर्ख लाल रंग” की छोटी-बड़ी 14 कहानियाँ की फाँसे अपने साथ आज के समय के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और धार्मिक ताने-बाने को न सिर्फ साथ लेकर चलती हैं बल्कि उन्हें रेशा-रेशा कर पाठकों को आईना भी दिखाती हैं। कहानियों के लिए वे भारत का दिल उसके गाँवों को चुनते हैं। बदलते समय की नब्ज़ पकड़कर लिखी गई ये सारी कहानियाँ पात्रों के दवंद और मनोविज्ञान की गहराई से पड़ताल करती हैं। ज्यादातर कहानियों में पिछले दस-12 साल का समय लिया गया है, जिसे पाठक आसानी से जुड़ जाते हैं।
सुर्ख लाल रंग- गंभीर सरोकारों से जुड़ी कहानियाँ
शीर्षक कहानी ‘सुर्ख लाल रंग’ आज के समय में उपजे धार्मिक उन्माद की विभीषिका को दर्शाती मार्मिक कहानी है। एक गाँव जहाँ हिन्दू-मुस्लिम मिल-जुलकर रहते थे, बदलते समय में उनके इस आपसी प्रेम और विश्वास में गांठ डाल दी है। बुनकर रज़्ज़ब और लक्ष्मण दो ऐसे ही किरदार हैं। गाँव की कोई भी बेटी रज़्ज़ब की बनाई साड़ी पहने बिना विदा नहीं होती थी। दोस्त लक्ष्मण की बेटी की शादी में रज़्ज़ब सबसे सुंदर साड़ी बुनना चाहता है। वह जिस सुर्ख लाल रंग में साड़ी बुनना चाहता है, वो उसे मिलता नहीं नहीं है… पर लागातार कोशिशें जारी रखता है।
देश की बदली हुई परिस्थितियों में उनका परिवार सुरक्षित महसूस नहीं करता है और ‘अपने लोगों’ के बीच रहने जाना चाहता है। रज़्ज़ब उन्हें तो जाने को कह देता है, पर स्वयं वहीं रुक जाता है। उसे विश्वास है कि पूरा परिवार वापस लौट आएगा। मगर रात के अंधेरे में साड़ी बुनते रज़्ज़ब की हत्या और साड़ी का रंग सुर्ख लाल हो जाना नाम की प्रतीकात्मकता को मार्मिकता से चित्रित करता है। लाल रंग प्रेम का भी रंग है और लाल खून का भी रंग है। प्रेम जुड़ा होने नहीं देता और खून जो जुड़ा होता नहीं। प्रेम के रंग में खून का रंग मिलना वही सुर्ख लाल हो जाना, जैसा रज़्ज़ब चाहता था, कहानी को मार्मिक अंत देता है।
एक कहावत है कि “अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता” लेकिन ये भी सच है कि शुरुआत हमेशा एक व्यक्ति के बुलंद इरादे से ही होती है, और काफ़िला बनता जाता है। ऐसे ही एक बैंक अधिकारी की पोस्टिंग जब रतलाम के दूर दराज़ इलाके में बसे गाँव में होती है तो लोगों के लाख कहने पर कि ‘पोस्टिंग कहीं और करवा ले” वह गाँव जाना चुनता है। कहानी के माध्यम से दूर-दराज गाँव में खुले बैंक की स्थिति और कर्मचारियों की ‘सरकारी दामाद’ वाला गैर जिम्मेदाराना व्यवहार मन को कचोटता है। कथा नायक स्थिति में परिवर्तन करने में कुछ सफल भी होता है, लेकिन अंदरूनी हिस्सों में जाकर उसे तल्ख सच्चाईयों का पता चलता है। ‘असली परिवर्तन” कहानी व्यवस्था के अंतिम छोर पर खड़े आम आदमी तक पहुँचने की कहानी है, जहाँ तक पहुंचे बिना ये सारे ऊपरी परिवर्तन मात्र कागज़ी पुलिंदे हैं।

भ्रूण हत्या और दहेज को केंद्र में रखकर लिखी गई कहानियाँ ‘इंतजार’ और ‘सौदा’ इस विषय पर अमूमन लिखी गई कहानियों से अलग हटकर हैं। ‘इंतजार” की नायिका प्लास्टिक सर्जन है, जो दुनिया को सुंदर बनाती है पर अपने बदसूरत चेहरे को वैसा ही रखकर उस सज़ा से उपजी नफ़रत की आग को अपने अंदर जीवित रखना चाहती है, जो उसके पिता ने उसे और उसकी माँ को दी थी । जिसमें कन्या भ्रूण को खत्म करने उद्देश्य से दी गई दवा की असफलता विकृत चेहरे वाली बेटी के रूप में उनके सामने आ खड़ी होती है। पिता को अफसोस की जगह मुख्य मुद्दा बेटी का विवाह न करवा पाना है, और बेटी का सफल होकर भी ऑपरेशन न करवाना उसका विद्रोह। पुरुषों द्वारा उसकी उपेक्षा का दंश और दवंद कहानी का कलेवर बनाते हैं। अपने चेहरे में पिता की क्रूरता देखती बेटी अपने प्रति भी कुछ क्रूर हो जाती है। यहाँ तक कि जब राह चलता कोई पुरुष उसका चेहरा देखकर पीछे हट जाता है तो वह अपना उपहास स्वयं उड़ाती है। अपने मन के संबल के लिए बलात्कार जैसी जघन्य परिस्थितियों में सुरक्षित मानकर जैसे स्वयं के अस्तित्व को ही नकारती है, जबकि स्त्री के प्रति होने वाले अपराध उसका चेहरा, रूप, रंग आदि देखकर नहीं होते। उसके शिक्षित और आत्मनिर्भर होने के बावजूद भी प्रारम्भिक नकार कितने नकारों को जन्म देता चलता है, लेखक इस बारीक अंतरकथा को रेखांकित करते हैं। कहानी एक समझदार साथी के आगमन की आहट के साथ समाप्त होती है।
वहीं ‘सौदा’ कहानी दहेज़ के साथ जातिवाद के गुणा-भाग को लेकर चलती है। आर्थिक स्थिति परिवर्तन से गाँवों में जातिवाद का वो असर न रहा हो पर अकड़ वही है। बेटी के दहेज की रकम को पूरा करने के लिए ज़मीन बेचना चाह रहे अगड़ी जाति वाले महतो को अपनी जाति में कोई खरीदार नहीं मिलता । तथाकथित निचली पायदान वाले रग्घू के शहर में ऊँचे पद पर कार्यरत बेटे द्वारा जमीन का सौदा करना उस अवांछित व्यवस्था को तोड़ने की दस्तक है। कहानी महतो द्वारा रग्घू को जमीन बेचने और रग्घू द्वारा खरीदने की हिचक के साथ आगे बढ़ती है। रग्घू द्वारा भी अपनी बेटी की शादी में हुए अपमान का बदला लेने के लिए मौके का फायदा उठाकर 50,000 कम में खेत खरीदना, “जिसकी लाठी उसकी भैस” को परिभाषित करता है। कहानी जाति व्यवस्था के बदले हुए समीकरणों को चिह्नित करती है।

जाति व्यवस्था पर चोट करने वाली एक अन्य कहानी है, “कोई और चारा भी तो नहीं”। इस कहानी में समसामायिक परिस्थितियों और ज्वलंत समस्याओं को बेबाकी से उठाया गया है। पंडिताई की धमक कम होने पर खेती की ओर लौटे गरीब दुख्खू को अन्य किसानों की तरह खेत पर पहरा देते समय नीलगायों का भय बना रहता है, जो पूरी फसल चौपट कर देती हैं। हालांकि नीलगाय गाय नहीं होतीं। पर आज जब गाय शब्द से ही लोग रोष से भर उठते हैं, तो नील गाय के दल से निपटना भी मुश्किल है। दुख्खू को पड़ोस के मुसलमान टोला द्वारा नीलगाय के हनन पर समस्या से निपटने की शांति तो है पर अचानक से गाँव में बछड़े बढ़ जाना एक नई समस्या खड़ी कर रहे हैं। जो अंततः उसे हथियार उठाने पर मजबूर कर देते हैं।
“फिर चाँद ने निकलना छोड़ दिया” कन्याओं, बच्चियों, वृदधाओं पर चाँदनी में टूटती हैवानियत से दुखी चाँद का निकलना छोड़ देने के अपनी तरह के प्रतिशोध की कहानी है। जिसमें चाँद की मानवता का प्रदर्शन करने के लिए लेखक कल्पना का तड़का लगाते हैं।
“चन्नर” गरीब, तथाकथित छोटी मानी जाने वाली जाति के युवक के शोषण की कहानी है, जो संसरणात्मक शैली में लिखी गई है। इस कहानी को पढ़ते समय मुझे अपने गाँव का कल्लू याद आ गया । जिसकी ज़िंदगी ऐसे ही इसके-उसके सहारे उनके घरों में काम करके कटी थी। शायद अन्य पाठकों को भी अपना देखा-सुना कोई पात्र याद आ जाए। लेखक इस कदर निष्पक्षता से चन्नर कथा बाँचते हैं कि चन्नर के लाचार हो जाने पर ज़िंदगी भर उसका शोषण करने वाले मुखिया द्वारा अंत में मृत्यु तक अपने पास रखने की करुणा को भी प्रतिबिंबित करते हैं। वाकई इंसान बहुत कॉम्प्लेक्स है। कब क्या इमोशन हावी हो जाए कहा नहीं जा सकता। फिर भी एक पाठक के तौर पर ‘तुम्हीं ने दर्द दिया तुम्हीं दवा देना” वाली करुणा मुखिया के लिए उपजती नहीं है और मन चन्नर के दुख में गलता रहता है।
बुजुर्गों के आत्मसम्मान के प्रति सचेत करती हुई कहानी है, “आत्मनिर्भरता”। सरोकारों से गुथी कहानियों की इतनी आदत पड़ गई है कि जब भी कहानी में बुजुर्ग आते हैं, लगता है उनका शोषण हो रहा होगा या वे अकेलेपन की समस्या से जूझ रहे होंगे। इस दृष्टि से ये कहानी चौंकाती है। माँ की मृत्यु के बाद सेवानिवृत 65 वर्षीय पिताजी बारी-बारी से बेटों के पास रहना चुनते हैं । वे अपनी पास बुक चेक बुक बेटों को सौंप पर निश्चिंत रहना चाहते हैं। ये कहानी लायक बेटों और बुजुर्ग माता-पिता के बीच मामूली अंडरस्टैन्डिंग को रेखांकित करती सुंदर कहानी है। छोटे बेटे द्वारा पिता के ही पैसों को उनके कुर्ते की जेब में रख देना उन्हें पोता-पोती के लिए अपने मन से कुछ ला सकने का स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता देता है। कुछ दृश्य बहुत स्वाभाविक लगे, जैसे जेब में पैसे न होने पर पिताजी का कहना, “पार्क से लौटते हुए बच्चों के लिए मूंगफली लेना चाहता था पर लगता है कि आज कुर्ता दूसरा पहन लिया”। बिना आरोप लगाए घरों में अक्सर ऐसे संवाद होते हैं।
कहानी गंभीर टोन में ही चलती है पर कई जगह संवादों में हास्य की गुंजाइश दिखती है। जो संभवतः कहानी को और खूबसूरत बना देता।
इसके अतिरिक्त विद्यार्थी जीवन की संघर्ष कथा ‘जुनैद’, कोरोना काल में चुनाव जनित विभीषिका को दिखाती ‘जीत का जश्न’ ब्राह्मणवादी व्यवस्था को दर्शाती ‘मुर्दा परंपराएँ” भी उल्लेखनीय कहानियाँ हैं। इस प्रकार संग्रह की सभी कहानियाँ सरोकारों को केंद्र में रखकर लिखी गईं हैं। कई कहानियों में शोषक और शोषित के बदलते रूप को भी चिह्नित किया गया है। गाँव की बोली-बानी और रहन-सहन कहानियों में सहज ही आ गया है। पहले कहानी संग्रह की परिपक्वता कलम की संभावनाओं के प्रति आश्वस्त करती है।
बधाई और शुभकामनाएँ
वंदना बाजपेयी

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