प्रियंका ओम की कहानी बाज मर्तबा जिंदगी

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बाज मर्तबा जिंदगी

सोशल मीडिया एक खिड़की खोलता है अपने विचारों की अभिव्यक्ति की l ये स्वतंत्रता अपने साथ कुछ जिम्मेदारियाँ भी ले कर आती है l ये जिम्मेदारी केवल हम क्या लिख रहे हैं कि नहीं होती, ये जिम्मेदारी होती है है असहमति से सम्मान पूर्वक सहमत होने की l ये भी जिम्मेदारी होती है कि किसी की भावनाएँ आहत ना हों l असभ्य भाषा और कुतर्कों के अतिरिक्त ट्रोलिंग सोशल मीडिया में एक खतरनाक प्रवृत्ति के रूप में उभरी है l जिसमें पीड़ित व्यक्ति को मानसिक आघात भी लग सकता है l आइए पढ़ें निराशा और मानसिक कुंठा को जन्म देती सोशल मीडिया की इस ट्रोलिंग प्रवृत्ति पर प्रहार करती वागार्थ में प्रकाशित साहित्य जगत में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराती युवा कथाकार प्रियंका ओम की कहानी ….

बाज मर्तबा जिंदगी 

 

सुबह की मीटिंग में व्यस्त महेश के साइलेंट फ़ोन स्क्रीन पर उमा की तस्वीर कौंध-कौंध आ रही थी | वह फ़ोन तभी करती है जब महेश कुछ भूल जाता है | घड़ी उसकी कलाई में बंधी है, लैपटॉप सामने खुला है और मोबाइल पर उमा की कॉल आ रही है | उसे ठीक याद है, टिफिन लेकर आया है और बटुआ जेब में हैं | वैसे इन चीज़ों के वास्ते उमा का फ़ोन पहले मोड़ तक पहुँचने से पहले ही आ जाता है। अब काफी देर हो चुकी है | जरूर कोई गंभीर मसला है वरना इस वक़्त वह कभी फ़ोन नहीं करती |

“मैडम चक्कर खाकर गिर पड़ी है “ महेश ने फ़ोन उठाया तो उधर से सहायिका की घबराई आवाज़ आई !

कहीं चोट तो नहीं आई?

नहीं, कारपेट पर गिरी हैं |

शुक्र है, मन ही मन बुदबुदाया फिर मुखर हो “मुझसे बात कर सकेगी ?” पूछा|

मना कर रही है |

महेश ने तुरन्त-फुरंत में घर की राह ली |

इस वक़्त शहर की सड़कें सूनी मिलती हैं, बच्चे स्कूल में पहली कक्षा के बाद छोटी ब्रेक में स्नैक्स का आनंद लेते हुए जाने किस बात पर खिलखिला रहे हैं और श्रीमान दफ्तर की फाइलों में सिर दे चुके हैं | दरअसल पति और बच्चों से फारिग हुई घरेलू स्त्रियों का यह नितान्त निजी वक़्त है | यह वक़्त उमा के योगाभ्यास का है, कहती है “ योग से उसका चित्त शांत रहता है” किन्तु कई दिनों से वह बेतरह व्याकुल रहा कर रही है !

बीते सप्ताहांत की बात है! शनिवार की दोपहर महेश तैराकी से वापस लौटा तो सोफे पर लेटी उमा बेहद उदास मिली, कारण पूछने पर रुआंसी हो आई “ कुछ लोग फेसबुक पर मुझे लोग ट्रोल कर रहे हैं” !

ट्रोलर्स की समस्या क्या है ? थकन और भूख से परेशांहाल महेश ने दोनों अंगूठे से अपनी कनपट्टी दबाते हुए पूछा, उसका सिर दर्द से फटा जा रहा था लेकिन वह जानता था अभी इस वक़्त उमा को उसकी जरुरत थी और वह उसके साथ था !

वैचारिक मतभेद! उमा ने संत्रस्त कहा |

वैचारिक मतभेद तो बेहद मामूली बात है,बाज मर्तबा बाबजूद एक ही तरबियत के दो लोग अलग होते हैं | मुझे और भैया को देख लो, हम दोनों एक दूसरे से कितने तो अलग है और तुम सब बहनें, देखने में तो एक-सी किंतु स्वभाव से सब एक दूसरे से कतई भिन्न !

लेकिन उसने स्क्रीन शॉट लगाकर मुझे पागल कहा!

लोकतंत्र की गरिमा से बेपरवाह, कौन है वह मतान्ध ?

मुझे दोस्त कहा करती थी, पिछले पुस्तक मेले में अपनी बिटिया को मुझसे मिलवाते कहा था “ मौसी को प्रणाम करो” |

तुमने जवाब दिया ?

नहीं उसने मुझे अमित्र कर मजमा लगाया है |

उसकी पोस्ट तो पब्लिक होगी |

हाँ, लेकिन पब्लिक कमेंट रिस्ट्रिक्टेड है |

तो तुम अपने वाल पर जवाब लिखो, वहां तो कोई रोक नहीं न  ?

तमाशे से डरती हूँ !

लेकिन इस तरह चुप बैठने से बदमाशों को शह मिलेगी,वे तुम्हें डरपोक समझेंगे और दूसरे कायर या फिर गलत !

जबकि बात गलत या सही की नहीं, सोच की है |

लेकिन आम लोग इस मसले को मात्र गलत या सही के चश्मे से देखेंगे |सोशल मीडिया पर बेहिसाब समय बिताने से हमारी सोच औसत दर्जे की होती जा रही है | हम भीतर-ही-भीतर कुंद होते जा रहे हैं !

उनका समूह बड़ा है |

तुम्हारी फैन फॉलोविंग भी छोटी नहीं |

तो मुझे जवाब लिखना चाहिये?

यकीनन लिखना चाहिये | अपने लिये न सही, अपने पाठकों के लिये तो जरूर लिखो, अन्यथा वे तुम्हारे बारे में क्या सोचेंगे ? !

बालपन की साथिन से जीवन संगिनी बनी उमा को महेश पोर-पोर जानता है, अगर वह जवाब नहीं देगी तो अन्दर ही अन्दर कुढ़ती रहेगी और सीधे सीधे जवाब देने की हिम्मत भी नहीं, उमा को हमेशा एक कुशन, एक सपोर्ट की जरुरत होती है, जो शुरू से महेश है | स्कूल के दिनों भी महेश के दम लड़ आती, फिर बिगड़ी बात वह संभालता | लेकिन इस मर्तबा बात इतनी बिगड़ जायेगी इसका उसे तनिक भी अंदेशा नहीं था,अगर कुछ ऐसा वैसा हो जाता तो… सोचकर महेश की रूह काँप गई; स्वयं को कभी माफ़ नहीं कर पाता !

उमा बिस्तर पर शिथिल पड़ी है |  निढाल , अशक्त | जैसे देह में कोई जान शेष न बची हो | निस्तेज चेहरा, बुझी हुई आँखें | मानो महीनों से बीमार, हाथ थामा तो आँखें बह चलीं !

डॉक्टर ने कहा “ वर्टिगो का अटैक है, किसी मानसिक द्वंद्व का विकार” फिलहाल नींद का इंजेक्शन देकर सुला दिया है। कम-अज-कम बीस घंटे सोती रहेगी !

आपके दफ्तर के लिए निकलने के बाद हम दोनों सब्जी लेने गये थे, उसके बाद मैडम नहाने चली गई | मैं सब्जी धो-पोछ रही थी, जब धम्म की आवाज़ आई। दौड़ आई तो देखा औंधे गिरी है, सहारा देकर बिस्तर पर सुलाया | सहायिका ने एक सांस में पूरा हाल कह सुनाया !

उसने आगे कहा,कुछ दिनों से ठीक नहीं चल रहा, मैडम बेहद तनाव में रहती है | खोई-खोई सी दीखती है | होकर भी नहीं होती। दिमाग कहीं और रहता है अभी परसों की ही बात है,दाल के लिए काट रखा टमाटर चाय के लिए उबलते दूध में डाल दिया और दाल में चाय पत्ती | आजकल बहुत झल्लाती है, बात-बेबात खीज उठती हैं | बारंबार फ़ोन देखती है जैसे कुछ घटने का इंतज़ार हो | फिर न जाने क्या देखकर व्याकुल हो जाती है | सहायिका अबके ठहर ठहर कर कह रही थी, याद करती हुई, आज सब्जी लेते हुए भी पहले की तरह सजग नहीं थी | मुझे भिन्डी चुनने भी नहीं कहा और लौकी तो बगैर नाखून खुबायें ही उठा लिया, मैंने देखा ठीक नहीं था तो बदल लिया | ऐसी अनमनी पहले कभी नहीं देखा, क्या कोई गंभीर बात है ? सहायिका चिंतातुर थी !

सोशल मीडिया पर कुछ लोग उन्हें परेशान कर रहे हैं !

तभी आजकल न तो किताब पढ़ती हैं न कंप्यूटर पर कुछ लिखती हैं | चाय कॉफ़ी की फरमाइश भी नहीं करती, सारा दिन फ़ोन में घुसी रहती हैं | योग भी नहीं करती | मुझे तो लगता है रात में भी बेआराम सोती हैं!

सहायिका ठीक कह रही है, पिछली दो चार रातों से उमा ठीक से सो नहीं पा रही, बेकल करवटें बदलती रहा करती | कई बार उठकर बैठ जाती, फिर फ़ोन देखती, दिमाग में एक ही बात “पता नहीं कौन क्या लिख रहा”? !

जानना जरुरी है ? महेश ने हाथ से फ़ोन छीन लिया था |

पता नहीं क्यों, लेकिन हाँ |

उसे उद्विग्न देख महेश चिंचित हो आया था | उमा बेहद संवेदनशील है, मामूली बात भी मन में रख, दिनों उदास रहती है | ट्रॉल्लिंग उसके लिए असहनीय पीड़ा से उठकर मानसिक यातना बनती जा रही है !

जानते हो गलत के साथ खड़े होकर वह मेरी निजी बातें उछाल रही हैं | मैं उन्हें दीदी कहती हूँ! अपनेपन की आंच में पिघलकर एक दिन मैंने उन्हें वह सब बता दिया था जो अब तक दुनिया से छुपा रखा है, लेकिन वह बड़ी होने का मान नहीं संभाल पाईं!

उनकी भी कोई कमजोरी अवश्य होगी |

हाँ, उनकी एक पहचान वाले ने विस्तृत ब्यौरा दिया है |

तुम क्यों पीछे हट रही हो ? कभी-कभी बेचैनी कम हो जाती है !

मैं सचमुच उनका सम्मान करती हूँ लेकिन वह पब्लिक में मेरे लिए घृणित शब्दों का इस्तेमाल करते हुए क्रूर और हत्यारिन कह रही हैं | उन्हें व्हाट्सएप्प पर कड़वे जवाब लिखते हुए मैं ख़ुद विरक्ति से भर जाती हूँ |

फिर कुछ दिनों के लिए प्रोफाइल डीएक्टिवेट कर लो |

अब तो जंग के मैदान में कूद पड़ी हूँ |

जंग ? महेश को हैरत हुई थी |

खुद को सही साबित करने की जंग, और जंग में तो सब जायज़ है | उनींदी रातें, बेचैनी और हदें पार करना भी! कहते हुए वह हँसी थी, खोखली हँसी! खाली सन्नाटे में गूंजती हुई | वह जो स्वयं को शब्द चितेरी समझती हैं मुझे पराश्रिता कह गई !

और तुम्हें पराश्रिता कहते हुए उसने साफ़ कह दिया कि वह अकेली क्यों है ? |

बिलकुल, पति को “पर” कौन समझता है भला ? शिव ने तो अर्द्धनारीश्वर का रूप धर सुस्पष्ट कर दिया था कि पति-पत्नी एक दूसरे के पूरक होते हैं, पत्नी अर्धांगिनी होती है |

कितनी हैरत की बात है न! भाव समझे बिना ही हम शब्द बरतते हैं और खुद को लिखने वाली कहते हैं !

एक होड़ मची हुई है, कौन कितना नीचे गिर सकता है। ट्रोलिंग के खेल में गिर कर ही उठा जाता है | जितना लाइक-कमेंट उतनी ऊँची उठान | पोस्ट पर लाइक कमेंट न मिले तो रुचता भोज भी नहीं सुहाता, इसके लिये कितने तिरकम, कितने तरकीब ढूंढ निकालते हैं दीवाने | दरअसल यहाँ सबकुछ लाइक कमेंट ही हो गया है जिन्हें मैं जानती तक नहीं वह भी मुझपर लिख लाइक कमेंट बटोर रहे हैं, जबकि इसके लिये सोशल मीडिया कोई भुगतान नहीं करता !

जिसे देखो सोशल मीडिया पर बुद्धिजीवी बना घूम रहा है | चरस से बदतर नशा यह !

एक ने वह स्क्रीन शॉट लगाकर मजमा लगाया है जिसमें मैंने तुम्हारी तारीफ की थी, उमा फ़ोन दिखाते हुए कह रही थी फिर आप ही खिलखिला उठी | यह खिलखिलाहट,यह हंसी  कितने बरस बीते …वह भी बिसर गई थी शायद  …फिर अनायास ही आँखों से टप-टप आंसू !

महेश ने देखा तीन साल पुरानी गैरमामूली बात-चीत का स्क्रीन शॉट। उस तरफ से लिखा था “ऐसे लड़के आजकल मिलते कहाँ है ?”

जवाब में उमा ने लिखा था “ मेरा पति हजारों में एक है” |

इस स्क्रीन शॉट पर भद्दे-भद्दे कमेंट लिखे जा रहे थे | उसे हैरत हुई, सोशल मीडिया के इस चरम युग में क्या पति की तारीफ भी गुनाह है ? हो क्या गया है आजकल की स्त्रियों को ? गोद में रखा उमा का पैर खींच महेश ने उसे गले से लगा लिया “ये आइडेंटिटी क्राइसिस के मारे हैं, बेतरह मौका परस्त “ !

उसकी इस मूर्खता पर देखो लड़के कैसे पीठ ठोक रहे हैं |

माथे पर एक बोसा रखते हुए महेश ने कहा, पीठ नहीं ठोक रहे, सहला रहे हैं। मौका मिलते ही ब्रा उतारेंगे” वैसे इस मूढ़ लड़की को अब तक नहीं मिला न “वो अच्छा लड़का”, जानती हो क्यों ? क्योंकि कोई अच्छा लड़का ऐसी लड़की का साथ नहीं चाहता।

और लड़कियां क्यों नृत्य प्रस्तुत कर रही हैं ?

लड़कियों को तुम नहीं जानती ?? तुम ख़ुद एक स्त्री हो! कितना तो जलन-कुढ़न पाले रखती हैं | और फिर सोशल मीडिया एक बहाव है जिसमे बरसाती फोड़े -फुंसी की तरह सब बिलबिला निकलते हैं | उसकी रोंदुली आवाज़ महेश को भीतर तक भींगो रही थी !

अधिकांश को पूरा सच नहीं मालूम, सब आधा सच जानकर ही बेलाग हो रहे हैं |

सच कोई जानना समझना चाहता भी नहीं, बस उसके साथ खड़ा होना है जो फायदेमंद है |

मेरे साथ कोई नहीं है |

उनके साथ पूरी मतलबी जमात है, जबकि तुम्हारे साथ  पाठक वर्ग है | यह तुम्हारे लिए गर्व करने की बात है | यही तुम्हारी कमाई है, यही तुम्हारा असल है !

तुम्हें तो लेखक होना चाहिये! वह फीकी-सी हँसी |

मैं व्यवसायी ही भला | महेश ने उसकी हथेली अपने हाथों में ले ली |

तुम नहीं होते तो मेरा क्या होता ? कहते उमा मुस्कुराई | आँखों से, होंठों से !

“और तुम नहीं होती तो कौन मुझको इतना सराहता” मैं तुम्हारी बातें दोहरा रहा और तुम मुझे दानिशमंद समझ रही सोचता महेश ने उसे चूम लिया !

लेकिन यह तो सच है कि मैं तुमपर आश्रित हूँ !

मैं भी तुमपर उतना ही आश्रित हूँ जितना तुम मुझपर | बाहर से तुम निश्चिंत रहती हो घर से मैं बेफिक्र रहता हूँ, तुम चाहो तो अदला-बदली कर सकती हो महेश ने छेड़ा !

नहीं, घर सँभालने का निर्णय मेरा था | घर मेरा है |

हाँ, तभी दरवाज़े पर तुम्हारे नाम की मालिकाना तख़्ती लगी है !

मुझे तो यह सब बेहद हास्यास्पद लगता है। व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर हम एक समूची जात को हांकने लगते हैं और फिर घोषणा करते हैं कि मेरे पिता और भाई दोषमुक्त हैं। जबकि इतनी घृणा, इतनी नफरत का बीज वहीं बोया जाता है | मुझसे यह नहीं होगा। मम्मी के जाने के बाद पापा ने ही तो संभाला है। पैर भी दबाए हैं और मासिक कष्टों में गरम पानी का बैग भी दिया है – कहते हुए उमा की आँखें भर आई थीं!

सबके अनुभव एक से नहीं होते कहते हुए महेश ने उसकी आँखें चूम ली !

पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुझे कतई इनकार नहीं, किन्तु स्त्री को ट्रोल करना कौन सा स्त्रीवाद है? !

यह स्त्रीवाद नहीं, स्वार्थवाद है | खुद को उभारने का सुगम रास्ता | खुद को सताई गई दिखाकर सहानुभूति हासिल करना | जानती हो, मर्जी चाहे हम जितना स्त्रीवाद याकि स्त्री विमर्श कर लें, किन्तु आज भी यह समाज रोती कलपती स्त्री ही चाहता है | बराबरी की बात कर रिज़र्व सीट चाहिये, मज़बूत स्त्री आज भी स्वीकार्य नहीं, जिस साहस के साथ तुम खड़ी हो, इससे उन्हें तुम्हारे दुःख का तनिक भी अंदाज़ा नहीं। उनकी दृष्टि में पीड़िता वह है जो विलाप कर रही, क्षति का ब्यौरा लिख रही है | तुम किसी दशा में हो, इसका किसी को इल्म तक नहीं | समाज ऐसा ही है !

दोमुहां! बहुतों के लिए मैं साहित्य की कंगना रनौत हूँ, लैठैतों को बराबर का टक्कर दे रही हूँ लेकिन यह बात भी वह खुलकर नहीं फुसफुसाकर कह रहे !

सोशल मीडिया हमारे यहाँ क्षय रोग-सा रिश्तों सा गला रहा, अभिव्यक्ति की आजादी के नामे हम निरंकुश होते जा रहे हैं।संवेदनाएँ सूखती जा रही हैं !

वह मुझसे निजी तौर पर कहती तो मैं पोस्ट हटा देती, लेकिन पुरजोर दलीलबाजी के बाद, उसे स्क्रीन शॉट लगा तमाशा उचित लगा |

निश्चित ही वह तमाशापसंद है |

विडम्बना यह है कि उसे किसी ने गलत नहीं कहा,जबकि यह कानूनन अपराध है| मैंने जवाब लिखे तो समूचे गिरोह को मेरी भाषा अखरने लगी। कितना डबल स्टैण्डर्ड हैं !इनके गिरोह से एक पुरुष ने वह स्क्रीन शॉट ट्विटर पर लगाते हुए कहा “मज़े करिए”, मतलब हम स्त्रियाँ पुरुषों के लिये मज़े का सामान हैं लेकिन उनसे इन्हें कोई खतरा नहीं क्योंकि वे मीडिया में ओहदेदार रसूख वाले हैं !

कई दफ़ा मुझे लगता है कि पुरुषों से खला को टूल की तरह इस्तेमाल किया जाता है। अपने फायदे के लिए, सोशल मीडिया पर स्त्रीवाद सफलता की कुंजी बन गई है!

मुझे भी ऐसा ही लगता है, विवाहेतर संबंधो पर एक कहानी पढ़ रही थी जसमें अंततः पुरुष पत्नी को चुनता है लेकिन तब भी नायक को ही कोसा गया। लेकिन बताओ वह स्त्री क्या कम दोषी है जो दूसरी स्त्री का घर उजाड़ती है! मेरी दृष्टि से देखो तो स्त्री ख़ुद स्त्री की दुश्मन है लेकिन इस बाबत वे  “ओवररेटेड जुमला” कहकर इसे दरकिनार कर देंगे और कुतर्क करेंगे !

महेश ने बात ख़तम करने की कोशिश करते हुए कहा अब चलो कहीं घूम आते हैं, मौसम कितना तो सुन्दर हो आया है| मिजाज़ ठीक न होने का बहाना कर महेश ने दफ्तर से छुट्टी ली थी। वह उमा को ऐसे हालात में तनहा नहीं छोड़ सकता !

कोई और दिन होता तो बाहर घूम आने की सिफारिश उमा करती लेकिन भीतर से टूटी-फूटी इस वक़्त आबहवा की खुशगवारी से वह बेपरवाह है !

बीच पर चलते हैं | मैं चाय बना लेती हूँ” खिड़की से बाहर झाँक उमा ने जल्दी में कहा जैसे कुछ भूला याद आया हो !

मैं स्नैक्स पैक कर लेता हूँ |

सुबह से मौसम में रूमानियत घुली हुई है।बारिश की फुहारें मानो गुलाब पाश से बरस रही हैं | बालकनी का दरवाजा खोला तो मिट्टी के साथ केप जैस्मिन की मिली-जुली ख़ुशबू से घर महक गया | गमले में अपराजिता टूट कर खिली है, उमा देखेगी तो कहेगी भोलेनाथ बहुत खुश होंगे आज लेकिन महेश उसे खुश देखना चाहता है, उसकी ख़ुशी के लिए वह कुछ भी कर सकता है |

तिरी ख़ुशी से अगर गम में भी ख़ुशी न हुई

वो जिंदगी तो मोहब्बत की जिंदगी न हुई ||

ऊँचे टीले के नीचे कार पार्क कर वे दोनों पत्थरनुमा सीढियाँ उतर गए। सामने गीले रेत का पसारा के बाद यहाँ से वहां तक नीरव अंतहीन नील पानी में बच्चों-सी अठखेलियाँ करती छोटी छोटी लहरें! उमा को पूल के बनिस्बत समन्दर में तैरना अच्छा लगता है। उसने गाउन उतारा और पानी की ओर बढ़ गई, महेश दूर बैठा उसे देखता रहा!

कई दिनों बाद उमा के चेहरे पर ख़ुशी एक हलकी रेखा नुमायाँ हुई थी। कोई रूमानी गीत गुनगुनाते हुए वह महेश की बांह से लिपट गई। उसके गीले बालों से झड़ते नमकीन आब महेश के सीने के बाल सींच रहें | महेश को यकीन है कि अब सब सामान्य हो गया | आज सुबह भी वह पहले की-सी उसपर चिल्लाई थी “तुम गीला तौलिया बेड पर छोड़ना कब छोड़ोगे?” !

कल ! चलो बाय अब शाम को मिलते हैं कहकर वो ऑफिस के लिये निकल गया था। लगभग घंटे बाद सहायिका का फ़ोन आया !

उमा अभी-भी सो रही हैं | कैफेटेरिया से लाते का एक मग थामे महेश बीते सालों की बही पलटने लगा !

उमा दोहे लिखा करती थी, कभी कभी विरह गीत भी। पिछले कुछ सालों से छोटी-छोटी कहानियाँ लिखने लगी थी | महेश अक्सर उससे लेखन को गंभीरता से अपनाने को कहा करता। उस दिन उसकी कोई कविता एक साप्ताहिक पत्रिका में प्रकाशित हुई।फिर उसने मुड़कर पीछे नहीं देखा। इसी बीच वह सोशल मीडिया की आदी होती गई किन्तु यह लत एकदिन इतना भयानक साबित होगी, इसका उसे तनिक भी अंदेशा नहीं था !

एक सर्वे के अनुसार पिछले कुछ सालों में लोगों का सोशल मीडिया बर्ताव बहुत प्रभावित हुआ है।निजता मात्र शब्दों में सिमट गया है।कोई भी कुछ भी निजी नहीं रखना चाहता, सब सोशल मीडिया पर उड़ेल दिया जाता है | रिश्तों में दूरियाँ बढ़ रही हैं,एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृति बढ़ती ही जा रही है | सहनशीलता घटती जा रही है। जिस मसले को बात कर सुलझाया जा सकता है उसको सोशल मीडिया पर जबरन घसीटा जा रहा है | कई तरह की मानसिक विकृतियों का जन्म हुआ है, ट्रॉल्लिंग उनमें से एक है। ट्रॉल्लिंग से आक्रांत आत्महत्या के कई मामले सामने आए हैं |

महेश उमा को बचा लेगा, उसे इस पागलपन का हिस्सा नहीं बनने देगा सोचकर उसने दीर्घस्वास ली !

लेखिका – प्रियंका ओम 

कहानी वगार्थ दिसंबर अंक में प्रकाशित है 

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2 COMMENTS

  1. बेहद संवेदनशील रचना है। लोगों को उधेड़ने में न जाने कौन सा सुख मिलता है। प्रियंका ओम को बधाई

  2. अच्छी कहानी लगी। कहानी में रिश्तों का समर्पण ही बहुत अच्छे से उभरा है। प्रियंका ओम जी हार्दिक बधाई।

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