hindi stories Archives - अटूट बंधन https://www.atootbandhann.com/category/hindi-stories हिंदी साहित्य की बेहतरीन रचनाएँ एक ही जगह पर Wed, 31 Jan 2024 07:02:56 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.1.6 उर्मिला शुक्ल के उपन्यास बिन ड्योढ़ी का घर भाग – तीन का अंश https://www.atootbandhann.com/2024/01/%e0%a4%89%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%bf%e0%a4%b2%e0%a4%be-%e0%a4%b6%e0%a5%81%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b2-%e0%a4%95%e0%a5%87.html https://www.atootbandhann.com/2024/01/%e0%a4%89%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%ae%e0%a4%bf%e0%a4%b2%e0%a4%be-%e0%a4%b6%e0%a5%81%e0%a4%95%e0%a5%8d%e0%a4%b2-%e0%a4%95%e0%a5%87.html#respond Wed, 31 Jan 2024 07:02:56 +0000 https://www.atootbandhann.com/?p=7800 यूँ  तो अटूट बंधन आगामी पुस्तकों  के अंश प्रस्तुत करता रहा है l इसी क्रम में आज हम आगामी पुस्तक मेले में में लोकार्पित एक ऐसे उपन्यास का अंश प्रस्तुत करने जा रहे हैं, जो हिन्दी साहित्य जगत में एक इतिहास बना रहा है l ये है एक उपन्यास का तीन भागों  का आना l  […]

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यूँ  तो अटूट बंधन आगामी पुस्तकों  के अंश प्रस्तुत करता रहा है l इसी क्रम में आज हम आगामी पुस्तक मेले में में लोकार्पित एक ऐसे उपन्यास का अंश प्रस्तुत करने जा रहे हैं, जो हिन्दी साहित्य जगत में एक इतिहास बना रहा है l ये है एक उपन्यास का तीन भागों  का आना l  अंग्रेजी में “उपन्यास त्रयी हम सुनते रहे हैं पर हिन्दी में ऐसा पहली बार हो रहा है l विशेष हर्ष की बात ये हैं कि  इस द्वार को एक महिला द्वारा खोला जा रहा है l ‘बिन ड्योढ़ी का घर’ के पिछले दो भागों की विशेष सफलता के पश्चात छत्तीसगढ़ के आदिवासी जिलों के लोक को जीवित करती ये कहानी आगे क्या रूप लेगी ये तो कहानी पढ़ कर ही जाना जा सकेगा l फिलहाल उर्मिला शुक्ल जी को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ के साथ उपन्यास का एक अंश “अटूट बंधन” के पाठकों के लिए

बिन ड्योढ़ी का घर भाग – तीन उपन्यास अंश

 

भाऊ अब अतीतमुखी हो गये थे | सो वर्तमान को भूलकर ,अपने किशोरवय और यौवन में टहल रहे थे | अब वे भाऊ नहीं सखाराम थे | बालक और युवा सखाराम | सो कभी उन्हें अपना गाँव याद हो आता ,तो कभी युवा जलारी | बचपन की यादों में याद आती वह नदी ,जो बारिश में तो इस कदर उफनती कि सामने जो भी आता, उसे बहा ले जाती ,पर बारिश के बीतते ही वह रेत का मैदान का बन जाती | नदी स्कूल के पीछे बहती थी | सो छुट्टी होते ही सखाराम की बाल फ़ौज वहाँ जा पहुँचती फिर शुरू हो जाती रेत दौड़ | लक्ष्य होती वह डाल ,जिसकी शाखें नदी में झुक आयी थीं | रेत में दौड़ना आसान नहीं होता फिर भी बच्चे दौड़ते, गिरते फिर उठते | वह डाल बहुत दूर थी | हर कोई उसे छू नहीं पाता ,बस सखाराम और सखु ही वहाँ तक पहुँचते | दोनों घंटो डाली पर लटक – लटककर झूला झूलते |

सखु बहुत अच्छी लगती थी उसे | वह उसके लिए थालीपीठ (मोटी रोटी ) लाया करती | सखा को जुवारी ( ज्वार ) की थालीपीठ बहुत पसंद थी | खेलने के बाद दोनों थालीपीठ खाते और घंटों बतियाते | उनकी बातों में सखु की आई (माँ ) होती ,उसके भाई बहन होते और होतीं उसकी बकरियाँ | सखाराम की बातों में परिवार नहीं होता | परिवार को याद करते ही सबसे पहले आई ( सौतेली माँ ) का चेहरा ही सामने आता और याद हो आतीं उसकी ज्यादतियाँ और पिता की ख़ामोशी ,जिसे याद करने का मन ही नहीं होता | सो उसकी बातों में उसके खेल ही होते | सखा भौंरा चलाने में माहिर था | भौंरा चलाने में उसे कोई हरा नहीं पाता | उसका भौंरा सबसे अधिक देर तक घूमता | इतना ही नहीं वह भौंरे में डोरी लपेट , एक झटके से छोड़ता और उसके जमीन पर जाने के पहले ,उसे अपनी ह्थेली पर ले लेता | भौंरा उसकी हथेली पर देर तक घूमता रहता | सखु को उसका भौंरा नचाना बहुत पसंद था | वह नदी के किनारे के पत्थर पर अपना भौंरा नचाता और सखु मुदित मन देखा करती |

 

फिर उनकी उम्र बढ़ी ,बढ़ती उम्र के साथ उनकी बातों का दायरा भी उनके ही इर्द गिर्द सिमटने लगा | सो एक दिन सखा ने पूछा –

“सखु तेरे कू भौंरा पसंद है |”

“हो भोत पसंद |”

“मय इस बार के मेला से बहुत सुंदर और बड़ा भौंरा लायेंगा | लाल,हरा और पीला रंग वाला |”

“वो भौंरा बहुत देर तलक नाचेंगा क्या?” कहते सखु की आँखों में ख़ुशी थिरकी |

“हाँ जेतना देर तू कहेगी वोतना देर |” कहता सखा उस थिरकन को देखता रहा |

उस दिन उसने पहली बार गौर से देखा था | सखु सुंदर थी और उसकी आँखें तो बहुत ही सुंदर |जैसे खिलते कँवल पर झिलमिल करती सुबह की ओस | सो देर तक उसकी आँखों को देखता रहा | उसकी आँखों की वह झिलमिल उसके मन में उतरती चली गयी | अब सखा को मेले का इंतजार था | वह चाहता था कि मेला जल्दी आ जाए ,पर मेला तो अपने नियत समय पर यानी माघ पुन्नी को ही भरना था, पर सखा के दिलो दिमाग में तो मेला ही छाया हुआ था | सो वह सपने में भी मेला जाता और भौंरों के ढेर से सबसे सुंदर भौंरा ढूँढ़ता | अब खेल के समय ,वे खेलते कम बातें ज्यादा करते | बातें भी सखा ही करता | वह भी मेले और भौंरे की बातें | ऐसे ही एक दिन –

“ क्यों रे सखु अपुन संग – संग मेला घूमें तो ?”

“तेरे संग ? नको आई जानेच नई देगी |”

“हव ये बात तो हय | पन तू मेला देखने जाती न ?”

“हो पिछला बरस तो गया | आई ,भाऊ, ताई सब गया था |”

सखु पिछले मेले के बारे में बता रही थी और सखा आने वाले मेले की कल्पना कर रहा था | वह सोच रहा था ‘अगर मेले में सखु मिल जाय तो ? पन कैसे?’ कुछ देर सोचता रहा फिर –“सुन तू जब मेले को निकलेंगी न ,मेरे कू बताना | मय संग – संग चलेंगा |”

“ये पगला है क्या रे ? भाऊ देखेंगा तो मारेंगा तेरे कू |”

सखा का दिमाग सटक गया -“काहे ? डगर उसके बाप की है क्या?” फिर उसे याद हो आया ,ऐसे तो वह सखु के बाप तक चढ़ रहा है | सो तुरंत ही मिश्री घोली –“ तू ठीक कहती | अइसे संग – संग जाने से पंगा होयेंगा | पन मैं तुम लोग के पीछू – पीछू चले तो ?”

“हव ये सही रहेंगा |”

सो उनके बीच तय हो गया कि मेले वाले दिन वे सुबह नदी पर मिलेंगे | सखु उसे मेला जाने का समय बताएगी और वह उनके पीछे चल पड़ेगा | सो उनका समय मेले की कल्पनाओं में बीतने लगा | सखा मेले की ही बातें करता | एक दिन उसने पूछा –“बता तू मेले से क्या लेंगी |”

“मय ? लाल रंग का फीता और जलेबी | मेरे कू जलेबी भोत अच्छा लगता |”

“और चूड़ी ? देख न तेरा चूड़ी केतना जुन्ना हो गया |”

“हव लेयेंगी | गुलाफ़ी चूड़ी|”

“चल हट गुलाबी कोई रंग हय| हरियर चूड़ी लेना | तेरा गोरा – गोरा हाथ म बहुत फबेगी |”

“हट हरियर चूड़ी ऐसे थोड़ी न पीनते |”

“फेर? कैसे पीनते?”

“लग्न में नवरा पिनाता |” सखु ने शरमाते हुए कहा |

सखा का मन देर तक नवरा शब्द के इर्द – गिर्द घूमता रहा | कुछ सोचता रहा वह | फिर मन ही मन कुछ तय किया और उसके मुख पर एक स्निग्ध सी मुस्कान खेल उठी |

3

मेले वाला दिन | मेला तो दोपहर में भरता था लेकिन वह सुबह से ही तैयार हो गया | सुबह ही क्यों ,वह तो रात भर मेले में ही था | रात भर में कितने – कितने सपने देखे डाले थे | अब उन सपनों को साकार करने की बारी थी | उसने बाँस की खोखल में ठूँसा कपड़ा निकाला ,तो ढेर सारे चिल्ल्हर उसके सामने बिखर गये | ये पैसे उसने बेर बेचकर इक्कठे किये थे | गिना तो पूरे एक रूपये निकले | ‘ इतना में मेला में अपुन का सानपट्टी हो जायेंगा |’ सोचकर मन ख़ुशी से उछलने लगा | फिर तो उसकी बेकरारी इतनी बढ़ी कि वह बार – बार उस चौहद्दी तक जाता ,जो मेला तक जाता था | वहाँ देर खड़ा रहता | फिर लौट आता | जब बेचैनी बहुत ज्यादा बढ़ गयी , तो वहीं अड्डा मार लिया और टकटकी लगाकर उस राह को ताकने लगा |

बहुत इंतजार के बाद सखु की एक झलकी मिली | वह अपनी आई और भाऊ के संग थी | वह एक पेड़ के पीछे जा छुपा | अब वह सखु को भर नजर देख सकता था | वह देख रहा था उसे | आज तो वह रोज वाली सखु से एकदम ही अलग दिख रही थी | साड़ी में एकदम दुल्हन जैसी सुंदर | वह देखता रहा उसे | जब वह चौहद्दी से आगे निकल गयी ,तब वह भी चल पड़ा , मगर भय था कहीं सखु की आई देख न ले इसलिए रस्ते भर एक निश्चित दूरी बनाये रखी लेकिन मेला करीब आते ही एक सपाटे में, उसने वह दूरी तय कर ली और उसके ठीक पीछे जा पहुँचा | अब सखु उसके सामने थी | एकदम करीब | साड़ी और पोलखा के बीच झलकती उसकी पतली कमर को कुछ देर देखता रहा | फिर अपनी तर्जनी बढ़ा हल्के से छुआ | कमर पर कुछ रेंगता सा महसूस हुआ ,तो सखु को लगा कोई कीड़ा होगा | सो उसने बिना मुड़े कमर पर अपना हाथ फेरा | कुछ देर में सखा ने चिकोटी काटी –

“ये मुँगड़ा मला …….(यह चींटा तो मुझे ) |” गर्दन पीछे मोड़ी तो देखा सखा था | उसको देख उसकी आँखें हिरणी ही हो उठीं |

मेला पहुँचकर तो सखा उसके एकदम पीछे ही चलने लगा | मेला था तो कोई डर था ही नहीं | मेले में सबसे पहले टूरिंग टाकिज वाला तंबू था | सखु के लिए ,सखा का साथ पाने का यह मौका अच्छा था | सो –

“आई ! चल न बाईसकोप देखते|”

“रुक पहिले मेला देखते | पाछू सिनेमा देखेंगा |”

“पाछू तो बहुत भीड़ होयेंगा | टिकस भी नई मिलेंगा |” सखु के भाई ने समर्थन किया |

“हो | भाऊ ठीकेच कहता | आई चल ना रे |” भाई का समर्थन पा वह माँ से लड़ियाने लगी | दोनों भाई बहनों ने जिद्द की और वे बाइसकोप की ओर बढ़ गये | जाते हुए सखु ने मुड़कर देखा, सखा दूर खड़ा उन्हें ही देख रहा था | सखु ने उसे आने का इशारा किया ,तो वह भी पीछे हो लिया | पुरानी फिल्म बैजू बावरा दिखाई जानी थी | वे टिकट ले भीतर गये | टूरिंग टॉकीज थी | बैठने की कोई व्यवस्था तो थी नहीं | सो जमीन पर बैठ गये | सखा सखु के ठीक बगल में जा बैठा | फिल्म शुरू हुई |

संगीत आधारित उस फिल्म की शुरुआत में ही एक क्लासिल्क गीत था | फिर तानसेन का रियाज | सो उस फिल्म में ऐसा कुछ भी नहीं था ,जो उन्हें बाँध पता ,पर उनके लिए फिल्म से ज्यादा करीब बैठना सुखकर था | सो संगीत का ककहरा तक न जानते हुए भी ख़ुशी – ख़ुशी फिल्म देख रहे थे लेकिन कुछ देर बाद,फिल्म में नदी ,नाव और नायिका के आते ही वह फिल्म उन्हें अपनी सी लगने लगी | सखु को लगा जैसे फिल्म में वे दोनों ही हों | ‘ऐसीच तो नदी है ,जहाँ मय और सखा साथ – साथ रहते | अब मय भी डोंगा बनायेंगी और सखा संग.. | पन अपुन का वो नदी में तो पानीच नई है ? तो क्या हुआ मैं अपना नाव रेती में चलायेंगी | पन मी नाव बनायेंगी जरुर|’सोचती सखु ने सखा की ओर देखा , वह फिल्म देखने में तल्लीन था | उसका मन किया उससे बात करे | उसने अपना हाथ बढ़ा हल्की सी चिकोठी काटी | सखा ने उसकी ओर देखा तो सखु ने उसके कान में धीरे से कहा –

“चल बाहर मेला घूमते|”

फिर वह उठी और अपनी आई के करीब जाकर अपनी दो ऊँगलियाँ दिखाईं| तर्जनी और मध्यमा इन दो जुडी उँगलियों का अर्थ लघुशंका निवारण था | सो आई ने इजाजत दे दी | कुछ देर बाद सखा भी बाहर चला गया | मेला अब अपने पूरे उफान पर था | सखा ने उसका हाथ पकड़ा और दोनों जा धँसे मेले की धार में | मेले में तरह – तरह की दुकानें सजी थीं | सखु का मन रिबन खरीदने का था | सो वह एक दुकान की ओर बढ़ी लेकिन सखा ने उसे अपनी ओर खींच लिया –

“ अबी कोनो समान गिमान नको |”

इस वक्त सखा की आँखें खटोला वाला झूला तलाश रही थीं | सो सखु का हाथ पकड़े वह बढ़ता जा रहा था |

“क्या खोजता रे ? सब दुकान तो पाछू छूट गया और तू ..?” सखु ने पूछा |

उसे जवाब दिए बिना वह झूला ढूँढ़ता रहा | झूला दिखा नहीं तो उसे लगने लगा शायद इस बार झूला आया ही नहीं | फिर भी वह आगे बढ़ता रहा | पूरा मेला पार करने के बाद, जब झूला दिखा तो उसकी आँखों में ख़ुशी लहरा गयी | उसने सखु की ओर देखा, उसकी आँखें भी ख़ुशी से नाच रही थीं | दोनों की आँखों ने संवाद किया और वे चले पड़े झूले की ओर | खटोला झूला चार खटोलों से बना लकड़ी का झूला | जिसे हाथों से घुमाया जाता | झूला पहले धीमी गति से चलता ,फिर धीरे –धीरे उसकी गति बढ़ती जाती | झूला रुकने के बाद भी खटोला डोलता रहता | सखा तो कई बार झूल चुका था लेकिन सखु पहली बार खटोले में बैठ रही थी | सो जैसे ही खटोले में एक पैर रखा, खटोला जोर से डोल उठा और वह लड़खड़ा गयी | सखा ने आगे बढ़कर उसे थामा और –

“अइसे लोकर – लोकर नई रे | थाम के बैठते|” और खटोले वाले से बोला “काका खटोला को थामना तो |”फिर सखा ने हाथ पकड़ सखु को खटोले में बिठाया और उसकी बगल में जा बैठा | झूलेवाले ने धीरे से झूला घुमाया | अब उनका खटोला धरती से कुछ ऊपर उठ गया | झूलेवाला दूसरे खटोलों में लोगों को बिठा रहा था | सो धीरे – धीरे ऊपर उठता उनका खटोला सबसे ऊपर जा पहुँचा | ख़ुशी और रोमांच से भरी सखु ने नीचे देखा | नीचे रंग बिरंगा मेला पसरा हुआ था और ऊपर नीला आसमान | उसकी आँखों की हिरणी चहक उठी | झूला भरा तो झूले वाले ने झुलाना शुरू किया | बढ़ती रफ्तार के साथ खटोला ऊपर जाकर साँय से नीचे आया | ऊपर जाते समय तो सखु की आँखों की हिरणी ने चौकड़ी भरी लेकिन नीचे आते समय भय इतना लगा कि आँख बंद कर सखा से लिपट गयी | यह अनुपम पल था उनके लिए| बिलकुल टटका सा अहसास था | कैशोर्य से यौवन में कदम रखते तन – मन की मृदुल झंकार थी यह | सो सखु पूरे समय आँखें मीचे लिपटी रही उससे और सखा ? सखु को निहारता, मदहोशी भरे इस नये अहसास में डूबा रहा |

“चलो – चलो उतरो तुम्हारा टेम हो गिया |”

झूलेवाला सबको उतार चुका था | अब उनकी बारी थी | सखा ने झूले वाले की ओर पैसे बढ़ाए –“ काका एक फेरा और |”

झूलेवाले ने पैसे लिए और उनके खटोले को ऊपर सरका दिया | सखु की आँखों की हिरणी ठिठक कर सखा को निहारने लगी | फिर –

“तू कतना अच्छा रे |”और उससे लिपट गयी |”

फिर तो कब झूला शुरू हुआ और कब रुका उसे पता ही नहीं चला ,तो जब झूला रुका तो –

“ सखु सो गयी क्या ?”

सखु ने अपनी उन्मीलित पलकें खोलीं, तो सखा कुछ पल अकचक सा देखता रहा | उन आँखों में प्यार छल- छल कर रहा था | अब तक इस भाव से दोनों ही अनजान थे ,पर अब मन की मिट्टी में एक अँखुआ फूट चुका था | सखा उसे देर तक देखता रहा | फिर –

“और झूलना है ?”

सखु का मन तो था कि और झूले | पूरे दिन रात सखा संग यूँ ही झूलती रहे लेकिन उसे आई की याद आ गयी और उसने न में गर्दन हिला दी | सखा ने उसका हाथ थाम आहिस्ता से उतारा और सीधे मनिहारी लाइन की ओर बढ़ चला |

“देख – देख इदर भौंरा मिलता | तू बोला था न मेला से भौंरा लेंगा |” उसकी आँखों में भौंरे के रंग उभरे और आँखों की हिरणी ने एक चौकड़ी भरी |

“हो | पन पहिले तेरे लिए कुछ लेना है | लोकर चल फिलिम छूटने को है | फिर तेरी आई खोजेंगी तेरे कू |”

आई का नाम सुनते ही हिरणी भयभीत हो ठहर गयी | फिर तो उसने अपना हाथ छुड़ाया और भाग खड़ी हुई | सखा उसे देर तक देखता रहा | फिर चुरिहारी की ओर बढ़ गया |

“दो दर्जन हरा चूड़ी देना |”

वो जमाना चुरिहारी दुकान पर जाकर चूड़ी पहनने का था | सो चुरिहार ने उसे गौर से देखा और –

“ कोन सा वाला हरा | रेशमी हरा के सुनहरा बुंदकी वाला या के पलेन हरा | या फेर खराद वाला |”

सखा ने कभी चूड़ी खरीदी नहीं थी और न ही चूड़ियों से कभी कोई वास्ता पड़ा था | सो वह उनके नाम तो जानता ही नहीं था,तो अकचक सा उसे देखता रहा |

“काय के खातिर लेना ? घर में कोई पूजा – गिजा है |” चुरिहार ने पूछा |

उसने न में अपना सर डुलाया

“फेर ?”

“ मेरा सखु खातिर|”

“कोन सा नाप दूँ ,दो आना ,सवा दो आना ,चार आना या के छै आना |”

सखा को चूड़ियों का माप भी कहाँ पता था | अब तक उसने पैसों में ही आना सुना था | सो उसे लगा दो आने चूड़ी की कीमत होगी |

“ दो आने वाली दे दो |”

“कोन सा वाला |”चुरिहार ने फिर चूड़ियों के नाम दोहराये और तोड़े उसके सामने कर दिये | अब उसके लिए कुछ आसानी हुई | उसकी आँखों में सखु की गोरी कलाइयाँ उभरीं और उसने सुनहरी बिंदियों वाले तोड़े पर हाथ रखा –

“ये वाली दे दो | “

“दो आना देऊँ?”

“हो |”

“केतना ? दो दर्जन |”

उसने हाँ में सर डुलाया | दुकानदार ने दो दर्जन चूड़ियाँ सुतली में बाँधकर उसकी ओर बढ़ायीं और –

“आठ आना |”

वह फिर अकचक ! ‘दो आना बोलके आठ आना माँगता|’ सोचा ,पर चूड़ी उसकी सखु के लिए थी | सो बिना कुछ बोले उसने आठ आने दे दिए | ‘अब भौंरा? उसका खातिर तो पइसा नइ बचा | कोई बात नइ| मय जुन्ना भौंरा चला लेंगा |’सोचा और आगे बढ़ा | उसकी नजरें सखु को ढूँढ़ रही थीं लेकिन मेला तो मेला ठहरा | यहाँ एक बार बिछड़ने के बाद कोई कहाँ मिल पाता है | सो सखु उसे नहीं मिली | लौटते समय गाँव की डगर में भी नहीं दिखी | सो मन कुछ उदास हो उठा लेकिन चूड़ियों पर नजर पड़ते ही उनकी हरीतिमा मन में उतरती चली गयी फिर – ‘मय ये चूड़ी ले के घर कइसे जायेंगा | आई तो केतना बोम मचायेगी | फेर क्या करूँ ? इसकू किधर छुपाऊँ ? घर में तो कोई अइसा जघा नइ |’ वह सोच रहा था कि उसे नदी वाला पेड़ याद हो आया और गाँव जाने से पहले नदी की ओर मुड़ गया |

उर्मिला शुक्ल

उर्मिला शुक्ल

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उपन्यास अंश – बिन ड्योढ़ी का घर – भाग दो 

लेखक से संवाद – उर्मिला शुक्ल से वंदना बाजपेयी की बातचीत

उर्मिला शुक्ल की कहानी रेशम की डोर 

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पूर्वा- कहानी किरण सिंह https://www.atootbandhann.com/2023/12/%e0%a4%aa%e0%a5%82%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%be_%e0%a4%95%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%80_%e0%a4%95%e0%a4%bf%e0%a4%b0%e0%a4%a3_%e0%a4%b8%e0%a4%bf%e0%a4%82%e0%a4%b9.html https://www.atootbandhann.com/2023/12/%e0%a4%aa%e0%a5%82%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b5%e0%a4%be_%e0%a4%95%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%a8%e0%a5%80_%e0%a4%95%e0%a4%bf%e0%a4%b0%e0%a4%a3_%e0%a4%b8%e0%a4%bf%e0%a4%82%e0%a4%b9.html#comments Thu, 21 Dec 2023 04:00:07 +0000 https://www.atootbandhann.com/?p=7750 “जिस घर में भाई नहीं होते उस घर कि लड़कियाँ मनबढ़ होती हैंl” उपन्यासिक कलेवर समेटे चर्चित साहित्यकार किरण सिंह जी की  कहानी ‘पूर्वा’  आम जिंदगी के माध्यम से रूढ़ियों की टूटती बेड़ियों की बड़ी बात कह जाती है l वहीं  बिना माँ की बेटी अपूर्व सुंदरी पूर्वा का जीवन एक के बाद एक दर्द […]

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“जिस घर में भाई नहीं होते उस घर कि लड़कियाँ मनबढ़ होती हैंl”

उपन्यासिक कलेवर समेटे चर्चित साहित्यकार किरण सिंह जी की  कहानी ‘पूर्वा’  आम जिंदगी के माध्यम से रूढ़ियों की टूटती बेड़ियों की बड़ी बात कह जाती है l वहीं  बिना माँ की बेटी अपूर्व सुंदरी पूर्वा का जीवन एक के बाद एक दर्द से भर जाता है, पर हर बार वो जिंदगी की ओर बढ़ती है l  जीवन सुख- दुख का संयोग है l दुख तोड़ देते हैं पर हर दुख के बाद जिंदगी को चुनना ही हमारा उद्देश्य हो का सार्थक सकारात्मक दृष्टिकोण देती है ये कहानी l वहीं  ये कहानी उन सैनिकों की पत्नियों के दर्द से भी रूबरू कराती है, जो सीमा पर हमारे लिये युद्ध कर रहे हैं l सरल – सहज भाषा में गाँव का जीवन शादी ब्याह के रोचक किस्से जहाँ पाठक को गुदगुदाते हैं, वहीं भोजपुरी भाषा का प्रयोग कहानी के आस्वाद को बढ़ा देता है l तो आइए मिलते हैं पूर्वा से –

पूर्वा- कहानी किरण सिंह

प्रति वर्ष की भांति इस वर्ष भी गणतंत्र दिवस के पूर्व संध्या पर संदूक से तिरंगा को निकालते हुए पूर्वा के हृदय में पीड़ा का सैलाब उमड़ आया और उसकी आँखों की बारिश में तिरंगा नहाने लगा ।
पूर्वा तिरंगा को कभी माथे से लगा रही थी तो कभी सीने से और कभी एक पागल प्रेमिका की तरह चूम रही थी ।ऐसा करते हुए वह अपने पति के प्रेम को तो महसूस कर रही थी लेकिन लग रहा था कलेजा मुह को आ जायेगा। यह तिरंगा सिर्फ तिरंगा ही नहीं था। यह तो उसके सुहाग की अंतिम भेंट थी जिसमें  उसके पति  लेफ्टिनेंट कर्मवीर मिश्रा का पार्थिव शरीर  लिपटकर आया था।
तिरंगा में वह अपने पति के देह की अन्तिम महक को महसूस कर रही थी जो उसे अपने साथ – साथ अतीत में ले गईं ।

पूर्वा और अन्तरा अपने पिता ( रामानन्द मिश्रा) की दो प्यारी संतानें थीं। बचपन में ही माँ के गुजर जाने के बाद उन दोनों का पालन-पोषण उनकी दादी आनन्दी जी ने किया था। बहु की मृत्यु से आहत आनन्दी जी ने अपने बेटे से कहा –
“बबुआ दू – दू गो बिन महतारी के बेटी है आ तोहार ई दशा हमसे देखल न जात बा। ऊ तोहार बड़की माई के भतीजी बड़ी सुन्नर है। तोहरा से बियाह के बात करत रहीं। हम सोचली तोहरा से पूछ के हामी भर देईं।”

रामानंद मिश्रा ने गुस्से से लाल होते हुए कहा –
“का माई – तोहार दिमाग खराब हो गया है का? एक बात कान खोल कर सुन लो, हम पूर्वा के अम्मा का दर्जा कौनो दूसरी औरत को नहीं  दे सकते। पूर्वा आ अन्तरा त अपना अम्मा से ज्यादा तोहरे संगे रहती थीं। हम जीते जी सौतेली माँ के बुला के आपन दूनो बेटी के  अनाथ नहीं कर सकते ।”
आनन्दी जी -” हम महतारी न हईं। तोहार चिंता हमरा न रही त का गाँव के लोग के रही। काल्ह के दिन तोहार दूनो बेटी ससुराल चल जइहें त तोहरा के कोई एक लोटा पानी देवे वाला ना रहिहें। हमार जिनगी केतना दिन के है। ”
रामानंद मिश्रा – “माई तू हमार चिंता छोड़के पूर्वा आ अन्तरा के देख।”
बेटे की जिद्द के आगे आनन्दी जी की एक न चली।
अपनी दादी की परवरिश में पूर्वा और अन्तरा बड़ी हो गईं। अब आनन्दी को उनके विवाह की चिंता सताने लगी। यह बात उन्होंने अपने बेटे से कही तो उन्होंने कहा –
“माई अभी उमर ही का हुआ है इनका? अभी पढ़ने-लिखने दो न।”

आनन्दी – “बेटा अब हमार उमर बहुते हो गया। अउर देखो बुढ़ापा में ई कवन – कवन रोग धर लिया है। इनकी मैया होती त कौनो बात न रहत। अऊर बियाह बादो त बेटी पढ़ सकत है। का जानी कब भगवान के दुआरे से हमार बुलावा आ जाये।
माँ की बात सुनकर पूर्वा के पिता भावनाओं में बह गये और उन्होंने अपनी माँ की बात मान ली। अब वह पूर्वा के लिए लड़का देखने लगे। तभी उनकी रजनी (पूर्वा की मौसी) का फोन आया –
“पाहुन बेटी का बियाह तय हो गया है। आप दोनो बेटियों को लेकर जरूर आइयेगा।
रामानन्द मिश्रा -” माई का तबियत ठीक नहीं रहता है इसलिए हम दूनो बेटी में  से एकही को ला सकते हैं। ”
रजनी -” अच्छा पाहुन आप जइसन ठीक समझें। हम तो दूनो को बुलाना चाहते थे, बाकिर……… अच्छा पूर्वा को ही लेते आइयेगा, बड़ है न।
रामानंद मिश्रा – हाँ ई बात ठीक है, हम आ जायेंगे, हमरे लायक कोई काम होखे त कहना। ”
रजनी -” न पाहुन, बस आप लोग पहिलहिये आ जाइयेगा। हमार बेटी के बहिन में  अन्तरा अउर पूर्वे न है।
रामानंद मिश्रा – ठीक है – प्रणाम।

पूर्वा अपने पिता के संग बिहार के आरा जिला से सटे एक गाँव में अपनी मौसेरी बहन शिल्पी की शादी में पहुंच गई । सत्रह वर्ष की वह बाला गज्जब की सुन्दर व आकर्षक थी।
तीखे – तीखे नैन नक्स, सुन्दर – सुडौल शरीर, लम्बे – लम्बे घुंघराले केश, ऊपर से गोरा रंग किसी भी कविमन को सृजन करने के लिए बाध्य कर दे। मानो  ब्रम्ह ने उसको गढ़ने में अपनी सारी शक्ति और हुनर का इस्तेमाल कर दिया हो। ऊपर से उसका सरल व विनम्र स्वभाव एक चुम्बकीय शक्ति से युवकों को तो अपनी ओर खींचता ही था साथ ही उनकी माताओं के भी मन में भी उसे बहु बनाने की ललक जगा देता था। लेकिन पूर्वा इस बात से अनभिज्ञ थी।
अल्हड़ स्वभाव की पूर्वा चूंकि दुल्हन की बहन की भूमिका में थी इसलिए  विवाह में सरातियों के साथ – साथ बारातियों की भी केन्द्र बिन्दु थी। गुलाबी लहंगा-चोली पर सिल्वर कलर का दुपट्टा उसपर बहुत फब रहा था । उस पर भी सलीके से किया गया मेकप उसके रूप लावण्य को और भी निखार रहा था। ऐसे में किसी युवक का दिल उस पर आ जाना स्वाभाविक ही था।

दुल्हन की सखियाँ राहों में फूल बिछा रही थीं और पूर्वा वरमाला के लिए दुल्हन को स्टेज पर लेकर जा रही थी।
सभी की नज़रें दुल्हन को देख रही थी लेकिन एक नज़र पूर्वा पर टिकी हुई थी। वह नज़र पूर्वा की मौसी की जिठानी के बेटे लेफ्टिनेंट कर्मवीर मिश्रा की थी। संयोग से पूर्वा की नज़रें भी उनकी नज़रों से टकराई और एक अल्हड़ मुस्कान के साथ झुक गईं। नज़रों के उठने और झुकने का क्रम जारी रहा जो कि उन दोनों की पहली अनुभूति थी। दोनों के हृदय में पहले प्यार का संचार हो चुका था।
पूर्वा दूल्हन को लेकर स्टेज पर पहुंच गई तभी एक बाराती जो दूल्हे का दोस्त लग रहा था ने ठिठोली की –
“यहाँ तो दो – दो दुल्हन आई है, अच्छा है लगे हाथ मैं भी वरमाला डालकर दुल्हन उठाकर ले जाता हूँ।”
पूर्वा ने भी तपाक से कहा – “अपने पापा जी से आदेश ले लिये हैं भाई साहब यहाँ भी दुल्हन तैयार बैठी है” पूर्वा ने दुल्हन की नौकरानी की तरफ़ इशारा करके कहा और मंच ठहाकों से गूंज उठा।
तभी बड़े – बुजुर्गों की आवाज़ आई -” जल्दी – जल्दी वरमाल का रसम पूरा करो तुम सब नाहीं त बियाह का मुहूरत निकल जायेगा।”
“जी बाबू जी “कहते हुए कर्मवीर मिश्रा स्टेज पर चढ़ गये।
दूल्हे के दोस्त दूल्हे को कंधे पर बिठा लिये।
तभी कर्म वीर और रणवीर दूल्हन को भी उठा लिये। दूल्हन भी होशियार निकली और मौके का फायदा उठाकर दूल्हे को वरमाला पहना दी । उसके बाद दूल्हे ने भी दूल्हन को वरमाला पहनाई । शंख, नगाड़े बजने लगे। सभी बाराती, सराती दूल्हा – दूल्हन पर अक्षत – फूल की बारिश कर रहे थे। तभी कर्म वीर मिश्रा के हाथों से अक्षत छिटककर पूर्वा पर जा पड़ा। पूर्वा इसे शुभ शगुन समझकर मन ही मन खुश हो रही थी। उसकी आँखों में भविष्य के सपने पलने लगे जिसमें कर्मवीर मिश्रा दूल्हा बना घोड़े पर सवार होकर आया है और वह  दूल्हन बनी वरमाला लिये खड़ी है। उसके अंग – अंग में सिहरन पैदा हो रही थी ।
कहा जाता है न कि इश्क और रश्क छुपाये नहीं छुपता इसलिए इन दोनों के इश्क की ख़बर कर्मवीर मिश्रा की माँ रोहिणी जी को मिल गई और उनकी अनुभवी निगाहें दोनों के इश्क की इन्क्वायरी में लग गईं।
कर्म वीर किसी न किसी बहाने से पूर्वा के इर्द-गिर्द ही रहता।
इधर विवाह का मंत्रोच्चार हो रहा था और उधर रोहिणी की भी आँखों में पूर्वा को बहु बनाने के सपने पलने लगे।
उसने मन ही मन निश्चय किया कि अगले दिन अपनी देवरानी (पूर्वा की मौसी) से अपने बेटे के लिए पूर्वा को बहु बनाने की बात करेगी।
विवाह समारोह सफलतापूर्वक समाप्त हुआ। सुबह दूल्हन की बिदाई भी हो गई। एक – एक करके सभी मेहमान भी जाने लगे। रतजग्गा के कारण घर के सभी सदस्य बिस्तर पर बेसुध सोये हुए थे। लेकिन पूर्वा की आँखों से नींद गायब थी । वह सोच रही थी कि किसी दिन वह भी किसी अजनवी के साथ बांध दी जायेगी और अपने घर से विदा कर दी जायेगी। यह सोचकर उसकी आँखें भर आयीं। तभी कर्मवीर मिश्रा की आवाज़ से उसकी तंद्रा भंग हुई ।
कर्मवीर मिश्रा बोले – “दोपहर का खाना तैयार है आ जाइये आप।”
पूर्वा – “जी.. जी आती हूँ और बाकी सभी लोग आ गये हैं ….?
कर्मवीर मिश्रा – जो सोयेगा सो खोयेगा जो जागेगा वो पायेगा… आप आइये ।”
कर्मवीर की बात सुनकर पूर्वा के अंदर सिहरन सी होने लगी। उसके पाँव थर – कांपने लगे। वह मन ही मन सोच रही है ” यह मुझे क्या हो रहा है?” फिर अपने आप को ही समझाती हुई अपने आप से ही कहती हैं – अरे पगली यही तो प्यार है, इतना भी नहीं समझती? ”

पूर्वा यन्त्रवत कर्मवीर मिश्रा के साथ हो ली। खाना तो स्वादिष्ट बना ही था लेकिन अपने मनपसंद साथी के साथ खाने की एक अलग अलग ही अनुभूति हो रही थी दोनों को। दोनों ने ही एक दूसरे की आँखों में प्रेम की मौन स्वीकृति देखी। संयोग से रुक्मिणी जी की भी नींद खुल गई और वह जल्दी – जल्दी अपनी साड़ी ठीक करके आँगन की ओर जाने को हुईं तभी उन्हें उनकी देवरानी रजनी ( पूर्वा की मौसी) मिल गई।
रुक्मिणी ने अपनी देवरानी की तरफ़ मुखातिब होकर कहा – बहुत देर तक सोई रही मैं, सब लोगों ने खाना खा लिया? ”
रजनी -” पता नाहीं हमहूं अबहिये उठे हैं। बेटी कि बिदाई के बाद घर केतना उदास हो गया है….. कहते – कहते रजनी रो पड़ी।
रुक्मिणी रजनी को सम्हालते हुए बोली – “एही से त बेटी को पराया धन कहा गया है। अब त एके उपाय है आपन कर्मवीर के बियाह कर दिया जाय।”
रजनी – “का बात कहीं दीदी। अभी हमहूं इहे बात आपसे करने वाले थे। कवनो लड़की – वड़की देखी हैं का?”
रुक्मिणी – “हाँ एगो त है, अगर तू चाहो तो बियाह झटपट हो जायेगा ”
“हम……. रजनी ने अचरज से कहा।
रुक्मिणी – “अउर न तो का। ई पूर्वा आ करमवीर के जोड़ी कइसन रहेगा? उ देखो दोनो एक साथ केतना सुन्नर लग रहे हैं…..” रुक्मिणी ने अपनी उँगलियों से पूर्वा और कर्मवीर की तरफ़ इशारा करके कहा।
रजनी – “दीदी आप त हमरे मन की बात कह दीं। सांच कहे तो हम ई बारे में आपसे बात करना चाहते थे, बाकिर लाज के मारे कहे नहीं। अब एकबार लड़का – लड़की से पूछकर पाहुन से बात करेंगे हम। बिना माय के बेटी के आप जइसन माय मिल जायेंगी एसे बढ़िया अउर का हो सकेगा। अऊर आपन करमवीर त करम – धरम दूनो के वीर हैं। दीदीया के गुरहत्थी में बहुते गहना चढ़ा था। समुचे गाँव में शोर हो गया था कि एतना गहना केहू के न चढ़ा है। ऊ सब गहना दूनो बेटिये के न देंगे। आ खेत बाड़ी हइये है। दान दहेज में कवनो कमी न होगा। ”
रुक्मिणी -” अरे छोटकी दान दहेज का का काम। कवनो हम दरिद्रा हैं कि दान – दहेज लेके बेटा का बियाह करेंगे। ई बात त करमवीर के सामने भुलाइयो के मत कहना न त………. ”
रजनी -” ठीक है दीदी जी, अब हम पाहुन से बात करेंगे। अइसे त मीया बीबी राजी त का करेगा काजी… ( रजनी ने पूर्वा और कर्मवीर की तरफ़ इशारा करते हुए कहा) तभियो दूनो के मन – मर्जी पूछ लेना चाहीं। जमाना बदल गया है। ”
रुक्मिणी – “अच्छा ठीक है… तुम कहती हो तो पूछ लूंगी।
रुक्मिणी ने मौका देखकर अपने बेटे कर्मवीर से कहा –
“बेटा अब हम सोच रहे हैं तोहार बियाह करके निश्चिंत हो जायें। हमको तो तोहरे लिये पूर्वा बड़ी पसंद है, तुम का कहते हो? ”
धर्मवीर मिश्रा अपनी खुशी को छुपाते हुए – “अम्मा आपको जो मन, यह तो आपका विषय है। इसमे हम क्या बोल सकते हैं।”
रुक्मिणी – “तो ठीक है, हम ठीक करते हैं बियाह। ”
रुक्मिणी खुशी – खुशी रजनी के कमरे में गई और उससे कहा कि -” छोटकी हम करमवीर से बतिया लिये हैं अब तू भी पूर्वा से पूछकर बात आगे बढ़ाओ।”
रजनी -” हाँ – हाँ दीदी अब हम बतियाते हैं। पाहुन मानेंगे कइसे नहीं? दीया लेके खोजने पर भी कर्मवीर जइसन लइका उनको नहीं भेटायेगा। ई देखिये पूर्वा भी आ गई। अब एही लगले इससे भी पूछे लेते हैं। ”
रजनी ने पूर्वा को आते हुए देखकर रुक्मिणी से कहा और पूर्वा मुस्कुरा कर शर्माती हुई मौन स्वीकृति दे दी।

रजनी रामानंद मिश्रा को अपने कमरे में बुलाकर पूर्वा और कर्मवीर की शादी की बात कही तो रामानंद मिश्रा की आँखों में खुशी और गम के आँसू छलछला आये। उन्होंने रजनी से कहा –
“आप पूर्वा की मौसी हैं जे कि माय के जइसन होती हैं। ऎसे बढ़िया का बात होगा कि पूर्वा अपने मौसी के घर आये। बस हम माई (पूर्वा की दादी) से पूछ कर आपको बताते हैं।”
रामानन्द और पूर्वा को अगले दिन लौटना था। पूर्वा और कर्मवीर मिश्रा की आँखों से नींद गायब थी। दोनों के ही मन में एक-दूसरे से मिलकर बातें करने की इच्छा तीव्र हो गई लेकिन संकोच वश दोनों ही मन मसोस कर रह गये। दोनों की ही रात करवटें बदल – बदल कर बीती।
अगली सुबह कर्मवीर मिश्रा जल्दी ही उठ गये और आंगन में गये तो संयोग से पूर्वा भी वहीं मिल गई ।
कर्मवीर मिश्रा की आँखें चमक उठीं। उन्होंने ने पूर्वा के पास जाकर शरारत भरे अंदाज में कहा –
“बारात लेकर जल्दी ही आऊँगा, आप तैयार रहिएगा।”
पूर्वा मुस्कराकर आँखें झुका ली।
घर पहुंच कर जब रामानंद जी ने अपनी माँ से पूर्वा का विवाह कर्मवीर से करने की बात की तो उनकी माँ ने कहा – “हमार पूर्वा अइसन है ही की जे देखे देखते रह जाये।”
“कर्मवीर भी कवनो कम नही है माय। लो ई फोटो देख लो। समुचे गाँव में शोर हो जायेगा दुलहा देख कर।” रामानंद जी ने अपनी माँ को कर्मवीर मिश्रा की तस्वीर दिखाते हुए कहा।

आनन्दी जी – अब आजे पंडित जी के बोला के दिन देखा लो। शुभ काम में देर नहीं किया जाता।

रामानंद जी ने पंडित जी को बुलाकर कहा –
पंडी जी बढ़िया से पतरा देख के कवनो शुभ दिन निकालिये। ”
पंडित जी ने पत्रा देखकर विवाह का दो – चार शुभ दिन निकाल कर रामानंद जी को दिखाया और रामानंद जी ने पंडित जी द्वारा निकाला हुआ दिन पूर्वा की मौसी रजनी को भेज दिया।
सभी की सहमति से तीन महीने बाद ही बसंत पंचमी की शुभ तिथि को  विवाह का दिन रखा गया।
आनन्दी जी अपनी पोती की शादी में और रामानंद अपनी बेटी की शादी में कोई भी कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। वह मन ही मन सोच रहे थे कि आजकल के इस भौतिक युग में कौन बिना दहेज का विवाह करता है। चलो माना कि हमारा जो भी है वह बेटी का ही है लेकिन बारात का खर्च, जेवर कपड़े आदि का खर्च लड़के वाले खुद उठा रहे हैं यह साधारण बात है क्या। कितनी जगह तो पूर्वा के विवाह की बात इसलिए भी कट गई थी कि हमारा कोई बेटा नहीं है। लड़के वालों लड़के वालों ने साफ कह दिया कि बिना भाई की बेटियाँ मन बढ़ होती हैं और दूसरी बात कि लड़की का ध्यान अपने ससुराल से अधिक मायके में लगा रहेगा जिसकी वजह से वह लड़के पर भी दबाव बनायेगी अपने मायके के लोगों को करने के लिए।
इसलिए भी वह इस विवाह से बहुत ज्यादा ही खुश थे।

विवाह भले ही गाँव से हो रहा था लेकिन टेन्ट, सामयाना, हलवाई आदि शहर से मंगवाया गया था ।
रामानंद जी विवाह का मेनू भी अपनी समधन से पूछ कर ही रखवाया। भले ही उसमे दो – चार व्यंजन जोड़ ही दिया।
द्वार की साज – सज्जा तो ऐसी हुई मानो राजा का राज महल हो। जयमाला का मंच असली गुलाब और बेली के फूलों से सजाया गया था। दूल्हा – दूल्हन के बैठने का सिंहासन लग रहा था कि देवलोक से मंगाया गया था।
इधर पूर्वा की सखि – सहेलियाँ पूर्वा के साज – श्रृंगार में कोई भी कसर नहीं छोड़ना चाहती थीं। उस गाँव में भी एक लड़की थी जो ब्यूटीशियन का ट्रेनिंग लेकर आई थी लेकिन पूर्वा की दादी ने कठोरता से कहा था – ं
जे करिया – कुरूप होता है ऊ न एसियल – फेशियल कराके सुन्नर बनता है, हमार पूर्वा त असहियें दम – दमकती है एसे पूर्वा के पेंट पाॅलिश करे के जरूरत नहीं है।
आनन्दी जी की बात तब और तर्कसंगत लगी जब पूर्वा दूल्हन के जोड़े में हाथों में वरमाल लिये परिजनों तथा सखियों के साथ आती दिखी। । लाल बनारसी में लिपटी पूर्वा, माथे पर लाल बिंदी, दोनों हाथों की कलाइयों में भरी-भरी चूड़ियाँ, बड़ी-बड़ी आँखों में काले काजल, कानों में झुमके, गले में चन्द्रहार, कमर में करधनी से सुसज्जित पूर्वा किसी देवकन्या सी लग रही थी। पूर्वा की छोटी बहन अन्तरा राहों में फूल बिछाते जा रही थी।
उधर अपने दोस्तों से घिरे कर्मवीर मिश्रा जयमाल के मंच पर आ चुके थे। जब उनकी नज़र पूर्वा पर पड़ी तो वह अपनी किस्मत लिखने वाले ब्रम्ह का दिल ही दिल में आभार प्रकट कर रहे थे। दूल्हा दूल्हन की जोड़ी देखकर बुजुर्ग महिलाएँ राम – सीता की जोड़ी कह कर वर – वधु को मन ही मन प्रणाम कर रही थीं। इधर पूर्वा की बहन अन्तरा पर जैसे ही कर्मवीर मिश्रा के भाई रणवीर मिश्रा की नज़र पड़ी तो वह हट ही नहीं रही थी।
यह देखकर अन्तरा की सखियों ने अन्तरा से चुहल की – “दीदी तेरा देवर दीवाना……..”
अन्तरा शरमा गई । हँसी ठिठोली के बीच जयमाला का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ।
ढोलकी की थाप पर कर्ण प्रिय लोक गीतों और पंडित जी के मंत्रोच्चार आपस में युगलबंदी कर रहे थे। ऐसे सुन्दर और पावन निशा में एक – एक करके विवाह की सारी रस्में पूरी हुईं।
सुबह मंडप में दूल्हा के साथ – साथ उसके भाई तथा मित्र भी आये। सबसे पहले आनन्दी जी ने कर्मवीर मिश्रा को तीन तोले की मोटी चेन पहनाई और रणवीर मिश्रा को अंगूठी, साथ ही मंडप में आये मित्रों को एक – एक हजार रुपये। इसी तरह बड़े छोटे के क्रम से सभी परिजनों ( चाची, बुआ, मौसी दीदी आदि) ने भी अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार दूल्हे और उनके भाई तथा मित्रों को उपहार देकर रस्म पूरी कीं। उसके बाद दूल्हे को कोहबर में ले जाकर घर भराई की रस्म हुई और अंततः समय आ गया बिदाई का। सभी की आँखें गीली थीं। आनन्दी जी ने कर्मवीर मिश्रा से कहा –
” बाबू हम हमार पूर्वा के ध्यान रखना।”
कर्मवीर मिश्रा – “आप निश्चिंत रहिये दादी, मेरे जीते जी पूर्वा हमेशा खुश रहेगी।”
अन्तरा को रोते हुए देखकर रणवीर मिश्रा ने थोड़ा चुहल करते हुए कहा – “अरे आप क्यों रो रही हैं बस सामान पैक कीजिये और चलिये अपनी जीजी के साथ-साथ, बन्दा हाजिर है आपकी खिदमत में।”
रणवीर मिश्रा की बातों से बिदाई के गमगीन माहौल में भी सभी के होठों पर मुस्कान खिल गई।
मायके की दहलीज़ पारकर पूर्वा अपने जीवनसाथी के संग कार में बैठकर ससुराल की दहलीज़ पर पहुंच गई।

रुक्मिणी पूरी तैयारी के साथ अपने बेटे – बहु के स्वागत में द्वार पर खड़ी थी। साथ में नाऊन भी पीतल की चमचमाती थाली में सिन्होरा, लोढ़ा ( मशाला पीसने वाला सिलबट्टे का बट्टा), पान – सुपारी, रोली, अक्षत – चावल लेकर खड़ी थी। रिस्तेदार तथा पड़ोस की औरतें  साज – श्रृंगार करके गीत गा रही थीं। कार का दरवाजा खोलकर सबसे पहले रुक्मिणी जी ने पूर्वा पर अक्षत फूल छिड़क कर उसका घूंघट उठाया और उसके मांग में पाँच बार सिंदूर लगाने के बाद लोढ़ा से पाँच बर परिछावन ( लोढ़े को दूल्हन के सिर के ऊपर से बाँयें से दाहिनी तरफ़ घुमाया) किया। उसके बाद पूर्वा भी अपनी सास रुक्मिणी के मांग में पाँच बार सिंदूर भरा। इस प्रकार पाँच सुहागिनों ने पूर्वा का परीछ किया। उसके बाद घर की काम करने वाली आया एक लाल – पीले रंग से रंगा दो दौरा (बहुत बड़ा सा बांस का डलिया) कार कार के पास लेकर आई और उस दौरे पर आगे कर्मवीर मिश्रा खड़े हुए फिर पीछे पूर्वा इस प्रकार दौरा में डेग डालते हुए कोहबर तक दूल्हा – दूल्हन को ले जाया गया। दूल्हा दूल्हन को रसियाव (बिना दूध का खीर) और दाल भरी पूड़ी खिलाकर दूल्हा को बाहर भेज दिया गया और फिर शुरु हुआ  दूल्हन की मुंहदिखाई का रस्म शुरू हुआ जिसमें सबसे पहले रुक्मिणी जी ने दूल्हन को अपना खानदानी सीता हार दिया और बाद में क्रम से अन्य परिजन तथा अड़ोसी – पड़ोसियों ने भी अपने सामर्थ्य के अनुसार गहने तथा रूपये देकर मुंहदिखाई का रस्म पूरा किया।
रतजगा और रस्म रिवाजों के बीच पूर्वा काफी थक चुकी थी। उसका मन हो रहा था कि जमीन पर ही सो जाये। तभी रुक्मिणी जी ने सभी औरतों को कमरे में से बरामदे में ले जाकर मुंह मीठा कराया और धीरे से पूर्वा से आकर कहा कि अब तुम आराम करो बहुत थक गई होगी। रुक्मिणी जी की बात सुनकर पूर्वा को ऐसा लगा जैसे उन्होंने उसकी दिल की बातें सुन ली हों।

शाम को रुक्मिणी जी की आवाज से पूर्वा की नींद खुली। रुक्मिणी जी ने पीली कामदार साड़ी देते हुए कहा –
” दुलहिन इ साड़ी पहन लेना। अभी हम रजनी को भेजते हैं।”
थोड़ी ही देर में रजनी आयी और पूर्वा को इस घर के सभी लोगों के बारे में बताते हुए तैयार करने लगी। जब पूर्वा तैयार हो गई तो रजनी ने उसके चेहरे को ममता भरी नज़र से उसे देखा तो उसकी आँखें भर आयीं। उसके मुंह से अचानक निकल आया –
” एकदम दीदी जैसी हो तुम। ”
अपनी मौसी की आँखों में आँसू देखकर पूर्वा की भी आँखें भर आयीं।
रजनी ने उसके आँसू पोछते हुए कहा –
“आज रोने के नहीं खुशी के दिन हैं। अभी बहुत से काम हैं। मैं अब बाहर जाती हूँ। ”
पूर्वा अपने आप को आईने में देखकर अपने ही रूप पर मुग्ध हो गई। वह इतनी सुन्दर है उसे आज पता चला। वह आत्मविश्वास से भर गई और अपने राजकुमार के साथ कल्पना के घोड़े पर सवार होकर सुहाग सेज पर जा पहुंची। उसका अंग – प्रत्यंग सिहरने लगा। वह छुई-मुई सी अपने प्रीतम की बाहों में सिमटने लगी। शरद ऋतु में भी पसीने से तर-बतर होने लगी। तभी किसी की आहट से उसकी तंद्रा भंग हुई और उसने मुड़ कर देखा तो उसके सामने सचमुच उसके राजकुमार प्रकट हो चुके थे।
कर्मवीर मिश्रा सुहाग सेज पर अपनी पत्नी के रूप में पूर्वा को अपलक देख रहे थे। पूर्वा की पलकें झुक गईं।
कर्मवीर मिश्रा ने पूर्वा के गले में एक सोने की चेन पहनाई जिसमें एक दिल के आकार के लाॅकेट में उन दोनों की तस्वीर थी।  पूर्वा की पलकें अभी भी झुकी हुई थीं। वह बहुत कुछ कहना चाह रही थी लेकिन उसके होठ उस समय सिल गये थे। वह थर – कांप रही थी।
कर्मवीर मिश्रा पूर्वा का चेहरा अपनी दोनों हथेलियों में भरकर उसके माथे पर चुम्बन जड़ दिया। पहली बार किसी पुरुष का स्पर्श पाकर पूर्वा के तन – बदन में सिहरन पैदा हो गई। दोनों की सांसों की सरगम निशा की मधुर वेला में बज उठीं । साथ में धड़कनें भी युगलबंदी करने लगीं। पूर्वा कर्मवीर मिश्रा की बलिष्ठ बांहों में सिमटी जा रही थी। उसका तन – मन समर्पण के लिए तैयार था। पुरुष और प्रकृति का मधुर मिलन हो रहा था। पूर्वा को दर्द का आभास हुआ तभी कर्मवीर मिश्रा की हथेलियां पूर्वी के मुंह पर जा पहुंची। अब सासों के साथ – साथ पायल और चूड़ियाँ भी युगलबंदी करने लगीं। दो दिलों की लहरों का उफान शांत हुआ और दोनों तृप्त होकर एक-दूसरे की बाहों में सो गये।
सुबह के छः बज गये थे। पूर्वा जल्दी – जल्दी उठकर नहाने चली गई क्योंकि उसकी दादी ने उसे समझाया था कि ससुराल में सुबह – सुबह ही उठ जाना क्योंकि सवा महीने तक मांग बहोराई का रस्म होता है।
पूर्वा जैसे ही नहाकर निकली रुक्मिणी जी कमरे में आ चुकी थीं। दरवाजा कर्मवीर मिश्रा ने ही खोला था।
रुक्मिणी जी पूर्वा को पूरब की तरफ़ मुंह करके बैठाकर पूर्वा की मांग में पाँच बार  सिंदूर लगाया और मिठाई खिलाकर अखंड सौभाग्यवती होने का आशिर्वाद दिया। पूर्वा ने अपने आँचल के कोरों को हाथ में लेकर अपनी सास को पाँच बार प्रणाम करके एक संस्कारी बहु होने का प्रमाण दिया।

बिवाह के दसवें दिन रात को करीब दस बजे होंगे। दोनों की सासों की लय के साथ धड़कने ताल मिला रही थीं। चूड़ियों की खनक और पायल की झनक के मधुर झंकार के बीच मोबाइल की घंटी कर्णभेदी लगीं। कर्मवीर मिश्रा के हाथ यंत्रचालित से पूर्वा की हथेलियों से छूटकर मोबाइल की तरफ़ बढ़ गये। मोबाइल पर बातें करते हुए अपने पति के हाव – भाव देखकर पूर्वा को अंदाजा लग गया था। कर्मवीर मिश्रा ने कहा सीमा पर युद्ध छिड़ गया है। मुझे जाना पड़ेगा।  आप मुझे एक वीर योद्धा की पत्नी की तरह विदा करेंगी। वादा कीजिये आप मेरी कमजोरी नहीं ताकत बनेंगी। पूर्वा अपने पति के सीने से लग कर अपनी सिसकियाँ रोकने का प्रयास करने लगी। कर्मवीर मिश्रा उसके आँसुओं को पोछते हुए उसके माथे पर अनगिनत चुम्बन जड़ दिये। वह रात दोनों की एक-दूसरे की बांहों में जागकर कटी।
सुबह-सुबह कर्मवीर मिश्रा को विजय तिलक लगाकर रुक्मिणी और पूर्वा ने सजल नयनों से मुस्कुराकर विदा किया।

उधर सीमा पर युद्ध चल रहा था और इधर पूर्वा और रुक्मिणी के हृदय में। रुक्मिणी ने अपने पुत्र की सलामती के लिए अनुष्ठान रखा तो पूर्वा अपने सिंदूर की सलामती के लिए। कर्मवीर मिश्रा बहादुरी से लड़ते-लड़ते वीर गति को प्राप्त हो गये।
जब यह ख़बर मिली तब रुक्मिणी पूर्वा का मांग बहोर रही थीं। ख़बर सुनकर उनके हाथ से सिंदूर का डिबिया छिटक गया। दोनों साथ बहु वहीं जमीन पर बिन पानी की मछली की तरह छटपटाने लगीं। उनकी आँखों की बाढ़ सारे सपने बहा ले गई। उनके इर्द-गिर्द गाँव के लोगों की भीड़ जमा हो गई। सभी रुक्मिणी और पूर्वा के साथ रो रहे थे। किसी के पास भी उनके लिए सांत्वना के शब्द नहीं थे। रोते – पीटते दोनों सास – बहु मुर्छित हो जातीं और उनके परिजन उन्हें पानी, शर्बत आदि पिलाकर होश में लाने की कोशिश करते।
गाँव वाले अपने परमवीर सपूत कर्मवीर मिश्रा की अर्थी सजा रहे थे। चौबीस घंटे के बाद कर्मवीर मिश्रा का पार्थिव शरीर एक तिरंगे में लिपटकर ताबूत में आया। रुक्मिणी और पूर्वा के विलाप से आसपास में उमड़ी भीड़ का हृदय पिघल कर आँखों से बरस पड़ा। उधर अर्थी उठी और इधर एक सुहागन की चूड़ियाँ तोड़ कर माथे की बिंदिया मिटा दी गई। सिंदूर पोछ दिया गया। जिस मायके से लाल – पीली साड़ियाँ और कांच रंगबिरंगी चूड़ियाँ आने को थी वहाँ से सोने के कड़े और सफेद साड़ी का उपहार आया।  पूर्वा बुत बनी कुरीतियों का दंश झेल रही थी। असहाय रुक्मिणी चाहकर भी इस कुप्रथा को रोक नहीं पा रही थी।
कर्मवीर मिश्रा के छोटे भाई रणवीर मिश्रा ने उन्हें मुखाग्नि दी। दृश्य कारुणिक था किन्तु यही जीवन का सत्य है जिसे मनुष्य को स्वीकार करना ही पड़ता है।

पति के बिना पूर्वा की जीने की इच्छा समाप्त हो चुकी थी। अवसाद में आकर वह अपने कमरे में ही साड़ी से फांसी का फंदा बनाकर पंखे से लटकने ही जा रही थी कि रणवीर मिश्रा आ गये और उसे बचा लिये तो पूर्वा ने उनसे बिलखते हुए कहा –
” मुझे क्यों बचाया आपने? अब वे ही चले गये तो मैं जिन्दा रहकर क्या करूंगी।”
रणवीर मिश्रा – “भाभी क्या आप अकेली ही यह दुख सह रही हैं? मैंने भी तो अपना भाई खोया है और माँ ने भी तो अपना बेटा खोया है। आपने यह नहीं सोचा न कि आपने भैया के साथ सिर्फ दस दिन गुजारा है तो यह हाल है और मेरा तो बचपन उन्हीं के साथ बीता है। हमारा क्या हाल है इसपर आपने विचार किया। मरकर भी आपकी भैया से भेंट हो जाती तो मैं आपको छोड़ देता मरने के लिए। आपको ही क्यों हम सब आपके साथ हो लेते। लेकिन जाने वालों का पता ठिकाना मालूम हो तो न। अब आप मेरे भैया की अमानत हैं तो आपके दुख – सुख का खयाल रखना मेरी जिम्मेदारी है। ”
रुक्मिणी कमरे के बाहर बुत बनी  अपने बेटे की बात सुन रही थी। उसने सोचा कि जब उसका रणवीर स्वयं ही पूर्वा की जिम्मेदारी उठाने के लिए तैयार है तो क्यों नहीं उसे यह जिम्मेदारी दे ही दी जाये इसलिए उसने मन ही मन  निर्णय लिया कि वह पूर्वा का विवाह रणवीर से कर देगी।
रुक्मिणी ने पूर्वा का नाम काॅलेज में एम ए करने के लिए लिखा दिया और उसके लिए शहर जाकर रंगबिरंगे शलवार सूट लाई। ऐसा उसने यह सोचकर किया कि पूर्वा एक विधवा नहीं कुंवारी लड़की की तरह दिखे। वह पूर्वा से ही रणवीर के लिए खाना आदि भिजवाती रहती और हमेशा इस कोशिश में लगी रहती कि पूर्वा और रणवीर एक-दूसरे के करीब आयें।
पूर्वा और रणवीर एक-दूसरे का काफी खयाल रखने लगे। अक्सर ही वे किसी न किसी टाॅपिक पर एक-दूसरे के साथ बोलते – बतियाते रहते। यह सब देखकर रुक्मिणी को काफी तसल्ली मिलती, क्योंकि उसे लगता था कि वह अपने उद्देश्य में कामयाब हो रही है। फिर रुक्मिणी ने सोचा कि अब रणवीर से इस बारे में बात करनी चाहिए इसलिए रणवीर को एकान्त में पाकर उसने कहा – “बबुआ फुर्सत में हव त एगो बात करना है।”
रणवीर – “हाँ कहिये माँ ।”
रुक्मिणी – “बहुते दिन से मन में सोच रहे थे बाकि सोच रहे थे कि कहे के चाहीं कि ना। बाकि आज कहिये देते हैं।
रणवीर -” आप कहिये तो। ”
रुक्मिणी – हमसे पूर्वा के इ हालत देखल ना जात है। हम सोच रहली कि पूर्वा के बियाह कर दें।
रणवीर -” अहे माँ यह तो बहुत अच्छा विचार है। बल्कि मैं भी आपसे यही कहने वाला था। आखिर भाभी की उम्र ही क्या है। मुझसे भी उनकी तकलीफ़ देखी नहीं जाती।”
रणवीर की बातें सुनकर रुक्मिणी अपनी बात कहने के लिए बल मिल गया और उसने रणवीर से पूछा – ”
” तोहके पूर्वा पसन्द है न?”
रुक्मिणी के इस प्रश्न से रणवीर अचम्भित होते हुए पूछा –
“हाँ माँ भाभी तो अच्छी हैं ही लेकिन आप मुझसे क्यों पूछ रही हैं?”
रुक्मिणी – “क्योंकि हम चाहते हैं कि पूर्वा इसी घर की बहु बनल रहे। एही से तू पूर्वा से बियाह क ल। ”
क्या कह रही हैं माँ? आपको अंदाजा भी है। मुझे भाभी अच्छी लगती हैं लेकिन सिर्फ भाभी के नजरिए से। मैंने कभी उनको इस नजरिए से देखा ही नहीं जो आप कह रही हैं।”
रुक्मिणी -” त अब देख ।”
रणवीर – “ये मुझसे नहीं हो सकेगा।”
रुक्मिणी – “हो जायेगा। कोशिश कर आ बइठ के आराम से हमरा बात पर विचार कर। ”
रणवीर के द्वारा ना कहने के बावजूद भी रुक्मिणी को भरोसा था कि रणवीर मान ही जायेगा इसलिए उसने इस बारे में पूर्वा के पिता रामानंद बाबू से भी बात की कि वे पूर्वा को रणवीर से विवाह करने के लिए तैयार करें।
चूंकि ब्रामण समाज में लड़कियों का दूसरे विवाह की परम्परा नहीं है इसलिए पूर्वा के रामानंद बाबू को रुक्मिणी का यह प्रस्ताव अच्छा तो नहीं लगा फिर भी अपनी बेटी का भविष्य सोचकर उन्होंने रुक्मिणी की बात मान कर पूर्वा को समझाने का आश्वासन दे दिया।

काफी हिम्मत जुटाने के बाद रामानंद बाबू ने रुक्मिणी जी के द्वारा दिये गये प्रस्ताव को पूर्वा के सामने रखते हुए पूर्वा को समझाना चाहा तो पूर्वा चीख पड़ी। उसने अपनी आँखों के आँसुओं को पोछते हुए कहा –
” बाबू जी यह मुझसे नहीं होगा। मैं अपने पति की यादों के सहारे जी लूंगी। और पढ़ाई भी तो कर रही हूँ तो कुछ न कुछ तो कर ही लूंगी। आप मेरी फिक्र छोड़ दीजिये।”
रामानंद बाबू – “कैसे छोड़ दूँ। मैं तोहार बाप हैं । तू अकेले जीना भी चाहोगी त ई दुनिया तोहरा के जीये न देगी। रुक्मिणी जी महान महिला हैं जिनका मन में एतना बढ़िया विचार आया है। कवनो जल्दी न है तू आराम से सोच विचार कर लो। ”
इस बात के बाद से पूर्वा और रणवीर एक-दूसरे के सामने आने से कतराने लगे।
फिर भी रुक्मिणी ने हार नहीं माना और उसने दोनों पर भावनात्मक दबाव डालना शुरू कर दिया।
आखिर में न चाहते हुए भी पूर्वा और रणवीर को एक-दूसरे की बात माननी पड़ी और दोनों विवाह बंधन में बंध गये।
विवाह बंधन में बंधने के  बावजूद भी पूर्वा और रणवीर एक-दूसरे के मन से नहीं बंध पाये। पूर्वा अपने रूम में रहती तो रणवीर अपने रूम में।
रुक्मिणी फिर भी हार नहीं मानी और उसने अपना प्रयास जारी रखा।
होली का दिन था। प्रकृति रंगों से सराबोर थी। बसंत ऋतु की हवाओं में ही ऐसा खुमार होता है कि बुढ़े भी अपने-आप को जवान महसूस करने लगते हैं फिर दो जवां दिल कब तक एक-दूसरे से दूर रह सकते हैं।
यही सोचकर रुक्मिणी ने रणवीर और रुक्मिणी की ठंडई में थोड़ा सा भांग मिला दिया।
भांग का असर ऐसा हुआ कि पूर्वा को रणवीर में अपना पूर्व पति कर्मवीर नज़र आने लगे। पूर्वा ने हाथों में गुलाल लेकर रणवीर के गालों में मल दिया। फिर रणवीर भी कैसे पीछे रहता। भांग का नशा दोनों पर चढ़ने लगा। दोनों एक-दूसरे में सिमटने लगे। दो तन एक हो गया।
उस रात रुक्मिणी को सपना आया कि कर्मवीर कह रहे हैं – “माँ मैं आ रहा हूँ।”
नवे महीने पूर्वा ने एक पुत्र को जन्म दिया। रुक्मिणी को
को लगा कि उसका कर्मवीर पुनः उसकी गोद में आ गया है।
तभी रणवीर की आवाज़ से उसकी तंद्रा भंग हुई और उसने उसने अपने आँसुओं को झटपट पोंछ डाला।

प्रांगण में झंडा फहराया गया। जय हिन्द की ओजस्वी संगीत पर मदमस्त हो झूम – झूम कर हवाओं के डांस फ्लोर पर तिरंगा कमरतोड़ नर्तन कर रहा था। आखिर करे भी क्यों नहीं अपनी गौरवगाथा सुन कर मन मयूर नृत्य करने के लिए तो मचल उठता ही है ।

किरण सिंह

किरण सिंह

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परिचय

नाम – किरण सिंह

प्रकाशित पुस्तकें – 18

काव्य कृतियां – मुखरित संवेदनाएँ (काव्य संग्रह) , प्रीत की पाती (छन्द संग्रह) , अन्तः के स्वर (दोहा संग्रह) , अन्तर्ध्वनि (कुण्डलिया संग्रह) , जीवन की लय (गीत – नवगीत संग्रह) , हाँ इश्क है (ग़ज़ल संग्रह) , शगुन के स्वर (विवाह गीत संग्रह) , बिहार छन्द काव्य रागिनी ( दोहा और चौपाई छंद में बिहार की गौरवगाथा ) ।

बाल साहित्य – श्रीराम कथामृतम् (खण्ड काव्य) , गोलू-मोलू (काव्य संग्रह) , अक्कड़ बक्कड़ बाॅम्बे बो (बाल गीत संग्रह) , ” श्री कृष्ण कथामृतम्” ( बाल खण्ड काव्य )

“सुनो कहानी नई – पुरानी” ( बाल कहानी संग्रह)

कहानी संग्रह – प्रेम और इज्जत, रहस्य , पूर्वा

लघुकथा संग्रह – बातों-बातों में

सम्पादन – दूसरी पारी (आत्मकथ्यात्मक संस्मरण संग्रह) ,

शीघ्र प्रकाश्य – “फेयरवेल” ( उपन्यास), “लय की लहरों पर” ( मुक्तक संग्रह)

सम्मान  – सुभद्रा कुमारी चौहान महिला बाल साहित्य सम्मान (  उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ 2019 ), सूर पुरस्कार (उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान 2020) , नागरी बाल साहित्य सम्मान (20 20)

बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन से साहित्य सेवी सम्मान ( 2019) तथा साहित्य चूड़ामणि सम्मान (2021) , वुमेन अचीवमेंट अवार्ड ( साहित्य क्षेत्र में दैनिक जागरण पटना द्वारा 2022)

सक्रियता – देश के प्रतिनिधि पत्र – पत्रिकाओं में लगातार रचनाओं का प्रकाशन तथा आकाशवाणी एवम् दूरदर्शन से रचनाओं तथा साहित्यिक वार्ता का प्रसारण।

विभिन्न प्रतिष्ठित मंचों पर अतिथि के तौर पर उद्बोधन।

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वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानियाँ पढ़ते हुए बिहारी का ये दोहा अनायास ही जुबान पर आ जाता है l

सतसइया के दोहरे ज्यों नावक के तीर,

देखन में छोटे लगें घाव करे गंभीर,

छोटी सी कहानी ‘एवजी’ भी मरीजों, बुजुर्गों, बच्चों की सेवा टहल के लिए अपनी सेवाएँ देने वालों के ऊपर है l इन लोगों का का किस तरह ऐजेंसी वाले शोषण करते हैं l बड़े घरों के लोग जो इनसे  तमाम सेवाएँ लेते हैं पर खाने-पीने, रहने का स्थान देने में भेदभाव करते हैं l ये कहानी ऐसी ही लड़की शशि के बारे में है जो अपनी माँ की जगह ‘एवजी’ के रूप में काम पर आई है l तो आइए चलते हैं शशि की अंगुली पकड़कर

   

दीपक शर्मा की कहानी एवज़ी

           बंगले के बोर्ड पर चार नाम अंकित थे : 

पति, बृजमोहन नारंग का; 

पत्नी, श्यामा नारंग का; 

बड़े बेटे, विजयमोहन नारंग का; 

और छोटे बेटे इन्द्रमोहन नारंग का। 

 

एजेंसी के कर्मचारी ने अपना पत्र बाहर पहरा दे रहे गार्ड को थमा दिया और बोला, ’’अन्दर अपनी मैडम को बता दो मालती की सबस्टीट्यूट (एवज़ी) आई है।’’

मालती मेरी माँ है मगर एजेंसी के मालिक ने कहा था, ’’क्लाइंट को रिश्ता बताने की कोई ज़रूरत नहीं…..।’

इस एजेंसी से माँ पिछले चौदह वर्षों से जुड़ी थीं। जब से मेरे पिता की पहली पत्नी ने माँ की इस शादी को अवैध घोषित करके हमें अपने घर से निकाल दिया था। उस समय मैं चार वर्ष की थी और माँ मुझे लेकर नानी के पास आ गई थीं। नानी विधवा थीं और एक नर्सिंग होम में एक आया का काम करती थीं और इस एजेंसी का पता नानी को उसी नर्सिंग होम से मिला था। एजेंसी अमीर घरों के बच्चों और अक्षम, अस्वस्थ बूढ़ों के लिए निजी टहलिनें सप्लाई करती थी। अपनी कमीशन और शर्तों के साथ। टहलिन को वेतन एजेंसी के माध्यम से मिला करता। उसका पाँचवाँ भाग कमीशन के रूप कटवाकर। साथ ही टहलिन क्लाइंट को छह महीने से पहले नहीं छोड़ सकती थी। यदि छोड़ती तो उसे फिर पूरी अवधि की पूरी तनख्वाह भी छोड़नी होती ।

माँ की तनख्वाह की चिन्ता ही ने मुझे यहाँ आने पर मजबूर किया था। अपने काम के पाँचवें महीने माँ को टायफ़ायड ने आन घेरा था और डॉक्टर की सलाह पर उन्होंने मुझे पन्द्रह दिनों के लिए अपनी एवज़ में भेज दिया था ताकि उस बीच वे अपना दवा-दरमन और आराम नियमित रूप से पा सकें।

बंगले के अगले भाग में एक बड़ी कम्पनी का एक बोर्ड टंगा था और उसके बरामदे के सभी कमरों के दरवाजों में अच्छी-खासी आवाजाही जारी थी।

हमें बंगले के पिछले भाग में बने बरामदे में पहुँचाया गया ।

मेरा सूटकेस मुझे वहीं टिकाने को कहा गया और जभी मेरा प्रवेश श्यामा नारंग के वातानुकूलित आलीशान कमरे में सम्भव हो सका।

उसका पैर पलस्तर में था और अपने बिस्तर पर वह दो तकियों की टेक लिए बैठी थी। सामने रखे अपने टी.वी. सेट का रिमोट हाथ में थामे।

’’यह लड़की तो बहुत छोटी है’’, मुझे देखते ही उसने नाक सिकोड़ ली।

’’नहीं, मैडम’’, एजेंसी का कर्मचारी सतर्क हो लिया, ’’हम लोगों ने इसे पूरी ट्रेनिंग दे रखी है और यह पहले भी कई जगह एवज़ी रह चुकी है। और किसी भी क्लाइंट को इससे कोई शिकायत नहीं रही…..’’

’’जी मैडम’’, मैंने जोड़ा, ’’मैं छोटी नहीं, मेरी उम्र 20 साल है।’’ 

            माँ ने मुझे चेता रखा था। अपनी आयु मुझे दो वर्ष बढ़ाकर बतानी होगी। साथ में अपने को अनुभवी टहलिनी भी बताना पड़ेगा।

’’अपना काम ठीक से जानती हो?’’ वह कुछ नरम पड़ गई।

’’जी, मैडम। टायलट सँभाल लेती हूँ। स्पंज बाथ दे सकती हूँ। कपड़े और बिस्तर सब चेंज कर सकती हूँ……’’

’’क्या नाम है?’’

’’जी कमला’’, अपना असली नाम, शशि मैंने छिपा लिया ।

’’कहाँ तक पढ़ी हो?’’

’’आठवीं तक’’, मैंने दूसरा झूठ बोला हालाँकि यू.पी. बोर्ड की इंटर की परीक्षा मैंने उसी साल दे रखी थी जिसका परिणाम उसी महीने निकलने वाला था। किसी भी दिन।

’’परिवार में कौन-कौन हैं?’’

’’अपाहिज पिता हैं’’, मैंने तीसरा

झूठ बोल दिया, ’’पाँच बहनें हैं और दो भाई…..’’

’’तुम जा सकते हो’’, सन्तुष्ट होकर श्यामा नारंग ने एजेंसी के कर्मचारी की ओर देखा, ’’फ़िलहाल इसी लड़की को रख लेती हूँ। मगर तुम लोग अपना वादा भूलना नहीं, मालती पन्द्रह दिन तक ज़रूर मेरे पास पहुँच जानी चाहिए…..’’

’’जी, मैडम….’’

उसके लोप होते ही श्यामा नारंग ने मुझे अपने हाथ धोने को बोला और फिर कमरे का दरवाज़ा बन्द करने को। सिटकिनी चढ़ाते हुए। मुझे उसे तत्काल शौच करवाना था। अपने हाथ धोने के उपरान्त हाथ धोने एवं शौच का कमोड लेने मैं उसके कमरे से संलग्न बाथरूम में गई तो उसमें पैर धरते ही मुझे ध्यान आया मुझे भी अपने को हल्का करना था। मगर उसका वह बाथरूम इतनी चमक और खूशबू लिए था कि मैं उसे प्रयोग में लाने का साहस जुटा नहीं पाई।

हूबहू माँ के सिखाए तरीके से मैंने उसे शौच करवाया, स्पंज-स्नान दिया।

            बीच-बीच में अपने वमन को रोकती हुई, फूल रही अपनी साँस को सँभालती हुई, अपनी पूरी ताकत लगाकर।

थुलथुले, झुर्रीदार उसके शरीर को बिस्तर पर ठहराए-ठहराए।

एकदम चुप्पी साधकर।

उसकी प्रसाधन-सामग्री तथा पोशाक पहले ही से बिस्तर पर मौजूद रहीं : साबुन, पाउडर, तौलिए, क्रीम, ऊपरी भाग की कुरती-कमीज, एक पैर से उधेड़कर खोला गया पायजामा ताकि उसके पलस्तर के जाँघ वाला भाग ढँका जा सके।

’’मालूम है?’’ पायजामा पहनते समय वह बोल पड़ी, ’’मेरा पूरा पैर पलस्तर में क्यों है?’’

’’नहीं, मैडम’’, जानबूझकर मैंने अनभिज्ञता जतलाई।

’’मैं बाथरूम में फिसल गई थी और इस टाँग की मांसपेशियों को इस पैर की एड़ी के साथ जोड़ने वाली मेरी नस फट गई थी। डॉक्टर ने लापरवाही दिखाई। उस नस की मेरी एड़ी के साथ सिलाई तो ठीक-ठाक कर दी मगर सिलाई करने के बाद उसमें पलस्तर ठीक से चढ़ाया नहीं। इसीलिए तीसरे महीने मुझे दोबारा पलस्तर चढ़वाना पड़ा….’’

’’जी, मैडम’’, पायजामे का इलैस्टिक व्यवस्थित करते हुए मैं बोली।

’’आप लोग को एजेंसी वाले चुप रहने को बोलते हैं?’’ वह थोड़ी झल्लाई, ’’मालती भी बहुत चुप रहा करती थी….’’

मैं समझ गई  आगामी मेरी पढ़ाई की फ़ीस की चिन्ता में ध्यानमग्न माँ को उसकी बातचीत में तनिक रूचि नहीं रही होगी।

’’जी, मैडम’’, मैं हाँकी, ’’हमें बताया जाता है बड़े लोग अपने टहलवों से बातचीत नहीं चाहते, केवल अपने आदेश का पालन चाहते हैं…..’’

’’ऐसा क्या’’, वह हँसने लगी।

’’जी, मैडम’’, गीले तौलिए, गन्दले पानी से भरे तसले और उसके पिछले दिन के कपड़े समेटते हुए मैंने कहा।

’’अभी मैं थक गई हूँ। थोड़ी देर लेटी रहना चाहती हूँ। मेरे बाल बाद में बना देना। जब तक तुम यह सारा सामान मेरे बाथरूम में धो डालो। और देखो, बाथरूम जिस दालान में उधर से खुलता है, वहाँ कपड़े सुखाने का एक रैक रखा है। यह सामान उसी रैक पर फैलाना है…..’’

’’जी, मैडम।” 

’’कपड़े फैलाकर सीधी इधर ही आना….’’

’’जी, मैडम।”

अपने हाथ का काम निपटा कर मैं श्यामा नारंग के कमरे में लौटी तो वह अपने बिस्तर पर फिर से तकियों की टेक लिए अधलेटी अवस्था में अपने टी.वी. के विभिन्न चैनल अदल-बदल रही थी।

’’फ्रि़ज में से मुझे मेरी डाएट पेप्सी नीचे से निकाल दो’’, मुझे देखते ही वह बोल उठी, ’’मुझे प्यास लगी है…..’’

जभी मुझे ध्यान आया, प्यास तो मुझे भी बहुत जोर से लग रही थी। गला मानो और सूखने लगा मेरा।

टी.वी. ही की बगल में एक फ्रि़ज भी रखा था। दो दरवाज़ों वाला। ऐसा फ्रि़ज मैं पहली बार देख रही थी। नानी के नर्सिंग होम के फ्रि़ज का दरवाज़ा एक ही था। 

श्यामा नारंग के फ्रि़ज में कई पेय रखे थे। कुछ गत्ते के डिब्बों में तो कुछ बोतलों में।

’’कहाँ रखी है, मैडम?’’ मुझे डायट पेप्सी कहीं दिखाई नहीं दी।

’’कभी देखी नहीं पहले?’’ वह झल्लाई, ’’इसी निचले दरवाज़े के बीच वाले खाने में टिन की छोटी-सी कनस्तरी है…..’’

’’जी, मैडम! देख ली….’’

’’अब तुम्हें मेरे बाल बनाने हैं’’, पेप्सी उसने अपने ही हाथ से खोली और उसे पीने लगी। 

उसके बाल कटे हुए थे।

मगर कम थे और महीन थे।

उनमें सफेदी नाम मात्र की भी नहीं थी। माँ ने मुझे बता रखा था हर शनिवार को एक ब्यूटी पार्लर से एक लड़की आती है, उसके बाल रँगती है। उसके चेहरे पर मास्क लगाती है, उसके पूरे शरीर की मालिश करती है-कभी जैतून के तेल से तो कभी पाउडर से-उसके पैर के नाखून बनाती है, सँवारती है, पालिश करती है। नौ सौ शुल्क पर।

’’टिंरग…. टिंरग’’, उसका मोबाइल बज उठा।

’’हाँ, हाँ, आ जाओ’’, मोबाइल पर वह कुछ सुनकर बोली।

’’मेरे पति से तुम अभी नहीं मिलीं?’’ श्यामा नारंग ने अपना मोबाइल बन्द कर दिया।

’’नहीं, मैडम…..’’

पत्नी की तुलना में बृजमोहन नारंग छरहरा था, चुस्त था। सिर से आधा गंजा, मगर बचे हुए अपने बाल उसने रँगे हुए थे। उसके चेहरे का बुढ़ापा पत्नी से ज्यादा गहरा था मगर वह ताज़ी शेव से चमक रहा था : चटकीला और महकदार….।

’’यह नई लड़की है?’’ वह पत्नी के बिस्तर की बगल में रखे सोफे पर बैठ गया।

’’हाँ….मालती की एवज़ी…..’’

’’नमस्कार, सर,’’ मैंने अपने हाथ जोड़ दिए।

’’तुम्हें तो स्कूल में होना चाहिए, यहाँ नहीं…..’’

’’जी, सर….’’

’’इस उम्र में अब स्कूल जाएगी’’, श्यामा नारंग पति पर खीझ ली, ’’बीस साल की है, कोई बच्ची नहीं….’’

’’खाना लगवा दो। डेढ़ बज रहा है….’’ पति ने विषय बदल डाला।

’’ठीक है सुमित्रा को बुलाती हूँ’’, अपने बिस्तर ही से उसने एक घंटी उठाई और बजा दी।

एक नौकरानी दौड़ी आई।

’’खाना तैयार है?’’

’’जी, मैडम…’’

’’पहले इस लड़की को मालती वाला कमरा दिखा दो, फिर ट्रौली इधर लाना…..’’

’’तुम अपने कमरे में जाओ, लड़की’’, बृजमोहन नारंग ने मेरी तरफ देखा, ’’तुम्हें बुलाना होगा तो वहाँ की घंटी बजा दी जाएगी…’’

’’जी, सर…..’’

 

मेरा कमरा बंगले के पिछवाड़े बने खुले दालान में था।

अपनी बगल में तीन कमरे लिए।

’’क्या कुछ इसमें भरा है!’’ मैंने अपना सूटकेस कमरे के एक-चौथाई भाग में बिछे तख़्त के नीचे टिका दिया। उसके बाकी तीन भाग पुराने और फालतू सामान से भरे थे : टूटे बर्तनों से, धूल-धूसरित मैगज़ीन और अखबार से जीर्ण-शीर्ण खुले कूलरों से, दीमक लगी पेपरबैक किताबों से, भंग-विभंग कुर्सी-मेज़ों से।

’’मुझे बाथरूम जाना था’’, मैंने झिझकते हुए सुमित्रा से कह ही दिया।

’’इधर हम तीन परिवार रहते हैं और एक साझा बाथरूम इस्तेमाल करते हैं तुम्हें इस समय खाली भी मिल सकता है और खाली नहीं भी…..’’

’’ठीक है, मैं देख लेती हूँ…..’’

’’तुम्हारा खाना मैं ही लाऊँगी, लगभग तीन, साढ़े तीन बजे….’’

बाथरूम खाली नहीं था। अन्दर से किसी के नहाने की आवाज़ आ रही थी।

निराश होकर मैं स्टोर-नुमा अपने कमरे में लौट ली।

श्यामा नारंग के ए.सी. के बाद अकस्मात मुझे लगा, यह कमरा बहुत गरम था।

मैंने उसका पंखा आन किया तो वह आवाज़ करता हुआ बहुत धीमी स्पीड पर हिलने लगा।

उसकी स्पीड मैंने तेज़ करनी चाही तो उसकी किर्र-किर्र भी साथ ही में तेज हो ली। फिर वह इतनी ज़ोर से हिला कि मुझे लगा वह अब गिरा, कब गिरा। 

मैं उसे पुरानी स्पीड पर ले आई और तख़्त पर लेट गई।

मैं बहुत थक गई थी। पहली बार मुझे ध्यान आया माँ तो उम्र में मुझसे कितनी बड़ी थीं, वह तो बहुत ज्यादा थक जाती होंगी। तिस पर इतनी गरमी!

तख़्त पर बिछा गद्दा बीच-बीच में कई जगह से खोखला हो चुका होने के कारण जैसे ही मेरे शरीर में गड़ने लगा, मैं उठकर बैठ गई। 

माँ यहाँ कैसे सोती होंगी?

माँ याद आईं तो उनके दिए बिस्कुट के पैकेट भी याद आ गए। माँ ने कहा था, वहाँ खाना कभी माँगना नहीं। देर से मिल रहा हो तो मौका ढूँढ़कर ये बिस्कुट चबा लेना।

श्यामा नारंग की घंटी पूरी एक घंटे बाद बजी।

मैं उधर दौड़ ली।

’’तुम्हें मेरे हाथ धुलाने हैं। मुझे कुल्ला करवाना है और फिर मुझे लिटाकर पेशाब करवाना है…..’’ 

’’जी, मैडम….’’

’’फिर तुम अपने कमरे में जा बैठना, तुम्हारा खाना वहीं पहुँचाया जाएगा…..’’

’’जी, मैडम….’’

मेरे खाने की थाली साढ़े तीन बजे प्रकट हुई। 

           ’’खाना खाकर यह बरतन धोकर यहीं रख देना’’, सुमित्रा जाते-जाते मुझे बोलती गई।

थाली का सामान देखकर मुझे उबकाई आ गई : पानी में तैर रहे उबले आलू, सूखे काले चने, दो चपाती और ग्यारह-बारह ग्रास मोटा चावल।

माँ मुझे क्यों बताया करती थीं, रईसों के यहाँ उन्हें रईसी खाना मिला करता है?

किन्तु जल्दी ही मेरी भूख ने मेरी उबकाई पर काबू पा लिया और मैं थाली पर टूट पड़ी। 

बीच-बीच में माँ की याद करती हुई ।

 

            ’’खाना खा लिया?’’ चार बजे के लगभग सुमित्रा फिर आई, ’’बरतन उठा लूँ….’’

’’रसोई में यही सब बनता है?’’ जिज्ञासावश मैंने पूछ ही लिया।

’’जो वहाँ  बनता है वह तुम्हारे लिए नहीं बनता। सिर्फ़ बुढ़ऊ और बुढ़िया के लिए बनता है…..’’

“वे लोग ऐसा खाना खा भी नहीं सकेंगे…..’’ मैं ने कहा।

’’बिल्कुल नहीं। उनका खाना जैतून के तेल में बनता है। उनकी सब्ज़ियाँ भी ख़ास होती हैं, अलग किस्म की और बहुत महँगी। बीज बाहर के और खाद देसी और ख़ालिस। बैंजनी गोभी, लाल-पीली सिमला मिर्च, सफ़ेद बैंगन, बच्चा-मक्की, बच्चा टमाटर……’’

’’और घर के बाल-बच्चों का खाना?’’

’’दो बेटे हैं। दोनों उधर कहीं अमेरिका में रहते हैं। बारी से साल-दो साल में दो-एक बार आते हैं, कभी अकेले तो कभी परिवार के साथ…….’’

’’और यह दोनों यहाँ रहते हैं?’’

’’आगे का हिस्सा किराए पर उठाए हैं और पीछे के हिस्से में पति-पत्नी।’’

जभी श्यामा नारंग की घंटी गूँज उठी।

’’अभी से मुझे बुला लिया?’’

’’पेशाब करवाना होगा’’, सुमित्रा हँसने लगी।

’’तो क्या रात में भी जगा दिया करती हैं?’’ अपनी माँ के लिए मेरी चिन्ता और बढ़ ली।

’’आपकी एजेंसी को आठ हजार रूपया इसी टहल के लिए ही तो मिला करता है……’’

जभी घंटी दोबारा बजी।

मैं लपककर वहाँ पहुँची तो देखा बृजमोहन नारंग भी वहीं अपने सोफ़े पर पत्नी के पास बैठा था। अपने हाथ में टी.वी. का रिमोट लिए।

मैंने टी.वी. पर निगाह दौड़ाई तो स्क्रीन पर मेरी नानी बोल रही थीं, ’’हमें तो मालूम था हमारी नातिन एक दिन जरूर नाम कमाएगी…..’’

’’इसे पहचानती हो?’’ श्यामा नारंग चिल्लाई । गहरी उत्तेजना में।

बृजमोहन नारंग ने उसी पल चैनल बदला तो माँ सामने आ गईं। अपने दुबले, पीले चेहरे के साथ। अपने तख़्त पर बैठी हुईं।

’’इसे भी नहीं पहचानती?’’ श्यामा नारंग फिर चिल्लाई।

जभी माँ बोलने लगीं, ’’आजकल अपने रिश्तेदार के पास गई हुई है। पन्द्रह दिन बाद आएगी….’’

’’हमें उस रिश्तेदार का पता दे दीजिए’’, न्यूज वाले उस चैनल की एन्कर बोली, ’’हम उसे खोज लेंगी। हमें उसका इंटरव्यू लेना है….’’

’’और इसे भी नहीं पहचानती?’’ बृजमोहन नारंग ने अपनी व्यंग्योक्ति कसी। ऊँची, धमकी-भरी आवाज़ में।

टी.वी. पर यू.पी.बोर्ड का मेरा पहचान-पत्र दिखाया जा रहा था और मेरी फ़ोटो के ऊपर शीर्षक आ रहा था, ’’बोर्ड में प्रथम स्थान पाने वाली शशि….’’ 

            जभी टी.वी. बन्द कर दिया गया।

’’हम से इतना बड़ा धोखा? इतना बड़ा झूठ?’’ श्यामा नारंग मुझ पर बरस पड़ीं, ’’तुमने आज आकर मुझे क्या कहा? ’मेरा नाम कमला है’, ’मैं सिर्फ़ आठवीं तक पढ़ी हूँ’, ’मेरे पिता अपाहिज हैं’, ’मेरी पाँच बहनें हैं, दो भाई हैं’…’’

’’उस एजेंसी को हम छोड़ेंगे नहीं’’, बृजमोहन नारंग भी पत्नी की तरह चिल्लाने लगा, ’’अपने क्लाइंटस को भुलावे में रखती है। जब चाहे, जिसे चाहे बदल दे…भेज दे…’’

’’उस एजेंसी का इसमें कोई दोष नहीं,’’ मैं रोने लगी, ’’सारा दोष हमारा है। माँ का टायफायड गम्भीर रूप ले रहा था और हमें रूपयों की सख़्त ज़रूरत थी। मुझे आगे भी पढ़ना है और…’’

’’मजाक है कोई?’’उत्तेजित अवस्था में श्यामा नारंग अपने मोबाइल पर कुछ नाम घुमाने  लगी, ’’हमारे साथ एजेंसी का कॉन्ट्रैक्ट है, छह महीने से पहले कोई टहलिन बीच में काम छोड़कर नहीं जाएगी….’’

’’हम लोग आपका काम बीच में क्यों छोडे़गी, मैडम,” मैं बहुत डर गई, ’’मैं ये पन्द्रह दिन ज़रूर पूरे करूँगी, मैडम। जब तक मेरी माँ अच्छी हो जाएँगी और यहाँ लौट लेंगी….’’

जभी सुमित्रा दौड़ी आई, ’’सर बाहर गार्ड बता रहा है, बाहर कई टी.वी. चैनल वाले भीड़ लगा रहे हैं….’’

’’ज़रूर तुम्हारी माँ ने उन्हें यहाँ का पता दिया होगा?’’ बृजमोहन नारंग मुझ पर चिल्लाया, ’’अब वे चैनल वाले घर में आ घुसेंगे।’’

             उसे नई चिन्ता लग गई थी। 

’’वे लोग यहाँ नहीं आ सकते’’, श्यामा नारंग भी चिल्लाई, और अपने मोबाइल के साथ फिर भिड़ लीं, ’’इस एजेंसी की मैं अभी खबर लेती हूँ….’’

’’रूको, टी.वी. देखते हैं’’, बृजमोहन नारंग ने टी.वी. खोल दिया।

टी.वी. पर नानी के नर्सिंग होम की बड़ी डॉक्टर बोल रही थी, ’’हाँ, वह एजेंसी मेरे भाई चलाते हैं….’’

’’देखिए सर’’, मैं रोने लगी, ’’मैं जानती थी मेरी माँ उन चैनल वालों को आप लोगों का पता हरगिज़ नहीं दे सकतीं। आप मेरी माँ को या मुझे यहाँ से जाने को मत कहिएगा, मैडम….’’

’’मगर….’’

जभी बगल के, पिछवाड़े वाले भाग की कॉल-बैल जोर से घनघनाई।

’’वे लोग आ पहुँचे हैं’’, बृजमोहन नारंग ने टी.वी. बन्द कर दिया। और सोफ़े से उठ खड़ा हुआ, ’’अब कोई तमाशा नहीं….’’

’’मैडम, दरवाजा खोलना है क्या?’’ सुमित्रा ने श्यामा नारंग की ओर देखा।

’’खोलना ही पड़ेगा। वे लोग यहाँ इस लड़की के लिए आए हैं’’, बृजमोहन नारंग के स्वर परिवर्तन ने मुझे चौंका दिया।

’’जी, सर….’’

सुमित्रा ने श्यामा नारंग के कमरे से बाहर का रूख किया।

’’तुम उन्हें यहाँ लाओगे?’’ श्यामा नारंग चिल्लाई।

’’इस समय तुम चिल्लाओ नहीं । सारा हिन्दुस्तान हमें देखने वाला है। वे लोग इस लड़की को शाबाशी देने आए हैं। उनके साथ हमें भी इसे शाबाशी देंगे। कहेंगे, हम इसे आगे पढ़ने में भी इसकी मदद करेंगे इसकी माँ का साथ देंगे…..’’ बृजमोहन नारंग ने अपना स्वर और धीमा कर लिया।

लगभग साज़िशी। 

दीपक शर्मा

दीपक शर्मा

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अगर आप बुरा न मानें तो मैं एक और बिअर लूँगा। कुछ देर में यह पब बन्द हो जाएगी और फिर सारे शहर में सुबह तक एक बूंद भी दिखाई नहीं देगी। आप डरिए नहीं … मैं पीने की अपनी सीमा जानता हूँ … आदमी को ज़मीन से करीब डेढ़ इंच ऊपर उठ जाना चाहिए। इससे ज़्यादा नहीं, वरना वह ऊपर उठता जाएगा और फिर इस उड़ान का अन्त होगा पुलिस-स्टेशन में या किसी नाली में … जो ज़्यादा दिलचस्प चीज़ नहीं। लेकिन कुछ लोग डर के मारे ज़मीन पर ही पाँव जमाए रहते हैं …

 

निर्मल वर्मा जी की कहानियों में प्रेम की गहन अभिव्यक्ति हैl पर वो अब अतीत का हिस्सा बन गया हैl कहानियों में अपूर्णता स्वीकार करने के बाद भी बची हुई छटपटाहट है और पूर्णता की लालसा है जैसे चूल्हे की आग ठंडी हो जाने पर भी राख देर तक धधकती रहती हैl यही बेचैनी वो पाठक के मन में बो देते हैँ l उनकी कहानियों में बाहरी संघर्ष नहीं है भीतरी संघर्ष हैl कहानियाँ वरतान में अतीत में भटकते वर्तमान में निराश और भविष्य के प्रति उदासीन नायक का कोलाज हैँ l

निर्मल वर्मा जैसे कथाकार दुर्लभ होते हैं l जिनके पास शब्द सौन्दर्य और अर्थ सौन्दर्य दोनों होते है l सीधी-सादी मोहक भाषा में अद्भुत लालित्य और अर्थ गंभीरता इतनी की कहानी पढ़कर आप उससे अलग नहीं हो सकते… जैसे आप किसी नदी की गहराई में उतरे हो और किसी ने असंख्य सीपियाँ आपके सामने फैला दी हों l खोलो और मोती चुनो l यानि कहानी एक चिंतन की प्रक्रिया को जन्म देती है… ऐसी ही एक कहानी है ‘डेढ़ इंच ऊपर’

 

दूसरे महायुद्ध के समय में यूरोपीय देश की पृष्ठ भूमि पर आधारित नाटक में अधेड़ व्यक्ति अपनी पत्नी की अचानक हुई मौत से व्यथित हो जाता है। वह मौत से अधिक इस बात से आहत होता है कि उसकी पत्नी ने सात वर्ष के वैवाहिक जीवन में अपने असल भेद को छिपा कर रखा। अधेड़ आदमी की पत्नी देशवासियों के हित में नाजीवाद के खिलाफ चल रहे गुप्त आंदोलन का हिस्सा थी। उसकी पत्नी की मौत देश पर काबिज जर्मनियों के चलते हुए। जर्मन पुलिस उस अधेड़ से पत्नी के बारे जानकारी हासिल करने के लिए गिरफ्तार करती है। जबकि वह अपनी पत्नी के इस रोल से पूर्ण तौर से अनभिज्ञ होता है। पत्नी से अथाह प्रेम के चलते वह दूसरी शादी भी नहीं करता है। परंतु दूसरी तरफ वह अपनी पत्नी की ओर से विश्वास तोड़ने से आहत भी होता है। आइए पढ़ें…

निर्मल वर्मा की कहानी – डेढ़ इंच ऊपर

 

 

अगर आप चाहें तो इस मेज़ पर आ सकते हैं। जगह काफ़ी है। आखिर एक आदमी को कितनी जगह चाहिए? नहीं … नहीं … मुझे कोई तकलीफ नहीं होगी। बेशक, अगर आप चाहें, तो चुप रह सकते हैं। मैं खुद चुप रहना पसन्द करता हूँ … आदमी बात कर सकता है और चुप रह सकता है, एक ही वक्त में। इसे बहत कम लोग समझते हैं। मैं बरसों से यह करता आ रहा हूँ। बेशक आप नहीं … आप अभी जवान हैं आपकी उम्र में चुप रहने का मतलब है चुप रहना और बात करने का मतलब है बात करना। दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। आप छोटे मग से पी रहे हैं? आपको शायद अभी लत नहीं पड़ी। मैं आपको देखते ही पहचान गया था कि आप इस जगह के नहीं हैं। इस घड़ी यहाँ जो लोग आते हैं, उन सबको मैं पहचानता हूँ। उनसे आप कोई बात नहीं कर सकते। उन्होंने पहले से ही बहुत पी रखी होती है। वे यहाँ आते हैं, अपनी आखिरी बिअर के लिए — दूसरे पब बन्द हो जाते हैं और वे कहीं और नहीं जा सकते। वे बहुत जल्दी खत्म हो जाते हैं। मेज़ पर। बाहर सड़क पर। ट्राम में।

 

कई बार मुझे उन्हें उठाकर उनके घर पहुँचाना पड़ता है। बेशक, अगले दिन वे मुझे पहचानते भी नहीं। आप गलत न समझें। मेरा इशारा आपकी तरफ नहीं था। आपको मैंने यहाँ पहली बार देखा है। आप आकर चुपचाप मेज़ पर बैठ गए। मुझे यह बुरा-सा लगा। नहीं, आप घबराइए नहीं … मैं अपने को आप पर थोपूँगा नहीं। हम एक-दूसरे के साथ बैठकर भी अपनी- अपनी बिअर पर अकेले रह सकते हैं। मेरी उम्र में यह ज़रा मुश्किल है, क्योंकि हर बूढ़ा आदमी थोड़ा-बहुत डरा हुआ होता है … धीरे-धीरे गरिमा के साथ बूढ़ा होना बहुत बड़ा ‘ ग्रेस है, हर आदमी के बस का नहीं। वह अपने-आप नहीं आता, बूढ़ा होना एक कला है, जिसे काफी मेहनत से सीखना पड़ता है। क्या कहा आपने? मेरी उम्र? ज़रा अन्दाज़ा तो लगाइए? अरे नहीं साहब आप मुझे नाहक खुश करने की कोशिश कर रहे हैं। यों आपने मुझे खुश ज़रूर कर दिया है और अगर अपनी इस खुशी को मनाने के लिए मैं एक बिअर और लूँ, तो आपको कोई एतराज़ तो नहीं होगा? और आप? आप नहीं लेंगे? नहीं … मैं ज़िद नहीं करूंगा।

 

रात के तीन बजे … यह भयानक घड़ी है। मैं तो आपको अनुभव से कहता हूँ। दो बजे लगता है, अभी रात है और चार बजे सुबह होने लगती है, लेकिन तीन बजे आपको लगता है कि आप न इधर हैं, न उधर। मुझे हमेशा लगता है कि मृत्यु आने की कोई घड़ी है, तो यही घड़ी है।

 

हर आदमी को अपनी ज़िन्दगी और अपनी शराब चुनने की आज़ादी होनी चाहिए … दोनों को सिर्फ एक बार चुना जा सकता है। बाद में हम सिर्फ उसे दुहराते रहते हैं, जो एक बार पी चुके हैं, या एक बार जी चुके हैं। आप दूसरी ज़िन्दगी को मानते हैं? मेरा मतलब है, मौत के बाद भी? उम्मीद है, आप मुझे यह घिसा-पिटा जवाब नहीं देंगे कि आप किसी धर्म में विश्वास नहीं करते। मैं खुद कैथोलिक हूँ, लेकिन मुझे आप लोगों का यह विश्वास बेहद दिलचस्प लगता है कि मौत के बाद भी आदमी पूरी तरह से मर नहीं जाता … हम पहले एक ज़िन्दगी पूरी करते हैं, फिर दूसरी, फिर तीसरी। अक्सर रात के समय मैं इस समस्या के बारे में सोचता हूँ … आप जानते हैं, मेरी उम्र में नींद आसानी से नहीं आती। नींद के लिए छटाँक-भर लापरवाही चाहिए, आधा छटाँक थकान : अगर आपके पास दोनों चीजें नहीं हैं, तो आप उसका मुआवज़ा डेढ़ छटाँक बिअर पीकर कर सकते हैं … इसलिए मैं हर रोज़ आधी रात के वक्त यहाँ चला आता हूँ, पिछले पन्द्रह वर्षों से लगातार।

 

मैं थोड़ा-बहुत सोता ज़रूर हूँ लेकिन तीन बजे के आस-पास मेरी नींद टूट जाती है … उसके बाद मैं घर में अकेला नहीं रह सकता। रात के तीन बजे … यह भयानक घड़ी है। मैं तो आपको अनुभव से कहता हूँ। दो बजे लगता है, अभी रात है और चार बजे सुबह होने लगती है, लेकिन तीन बजे आपको लगता है कि आप न इधर हैं, न उधर। मुझे हमेशा लगता है कि मृत्यु आने की कोई घड़ी है, तो यही घड़ी है। क्या कहा आपने? नहीं जनाब, मैं बिल्कुल अकेला नहीं रहता। आप जानते हैं, पेंशनयाफ्ता लोगों के अपने शौक होते हैं। मेरे पास एक बिल्ली है बरसों से मेरे पास रह रही है। जब ज़रा देखिए, मैं यहाँ बिअर पीते हुए आपसे लम्बी-चौड़ी बातें कर रहा हूँ उधर वह मेरे इन्तज़ार में दरवाज़े पर बैठी होगी। आपके बारे में मुझे मालूम नहीं, लेकिन मुझे यह ख्याल काफी तसल्ली देता है कि कोई मेरे इन्तज़ार में बाहर सड़क पर आँखें लगाए बैठा है।

 

मैं ऐसे लोगों की कल्पना नहीं कर सकता जिनका इन्तज़ार कोई नहीं कर रहा हो या जो खुद किसी का इन्तज़ार नहीं कर रहे हों। जिस क्षण आप इन्तज़ार करना छोड़ देते हैं, उस क्षण आप जीना भी छोड़ देते हैं। बिल्लियाँ काफी देर तक और बहुत सब्र के साथ इन्तज़ार कर सकती हैं। इस लिहाज़ से वे औरतों की तरह हैं। लेकिन सिर्फ इस लिहाज़ से नहीं औरतों की ही तरह उनमें अपनी तरफ खींचने और आकर्षित करने की असाधारण ताकत रहती है। डर और मोह दोनों ही हम अकेले में उन्हें देखकर बंधे-लुटे-से खड़े रहते हैं। यों डर आपको कुतों या दूसरे जानवरों से भी लगता होगा। लेकिन वह निचले दर्जे का डर है। आप एक ओर किनारा करके चले जाते हैं, कुत्ता दूसरी ओर किनारा करके चला जाता है। उसे डर लगा रहता है कि कहीं आप उस पर बेईमानी न कर बैठे, और आप इसलिए सहमे-से रहते हैं कि कहीं वह आँख बचाकर आप पर न झपट पड़े। लेकिन उस डर में कोई रहस्य, कोई रोमांच, कोई सम्भावना नहीं है … जैसी अक्सर बिल्ली या साँप को देखने से उत्पन्न होती है।

 

सच बात यह है … और यह मैं अनुभव से कह रहा हूँ कि बिल्ली को औरतों की तरह आप आखिर तक सही-सही नहीं पहचान सकते, चाहे आप उसके साथ वर्षों से ही क्यों न रह रहे हों। इसलिए नहीं कि वे खुद जान-बूझकर कोई चीज़ छिपाए रखती हैं, बल्कि खुद आप में ही इतना हौसला नहीं रहता कि आप आखिर तक उनके भीतर लगे दरवाज़ों को खोल सकें। आपको यह बात ज़रा अजीब नहीं लगती कि ज़्यादातर हमें वहीं चीजें अपनी तरफ खींचती हैं, जिनमें थोड़ा-सा आतंक छिपा रहता है … अगर आप बुरा न मानें तो मैं एक और बिअर लूँगा। कुछ देर में यह पब बन्द हो जाएगी और फिर सारे शहर में सुबह तक एक बूंद भी दिखाई नहीं देगी। आप डरिए नहीं … मैं पीने की अपनी सीमा जानता हूँ … आदमी को ज़मीन से करीब डेढ़ इंच ऊपर उठ जाना चाहिए। इससे ज़्यादा नहीं, वरना वह ऊपर उठता जाएगा और फिर इस उड़ान का अन्त होगा पुलिस-स्टेशन में या किसी नाली में … जो ज़्यादा दिलचस्प चीज़ नहीं। लेकिन कुछ लोग डर के मारे ज़मीन पर ही पाँव जमाए रहते हैं … ऐसे लोगों के लिए पीना-न-पीना बराबर है। जी हाँ सही फासला है डेढ़ इंच।

 

इतनी चेतना अवश्य रहनी चाहिए कि आप अपनी चेतना को माचिस की तीली की तरह बुझते हुए देख सकें … जब लौ अँगुलियों के पास सरक आए तो उसे छोड़ देना चाहिए। उससे पहले नहीं। न बाद में ही। कब तक पकड़े रहना और कब छोड़ना चाहिए, पीने का रहस्य इस पहचान में छिपा है। मुश्किल यह है, हम उस समय तक नहीं पहचान पाते, जब तक डेढ़ इंच से ऊपर नहीं उठ जाते … और फिर वह किसी काम नहीं। शायद यह बात सुनकर आप हँसेंगे कि पहचान तभी आती है, जब हम पहचान के परे चले जाते हैं। मुझे बुरा नहीं लगेगा अगर आप हँसकर मेरी बात को टाल दें … मैं खुद कभी-कभी कोशिश करता हूँ कि इस आशा के साथ रहना सीख लूँ कि कई चीज़ों को न जानना ही अपने को सुरक्षित रखने का रास्ता है। आप रफ्ता-रफ्ता इस आशा के साथ रहना सीख लेते हैं … जैसे आप अपनी पत्नी के साथ रहना सीख लेते हैं। एक ही घर में बरसों तक … हालाँकि एक संशय बना रहता है कि वह भी आपका खेल खेल रही है।

 

कभी-कभी आप इस संशय से छुटकारा पाने के लिए दूसरी या तीसरी स्त्री से प्रेम करने लगते हैं। यह निराश होने की शुरुआत है क्योंकि दूसरी स्त्री का अपना रहस्य है और तीसरी स्त्री का अपना। यह शतरंज के खेल की तरह है … आप एक चाल चलते हैं जिससे आपके विरोधी के सामने अन्तहीन सम्भावनाएँ खुल जाती हैं। एक खेल हारने के बाद आप दूसरे खेल में जीतने की आशा करने लगते हैं। आप यह भूल जाते हैं कि दूसरी बाज़ी की अपनी सम्भावनाएँ हैं, पहली बाज़ी की तरह अन्तहीन और रहस्यपूर्ण। देखिए … इसीलिए मैं कहता हूँ कि आप ज़िन्दगी में चाहे कितनी औरतों के सम्पर्क में आएँ, असल में आपका सम्पर्क सिर्फ एक औरत से ही होता है … क्या कहा आपने?

 

जी नहीं, मैं आपको पहले ही कह चुका है, कि घर में मैं अकेला रहता है, अगर आप मेरी बिल्ली को छोड़ दें। जी हॉ … मैं विवाहित हैं … मेरी पत्नी अब जीवित नहीं है … यह मेरा अनुमान है। आप कुछ हैरान-से हो रहे हैं। अनुमान मैं इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि मैंने उसे मरते हुए नहीं देखा। जब आपने किसी को आँखों से मरते नहीं देखा, अपने हाथों से दफनाया नहीं, तो आप सिर्फ अनुमान लगा सकते हैं कि वह जीवित नहीं। आपको शायद हँसी आएगी, लेकिन मुझे लगता है कि जब तक आप खुद अपने परिचित की मरते न देख लें, एक धुंधली-सी आशा बनी रहती है कि वह अभी जीवित है … आप दरवाज़ा खोलेंगे और वह रसोई से भागकर तौलिए से हाथ पोंछती हुई आपके सामने आ खड़ी होगी। बेशक, यह भ्रम है। ऐसा होता नहीं। उसके बजाय अब बिल्ली आती है, जो दरवाज़े के पीछे देहरी पर सिर टिकाए अपनी आँखों का रंग बदलती रहती है। मैंने लोगों से कहते सुना है कि समय बहुत-कुछ सोख लेता है … क्या आप भी ऐसा सोचते हैं? मुझे मालूम नहीं … लेकिन मुझे कभी-कभी लगता है कि वह सोखता उतना नहीं, जितना बुहार देता है — अँधेरे कोनों में, या कालीन के नीचे, ताकि बाहर से किसी को दिखाई न दे। लेकिन उसके पंजे हमेशा बाहर रहते हैं, किसी भी अजानी घड़ी में वे आपको दबोच सकते हैं। शायद मैं भटक रहा हूँ … बिअर पीने का यह एक सुख है।

 

आप रास्ते से भटक जाते हैं और चक्कर लगाते रहते हैं … एक ही दायरे के इर्द-गिर्द राउण्ड एण्ड राउण्ड। आप बच्चों का वह खेल जानते हैं जब वे एक दायरा बनाकर बैठ जाते हैं और सिर्फ एक बच्चा रूमाल लेकर चारों तरफ चक्कर काटता है। आपके देश में भी खेला जाता है? वाह … देखिए न … हम चाहे कितने ही अलग क्यों न हों, बच्चों के खेल हर जगह एक जैसे ही रहते हैं। उन दिनों हम सबकी कुछ वैसी ही हालत थी … क्योंकि हममें से कोई भी नहीं जानता था कि वे कब अचानक किसके पीछे अपना फन्दा छोड़ जाएँगे। हममें से हर आदमी एक भयभीत बच्चे की तरह बार-बार पीछे मुड़कर देख लेता था कि कहीं उसके पीछे तो नहीं है … जी हाँ, इन्हीं दिनों यहाँ जर्मन आए थे। आप तो उस दिनों बहुत छोटे रहे होंगे। मेरी उम्र भी बहुत ज़्यादा नहीं थी और हालाँकि लड़ाई के कारण सुबह से शाम तक काम में जुटना पड़ता था, मैं एक जवान बैल की तरह डटा रहता था।

 

एक उम्र होती है, जब हर आदमी एक औसत सुख के दायरे में रहना सीख लेता है … उसके परे देखने की फुरसत उसके पास नहीं होती, यानी उस क्षण तक महसूस नहीं होती जब तक खुद उसके दायरे में … आपने अक्सर देखा होगा कि जिसे हम सुख कहते हैं वह एक खास लमहे की चीज़ है — यों अपने में बहुत ठोस है, लेकिन उस लमहे के गुज़र जाने के बाद वह बहुत फीका और कुछ-कुछ हैंगओवर-सा धुंधला लगता है। किन्तु जिसे हम दु:ख या तकलीफ या यातना कहते हैं, उसका कोई खास मौका नहीं होता … मेरा मतलब है वह हूबहू दुर्घटना के वक्त महसूस नहीं होती। ऐन दुर्घटना के वक्त हम बदहवास-से हो जाते हैं, हम उससे पैदा होने वाली यातना के लिए कोई बना-बनाया फ्रेम नहीं ढूँढ़ पाते जिसमें हम उसे सही-सही फिट कर सकें। किसी दुर्घटना का होना एक बात है, उसका सही-सही परिणाम अपनी पूरी ज़िन्दगी में भोगना या भोग पाने के काबिल हो सकना — बिल्कुल दूसरी बात। यह असम्भव है … ऐसा होता नहीं। मेरा मतलब है … अपने को बार-बार दूसरे की स्थिति में रखकर उतने ही कष्ट की कल्पना करना, जितना दूसरे ने भोगा था। वह कुछ कम होगा, या कुछ ज़्यादा … लेकिन उतना नहीं और वैसा नहीं, जितना दूसरे ने भोगा था। नहीं … नहीं … आप गलत न समझें। मैंने अपनी पत्नी को कष्ट भोगते नहीं देखा।

 

मैं जब घर पहुँचा, वे उसे ले जा चुके थे। सात बरस की विवाहित ज़िन्दगी में यह पहला मौका था जब मैं खाली घर में घुसा था। बिल्ली? नहीं, उन दिनों वह मेरे पास नहीं थी। मैंने उसे काफी वर्षों बाद पालना शुरू किया था। दूसरे घरों के पड़ोसी ज़रूर अपनी अपनी खिड़कियों से झाँकते हुए मुझे देख रहे थे। यह स्वाभाविक भी था। मैं खुद ऐसे लोगों को खिड़की से झाँककर देखा करता था, जिनके रिश्तेदारों को गेस्टापो-पुलिस पकड़कर बन्द गाड़ी में ले जाती थी। लेकिन मैंने यह कभी कल्पना भी न की थी कि एक दिन मैं घर लौटूंगा और मेरी पत्नी का कमरा खाली पड़ा होगा। देखिए … मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ क्या यह अजीब बात नहीं है कि जब हम कभी मौत, यातना या दुर्घटना की बात सुनते हैं या सुबह अखबार में पढ़ते हैं, तो हमें यह विचार कभी नहीं आता कि ये चीजें हम पर हो सकती हैं या हो सकती थीं … नहीं, हमें हमेशा लगता है कि ये दूसरों के लिए हैं … अहा … मुझे खुशी है कि आप एक बिअर ले रहे हैं। आखिर आप खाली गिलास के सामने सारी रात नहीं बैठ सकते … क्या कहा आपने? मैं जानता था, आप यह सवाल ज़रूर पूछेगे। अगर आप न पूछते तो कुछ आश्चर्य होता।

 

नहीं, जनाब … शुरू में मैं खुद कुछ नहीं समझ सका। मैंने आपसे कहा था न, कि ऐसी दुर्घटना के वक्त आदमी बदहवास-सा हो जाता है। वह ठीक-ठीक अपनी यातना का अनुमान भी नहीं लगा सकता। मेरी पत्नी की चीजें चारों तरफ बिखरी पड़ी थीं … कपड़े, किताबें, मुद्दत पुराने अखबार। अलमारियों और मेज़ों के दराज़ खुले पड़े थे और उनके भीतर की हर छोटी-बड़ी चीज़ फर्श पर उलटी-सीधी पड़ी थी। क्रिसमस के उपहार, सिलाई की मशीन, पुराने फोटो-एल्बम, आप जानते हैं, शादी के बाद कितनी चीजें खुद-ब-खुद इकट्ठा होती जाती हैं। लगता था, उन्होंने हर छोटी-से-छोटी चीज़ को उलट-पलटकर देखा था, कोने-कोने की तलाशी ली थी … कोई चीज़ ऐसी नहीं थी, जो उनके हाथों से बची रह गई हो। उस रात मैं अपने कमरे में बैठा रहा। मेरी पत्नी का बिस्तर खाली पड़ा था। तकिए के नीचे उसका रूमाल, माचिस और सिगरेट का पैकेट रखा था। सोने से पहले वह हमेशा सिगरेट पिया करती थी। शुरू में मुझे उसकी यह आदत अखरती थी, लेकिन धीरे-धीरे मैं उसका आदी हो गया था।

 

पलंग के पास तिपाई पर उसकी किताब रखी थी, जिसे वह उन दिनों पढ़ा करती थी … जिस पन्ने को उसने पिछली रात पढ़कर छोड़ दिया था, वहाँ निशानी के लिए उसने अपना क्लिप दबा लिया था। क्लिप पर उसके बालों की गन्ध जड़ी थी … आप जानते हैं, किस तरह बरसों बाद भी हमें छोटी-छोटी तफ़सीलें याद रह जाती हैं। यह शायद ठीक भी है। विवाह से पहले हम हमेशा बड़ी और अनुभूतिपूर्ण चीज़ों के बारे में सोचते हैं, लेकिन विवाह के बाद अरसा साथ रहने के कारण ये बड़ी चीजें हाथ से फिसल जाती हैं, सिर्फ कुछ छोटी-मोटी आदतें, ऊपर से सतही दिखने वाली दिनचर्याएं, रोज़मर्रा के आपसी भेद बचे रह जाते हैं जिन्हें हम शर्म के कारण दूसरों से कभी नहीं कहते, किन्तु जिनके बिना हर चीज़ सूनी-सी जान पड़ती है। उस रात मैं अकेले कमरे में अपनी पत्नी की चीज़ों के बीच बैठा रहा … उस घड़ी शायद मैं अपने में नहीं था। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। वह अपने कमरे में नहीं थी … यह महज़ एक हकीकत थी। मैं उसे समझ सकता था। किन्तु वे उसे पकड़कर क्यों ले गए थे, यह भयानक भेद मेरी पकड़ के बाहर था।

 

आखिर मेरी पत्नी ही क्यों? मैं उस रात बार-बार अपने से यह प्रश्न पूछता रहा। आपको तनिक आश्चर्य होगा कि सात वर्षों की वैवाहिक ज़िन्दगी में पहली बार मुझे अपनी पत्नी पर सन्देह हुआ था … मानो उसने कोई चीज़ मुझसे छिपाकर रखी हो, कोई ऐसी चीज़ जिसका मुझसे कोई सरोकार नहीं था। बाद में मुझे पता चला कि गेस्टापो-पुलिस बहुत दिनों से उसकी ताक में थी। उसके पास कुछ गैर-कानूनी पैम्फ्लेट और पर्चियाँ पाई गई थीं जो उन दिनों अज्ञात रूप से लोगों में बाँटी जाती थीं, जर्मन अधिकारियों की आँखों में यह सबसे संगीन अपराध था। पुलिस ने ये सब चीजें खुद मेरी पत्नी के कमरे से बरामद की थीं … और आपको शायद यह बात काफ़ी दिलचस्प जान पड़ेगी कि खुद मुझे उनके बारे में कुछ मालूम नहीं था। उस रात से पहले तक मैं और वह एक ही कमरे में सोते थे, प्रेम करते थे … और इसी कमरे में कुछ ऐसी चीजें थीं जो उसका रहस्य थीं, जिसमें मेरा कोई साझा नहीं था। क्या आपको यह बात दिलचस्प नहीं लगती कि वे मेरी पत्नी को मुझसे कहीं अधिक अच्छी तरह जानते थे? ज़रा ठहरिए … मैं अपना गिलास खत्म कर लेता हूँ, मैं फिर आपका साथ दूंगा। कुछ देर बाद वे बन्द कर देंगे और फिर नहीं, इतनी जल्दी नहीं है। पीने का लुत्फ इत्मीनान से पीने में है। हमारी भाषा में एक कहावत है … हमें जी भरकर पीना चाहिए, क्योंकि सौ बरस बाद हम इस दुनिया में नहीं होंगे। सौ बरस … यह काफी लम्बा अरसा है, आप नहीं सोचते? हममें से कोई भी इतने अरसे तक ज़िन्दा रह सकेगा, मुझे शक है। आदमी जीता है … खाता है … पीता है और एक दिन अचानक फट ! नहीं जनाब, भयानक चीज़ मरना नहीं है। लाखों लोग रोज़ मरते हैं और आप चूं भी नहीं करते।

 

भयानक चीज़ यह है कि मृत आदमी अपना भेद हमेशा के लिए अपने साथ ले जाता है और हम उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। एक तरह से वह हमसे मुक्त हो जाता है। उस रात मैं अपने घर के एक कमरे से दूसरे कमरे में चक्कर लगाता रहा … आपको शायद हँसी आएगी कि पुलिस के बाद मैं दूसरा आदमी था जिसने अपनी पत्नी की चीज़ों की दुबारा तलाशी ली थी … एक-एक चीज़ को उलट- पलटकर पूरी गहराई से उन्हें देखा-परखा था। मुसे विश्वास नहीं हो रहा था कि अपने पीछे वह मेरे लिए एक भी ऐसा निशान नहीं छोड़ जाएगी, जिसके सहारे मैं कोई ऐसी चीज़ पा सकू जिसमें मेरा भी साझा रहा था। उसके विवाह की पोशाक, ड्रेसिंग-टेबुल के दराज़ में रखे कुछ पत्र, जो विवाह से पहले मैंने उसे लिखे थे, कुछ पंख और पत्थर, जिन्हें वह जमा किया करती थी .. ज़रा देखिए, सात वर्ष की विवाहित ज़िन्दगी के बाद मैं उस रात अपनी पत्नी की चीज़ों को कुछ इस तरह टटोल रहा था जैसे मैं उसका पति न होकर भेदिया, पुलिस का कोई पेशेवर नौकर हूँ … मुझे रह-रहकर विश्वास नहीं हो पा रहा था कि अब मैं उससे कुछ नहीं पूछ सकूँगा। वह उनके हाथों से बच नहीं सकेगी, यह मैं जानता था।

वे जिन लोगों को पकड़कर ले जाते थे, उनमें से मैंने एक को भी वापस लौटते नहीं देखा था। लेकिन उस रात मुझे इस चीज़ ने इतना भयभीत नहीं किया कि मृत्यु उसके बहुत नज़दीक है, जितना इस चीज़ ने कि मैं कभी उसके बारे में पूरा सत्य नहीं जान सकूँगा। मृत्यु हमेशा के लिए उसके भेद पर ताला लगा देगी और वह अपने पीछे एक भी ऐसा सुराग नहीं छोड़ जाएगी जिसकी मदद से मैं उस ताले को खोल सकूँगा। दूसरे दिन रात के समय उन्होंने मेरा दरवाज़ा खटखटाया। मैं तैयार होकर उनकी प्रतीक्षा में बैठा था। मुझे मालूम था, वे आएंगे। अगर मेरी पत्नी उनके सामने सब कुछ कबूल कर लेती, तो शायद उन्हें मेरी ज़रूरत न पड़ती। किन्तु मुझे मालूम था कि मेरी पत्नी अपने मुँह से एक भी शब्द नहीं निकालेगी। मैं उसके रहस्य से अपरिचित रहा है, उसकी आदतों से अच्छी तरह वाकिफ़ था। वह चुप रहना जानती थी … चाहे यातना कितनी ही भयंकर क्यों न हो। नहीं जनाब, मैंने अपनी आँखों से उसकी यातना को नहीं देखा, किन्तु मैं थोड़ा-बहुत अनुमान लगा सकता हूँ।

 

पहला प्रश्न उन्होंने मुझसे जो पूछा, वह बिल्कुल साफ था — क्या मैं श्रीमती … का पति हूँ? मैं सिर्फ उनके इस प्रश्न का उत्तर हाँ, में दे सका। बाकी प्रश्न मेरी समझ के बाहर थे। किन्तु वे मुझे आसानी से छोड़ने वाले नहीं थे। उन्होंने मेरी इस बात को हँसी में उड़ा दिया। जब मैंने उन्हें बताया कि मैं अपनी पत्नी की इन कार्यवाहियों के बारे में कुछ भी नहीं जानता, उन्होंने सोचा, मैं अपनी खाल बचाने के लिए कन्नी काट रहा हूँ। वे मुझे एक अलग सेल में ले गए। पूरे हफ्ते-भर दिन-रात वे मुझे सिर्फ एक ही तरह के सवाल अलग-अलग ढंग से पूछते थे … मैं अपनी पत्नी के बारे में क्या कुछ जानता हूँ? वह कहाँ जाती थी? किन लोगों से मिलती थी? किस आदमी ने उसे लीफलेट दिए थे। मुझसे किसी तरह का भी उत्तर खींचने के लिए वे जो तरीके अपनाते थे, उनके बारे में मैं आपको कुछ भी नहीं बता सकता। मैं चाहे कितनी तफ़सील के साथ आपको क्यों न बताऊँ, आप उसका रत्ती भर भी अनुमान नहीं लगा सकेंगे … वे मुझे उस समय तक पीटते थे, जब तक मैं चेतना नहीं खो देता था। किन्तु उनमें असीम धैर्य था … वे उस समय तक प्रतीक्षा करते थे जब तक मेरी चेतना वापस नहीं लौट आती थी और फिर वही सिलसिला शुरू हो जाता था। वही पुराने सवाल और अन्तहीन यातना।

 

उन्हें मुझपर विश्वास नहीं होता था कि मैं जो अपनी पत्नी के साथ अनेक वर्षों तक एक ही घर में रहा हूँ — उसकी गुप्त कार्यवाहियों के बारे में कुछ नहीं जानता। वे समझते थे कि मैं उन्हें बेवकूफ बना रहा हूँ, उनकी आँखों में धूल झोंकने की कोशिश कर रहा हूँ। नहीं जनाब, वे मुझे पीटते थे, मुझे इसकी यातना नहीं थी, मेरी यातना यह थी कि उनके प्रश्नों का जवाब देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं था। कहने के लिए मेरे पास कुछ अतिसाधारण घरेलू बातें थीं, जो शायद हर स्त्री अपने पति के साथ करती है। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि रोज़मर्रा दैनिक ज़िन्दगी के साथ-साथ वह एक दूसरी ज़िन्दगी जी रही थी … मुझसे अलग, मुझसे बाहर, मुझसे अछूती — एक ऐसी ज़िन्दगी जिसका मुझसे कोई वास्ता नहीं था। आपको यह बात कुछ हास्यास्पद-सी नहीं लगती कि … अगर वे उसे न पकड़ते, तो मैं ज़िन्दगी-भर यह समझता कि मेरी पत्नी वही है, जिसे मैं जानता हूँ।

आप जानते हैं, वे लड़ाई के अन्तिम दिन थे और गेस्टापो अपने शिकार को जल्दी हाथ से नहीं जाने देते थे … मेरी पत्नी ने आखिर तक कुछ भी कबूल नहीं किया। उन्होंने उससे उम्मीद छोड़ दी थी। लेकिन मुझे वे कच्चा समझते थे। वे शायद मुझे मारना नहीं चाहते थे, लेकिन मृत्यु से कम आदमी को जितना अधिक कष्ट दिया जा सकता था, उसमें उन्होंने कोई कसर नहीं उठा रखी थी। मुझे वे उसी समय छोड़ते थे, जब वे खुद थक जाते थे, या जब मैं बेहोश हो जाता था। मैंने कुछ भी कबूल नहीं किया — यह मेरा साहस नहीं था — सच बात यही थी कि मेरे पास कबूल करने के लिए कुछ भी नहीं था। आप जानते हैं, पहली रात जब मैंने अपनी पत्नी को कमरे में नहीं पाया था, तो मुझे काफी खेद हुआ था। मुझे लगा था कि उसने मुझे अँधेरे में रखकर छलना की है। बार-बार यह ख्याल मुझे कोंचता था कि स्वयं मेरी पत्नी ने मुझे अपना विश्वासपात्र बनाना उचित नहीं समझा। लेकिन बाद में गेस्टापो के सामने पीड़ा और कष्ट के असह्य क्षणों से गुज़रते हुए — मैं उसके प्रति कृतज्ञ-सा हो जाता था कि उसने मुझसे कुछ नहीं कहा। उसने एक तरह से मुझे बचा लिया था।

मैं आज भी इस बात का निर्णय नहीं कर सका हूँ कि अगर मुझे अपनी पत्नी का भेद मालूम होता तो क्या मैं चुप रहने का हौसला बटोर सकता था? ज़रा सोचिए, मेरी यन्त्रणा कितनी अधिक बढ़ जाती अगर मेरे सामने कबूल करने का रास्ता खुला होता ! आप मज़बूरी में बड़ी-से-बड़ी यातना सह सकते हैं, लेकिन अगर आपको मालूम हो कि आप किसी भी क्षण उस यातना से छुटकारा पा सकते हैं, चाहे उसके लिए आपकी अपनी पत्नी, अपने पिता, अपने भाई के साथ ही विश्वासघात क्यों न करना पड़े … तब आप यातना की एक सीमा के बाद वह रास्ता नहीं चुन लेंगे, इसके बारे में कुछ भी कहना असम्भव है। चुनने की खुली छूट से बड़ी पीड़ा कोई दूसरी नहीं। मुझे कभी-कभी लगता है कि निर्णय की इस यातना से मुझे बचाने के लिए ही मेरी पत्नी ने अपना रहस्य कभी मुझे नहीं बताया। देखिए … अक्सर कहा जाता है कि प्रेम में किसी तरह का दुराव-छिपाव नहीं होता, वह आईने की तरह साफ होता है।

मैं सोचता हूँ इससे बढ़कर भ्रान्ति कोई दूसरी नहीं। प्रेम करने का अर्थ अपने को खोलना ही नहीं है, बहुत-कुछ अपने को छिपाना भी है ताकि दूसरे को हम अपने निजी खतरों से मुक्त रख सकें … हर स्त्री इस बात को समझती है और चूंकि वह पुरुष से कहीं अधिक प्रेम करने की क्षमता रखती है, उसमें अपने को छिपाने का भी साहस होता है। आप ऐसा नहीं सोचते? सम्भव है, मैं गलत हूँ … लेकिन जब रात को मुझे नींद नहीं आती तो अक्सर मुझे यह सोचकर हल्की-सी तसल्ली मिलती है कि … छोड़िए, मैं समझा नहीं सकता। जब मैंने आपको अपनी मेज़ पर बुलाया था तो इस आशा से नहीं कि मैं आपको कुछ समझा सकूँगा। क्या कहा आपने? नहीं जनाब … उसके बाद मैंने अपनी पत्नी को दुबारा नहीं देखा। एक दुपहर जब मैं घर लौट रहा था, मेरी निगाहें उस पोस्टर पर जा पड़ी थीं।

 

उन दिनों अक्सर वे पोस्टर तीसरे-चौथे दिन शहर की दीवारों पर चिपका दिए जाते थे … हर पोस्टर पर तीस-चालीस नाम होते थे जिन्हें पिछली रात गोली से मार दिया गया था … जब मेरी निगाह अपनी पत्नी के नाम पर पड़ी तो मझे कुछ क्षणों तक यह काफी विचित्र-सा लगता रहा कि उस छोटे-से नाम के पीछे मेरी पत्नी का चेहरा हो सकता है … मैंने आपसे कहा न, कि जब तक आप अपनी आँखों से किसी को मरते न देख लें, आपको विश्वास नहीं होता कि वह जीवित नहीं है … एक धुंधली- सी आशा बनी रहती है कि आप दरवाज़ा खोलेंगे … लेकिन देखिए, मैं अपनी बातें दुहराने लगा हूँ। बिअर पीने का यह सुख है कि आप एक ही दायरे के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते रहते हैं … राउण्ड एण्ड राउण्ड एण्ड राउण्ड। आप जा रहे हैं? ज़रा ठहरिए … मैं सलामी के कुछ टुकड़े अपनी बिल्ली के लिए खरीद लेता हूँ … बेचारी इस समय तक भूखी-प्यासी मेरे इन्तज़ार में बैठी होगी। नहीं … नहीं … आपको मेरे साथ आने की ज़रूरत नहीं है। मेरा घर ज़्यादा दूर नहीं है और मैं पीने की अपनी सीमा जानता हूँ। मैंने आपसे कहा था न … सिर्फ डेढ़ इंच ऊपर।

 

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काकी का करवाचौथ https://www.atootbandhann.com/2023/02/karvachauth-kaki-ka-hindi-blog-post8.html https://www.atootbandhann.com/2023/02/karvachauth-kaki-ka-hindi-blog-post8.html#comments Tue, 07 Feb 2023 07:35:00 +0000 https://www.atootbandhann.com/2017/10/08/karvachauth-kaki-ka-hindi-blog-post8/ हमेशा की तरह करवाचौथ से एक दिन पहले काकी करवाचौथ का सारा सामान ले आयीं| वो रंग बिरंगे करवे, चूड़ी, बिंदी …सब कुछ लायी थीं और हमेशा की तरह सबको हुलस –हुलस कर दे रही थी | मुझे देते हुए बोलीं, “ये लो दिव्या तुम्हारे करवे, अच्छे से पूजा करना, तुम्हारी और दीपेश की जोड़ी […]

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हमेशा की तरह करवाचौथ से एक दिन पहले काकी करवाचौथ का सारा सामान ले आयीं| वो रंग बिरंगे करवे, चूड़ी, बिंदी …सब कुछ लायी थीं और हमेशा की तरह सबको हुलस हुलस कर दे रही थी |

मुझे देते हुए बोलीं, “ये लो दिव्या तुम्हारे करवे, अच्छे से पूजा करना, तुम्हारी और दीपेश की जोड़ी बनी रहे|”

मैंने उनके पैर छू  कर करवे ले लिए| तभी मेरा ध्यान बाकी बचे सामान पर गया| सामान तो खत्म हो गया था| मैंने काकी की ओर आश्चर्य से देख कर पूछा, “काकी, और आपके करवे ?”

इस बार से मैं करवाचौथ नहीं रहूँगी”, काकी ने द्रणता से कहा|

मैं अवाक सी उनकी ओर देखती रह गयी| मुझे इस तरह घूरते देख कर मेरे मन में उठ रहे प्रश्नों के ज्वार को काकी समझ गयीं| वो मुस्कुरा कर बोलीं, नीत्से ने कहा है, आशा बहुत खतरनाक होती है| वो हमारी पीड़ा को कम होने ही नहीं देती|” 

काकी की घोर धार्मिक किताबों के अध्यन से चाणक्य और फिर नीत्से तक की यात्रा की मैं साक्षी रही हूँ| तभी अम्मा का स्वर गूँजा, “नीत्से, अब ये मुआ नीत्से कौन है जो हमारे घर के मामलों में बोलने लगा |” मैं, काकी, अम्मा और नीत्सेको वहीँ छोड़ कर अपने कमरे में चली आई |

मन बहुत  भारी था| कभी लगता था जी भर के रोऊँ उस क्रूर मजाक पर जो काकी के साथ हुआ, तो कभी लगता था जी भर के हँसू क्योंकि काकी के इस फैसले से एक नए इतिहास की शुरुआत जो होनी थी| एक दर्द का अंत, एक नयी रीत का आगाज़| विडम्बना है कि दुःख से बचने के लिए चाहें हम झूठ के कितने ही घेरे अपने चारों  ओर पहन लें पर इससे मुक्ति तभी मिलती है जब हममें  सच को स्वीकार कर उससे टकराने की हिम्मत आ जाती है| मन की उहापोह में मैं खिड़की के पास  बैठ गयी| बाहर चाँद दिखाई दे रहा था| शुभ्र, धवल, निर्मल| तभी दीपेश आ गए | मेरे गले में बाहें डाल कर बोले, “देखो तो आज चाँद कितनी जल्दी निकल आया है, पर कल करवाचौथ के दिन बहुत सताएगा| कल सब इंतज़ार जो करेंगे इसका|”मैं दीपेश की तरफ देख कर मुस्कुरा दी| सच इंतज़ार का एक एक पल एक एक घंटे की तरह लगता है| फिर भी चाँद के निकलने का विश्वास तो होता है| अगर यह विश्वास भी साथ न हो तो इस अंतहीन इंतज़ार की विवशता वही समझ सकता है जिसने इसे भोगा हो |

मन अतीत की ट्रेन में सवार हो गया और तेजी से पीछे की ओर दौड़ने लग गया …छुक छुक, छुक- छुक| आज से 6  साल पहले जब मैं बहू बन कर इस घर में आई थी| तब अम्मा के बाद काकी के ही पैर छुए थे| अम्मा  ने तो बस खुश रहो”  कहा था, पर  काकी ने सर पर हाथ फेरते हुए आशीर्वादों की झड़ी लगा दी| सदा खुश रहो, जोड़ी बनी रहे, सारी जिंदगी एक दूसरे से प्रेम-प्रीत में डूबे रहो, दूधों नहाओ-पूतों फलों, और भी ना जाने क्या-क्या ….सुहाग, प्रेम और सदा साथ के इतने सारे भाव भरे आशीर्वाद|

यूँ तो मन आशीर्वादों की झड़ी से स्नेह और और आदर से भीग गया पर टीचर हूँ, लिहाजा दिमाग का इतने अलग उत्तर पर ध्यान जाना तो स्वाभाविक था|कौन है ये के प्रश्न मन में कुलबुलाने लगे l तभी किसी के शब्द मेरे कानों में पड़े अभी नयी -नयी आई है, इसको काकी के पैर क्यों छुआ दिए| कुछ तो शगुन-अपशगुन का ध्यान रखो |” मेरी जिज्ञासा और बढ़ गयी|  

मौका मिलते ही छोटी ननद से पूछा, “ये काकी बहुत प्रेममयी हैं क्या? इतने सारे आशीर्वाद दे दिए |”

ननद मुँह बिचका कर बोली  “तुम्हें नहीं, खुद को आशीर्वाद दे रही होंगी या कहो भड़ास निकाल रही होंगी | काका तो शादी की पहली रात के बाद ही उन्हें छोड़ कर चले गए | तब से जाने क्या क्या चोंचले करती हैं,लाइम लाईट में आने को |”

शादी का घर था| काकी सारा काम अपने सर पर लादे इधर-उधर दौड़ रहीं थी| और घर की औरतें बैठे-बैठे चौपाल लगाने में व्यस्त थीं | उनकी बातों  का एक ही मुद्दा था काकी पुराण” | नयी बहु होने के कारण उनके बीच बैठना और उनकी बातें सुनना मेरीविवशता थी | काकी को काका ने पहली रात के बाद ही छोड़ दिया था,यह तो मुझे पता था पर इन लोगों की  बातों से मुझे ये भी पता चला कि भले ही काकी हमारे साथ रहती हो पर परिवार-खानदान  में किसी के बच्चा हो, शादी हो, गमी हो काकी बुलाई जाती हैं | काम करने के लिए | काकी पूरी जिम्मेदारी से काम संभालती | काम कराने वाले अधिकार से काम लेते पर उन्हें इस काम का सम्मान नहीं मिलता था | हवा में यही जुमले उछलते … कुछ तो कमी रही होगी देह में, तभी तो काका ने पहली रात के बाद ही घर छोड़ दिया | चंट है, बताती नहीं है | हमारे घर का लड़का सन्यासी हो गया | काम कर के कोई अहसान नहीं करती है | खा तो  इसी घर का रही है, फिर अपने पाप को घर का काम कर कर के कम करना ही पड़ेगा |

एक औरत जो न विधवा थी न सुहागन, विवश थी सब सुनने को सब सहने को |

मेरा मन काकी की तरफ खिचने लगा | मेरी और उनकी अच्छी दोस्ती हो गयी | वे उम्र में मुझसे 14-15 साल बड़ी थीं | पर उम्र हमारी दोस्ती में कभी बाधा नहीं आई | मैं काकी का दुःख बांटना चाहती  थी | पर वो तो अपने दुःख पर एकाधिकार जमाये बैठी थीं | मजाल है कभी किसी एक शब्द ने भी मुँह की देहरी को लांघा हो l पर बूंद-बूंद भरता उनके दर्द का घड़ा साल में एक बार फूटता, करवाचौथ के दिन | जब वो चलनी से चाँद को देख उदास सी हो थाली में चलनी  वापस रख देतीं | फिर जब वो हम सब को अपने अपने पतियों के साथ पूजा करते देखतीं तब उनका दर्द पिघल कर आँखों के रास्ते बह निकलता |

अकसर वो हमें वहीं छोड़ पल्लू से मुँह दबा सिसकी भरते हुए सीढ़ियाँ उतरती l

अम्मा  हमेशा कहा करतीं, “अपशगुन करती है, उसके सामने पूजा न किया करो, नज़र लग जायेगी | अपने बारे में सोचती है, बबुआ के बारे में नहीं | कितना खुशमिजाज़ था | शेर शायरी का कितना शौक था | ऐसे कैसे सन्यासी हो गया कुछ तो कमी रही होगी इसमें | जाने क्या हुआ …. बेचारा कुछ कह न सका | बस चिट्ठी छोड़ गया, “मैं संन्यास लेना चाहता था | मेरी शादी की इच्छा नहीं थी | आप लोगों ने जबरदस्ती करा दी | मैं जा रहा हूँ | मैं अपना और इसका जीवन बर्बाद नहीं कर सकता l” ना जाने कहा चला गया… पता नहीं है भी या… ” कह कर अम्मा रोने लगतीं  | 

मुझे काकी पर दया आने लगती | काका ने तो अपनी इच्छा से सन्यास ले लिया पर काकी का संन्यास, अवांछित संन्यास उसके बारे में कोई क्यों नहीं सोचता है| उनका जीवन तो बर्बाद  हो गया| एक बार मैंने ही हिम्मत करके काकी से पूछा था | पर वो, “ये किताब दिखाना जरा, जो कल दी थी, बहुत ही अच्छी है” कहकर बात को टाल  गयीं |

घर के कामों के अलावा काकी का जीवन व्रत पूजा और उपवास के नाम समर्पित हो गया l वो कितने व्रत करती थीं | कितनी मालायें  जपती थी, तपती धूप  में नंगे पैर मंदिर की परिक्रमायें करती थीं कितनी मनौती माँगती थी कि काका घर लौट आयें | मैं सोचती की काकी का प्रयास व्यर्थ है वो धार्मिक से ज्यादा धर्मभीरु होती जा रही हैं  | बात-बात पर उनके शब्द होते, “ऐसा न करो,वैसा न करो,  इससे भगवान् नाराज़ हो जायेंगे | देखो सह लो पर करनी ना बिगड़े,अरे  एक जन्म में पिछले सात जन्मों की करनी का फल मिलता है l अपने लिए भी तो यही विश्वास था उनका, “बिगड़ी होगी कोई करनी किसी जन्म में अब हिसाब तो चुकाना पड़ेगा l “

मैं उन्हें समझाती ईश्वर कभी इन बातों से नाराज़ नहीं होते | पर चिकने घड़े पर पड़े पानी की तरह हर बात फिसल जाती,  उनपर कोई असर ही नहीं होता था l आखिरकार उनका मन मजबूत करने के लिए मैंने काकी की किताबों से दोस्ती करा दी | शुरू-शरू में तो वो सिर्फ मेरा मन रखने के लिए पढ़तीं l दस बार पूछने पर पता चलता, “अभी दो ही पन्ने पढ़ें हैं l” मेरी नाराजगी दिखाने पर मनाना भी खूब जानती, “अरे मेरी दिव्या रानी, रूठो ना आज पक्का पढ़ लूँगी l” शुरुआत भले ही बेमन से हुई हो  पर बाद में उनका मन किताबों में रमने लगा | हर किताब के बाद हमारी चर्चाएँ बढ़ती और उनकी समझ का दायरा l 

वो धर्मभीरुता से धर्म और फिर आध्यात्म की ओर मुड़ी | स्त्री और पुरुष से परे आत्म तत्व का बोध हुआ l  मालाएँ कम होने लगीं जीवन दर्शन स्पष्ट होने लगा | उनके व्यक्तित्व में एक स्थायित्व आने लगा | अंतस का बदलाव बाह्य  पर प्रतिबिंबित होने लगा l पलों की सुइयों के पीछे दौड़ती मिनट और घंटों की सुइयों के बीच दौड़ती काकी  के कुछ पल मुस्कुराने के लिए मुकरर होने लगे l धीरे से जीवन उनके जीवन में दस्तक देने लगा l  पिछले करवाचौथ को तो वो रोई भी नहीं थीं | और इस बार ये ऐलान! ज्ञान सच को स्वीकारने का साहस देता है | झूठ कितना भी मीठा हो पर है तो अस्तित्वहीन |

अब सोओगी नहीं क्या ?” दीपेश के प्रश्न से मेरी तन्द्रा टूटी |

दूसरे दिन व्रत था | हम सब पूजा की तैयारी में व्यस्त थे | और काकी अपना कमरा ठीक करने में | सब फर्नीचर इधरउधर कर रहीं थीं पलंग खसका कर खिड़की के पास कर दिया | अब सूरज की रोशिनी सीधे उनकी आँखों पर सुबह सुबह नृत्य करेगी | वही रोशिनी जिससे वे बेहद चिढती थीं | अँधेरे उन्हें भाते जो थे |

अम्मा  बडबडाये जा रहीं थी, “ इस बार करवाचौथ की तैयारी में भी नहीं आ रही हैं | साल भरे का त्यौहार है | अपशगुनी कहीं की, निर्लज्ज, पति को तो सन्यासी बनवा दिया | कम से कम उसकी उम्र की तो फिर्क कर | जाने आज क्या बदल देगी |” इस बार मैं अपने को रोक नहीं पायी और बोल ही पड़ी, “हाँ ,अम्मा बदल तो रहा है कुछ पर हर बदलाव बुरे के लिए नहीं होता |”

शाम को काकी भी तैयार हुई | पर पूजा के लिए नहीं | भारी कामदार साड़ी  की जगह सूती कलफ लगी साड़ी  खनखनाती चूड़ियों के स्थान पर दो कड़े व् दूसरे हाथ में घड़ी |माथे पर बड़ी लाल बिंदी  की जगह छोटी सी मैचिंग बिंदी | हमेशा की तरह,पूजा के समय आयीं भी नहीं | पूजा के बाद सबके साथ छत से  उतर कर जैसे ही मैंउनके पाँव छूने  झुकी, अम्मा बोल पड़ीं,  “ अरे उस अपशगुनी के पैर न छुओ | देखो करवाचौथ के दिन भी क्या भेष बनाया है | हमारे बबुआ …” 

“अम्मा अब बस भी करो” मैंने अम्मा की बात बीच में काटते हुए कहा | काकी जो सब सुन रहीं थी कहने लगी, “बोलने दो दिव्या, बोलने दो, अब मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता | बल्कि आज जो मैं बताउंगी उससे आप सब को फर्क पड़ेगा | खाना  खा के आप सब बैठक में आ जाइएगा |” काकी की बात सुन कर हम सब सकते में आ गए | करवाचौथ पर इतनी जल्दी खाना शायद ही हमने कभी खाया हो | आधे  घंटे में हम सब बैठक में हाज़िर थे |

काकी टी. वी. पर कौन बनेगा करोंड़पतिदेख रहीं थी | हम सब को देख वॉल्यूम कम कर बैठने का इशारा किया | हमारे बैठते ही उन्होंने धीरे-धीरे कहना शुरू किया , “जब से मैं इस परिवार में आई हूँ | ताने उलाहने और उपेक्षा के अलावा मुझे कुछ नहीं मिला | मैंने सब सहन किया | इस इंतज़ार में की शायद मेरे पति वापस लौट आयें | जिससे मेरे ऊपर लगे सारे दाग धुल जाए | उसके  आलावा मैं कैसे सिद्ध करती खुद को | इंतजार…  इंतजार…. इंतजार, प्रतीक्षा या परीक्षा जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी l 

 ऊपर से बचपन से सुना था की पूजा व्रत उपवास सारी परिस्तिथियाँ बदल देते हैं | मैं न जाने कितने व्रत करती गयी की मेरे पति वापस आ जायें | हर करवाचौथ पर मेरे सब्र का बाँध टूट जाता | जब मेरा मन खुद से प्रश्न करता …मैं क्या हूँ ? कुँवारी, सुहागन या विधवा | मैं नहीं जानती थी की कई बार नसीब हमारा साथ इसलिए नहीं देता क्योंकि ईश्वर ने हमारे लिए कोई और भूमिका सोच रखी होती  है,पर ईश्वर के इस वरदान का दरवाजा  खुद खोलना होता है | हम अज्ञानता वश उसी लकीर पर चलते हैं और दुःख ढोते रहते हैं |”

“पर हमारा बबुआ … “ अम्मा कुछ कहतीं इस से पहले ही काकी ने उन्हें हाथ से चुप रहने का इशारा किया |

 

उन्होंने आगे बोलना शुरू किया | उनका एक एक स्वर शांत संयत और बहुत गहराई लिए हुए था , “अम्मा आपके बबुआ और मेरे पति ने संन्यास नहीं लिया  है शादी की रात आप के बबुआ मेरे सामने गिडगिडाने लगे | नेहा,मैं तुसे प्यार नहीं करता | मैं सुधा से प्यार करता हूँ | मेरा बच्चा सुधा के पेट में पल रहा है | मैं शादी नहीं करना चाहता था | पर पिताजी की मृत्यु के बाद परिस्तिथियाँ कुछ ऐसी बनीं की मैं अम्मा का दिल नहीं तोड़ सका | मैंने शादी को हाँ कह दिया | पर इससे बचने के उपाय खोजता रहा | समय बीतता गया, मैं रिश्तों की कशमकश में सच और झूठ के बीच किसी मछली की तरह निरुपाय छटपटाता रहा और… शादी भी हो गई l

दिल से मैं जानता हूँ की ये मेरा दोष है | मैंने सही  फैसला लेने में देर कर दी | मन स्वीकार नहीं कर पा रहा है l फिर भी अगर आज मैं तुम्हें नहीं छोडूगा तो चार जिंदगियां बर्बाद हो जायेंगी | सुधा आत्महत्या कर लेगी | मैं तुम्हें कभी प्रेम कर नहीं पाऊंगा | साथ रहते हुए भी हम अजनबी ही रहेंगे | इसलिए मैं जा रहा हूँ सुधा के पास | हम चेन्नई में रहेंगे | मैंने सब व्यवस्था कर ली है | मैं चिट्ठी लिख दूँगा की मैं संन्यास ले रहा हूँ | ऐसा मैं इसलिए लिख रहा हूँ ताकि परिवार के लोग मुझे खोजने न आये | नहीं तो वो मुझे खोज कर भावनात्मक दवाब बना कर फिर से तुम्हारे साथ बाँध देंगे | और सब कुछ गलत हो जाएगा |” 

मेरे आँसू झरने लगे |

मैं उनकी तरफ देखती ही रही | वो फिर बोले , “देखो मैं जानता हूँ तुम एक अच्छी संस्कारी लड़की हो | मैं तुम्हारा अहित नहीं करना चाहता | साल-दो साल सह लो फिर मैं खुद वापस लौट आउँगा | तब घर के सब लोग सुधा को स्वीकार कर लेंगे | और मैं खुद आगे बढ़ कर तुम्हारी कोई सम्मानजनक व्यवस्था कर दूँगा |” वो मेरे पाँव पकड़ कर रोने लगे l 

उनका दर्द और मेरा दर्द… तराजू के दो पलड़ों पर जैसे दो दर्द रख दिए गए हों l एक दर्द को जीतना था और दूसरे को हारना l तर्कों के बाँट बढ़ने लगे l

सारी  रात विचारों के झंझावातों के मध्य  जागते हुए  ही बीती | सच बता दूँ तो… अनजानी सुधा का दर्द हृदय को चाक किये दे रहा था l कहीं सुधा ने आत्महत्या कर ली तो? दो लोगों की मृत्यु की जिम्मेदारी मेरी होगी l नहीं… नहीं ये नहीं हो सकता l पति का प्रेम तो फिर भी नहीं मिलेगा l जिस पिता ने घर की इज्जत समझ इस घर सम्मान से ब्याहा था, इस बिखरे जीवन में उस घर में मेरे लिए कोई स्थान होगा ? हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा था l  आशा का दीप भी बीच-बीच में झिलमिल रहा था, शायद…l रात के अंधेरे में तैर कर निकली उससे भी कहीं स्याह भोर की दस्तक पर झपकी लगी ही थी कि घर में मचे कोलाहल से नींद टूटी l आशा का वो काल्पनिक जुगनू भी मेरे हाथ से निकल चुका था l  मैं आँख खुलते ही संज्ञा शून्य हो गयी | जिंदगी के कटघरे में मैं एक मुजरिम बन कर खड़ी थी l मुझे लगा हर हाल में मेरी हार तय है l मैं निर्णय ही नहीं कर पायी की मैं पति के आदेश का पालन करूँ या सब को सच बता दूँ | सबके चेहरे, आँखों के आकाश में आँसुओं से तैर गए l बचपन से सब बहुत भावुक कहा करते थे l शायद उस भावुक मन ने एक हारे हुए रिश्ते पर अपना सब कुछ हार जाना उचित समझा l

वैसे भी जिन्दगी के इस अचानक लगे झटके से जब तक मैं कुछ संभल पाती मेरे ऊपर इतने आरोप लग चुके थे की मैं कहीं न कहीं खुद को ही दोषी मानने लगी | स्त्रियों की बुनावट न जाने किस धागे से की जाती है की समाज तो समाज वो खुद को दोषी करार दे देती हैं |

अब मेरे पास एक ही उपाय था, प्रतीक्षा का | वो आयें और मुझे दोष मुक्त करें | अंतहीन प्रतीक्षा | बिना किसी पुरुष का स्पर्श किये भी मेरी दशा अहिल्या की सी थी | इतिहास गवाह है जब जब कोई अहिल्या पुकारेगी,राम आयेंगे | इस बार भी आये | पर पुरुष के भेष में नहीं, दूसरे  भेष में | मेरे उस राम का नाम है ‘ज्ञान’ |  इस ज्ञान रूपी राम ने मुझ पत्थर बनी अहिल्या में फिर से जीवन का संचार कर दिया | एक साल से मेरे मन में मंथन चल रहा था | पर मैंने करवाचौथ का ही दिन चुना | जो मेरे लिए सबसे पीड़ा का दिन होता था | मैंने बात कर ली है | कल से मैं सिलाई का काम लाऊँगी | खुद कमा  कर इस जलालत भरी जिंदगी से बाहर निकलूँगी |”

 

काकी की बात खत्म हो गयी |काका चेन्नई में है ये सुनने के बाद शायद ही किसी ने पूरी बात सुनी हो | सब खुश हो कर काका को वापस लाने की जुगत में लगे थे | सबकी जुबान पर एक ही बात थी | बबुआ पहले बता देता तो हम उसके सर पर इसे थोड़ी न बैठने देते | हाय! पूरे परिवार के बिना अकेले सुधा और बच्चों के साथ कैसे रहा होगा | कितना त्याग किया | उन सब से बेखबर मैं काकी की और बढ़ ली | ये जानते हुए की शायद मैं अकेली पड़ जाऊं |

मैंने काकी को सीने से लगा कर कहा , “काकी मैं हर मोड़ पर तुम्हारे साथ हूँ |”

और मैं भी” मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए दीपेश ने कहा |

काकी की आँखों में हमारे लिए ढेरों आशीर्वाद थे l

तभी मेरी नज़र खिड़की पर गयी | करवाचौथ का चाँद मुस्कुराता हुआ सा झांक रहा था | जैसे कह रहा हो काकी का करवाचौथ अब बदल गया है | उनका ज्ञान, स्वाभिमान ही उनका पति है | जो हर हाल में, हर परिस्थिति में उनकी रक्षा करेगा

आमीन ….मेरे होंठ चाँद के सजदे में सर झुकाते हुए बुदबुदा उठे |  

वंदना बाजपेयी

वंदना बाजपेयी

कहानी सुनने का वीडियो लिंक –
 
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शोकपर्व-चमत्कार के मनोविज्ञान पर निधि अग्रवाल की कहानी https://www.atootbandhann.com/2023/01/%e0%a4%b6%e0%a5%8b%e0%a4%95%e0%a4%aa%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b5-%e0%a4%9a%e0%a4%ae%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%b0-%e0%a4%95%e0%a5%87.html https://www.atootbandhann.com/2023/01/%e0%a4%b6%e0%a5%8b%e0%a4%95%e0%a4%aa%e0%a4%b0%e0%a5%8d%e0%a4%b5-%e0%a4%9a%e0%a4%ae%e0%a4%a4%e0%a5%8d%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%b0-%e0%a4%95%e0%a5%87.html#comments Sun, 29 Jan 2023 09:05:13 +0000 https://www.atootbandhann.com/?p=7607   आज हर जगह चमत्कार और चमत्कारियों की चर्चा है l कहीं चमत्कार  को नमस्कार है तो कहीं चमत्कार पर प्रहार है l लेकिन ये बात केवल आज की नहीं है, वो कौन सा दौर था या होगा या कौन सा धर्म था/ होगा जहाँ चमत्कारी लोगों का अस्तित्व नहीं रहा ?  क्यों भीड़ की […]

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आज हर जगह चमत्कार और चमत्कारियों की चर्चा है l कहीं चमत्कार  को नमस्कार है तो कहीं चमत्कार पर प्रहार है l लेकिन ये बात केवल आज की नहीं है, वो कौन सा दौर था या होगा या कौन सा धर्म था/ होगा जहाँ चमत्कारी लोगों का अस्तित्व नहीं रहा ?  क्यों भीड़ की भीड़ इनकी तरफ आती है l मानव मन की कौन सी गुत्थियों को ये सुलझा देते हैं?  क्या ये सिर्फ दिखावा है या जीवन की गहरी और अगर आप लूटते हैं तो क्या आप पूरेविश्वास के साथ कह सकते हैं कि विकास हो या मेडिकल साइंस आप को नहीं लूट रहा ? निधि अग्रवाल ने समकालीन युवा कथाकारों में जीवन को गहराई से उकेरने वाली लेखिका के रूप अपनी सशक्त पहचान बनाई है l प्रस्तुत कहानी शोकपर्व में वो पिता पुत्र के रिश्ते के साथ इन तमाम प्रश्नों से उलझती सुलझती चलती हैं l  यह बहुपर्तीय बेहतरीन कहानी चमत्कार और चमत्कारी बाबाओं के साथ-साथ जीवन को के विविध रंगों को खोलती चलती है l  आइए पढ़ें कहानी —

शोकपर्व

——–

 

“ज़बान देखो। कमाया धेला नहीं और ज़बान गज भर की कर लाया।” माँ दराती से सरसों काटती हुई चिल्लाई। ध्यान हटा तो दराती ने सरसों के संग अँगुली भी काट दी। वह सी सी करती पल्ला अँगुली में लपेट दूसरे हाथ से उसे दबाए बैठी रही। आँखों में नमी तैर गई। उसकी आँखों में नहीं… माँ की आँखों में । वह और बाबा तो वैसे ही अविचलित बैठे रहे। स्त्री की चोट पुरुष के मन को स्पर्श कब करती है? सच कहा जाए तो एक संतुष्टि का अनुभव किया उसने। अपनी बेइज़्ज़ती पर मूक-बधिर बनी बैठी रहने वाली माँ, बाबा को एक शब्द कहने पर तिलमिला जाती है। उसका मन हुआ कहे, देख लो अपने परमेश्वर की हक़ीक़त।

 

माँ अब तक हल्दी की पट्टी अँगुली में लपेट फिर से साग काट रही थी। उसके कष्टों के प्रति विरक्ति की सज़ा  किसी दिन इसी दराती से वह उन दोनों की  गर्दन काट कर क्यों नहीं देती? वह अपलक माँ को देखता रहा।

ये कोई पहली नौकरी नहीं थी जो वह छोड़ आया था। इसके पहले चार साल में कोई बीस नौकरी आज़मा चुका था। उदासी इसलिए गहरी थी कि इस बार नौकरी के साथ छोकरी से भी हाथ धोना पड़ा था।

“सेठ की लड़की को फसाएँगा तो देर सवेर जूत्ते ही खाएँगा।” बाबा ने हिकारत से कहा था, “पढ़ लिख लेता कुछ तो कहीं ढंग की नौकरी मिल जाती। अब करता रह गुलामी।”

“क्या फ़ायदा पढ़कर। पढ़े लिखे लोग तुम जैसों के पैर पड़ते हैं।” वह वैसा ही शिथिल पड़ा, जम्हाई लेता हुआ बोला था। इस जवाब पर माँ तिलमिला गई थी।

“और कितनी देर है खाने में। दो बजे गद्दी पर बैठना है। कोई काम समय से नहीं कर पाती ये औरत।” बाबा का बड़बड़ाना चालू है।

 

अब वह  उनकी लंबी नुकीली जीभ को दराती पर टँगा देख रहा था। माँ के सधे हाथ बिना देखे ही चलते जा रहे हैं। छोटे छोटे रक्तरंजित टुकड़े जूट की बोरी पर इकट्ठे हो रहे  हैं। बहते हुए रक्त की धार का छोर उसे स्पर्श करने ही वाला था जब माँ का थका हुआ मरियल स्वर उसे इस वीभत्स दृश्य से बाहर खींच लाया।

 

“खाना तैयार है। आ जाओ दोनों।” माँ के स्वर का ठंडापन उसकी रीढ़ की हड्डी में सिहरन पैदा कर गया।

 

इस दृश्य की वीभत्सता से अधिक भयावह यह कल्पना थी कि बाबा के बाद अगली जीभ उसकी हो सकती थी। उसने थूक निगला। मुँह का स्वाद कड़वा था। उसने पानी का लौटा उठा, एक बार में खाली कर दिया।

 

“एक चपाती तो और ले लो!” माँ बाबा से कह रही है।

 

उसने आँखों की कोर से बाबा को ‘न’ में गर्दन हिलाते देखा।

 

वह मुँह पोंछता थाली के पास बैठा। माँ एक चपाती बाबा की प्लेट में रखती हुई बोली-

 

“छोटी-सी है। खा लो।”

 

बाबा गुर्रा रहे हैं, “मना किया न फालतू ज़िद करके दिमाग खराब करती है ये औरत।”

 

माँ इसरार कर-कर के भूख से अधिक खिला देने में निपुण है। उसके अन्नपूर्णा नाम  के कारण उसने अपने जीवन का लक्ष्य बाबा की क्षुधा शांत करना बना लिया है। क्षुधा से उसे उषा याद आ गई। कल इसी समय वह उसकी देह चख रहा था। तृप्ति से क्षण भर पूर्व ही सेठ अचानक घर आ गया था। विवस्त्र बेटी को खींच कर  अलग कर दिया और बिना  बक़ाया दिए उसे काम से निकाल दिया। आदिम भूख उसके शरीर पर रेंगने लगी। वह थाली छोड़कर खड़ा हो गया।

 

“बरसाती वाले किरायेदार हैं क्या अभी भी?” बेध्यानी में माँ से पूछा।

 

“नाबालिग़ लड़की पेट से हो गई थी। पिछले साल ही मुँह काला करवा कर चले गए।” जवाब बाबा ने दिया।

 

उसे अपने हाथों में लड़की का गदराया बदन महसूस हुआ। उसकी देहगंध नथुनों में भर गई। उम्र में लड़की उससे कुछ साल छोटी थी। कोई न कोई सबक समझने के बहाने उसके पास चली आती। उस बरस कहानी की किताब उसे पढ़ाते कितनी ही कविताएँ  उसके शरीर पर लिखी थी। लड़की की देह को जानने के लिए जितना उत्सुक वह रहता उससे अधिक वह लड़की आतुर रहती। उसे दुःख हुआ कि बाबा की किसी बात पर बिगड़ कर घर छोड़ गया था। रुका रहता तो वह  बच्चा उसका दिया हुआ होता। वह अनजाने लड़की के बड़े हुए पेट पर हाथ फेरने लगा।  सेठ की गद्दी के नीचे रखी पत्रिका में पढ़ा था कि गर्भावस्था में कुछ स्त्रियों की प्यास और बढ़ जाती है। वह तो थी ही रेत की नदी।

 

बाबा ने थाली सरकाई। बर्तनों की झनझनाहट कमरे में तैर गई। उन्होंने बनियान के ऊपर कुर्ता पहना। साफ धोती के लिए माँ को पुकारा। वह रसोई छोड़ धोती लाने नंगे पाँव दौड़ गई। “सुबह निकाल कर क्यों नहीं रख देती। रोज़ माँगनी पड़ती है।” बाबा का बड़बड़ाना जारी। बात बात पर उफ़न पड़ने वाला यह इंसान दुनिया को शांति बाँटने का दावा करता है। घोर आश्चर्य!

 

 

 

पाँचवी की कक्षा का पहला दिन था। नए आए मास्टर जी सबका परिचय पूछ टाइम खोटी कर रहे थे। लड़कों का नाम पूछते, साथ ही पिता का व्यवसाय। असली मकसद पिता का व्यवसाय जानना था ताकि उचित दोहन कर सकें।

 

वह खड़ा हुआ, “गौतम प्रताप शर्मा”

 

“पिता क्या करते हैं?”

 

 

“———-”

 

 

“क्या करते हैं?”

 

 

“पूजा करते हैं।” हकलाते हुए बोला।

 

 

“पंडित हैं?”

 

 

“तांत्रिक हैं तांत्रिक। मरघट के भूत से बात करते हैं।” साथ बैठा सुरेश अपनी बात पर स्वयं ही  हँसे जा रहा है। उसका चेहरा गुस्से में लाल।

 

“बिन बच्चों वालियों को बच्चा भी देते हैं, मास्टर जी!”  विकास ने जैसे आँखों में रंग भरते हुए कहा, उसकी मुट्ठियाँ तन गई थीं। उसे अधमरा करके ही दम लिया।

 

मास्टर साहब ने क्लास से बाहर खड़ा कर दिया। शहर में इस उम्र के बच्चे समझते हैं कि बच्चे अस्पताल में मिलते हैं पर यहाँ गाँव-देहात के बच्चे वयस्कों को मात देने की क्षमता रखते हैं। वह हाथ ऊपर किए बड़बड़ाता रहा फिर स्कूल से भाग आया। ‘सब कर्मों का फल है’ कहने वाले बाबा एक रात शाहदरा के पुश्तैनी घर से सब समान समेट यहाँ खंडवा चले आए थे। देर रात तक भीड़ के दरवाज़ा पीटने की  कुछ धुँधली स्मृतियों और माँ के अस्पष्ट संवादो से उसे लगता है कि बाबा के उपचार ने किसी के प्राण ले लिए थे और उसी से उपजे बवाल के कारण भागना पड़ा। पीछे छूट गए अपने कर्म को बाबा कभी भूले से भी याद नहीं करते।  माँ वहाँ छूट गए आँगन- दालान याद करती है पर उसे सबसे ज़्यादा मलाल अपने दोस्त छूट जाने का है। नई मिट्टी हर पौधे को कब अपनाती है? स्कूल के बच्चे उसे ‘बाहरी’ मानते हैं। दिन भर नर्मदा के शीतल जल में पैर डुबाए बैठा रहा, सूरज छुपे घर पहुँचा तो बाबा ने कान उमेठ दिए। वह दर्द और क्षोभ से चिल्ला उठा।

 

“कुछ और काम नहीं कर सकते क्या आप? पूरे स्कूल में किसी के बाबा झाड़-फूंक नहीं करते। तंत्र- मंत्र नहीं करते। कुछ नहीं आता तो भीख माँग लो। पर ये गद्दी समेट लो।”

 

माँ ने चटाक! चटाक! कितने ही तमाचे बिन गिने रसीद कर दिए थे।  बाबा पीटते हैं तो गाय बन जाती है। उनकी लातें खाते सिसकती तक नहीं। एक बार नानी से कह रही थी कि शराब पीकर राक्षस हो जाता है यह आदमी। उसी राक्षस के मान के लिए उसे पीटने में इस औरत ने कभी संकोच नहीं किया है।

 

 

माँ के हाथ पर दाँत गड़ा वह भाग खड़ा हुआ था। कहाँ गया था?  वीरे के बाड़े में? उसके अलावा और था ही कौन उसका। वहाँ पुआल के ढ़ेर पर पड़े दोनों बीड़ी पीते रहे थे। वीरे ने कहा था- “तू अपने बाप का खून करके माँ से शादी कर ले। तेरी बीबी बनकर फिर कभी हाथ नहीं उठा पाएगी। हमेशा डर कर रहेगी।”

 

“भक्क, माँ से भी कहीं शादी होती है क्या। तुम ससुरा गधा ही रहोगे। वह हँसते-हँसते दोहरा हो गया था।” वीरे सच मे मंद बुद्धि है तभी तीन साल से एक ही कक्षा में है।

 

माँ न सही पर किसी से तो शादी होगी। कोई एक है इस दुनिया में जिस पर वह भरपूर रौब जमा सकेगा। बाबा और माँ के हिस्से के सब तमाचे उसे रसीद कर सकेगा। “वीरे एक कॉपी बना लेनी चाहिए। उसमें हर दिन का हिसाब। शादी होने तक भूल जाने का ख़तरा है।”

 

“क्या लिखना.. क्या गिनना। जी भर मारना। औरत ज़ात होती ही पिटने के लिए है।” वीरे मुँह से धुआँ छोड़ता दार्शनिक अंदाज़ में बोला। वह आगे और ज्ञान देता। तब तक वे दोनों ढूँढ़ लिए गए थे और फिर बिना गिने ही लतियाते हुए घर की ओर धकेल दिए गए थे।

 

बाबा गद्दी से वापस आते तो किसी से बात करना पसंद नहीं करते। दुनिया की दुःख तकलीफ़ सुनने वाले के पास अपने परिवार को सुनने का समय कैसे मिले? वह अपने कमरे में चले जाते। भीतर से कमरा बंद। कमरे में केवल  बाबा के कुछ करीबी अनुयायियों और माँ को जाने की अनुमति है। उसने एक बार झाँका था। कालीमाँ की जीभ निकाले हुए, रौद्र रूप की आदमक़द तसवीर देख वह काँप गया था। कई रात नींद नहीं आई थी। बाबा कमरे से निकलते तो आँखे लाल होती। माँ कहती उपासना से ही सिद्धि मिलती है। वह ऐसा सिद्ध पुरुष बनना नहीं चाहता था। शुक्र है बाबा ने भी कभी नहीं चाहा। वह उसे किसी सरकारी नौकरी में देखना चाहते थे। पर पढ़ने में उसका मन जमता नहीं। कई छोटे मोटे कोर्स किए, अधूरे छोड़े यही हाल नौकरी का भी  … और लड़कियों का भी। एक जगह ठहर क्यों नहीं पाता मन?

 

उसे सिगरेट की तलब हुई। यहाँ घर में नहीं पी सकता। बाहर किसी ने पीते देख लिया तो बाबा की साख को खतरा। हुँह, उसने मुँह बनाया। उसे  पूरा यक़ीन है बाबा गांजा पीते हैं। मूर्ख जनता!

 

वह उठकर बाहर जाने लगा तभी बाबा कमरे से निकल आए।

 

“कल से गद्दी पर बैठना है तुम्हें। बोलना नहीं कुछ। बस जो मैं कहूँ लिखते जाना। …और ये जीन्स बुशर्ट नहीं चलेगी। कल से धोती कुर्ता पहनना होगा। इंतज़ाम कर लेना। बाबा फुफकारते हुए चले गए।”

 

वह हतप्रभ खड़ा रहा। उनसे कुछ न कह पाया। माँ को घेर लिया।

 

” कह देना इस आदमी से। दादागिरी मुझ पर नहीं चलेगी। मैं नहीं बैठूँगा गद्दी पर। मुझे तांत्रिक नहीं बनना।”

 

“क्या बनना है कलेक्टर? चार साल से मारा मारा फिर रहा है। कभी हज़ार रुपये भी घर भेजे? मँगाता ही रहा। इसी गद्दी से घर में रोटी बनती है। पक्की छत है..  तेरी फटफटिया आई है और जो गुल हर नौकरी में खिलाता है उनके मुँह बंद रखने के लिए भर-भर नोट भी इसी गद्दी से दिए जाते हैं। माँ ओखली में धनिया नहीं उसे ही कूट दे रही थी। वह बस आग्नेय नेत्रों से घूरता रहा।

 

“मेरा ही बहीखाता बनाए हो या अपने पति परमेश्वर का भी। उनके गुल कहाँ-कहाँ खिले हैं वो नहीं पता तुम्हें?”

 

 

“तू अपने काम से काम रख। मेरी चिंता न कर।  कुछ और कर सकता है तो हफ़्ते भर में जुगाड़ कर ले। वरना गद्दी सम्भाल।” माँ साड़ी झाड़ती उठ खड़ी हुई।

 

पहले गद्दी और मन्दिर घर के ही एक कमरे में सीमित था पर इन बीतें सालों में घर ने अपने आस-पास के दो घर जाने किस प्रकार निगल कर अपना क्षेत्रफल और साख़ दोनों बढ़ा ली हैं। पुराने घर की कुठरिया तुड़वा कर नए बड़े हवादार कमरें बनवाए गए हैं।

बड़ी बैठक को पर्दा लगाकर दो भागो में बाँट दिया गया है। बाहर भक्तगण अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हैं। बाबा के करीबी अनुयायी अंदर के भाग में भजन गाते हैं। कालीमाँ, शिव जी और हनुमान जी की पुरानी प्रतिमाएँ वहाँ लगी हैं जिनके आगे बड़े दीपक जलते रहते हैं। भीतर के एक छोटे कमरे में एक दीवान पर गद्दी डालकर बाबा बैठते है। एक स्टूल पर जिल्द चढ़ी कई किताबें और पंचांग रखे हैं।

 

एक मोरपंखों की बनी झाड़ू, एक पंखा, मिट्टी के एक सकोरे में भभूत और एक मे रोली। यहाँ अपेक्षाकृत अंधकार है और एक छोटा लाल बल्ब कमरे में रहस्यमयी मद्धम प्रकाश बिखेर रहा है।

 

नीचे बिछी दरी पर ओझा बैठता है। उसका असली नाम कोई नहीं जानता। जाने क्यों सब ओझा ही कहते हैं। वह भक्तों के नम्बर लगाता है। बारी-बारी पुकारता है। बाबा के इशारे वह तुरन्त समझ लेता। है। उसे ओझा से एक बेमानी-सी ईर्ष्या हुई। वह बेटा होकर बाबा की कही बातें  बहुधा समझ नहीं पाता।

 

‘बाहरी’ होने के कारण बाबा की अन्य गुरुओं से अधिक प्रतिष्ठा है। बाहरी व्यक्ति को स्नेह नहीं दिया जा सकता पर उसे मान दे कर सिंहासन पर बिठाया जा सकता है। उसके स्कूल के दोस्तों ने कभी उसे गले नहीं लगाया पर यहाँ प्रतिदिन कम से कम सौ आदमी आकर बाबा के पैर श्रद्धापूर्वक छूते हैं। ईर्ष्या के बावजूद कहीं न कहीं वह गर्वित होता है। बाबा और उसके मध्य कटुता कम हो रही है। लोग अपनी परेशानी बताते हैं। बाबा कुछ अतार्किक समाधान। बहुत से लोग बाबा का आशीर्वाद फलने पर महँगे उपहार और मिठाई लेकर आते हैं। बाबा चढ़ावे की ओर कभी नहीं देखते।

 

“लालच मन में भले हो आँखों में नहीं दिखना चाहिए। जितना चढ़ावे से मोह कम रखोगे लोग उतना अधिक देंगे। तुम मुँह खोलकर मॉंगोगे वह लालची समझ दूर हो जाएँगे। यह श्रद्धा और आस बचाने का व्यवसाय है।”

 

“सात शनिवार तेल चढ़ाने से नौकरी मिल जाती है क्या बाबा? मुझसे क्यों नहीं चढ़वाया?”

 

वह मुस्कराए, “जो मन से प्रयास करता है उसे सात क्या चार शनिवार बाद भी मिल सकती है। तुम्हें बस प्रयास करने की जिजीविषा को जगाए रखना है। नज़र रेखाओं और ग्रहों के आकलन में उलझी हो  पर पढ़ना सदा मन।”

 

बाबा के सामने निर्धन, अमीर, नेता, अधिकारी सब एकसमान है। सब एक जैसे दयनीय और लाचार दिखते हैं। पढेलिखे दिखने वाले लोगों को ओझा जाने कैसे देर से आने पर भी जल्दी का नम्बर दे देता है। कुछ बहुत बड़े लोगों को समय देकर बाबा अपने कमरे में मिलने बुलाते हैं। अब उसे भी इस कमरे में बाबा के साथ बैठने की अनुमति बिन मॉंगे मिल गई है। काली की प्रतिमा की आँखों से नज़र मिल जाने पर वह सहम जाता है। बाबा के सामने बैठा व्यक्ति बहुत डरा हुआ है। वह बता रहा है –

 

“पिताजी की मौत तक सब ठीक था। उनके जाने के एक साल पीछे ठीक उसी तिथि को माताजी की हृदयाघात से मृत्यु हुई। चार महीने बाद बड़ी बहन का जवान बेटा नए साल पर अपने हॉस्टल के कमरे में मृत मिला। मारपीट, आत्महत्या, ज़हर कोई निशान नहीं।  तीन महीने बाद बड़े भाई का पूरा परिवार दुर्घटनाग्रस्त हुआ। ड्राइवर को दिन में ही झपकी आई और गाड़ी डिवाइडर पर चढ़ा दी। गाड़ी पलट गई और उनके इकलौते बेटे की मौके पर ही मौत। बाक़ी सबको फ्रैक्चर हुए बस।

 

इसके छह महीने बाद मंझले भाई के विवाहित बेटे ने रेल की पटरी पर जान दे दी। बिज़नेस सही चल था। बीवी बिल्कुल गऊ। आत्महत्या का कारण कोई नहीं समझ सका। पन्द्रह दिन पहले छोटे भाई का बेटा मुंबई लोकल से गिरकर मर गया। न किसी ने धक्का दिया न वह ख़ुद कूदा। देखने वालों ने कहा जैसे किसी अदृश्य हाथ ने उसे खींच लिया। वह मुस्कराता हुआ चला गया। चिल्लाया तक नहीं।” बताते हुए भय से उस भक्त का पूरा बदन काँप रहा है। माथे पर पसीना चूँ रहा है।

 

“महाराज, भरे पूरे परिवार में से चुन-चुन कर बेटे उठा लिए भगवान ने। अब केवल मेरे दो बेटे बचे हैं। हर सुबह घर छोड़ते हुए मन काँपता है। लगता है लौटूँगा तो जाने…” भक्त फूट- फूट कर रो रहा था।

 

भक्त न रोता तो वह इसे किसी मनगढंत भूतिया फिल्म की पटकथा समझता पर उसके रोने में सच्चाई थी। उस सज्जन की आँखों का भय उसकी आँखों में भी पसर गया। अब बाबा क्या कहेंगे? उनके बेटों के जीवन रक्षा का सूत्र जानते हैं क्या बाबा?

 

बाबा आँखें मूँदे सोचते रहे। उस सज्जन की आँखें अब बाबा के चेहरे पर टिकी थीं। सीना काँप रहा था।

 

“दिक़्क़त तो दिख रही है।” बाबा आँख खोलते हुए बोले, “रूष्ट है माँ। बदले की भावना से भरी है। अपने पोतों के मोह में अंधी हो चुकी।”

 

“हाँ, पोतों से बहुत प्यार था उन्हें। लड़कियों को कभी पास नहीं बैठने देती थीं।”

 

बाबा ने कुछ बेतुके सवाल पूछे। एक फूल का नाम… एक से दस के बीच का कोई अंक… एक फल का नाम और कुछ गणना अँगुलियों पर की। गहरी साँस छोड़ते, माथा रगड़ते हुए बोले-

 

“दादी, पोतों को तुमसे दूर करे उससे पहले तुम ही उन्हें अपने से दूर कर दो।”

 

भक्त का चेहरा सफ़ेद पड़ गया। “महाराज!” स्वर काँप गया।

 

“समझो बात को। बेटों को गोद दे दो। कोई तो दोस्त ऐसा होगा जिसको काग़ज़ पर गोद दे सको। बस कार्यवाही करनी है। रहेंगे तो तुम्हारे ही पास।”

 

दादी की आत्मा स्टाम्प पेपर पढेंगी। भले ही दादी अनपढ़ हो।  उसने मन मे सोचा।

 

“पर महाराज क़ानूनी पेंच हो जाएगा। दोस्त की सम्पति के अधिकारी हो जाएँगे। कितना भी करीबी दोस्त हो तैयार नहीं होगा।”

 

विपत्ति में भी संपति के दाँव- पेंच समझने का विवेक बचे रहने पर उसे आश्चर्य हुआ। बाबा पुनः सोच में थे। आज गद्दी गई। उसे पूरा विश्वास था।

 

“माँ को अर्पित कर दो। माँ की गोद मे सुरक्षित रहेंगे।” बाबा ने काली मॉं की प्रतिमा की ओर इशारा किया।

 

व्यक्ति के चेहरे पर आश्वस्ति तैर गई। “आप बता दीजिए क्या करना होगा और कब। जल्दी करवा दीजिए महाराज।”

 

बाबा अनुष्ठान के लिए सामान और समय समझाने लगे और वह पहली बार काली मॉं की आँखों में आँखे डाल उनकी शक्ति का आकलन कर रहा था। क्या सच ही बचा पाएँगी?

 

भक्त पैर छूकर चला गया। उसके चढाए नए नोट बाबा के पैरों के करीब अनदेखे रखे रहे।

 

“सुरक्षा की क्या गारंटी है?” उसने पूछा

 

“जीवन की गारंटी कोई दे सकता है क्या?” कहते हुए  पीड़ा की अनगिन रेखाएँ बाबा के चेहरे पर तैर गईं।

 

“फिर?”

 

“होगा वही जो राम रचि राखा। हमारा काम आँचल में आस बाँधना है। बुरा नहीं भी होना होगा तो यह अनिष्ट आशंका की दहशत  से अधमरा हो जाएगा।”

 

आने वालों में अधिकतर औरतें आती। किसी का पति सास के कहने में था किसी का पड़ोसन के वश में। किसी औरत को उसके घर वाले पकड़ कर लाते। उस पर पीपल की चुड़ैल चढ़ी होती थी। किसी औरत का दुःख बिगड़ी हुई औलाद थी तो कोई औलाद न होने से दुःखी बाबा झाड़ा लगाते। सिंदूर और भस्म की पुड़िया बाँध कर देते। किसी को सोमवार तो किसी को मंगल , शनि के व्रत।

 

 

सामने नवजात शिशु को गोद मे लिए अधेड़ औरत के साथ पूरा परिवार बैठा है। सास, बाबा के दस बार पैर छू चुकी। बीस बार काली माँ का शुक्रिया कह चुकी।

 

“पति के तकिए के नीचे ताबीज़ रखने से, चाय में भभूत डालने से बच्चे कैसे हो सकते हैं?” उनके जाने के बाद पूछा।

 

” कभी नियति तरस खा जाती है कभी कोई पड़ोसी, रिश्तेदार।” बाबा एक रहस्यमयी मुस्कान देते हुए बोले, “सच जानना हमारा काम नहीं। हमें बस श्रेय लेना है।”

 

वह बाहर जाकर बच्चे की शक्ल उसके माँ बाप से मिलाना चाहता है।

 

चार घन्टे लोगों के दुःख सुनना आसान नहीं। लोग उसे नहीं सुनाते। बाबा से संवाद करते है पर जाने कैसे उनकी देह से उतरी उदासियाँ उसे ग्रस लेती हैं।  खर-पतवार सा दुःख कैसे हर जगह स्वतः उग आता है। वह अचंभित होता। बरसाती में लेट, दिन में आए लोगों के बारे में सोचता रहता है। सौ में से कुछ चेहरे ऐसे भी होते है जो ख़यालों में अनचाहे शामिल हो जाते हैं। जैसे दूर गाँव से आने वाली वह औरत। माँ-बाप ने पैसे के लालच में दुहाजू से ब्याह दिया। प्रतिरोध नहीं कर पाई पर शादी के बाद तन और मन दोनों विद्रोही हो उठे। कुछ दिन के लिए घर आए देवर के साथ हमबिस्तर होने की ग्लानि ओढ़े कुम्हलाई हुई आई थी। बहुत देर रोती रही। बहुत पूछने पर बस इतना बोली- “पाप किया है प्रायश्चित चाहती हूँ।” उसके काँपते बदन को कितनी ही बार चूम लेना चाहा था उसने पर बाबा तटस्थ बैठे रहे। सिर पर हाथ फेर झाड़ा लगाया। सोमवार के निर्जल व्रत रखने को कह, पूजा की सामग्री काग़ज़ पर लिख कर पकड़ा दी।

 

उसके जाने के बाद बोले, “पाप से डरकर नहीं रोती, प्यार को याद कर रोती है।”

 

“तब क्या साथ न सोएगी दुबारा?”

 

“ज्यों निर्जल उपवास साध लेगी तो तन की प्यास भी नहीं भटकाएगी। इच्छाओं पर अंकुश लगाना सीख जाएगी।”

 

वह उसकी प्यास के लिए नदी बन जाना चाहता है।

 

आज खाने में माँ ने दो बार नमक डाल दिया। खारी सब्जी होने पर भी बाबा ने थाली नहीं फेंकी। दही से रोटी खा कर उठ गए। उसे आश्चर्य हुआ। बाबा इन दिनों कम चिल्लाते हैं। अभी तक क्या उसके कर्मों की सज़ा माँ को देते रहे थे। शाम वह खेत की ओर निकल आया। पगडंडी पर ही वीरे मिल गया। ज़बरदस्ती घर ले गया। बहन को आवाज़ दी चाय बनाने के लिए।

 

चाय लेकर जो लड़की आई उसे देख चौंक गया। नाक बहाती हुई रिबन वाली लड़की पर कभी यूँ झूमकर यौवन उतरेगा कौन सोच सकता था।

 

चाय के कप रखने झुकी तो दो ताज़े कमल नज़र में तैर गए।

 

वीरे को किसी ने पुकारा। वह बाहर गया। लड़की उसके सामने बैठ गई। मुस्कुराती हुई … आमंत्रित करती हुई?

 

“पहचाना?” उसने पूछा।

 

“हाँ,  भैया के साथ  कितनी बार तो पतंग उड़ाई आपने …. मैं ही चरखी पकड़ती थी।”

 

लड़की की स्मृतियों में बसे रह जाना उसे अच्छा लगा। बहुत चाहकर भी नाम नहीं याद कर पाया। बस कुछ धुंधली तसवीरें समक्ष आ खड़ी हुईं।

 

“ट्यूबवेल में साथ नहाए भी तो है।” उसने सबसे उज्ज्वल तसवीर हवा में उछाली। शायद उसकी तरह लड़की ने भी  ट्यूबवेल में साथ नहाने की कल्पना की। लज्जा से सींझी एक मुस्कान उसके चेहरे पर क्षण भर को चमकी और वीरे के करीब आते पदचाप सुन वह भीतर चली गई।

 

रात वह कमलों से भरे ट्यूबवेल में डूबा हुआ था जब माँ ने उसे झिंझोड़ कर उठाया।

 

“बाबा की तबियत ठीक नहीं। अस्पताल लेकर चल।”

 

ओझा पहले ही आ चुका था। दोनों ने मिलकर बाबा को कार में पीछे सीट पर लिटाया। माँ उनका सिर अपनी गोदी में लेकर बैठी। पेटदर्द और वमन के कारण बाबा बार-बार उठ बैठते। पूरी रात अस्पताल में बीता कर वह अगली सुबह घर लौटे। माँ ने कहा झाड़ा लगा दे बाबा को।

 

उसने अचंभे से माँ को देखा ज्यों पूछ रहा हो ये ही करना था तो अस्पताल में रात काली करने क्यों गए थे। ओझा ने झाड़ा लगाते हुए कहा- “सबकी विपदा अपने सिर ले लेते है महाराज। कोई बड़ा प्रेत ज़िद पर अड़ा है।”

 

दोपहर में पूर्ववत बाबा गद्दी पर बैठे। चेहरा उतरा है पर आवाज़ में वही जोश। बीच बीच मे दर्द की एक लहर ज़रूर चेहरे पर उभर आती।

 

” बड़े भइया बिल्कुल संत इंसान हैं महाराज। न शादी की न कभी कोई और व्यसन। बाल ब्रह्मचारी। गुरु भाइयों के अतिरिक्त किसी से कोई बात नहीं करते। एक किराने की पुश्तैनी दुकान है बस उसी पर बैठते हैं। जाने कैसे लोगों ने बातों में फँसाया। लोगों से उधार ले लेकर एमसीएक्स में लाखों लगा कर हार गए। अब लेनदार तकाज़ा कर रहे हैं।”

 

“दुकान बेचकर उधार चुका दो। बाबा के पास समाधान तैयार रखा है।”

 

सामने बैठा व्यक्ति सकपका गया।

 

“पुरखों की दुकान है महाराज।”

 

“जो आया ही उधार चुकाने है वो सब लुटा कर भी चुकाएगा।” बाबा मसनद से उठ, कमर और स्वर दोनों को खींचते हुए बोले।

 

” बेच दे तो भैया बैठेंगे कहाँ?”

 

“बैठकर कमा तो नहीं रहे। गंवा ही रहे है। पुरखों की सम्पति में से अपना हिस्सा देकर जाएँगे।”

 

व्यक्ति अब कुछ आश्वस्त दिखा।

 

“आप सही कहते हैं महाराज। बिल्कुल साधु हैं। माँ- बाऊजी उनके नाम करके गए यह दुकान … उनका ही हिस्सा है।”

 

बाबा हल्की कराह के साथ मसनद पर वापस टिकते फुसफुसाए- “जब लोगों के दुःख कम नहीं कर पाओ, उन्हें दुःख स्वीकारने का एक ज़ायज़ कारण दे दो।”

 

भीड़ की मानसिकता पढ़ने की बाबा की क्षमता उसे अचंभित कर देती है। उसे वह अमीर लड़का भी याद आया जिसका इलाज देश के बड़े डाक्टर कर रहें है। क्या कहते हैं उन्हें … मनोचिकित्सक! उसकी माँ आती है बाबा के पास। बाबा उसकी माँ के मनोचिकित्सक ही तो हैं।

 

कुछ डॉक्टर आला लगाकर इलाज़ करते हैं कुछ  झाड़ा लगाकर। समाज में रुआब का अंतर है बस। उसे वह तांत्रिक याद आया जिसके आश्रम के पीछे बच्चों के कंकाल मिले थे। ऐसे तांत्रिकों के कारण  लोग दूर रहना चाहते हैं। कुछ डॉक्टर भी तो किडनी बेचने का काम करते हैं। उसने स्वयं को तर्क दिया और अपना ओहदा सम कर लिया।

 

3

एक हफ्ते बाद बाबा को लेकर फिर अस्पताल जाना पड़ा था। “ऑपरेशन को मना मत करना। ज़ल्दी करा लो।” माँ के आँसू नहीं रुक रहे। उसे लगा माँ- बाबा के मध्य वह नितांत अजनबी है। दो दिन भर्ती रहकर, दिल्ली जाना पड़ा। ओझा साथ जाना चाहता था पर बाबा ने मना कर दिया। वह बाबा को लेकर उनके एक भक्त के घर रुका।  भक्त के कारण बड़े अस्पताल के अनजान गलियारों में भटकना नहीं पड़ा। उसका अर्दली उनके साथ रहा और हर जगह प्राथमिकता से आदर सहित बाबा का परीक्षण किया गया। अस्पताल की दुनिया उसे बाबा के मंदिर जैसी ही लगी। यहाँ भी अस्पताल परिसर में दाख़िल होते ही एक बड़ा मन्दिर बना है। अंदर भक्त अपने- अपने पलंग पर लेटे अपने नम्बर की प्रतीक्षा करते हैं। एक बड़ा डॉक्टर आता है उसके साथ ओझा जैसे कुछ छोटे डॉक्टर। डॉक्टर तकलीफ़ सुनता है, उपाय बताता है। यहाँ चढ़ावा श्रद्धानुसार चढ़ाने की सुविधा नहीं है। कुछ के बैल बिक गए, कुछ की ज़मीन बिक गईं लेकिन स्वस्थ होने की कोई गारंटी नहीं।

बीमारी का ठीक होना न होना यहाँ भी ऊपर वाले के हाथ!अधिक न समझने पर भी इतना वह समझ गया है कि यहाँ लेटे हर मरीज़ को कैंसर हुआ है। सत्ताईस नम्बर वाले मरीज़ का बेटा चिल्ला रहा है, “सब मिले हुए हैं। जाँचों पर कमीशन, दवाइयों पर कमीशन, हमारे खेत बिकवा कर डॉक्टर विदेशों के खेतों में घूमते हैं।” दो वार्डबॉय उसे उठा कर बाहर ले जा रहे हैं। उसकी माँ डॉक्टर के हाथ जोड़ रही है, “छुट्टी मत कीजिए साहब! ये बावला है। आप इलाज़ कीजिए।”

 

बाबा का ऑपरेशन हो गया। गॉलब्लैडर निकाल दिया गया। गॉलब्लैडर का ज़ार जाँच के लिए देने जाते हुए एक नर्स से अनजाने टकरा जाने पर उसे अहसास हुआ कि इस हफ़्ते में एक बार भी उसकी नज़र किसी नर्स या अन्य लड़की पर नहीं ठहरी है। वह बाबा की बीमारी और सेवा में उलझा रहा। दोनों के मध्य ये आत्मीयता कब स्थापित हो गई?  रिपोर्ट हफ़्ते- दस दिन बाद आनी थी। वे लोग खंडवा लौट आए।

 

बाबा बिना नागा गद्दी पर बैठते। आजकल उसे पंचांग पढ़ना सिखाते। शमशान काली, काम कला काली, गुह्य काली, अष्ट काली, दक्षिण काली, सिद्ध काली, भद्र काली  रूपों की यथोचित पूजा भी। गलत पूजा का माँ कड़ा दण्ड देती है। वह आगाह करते।जब समय मिले तो कलकत्ता में कालीघाट  शक्तिपीठ ज़रूर जाना और गुजरात में पावागढ़ की पहाड़ी पर स्थित महाकाली का जाग्रत मंदिर भी।

 

वह उकता जाता पर बाबा की गिरती सेहत के आगे बोल न पाता। कभी लगता उसे पराजित करने के लिए ही बाबा ने किसी सिद्धि से ये रोग स्वयं लगा लिया है। रोग की बात गुप्त रखी गई थी। कितने ही कैंसर के मरीज़ बाबा की भभूत से सही हुए थे। बाबा स्वयं क्यों नहीं खा लेते?

 

 

पंचांग पढ़ना आसान न था। गणित था यह भी। लोग एक ही पँडित को नहीं दिखाते। यह भाग्य के सताए संशयग्रस्त लोग हैं। चार जगह पत्री पढवाते हैं। मंगली, कालसर्पयोग, शनि की दशा जैसी बातें याद भी रखते हैं। गणना गलत हुई तो विश्वास खो दोगे।

 

न जनता मूर्ख है न बाबा ढोंगी। सब नियति और परिस्थितियों के मारे हैं। रोज़ी-रोटी और सुख की तलाश में हाथ पैर मारते लोग। बदहवास लोगों की एक बड़ी भीड़ हर ओर से दौड़ी आ रही है। सबके हाथों में बेढब कटोरे। वह रोटी नहीं सुख माँग रहे हैं। लंबी दाढ़ी वाला एक मौलवी आता है। वह कह रहा है कि बरगद के नीचे बनी मज़ार पर बँट रहा है सुख। भीड़ एक दूसरे को कुचलती उधर दौड़ जाती है। भगवा वस्त्रों वाला एक व्यक्ति जयकारा लगाता है। भीड़ उसकी चरणरज लेने दौड़ पड़ती है। भगवा वस्त्रों वाला एक लोहे के जाले में बदल जाता है। लोग ताला लगा कर चाबी तालाब में फेंक रहे हैं। वह चाहकर भी अपने दिमाग पर लगा ताला नहीं खोल पाएँगे। उसने ताला लगाकर, चाभी चुपके से जीन्स की जेब में रख ली। तभी किसी ने कहा गाँव बाहर के कुँए में सिक्के डालने से मन्नत पूरी हो रही है। प्यासे कौए की तरह लोगों ने कुँए को सिक्कों से पाट दिया। सारा पानी बाहर निकल, गाँव में भर गया। लोग डूबने लगे। वह पानी पी कर लोगों की जान बचाना चाहता है। वह स्ट्रॉ तलाशने लगा।

 

बाबा का स्वास्थ्य निरन्तर गिर रहा है। दिल्ली से फोन आया। रिपोर्ट आ गई है। लिखा है ‘पॉजिटिव मारजिन्स’  दिल्ली वाले भक्त के सम्मुख अपनी लघुता पर वह खीज जाता है। अनभिज्ञता पर लज्जित होते अर्थ पूछना पड़ा।

 

‘पॉज़िटिव मार्जिन्स ‘ मतलब जहाँ से कैंसर वाला अंग निकाल दिया गया, वहाँ के किनारों पर अभी भी कैंसर की सेल हैं। जो कभी भी बढ़ सकती हैं।”

 

स्पष्ट था कि पॉज़िटिव मार्जिन्स  का होना नेगेटिव खबर है मरीज़ के जीवन के लिए, उसने मन में सोचा।

 

माँ को आधा- अधूरा बताया। वह पल्लू मुँह में दबा सिसकने लगी। बाबा को पूरा सच बताया। वह एक विद्रूप मुस्कान के साथ हिकारत से बोले- ” शरीर हो या समाज,  साला, कितना ही बड़ा हिस्सा काट दो… किनारे संक्रमित छूट ही जाते हैं।”

 

सुबह चार बजे उठकर पूजा अर्चना के पश्चात बाबा को चरनणामृत देते  अचानक उसे अहसास हुआ कि जो कृशकाय तन सामने लेटा हुआ है वह बाबा नहीं हैं। बाबा तो अब वह स्वयं बन चुका है। बाबा के शरीर पर कैंसर ने कब्ज़ा किया और बाबा ने उसके  शरीर पर। घाटा सब उसके ही हिस्से आया है।

 

” इन सब में न मेरी श्रद्धा है न आस्था।” पंचांग दूर सरकाते उसने कहा था।

 

“ज़रूरी है क्या कि हलवाई अपनी मिठाई खुद भी खाए। जिनकी आस्था है उनके लिए सीख लो बस।”

 

” आस्था का खुला व्यवसाय!” वह बड़बड़ाया था। कह बैठा था, “नियति के सताए लोगों के दुःखों का दोहन करते मन नहीं काँपता आपका?” माँ का ऊपर उठा हाथ बस काँप कर रह गया था। बाबा मौन बैठे रहे थे।

 

वह निरुद्देश्य शहर और विगत की गलियों में भटकता रहा। जिन लड़कियों ने उसे तन सौंपे उनके प्रति भले ही वह ईमानदार न रहा हो पर जिन्होंने अपने दुःख सौंपे, उनसे अटूट रिश्ता बँध गया। फिरोज़ाबाद में चूड़ी वाले की लड़की ने भरी आँखों से रात दो बजे स्टेशन छोड़ आने की विनती की थी। अगले दिन उसकी शादी थी। लड़की किसी अन्य के प्रेम में। सुबह लौटा तो शक के दायरे में वही था। मार खाई, एक दिन थाने में भी बिताया लेकिन मुँह नहीं खोला। लड़की के कोमल दुःख को अपने सीने में दबाए उसकी रक्षा करता रहा। कमरा खाली करना पड़ा था पर दूसरी नौकरी मिल जाने से शहर बच गया था। दो महीने बाद मुरझाई हुई लड़की सब्जी मंडी में मिल गई थी। वह  पहचान नहीं सका था पर लड़की ने उसे देख उदास मुस्कान के साथ पूछा था, “कैसे हो?” लड़की के गालों के गड्ढे इतने गहरा गए थे कि उसमें संसार की हर सीता पनाह पा सकती थी। धरती माँ को कष्ट देने की ज़रूरत न थी।

 

“एक महीने बाद उकता कर छोड़ गया था।” लड़की ने उसकी आँखों में उतरा प्रश्न पढ़ लिया था। उत्तर देते स्वर समतल!

 

“परिवार के बताए लड़के से ब्याह किया होता तो बेहतर रहता”, पता नहीं उसने लड़की से कहा या उसके गलत निर्णय में सहयोगी बनने के लिए स्वयं को दोष दिया।

 

” नायिकप्रधान हर कहानी का अंत दुःखद है। बस रास्ते के मोड़ अलग।” वह सब्जी वाली को पैसे देते हुए बोली थी, ” नर्क खुद चुना तो अब माँ-बाबा का घर स्वर्ग लग रहा है। जो उनका चुना नर्क स्वीकारा होता तो वे भी दोषी लगते। तब कहाँ जाती बोलो?”

 

सवाल पीछे छोड़, उस मृत देह को सशरीर अपने स्वर्ग की ओर जाता देखता रहा था। दुःखों की छाया में उपजा सुख आत्मा छील देता है।

 

यह महीने भर पहले की बात है। इस महीने भर में वह ज़िरह को छोड़ चुका था। अचंभित अवश्य होता है। जीवनयापन का प्रेत उसपर काबिज़ हो चुका था। वह इंसान से एक यंत्र में परिवर्तित हो गया था। भक्त आता कहता कि पत्नी वश में नहीं।दिमाग में निर्देश जारी होता, पत्नी को वश में करने के लिए एक दबाए। वह एक नम्बर पर लिखा यंत्र और मंत्र भक्त के सुपुर्द कर देता। भक्त कहता, व्यापार में घाटा… वह चार नम्बर का पुर्ज़ा आगे बढ़ा देता।

 

बाबा ओझा और माँ के चेहरे देखकर लग रहा है ज्यों कोई ज़िंदा भूत देख लिया हो। उसे सामने देख माँ बिलख बिलख कर रोने लगी और भीतर चली गई।

 

 

“क्यों कर रहे हैं आप यह सब?” वह क्रोध से चीख उठा था, “पागल … पागलपन है यह…. अपराध है… अपराध है। हम सब को जेल हो जाएगी।”

 

” चीखो नहीं। शांत हो जाओ। जानते हो न फल को जन्म देने के लिए फूल को मरना पड़ता है। समय बहुत कम है मेरे पास। लक्ष्य बहुत बड़ा। बहुत कुछ विचार करना है…  व्यवस्था करनी है।” बाबा का स्वर समतल था।

 

यह सत्य था कि बाबा की गर्दन पर काल की अँगुलियों सुस्पष्ट दिख रही थीं। किसी भी क्षण मृत्युदेव हल्का झटका देंगे और प्राण उलट देंगे। बाबा कुशल व्यवसायी हैं। देवों के सब गुरों से परिचित। वह बिना विभीषण के भी उन पर विजय पाना जानते हैं।  यमराज उनसे प्राण छीने उससे पहले ही उन्होंने अपने प्राणों को यमराज से छीन लेने की योजना बना ली है। बिना किसी इश्तिहार और होर्डिंग के दूर- दूर तक यह खबर फैल गई है कि उजले पक्ष की अष्टमी को पँडित दिवाकर चन्द्र शर्मा समाधि लेंगे।

 

बाबा एकांतवास में हैं। भक्तों को बताया गया है कि वह निराहार, निर्जल रहकर काली की साधना में लीन हैं। गद्दी उसके ज़िम्मे है।

 

“नौकरी नहीं लगती। इन्टरव्यू दे देकर थक गया हूँ। दोस्त रिश्तेदार सब ताने देते हैं। गर्लफ़्रेंड ने साथ छोड़ दिया। पापा कहते हैं कि कुछ और नहीं कर सकता तो चाय का ठेला लगा ले। हो सकता है तू भी प्रधानमंत्री बन जाए।” युवक के चेहरे पर आक्रोश पनपने लगा। ठहरा फिर संयत हो आगे बोला, “उनके जमाने में हाई स्कूल पास को भी मिल जाती थी नौकरी। अब इंजीनियरिंग करके भी मारे- मारे घूमना पड़ता है।”

 

“पापा क्या करते हैं?”

 

“सरकारी नौकरी में हैं युवक अपनी जन्मपत्री आगे बढ़ाते हुए  बोला।”

 

उसने चोर नज़र से हमउम्र युवक को देखा। युवक के हाथों की अधिकतर अँगुलियों में कोई न कोई नग की अँगूठी थी। उसने कागज़ों पर आड़ी- तिरछी रेखाएं खींचने के बाद कुछ पुड़िया बाँधी।

 

“ये ताबीज़ पापा के बिस्तर के नीचे रख देना और यह भस्म उनकी चाय में।”

 

युवक असमंजस में उसे देख रहा था।

 

“पापा की चाय में?”

 

उसने हाँ में सिर हिलाया। युवक ने जीन्स में हाथ डाल एक मुड़ा तुड़ा सौ का नोट निकाल उसके पैरों की ओर बढ़ाया।

 

“अभी रहने दे नौकरी लगने पर देना।” उसने बीच में ही रोक दिया।

 

युवक हाथ जोड़ता हुआ चला गया।

 

“दुश्मन को रास्ते से हटाने का मंत्र बाहरवें नम्बर का ही है न!” उसने ओझा से पूछा।

 

ओझा के ‘हाँ’ कहने पर युवक के पिता की निर्जीव देह उसकी आँखों के समक्ष घूम गई । ज़रूरी नहीं हर फीनिक्स अपनी ही राख से जन्म ले। कभी-कभी पिता की राख में नहाकर बच्चे नई उड़ान पा सकते हैं!

 

 

 

शोकपर्व के लिए दूर दूर से भक्तों का तांता लग गया था। बड़े हॉल में रामायण का पाठ हो रहा था। कुछ भक्त महामृत्यंजय का जाप कर रहे थे। कुछ दुर्गा सप्तशती बाँचते थे। जगह जगह भंडारे चल रहे थे। आजकल बाबा कुछ समय निकाल, भक्तों से दस मिनट की एक संक्षिप्त मुलाकात अवश्य करते। कई भावुक हृदय विकल स्वर में उनसे निर्णय स्थगित करने या पुनर्विचार के लिए अनुनय करते। कुछ उनके इस निर्णय के गौरव का अनुमोदन। बाबा की सौम्य मुस्कान में आजकल एक ओज घुल गया है। जो व्यक्ति इच्छामृत्यु चुन ले, उसका चेहरा निर्भीकता के आलोक से प्रकाशित हो जाता है।

 

 

“एक बार फिर सोच लो बाबा। करिश्मे सच में होते हैं। हो सकता है कल कोई दवाई आपकी बीमारी खत्म कर दे।अपने जीवन से खेल मत करो बाबा!” वह जीवन में पहली बार रो पड़ा था।

 

 

“जाना तो तय है। कीमत वसूल कर क्यों न जाया जाए।” उन्होंने मुस्कराने की चेष्टा की।

 

” यह कैसा दर्दनाक अंत होगा इसका अंदाज़ा है आपको?” वह कल्पना मात्र से काँप उठा था।

 

” तुम्हें इस जीवन के कष्टों का अंदाज़ा है?” बाबा गहरी साँस छोड़ते बोले। मुस्कान छिटक कर दूर जा खड़ी हुई। वह उनके पैरों पर सिर रख रोता रहा।

 

“मैं कुछ अनोखा नहीं कर रहा। हर बाप अपनी कमाई अपने बच्चों को ही सौंप कर जाता है।” बाबा उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले,

 

” बेटा, यह जगह कभी मत छोड़ना। विज्ञान कितना भी तरक्की कर ले। जगत श्रद्धा पर टिका है। सरकार भी उसी वैज्ञानिक पर पैसा लगाती है जिसके ज्ञान पर उसे श्रद्धा होती है। सब सुनियोजित तरीके से हो गया तो इस स्थान के साथ श्रद्धा का ऐसा हीरा जड़ जाएगा जिसकी जगमगाहट में तुम्हारे छोटे मोटे अपराध भी अनदेखे  रह जाएँगे पर कोशिश करना जीवन में सत बना रहे। विश्वास कमाने से अधिक कठिन है उसे बनाए रखना।

 

लोगों के विश्वास का उतना ही दोहन करना जितना तुम्हारे पोषण के लिए आवश्यक हो। उतना ही उपाय उन्हें देना जितनी उनकी सामर्थ्य हो। कभी पेड़ पर लिपटी बेल को देखा है। वह उसी गति से बढ़ती है जिस गति से पेड़!  जब कभी पेड़ से ज़्यादा विकसित हो जाती है, पेड़ उसका भार नहीं संभाल पाता। पेड़ के साथ ही बेल भी ढह जाती है।” बाबा जानते थे समय कम है। देने को ज्ञान अधिक। कमज़ोरी के बावजूद भी बोल रहे थे।

 

 

प्रशासन इस समाधि के विरुद्ध था या विरुद्ध दिखने को मजबूर था। कुछ अधिकारी बाबा के भक्त थे बाकी सरकारी आदेशों  से अधिक कौतूहल के वश में। कोई प्रमाण नहीं था, न कोई अभियोग। बाबा की गिरफ्तारी करने के लिए कोई धारा उपयुक्त न थी पर दो पुलिस वाले चौबीस घँटे तैनात कर दिए गए। एक डॉक्टर आकर, सुबह- शाम बाबा को आला लगाकर देख जाता।

 

 

नियत दिन सड़क पर दूर तक मेला लग गया था। मृत्यु के उत्सव में शामिल होने के पुण्य से कोई वंचित न रहना चाहता था। भक्ति और ज्ञान की , आस्था और विश्वास की, उल्लास और कौतूहल की सहस्त्रों धारा बह रही थीं।

 

“जन्म – मरण से मुक्ति की इस क्रिया को जैनियों में कैवल्य कहा गया है।”

 

” बुद्ध ने भी निर्वाण को अनिवार्य बताया है।”

 

” यह संत सिंगाजी की तपःस्थली  में ही सम्भव है।”

 

पुलिस के कई अधिकारी स्वयंसेवकों के संग भीड़ को नियंत्रण में कर रहे हैं।

 

 

ओझा मन्दिर में बैठा था। माँ की घुटी- घुटी सिसकियाँ भीतर कमरे में तैर रही थीं। वह एकटक बाबा के निर्विकार चेहरे को देख रहा था।

 

“अब बंद भी कर। आज नहीं भी हुई तो चार दिन पीछे एक आम विधवा हो जाएगी। रोकर अपशकुन फैला रही है ये औरत।”

 

बहुत दिन बाद बाबा अपने इस रूप में लौटे थे पर स्वर में उग्रता नहीं दयनीय घुला था। वह उठकर भीतर गए और माँ को सीने से लगा, आँखें बंद कर मौन खड़े रहे।

 

कुछ समय बाद मॉं का माथा चूमते हुए धीरे से बोले, “फिर मिलेंगे!”

 

 

यज्ञ की आखिरी आहुति के लिए बाबा भी बैठे। उनके एक और ओझा और दूसरी ओर वह बैठा।

आहुति देते भक्तों का स्वर ऊँचा होता जाता था। धुआँ उसकी आँखों में भर रहा था। हवन की अग्नि के ताप से चेहरा लाल हो गया था। यही हाल सबका था लेकिन असहज केवल वही था शायद। यहाँ से बाबा को माँ तुलजा भवानी मन्दिर दर्शन के लिए जाना था ततपश्चात एक बड़ा गड्ढा समाधि हेतु घर के पिछले भाग में खोदा गया था। वह पिछले दिनों उसी उधेड़बुन में रहा था कि एक चोर रास्ता वहाँ से बाबा को सकुशल निकालने के लिए तैयार कर लिया जाए। उसने रोक क्यों नहीं दिया बाबा को? अनिच्छा  से ही सही पर वह शामिल रहा इस सबमें। क्या वह स्वार्थी हो, इस नीचता पर उतर आया कि बाबा की चित्ता पर अपनी रोटियाँ सेकने को राज़ी हो गया? अचानक अपने ऊपर पड़े बाबा के बोझ से उसकी सोच टूटी। आहुति देता बाबा का हाथ लटक गया था। ठीक इसी पल उसकी नज़र ओझा से मिली। ओझा के माथे पर पसीना चू गया। ओझा ने हाथ थाम लिया था। उसने सहारा देकर बाबा को सीधा कर दिया। आखिरी आहुति  ओझा के क्रंदन में डूब गई। ओझा भाव-विभोर होकर बता रहा है कि कैसे अंतिम आहुति के साथ महाराज के शरीर से एक दिव्य ऊर्जा निकल कर हवन- कुंड में प्रवेश कर गई। कई भक्तों ने इसका अनुमोदन किया। इस दिव्य घटना का साक्षी बनने हेतु ही तो यह मेला लगा है। नकारने में भला क्या आनंद है? वह बाबा की खुली आँखों और अभी तक होंठों पर पसरी मुस्कान को देख रहा है। वह चाहता है कि सब उसे अकेला छोड़ देवे और वह माँ की गोद में सिर रखकर जी भर रो ले।

 

 

भक्तों की भीड़ बढ़ती जाती थी। बाबा के पार्थिव शरीर को भू- समाधि दी गई। जितने भक्त बढ़े उतने ही विरोधी भी। उनका कहना था जब चिकित्सक हृदयगति रुकने से स्वाभाविक मृत्यु बता रहे हैं तो इसे अलौकिक रूप क्यों दिया जा रहा है।  यह भी कि गद्दी का उत्तराधिकारी पुत्र को क्यों बनाया गया। परमशिष्य ओझा को क्यों नहीं। वह जितना विरोध करते। समाधि के चारों ओर बड़े भूखण्ड में आश्रम बनाने का काम उतना ही तेज़ी से होने लगता। कुछ भक्तों को विश्वास था कि बाबा ज़ल्द ही समाधि से बाहर आएँगे। इस उत्सवमयी माहौल में उसे शोक का अवसर तक न मिलता था। ओझा से सलाह कर, वह माँ के साथ कुछ दिन के लिए कहीं दूर जाना चाहता था। जहाँ वह खुलकर बाबा पर तंज़ कर सके। दिव्यात्मा को आम पुरुष साबित कर सके और माँ उसी क्रोध के साथ उसे पीट सके।

 

 

दुःखों का अंत नहीं। अप्रिय समाचारों में उस तक पहुँचने की होड़ लगी है। लौटने पर पता चला कि उनके ऋषिकेश के लिए निकलने के अगले दिन ही वीरे की खेत पर करंट लगने से मौत हो गई। मृत्यु उसके आस-पास मंडरा रही है। पहले निहत्था कर देगी फिर धर दबोचेगी। वह मदद के लिए किसी को पुकार भी नहीं पाएगा। वीरे के घर गया। घर मुर्दानगी में डूबा था। वीरे की माँ उसे देख चीत्कार कर उठी- “तू क्यों चला गया था रे! तू होता तो बचा लेता। तुझे बहुत मानता था।”

 

मैं होता तो उसका और आपका दोनों का विश्वास टूट जाता। उच्छ्वास छोड़ते सोचा,काश उसे बचाने का हुनर आता। तब वह अपने  आस- पास कुछ न उजड़ने देता।

 

वीरे की बहन सोनू , माँ को चुप कराने के प्रयास में खुद भी रोकर बेहाल है। उसे महसूस हुआ कि वह कितना असहाय कितना सामान्य व्यक्ति है।

 

” एक भाई खोया है पर एक अभी ज़िंदा है। एक आवाज़ पर हाज़िर हो जाएगा।” सोनू के सिर पर हाथ रख कहा और निकल आया। दोनों स्त्रियों के रुदन का स्वर दूर तक उसके पीछे आता रहा।

 

 

 

चाँद पर बैठी बुढ़िया रात भर चरखे पर सूत काटती  रही। सूत की उलझी लच्छियाँ उस पर गिरती रहीं। बोझ तले उसे साँस घुटती महसूस हुई। वह चिल्लाना चाहता था पर मुँह में भी सूत भर गया। अचानक बाबा और वीरे आ गए। उनके हाथ कैंची जैसे बन गए थे। वह तेज़ी से लच्छियाँ काटने लगे। बाबा उसके पैताने थे जब वीरे के हाथ उसकी गर्दन की ओर बढ़े। वह घबरा कर उठ बैठा। पसीने में भीगा था। समय देखा पाँच बजने में कुछ ही मिनिट शेष थे। उठ कर बाहर निकल आया। वह वीरे के खेतों की ओर निकल गया। मचान पर जाकर लेटा रहा। वीरे की कितनी ही स्मृतियों की जमा- पूंजी यहाँ दबी थी। कितनी ही देर उसके आँसू उमड़ते रहे। कौन से दुःख पर कितनी देर रोया कहना सम्भव न था किंतु आज सभी असफलताओं ने उसे आ दबोचा था। वह दसवीं में फेल होने पर भी रोया और पहले प्रेम की असफलता पर भी। बिना गलती के दोषी करार किए जाने पर भी रोया और अपने द्वारा की गलतियों पर भी। माँ से मार खाने पर भी और माँ को मार खाता देख उसका रक्षक न बनने पर भी। बाबा को मौत के मुँह में धकेलने पर भी और वीरे को उस जानलेवा तार से खींच अलग न कर पाने पर भी।

 

सूरज जब ठीक सिर पर चढ़ आया तब उसे लौटने की सुध हुई। चौराहे पर  लगी भीड़ देख ठिठक गया। वीरे की माँ और सोनू सफेद साड़ी पहने बीच में बैठी थीं। चारों और कुछ अन्य लोग नारे लगा रहे थे। वे लोग सरकार से मुआवज़ा माँग रहे थे। सर्वस्व होते अपने दोहन से दुःखी दुःख, वीरे की तसवीर पर, मुरझाए फूलों की माला के रूप में टँगा हुआ था। उसने नज़र झुका लीं और थके हुए भारी क़दमों से प्रतिदिन की भाँति अपनी गद्दी सँभालने बढ़ चला।

निधि अग्रवाल

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सोशल मीडिया एक खिड़की खोलता है अपने विचारों की अभिव्यक्ति की l ये स्वतंत्रता अपने साथ कुछ जिम्मेदारियाँ भी ले कर आती है l ये जिम्मेदारी केवल हम क्या लिख रहे हैं कि नहीं होती, ये जिम्मेदारी होती है है असहमति से सम्मान पूर्वक सहमत होने की l ये भी जिम्मेदारी होती है कि किसी की भावनाएँ आहत ना हों l असभ्य भाषा और कुतर्कों के अतिरिक्त ट्रोलिंग सोशल मीडिया में एक खतरनाक प्रवृत्ति के रूप में उभरी है l जिसमें पीड़ित व्यक्ति को मानसिक आघात भी लग सकता है l आइए पढ़ें निराशा और मानसिक कुंठा को जन्म देती सोशल मीडिया की इस ट्रोलिंग प्रवृत्ति पर प्रहार करती वागार्थ में प्रकाशित साहित्य जगत में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराती युवा कथाकार प्रियंका ओम की कहानी ….

बाज मर्तबा जिंदगी 

 

सुबह की मीटिंग में व्यस्त महेश के साइलेंट फ़ोन स्क्रीन पर उमा की तस्वीर कौंध-कौंध आ रही थी | वह फ़ोन तभी करती है जब महेश कुछ भूल जाता है | घड़ी उसकी कलाई में बंधी है, लैपटॉप सामने खुला है और मोबाइल पर उमा की कॉल आ रही है | उसे ठीक याद है, टिफिन लेकर आया है और बटुआ जेब में हैं | वैसे इन चीज़ों के वास्ते उमा का फ़ोन पहले मोड़ तक पहुँचने से पहले ही आ जाता है। अब काफी देर हो चुकी है | जरूर कोई गंभीर मसला है वरना इस वक़्त वह कभी फ़ोन नहीं करती |

“मैडम चक्कर खाकर गिर पड़ी है “ महेश ने फ़ोन उठाया तो उधर से सहायिका की घबराई आवाज़ आई !

कहीं चोट तो नहीं आई?

नहीं, कारपेट पर गिरी हैं |

शुक्र है, मन ही मन बुदबुदाया फिर मुखर हो “मुझसे बात कर सकेगी ?” पूछा|

मना कर रही है |

महेश ने तुरन्त-फुरंत में घर की राह ली |

इस वक़्त शहर की सड़कें सूनी मिलती हैं, बच्चे स्कूल में पहली कक्षा के बाद छोटी ब्रेक में स्नैक्स का आनंद लेते हुए जाने किस बात पर खिलखिला रहे हैं और श्रीमान दफ्तर की फाइलों में सिर दे चुके हैं | दरअसल पति और बच्चों से फारिग हुई घरेलू स्त्रियों का यह नितान्त निजी वक़्त है | यह वक़्त उमा के योगाभ्यास का है, कहती है “ योग से उसका चित्त शांत रहता है” किन्तु कई दिनों से वह बेतरह व्याकुल रहा कर रही है !

बीते सप्ताहांत की बात है! शनिवार की दोपहर महेश तैराकी से वापस लौटा तो सोफे पर लेटी उमा बेहद उदास मिली, कारण पूछने पर रुआंसी हो आई “ कुछ लोग फेसबुक पर मुझे लोग ट्रोल कर रहे हैं” !

ट्रोलर्स की समस्या क्या है ? थकन और भूख से परेशांहाल महेश ने दोनों अंगूठे से अपनी कनपट्टी दबाते हुए पूछा, उसका सिर दर्द से फटा जा रहा था लेकिन वह जानता था अभी इस वक़्त उमा को उसकी जरुरत थी और वह उसके साथ था !

वैचारिक मतभेद! उमा ने संत्रस्त कहा |

वैचारिक मतभेद तो बेहद मामूली बात है,बाज मर्तबा बाबजूद एक ही तरबियत के दो लोग अलग होते हैं | मुझे और भैया को देख लो, हम दोनों एक दूसरे से कितने तो अलग है और तुम सब बहनें, देखने में तो एक-सी किंतु स्वभाव से सब एक दूसरे से कतई भिन्न !

लेकिन उसने स्क्रीन शॉट लगाकर मुझे पागल कहा!

लोकतंत्र की गरिमा से बेपरवाह, कौन है वह मतान्ध ?

मुझे दोस्त कहा करती थी, पिछले पुस्तक मेले में अपनी बिटिया को मुझसे मिलवाते कहा था “ मौसी को प्रणाम करो” |

तुमने जवाब दिया ?

नहीं उसने मुझे अमित्र कर मजमा लगाया है |

उसकी पोस्ट तो पब्लिक होगी |

हाँ, लेकिन पब्लिक कमेंट रिस्ट्रिक्टेड है |

तो तुम अपने वाल पर जवाब लिखो, वहां तो कोई रोक नहीं न  ?

तमाशे से डरती हूँ !

लेकिन इस तरह चुप बैठने से बदमाशों को शह मिलेगी,वे तुम्हें डरपोक समझेंगे और दूसरे कायर या फिर गलत !

जबकि बात गलत या सही की नहीं, सोच की है |

लेकिन आम लोग इस मसले को मात्र गलत या सही के चश्मे से देखेंगे |सोशल मीडिया पर बेहिसाब समय बिताने से हमारी सोच औसत दर्जे की होती जा रही है | हम भीतर-ही-भीतर कुंद होते जा रहे हैं !

उनका समूह बड़ा है |

तुम्हारी फैन फॉलोविंग भी छोटी नहीं |

तो मुझे जवाब लिखना चाहिये?

यकीनन लिखना चाहिये | अपने लिये न सही, अपने पाठकों के लिये तो जरूर लिखो, अन्यथा वे तुम्हारे बारे में क्या सोचेंगे ? !

बालपन की साथिन से जीवन संगिनी बनी उमा को महेश पोर-पोर जानता है, अगर वह जवाब नहीं देगी तो अन्दर ही अन्दर कुढ़ती रहेगी और सीधे सीधे जवाब देने की हिम्मत भी नहीं, उमा को हमेशा एक कुशन, एक सपोर्ट की जरुरत होती है, जो शुरू से महेश है | स्कूल के दिनों भी महेश के दम लड़ आती, फिर बिगड़ी बात वह संभालता | लेकिन इस मर्तबा बात इतनी बिगड़ जायेगी इसका उसे तनिक भी अंदेशा नहीं था,अगर कुछ ऐसा वैसा हो जाता तो… सोचकर महेश की रूह काँप गई; स्वयं को कभी माफ़ नहीं कर पाता !

उमा बिस्तर पर शिथिल पड़ी है |  निढाल , अशक्त | जैसे देह में कोई जान शेष न बची हो | निस्तेज चेहरा, बुझी हुई आँखें | मानो महीनों से बीमार, हाथ थामा तो आँखें बह चलीं !

डॉक्टर ने कहा “ वर्टिगो का अटैक है, किसी मानसिक द्वंद्व का विकार” फिलहाल नींद का इंजेक्शन देकर सुला दिया है। कम-अज-कम बीस घंटे सोती रहेगी !

आपके दफ्तर के लिए निकलने के बाद हम दोनों सब्जी लेने गये थे, उसके बाद मैडम नहाने चली गई | मैं सब्जी धो-पोछ रही थी, जब धम्म की आवाज़ आई। दौड़ आई तो देखा औंधे गिरी है, सहारा देकर बिस्तर पर सुलाया | सहायिका ने एक सांस में पूरा हाल कह सुनाया !

उसने आगे कहा,कुछ दिनों से ठीक नहीं चल रहा, मैडम बेहद तनाव में रहती है | खोई-खोई सी दीखती है | होकर भी नहीं होती। दिमाग कहीं और रहता है अभी परसों की ही बात है,दाल के लिए काट रखा टमाटर चाय के लिए उबलते दूध में डाल दिया और दाल में चाय पत्ती | आजकल बहुत झल्लाती है, बात-बेबात खीज उठती हैं | बारंबार फ़ोन देखती है जैसे कुछ घटने का इंतज़ार हो | फिर न जाने क्या देखकर व्याकुल हो जाती है | सहायिका अबके ठहर ठहर कर कह रही थी, याद करती हुई, आज सब्जी लेते हुए भी पहले की तरह सजग नहीं थी | मुझे भिन्डी चुनने भी नहीं कहा और लौकी तो बगैर नाखून खुबायें ही उठा लिया, मैंने देखा ठीक नहीं था तो बदल लिया | ऐसी अनमनी पहले कभी नहीं देखा, क्या कोई गंभीर बात है ? सहायिका चिंतातुर थी !

सोशल मीडिया पर कुछ लोग उन्हें परेशान कर रहे हैं !

तभी आजकल न तो किताब पढ़ती हैं न कंप्यूटर पर कुछ लिखती हैं | चाय कॉफ़ी की फरमाइश भी नहीं करती, सारा दिन फ़ोन में घुसी रहती हैं | योग भी नहीं करती | मुझे तो लगता है रात में भी बेआराम सोती हैं!

सहायिका ठीक कह रही है, पिछली दो चार रातों से उमा ठीक से सो नहीं पा रही, बेकल करवटें बदलती रहा करती | कई बार उठकर बैठ जाती, फिर फ़ोन देखती, दिमाग में एक ही बात “पता नहीं कौन क्या लिख रहा”? !

जानना जरुरी है ? महेश ने हाथ से फ़ोन छीन लिया था |

पता नहीं क्यों, लेकिन हाँ |

उसे उद्विग्न देख महेश चिंचित हो आया था | उमा बेहद संवेदनशील है, मामूली बात भी मन में रख, दिनों उदास रहती है | ट्रॉल्लिंग उसके लिए असहनीय पीड़ा से उठकर मानसिक यातना बनती जा रही है !

जानते हो गलत के साथ खड़े होकर वह मेरी निजी बातें उछाल रही हैं | मैं उन्हें दीदी कहती हूँ! अपनेपन की आंच में पिघलकर एक दिन मैंने उन्हें वह सब बता दिया था जो अब तक दुनिया से छुपा रखा है, लेकिन वह बड़ी होने का मान नहीं संभाल पाईं!

उनकी भी कोई कमजोरी अवश्य होगी |

हाँ, उनकी एक पहचान वाले ने विस्तृत ब्यौरा दिया है |

तुम क्यों पीछे हट रही हो ? कभी-कभी बेचैनी कम हो जाती है !

मैं सचमुच उनका सम्मान करती हूँ लेकिन वह पब्लिक में मेरे लिए घृणित शब्दों का इस्तेमाल करते हुए क्रूर और हत्यारिन कह रही हैं | उन्हें व्हाट्सएप्प पर कड़वे जवाब लिखते हुए मैं ख़ुद विरक्ति से भर जाती हूँ |

फिर कुछ दिनों के लिए प्रोफाइल डीएक्टिवेट कर लो |

अब तो जंग के मैदान में कूद पड़ी हूँ |

जंग ? महेश को हैरत हुई थी |

खुद को सही साबित करने की जंग, और जंग में तो सब जायज़ है | उनींदी रातें, बेचैनी और हदें पार करना भी! कहते हुए वह हँसी थी, खोखली हँसी! खाली सन्नाटे में गूंजती हुई | वह जो स्वयं को शब्द चितेरी समझती हैं मुझे पराश्रिता कह गई !

और तुम्हें पराश्रिता कहते हुए उसने साफ़ कह दिया कि वह अकेली क्यों है ? |

बिलकुल, पति को “पर” कौन समझता है भला ? शिव ने तो अर्द्धनारीश्वर का रूप धर सुस्पष्ट कर दिया था कि पति-पत्नी एक दूसरे के पूरक होते हैं, पत्नी अर्धांगिनी होती है |

कितनी हैरत की बात है न! भाव समझे बिना ही हम शब्द बरतते हैं और खुद को लिखने वाली कहते हैं !

एक होड़ मची हुई है, कौन कितना नीचे गिर सकता है। ट्रोलिंग के खेल में गिर कर ही उठा जाता है | जितना लाइक-कमेंट उतनी ऊँची उठान | पोस्ट पर लाइक कमेंट न मिले तो रुचता भोज भी नहीं सुहाता, इसके लिये कितने तिरकम, कितने तरकीब ढूंढ निकालते हैं दीवाने | दरअसल यहाँ सबकुछ लाइक कमेंट ही हो गया है जिन्हें मैं जानती तक नहीं वह भी मुझपर लिख लाइक कमेंट बटोर रहे हैं, जबकि इसके लिये सोशल मीडिया कोई भुगतान नहीं करता !

जिसे देखो सोशल मीडिया पर बुद्धिजीवी बना घूम रहा है | चरस से बदतर नशा यह !

एक ने वह स्क्रीन शॉट लगाकर मजमा लगाया है जिसमें मैंने तुम्हारी तारीफ की थी, उमा फ़ोन दिखाते हुए कह रही थी फिर आप ही खिलखिला उठी | यह खिलखिलाहट,यह हंसी  कितने बरस बीते …वह भी बिसर गई थी शायद  …फिर अनायास ही आँखों से टप-टप आंसू !

महेश ने देखा तीन साल पुरानी गैरमामूली बात-चीत का स्क्रीन शॉट। उस तरफ से लिखा था “ऐसे लड़के आजकल मिलते कहाँ है ?”

जवाब में उमा ने लिखा था “ मेरा पति हजारों में एक है” |

इस स्क्रीन शॉट पर भद्दे-भद्दे कमेंट लिखे जा रहे थे | उसे हैरत हुई, सोशल मीडिया के इस चरम युग में क्या पति की तारीफ भी गुनाह है ? हो क्या गया है आजकल की स्त्रियों को ? गोद में रखा उमा का पैर खींच महेश ने उसे गले से लगा लिया “ये आइडेंटिटी क्राइसिस के मारे हैं, बेतरह मौका परस्त “ !

उसकी इस मूर्खता पर देखो लड़के कैसे पीठ ठोक रहे हैं |

माथे पर एक बोसा रखते हुए महेश ने कहा, पीठ नहीं ठोक रहे, सहला रहे हैं। मौका मिलते ही ब्रा उतारेंगे” वैसे इस मूढ़ लड़की को अब तक नहीं मिला न “वो अच्छा लड़का”, जानती हो क्यों ? क्योंकि कोई अच्छा लड़का ऐसी लड़की का साथ नहीं चाहता।

और लड़कियां क्यों नृत्य प्रस्तुत कर रही हैं ?

लड़कियों को तुम नहीं जानती ?? तुम ख़ुद एक स्त्री हो! कितना तो जलन-कुढ़न पाले रखती हैं | और फिर सोशल मीडिया एक बहाव है जिसमे बरसाती फोड़े -फुंसी की तरह सब बिलबिला निकलते हैं | उसकी रोंदुली आवाज़ महेश को भीतर तक भींगो रही थी !

अधिकांश को पूरा सच नहीं मालूम, सब आधा सच जानकर ही बेलाग हो रहे हैं |

सच कोई जानना समझना चाहता भी नहीं, बस उसके साथ खड़ा होना है जो फायदेमंद है |

मेरे साथ कोई नहीं है |

उनके साथ पूरी मतलबी जमात है, जबकि तुम्हारे साथ  पाठक वर्ग है | यह तुम्हारे लिए गर्व करने की बात है | यही तुम्हारी कमाई है, यही तुम्हारा असल है !

तुम्हें तो लेखक होना चाहिये! वह फीकी-सी हँसी |

मैं व्यवसायी ही भला | महेश ने उसकी हथेली अपने हाथों में ले ली |

तुम नहीं होते तो मेरा क्या होता ? कहते उमा मुस्कुराई | आँखों से, होंठों से !

“और तुम नहीं होती तो कौन मुझको इतना सराहता” मैं तुम्हारी बातें दोहरा रहा और तुम मुझे दानिशमंद समझ रही सोचता महेश ने उसे चूम लिया !

लेकिन यह तो सच है कि मैं तुमपर आश्रित हूँ !

मैं भी तुमपर उतना ही आश्रित हूँ जितना तुम मुझपर | बाहर से तुम निश्चिंत रहती हो घर से मैं बेफिक्र रहता हूँ, तुम चाहो तो अदला-बदली कर सकती हो महेश ने छेड़ा !

नहीं, घर सँभालने का निर्णय मेरा था | घर मेरा है |

हाँ, तभी दरवाज़े पर तुम्हारे नाम की मालिकाना तख़्ती लगी है !

मुझे तो यह सब बेहद हास्यास्पद लगता है। व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर हम एक समूची जात को हांकने लगते हैं और फिर घोषणा करते हैं कि मेरे पिता और भाई दोषमुक्त हैं। जबकि इतनी घृणा, इतनी नफरत का बीज वहीं बोया जाता है | मुझसे यह नहीं होगा। मम्मी के जाने के बाद पापा ने ही तो संभाला है। पैर भी दबाए हैं और मासिक कष्टों में गरम पानी का बैग भी दिया है – कहते हुए उमा की आँखें भर आई थीं!

सबके अनुभव एक से नहीं होते कहते हुए महेश ने उसकी आँखें चूम ली !

पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुझे कतई इनकार नहीं, किन्तु स्त्री को ट्रोल करना कौन सा स्त्रीवाद है? !

यह स्त्रीवाद नहीं, स्वार्थवाद है | खुद को उभारने का सुगम रास्ता | खुद को सताई गई दिखाकर सहानुभूति हासिल करना | जानती हो, मर्जी चाहे हम जितना स्त्रीवाद याकि स्त्री विमर्श कर लें, किन्तु आज भी यह समाज रोती कलपती स्त्री ही चाहता है | बराबरी की बात कर रिज़र्व सीट चाहिये, मज़बूत स्त्री आज भी स्वीकार्य नहीं, जिस साहस के साथ तुम खड़ी हो, इससे उन्हें तुम्हारे दुःख का तनिक भी अंदाज़ा नहीं। उनकी दृष्टि में पीड़िता वह है जो विलाप कर रही, क्षति का ब्यौरा लिख रही है | तुम किसी दशा में हो, इसका किसी को इल्म तक नहीं | समाज ऐसा ही है !

दोमुहां! बहुतों के लिए मैं साहित्य की कंगना रनौत हूँ, लैठैतों को बराबर का टक्कर दे रही हूँ लेकिन यह बात भी वह खुलकर नहीं फुसफुसाकर कह रहे !

सोशल मीडिया हमारे यहाँ क्षय रोग-सा रिश्तों सा गला रहा, अभिव्यक्ति की आजादी के नामे हम निरंकुश होते जा रहे हैं।संवेदनाएँ सूखती जा रही हैं !

वह मुझसे निजी तौर पर कहती तो मैं पोस्ट हटा देती, लेकिन पुरजोर दलीलबाजी के बाद, उसे स्क्रीन शॉट लगा तमाशा उचित लगा |

निश्चित ही वह तमाशापसंद है |

विडम्बना यह है कि उसे किसी ने गलत नहीं कहा,जबकि यह कानूनन अपराध है| मैंने जवाब लिखे तो समूचे गिरोह को मेरी भाषा अखरने लगी। कितना डबल स्टैण्डर्ड हैं !इनके गिरोह से एक पुरुष ने वह स्क्रीन शॉट ट्विटर पर लगाते हुए कहा “मज़े करिए”, मतलब हम स्त्रियाँ पुरुषों के लिये मज़े का सामान हैं लेकिन उनसे इन्हें कोई खतरा नहीं क्योंकि वे मीडिया में ओहदेदार रसूख वाले हैं !

कई दफ़ा मुझे लगता है कि पुरुषों से खला को टूल की तरह इस्तेमाल किया जाता है। अपने फायदे के लिए, सोशल मीडिया पर स्त्रीवाद सफलता की कुंजी बन गई है!

मुझे भी ऐसा ही लगता है, विवाहेतर संबंधो पर एक कहानी पढ़ रही थी जसमें अंततः पुरुष पत्नी को चुनता है लेकिन तब भी नायक को ही कोसा गया। लेकिन बताओ वह स्त्री क्या कम दोषी है जो दूसरी स्त्री का घर उजाड़ती है! मेरी दृष्टि से देखो तो स्त्री ख़ुद स्त्री की दुश्मन है लेकिन इस बाबत वे  “ओवररेटेड जुमला” कहकर इसे दरकिनार कर देंगे और कुतर्क करेंगे !

महेश ने बात ख़तम करने की कोशिश करते हुए कहा अब चलो कहीं घूम आते हैं, मौसम कितना तो सुन्दर हो आया है| मिजाज़ ठीक न होने का बहाना कर महेश ने दफ्तर से छुट्टी ली थी। वह उमा को ऐसे हालात में तनहा नहीं छोड़ सकता !

कोई और दिन होता तो बाहर घूम आने की सिफारिश उमा करती लेकिन भीतर से टूटी-फूटी इस वक़्त आबहवा की खुशगवारी से वह बेपरवाह है !

बीच पर चलते हैं | मैं चाय बना लेती हूँ” खिड़की से बाहर झाँक उमा ने जल्दी में कहा जैसे कुछ भूला याद आया हो !

मैं स्नैक्स पैक कर लेता हूँ |

सुबह से मौसम में रूमानियत घुली हुई है।बारिश की फुहारें मानो गुलाब पाश से बरस रही हैं | बालकनी का दरवाजा खोला तो मिट्टी के साथ केप जैस्मिन की मिली-जुली ख़ुशबू से घर महक गया | गमले में अपराजिता टूट कर खिली है, उमा देखेगी तो कहेगी भोलेनाथ बहुत खुश होंगे आज लेकिन महेश उसे खुश देखना चाहता है, उसकी ख़ुशी के लिए वह कुछ भी कर सकता है |

तिरी ख़ुशी से अगर गम में भी ख़ुशी न हुई

वो जिंदगी तो मोहब्बत की जिंदगी न हुई ||

ऊँचे टीले के नीचे कार पार्क कर वे दोनों पत्थरनुमा सीढियाँ उतर गए। सामने गीले रेत का पसारा के बाद यहाँ से वहां तक नीरव अंतहीन नील पानी में बच्चों-सी अठखेलियाँ करती छोटी छोटी लहरें! उमा को पूल के बनिस्बत समन्दर में तैरना अच्छा लगता है। उसने गाउन उतारा और पानी की ओर बढ़ गई, महेश दूर बैठा उसे देखता रहा!

कई दिनों बाद उमा के चेहरे पर ख़ुशी एक हलकी रेखा नुमायाँ हुई थी। कोई रूमानी गीत गुनगुनाते हुए वह महेश की बांह से लिपट गई। उसके गीले बालों से झड़ते नमकीन आब महेश के सीने के बाल सींच रहें | महेश को यकीन है कि अब सब सामान्य हो गया | आज सुबह भी वह पहले की-सी उसपर चिल्लाई थी “तुम गीला तौलिया बेड पर छोड़ना कब छोड़ोगे?” !

कल ! चलो बाय अब शाम को मिलते हैं कहकर वो ऑफिस के लिये निकल गया था। लगभग घंटे बाद सहायिका का फ़ोन आया !

उमा अभी-भी सो रही हैं | कैफेटेरिया से लाते का एक मग थामे महेश बीते सालों की बही पलटने लगा !

उमा दोहे लिखा करती थी, कभी कभी विरह गीत भी। पिछले कुछ सालों से छोटी-छोटी कहानियाँ लिखने लगी थी | महेश अक्सर उससे लेखन को गंभीरता से अपनाने को कहा करता। उस दिन उसकी कोई कविता एक साप्ताहिक पत्रिका में प्रकाशित हुई।फिर उसने मुड़कर पीछे नहीं देखा। इसी बीच वह सोशल मीडिया की आदी होती गई किन्तु यह लत एकदिन इतना भयानक साबित होगी, इसका उसे तनिक भी अंदेशा नहीं था !

एक सर्वे के अनुसार पिछले कुछ सालों में लोगों का सोशल मीडिया बर्ताव बहुत प्रभावित हुआ है।निजता मात्र शब्दों में सिमट गया है।कोई भी कुछ भी निजी नहीं रखना चाहता, सब सोशल मीडिया पर उड़ेल दिया जाता है | रिश्तों में दूरियाँ बढ़ रही हैं,एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृति बढ़ती ही जा रही है | सहनशीलता घटती जा रही है। जिस मसले को बात कर सुलझाया जा सकता है उसको सोशल मीडिया पर जबरन घसीटा जा रहा है | कई तरह की मानसिक विकृतियों का जन्म हुआ है, ट्रॉल्लिंग उनमें से एक है। ट्रॉल्लिंग से आक्रांत आत्महत्या के कई मामले सामने आए हैं |

महेश उमा को बचा लेगा, उसे इस पागलपन का हिस्सा नहीं बनने देगा सोचकर उसने दीर्घस्वास ली !

लेखिका – प्रियंका ओम 

कहानी वगार्थ दिसंबर अंक में प्रकाशित है 

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रोज रोज वही काम l हर रोज सुबह से लेकर शाम तक एक आम गृहिणी की जिंदगी में वही काम और उससे उपजी एकरसता जनित निराश कुछ ऐसे हावी हो जाती है कि उसके जीवन के सारे रंग ही कुम्हला जाते हैंl स्त्री मन के गहन कदराओं में परेवेश करती है साहित्य में क्रान्तिकारी परिवर्तन के प्रणेता महान् कथाकार “अज्ञेय” की सर्वाधिक चर्चित कहानियों में से एक है l

कहानी कुछ इस प्रकार है.. एक व्यक्ति अपने दूर के रिश्ते की बहन मालती से मिलने अठारह मील पैदल चलकर पहुँचता है। उन दोनों का जीवन इकट्ठे खेलने, पिटने और पढ़ने में बीता था। एक तरह से उनमें भाई-बहन के रिश्ते के अलावा मित्रता का भी रिश्ता है l उस व्यक्ति ने मालती को दो साल पहले देखा था पर आज मालती विवाहिता है। एक बच्चे की माँ भी है । उसका पति सरकारी डॉक्टर है और वो उन्हें मिले फ्लैट में ही रहती है l व्यक्ति उसमें दो साल पहले की मालती ढूँढ रहा है पर वो एकदम बदल गई है l जीवन से भरी  मालती जैसे एकदम मुरझा गई है l अब उसके पास एक दैनिक दिनचर्चा है l पूरे दिन काम करना, बच्चे की देखभाल करना और पति का इंतजार करना इतने में ही मानों उसका जीवन सिमट गया है।

 

उसको भाई के आने की भी खुशी नहीं है l हालंकी वो अतिथि के प्रति कर्तव्य में कोई कमी नहीं करती है l खाना तैयार करती है पंखा झलती है पर कुछ है जो कहीं खो गया है l बातचीत में आए उतार – चढ़ाव में वो व्यक्ति अनुभव करता है कि मालती की आँखों में विचित्र – सा भाव है। एकरसता जनित निराशा l जैसे उसने स्वीकार कर लिया है कि उसे बस घर और घर के कामों में जीवन को घोल देना है l जहाँ पानी भी समय बेसमय आता है…  उसे बर्तन धोने की चिंता है l सब्जियां भी रोज नहीं आती l डॉक्टर पति के काम पर चले जाने के बाद का सारा समय मालती को घर में अकेले काटना होता है। अपने दुबले- पतले चिड़चिड़े बच्चे की देखभाल करती हुई  मालती सुबह से रात ग्यारह बजे तक घर के कार्यों में अपने को व्यस्त रखती है। उसका जीवन ऊब और उदासी के बीच यंत्रवत चल रहा है। किसी तरह की खुशी, उल्लास उसके जीवन में नहीं रह गए हैं। जैसे वह अपने जीवन का भार ढोने में ही घुल रही हो।

 

ऊब का आलम ये है कि घंटाघर में हर एक घंटे के बाद बजते घंटे पर वो दोहराती है चार बज गए, 6 बज़ गए और फिर 11 बज़ गए l  उसके बाद वो सो पाती है l वर्णन इस मार्मिकता के साथ किया है कि ऐसा लगता है वो एक-एक घंटा जीवन काट रही है l गैंगरीन के बिम्ब का प्रयोग इस कहानी में एक रूपक की तरह है l मालती का पति सरकारी डॉक्टर है l जहाँ अक्सर लोग इलाज करवाने आते है तो जख्म इतना बढ़ चुका होता है कि हाथ या पैर काटना पड़ता है क्योंकि गैंगरीन का खतरा होता है l मालती इस बात को जिस तरह से कहती है उसमें उसकी खुद की पीड़ा उभर कर आती है l जख्म को पहले तो अनदेखा किया जाता है और जब हालात बेकाबू हो जाते हैं तो अंग  ही काट दिया जाता है l उसे तरह से इस निराशा को शुरू में तो अनदेखा किया जाता है फिर वो जीवन के तन्तु ही काट देता है l

 

घर के एकाकी वातावरण, और उसके प्रभाव में ढलते हुए एक गृहिणी के चरित्र का मनोवैज्ञानिक चित्रण अज्ञेय ने बहुत ही कलात्मक तरीके से किया है l ये कहानी पुरुषों से भी सावाल करती है कि स्त्री जीवन को घर की एकरसता में डाल देने वाले पुरुष क्यों अपनी पत्नी के एक एकाकीपन के प्रति क्यों लापरवाह रहते हैंl वो उसके व्यक्तित्व विकास के बारे में कोई प्रयास क्यों नहीं करते? वही  ये कहानी ये उम्मीद जगाती है कि शायद पुरुष ऐसी कहानियाँ पढ़कर अपनी पत्नी की बाहरी जिंदगी से जुडने की इच्छा समझ सकेंगे l आइए पढ़ें…

 

रोज़- अज्ञेय की कालजयी कहानी

 

 

दोपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते हुए मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही हो, उसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्य, अस्पृश्य, किन्तु फिर भी बोझल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था…

 

मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली। मुझे देखकर, पहचानकर उसकी मुरझायी हुई मुख-मुद्रा तनिक से मीठे विस्मय से जागी-सी और फिर पूर्ववत् हो गयी। उसने कहा, ‘‘आ जाओ!’’ और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये भीतर की ओर चली। मैं भी उसके पीछे हो लिया।

 

भीतर पहुँचकर मैंने पूछा, ‘वे यहाँ नहीं है?’’

 

‘‘अभी आये नहीं, दफ़्तर में हैं। थोड़ी देर में आ जाएँगे। कोई डेढ़-दो बजे आया करते हैं।’’

 

‘‘कब के गये हुए हैं?’’

 

‘‘सवेरे उठते ही चले जाते हैं।’’

 

‘‘मैं ‘हूँ’ कर पूछने को हुआ, ‘‘और तुम इतनी देर क्या करती हो?’’ पर फिर सोचा, ‘आते ही एकाएक प्रश्न ठीक नहीं हैं। मैं कमरे के चारों ओर देखने लगा।

 

मालती एक पंखा उठा लायी, और मुझे हवा करने लगी। मैंने आपत्ति करते हुए कहा, ‘‘नहीं, मुझे नहीं चाहिए।’’ पर वह नहीं मानी, बोली,‘‘वाह! चाहिए कैसे नहीं? इतनी धूप में तो आये हो। यहाँ तो…’’

 

मैंने कहा, ‘‘अच्छा, लाओ, मुझे दे दो।’’

 

वह शायद ‘ना’ करनेवाली थी, पर तभी दूसरे कमरे से शिशु के रोने की आवाज़ सुनकर उसने चुपचाप पंखा मुझे दे दिया और घुटनों पर हाथ टेककर एक थकी हुई ‘हुंह’ करके उठी और भीतर चली गयी।

 

मैं उसके जाते हुए, दुबले शरीर को देखकर सोचता रहा – यह क्या है… यह कैसी छाया-सी इस घर पर छायी हुई है…

 

मालती मेरी दूर के रिश्ते की बहन है, किन्तु उसे सखी कहना ही उचित है, क्योंकि हमारा परस्पर सम्बन्ध सख्य का ही रहा है। हम बचपन से इकट्ठे खेले हैं, इकट्ठे लड़े और पिटे हैं, और हमारी पढ़ाई भी बहुत-सी इकट्ठे ही हुई थी, और हमारे व्यवहार में सदा सख्य की स्वेच्छा और स्वच्छन्दता रही है, वह कभी भ्रातृत्व के या बड़े-छोटेपन के बन्धनों में नहीं घिरा…

 

मैं आज कोई चार वर्ष बाद उसे देखना आया हूँ। जब मैंने उसे इससे पूर्व देखा था, तब वह लड़की ही थी, अब वह विवाहिता है, एक बच्चे की माँ भी है। इससे कोई परिवर्तन उसमें आया होगा और यदि आया होगा तो क्या, यह मैंने अभी तक सोचा नहीं था, किन्तु अब उसकी पीठ की ओर देखता हुआ मैं सोच रहा था, यह कैसी छाया इस घर पर छायी हुई है… और विशेषतया मालती पर…

 

मालती बच्चे को लेकर लौट आयी और फिर मुझसे कुछ दूर नीचे बिछी हुई दरी पर बैठ गयी। मैंने अपनी कुरसी घुमाकर कुछ उसकी ओर उन्मुख होकर पूछा, ‘‘इसका नाम क्या है?’’

 

मालती ने बच्चे की ओर देखते हुए उत्तर दिया, ‘‘नाम तो कोई निश्चित नहीं किया, वैसे टिटी कहते हैं।’’

 

मैंने उसे बुलाया, ‘‘टिटी, टीटी, आ जा,’’ पर वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी ओर देखता हुआ अपनी माँ से चिपट गया, और रुआँसा-सा होकर कहने लगा, ‘‘उहुं-उहुं-उहुं-ऊं…’’

 

मालती ने फिर उसकी ओर एक नज़र देखा, और फिर बाहर आँगन की ओर देखने लगी…

 

काफ़ी देर मौन रहा। थोड़ी देर तक तो वह मौन आकस्मिक ही था, जिसमें मैं प्रतीक्षा में था कि मालती कुछ पूछे, किन्तु उसके बाद एकाएक मुझे ध्यान हुआ, मालती ने कोई बात ही नहीं की… यह भी नहीं पूछा कि मैं कैसा हूँ, कैसे आया हूँ… चुप बैठी है, क्या विवाह के दो वर्ष में ही वह बीते दिन भूल गयी? या अब मुझे दूर-इस विशेष अन्तर पर-रखना चाहती है? क्योंकि वह निर्बाध स्वच्छन्दता अब तो नहीं हो सकती… पर फिर भी, ऐसा मौन, जैसा अजनबी से भी नहीं होना चाहिए…

 

मैंने कुछ खिन्न-सा होकर, दूसरी ओर देखते हुए कहा, ‘‘जान पड़ता है, तुम्हें मेरे आने से विशेष प्रसन्नता नहीं हुई-’’

 

उसने एकाएक चौंककर कहा, ‘‘हूँ?’’

 

यह ‘हूँ’ प्रश्न-सूचक था, किन्तु इसलिए नहीं कि मालती ने मेरी बात सुनी नहीं थी, ‘केवल विस्मय के कारण। इसलिए मैंने अपनी बात दुहरायी नहीं, चुप बैठ रहा। मालती कुछ बोली ही नहीं, तब थोड़ी देर बाद मैंने उसकी ओर देखा। वह एकटक मेरी ओर देख रही थी, किन्तु मेरे उधर उन्मुख होते ही उसने आँखें नीची कर लीं। फिर भी मैंने देखा, उन आँखों में कुछ विचित्र-सा भाव था, मानो मालती के भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रहा हो, किसी बीती हुई बात को याद करने की, किसी बिखरे हुए वायुमंडल को पुनः जगाकर गतिमान करने की, किसी टूटे हुए व्यवहार-तन्तु को पुनरुज्जीवित करने की, और चेष्टा में सफल न हो रहा हो… वैसे जैसे देर से प्रयोग में न लाये हुए अंग को व्यक्ति एकाएक उठाने लगे और पाये कि वह उठता ही नहीं है, चिरविस्मृति में मानो मर गया है, उतने क्षीण बल से (यद्यपि वह सारा प्राप्य बल है) उठ नहीं सकता… मुझे ऐसा जान पड़ा, मानो किसी जीवित प्राणी के गले में किसी मृत जन्तु का तौक डाल दिया गया हो, वह उसे उतारकर फेंकना चाहे, पर उतार न पाये…

 

तभी किसी ने किवाड़ खटखटाये। मैंने मालती की ओर देखा, पर वह हिली नहीं। जब किवाड़ दूसरी बार खटखटाये गये, तब वह शिशु को अलग करके उठी और किवाड़ खोलने गयी।

 

वे, यानी मालती के पति आये। मैंने उन्हें पहली बार देखा था, यद्यपि फ़ोटो से उन्हें पहचानता था। परिचय हुआ। मालती खाना तैयार करने आँगन में चली गयी, और हम दोनों भीतर बैठकर बातचीत करने लगे, उनकी नौकरी के बारे में, उनके जीवन के बारे में, उस स्थान के बारे में और ऐसे अन्य विषयों के बारे में जो पहले परिचय पर उठा करते हैं, एक तरह का स्वरक्षात्मक कवच बनकर…

 

मालती के पति का नाम है महेश्वर। वह एक पहाड़ी गाँव में सरकारी डिस्पेन्सरी के डॉक्टर हैं, उसी हैसियत से इन क्वार्टरों में रहते हैं। प्रातःकाल सात बजे डिस्पेन्सरी चले जाते हैं और डेढ़ या दो बजे लौटते हैं, उसके बाद दोपहर-भर छुट्टी रहती है, केवल शाम को एक-दो घंटे फिर चक्कर लगाने के लिए जाते हैं, डिस्पेन्सरी के साथ के छोटे-से अस्पताल में पड़े हुए रोगियों को देखने और अन्य ज़रूरी हिदायतें करने… उनका जीवन भी बिलकुल एक निर्दिष्ट ढर्रे पर चलता है, नित्य वही काम, उसी प्रकार के मरीज, वही हिदायतें, वही नुस्खे, वही दवाइयाँ। वह स्वयं उकताये हुए हैं और इसीलिए और साथ ही इस भयंकर गरमी के कारण वह अपने फ़ुरसत के समय में भी सुस्त ही रहते हैं…

 

मालती हम दोनों के लिए खाना ले आयी। मैंने पूछा, ‘‘तुम नहीं खोओगी? या खा चुकीं?’’

 

महेश्वर बोले, कुछ हँसकर, ‘‘वह पीछे खाया करती है…’’ पति ढाई बजे खाना खाने आते हैं, इसलिए पत्नी तीन बजे तक भूखी बैठी रहेगी!

 

महेश्वर खाना आरम्भ करते हुए मेरी ओर देखकर बोले, ‘‘आपको तो खाने का मज़ा क्या ही आयेगा ऐसे बेवक़्त खा रहे हैं?’’

 

मैंने उत्तर दिया, ‘‘वाह! देर से खाने पर तो और अच्छा लगता है, भूख बढ़ी हुई होती है, पर शायद मालती बहिन को कष्ट होगा।’’

 

मालती टोककर बोली, ‘‘ऊँहू, मेरे लिए तो यह नयी बात नहीं है… रोज़ ही ऐसा होता है…’’

 

मालती बच्चे को गोद में लिये हुए थी। बच्चा रो रहा था, पर उसकी ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था।

 

मैंने कहा, ‘‘यह रोता क्यों है?’’

 

मालती बोली, ‘‘हो ही गया है चिड़चिड़ा-सा, हमेशा ही ऐसा रहता है।’’

 

फिर बच्चे को डाँटकर कहा, ‘‘चुपकर।’’ जिससे वह और भी रोने लगा, मालती ने भूमि पर बैठा दिया। और बोली, ‘‘अच्छा ले, रो ले।’’ और रोटी लेने आँगन की ओर चली गयी!

 

जब हमने भोजन समाप्त किया तब तीन बजने वाले थे। महेश्वर ने बताया कि उन्हें आज जल्दी अस्पताल जाना है, यहाँ एक-दो चिन्ताजनक केस आये हुए हैं, जिनका ऑपरेशन करना पड़ेगा… दो की शायद टाँग काटनी पड़े, गैंग्रीन हो गया है… थोड़ी ही देर में वह चले गये। मालती किवाड़ बन्द कर आयी और मेरे पास बैठने ही लगी थी कि मैंने कहा, ‘‘अब खाना तो खा लो, मैं उतनी देर टिटी से खेलता हूँ।’’

 

वह बोली, ‘‘खा लूँगी, मेरे खाने की कौन बात है,’’ किन्तु चली गयी। मैं टिटी को हाथ में लेकर झुलाने लगा, जिससे वह कुछ देर के लिए शान्त हो गया।

 

दूर…शायद अस्पताल में ही, तीन खड़के। एकाएक मैं चौंका, मैंने सुना, मालती वहीं आँगन में बैठी अपने-आप ही एक लम्बी-सी थकी हुई साँस के साथ कह रही है ‘‘तीन बज गये…’’ मानो बड़ी तपस्या के बाद कोई कार्य सम्पन्न हो गया हो…

 

थोड़ी ही देर में मालती फिर आ गयी, मैंने पूछा, ‘‘तुम्हारे लिए कुछ बचा भी था? सब-कुछ तो…’’

 

‘‘बहुत था।’’

 

‘‘हाँ, बहुत था, भाजी तो सारी मैं ही खा गया था, वहाँ बचा कुछ होगा नहीं, यों ही रौब तो न जमाओ कि बहुत था।’’ मैंने हँसकर कहा।

 

मालती मानो किसी और विषय की बात कहती हुई बोली, ‘‘यहाँ सब्ज़ी-वब्ज़ी तो कुछ होती ही नहीं, कोई आता-जाता है, तो नीचे से मँगा लेते हैं; मुझे आये पन्द्रह दिन हुए हैं, जो सब्ज़ी साथ लाये थे वही अभी बरती जा रही है…

 

मैंने पूछा, ‘‘नौकर कोई नहीं है?’’

 

‘‘कोई ठीक मिला नहीं, शायद एक-दो दिन में हो जाए।’’

 

‘‘बरतन भी तुम्हीं माँजती हो?’’

 

‘‘और कौन?’’ कहकर मालती क्षण-भर आँगन में जाकर लौट आयी।

 

मैंने पूछा, ‘‘कहाँ गयी थीं?’’

 

‘‘आज पानी ही नहीं है, बरतन कैसे मँजेंगे?’’

 

‘‘क्यों, पानी को क्या हुआ?’’

 

‘‘रोज़ ही होता है… कभी वक़्त पर तो आता नहीं, आज शाम को सात बजे आएगा, तब बरतन मँजेंगे।’’

 

‘‘चलो, तुम्हें सात बजे तक छुट्टी हुई,’’ कहते हुए मैं मन-ही-मन सोचने लगा, ‘अब इसे रात के ग्यारह बजे तक काम करना पड़ेगा, छुट्टी क्या खाक हुई?’

 

यही उसने कहा। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था, पर मेरी सहायता टिटी ने की, एकाएक फिर रोने लगा और मालती के पास जाने की चेष्टा करने लगा। मैंने उसे दे दिया।

 

थोड़ी देर फिर मौन रहा, मैंने जेब से अपनी नोटबुक निकाली और पिछले दिनों के लिखे हुए नोट देखने लगा, तब मालती को याद आया कि उसने मेरे आने का कारण तो पूछा नहीं, और बोली, ‘‘यहाँ आये कैसे?’’

 

मैंने कहा ही तो, ‘‘अच्छा, अब याद आया? तुमसे मिलने आया था, और क्या करने?’’

 

‘‘तो दो-एक दिन रहोगे न?’’

 

‘‘नहीं, कल चला जाऊँगा, ज़रूरी जाना है।’’

 

मालती कुछ नहीं बोली, कुछ खिन्न सी हो गयी। मैं फिर नोटबुक की तरफ़ देखने लगा।

 

थोड़ी देर बाद मुझे भी ध्यान हुआ, मैं आया तो हूँ मालती से मिलने किन्तु, यहाँ वह बात करने को बैठी है और मैं पढ़ रहा हूँ, पर बात भी क्या की जाये? मुझे ऐसा लग रहा था कि इस घर पर जो छाया घिरी हुई है, वह अज्ञात रहकर भी मानो मुझे भी वश में कर रही है, मैं भी वैसा ही नीरस निर्जीव-सा हो रहा हूँ, जैसे-हाँ, जैसे यह घर, जैसे मालती…

 

मैंने पूछा, ‘‘तुम कुछ पढ़ती-लिखती नहीं?’’ मैं चारों और देखने लगा कि कहीं किताबें दीख पड़ें।

 

‘‘यहाँ!’’ कहकर मालती थोड़ा-सा हँस दी। वह हँसी कह रही थी, ‘यहाँ पढ़ने को है क्या?’

 

मैंने कहा, ‘‘अच्छा, मैं वापस जाकर ज़रूर कुछ पुस्तकें भेजूँगा…’’ और वार्तालाप फिर समाप्त हो गया…

 

थोड़ी देर बाद मालती ने फिर पूछा, ‘‘आये कैसे हो, लारी में?’’

 

‘‘पैदल।’’

 

‘‘इतनी दूर? बड़ी हिम्मत की।’’

 

‘‘आख़िर तुमसे मिलने आया हूँ।’’

 

‘‘ऐसे ही आये हो?’’

 

‘‘नहीं, कुली पीछे आ रहा है, सामान लेकर। मैंने सोचा, बिस्तरा ले ही चलूँ।’’

 

‘‘अच्छा किया, यहाँ तो बस…’’ कहकर मालती चुप रह गयी फिर बोली, ‘‘तब तुम थके होगे, लेट जाओ।’’

 

‘‘नहीं, बिलकुल नहीं थका।’’

 

‘‘रहने भी दो, थके नहीं, भला थके हैं?’’

 

‘‘और तुम क्या करोगी?’’

 

‘‘मैं बरतन माँज रखती हूँ, पानी आएगा तो धुल जाएँगे।’’

 

मैंने कहा, ‘‘वाह!’’ क्योंकि और कोई बात मुझे सूझी नहीं…

 

थोड़ी देर में मालती उठी और चली गयी, टिटी को साथ लेकर। तब मैं भी लेट गया और छत की ओर देखने लगा… मेरे विचारों के साथ आँगन से आती हुई बरतनों के घिसने की खन-खन ध्वनि मिलकर एक विचित्र एक-स्वर उत्पन्न करने लगी, जिसके कारण मेरे अंग धीरे-धीरे ढीले पड़ने लगे, मैं ऊँघने लगा…

 

एकाएक वह एक-स्वर टूट गया – मौन हो गया। इससे मेरी तन्द्रा भी टूटी, मैं उस मौन में सुनने लगा…

 

चार खड़क रहे थे और इसी का पहला घंटा सुनकर मालती रुक गयी थी… वही तीन बजेवाली बात मैंने फिर देखी, अबकी बार उग्र रूप में। मैंने सुना, मालती एक बिलकुल अनैच्छिक, अनुभूतिहीन, नीरस, यन्त्रवत् – वह भी थके हुए यन्त्र के से स्वर में कह रही है, ‘‘चार बज गये’’, मानो इस अनैच्छिक समय को गिनने में ही उसका मशीन-तुल्य जीवन बीतता हो, वैसे ही, जैसे मोटर का स्पीडो मीटर यन्त्रवत् फ़ासला नापता जाता है, और यन्त्रवत् विश्रान्त स्वर में कहता है (किससे!) कि मैंने अपने अमित शून्यपथ का इतना अंश तय कर लिया… न जाने कब, कैसे मुझे नींद आ गयी।

 

तब छह कभी के बज चुके थे, जब किसी के आने की आहट से मेरी नींद खुली, और मैंने देखा कि महेश्वर लौट आये हैं और उनके साथ ही बिस्तर लिये हुए मेरा कुली। मैं मुँह धोने को पानी माँगने को ही था कि मुझे याद आया, पानी नहीं होगा। मैंने हाथों से मुँह पोंछते-पोंछते महेश्वर से पूछा, ‘‘आपने बड़ी देर की?’’

 

उन्होंने किंचित् ग्लानि-भरे स्वर में कहा, ‘‘हाँ, आज वह गैंग्रीन का आपरेशन करना ही पड़ा, एक कर आया हूँ, दूसरे को एम्बुलेन्स में बड़े अस्पताल भिजवा दिया है।’’

 

मैंने पूछा’’ गैंग्रीन कैसे हो गया।’’

 

‘‘एक काँटा चुभा था, उसी से हो गया, बड़े लापरवाह लोग होते हैं यहाँ के…’’

 

मैंने पूछा, ‘‘यहाँ आपको केस अच्छे मिल जाते हैं? आय के लिहाज से नहीं, डॉक्टरी के अभ्यास के लिए?’’

 

बोले, ‘‘हाँ, मिल ही जाते हैं, यही गैंग्रीन, हर दूसरे-चौथे दिन एक केस आ जाता है, नीचे बड़े अस्पतालों में भी…’’

 

मालती आँगन से ही सुन रही थी, अब आ गयी, ‘‘बोली, ‘‘हाँ, केस बनाते देर क्या लगती है? काँटा चुभा था, इस पर टाँग काटनी पड़े, यह भी कोई डॉक्टरी है? हर दूसरे दिन किसी की टाँग, किसी की बाँह काट आते हैं, इसी का नाम है अच्छा अभ्यास!’’

 

महेश्वर हँसे, बोले, ‘‘न काटें तो उसकी जान गँवाएँ?’’

 

‘‘हाँ, पहले तो दुनिया में काँटे ही नहीं होते होंगे? आज तक तो सुना नहीं था कि काँटों के चुभने से मर जाते हैं…’’

 

महेश्वर ने उत्तर नहीं दिया, मुस्करा दिये। मालती मेरी ओर देखकर बोली, ‘‘ऐसे ही होते हैं, डॉक्टर, सरकारी अस्पताल है न, क्या परवाह है! मैं तो रोज़ ही ऐसी बातें सुनती हूँ! अब कोई मर-मुर जाए तो ख़याल ही नहीं होता। पहले तो रात-रात-भर नींद नहीं आया करती थी।’’

 

तभी आँगन में खुले हुए नल ने कहा – टिप् टिप् टिप्-टिप्-टिप्-टिप्…

 

मालती ने कहा, ‘‘पानी!’’ और उठकर चली गयी। खनखनाहट से हमने जाना, बरतन धोए जाने लगे हैं…

 

टिटी महेश्वर की टाँगों के सहारे खड़ा मेरी ओर देख रहा था, अब एकाएक उन्हें छोड़कर मालती की ओर खिसकता हुआ चला। महेश्वर ने कहा, ‘‘उधर मत जा!’’ और उसे गोद में उठा लिया, वह मचलने और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा।

 

महेश्वर बोले, ‘‘अब रो-रोकर सो जाएगा, तभी घर में चैन होगी।’’

 

मैंने पूछा, ‘‘आप लोग भीतर ही सोते हैं? गरमी तो बहुत होती है?’’

 

‘‘होने को तो मच्छर भी बहुत होते हैं, पर यह लोहे के पलंग उठाकर बाहर कौन ले जाये? अब के नीचे जाएँगे तो चारपाइयाँ ले आएँगे।’’ फिर कुछ रुककर बोले, ‘‘आज तो बाहर ही सोएँगे। आपके आने का इतना लाभ ही होगा।’’

 

टिटी अभी तक रोता ही जा रहा था। महेश्वर ने उसे एक पलंग पर बिठा दिया, और पलंग बाहर खींचने लगे, मैंने कहा, ‘‘मैं मदद करता हूँ’’, और दूसरी ओर से पलंग उठाकर निकलवा दिये।

 

अब हम तीनों… महेश्वर, टिटी और मैं, दो पलंगों पर बैठ गये और वार्तालाप के लिए उपयुक्त विषय न पाकर उस कमी को छुपाने के लिए टिटी से खेलने लगे, बाहर आकर वह कुछ चुप हो गया था, किन्तु बीच-बीच में जैसे एकाएक कोई भूला हुआ कर्त्तव्य याद करके रो उठता या, और फिर एकदम चुप हो जाता था… और कभी-कभी हम हँस पड़ते थे, या महेश्वर उसके बारे में कुछ बात कह देते थे…

 

मालती बरतन धो चुकी थी। जब वह उन्हें लेकर आँगन के एक ओर रसोई के छप्पर की ओर चली, तब महेश्वर ने कहा, ‘‘थोड़े-से आम लाया हूँ, वह भी धो लेना।’’

 

‘‘कहाँ हैं?’’

 

‘‘अँगीठी पर रखे हैं, काग़ज़ में लिपटे हुए।’’

 

मालती ने भीतर जाकर आम उठाये और अपने आँचल में डाल लिये। जिस काग़ज़ में वे लिपटे हुए थे वह किसी पुराने अखबार का टुकड़ा था। मालती चलती-चलती सन्ध्या के उस क्षण प्रकाश में उसी को पढ़ती जा रही थी… वह नल के पास जाकर खड़ी उसे पढ़ती रही, जब दोनों ओर पढ़ चुकी, तब एक लम्बी साँस लेकर उसे फेंककर आम धोने लगी।

 

मुझे एकाएक याद आया…बहुत दिनों की बात थी… जब हम अभी स्कूल में भरती हुए ही थे। जब हमारा सबसे बड़ा सुख, सबसे बड़ी विजय थी हाज़िरी हो चुकने के बाद चोरी से क्लास से निकल भागना और स्कूल से कुछ दूरी पर आम के बग़ीचे में पेड़ों पर चढ़कर कच्ची आमियाँ तोड़-तोड़ खाना। मुझे याद आया… कभी जब मैं भाग आता और मालती नहीं आ पाती थी तब मैं भी खिन्न-मन लौट आया करता था।

 

मालती कुछ नहीं पढ़ती थी, उसके माता-पिता तंग थे, एक दिन उसके पिता ने उसे एक पुस्तक लाकर दी और कहा कि इसके बीस पेज रोज़ पढ़ा करो, हफ़्ते भर बाद मैं देखूँ कि इसे समाप्त कर चुकी हो, नहीं तो मार-मार कर चमड़ी उधेड़ दूँगा। मालती ने चुपचाप किताब ले ली, पर क्या उसने पढ़ी? वह नित्य ही उसके दस पन्ने, बीस पेज, फाड़ कर फेंक देती, अपने खेल में किसी भाँति फ़र्क न पड़ने देती। जब आठवें दिन उसके पिता ने पूछा, ‘‘किताब समाप्त कर ली?’’ तो उत्तर दिया…‘‘हाँ, कर ली,’’ पिता ने कहा, ‘‘लाओ, मैं प्रश्न पूछूँगा, तो चुप खड़ी रही। पिता ने कहा, तो उद्धत स्वर में बोली, ‘‘किताब मैंने फाड़ कर फेंक दी है, मैं नहीं पढ़ूँगी।’’

 

उसके बाद वह बहुत पिटी, पर वह अलग बात है। इस समय मैं यही सोच रहा था कि वह उद्धत और चंचल मालती आज कितनी सीधी हो गयी है, कितनी शान्त, और एक अखबार के टुकड़े को तरसती है… यह क्या, यह…

 

तभी महेश्वर ने पूछा, ‘‘रोटी कब बनेगी!’’

 

‘‘बस, अभी बनाती हूँ।’’

 

पर अबकी बार जब मालती रसोई की ओर चली, तब टिटी की कर्त्तव्य-भावना बहुत विस्तीर्ण हो गयी, वह मालती की ओर हाथ बढ़ा कर रोने लगा और नहीं माना, मालती उसे भी गोद में लेकर चली गयी, रसोई में बैठ कर एक हाथ से उसे थपकने और दूसरे से कई छोटे-छोटे डिब्बे उठाकर अपने सामने रखने लगी…

 

और हम दोनों चुपचाप रात्रि की, और भोजन की और एक-दूसरे के कुछ कहने की, और न जाने किस-किस न्यूनता की पूर्ति की प्रतीक्षा करने लगे।

 

हम भोजन कर चुके थे और बिस्तरों पर लेट गये थे और टिटी सो गया था। मालती पलंग के एक ओर मोमजामा बिछाकर उसे उस पर लिटा गयी थी। वह सो गया था, पर नींद में कभी-कभी चौंक उठता था। एक बार तो उठकर बैठ भी गया था, पर तुरन्त ही लेट गया।

 

मैंने महेश्वर से पूछा, ‘‘आप तो थके होंगे, सो जाइये।’’

 

वह बोले, ‘‘थके तो आप अधिक होंगे… अठारह मील पैदल चल कर आये हैं।’’ किन्तु उनके स्वर ने मानो जोड़ दिया… थका तो मैं भी हूँ।’’

 

मैं चुप रहा, थोड़ी देर में किसी अपर संज्ञा ने मुझे बताया, वह ऊँघ रहे हैं।

 

तब लगभग साढ़े दस बजे थे, मालती भोजन कर रही थी।

 

मैं थोड़ी देर मालती की ओर देखता रहा, वह किसी विचार में – यद्यपि बहुत गहरे विचार में नहीं, लीन हुई धीरे-धीरे खाना खा रही थी, फिर मैं इधर-उधर खिसक कर, पर आराम से होकर, आकाश की ओर देखने लगा।

 

पूर्णिमा थी, आकाश अनभ्र था।

 

मैंने देखा-उस सरकारी क्वार्टर की दिन में अत्यन्त शुष्क और नीरस लगने वाली स्लेट की छत भी चाँदनी में चमक रही है, अत्यन्त शीतलता और स्निग्धता से छलक रही है, मानो चन्द्रिका उन पर से बहती हुई आ रही हो, झर रही हो…

 

मैंने देखा, पवन में चीड़ के वृक्ष… गरमी से सूख कर मटमैले हुए चीड़ के वृक्ष… धीरे-धीरे गा रहे हों… कोई राग जो कोमल है, किन्तु करुण नहीं, अशान्तिमय है, किन्तु उद्वेगमय नहीं…

 

मैंने देखा, प्रकाश से धुँधले नीले आकाश के तट पर जो चमगादड़ नीरव उड़ान से चक्कर काट रहे हैं, वे भी सुन्दर दीखते हैं…

 

मैंने देखा – दिन-भर की तपन, अशान्ति, थकान, दाह, पहाड़ों में से भाप से उठकर वातावरण में खोये जा रहे हैं, जिसे ग्रहण करने के लिए पर्वत-शिशुओं ने अपनी चीड़ वृक्षरूपी भुजाएँ आकाश की ओर बढ़ा रखी हैं…

 

पर यह सब मैंने ही देखा, अकेले मैंने… महेश्वर ऊँघे रहे थे और मालती उस समय भोजन से निवृत्त होकर दही जमाने के लिए मिट्टी का बरतन गरम पानी से धो रही थी, और कह रही थी…‘‘अभी छुट्टी हुई जाती है।’’ और मेरे कहने पर ही कि ‘‘ग्यारह बजने वाले हैं,’’ धीरे से सिर हिलाकर जता रही थी कि रोज़ ही इतने बज जाते हैं… मालती ने वह सब-कुछ नहीं देखा, मालती का जीवन अपनी रोज़ की नियत गति से बहा जा रहा था और एक चन्द्रमा की चन्द्रिका के लिए, एक संसार के लिए रुकने को तैयार नहीं था…

 

चाँदनी में शिशु कैसा लगता है इस अलस जिज्ञासा से मैंने टिटी की ओर देखा और वह एकाएक मानो किसी शैशवोचित वामता से उठा और खिसक कर पलंग से नीचे गिर पड़ा और चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगा। महेश्वर ने चौंककर कहा – ‘‘क्या हुआ?’’ मैं झपट कर उसे उठाने दौड़ा, मालती रसोई से बाहर निकल आयी, मैंने उस ‘खट्’ शब्द को याद करके धीरे से करुणा-भरे स्वर में कहा, ‘‘चोट बहुत लग गयी बेचारे के।’’

 

यह सब मानो एक ही क्षण में, एक ही क्रिया की गति में हो गया।

 

मालती ने रोते हुए शिशु को मुझसे लेने के लिए हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘इसके चोटें लगती ही रहती है, रोज़ ही गिर पड़ता है।’’

 

एक छोटे क्षण-भर के लिए मैं स्तब्ध हो गया, फिर एकाएक मेरे मन ने, मेरे समूचे अस्तित्व ने, विद्रोह के स्वर में कहा – मेरे मन न भीतर ही, बाहर एक शब्द भी नहीं निकला – ‘‘माँ, युवती माँ, यह तुम्हारे हृदय को क्या हो गया है, जो तुम अपने एकमात्र बच्चे के गिरने पर ऐसी बात कह सकती हो – और यह अभी, जब तुम्हारा सारा जीवन तुम्हारे आगे है!’’

 

और, तब एकाएक मैंने जाना कि वह भावना मिथ्या नहीं है, मैंने देखा कि सचमुच उस कुटुम्ब में कोई गहरी भयंकर छाया घर कर गयी है, उनके जीवन के इस पहले ही यौवन में घुन की तरह लग गयी है, उसका इतना अभिन्न अंग हो गयी है कि वे उसे पहचानते ही नहीं, उसी की परिधि में घिरे हुए चले जा रहे हैं। इतना ही नहीं, मैंने उस छाया को देख भी लिया…

 

इतनी देर में, पूर्ववत् शान्ति हो गयी थी। महेश्वर फिर लेट कर ऊँघ रहे थे। टिटी मालती के लेटे हुए शरीर से चिपट कर चुप हो गया था, यद्यपि कभी एक-आध सिसकी उसके छोटे-से शरीर को हिला देती थी। मैं भी अनुभव करने लगा था कि बिस्तर अच्छा-सा लग रहा है। मालती चुपचाप ऊपर आकाश में देख रही थी, किन्तु क्या चन्द्रिका को या तारों को?

 

तभी ग्यारह का घंटा बजा, मैंने अपनी भारी हो रही पलकें उठा कर अकस्मात् किसी अस्पष्ट प्रतीक्षा से मालती की ओर देखा। ग्यारह के पहले घंटे की खड़कन के साथ ही मालती की छाती एकाएक फफोले की भाँति उठी और धीरे-धीरे बैठने लगी, और घंटा-ध्वनि के कम्पन के साथ ही मूक हो जानेवाली आवाज़ में उसने कहा, ‘‘ग्यारह बज गये…’’

अज्ञेय

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कुछ शब्द हैं, जो मैंने आज तक नहीं कहे. पुराने सिक्कों की तरह वे जेब में पड़े रहते हैं. न उन्हें फेंक सकता हूं, न भुला पाता हूं.

नई कहानी के सर्वाधिक चर्चित कहानीकार निर्मल वर्मा की कहानी “लवर्स” एक ऐसी प्रेम कहानी है जो इस तथ्य को रखती है कि जहाँ प्रेम सफलता व्यक्ति पूर्णता प्रदान करती यही वहीं प्रेम में असफलता व्यक्ति में निराशा और कुंठा को जन्म देती है l लेखक ने एक छोटी घटना को बड़ी कहानी में बदल दिया है l कहानी की शुरुआत में एक लड़का जो कुछ देर पहले बुक स्टॉल पर अर्धनग्न स्त्री की तस्वीर वाली मैगजीन को देखना ही नहीं चाह रहा था क्योंकि उसका सारा ध्यान  अपनी गर्ल फ्रेंड के आने के रास्ते पर था बाद में वही लड़का उस लड़की के जाने के बाद उस मैगजीन को खरीद लेता है |जहाँ से शुरू कहानी वही  पर आ कर खत्म होती है l बीच में हैं स्मृतियों के कुछ चित्र और इंतजार की बेचैनी l यहाँ बेचैनी केवल प्रेम की नहीं है बल्कि उस जवाब की भी है जो नायिका देने आ रही है l यहाँ इंतजार भी रूहानी है l वो हमेशा समय से पहले आता है क्योंकि उसे प्रतीक्षा करना अच्छा लगता है l कहानी की कई पंक्तियाँ पाठक का ध्यान देर तक अपने में अटकाये रहती हैं l नीलकंठ के उड़ जाने और बर्फ के विषय में सोचने का बहुत सुंदर बिंबयात्मक प्रयोग है l प्रेम में असफलता किस तरह से व्यक्ति के हाव-भाव को बदलती है l  किस तरह से असफलता जनित उसकी निराशा कुंठा को जन्म देती है lआइए पढे अद्भुत प्रवाह वाली इस कालजयी कहानी को…

लवर्स -निर्मल वर्मा की कालजयी कहानी

‘एल्प्स’ के सामने कॉरिडोर में अंग्रेज़ी-अमरीकी पत्रिकाओं की दुकान है. सीढ़ियों के नीचे जो बित्ते-भर की जगह ख़ाली रहती है, वहीं पर आमने-सामने दो बेंचें बिछी हैं. इन बेंचों पर सेकंड हैंड किताबें, पॉकेट-बुक, उपन्यास और क्रिसमस कार्ड पड़े हैं.

दिसंबर… पुराने साल के चंद आख़िरी दिन.

 

नीला आकाश… कंपकंपाती, करारी हवा. कत्थई रंग का सूट पहने एक अधेड़ किंतु भारी डील-डौल के व्यक्ति आते हैं. दुकान के सामने खड़े होकर ऊबी निगाहों से इधर-उधर देखते हैं. उन्होंने पत्रिकाओं के ढेर के नीचे से एक जर्द, पुरानी-फटी मैगज़ीन उठाई है. मैगज़ीन के कवर पर लेटी एक अर्द्ध-नग्न गौर युवती का चित्र है. वह यह चित्र दुकान पर बैठे लड़के को दिखाते हैं और आंख मारकर हंसते हैं. लड़के को उस नंगी स्त्री में कोई दिलचस्पी नहीं है, किंतु ग्राहक ग्राहक है, और उसे ख़ुश करने के लिए वह भी मुस्कराता है.

 

कत्थई सूटवाले सज्जन मेरी ओर देखते हैं. सोचते हैं, शायद मैं भी हंसूंगा. किंतु इस दौरान में लड़का सीटी बजाने लगता है, धीरे-धीरे. लगता है, सीटी की आवाज़ उसके होंठों से नहीं, उसकी छाती के भीतर से आ रही है. मैं दूसरी ओर देखने लगता हूं.

 

मैं पिछली रात नहीं सोया और सुबह भी, जब अक्सर मुझे नींद आ जाती है, मुझे नींद नहीं आई. मुझे यहां आना था और मैं रात-भर यही सोचता रहा कि मैं यहां आऊंगा, कॉरिडोर में खड़ा रहूंगा. मैं उस सड़क की ओर देख रहा हूं, जहां से उसे आना है, जहां से वह हमेशा आती है. उस सड़क के दोनों ओर लैंप-पोस्टों पर लाल फैस्टून लगे हैं… बांसों पर झंडे लगाए गए हैं. आए-दिन विदेशी नेता इस सड़क से गुज़रते हैं.

 

जब हवा चलती है, फैस्टून गुब्बारे की तरह फूल जाते हैं, आकाश झंडों के बीच सिमट आता है… नीले लिफाफे-सा. मुझे बहुत-सी चीज़ें अच्छी लगती हैं. जब रात को मुझे नींद नहीं आती, तो मैं अक्सर एक-एक करके इन चीज़ों को गिनता हूं, जो मुझे अच्छी लगती हैं, जैसे हवा में रंग-बिरंगे झंडों का फरफराना, जैसे चुपचाप प्रतीक्षा करना…

 

अब ये दोनों बातें हैं. मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं. उसे देर नहीं हुई है. मैं ख़ुद जानबूझकर समय से पहले आ गया हूं. उसे ठीक समय पर आना अच्छा लगता है, न कुछ पहले, न कुछ बाद में, इसीलिए मैं अक्सर ठीक समय से पहले आ जाता हूं. मुझे प्रतीक्षा करना, देर तक प्रतीक्षा करते रहना अच्छा लगता है.

 

धीरे-धीरे समय पास सरक रहा है. एक ही जगह पर खड़े रहना, एक ही दिशा में ताकते रहना, यह शायद ठीक नहीं है. लोगों का कौतूहल जाग उठता है. मैं कॉरिडोर में टहलता हुआ एक बार फिर किताबों की दुकान के सामने खड़ा हो जाता हूं. कत्थई रंग के सूटवाले सज्जन जा चुके हैं. इस बार दुकान पर कोई ग्राहक नहीं है. लड़का एक बार मेरी ओर ध्यान से देखता है और फिर मैली झाड़न से पत्रिकाओं पर जमी धूल पोंछने लगता है.

 

कवर पर धूल का एक टुकड़ा आ सिमटा है. बीच में लेटी युवती की नंगी जांघों पर धूल के कण उड़ते हैं. …लगता है, वह सो रही है.

 

फ़ुटपाथ पर पत्तों का शोर है. यह शोर मैंने पिछली रात को भी सुना था. पिछली रात हमारे शहर में तेज़ हवा चली थी. आज सुबह जब मैं घर की सीढ़ियों से नीचे उतरा था, तो मैंने इन पत्तों को देखा था. कल रात ये पत्ते फ़ुटपाथ से उड़कर सीढ़ियों पर आ ठहरे होंगे. मुझे यह सोचना अच्छा लगता है कि हम दोनों एक ही शहर में रहते हैं, एक ही शहर के पत्ते अलग-अलग घरों की सीढ़ियों पर बिखर जाते हैं और जब हवा चलती है, तो उनका शोर उसके और मेरे घर के दरवाज़ों को एक संग खटखटाता है.

 

यह दिल्ली है और दिसंबर के दिन हैं और साल के आख़िरी पत्ते कॉरिडोर में उड़ रहे हैं. मैं कनॉट प्लेस के एक कॉरिडोर में खड़ा हूं, खड़ा हूं और प्रतीक्षा कर रहा हूं. वह आती होगी.

 

मैं जानता था, वह दिन आएगा, जब मैं ‘एल्प्स’ के सामने खड़ा होकर प्रतीक्षा करूंगा. कल शाम उसका टेलीफ़ोन आया था. कहा था कि वह आज सुबह ‘एल्प्स’ के सामने मिलेगी. उसने कुछ और नहीं कहा था… उस पत्र का कोई ज़िक्र नहीं किया था, जिसके लिए वह आज यहां आ रही है. मैं जानता था कि मेरे पत्र का उत्तर वह नहीं भेजेगी, वह लिख नहीं सकती. मैं लिख नहीं सकती-एक दिन उसने कहा था. …उस दिन हम दोनों हुमायूं के मकबरे गए थे. वहां वह नंगे पांव घास पर चली थी. मुझे नंगे पांव घास पर चलना अच्छा लगता है-उसने कहा था. मैंने उसकी चप्पलें हाथ में पकड़ रखी थीं. उसने मना किया था. ‘इट इज़ नॉट डन,’ उसने अंग्रेज़ी में कहा था. यह उसका प्रिय वाक्य है. जब कभी मैं उसे धीरे-से अपने पास खींचने लगता हूं, तो वह अपने को बहुत हल्के से अलग कर देती है और कहती है-इट इज़ नॉट डन. मैंने उसकी चप्पलों को अपने रूमाल में बांध लिया था. रूमाल का एक सिरा उसने पकड़ा था, दूसरा मैंने. हम उस रूमाल को हिला रहे थे और चप्पलें बीच हवा में ऊपर-नीचे झूलती थीं. मकबरे के पीछे पुराना, टूटा-फूटा टैरेस था, उसके आगे रेल की लाइन थी, बहुत दूर जमुना थी, जो बहुत पास दिखती थी.

 

उसके नंगे, सांवले पैरों पर घास के भूरे तिनके और बजरी के दाने चिपक गए थे. मेरी ऐनक पर धूल जमा हो गई थी, लेकिन मैं रूमाल से उसको नहीं पोंछ सकता था, क्योंकि रूमाल में चप्पलें बंधी थीं और उसके पांव अभी तक नंगे थे. तब मैंने उसकी उन्नाबी साड़ी के पल्ले से अपनी ऐनक के शीशे साफ़ किए थे. वह नीचे झुक आई थी और उसने धीरे-से पूछा था-तुम यहां कभी पहले आए थे?

 

– हां, अपने दोस्तों के संग.

 

– क्या किया था? – उसने मेरी ओर झपकती आंखों से देखा.

 

– दिन-भर फ़्लैश खेली थी – मैंने कहा.

 

– और? और क्या किया था? – उसके स्वर में आग्रह था.

 

– शाम को बियर पी थी, वे गर्मी के दिन थे.

 

– तुम पीते हो?

 

– हां – मैंने कहा – पीता तो हूं.

 

– किसी ने देखा नहीं?

 

– नहीं, अंधेरा होने पर पी थी और जाने से पहले बोतलें नीचे फेंक दी थीं.

 

– नीचे कहां?

 

– टैरेस के नीचे.

 

टैरेस के नीचे रेलवे लाइन है. जमुना है, जो बहुत दूर है और बीच में पुराने क़िले के खंडहर हैं. बहुत शुरू का मौन है, और सर्दियों की धूप है, जो क़िले के भग्न झरोखों पर ठगी-सी ठिठकी रह गई है.

 

वह शुरू दिसंबर की शाम थी और हम हुमायूं के मकबरे के पीछे छोटे टैरेस पर बैठे थे. बाईं ओर पुराने क़िले के टूटे पत्थर थे, धूप में सोते-से. सामने ऊबड़-खाबड़ मैदान था, जिसे बाढ़ के दिनों में जमुना भिगो गई थी, और जहां चूने-सी सफ़ेदी बिछल आई थी. जब वापस आने लगे, तो वह सीढ़ियों पर उतरती हुई सहसा ठिठक गई.

 

– तुमने देखा? – उसकी आंखें कहीं पर टिकी थीं.

 

उधर, हवा में उसकी निगाहों पर मेरी आंखें सिमट आई थीं.

 

उसने हाथ से दूर एक पक्षी की ओर संकेत किया. वह मकबरे की एक मीनार पर बैठा था. वह चुपचाप निरीह आंखों से हमें देख रहा था.

 

यह नीलकंठ है. …तुमने कभी देखा है? – उसने बहुत धीरे-से कहा – नीलकंठ को देखना बड़ा शुभ माना जाता है.

 

क्या हम दोनों के लिए भी? – मैं हंसने लगा. मेरी हंसी से शायद वह डर गया और अपने पंख फैलाकर गुंबद के परे उड़ गया था.

 

क्या हम दोनों के लिए भी, यह मैंने कहा नहीं, सिर्फ़ सोचा था. कुछ शब्द हैं, जो मैंने आज तक नहीं कहे. पुराने सिक्कों की तरह वे जेब में पड़े रहते हैं. न उन्हें फेंक सकता हूं, न भुला पाता हूं.

 

जब वह आई, तो मैं उसके बारे में नहीं सोच रहा था. मैं क्रिकेट के बारे में, सिनेमा के पोस्टरों के बारे में और कुछ गंदे, अश्लील शब्दों के बारे में सोच रहा था, जो कुछ देर पहले मैंने पब्लिक लेवेट्री की दीवार पर पढ़े थे. ऐसा अक्सर होता है. प्रतीक्षा करते हुए मैं उस व्यक्ति को बिलकुल भूल जाता हूं, जिसकी मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं. सामने जो पेड़ों की कतार है, वह ‘सिंधिया हाउस’ की क्रॉसिंग तक जाती है, और वहां ट्रैफ़िक-लाइट लाल से गुलाबी होती है और गुलाबी से हरी. जब वह आई, तो मुझे कुछ भी पता नहीं चला था. मैं ट्रैफ़िक-लाइट को देख रहा था और वह मेरे पास चली आई थी – बिलकुल पास, बिलकुल सामने. उसने काली शाल ओढ़ रखी है और उसके बाल सूखे हैं. उसके होंठों पर हल्की, बहुत ही हल्की लिपस्टिक है, जैसी वह अक्सर लगाती है.

 

– तुम क्या बहुत देर से खड़े हो? – उसने पूछा.

 

– मैं तुमसे पहले आ गया था.

 

– कब से इंतज़ार करते रहे हो?

 

– पिछले एक हफ़्ते से – मैंने कहा.

 

वह हंस पड़ी – मेरा मतलब यह नहीं था. तुम यहां कब आए थे?

 

मैं नहीं चाहता कि वह जाने कि मैं रात-भर जागता रहा हूं. मैं सिर्फ़ यह जानना चाहता हूं कि उसने क्या निर्णय किया है. शायद मैं यह भी नहीं जानना चाहता. मैं सिर्फ़ उसे चाहता हूं और यह मैं जानता हूं.

 

हम दोनों ‘एल्प्स’ की तरफ बढ़ जाते हैं. दरवाज़े पर खड़ा लड़का हमें सलाम करता है. वह दरवाज़ा खोलकर भीतर चली जाती है. मैं क्षण-भर के लिए बाहर ठिठक जाता हूं. लड़का मुझे देखकर मुस्कराता है. वह हम दोनों को पहचानने लगा है. उसने हम दोनों को कितनी बार यहां एक संग आते देखा है.

 

‘एल्प्स’ के भीतर अंधेरा है, या शायद अंधेरा नहीं है, हम बाहर से आए हैं, इसीलिए सबकुछ धुंधला-सा लगता है. बाहर दिसंबर की मुलायम धूप है. जब कभी दरवाज़ा खुलता है, धूप का एक सांवला-सा धब्बा खरगोश की तरह भागता हुआ घुस आता है, और जब तक दरवाज़ा दोबारा बंद नहीं होता, वह पियानो के नीचे दुबका-सा बैठा रहता है.

 

– आज अख़बार में देखा? – उसने पूछा.

 

– न – मैंने सिर हिला दिया.

 

– शिमले में बर्फ़ गिरी है, तभी कल रात इतनी सर्दी थी – उसने कहा – मैं सारी खिड़कियां बंद करके सोई थी.

 

कल रात मैं जागता रहा था, मैंने सोचा और बाहर सूखे पत्तों का शोर होता रहा था. दिसंबर के दिनों में बहुत-से पत्ते गिरते हैं, रात-भर गिरते हैं.

 

– तुमने बर्फ़ देखी है, निंदी? – उसने पूछा.

 

– हां, क्यों?

 

– सच? – आश्चर्य से उसकी आंखें फैल गईं.

 

– तब मैं बहुत छोटा था. …अब तो कुछ भी याद नहीं रहा. – मैंने कहा.

 

– तुम अब भी छोटे लगते हो! – उसने हंसकर कहा – जब तुम फ़ुल स्लीव का स्वेटर पहनते हो. – उसने अपना छोटा-सा पर्स पास की ख़ाली कुर्सी पर रख दिया और अपने दोनों हाथ शाल से बाहर निकाल लिए. वह मेरे स्वेटर को देख रही है, मैं उसके हाथों को. उसके दोनों हाथ मेज पर टिके हैं, लगता है जैसे वे उससे अलग हों. वे बहुत नर्वस हैं. आधे खुले हुए, आधे भिंचे हुए. लगता है, वे किसी अदृश्य चीज़ को पकड़े हुए हैं.

 

हम कोने में बैठे हैं, जहां वेटर ने हमें नहीं देखा है. सुबह इतनी जल्दी बहुत कम लोग यहां आते हैं. हमारे आस-पास की मेज-कुर्सियां ख़ाली पड़ी हैं. डांसिंग-फ्लोर के दोनों ओर लाल शेड से ढक लैंप जले हैं. दिन के समय इनसे अधिक रोशनी नहीं आती, जो रोशनी आती है, वह सिर्फ़ इतनी ही कि आस-पास का अंधेरा दिख सके. कुछ फासले पर डांसिंग-फ्लोर की दाईं ओर जॉर्ज और उसकी फियान्स ने मुझे देख लिया है, और मुस्कराते हुए हवा में हाथ हिलाया है. जॉर्ज ‘एल्प्स’ का पुराना ड्रमर है. साढ़े दस बजे आरकेस्ट्रा का प्रोग्राम आरंभ होगा, तब तक वह ख़ाली है. वह जानता है, मैं आज इतनी सुबह क्यों आया हूं. वह मुझसे बड़ा है और मेरी सब बातें… खुली-छिपी सब बातें जानता है. उसने मुझे देखा और मुस्कराते हुए अपनी ‘फियान्स’ के कानों में कुछ धीरे-से फुसफुसाने लगा. वह अपना सिर मोड़कर गहरी उत्सुक आंखों से मुझे… मुझे और उसे देख रही है. उसकी आंखों में अजीब-सा कौतूहल है. यदि जॉर्ज उसकी बांह को खींचकर झिंझोड़ न देता, तो शायद वह देर तक हम लोगों को देखती रहती.

 

मेरे एक हाथ में सिगरेट है, जिसे मैंने अभी तक नहीं जलाया. दूसरा हाथ टाँगों के नीचे दबा है. मैं आगे झुककर उसे दबाता हूं. मुझे लगता है, जब तक वह मेरे बोझ के नीचे बिलकुल नहीं भिंच जाएगा तब तक ऐसे ही कांपता रहेगा.

 

वेटर आया. मैंने उसे कोना-कॉफ़ी लाने के लिए कह दिया. वह चुप बैठी रही, कुर्सी पर रखे अपने पर्स को देखती रही.

 

– मैंने सोचा था, तुम फ़ोन करोगी – मैंने कहा.

 

उसने मेरी ओर देखा, उसकी आंखों में हल्का-सा विस्मय था – तुम काफ़ी अजीब बातें सोचते हो – उसने कहा.

 

शायद यह ग़लत था – मैंने कहा – शायद तुम नाराज़ हो.

 

– पता नहीं… शायद हूं… उसने कहा.

 

मैं हंसने लगा.

 

– क्यों? तुम हंसते क्यों हो?

 

– कुछ नहीं, मुझे कुछ याद आ गया.

 

– क्या याद आ गया? – उसने पूछा.

 

– तुम्हारी बात, इट इज़ नॉट डन!

 

उसका निचला होंठ धीरे-से कांपा था, तितली-सा, जो उड़ने को होती है, और फिर कुछ सोचकर बैठी रहती है.

 

– तुम उस दिन ठीक समय पर घर पहुंच गई थीं?

 

– किस दिन?

 

– जब हम हुमायूं के मकबरे से लौटे थे.

 

– न, बस नहीं मिली. बहुत देर बाद स्कूटर लेना पड़ा… उस रात बड़ा अजीब-सा लगा.

 

– कैसा अजीब-सा? – मैंने पूछा.

 

– देर तक नींद नहीं आई – उसने कहा – देर तक मैं उस नीलकंठ के बारे में सोचती रही, जो हमने उस दिन देखा था, मकबरे के गुंबद पर.

 

नीलकंठ! मुझे वह शाम याद आती है. उस शाम हम पवेलियन के पीछे टैरेस पर बैठे थे. मेरे रूमाल में उसकी चप्पलें बंधी थीं और उसके पांव नंगे थे. घास पर चलने से वे गीले हो गए थे और उन पर बजरी के दो-चार लाल दाने चिपके रह गए थे. अब वह शाम बहुत दूर लगती है. उस शाम एक धुंधली-सी आकांक्षा आई थी और मैं डर गया था. लगता है, आज वह डर हम दोनों का है, गेंद की तरह कभी उसके पास जाता है, कभी मेरे पास. वह अपनी घबराहट को दबाने का प्रयत्न कर रही है, जिसे मैं नहीं देख रहा. मेज के नीचे कुर्सी पर भिंचा मेरा हाथ कांप रहा है, जिसे वह नहीं देख सकती. हम केवल एक-दूसरे की ओर देख सकते हैं और यह जानते हैं कि ये मरते वर्ष के कुछ आख़िरी दिन हैं और बाहर दिसंबर के उन पीले पत्तों का शोर है, जो दिल्ली की तमाम सड़कों पर धीरे-धीरे झर रहे हैं.

 

मुझे लगता है, जैसे मैं वह सबकुछ कह दूं जो मैं पिछले हफ़्ते के दौरान में, सड़क पर चलते हुए, बस की प्रतीक्षा करते हुए, रात को सोने से पहले और सोते हुए, पल-छिन सोचता रहा हूं, अपने से कहता रहा हूं. मैं भूला नहीं हूं. कुछ चीज़ें हैं, जो हमेशा साथ रहती हैं, उन्हें याद रखना नहीं होता. कुछ चीज़ें हैं, जो खो जाती हैं, खो जाने में ही उनका अर्थ है, उन्हें भुलाना नहीं होता.

 

वेटर आया और कोना-कॉफ़ी की बोतल से पहले उसके और फिर मेरे प्याले में कॉफ़ी उंड़ेल दी. हमारे सामनेवाली मेज पर एक अंग्रेज युवती आकर बैठ गई. उसके संग एक छोटा-सा लड़का है, जो उसकी कुर्सी के पीछे खड़ा है. युवती का चेहरा मीनू के पीछे छिप गया.

 

– वाट विल यू हैव, सनी?

 

लड़का पंजों के बल खड़ा हुआ, सिर झुकाकर मीनू को देख रहा है, ऊं…ऊं…ऊं…, लड़के ने ज़ुबान बाहर निकालकर बिल्ली की तरह नाक सिकोड़ ली.

 

– ओ, शट अप! वोन्ट यू सिट डाउन?

 

डांसिंग-फ्लोर के पीछे जो कुर्सियां अभी तक ख़ाली पड़ी थीं, वे धीरे-धीरे भरने लगीं. लगता है, बाहर सूरज बादलों में छिप गया है. सामने खिड़की के शीशों पर रोशनी का हल्का-सा आभास है. जब दरवाज़ा खुलता है, तो पहले की तरह धूप का टुकड़ा भीतर नहीं आता. सिर्फ़ हवा आती है, और मैली-सी धुंध. दरवाज़ा खुलकर एकदम बंद नहीं होता और हम बाहर देख लेते हैं. बाहर सर्दी का धुंधलका है और दिसंबर का मेघाच्छन्न आकाश… जो कुछ देर पहले बिलकुल नीला था.

 

जहां हम बैठे हैं, वह एक कोना है. जब कभी हम यहां आते हैं (और ऐसा अक्सर होता है), तो यहीं बैठते हैं. उसे कोने में बैठना अच्छा लगता है. वह चम्मच से मेजपोश पर लकीरें खींचती है और मैं अपनी उन कहानियों के बारे में सोचता हूं, जो मैंने नहीं लिखीं, जो शायद मैं कभी नहीं लिखूंगा, और मुझे उनके बारे में सोचना अच्छा लगता है.

 

दो दिन बाद क्रिसमस है. ‘क्वीन्स-वे’ की दुकानों पर इन दिनों भीड़ लगी रहती है. कुछ लोग ख़रीदारी करने के बाद अक्सर यहां आते हैं, उनके हाथों में रंग-बिरंगी बास्केट, थैले और लिफाफे हैं. जब वे भीतर आते हैं, वह दरवाज़े की ओर देखने लगती है. उसकी आंखें बहुत उदास हैं. मैं उसकी बांहों को देख रहा हूं. प्लास्टिक की चूड़ी और ज़्यादा नीचे खिसक आई है. उसका निचला हिस्सा प्याले की कॉफ़ी में भीग रहा है, भीग रहा है और चमक रहा है.

 

– निंदी – उसने धीरे-से कहा और रुक गई.

 

यह मेरे घर का नाम है. एक बार उसके पूछने पर मैंने बताया था. जब कभी हम दोनों अकेले होते हैं, जब कभी हम दोनों एक-दूसरे के संग होते हुए भी अपने-अपने में अकेले हो जाते हैं, और उसे लगता है कि उसकी बात से मुझे तक़लीफ़ होगी, तो वह मुझे इसी नाम से बुलाती है. मेरा हाथ मेरे घुटनों के बीच दबा है. लगता है, अब वह क्षण आ गया है, जिसकी इतनी देर से प्रतीक्षा थी, वह आ गया है और हम दोनों के बीच आकर बैठ गया है.

 

– निंदी, यह ग़लत है – उसने धीरे-से कहा, इतने धीरे-से कि मैं हंसने लगा.

 

– तुम क्या इतनी देर से यही सोच रही थीं? – मैंने कहा.

 

– निंदी, सच! – वह भी हंसने लगी, किंतु उसकी आंखें पहले-जैसी ही उदास हैं – मैंने इस तरह कभी नहीं सोचा था.

 

– किस तरह? – मैंने पूछा.

 

– जैसे तुमने मुझे लिखा था. …मैंने उसे कई बार पढ़ा है, निंदी… यह ग़लत है सच, बहुत ग़लत है, निंदी! – उसने मेरी ओर देखा. उसके बाल बहुत रूखे हैं और होंठों पर हल्की, बहुत हल्की लिपस्टिक है, जैसे वह लिपस्टिक न हो, सिर्फ़ होंठों का रंग ही तनिक गहरा हो गया हो. वह मेरी ओर देख रही है – निंदी, तुम… – उसने आगे कुछ कहा, जो बहुत धीमा था. मैंने उसकी ओर देखा. उसने अपनी दो उंगलियों में रूमाल कसकर लपेट लिया था – निंदी, सच, तुम पागल हो! …मैंने कभी ऐसे नहीं सोचा. नॉट इन दैट वे!

 

नॉट इन दैट वे, ये चार शब्द बहुत ही छोटे हैं, आसान हैं, और मैं अचानक ख़ाली-सा हो गया हूं, और सोचता हूं, ज़िंदगी कितनी हल्की है!

 

मैंने उसकी ओर देखा. उसकी आंखों में बड़े-बड़े आंसू थे, जैसे बच्चों की आंखों में होते हैं. किंतु उन आंसुओं का उसके चेहरे से कोई संबंध नहीं है, वे भूले से निकल आए हैं, और कुछ देर में, ढुलकने से पहले, ख़ुद-ब-ख़ुद सूख जाएंगे, और उसे पता भी नहीं चलेगा.

 

लेकिन शायद कुछ है, जो नहीं सूखेगा. मैं कल रात यही सोचता रहा था कि वह ‘न’ कह देगी, तो क्या होगा? अब उसने कह दिया है, और मैं वैसा ही हूं. कुछ भी नहीं बदला. जो बचा रह गया है, वह पहले भी था… वह सिर्फ़ है, जो उम्र के संग बढ़ता जाएगा… बढ़ता जाएगा और खामोश रहेगा… बंद दरवाज़े की तरह, उड़ते पत्तों और पुराने पत्थरों की तरह… और मैं जीता रहूंगा.

 

उसके चेहरे पर शर्म और सहानुभूति का अजीब-सा घुला-मिला भाव है, सहानुभूति मेरे लिए, शर्म शायद अपने पर.

 

– निंदी, …क्या तुम नाराज़ हो?

 

मैं अपना सिर हिलाता हूं – हां.

 

– तुम अब मुझे बुरा समझते होगे?

 

मैं हंस देता हूं. मैं अब बिलकुल शांत हूं. टांगों के नीचे मेरा हाथ नहीं कांप रहा. जब हम यहां आए थे, तब सबकुछ धुंधला-धुंधला-सा दीख रहा था. लगा था, जैसे सपने में मैं सबकुछ देख रहा हूं. सपना अब भी लगता है, उसकी शाल, उसकी सफेद मुलायम बांहें… लेकिन अब वे ठोस हैं, वास्तविक हैं. मैं चाहूं, तो उन्हें छू सकता हूं और उन्हें छूते हुए मेरा हाथ नहीं कांपेगा.

 

निंदी, वी कैन बि फ्रैंड्स, कांट वी? – उसने अंग्रेज़ी में कहा. जब वह किसी बात से बहुत जल्दी घबरा जाती है, तो हमेशा अंग्रेज़ी में बोलती है और मुझे उसकी यह घबराहट अच्छी लगती है. मैं कुछ भी नहीं कहता, क्योंकि कुछ भी कहना कोई मानी नहीं रखता और यह मुझे मालूम है कि जो कुछ मैं कहूंगा, वह नहीं होगा; जो कहना चाहता हूं, वह शब्दों से अलग है… इसलिए पंद्रह-बीस वर्ष बाद जब मैं दिसंबर की इस सुबह को याद करूंगा, तो शब्दों के सहारे नहीं. याद करने पर बहुत-सी बेकार, निरर्थक चीज़ें याद आएंगी, जैसे वह क्रिसमस के दो दिन पहले की सुबह थी… हम ‘एल्प्स’ में बैठे थे और बाहर दिसंबर के पीले पत्ते हवा में झरते रहे थे…

 

क्योंकि यह कहानी नहीं है, ये कुछ ऐसी बातें हैं, जिनकी कहानी कभी नहीं बनती. यही कारण है कि मैं बार-बार मन-ही-मन दुहरा रहा हूं… ये वर्ष के अंतिम दिन हैं. बाहर दुकानों पर क्रिसमस और न्यू ईयर कार्ड बिक रहे हैं. यह दिल्ली है… हमारा शहर. बरसों से हम दोनों अलग-अलग घरों में रहे हैं… किंतु आज की सुबह हम दोनों अपने-अपने रास्तों से हटकर इस छोटे-से काफे में आ बैठे हैं, कुछ देर के लिए. कुछ देर बाद वह अपने घर जाएगी और मैं जॉर्ज के कमरे में चला जाऊंगा. सारी शाम पीता रहूंगा.

 

– सच, निंदी, कांट वी बि फ्रेंड्स?

 

उसके स्वर में भीगा-सा आग्रह है. मैं मुस्कराता हूं. मुझे एक लंबी-सी जम्हाई आती है. मैं उसे दबाता नहीं. अब मैं बिना शर्म महसूस किए उससे कह सकता हूं कि कल सारी रात मैं जागता रहा था.

 

– क्या सोच रहे हो? – उसने पूछा.

 

– बर्फ़ के बारे में – मैंने कहा – तुमने कहा था कि शिमले में कल बर्फ़ गिरी थी.

 

– हां, मैंने अख़बार में पढ़ा था और मैं देर तक तुम्हारे बारे में सोचती रही थी. रात-भर बर्फ़ गिरती रही थी और मुझे पता भी नहीं चला था. इसीलिए कल रात इतनी सर्दी थी. मैं अपने कमरे की सारी खिड़कियां बंद करके सोई थी. – उसने कहा – जब कभी शिमले में बर्फ़ गिरती है, तो दिल्ली में हमेशा सर्दी बढ़ जाती है.

 

कुछ देर पहले मैं ‘एल्प्स’ के आगे खड़ा था. मैं पहले आ गया था और ट्रैफ़िक-लाइट को देखता रहा था. मैंने दस तक गिनती गिनी थी. सोचा था, यदि दस तक पहुंचते-पहुंचते बत्ती का रंग हरा हो जाएगा, तो वह हां कहेगी, नहीं तो नहीं… किंतु अब मैं शांत हूं.

 

और, निंदी – उसने कहा – तुमने यदि पत्र में न लिखा होता, तो अच्छा रहता. अब हम वैसे नहीं रह सकेंगे, जैसे पहले थे…,

 

और मैं जागता रहा था, मैंने सोचा. – तुमने नहीं सुना? कल रात देर तक दिल्ली की सूनी सड़कों पर पत्ते भागते रहे थे – मैंने कहा.

 

मैं खिड़कियां बंद करके सो गई थी – उसने कहा – और मुझे सपने में हुमायूं का मकबरा दिखाई दिया था. तुम जोर से हंसे थे और बेचारा नीलकंठ डर से उड़ गया था.

 

हम दोनों चुप बैठे रहे.

 

कुछ देर बाद उसकी पलकें ऊपर उठीं. – क्या सोच रहे हो? – उसने पूछा.

 

मैं चुपचाप उसकी ओर देखता रहा. बर्फ़ के बारे में – मैंने धीरे-से कहा.

 

हम उठ खड़े होते हैं. आरकेस्ट्रा शुरू होनेवाला है और हम उसके शुरू होने से पहले ही बाहर चले जाना चाहते हैं. दरवाजे के पास आकर मैं ठहर जाता हूं और आख़िरी बार पीछे मुड़कर देखता हूं. मेजपोश पर वे लकीरें अब भी अंकित हैं, जो अनजाने में उसने चम्मच से खींच दी थीं. उन लकीरों के दोनों ओर दो प्याले हैं, जिनसे हमने अभी कॉफ़ी पी थी. वे दोनों बिलकुल पास-पास पड़े हैं… और कुछ देर तक वैसे ही पड़े रहेंगे, जब तक बैरा उन्हें उठाकर नहीं ले जाएगा. वे दो कुर्सियां भी हैं, जिन पर हम इतनी देर से बैठे रहे थे और जो अब ख़ाली हैं. कुछ देर तक वे वैसी ही ख़ाली, प्रतीक्षारत पड़ी रहेंगी.

 

जॉर्ज की फियान्स ने मुझे देखा है. वह मुझे देखती हुई शरारत-भरी दृष्टि से मुस्करा रही है. वह समझती है, हम दोनों लवर हैं. जॉर्ज ने शायद उसे बताया होगा. जॉर्ज स्टेज पर ड्रम के आगे बैठा है. कुछ ही देर में आरकेस्ट्रा शुरू हो जाएगा. जॉर्ज ने भी मुझे देख लिया है. वह धीरे-से ड्रम-स्टिक हवा में घुमाता है. गुड-लक! – उसने कहा और धीरे-से आंख दबा दी.

 

मैं बाहर चला गया.

 

बाहर बादल छंट गए हैं. कॉरिडोर में धूप सिमट आई है! ‘एल्प्स’ के बाहर अंग्रेज़ी पत्रिकाओं की दुकान पर कुछ लोग जमा हो गए हैं. सामने क्वीन्स-वे की दुकानों के आगे भीड़ लगी है. क्रिसमस-रिडक्शन-सेल की तख्तियों पर टंगे रंग-बिरंगे रिबन हवा चलने से फरफराने लगते हैं. उनके पीछे दिसंबर का नीला आकाश फैला है.

 

मुझे एक लंबी-सी जम्हाई आती है और आंखों में पानी भर जाता है.

 

– क्या बात है? – उसने पूछा.

 

– कुछ नहीं – मैंने कहा.

 

– मुझे कुछ क्रिसमस कार्ड ख़रीदने हैं, मेरे संग आओगे? – उसने कहा.

 

– चलो – मैंने कहा – मैं बिलकुल ख़ाली हूं.

 

हम दोनों क्वीन्स-वे की ओर चलने लगते हैं.

 

– ज़रा ठहरो, मैं अभी आता हूं. – मैं पीछे मुड़ गया और तेज़ी से क़दम बढ़ाता हुआ अमरीकी पत्रिकाओं की दुकान के सामने आ खड़ा हुआ. पुरानी पत्रिकाओं का ढेर मेरे सामने बेंच पर रखा था. मैं उन्हें उलट-फेरकर नीचे से एक मैगज़ीन उठा लेता हूं. वही कवर है, जो अभी कुछ देर पहले देखा था. वही बीच का दृश्य है, जिस पर अर्द्धनग्न युवती धूप में लेटी है.

 

– क्या दाम है? – मैंने पूछा.

 

लड़के ने मुझे देखा, दाम बताया और मुस्कराते हुए सीटी बजाने लगा.

निर्मल वर्मा

 

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नारी जीवन बस दर्द का पर्याय है या बाहर निकलने का कोई रास्ता भी है ? बचपन में बड़े- बुजुर्गों के मुँह से सुनती थी,  ” ऊपर वाला लड़की दे तो भाग्यशाली दे ” l और उनके इस भाग्यशाली का अर्थ था ससुराल में खूब प्रेम करने वाला पति- परिवार मिले l नायिका कुंती की माँ तो हुनर मंद थी, आत्म निर्भर भी, फिर उसका जीवन दुखों के दलदल में क्यों धंसा था l  वरिष्ठ लेखिका दीपक शर्मा जी की कहानी ‘मां की सिलाई मशीन’ एक ऐसी कहानी है जिसे मैंने दो-तीन बार बार पढ़ा और हर बार अलग अर्थ निकले l एक आर्थिक रूप से स्वतंत्र स्त्री का भी आर्थिक शोषण हो सकता है l बाहर से दिखने वाले एक सामान्य संस्कारी परिवार के बीच अनैतिक रिश्ते अपनी पूरी ठसक के साथ चल सकते हैं l मारितयु से परे भी कुछ है जो मोह के धागों संग खींचा चला आता है l आइए पढे एक ऐसी कहानी जो अपने पूरे कहानी पन के साथ पाठक के मन में कई सावाल छोड़ जाती है और दर्द की एक गहरी रेखा भी…

मां की सिलाई मशीन -कहानी दीपक शर्मा

 

मां की सिलाई मशीन

              वरर्र ? वरर्र ?

सूनी रात के इस सुस्त अंधेरे में ?

डयोढ़ी में सो रही मैं जग गयी।

व्हिरर ! व्हिरर्र !!

फिर से सुना मैं ने ? मां की मशीन की दिशा से ?

धप ! मैं उठ बैठी । गली के खम्भे वाली बत्ती की मन्द रोशनी में मशीन दिख रही थी, लेकिन मां नहीं ।

वह वहां हो भी नहीं सकती थी। वह अस्पताल में थी। ट्रामा सेन्टर के बेड नम्बर तेरह पर, जहां उसे उस दिन दोपहर में पहुंचाया गया था। सिर से फूट रहे उनके लहू को बन्द कराने के वास्ते। बेहोशी की हालत में।

मशीन के पास मैं जा खड़ी हुई। उस से मेरा परिचय पुराना था। दस साल की अपनी उस उम्र जितना। मां बताया करतीं पहले मुझे गोदी में लिए लिए और फिर अपनी पीठ से सटाए सटाए उन्होंने अपनी कुर्सी से कितनी ही सिलाई पूरी की थी। मां टेलर थीं। खूब सिलाई करतीं। घर की, मुहल्ले की, शहर भर की।

मां की कुर्सी पर मैं जा बैठी। ठीक मां के अन्दाज़ में। ट्रेडिल पर दाहिना पैर थोड़ा आगे। बायां पैर थोड़ा पीछे।

क्लैन्क, क्लैन्क, क्लैन्क………

बिना चेतावनी दिए ट्रेडिल के कैम और लीवर चालू हो लिए।

फूलदार मेरी फ़्राक पर। जो मशीन की मेज़ पर बिछी थी। जिस की एक बांह अधूरी सिलाई लिए अभी पूरी चापी जानी थी।

और मेरे देखते देखते ऊपर वाली स्पूल के गिर्द लिपटा हुआ धागा लूप की फांद से सूई के नाके तक पहुंचने लगा और अन्दर वाली बौबिन, फिरकी, अपने गिर्द लिपटा हुआ धागा ऊपर ट्रैक पर उछालने लगी।

वरर्र……वरर्र……

सर्र……..सर्र

और मेरी फ़्राक की बांह मेरी फ़्राक के सीने से गूंथी जाने लगी, अपने बखियों के साथ सूई की चाप से निकल कर आगे बढ़ती हुई……..

खटाखट…..

“कौन ?’’ बुआ की आवाज़ पहले आयी। वह बप्पा की सगी बहन न थीं। दादी की दूर-दराज़ की भांजी थी जो एक ही साल के अन्दर असफल हुए अपने विवाह के बाद से अपना समय काटने के लिए कभी दादी के पास जा ठहरतीं और कभी हमारे घर पर आ टपकतीं।

“कौन ?’’ बप्पा भी चौंके।

फट से मैं ने अपने पैर ट्रैडिल से अलग किए और अपने बिस्तर पर लौट ली।

मशीन की वरर्र…..वरर्र, सर्र…..सर्र थम गयी।

छतदार उस डयोढ़ी का बल्ब जला तो बुआ चीख उठी, “अरे, अरे, अरे…….देखो…देखो…. देखो…..इधर मशीन की सुई ऊपर नीचे हो रही है और उसकी ढरकी आगे-पीछे। वह फ़्राक भी आगे सरक ली है….’’

जभी पिता का मोबाइल बज उठा।

“हलो,’’ वह जवाब दिए, ’’हां। मैं उस का पति बोल रहा हूँ…..बेड नम्बर तेरह….. मैं अभी पहुंच लेता हूं…..अभी पहुंच रहा हूं…. हां- कुन्ती…..कुन्ती ही नाम है….’’

“’मां ?’’ मैं तत्काल बिस्तर से उठ बैठी।

               “हां…”बप्पा मेरे पास  खिसक आए।

“क्या हुआ ?’’ बुआ ने पूछा।

“वह नहीं रही, अभी कुछ ही मिनट पहले। नर्स ग्लुकोज़ की बोतल बदल रही थी कि उसकी पुतलियां खुलते खुलते पलट लीं…’’

“अपना शरीर छोड़ कर वह तभी सीधी इधर ही आयी है, ’’बुआ की आवाज़ दुगुने वेग से लरज़ी, “अपनी मशीन पर….’’

“मुझे अभी वहां जाना होगा,’’ बप्पा ने मेरे कंधे थपथपाए, ’’तुम घबराना नहीं।’’

और उनके हाथ बाहर जाने वाले अपने कपड़ों की ओर बढ़ लिए। अपने कपड़ों को लेकर  वह बहुत सतर्क रहा करते। नयी या ख़ास जगह जाते समय ताजे़ धुले तथा इस्तरी किए हुए कपड़े ही पहनते। वह ड्राइवर थे। अपने हिसाब से, कैज़्युल। अवसरपरक। कुछ कार-मालिकों को अपना मोबाइल नम्बर दिए रहते, जिन के बुलाने पर उनकी कार चलाया करते। कभी घंटों के हिसाब से। तो कभी दिनों के।

“अभी मत जाएं,’’ बुआ ने डयोढ़ी की दीवार पर लगी मां की घड़ी पर अपनी नज़र दौड़ायी, “रात के दो बज रहे हैं। सुबह जाना। क्या मालुम मरने वाली ने मरते समय हम लोग को जिम्मेदार ठहरा दिया हो !’’

“नहीं। वह ऐसा कभी नहीं करेगी।

बेटी उसे बहुत प्यारी है। नहीं चाहेगी, उस का बाप 

जेल काटे और वह इधर उधर धक्का खाए…..’’

मैं डर गयी। रोती हुई बप्पा से जा चिपकी।

मां की मशीन और यह डयोढ़ी छोड़नी नहीं थी मुझे।

“तुम रोना नहीं, बच्ची,’’ बप्पा ने मेरी पीठ थपथपायी, “तुम्हारी मां रोती थी कभी ?’’

“नहीं,’’ मेरे आंसू थम गए।

“कैसे मुकाबला करती थी ? अपने ग्राहक-ग्राहिकाओं से ? पास पड़ोसिनों से ?  मुझ से ? बुआ से ? अम्मा से ?’’

यह सच था। ग्राहिकाएं या ग्राहक अगला काम दें न दें, वह अपने मेहनताने पर अड़ी रहतीं। पड़ोसिनें वक्त-बेवक्त चीनी-हल्दी हाज़िर करें न करें, वह अपनी तुनाकी कायम रखतीं। बप्पा लोग लाख भड़के-लपकें वह अविचल अपनी मशीन चलाए रखतीं।

“हां…’’ मैं ने अपने हाथ बप्पा की बगल से अलग कर लिए।

“अस्पताल जाना बहुत ज़रूरी है क्या ?’’ बुआ ने बप्पा का ध्यान बटांना चाहा। 

“जरूरी है।बहुत जरूरी है।कुन्ती लावारिस नहीं है। मेरी ब्याहता है….’’

इधर बप्पा की स्कूटी स्टार्ट हुई, उधर मैं मशीन वाली कुरसी पर जा बैठी। 

मां को महसूस करने।

मशीन में मौजूद उनकी गन्ध को अपने अन्दर भरने।

उन की छुअन को छूने।

“चल उठ,’’ तभी डयोढ़ी का बल्ब बुझा कर बुआ ने मेरा सिर आन झटका, “इधर मत बैठ। इस मशीन से तेरी मां का मोह अभी छूटा नहीं। आस पास इस के गिर्द वह इधर ही कहीं घूम रही है….’’

“हां,’’ मेरी रूलाई फिर छूट ली, ’’मां यहीं हैं। मैं यहीं बैठूगी….’’

“जभी तो बैठेगी जब मैं तुझे यहां बैठने दूंगी,’’ बुआ ने मेरे कंधों को टहोका, “चल उठ। उधर मेरे साथ चल। थोड़ा सुस्ताएंगी। कल का दिन क्या मालूम क्या नया दिखलाने वाला है !’’

मैं उसी दम उन के साथ चल पड़ी । पिछली दोपहर मां के संग उन की धक्का-मुक्की मैं भूली न थी।

 

बखेड़ा खड़ा किया था बप्पा द्वारा दीवाली के उपहार-स्वरूप लायी गयी दो साड़ियों ने।

“कुन्ती, इधर आओ तो,’’ बप्पा ने पहले मां को पुकारा था, “तुम दोनों के लिए साड़ी लाया हूं…’’

“दोनों ? मतलब ?’’ मां उस समय मेरी वही फूलदार फ़्राक तैयार कर रही थीं, जिसे वह मुझे दीवाली पर पहनाने का इरादा रखती थीं।

“मतलब मैं समझाए देती हूं,’’ रसोई में खाना बना रही बुआ तुरन्त वहां पहुंच ली थी, “एक तेरे लिए होगी, भौजायी, और एक मेरे लिए….’’

“अब तुम इतना अच्छा खाना हमें बना-खिला रही हो तो हम क्या तुम्हारे लिए कुछ न लिवाएंगे ?’’ बप्पा ने बुआ से लाड़  जताया था।

दीवाली नज़दीक होने के कारण उन दिनों मां के पास सिलाई को काम ज़्यादा था और बुआ ही रसोई देखा करती थीं। पूरे चाव से । बप्पा को अच्छा खाने का जितना शौक था, उतना ही शौक बुआ को अच्छा खिलाने का था।

“देखें तो ।’’ बुआ बप्पा के उस पैकेट पर जा झपटी थी जो बप्पा के हाथ ही में रखे रहा था।

“कुन्ती, तुम इधर आओ तो,’’ बप्पा ने मां को दोबारा पुकारा था।

“मैं नहीं आ सकती, ’’ पीठ किए मां अपनी कुरसी पर जमी रही थीं।

“आज तो भूत उतार दो, कुन्ती,’’ बप्पा ने मनुहार दिखाया था,’’ इधर आ कर देखो तो…..’’

बप्पा जब भी मां को मशीन पर मगन पाते, कहते, कुन्ती पर भूत सवार है। ऐसा अकसर होता भी था, मां जब मशीन पर होतीं मानो किसी दूसरे धरातल पर जा पहुंचतीं, किसी अन्य ग्रह पर।

“मुझे यह फ़्राक आज ज़रूर पूरी करनी है, ’’ मां ने मशीन चालू रखी थी।

“ऐसा क्या है ?’’ बुआ ने पैकेट वाली दोनों साड़ियां डयोढ़ी वाले इसी तख़्त पर बिछा दी थीं, ’’मैं तो देखूंगी ही……’’

दोनों के फूल एक जैसे थे।

अन्तर सिर्फ़ रंग का था।

एक की ज़मीन हरी थी और फूल, लाल। दूसरी की ज़मीन लाल थी और फूल, हरे।

उत्साह से भरी भरी बुआ दोनों को तुरन्त खोल बैठी थी।

बुआ के संग मैं ने भी देखा, हरे फूलों वाली साड़ी के दूसरे सिरे पर लाल रंग का ब्लाउज़ था और लाल फूलों वाली साड़ी के संग हरा।

“मैं हरे फूल नहीं पहनने वाली,’’ बुआ मचलीं, “मैं तो फूल भी लाल पहनूंगी और ब्लाउज भी लाल….’’

“इतना ठिनकती क्यों है ? तू दोनों ही पहन ले। मेरे पास अपनी कमाई बहुतेरी है। कुछ भी खरीद लूं….’’ मां तैश में आ कर बोली थीं।

“तुम मेरी लायी चीज़ नहीं देखना पहनना चाहती तो मत देखो – पहनो,’’ बप्पा को अपनी लायी साड़ियों का यह अनादर चुभ गया था, ’’वह दुकानदार मुझे पहचानता है। मैं उसे एक साड़ी वापस कर आऊंगा….’’

“मगर फिर मैं क्या करूंगी ?’’ बुआ ने दोनों साड़ियां अपनी छाती से चिपका लीं,”एक के फूल  मुझे पसंद हैं तो दूसरी का ब्लाउज़….’’

“तो तुम दोनों रख लो। कुन्ती ने कहा भी है वह अपनी कमाई से अपनी साड़ी खरीदेगी,’’ बप्पा ने मां को और चिढ़ाया था।

“अच्छी बात !’’ बुआ उछली थी, ’’फिर तो मैं लाल ब्लाउज ही पहले तैयार करती हूं। भौजायी नहीं सिएंगी तो मैं सी लूंगी। मशीन चलानी मुझे भी आती है-’’

“यह मशीन तुम से चलेगी ही नहीं,’’ मां वहीं से ठठायी थीं, “यह मेरी मशीन है। सिर्फ़ मेरे 

हाथ पहचानती है । सिर्फ़ मेरे पैर।’’

वह मशीन मेरी नानी और मेरी मां की सांझी कमाई से खरीदी गयी थी। नयी और अछूती। विधवा हो जाने पर, तीस साल पहले, जिस बंगले के मालिक-मालकिन व उनकी तीन बेटियों की सेवा-टहल मेरी नानी ने पकड़ी थी उस सेवा-टहल में मेरी मां भी शामिल रही थीं । अपने चौदहवें साल से अपने उन्नीसवें साल तक। जिस साल वह बप्पा से ब्याही गयी थीं ।

“कैसे नहीं चलेगी ?’’ बुआ ने अपने हाथ नचाए थे, “जरूर चलेगी…’’

“नहीं चलेगी,’’ मां ने दोहराया था। 

“भौजायी मुझे मशीन नहीं देगी तो मेरे ब्लाउज़ का क्या होगा ? बाहर बेगाने किसी दरज़ी से सिलवाना पडे़गा ? भौजायी को आप मशीन से उठा नहीं सकते क्या ?’’ बुआ ने बप्पा को तैश दिलायी थी ।

“मैं नहीं उठने वाली,’’ मां फिर चिल्लायी थीं, “तुम्हारी नाम की यह बहन तुम्हें छू सकती है, मगर मेरी मशीन को नहीं…’’

“नहीं उठोगी क्या ?’’ बप्पा और बुआ दोनों मां की कुरसी तक जा पहुंचे थे।

“नहीं,’’ मां दोहराए थीं।

“कैसे नहीं उठोगी ? मशीन तो क्या, तुम्हें तो मैं इस जहान से उठा सकता हूं…’’

“जहान से बेशक उठा सकते हो,’’ मां ने बप्पा को ललकारा था, ’’लेकिन मुझे मेरी मशीन से अलग न कर पाओगे…’’

“अपनी मालिकी फड़फड़ाती है ?’’ बप्पा और बुआ ने फिर एक साथ मां को कुरसी से दूर जा धकेला था और मां का सिर दीवार से जा टकराया था।

 

बप्पा देर शाम में लौटे।

आते ही मुझे बुलाए, ’’तुम से एक प्रौमिस लेना है….’’

“हां,’’ बप्पा की प्रतीक्षा में वह पूरा दिन मैं ने घड़ी के साथ बिताया था, उसकी बढ़ती का मिनट मिनट गिनते हुए। 

“अपनी नानी से कभी मत कहना तुम्हारी मां को चोट हम से लगी थी-’’

“नहीं कहूंगी…’’

नानी मेरे सामने घूम गयीं:

मां को अपने अंक में भरती हुईं, उन की गालें चूमती हुईं….

मुझ से अपने लाड़ लड़ाती हुईं- लूडो से, सांप-सीढ़ी से, समोसे से, गुलाब जामुन से…

बप्पा को उन की पसन्द के कपड़े दिलाती हुईं…..

हंसती हुईं…..

बतियाती-गपियाती हुईं………

“मरी कुछ बोल गयी क्या ?’’ बुआ ने शंका जतलायी।

“नहीं,’’ बप्पा ने कहा, ’’उस की बेहोशी आखि़र तक नहीं टूटी…’’

“उस की मां को कुछ बतलाया ?’’

“उस के सिवा कोई चारा ही न था। वरना मैं अकेले हाथ कैसे वह सब निपटा पाता? अस्पताल का बिल ? दाह-संस्कार का विधि-विधान ?’’

“निपट गया सब ?’’ बुआ पूछी।

“उस की मां ने सब किया करवाया । अपने मालिक लोग की मदद ले कर। उसकी मालकिन तो बल्कि कुन्ती का सुन कर रोयी भी…’’

“अरे !’’ बुआ हैरान हुईं।

“और मालिक हम दोनों के साथ अस्पताल गए। अपनी गाड़ी में। वहां के बड़े डाक्टर से मिले। अस्पताल का बिल चुकाए। एम्बुलैन्स का इन्तज़ाम करवाए।

“यह तो किसी फ़िल्म की मानिन्द है,’’ बुआ अपनी उंगलियां चबाने लगीं, ’’और कुन्ती की मां तनिक चीखी-चिल्लायी नहीं ?’’

“तनिक नहीं। पूरा टाइम अपने को सम्भाले रही। अस्पताल में । एम्बुलैन्स में। अपने क्वार्टर पर। कुन्ती को तैयार करते समय। शमशान घाट पर। सभी जगह बुत बन कर अपने हाथ-पैर चलाती रही….’’

“इधर घाट पर तुम दोनों अकेले गए ? और कोई दूसरा जन न रहा ?’’

“मालकिन रहीं । एकदम चुप और संजीदा। फिर अपने किसी कर्मचारी को कुछ समझा कर चली गयीं। कुन्ती की मां को अपने साथ ले जाती हुईं….’’

“ऐसे लोग भी दुनिया में होते हैं क्या ?’’

“क्या नहीं होते ? और होते न भी हो तो ऐसे बनाते बनाते बन जाया करते हैं। इन मां बेटी ने उन मालिक-लोग की जो सेवा-टहल कर रखी है, उस का फल तो फिर इन्हें मिलना ही था। साथ में उन लोग को मेरा लिहाज़ भी रहा। मौके-बेमौके मैं ने जो उन लोग के कितने ही मेहमान और सामान ढोए और पहुंचाए हैं…’’

मां और बप्पा की मुलाकात उन्हीं किन्हीं दिनों में हुई थी। जो फिर दोस्ती से होती हुई शादी में जा बदली थी।

 

वरर्र……वरर्र……

उस रात मशीन ने मुझे फिर पुकारा।

मेरे पैर ट्रेडिल पर फिर जा टिके और हाथ सूई के नीचे दबी रखी अपनी फ्राक पर।

ठीक मां के अन्दाज़ में।

वरर्र……वरर्र…..

व्हिरर…….व्हिरर……..

क्लैन्क……क्लैन्क…..

मशीन की चरखी, मशीन की फिरकी, मशीन की सूई सब हरकत में आती चली गयीं….

अधूरी सिली मेरी फ्राक को आगे सरकाती हुईं……

उसके सीने और उस की बांह पर नए बखिए उगाहती हुईं…..

जभी डयोढ़ी का बल्ब जल उठा और बप्पा मुझे मशीन पर देख कर भौचक गए, “इधर तू बैठी है ?’’

“हां,’’ मैं घबरा गयी ।

“तू यह मशीन चला लेती है ?’’

“हां। मां ने मुझे सब सिखा रखा है,’’ मैं ने हांका।

“सच ?’’ बप्पा की आवाज में एक नयी ही उमंग आन उतरी, मानो कोई पते की बात पता चली हो।

“यह सिलाई के लिए आए सभी कपड़े मैं सी सकती हूं,’’ मशीन पर मैं ज़्यादा से ज़्यादा समय बिताना चाहती । मां के साथ। 

“बढ़िया, बहुत बढ़िया…’’

मेरी सिलाई का सिलसिला फिर पूरी तरह से चल पड़ा। बप्पा के गुणगान के साथ। मुहल्ले वालों की वाहवाही के साथ। शहर वालों की शाबाशी के साथ।

इन में से कोई नहीं जानता मशीन अपने चक्कर मां की बदौलत पूरे करती है, मेरी बदौलत नहीं। सिवा बुआ के। क्योंकि दो एक बार जब भी वह इस पर बैठीं, मां ने उन पर हमला बोल दिया: सूई उनकी उंगलियों में धंसाते हुए, फिरकियों के धागे उलझाते हुए, ट्रैडिल जाम करते हुए। परिणाम, वह जान गयीं मां अपनी इस मशीन पर अपनी मालिकी अभी भी कायम रखे रही थी ।

 

दीपक शर्मा

दीपक शर्मा

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