महिमाश्री की कहानी अब रोती नहीं कनुप्रिया ?

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अब रोती नहीं कानुप्रिया

 

असली जिंदगी में अक्सर दो सहेलियों की एक कहानी विवाह के बाद दो अलग दिशाओं में चल पड़ती हैl पर कभी-कभी ये कहानी पिछली जिंदगी में अटक जाती है l जैसे रामोना और लावण्या की कहानी l कहानी एक सहेली के अपराध बोध और दूसरी के माध्यम से एक धोखा खाई स्त्री के चरित्र को उसके स्वभावगत परिवर्तन को क्या खूब उकेरा है । “अब रोती नहीं कनुप्रिया”  कहानी पाठक को रुलाती है। प्रेम पर भावनाओं पर लिखे  कई वाक्य किसी हार की तरह गुथे हुए बहुत प्रभवशाली व कोट करने लायक हैं । तो आइए पढ़ें महिमाश्री की कहानी

अब रोती नहीं कनुप्रिया 

 

पंद्रह साल बहुत ज्यादा होते हैं। लावण्या मेरी बचपन की साथिन। उसे कितने सालों से ढूढ़ती रही हूँ। कहाँ है ?कैसी है? उसकी जिंदगी में क्या चल रहा है। कितने सवाल हैं मेरे ज़हन में। । फेसबुक प्रोफाइल बनने के पहले दिन से ले कर आज तक उसे अलग-अलग सरनेम के साथ कितनी बार ढ़ूढ़ चुकी हूँ।

 

मॉल में एस्केलेटर से नीचे उतरता सायास मुझे वह पहचाना चेहरा दिखा।जिसकी तलाश में मेरी आँखे रहती हैं। हॉल में उस भरी देहवाली स्त्री को देखते ही मैं चहकी। मैंने अपने आपसे कहा- हाँ- हाँ वही है मेरी बचपन की सहेली लावण्या।मैंने एस्केलेटर पर से  ही आवाज लगाई लावण्या आ आ…….। वह  सुंदर गोलाकार चेहरा आगे ही बढ़ता जा रहा था। मेरा मन आशंकित हो उठा कहीं वह भीड़ में गुम न हो जाये।

 

इसबार  मैंने जोर से आवाज लगाई लावण्या..आ आ…

 

कई चेहरे एकसाथ मुड़ कर मुझे देखने लगे।मैंने किसी की परवाह नहीं की। बस लावण्या गुम न हो जाये।इसलिए आशंकित हो रही थी।

 

लावण्या ने मुड़ कर देख लिया। उसकी आँखों में भी पहचान की खुशी झलक उठी थी।मेरा दिल जोरो से धक -धक कर रहा है।मेरी अभिन्न सखी लावण्या। उसकी चिरपरिचित मुस्कान ने मुझे आशवस्त कर दिया।

 

हाँ वही है। मैं किसी अजनबी का पीछा नहीं कर रही थी। मेरा अनुमान सही निकला। मेरा दिल बल्लियों उछल रहा है।आखिर मैंने उसे ढ़ूढ निकाला।

 

आज मेरी आँखों के सामने वह साक्षात खड़ी है।वही हँसता -मुस्कुराता चेहरा।चंचल आँखों में थोड़ी स्थिरता आ गई है। कोमल सुडौल शरीर में चर्बी यहाँ-वहाँ झांकने लगी है।पर वही है। मेरी प्यारी सखी लवण्या  ।

 

मैं तेजी से सामने आकर लगभग उसे अपने अंक में भिंच ही लिया।कुछ देर के लिए भूल गई कि मॉल के अंदर भीड़-भाड़ के बीच में हूँ। मैं भावूक हुई जा रही हूँ।

 

“कहाँ थी यार? कितना तुम्हें याद किया। कितना तुम्हें ढ़ूढ़ा।अब भी तू वैसी ही सुंदर है। बस थोड़ी मोटी हो गई है।क्या तुम्हें मेरी याद नहीं आई। तू तो लगता है भुल ही गई थी मुझे।देख मैं तो तुझे देखते ही पहचान लिया। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है।“

 

लावण्या हल्की स्मित लिए खड़ी रही। वह मेरी हर सवाल पर एक मुस्कान दे रही है।लोग आते-जाते हमें देख रहे हैं।लोगो का क्या है। कुछ देर गिले शिकवे कहने के बाद मैं थोड़ी शांत हो गई।मैंने महसूस किया लावण्या मुझे देखकर उतनी भावूक नहीं हुई।जितनी मैं उसके लिए अभी महसूस कर रही हूँ। या फिर सार्वजनिक स्थान होने के कारण उसने अपनी भावूकता को दबा लिया।आखिरकार एक अभिनेत्री जो ठहरी।

 

मुझे कुछ सोचता देख उसने मेरे हाथों को अपने हाथों में ले लिया। मुझे थोड़ा सुकून मिला। चलो एकतरफा लगाव तो नहीं रह गया।

 

फिर  लावण्या ने अपने साथ खड़े  पुरुष से परिचय करवाया।

 

“रमोना! ये मेरे मेरे पति विनीत ।

 

विनीत ये मेरी सहेली  है। हम स्कूल से लेकर कॉलेज तक साथ थे।“

 

फिर से मुझे उसकी आवाज में एक ठंढेपन की तासिर नजर आई। मैंने अपने दिमाग को झटक कर। आँखे पूरी खोल दी।

 

विनीत। मैंने मन में इस नाम को दोहराया।वे एक मध्यम कद, मध्यम आयु के मोटे थोड़े थुलथुल से व्यक्ति हैं। पहली नजर में वे लावण्या से उन्नीस क्या सत्तरह ही नजर आये।फैब इंडिया का कुर्ता-पायजामा । गले में सोने का चेन और ऊंगलियों में हीरे और माणिक जड़ी अँगुठियाँ।एक हाथ में महँगा लैटेस्ट आई फोन।बायें हाथ की कलाई में रैडो की घड़ी। अमीरी की एक विशेष चमक उनके बॉडी लैंगवेज में झलक रही है।

 

“नमस्ते।“

“नमस्ते। आईये कभी हमारे गरीबखाने पर।“

विनीत ने अपनी अँगुठियों भरे दोनों हथेलियों को जोड़कर कहा।

“आप दोनों बचपन की सहेलियाँ हैं। और एक ही शहर में । कमाल का इत्तिफाक है।ऐसी मुलाकात तो नसीबवालों की ही होती है।“

जी ।

मेरी आँखों में हजारों प्रश्न चिन्ह एक साथ कौंध गए।लावण्या समझ गई।उसने अपना मोबाइल नम्बर दिया।साथ में अपने घर आने का आमंत्रण भी।

 

मेरी बेचैनी अपने चरम पर है ।मैं घर पहुँच अपने सारे काम निपटा कर लावण्या से बात करना चाहती हूँ। पंद्रह वर्षों की सारी बातें एक दिन में ही कर लेना चाहती हूँ। अपने मन में घुमड़ते प्रश्नों का हल भी चाहती थी। मन बार-बार अतीत में लौट रहा था ।लावण्या से पहले मेरी शादी हो गई थी ।मेरी शादी के बाद  पापा का भी ट्रांसफर हो गया। जिसके कारण मेरा  उस शहर उससे जुड़े लोग भी छूट गये । शादी के बाद  लड़कियों की जिंदगी ही बदल जाती है।यहाँ तो मेरा  मायका का शहर भी बदल गया था। घर –गृहस्थी में ऐसी उलझी की सहेलियों की याद आती मगर उनसे जुड़ने का माध्यम न मिलता। आज पता चला हमदोंनो सहेलियाँ तो कई वर्षों से एक ही शहर में रह रही हैं ।

2

 

लावण्या का मतलब जिंदगी लाइव।जिंदगी के हर रंग उसके व्यक्तिव में समाया था।वह हर वक्त किसी न किसी रंग में रमी रहती।लवण्या का मतलब लाइफ फुल ऑफ पार्टी। स्कूल-कॉलेज का हर फंक्शन उसके बिना फीका लगता।खेल , नृत्य, नाटक, पाक-कला , सिलाई-बुनाई, बागबानी, साहित्य-इतिहास, बॉटनी जुआल्जी सभी में बराबर दखल रखती।वह हर काम में आगे रहती। किसी से न डरती और हमें भी मोटीवेट करती रहती।उसका दिमाग और पैर कभी शांत नहीं रहते।हमेशा कुछ न कुछ योजना बनाते रहती। फिर उसे पूरा करने में जुट जाती। हमें भी ना ना कहते शामिल कर ही लेती।

 

लावण्या  हमारी  नायिका जो थी।जिस बात को करने के लिए हम लाख बार सोचते, डरते। वह बेझिझक कर आती।हो भी क्यों न।स्टूडेंट युनियन के लिए प्रिंसीपल से मिंटिंग फिक्स करनी हो। कॉलेज के किसी रोमियो को जमीन पर उतारना हो।या अपने थियेटर समूह के लिए नये नाटिका की तैयाऱियाँ। सरस्वती पूजा का उत्सव हो,  गणतंत्र दिवस या स्वतंत्रता दिवस समारोह की धुमधाम।सारी जिम्मेदारी उसके कंधों पर होती।उसकी पसंद का एक सोलो गाना। और एक नाटिका जरुर होता था। स्कूल से कॉलेज तक उसका थियेटर प्रेम चलता ही रहा। कभी शंकुतला, तो कभी कनुप्रिया , कभी राधा, कभी देवयानी तो कभी जबाला बनती।कनुप्रिया की भूमिका में जब वह अपने संवाद बोलती तो होंठो से जैसे फूल झ़ड़ते-

 

कनु तेरा कौन है ?

 

अक्सर जब तुम ने वंशी बजा कर मुझे बुलाया है

और मैं मोहित मृगी-सी भागती चली आयी हूँ

और तुम ने मुझे अपनी बाँहों में कस लिया है

तो मैंने डूब कर कहा है:

‘कनु मेरा लक्ष्य है, मेरा आराध्य, मेरा गन्तव्य!’

अहा! कैसा तो शमा बंध जाता। कॉलेज के थियेटर में गणित के प्रोफेसर और विद्यार्थी भी अश अश करते रह जाते।तालियाँ पर तालियाँ बजती रही।

 

लावण्या शंकुतला के वेश में कितनी कमनीय लगती। लगता जैसे साक्षात शंकुतला ही आ खड़ी हो गई।फूलों की वेणियाँ उसके लंबे लहराते बालों और गले और कलाईयों में सौन्दर्य का नया प्रतिमान गढ़ते।नकली हिरणों संग खेलती उसकी अलहड़ता के आगे माधुरी और श्रीदेवी भी फेल थी।

मैं उसे शंकुतला के रुप में देख के मुग्ध हो जाती। उसका नाम लावण्या सही रखा गया था।

 

मेरी  दीदी के संगीत पर उसने “ सुन सायबा सुन” पर नृत्य किया। हमारे दूर के रिश्ते को ममेरे भाई अरुणोदय तो उसके लिए पागल ही हो गये। पूरी शादी में उसके पीछे-पीछे भागते रहे। शादी के बाद वह लावण्या से दोस्ती करने के लिए मेरे हाथ-पैर जोड़ते रहे।होस्टल गये तो वहाँ से लावण्या के लिए प्रेम पत्र भेजने लगे। उनको कितना मैंने समझाया।हाथ जोड़े ऐसा कुछ मत करो। अरुणोदय भाई भूल जाओ। संभव नहीं है।यहाँ यह सब संभव नहीं है। लावण्या को चाहनेवालो की कमी थोड़े ही है।उसको पसंद करनेवाले मेरे कॉलेज में भरे पड़े हैं। कितने पागल हो रखे हैं। अपनी सीमा रेखा जानते हैं। सब मर्यादा में रहते हैं।  वह कला की देवी है। उसे नृत्य करना अच्छा लगता है इसलिए किया। आपको रिझाने के लिए नहीं किया था।फिर ये इश्क-मोहब्बत फिल्मों में ही ठीक लगता है।

अरुणोदय भाई नहीं माने। अंत में मैंने लवण्या को उसके लिए लिखे पत्र देने लगी। पहले तो वह उन पत्रों को देखकर बहुत हँसी थी।उसकी हँसी रुकने का नाम नहीं ले रही थी।उसने कहा -तेरा भाई पागल है क्या।उसको और कोई काम नहीं है ?

उसने पत्रों को मजाक में लिया था।लड़कियों को प्रेम को गंभीरता से लेने की जरुरत है भी क्या।  हमारे समाज में प्रेम करती स्त्रियाँ कम ही दिखती हैं।क्योंकि प्रेम के लिए स्त्री आकर्षण का केंद्र जरुर है लेकिन प्रेम करनेवाली स्त्री को समाज सम्मान  नहीं देता।

 

हमारे यहाँ लड़कियों को विवाह से पहले सारे शौक पूरे किये जाते हैं। पर प्रेम ! प्रेम तो विवाह के बाद अपने पति से ही करने की इजाजत है।लड़कियाँ भी अपना दायरा जानती है। या कहें उनकी घुट्टी में पिला दिया जाता है। कहाँ दौड़ना है। कितना दौड़ना है।कहाँ लक्ष्मण रेखा है। कहाँ रुक जाना है।

 

जिसने रेखा पार की। वह राक्षस के चंगुल में।किंतु विवाह के बाद भी तो राक्षस अपनो के वेश में मिल ही जाते हैं। वैसे राक्षसों का तो माँ-पिता भी कहाँ पता लगा पाते हैं।

खैर!

मेरे अरुणोदय भाई को  कौन समझाये।सोते-जागते बस लावण्या का ही जाप कर रहे थे। उनका कहना था-वे अपने जीवन में पहली बार किसी  ब्युटी विथ ब्रेन वाली अकेली लड़की को देखा है।और उन्हें लगा कि बस जिसकी उन्हें तलाश थी। वह तो उन्हें मिल गई। वे उससे बातें करना चाहते थे। जानना चाहते। लावण्या को लेकर उनके बड़े-बड़े दिवास्वपन ने मेरी रातों की नींद दिन का चैन खो दिया था।

 

जाने के बाद से ही अरुणोदय भाई ने लैंडलाइन पर लावण्या से बात कराने देने की इतनी जिद की।आखिरकार मानना पड़ा मुझे। बहन थी मैं।कितना कठोर होती । फिर मेरे वह भी बचपन से ही प्रिय भाई थे। उनके इसरार करने पर मना नहीं कर पाई।

 

उस शाम मैंने बहाना बनाकर लावण्या को अपने यहाँ बुला लिया। फिर जब अरुणोदय भाई का कॉल आया।उनसे अनजान बन कर बातें करती रही। और अचानक से फोन का रिसीवर लावण्या के कानों में लगा दिया। पहले वह कुछ समझ नहीं पाई। किंतु भाई ने जब हाल-चाल पूछा तो सामान्य तरीके से उसने बात कर ली।शायद बीच में उसने अपने पत्र के बारें में भी पूछा। उसके चेहरे से लग रहा था।हमदोनों भाई-बहनों का  यह प्रपंच उसे  रास नहीं आया।उसका मूड उखड़ गया। किंतु उसने मुझे कुछ नहीं बोला।

 

बाद में जब भी मिलती। मुझसे कटी-कटी रहने लगी। मुझसे खुलकर बातें करना बंद कर दिया। उसका किसी चीज में उत्साह भी पहले की तरह नहीं दिखता।वह खोई-खोई सी रहने लगी थी। उसके स्वभाव में परिर्वतन देखकर मुझे भाई पर गुस्सा भी आता।प्रेम के नाम पर एक हँसती-खेलती लड़की को संवेदनशील कठपुतली में बदल दिया था।जिसका अब किसी चीज में मन नहीं रमता था।

 

कुछ दिनों के बाद फिर अरुणोदय भाई का पत्र आया।उनका कॉल भी आया।हिदायत भी थी।आज पत्र जरुर से देना।  मैंने लावण्या को जाकर पत्र दे दिया। इस बार उसने कुछ नहीं कहा।पत्र लेकर रख लिया।इस बार पत्र में ऐसा कुछ था। जिसने लावण्या को मजबूर कर दिया, जबाब लिखने के लिए। उसने मुझे पत्र लिखकर दे दिया।

 

लावण्या के मन का मौसम बदल रहा था। वह पत्र के बारें में पूछने लगी थी। मुझसे बनी दूरियाँ अब पटने लगी थी।पर वह बदल रही थी। उसके अल्हड़पने में एक ठहराव आने लगा था। जो मुझे कचोट रहा था। वह पहले की तरह नहीं रह गई थी। उसके अंदर बहुत कुछ बदल रहा था। उसके मन का एक कोना मुझसे अनजान बना हुआ था। मैं उस तक नहीँ पहूँच पा रही थी।

 

प्रेम एक साथ सहज और जटिल भी है।यह गुंगे का गुड़ भी है। कोई चीज आपको क्यों अच्छी लगती है। इसके पीछे कोई ठोस तर्क नहीं काम आता है।

 

मैं खुशी भी थी। अरुणोदय भाई की मेहनत रंग ला रही थी। अब पत्रों का सिलसिला चल निकला।मैं उनकी  डाकिया बन चुकी थी। मेरे नाम से ही भाई उसे पत्र भेजते। वह भी मुझे ही पत्र भेजने के लिए देती रही।अब मेरी लावण्या  अरु भाई की लवी हो गई थी। भाई उसे लवी बुलाने लगे थे।

 

एक समय ऐसा भी आया। लावण्या बहाने बना कर मेरे यहाँ आने लगी। उसके बाद मेरे कमरे में फोन पर भाई से घंटो बातें  होती। मैं पहरेदारी में बैठी रहती।

 

भाई अपनी लवी को मेहंदी हसन तो कभी जगजीत सिंह की गजलें सुनाते। वे देर तक बातें करते रहते।उनकी हँसी मेरे कमरे में रंग-बिरंगी तितलियों की भांति उड़ कर  गुलजार करती। मैं उनके प्रेम को जी रही थी। मेरे जेहन में अजीब सा नशा तारी रहता। कब उनकी बातें करवानी है। कब पत्र लिखवाना है।इसी जुगाड़ में रहती।कैसे उनके पत्रों को छुपाना हैं।

 

लावण्या के होंठ हमेशा गुनगुनाते दिखते-

 

जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं/ मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा।

 

कहते हैं प्रेम का रंग है चोखा। इसके सच्चे रंग में जो रंगा फिर उस पर कोई और रंग नहीं चढ़ा।कहीं पढ़ा था।प्रेम अपने मूल में एक भाव है।व्यक्ति की मूल में एक राग है।राग अनुभव के स्तर पर आकर अनुराग बनता है। अनुराग में जब सांद्रता और सघनता आती है तब वह प्रेम में ढलता है।प्रेम में व्यक्ति जुड़ाव महसूस करता है।प्रेम में एक ही साथ उसे आत्मबोध भी प्रदान करता है और उसके स्व के विर्सजन की कामना भी करता है।लावण्या का पूरा व्यक्तित्व ही विर्सजित हो रहा था।

 

लावण्या के साथ उन लमहों को मैं शिद्दत से जी रही थी। कई बार भाई का पत्र हमदोनों मिलकर पढ़ते। कुछ बातों को लेकर मैं उसे चिढ़ाती। कभी धीरे से उसे कहती-तू मेरी सखी नहीं भाभी है। इस बात को लेकर वह मुझसे लड़ पड़ती।

 

कहती- हम पहले सहेलियाँ हैं। और दोस्ती ही सब रिश्तों में सबसे बड़ा रिश्ता है। उसके बाद हैं सारे रिश्ते।

 

मैं कहती-“ ना वक्त के साथ रिश्ते बदल जाते हैं। हमारा भी रिश्ता बदल जायेगा।तू मेरी भाभी बन जायेगी।फिर ननद -भाभी का रिश्ता हो जायेगा।“

 

वह कहती- “ तू पागल है। जिस दिन तू मुझे रिश्तेदारी में बदलेगी। यह बिंदासपन। यह सादापन खत्म हो जायेगा।भाई को अपनी जगह रहने दे। हम-तुम जो हैं। वादा कर वही रहेंगे।“

 

पर मैं तो उसे भाभी बनाने को पागल हो रही थी। घर में सबको थोड़ी भनक पड़ने लगी थी। दोनों को बीच कुछ तो खिचड़ी पक रही है।

 

इसी बीच हमारा बीए का फाइनल परीक्षा की तारीख भी आ गई। हम मिलकर पढ़ाई करेंगे। ऐसा कह के- एक-दूसरे के यहाँ आते-जाते रहे। पत्रों का आदान-प्रदान होता रहा। गज़लें सुनी जाती रहीं।

 

परीक्षा हो गई।रिजल्ट आने से पहले ही  पापा ने मेरी शादी तय कर दी। रिटायरमेंट से पहले मेरी शादी कर देना चाहते थे।मेरी शादी में अरुणोदय भाई और लावण्या के कारण माहौल बहुत ही रोमानी और खुशगवार हो गया था।अपनी विदाई से पहले तक लवण्या को भाभी कह के चिढ़ाती रही। वह शर्म से लाल-पीली होती रही। मैं उसे अपनी भाभी बनाने के सपने देखती रही।

 

इसी बीच पापा का उस शहर से ट्रांस्फर भी हो गया। मैं अपनी नई शादी और पति के आर्मी में होने के कारण हर दो साल पर शहर बदलते हुये, अपनी सखी से बहुत दूर होती चली गई। बाद में पता चला लावण्या की भी कहीं और शादी हो गई। अरुणोदय भाई स्टेट चले गये। मुझे कुछ समझ में नहीं आया। कहाँ ! क्या मुझसे छूट गया! मेरी शादी के बाद दोनों के बीच क्या हुआ?

 

मेरी पुरानी जिंदगी के सिरे छुट रहे थे। कुछ उलझ गये थे। अरु भाई का फोन नहीं था। मामी से नंबर लेकर जब आईएडसी कॉल किया। अरु भाई ने अपनी लवी का नाम तक नहीं लिया। जब मैंने लावण्या का नाम लेकर सीधे बात करनी की कोशिश की तो बात घुमा दिया। फिर फोन डिस्कनेक्ट हो गया।कई दिनों तक अरु भाई के रुपांतरण को दिल-दिमाग से समझने में गुम होती रही।

 

उस दिन से लावण्या से बातें करने, मिलने और सब जानने के लिए मैं छटपटाती रही हूँ।

 

क्या अरु भाई ने लावण्या के हृदय से खेला? क्या लावण्या के लिए मैं उनके वक्ती आर्कषण को प्रेम समझ बैठी थी ? क्या वे कभी सीरियस ही नहीं थे? ये मैं अपनी सखी के जिंदगी से क्या खेल खेल बैठी ? मैं पछतावे के आग में जलती रही।सब मेरा किया धरा था।मैं पाप के दलदल में फंसी महसूस कर रही थी।

 

बहुत दिनों के बाद जब मायके आई। तो लावण्या के बारें जानने के लिए इधर-उधर से नये स्रोत तलाशते रही। पर कोई संयोग ही नहीं बना। फिर एक दिन लावण्या के चाचा के लड़के सुमन भैया घर पर आये। यह संयोग ही था। सुमन भैया उस नये शहर में हमारे ही पड़ोसी बनकर रह आ गये। सुबह की सैर में उनसे भेंट हो गई। और मैंने उन्हें चाय पर उसी शाम को बुला लिया।

 

सुमन भैया भाभी के साथ आये।मेरा हृदय जोरो से धड़क रहा था। सुबह से ही मेरी बायीं आँख  फड़क रही थी। आज मेरी लावण्या के बारें मुझे पता चल जायेगा। मेरा दिल कह रहा था। पर सीधे-सीधे पूछ भी नहीं सकती थी। एक घंटे की इधर-उधर की बातें करने के बाद। अंतत: मुझे मौका मिल गया।

 

“भैया लावण्या के यहाँ सब कैसे हैं?”

 

“हाँ !सब ठीक हैं। इधर कई सालों से मैं भी घर नहीं गया। पर उसकी भी शादी हो गई। तुमदोनों बेस्ट फ्रेंड थे न।“

 

“जी भईया। पर उससे मेरा सम्पर्क नहीं हो पा रहा। शादी का भी पता नहीं चला।“

 

“हाँ ।चाचा जी ने चट मंगनी पट ब्याह उसका कर दिया । मैं भी उसकी शादी में कहाँ शामिल हो पाया।“

 

“ऐसा क्या हो गया था भैया?”

 

“हमारी बहन बहुत इंटिलिजेंट थी।तुमसे अच्छा कौन जानता है उसे। हर चीज में अव्वल आती थी। हम सब उसको अपनी पलकों पर रखते थे।उसको लेकर कितने सपने थे हमारे।“

 

लंबी सांस लेकर ।पर क्या बताये।

 

‘क्या हुआ भैया?”

 

“अब उसकी जैसी स्ट्रांग लड़की भी बेवकूफ बनाई जा सकती है तो किसी को क्या कहेंगे।“

 

“कैसी बेवकूफी भैया”

 

“वह किसी से प्रेम कर बैठी। जिससे गोल्ड मेडल की उम्मीद थी। वह उस लड़के के प्रेम में बीए में सेंकेंड आई।सबको दाल में काला लगा। हमेशा टॉप करनेवाली सेंकेंड। किसी को बात पची नहीं। आखिर एक दिन उसका प्रेम पत्र रौनक , बड़े भाई के हाथ लग गया। सबको उस प्रेम प्रसंग का पता चल गया। खूब हंगामा हुआ। चाचा जी ने माथा ठोक लिया।लेकिन  चाची जी ने समझदारी से काम लिया। लड़के से मिलने के लिए सबको मना लिया।

 

लावण्या से कहा गया कि -लड़के को कहो हम सब उससे  मिलना चाहते हैं। तारीख भी उसे बता दी गई। हमसब सारा दिन उसकी प्रतीक्षा करते रहे। नहीं आया।धोखा दे गया। आता भी कैसे। ईमानदारी होती तब न। तुम्हारा रिश्ते का भाई ही था न। रमोना। तुम तो जानती ही होगी सब।

 

मैं शर्म और लज्जा से गड़ी जा रही थी। अरु भाई इतने हल्के और कमजोर निकलेंगे। ये मैंने सपने में भी नहीं सोचा था।

 

“उसने हमारी लावण्या को खूब बेवकूफ बनाया।“

 

उस घटना के बाद लावण्या को कहा गया। जो हुआ सो हुआ। इस उम्र में ऐसे हादसे हो जाते हैं। हादसा समझ कर भूल जाओ। अपने सपने पूरे करो।

 

रौनक भाई ने  सिविल सविर्सेज की तैयारी के लिए उसे किताबें ला कर दिया । सबको विश्वास था। लवण्या अब संभल जायेगी। तेज है। पढने में मन लगायेगी। तो कुछ न कुछ अच्छा कर लेगी।

 

पर उस सांप ने उसे पूरी तरह डंस लिया था।वह उसके जहर के नशे में अपना अच्छा-बुरा सब भुल बैठी थी। कुछ महीने बाद फिर से उनके बीच पत्रों का सिलसिला फिर से चल पड़ा।उसे समझ में ही नहीं आया। कि वह बुजदिल उसके दिल के साथ खेल रहा है।

 

उसने लवण्या को कहा था। कि कुछ बन जायेगा। तब वह उसके परिवार से मिलकर ।उसका हाथ मांगेगा।

 

लावण्या के अनुसार वह आईआईटी के बाद स्टेट जाने की तैयारी कर रहा है। जिस दिन उसकी जॉब लग जायेगी। वह उसका हाथ मांगने आयेगा।

 

दूसरी बार भी चाचा जी ने अपनी लाडली की भावनाओं को समझते हुये कहा कि उस लड़के से कहो- “मिलने नहीं आ सकता तो। जो बातें उसने तुमसे कहीं हैं। वहीं  हमें फोन पर बता कर आश्वस्त करें। हमें तुमदोनों के रिश्ते से कोई आपत्ति नहीं है। पर तुम मेरी बेटी हो। किससे बातें कर रही हो। हमें जानने का हक है। जो तुम्हें भविष्य में साथ देने का सपना दिखा रहा है। सामने आकर अपनी बात तो कहे। हमें कोई परेशानी नहीं है।हम इंतजार करेंगे। तुम्हारी खुशी में ही हमारी खुशी है बेटा।“

 

इसबार भी वही हुआ। लावण्या ने उसे फोन लगा कर चाचा जी बात करने को कहा। जैसे ही चाचा जी ने रिसीवर उठा कर हैलो कहा।उस बुजदिल ने उधर से फोन काट दिया।

 

लावण्या को झुठ दिखाई ही नहीं दे रहा था।वह मानने को तैयार ही नहीं थी। कि लड़का गलत है। उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। लावण्या उसके प्रेम में इतनी अंधी हो गई थी। कि उसे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। बात समझने को तैयार ही नहीं थी।

 

उस दिन रौनक भाई ने आखिरकार गुस्से में सारी सीमाएं लांघ दी। और लावण्या पर हाथ उठा दिया।उसे बहुत मारा। फिर दो दिनों तक कमरे बंद कर दिया।चाची भी बेटे के गुस्से के कारण कुछ नहीं कर पाई।

 

लावण्या के साथ हमसब के सपनों के साथ धोखा किया उस लड़के ने ।घर का वातावरण कितना बदल गया था। रमोना ! हमसब उसकी दशा देखकर फूट-फूट रोये थे।कई दिनों तक हमारे घर में किसी ने  ढंग से भोजन नहीं किया । हमारी लावण्या को उसने डंस लिया था। वह कुछ सुनने को तैयार ही नहीं थी।

 

इसलिए रौनक भाई ने चाचा जी से सलाहकर दो महीने बाद उसकी एक बिजनेसमैन से आनन-फानन में शादी कर दी ।अब वह जहाँ भी है ठीक है।

 

मेरे सामने अरु भाई का काला सच सामने था। उस काले सच का सूत्रधार मैं थी। मैं! अपनी लावण्या की जिंदगी बर्बाद करने वाली दोस्त के रुप में जहरीला सांप। जिसने उसकी पूरी जिंदगी बदल दी थी। अनजाने ही सही पाप की साझीधार थी । क्या इस घोर पाप की माफी मिलनी चाहिए मुझे।

 

या जिंदगी भर इस पाप में जलना लिखा है।

 

3

 

आखिर एक दिन मौका मिल गया। लावण्या के पति विनीत किसी काम से तीन दिन के लिए शहर से बाहर जा रहे थे।हमदोनों को अपनी बातें खुल कर करने का मौका मिल गय़ा।मैं खुश होती रही।आखिर वह दिन पास आ ही गया ।मैं सारा दिन लावण्या के साथ बितानेवाली थी।मन ही मन उससे अपने किये गये पाप का माफी भी मांगना चाहती थी। साथ ही बचपन से लेकर कॉलेज की खुशनुमा यादें को भी जीना चाह रही थी।

 

लावण्या का सुबह ही फोन आया गया।वह मुझे नाश्ते के बाद तुरंत आने को कह रही थी। किंतु मुझे घर का काम निबटाते  बारह बज गये।उसके यहाँ पहुँचते-पहुँचते पौने एक हो गये। रास्ते में लावण्या के कई  कॉल आ गये ।क्यों न आते आखिर हमदोनों इस दिन की कब से प्रतीक्षा में थे।मुझे एक उम्मीद भी बंधी कि शायद मुझे माफी मिल जायेगी। लावण्या टैरैस पर खड़ी बेसब्री से मेरी प्रतीक्षा करती दिखी। जैसे ही मैं कार से उतरी।वह नीचे  लेने आ गई।

 

उसने सलीके  से अपना घर सजा कर रखा था , बचपन में भी वह अपने सलिके से किये जानेवाले हर काम के लिए जानी जाती थी। उसके स्कूल ड्रेस की एक भी क्रीच खराब नहीं होती थी।

 

उसके घर के लॉन में बैठी मैं लावण्या में लवी को ढ़ूंढ रही हूँ।जो जिंदगी से भरी थी। जिसकी आँखों में सपनें थे। जो छोटी-छोटी बातों में खुशियाँ ढूढ़ लेती थी। यह मिसेज लावण्या है। जिसके अंदर कहीं मेरी लावण्या छुप के बैठी है।पर वह बाहर आने को तैयार नहीं है।

 

वह अपना फ्लैट का हर कोना दिखा रही है।पति बड़े व्यवसायी हैं। पता नहीं किन-किन देशों से किमती वास और पेंटिग्स ला कर घर की दीवारें सजा रखी हैं।मगर फिर भी मुझे कुछ अधूरापन लगा।

 

लावण्या गिटार बजाती थी। वह मुझे कहीं नहीं दिखा। उसके द्वारा की गई एक भी पेंटिंग्स  नहीं दिखी। शायद उसके के लिए कोई अलग कमरा होगा। लंच के बाद मुझे आराम से अपनी पेंटिंग्स दिखायेगी।किंतु उसकी बातों में उस कमरे का कोई जिक्र नहीं दिखा। जिसकी कल्पना करके मैं बैठी थी।

 

वह अपने बातों में ज्यादातर समय अपने पति की तारीफ के पुल बांधती रही।दो बच्चे हैं उसके। दोनों को शिमला के महँगे बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया है।पति इतना बीजी रहते हैं कि बच्चों को समय नहीं दे पाते। और वह भी कई सोशल सर्विस से जुडी है।

 

हम लंच के लिए उसके डाइनिंग हॉल में आ गये।डाइनिंग टेबल पर हजार तरह के व्यंजन सजा के रखे थे। हमदोनों इधर-उधर की बातें करते रहे।वह लगातार मुझे कभी इटालियन तो कभी कांटिनेंट तो भी चाइनीज डिसेज का आग्रह करती रही।मैं उसकी फॉरमल बातें सुन के मन ही मन चिढ़ रही थी।इतना दिखावा तो नहीं था मेरी लावण्या में।पर क्या मैंने और  अरुणोदय भाई ने असली लावण्या को मार नहीं दिया था।फिर किस हक से पहलेवाली लावण्या ढ़ूढ रही थी। फिर मैं उस घाव को क्यों कुरेदना चाह रही हूँ। जो कब का भर चुका है।आज भी क्या मैं अपना ही स्वार्थ नहीं साधना चाह रही हूँ।

 

स्कूल और कॉलेज की कई सहेलियों की बातें निकली। पर लावण्या ने गलती से भी अरु भाई का नाम नहीं आने दिया। मैं कितनी भी कोशिश करती। वह मुझे घुमा देती। वह उस चैप्टर को अतीत में दफ्ऩ कर चुकी थी। मुझे माफ़ी नहीं मिलनेवाली थी। इस अपराध बोध को मुझे ताउम्र जीना था।

 

मुझे एहसास हो रहा था। मुझे ना मेरी लावण्या मिलेगी। ना ही माफी।

 

“शाम हो गई। मुझे अब चलना चाहिए। बच्चे इंतजार कर रहे होंगे।“ उसने मुझे रोका नहीं।मैं लौट रही थी खाली हाथ वापस।

 

जिसे मैं इतने सालों से ढ़ूढ़ रही थी।वह अतीत को पीछे छोड़ वह नये जीवन को अपना चुकी है। यही सही है।नई जिंदगी में उसे खुश रहने का हक है।

 

अब रोती नहीं नहीं कनुप्रिया।

 

महिमा श्री

महिमा श्री

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