Tuesday, March 19, 2024
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परछाइयों के उजाले 

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प्रेम को देह से जोड़ कर देखना उचित नहीं पर समाज इसी नियम पर चलता है | स्त्री पुरुष मैत्री संबंधों को शक की निगाह से देखना समाज की फितरत है फिर अगर बात प्रेम की हो …शुद्ध खालिस प्रेम की , तब ? आज हम भले ही प्लैटोनिक लव की बात करते हैं पर क्या एक पीढ़ी पीछे ये संभव था | क्या ये अपराध बोध स्वयं प्रेमियों के मन में नहीं था | बेनाम रिश्तों की इन पर्चियों के उजाले कहाँ दफ़न रह गए | आइये जानते हैं कविता वर्मा जी की कहानी से …

परछाइयों के उजाले 

 

सुमित्रा जी है? दरवाजे पर खड़े उन सज्जन ने जब पूछा तो में बुरी तरह चौंक पड़ी। करीब साठ बासठ की उम्र ऊँचा पूरा कद सलीके से पहने कपडे,चमचमाते जूते, हाथ में सोने की चेन वाली महँगी घडी, चेहरे पर अभिजात्य का रुआब, उससे कहीं अधिक उनका बड़ी माँ के बारे में यूं नाम लेकर पूछना.

यूं तो पिछले एक महिने से घर में आना जाना लगा है, लेकिन बड़ी माँ, जीजी, भाभी, बुआ, मामी, दादी जैसे संबोधनों से ही पुकारी जाती रहीं हैं, ये पहली बार है की किसी ने उन्हें उनके नाम से पुकारा है और वो भी नितांत अजनबी ने।

मैं  अचकचा गयी.हाँ जी हैं आप कौन? उनका परिचय जाने बिना मैं बड़ी माँ से कहती भी क्या?

उनसे कहिये मुरादाबाद से सक्सेना जी आये हैं.

उन्हें ड्राइंग रूम में बैठा कर मैंने पंखा चलाया और पानी लाकर दिया. क्वांर की धूप में आये आगंतुक को पानी के लिए इंतज़ार करवाना भी तो ठीक नहीं था.

आप बैठें मैं बड़ी माँ को बुलाती हूँ.

लगभग एक महिने की गहमा गहमी के बाद बस कुछ दो-चार दिनों से ही सब कुछ पुराने ढर्रे पर आया है.पापा भैया काम पर गए हैं घर में कोई भी पुरुष सदस्य नहीं है.मम्मी भाभी सुबह की भागदौड के बाद दोपहर में कुछ देर आराम करने अपने अपने कमरों में बंद हैं.बड़ी माँ तो वैसे भी अब ज्यादातर अपने कमरे में ही रहती हैं.मैं भी खाली दुपहरी काटने के लिए यूं ही बैठे कोई पत्रिका उलट-पलट रही थी,तभी गेट खोल कर इन सज्जन को अन्दर आते देखा.घंटी बजने से सबकी नींद में खलल पड़ता इसलिए पहले ही दौड़ कर दरवाजा खोल दिया.

बड़ी माँ के कमरे का दरवाज़ा धीरे से खटखटाया वह जाग ही रहीं थीं। कौन है?अन्दर आ जाओ। कुर्सी पर बैठी वह दीवार पर लगी बाबूजी और उनकी बड़ी सी तस्वीर को देख रहीं थीं.मुझे देखते ही उन्होंने अपनी आँखों की कोरें पोंछी।  मैंने पीछे से जाकर उनके दोनों कन्धों पर अपने हाथ रख दिए. बड़ी माँ को ऐसे देख कर मन भीग जाता है। एक ऐसी बेबसी का एहसास होता है जिसमे चाह कर भी कुछ नहीं किया जा सकता।

कुछ नहीं रे बस ऐसे ही बैठी थी. उन्होंने मुस्कुराने की कोशिश की.तू क्या कर रही है सोयी नहीं?

बड़ी माँ आपसे मिलने कोई आये हैं।

कौन हैं?उन्होंने आश्चर्य से पूछा माथे पर सलवटें उभर आयीं शायद वह याद करने की कोशिश कर रहीं थी की अब कौन रह गया आने से?

कोई सक्सेना जी हैं मुरादाबाद से आये हैं.बड़ी माँ के चेहरे पर अचानक ही कई रंग आये और गए। ऐसा लगा जैसे वह अचानक ही किसी सन्नाटे में डूब गयीं हों। वह कुछ देर बाबूजी की तस्वीर को देखती रहीं फिर उन्होंने पलकें झपकाई और गहरी सांस छोड़ी.

उन्हें बिठाओ कुछ ठंडा शरबत वगैरह बना दो में आती हूँ.

कुछ नाश्ता और शरबत लेकर जब मैं ड्राइंग रूम में पहुंची तो दरवाजे पर ही ठिठक गयी। वह अजनबी सज्जन बड़ी माँ के हाथों को अपने हाथों में थामे बैठे थे। मेरे लिए ये अजब ही नज़ारा था जिसने मेरे कौतुक को फिर जगा दिया, आखिर ये सज्जन हैं कौन? पहले उन्होंने बड़ी माँ को नाम से पुकारा फिर अब उनके हाथ थामे बैठे हैं. बाबूजी के जाने के बाद पिछले एक महिने में मातम पुरसी के लिए आने जाने वालों का तांता लगा था.दूर पास के रिश्तेदार जान पहचान वाले कई लोग आये।कुछ करीबी रिश्तेदारों को छोड़ दें जो बड़ी माँ के गले लगे बाकियों में मैंने किसी को उनके हाथ थामे नहीं देखा। तो आखिर ये हैं कौन?

मैंने ट्रे टेबल पर रख दी। उन सज्जन ने धीरे से बड़ी माँ का हाथ छोड़ दिया। बड़ी माँ वैसे ही खामोश बैठी रहीं। जैसे कुछ हुआ ही न हो। कहीं कोई संकोच कोई हडबडाहट नहीं। जैसे उनका हाथ पकड़ना कोई नया या अटपटा काम नहीं है।

बड़ी माँ को मैंने हमेशा एक अभिजात्य में देखा है. उन्हें कभी किसी से ऐसे वैसे हंसी मजाक करते नहीं देखा।छुट्टियों में जब बुआ, मामी, भाभी सब इकठ्ठी होती तब भी उनकी उपस्थिति में सबकी बातों में हंसी मजाक की एक मर्यादा होती थी।फिर उनकी अनुपस्थिति में सब चाहे जैसी चुहल करते रहें।

बाबूजी के साथ भी वह ऐसे हाथ पकडे कभी ड्राइंग रूम में तो नहीं बैठी। एक बार छुटपन में छुपा छई खेलते मैं उनके कमरे का दरवाजा धडाक से खोल कर अन्दर चली गयी थी बाबूजी ने बड़ी माँ का हाथ पकड़ रखा था। लेकिन मुझे देखते ही उन्होंने तेज़ी से अपना हाथ छुड़ा लिया था जैसे उनकी कोई चोरी पकड़ा गयी हो।लेकिन आज वह बिना किसी प्रतिक्रिया के चुपचाप बैठी हैं,मानों उन सज्जन का उनका हाथ पकड़ना बहुत सामान्य सी बात है। लेकिन वे सज्जन आखिर हैं कौन? मैं इसी उहापोह में खड़ी रही तभी बड़ी माँ ने मेरी ओर देखा हालांकि उन्होंने कुछ कहा नहीं लेकिन उन नज़रों का आशय में समझ गयी। वे कह रहीं थीं मैं वहां क्यों खड़ी हूँ?

 

बड़ी माँ, मम्मी को बुला लाऊं? मैंने अपने वहां होने को मकसद दिया?

नहीं रहने दो। संक्षिप्त सा उत्तर मिला जिसका आशय मेरे वहां होने की अर्थ हीनता से था।

 

मैं वहां से चुपचाप चल पड़ी लेकिन वह प्रश्न भी मेरे साथ ही चला आया था की आखिर वे सज्जन हैं कौन? एक बार नाश्ते की ट्रे उठाने मैं फिर वहां गयी। उनके बीच ख़ामोशी पसरी थी शायद उनका वहां होना ही बड़ी माँ के लिए बहुत बड़ी सान्तवना थी और उसके लिए शब्दों की जरूरत नहीं थी।

बड़ी माँ कुछ और लाऊं? उन्होंने इनकार में सिर हिला दिया और मैं खाली ट्रे में अपने कौतुक के साथ वापस आ गयी।वे सज्जन करीब डेढ़ घंटे तक वहां रुके। सामान्यतः मातमपुरसी करने वाले पंद्रह मिनिट या आधे घंटे में चले जाते हैं।ये इतनी देर क्यों रुके?उनके बीच इतनी कम और इतने धीरे धीरे बातचीत हो रहीं थी फिर भी वे इतनी देर क्यों रुके? इन जिज्ञासाओं का कोई समाधान नहीं था।

बड़ी माँ उन्हें दरवाजे तक छोड़ने गईं मैंने परदे की ओट से देखा जाने से पहले उन्होंने बड़ी माँ का हाथ फिर अपने हाथ में लेकर धीरे से दबाया उनके कंधे पर अपना हाथ रखा। उनके जाने के बाद बड़ी माँ बड़ी देर तक दरवाजे पर खड़ी रहीं।बाबूजी के जाने के बाद आज पहली बार वह किसी को छोड़ने दरवाजे तक गईं थीं। जब वे पलटीं तो उनका चेहरा आंसुओं से भीगा था। मैं हतप्रभ सी उन्हें देखती रह गयी। बड़ी माँ तुरंत अपने कमरे में चली गईं और दरवाज़ा बंद कर लिया। मेरा कौतुक भी बंद कपाटों के बीच फंस कर कसमसाता रहा की आखिर ये सज्जन हैं कौन? लेकिन उसका जवाब देने के लिए वहां कोई नहीं था।बंद दरवाजे के कपाट यही कह रहे थे की तुम इस प्रश्न को यहीं छोड़ जाओ यही इसकी सही जगह है।

 

बाबूजी के जाने के बाद से बड़ी माँ और ज्यादा चुप और अकेली रहने लगीं थीं।बड़ी माँ और बाबूजी हमेशा से हमारे साथ नहीं रहते थे।बाबूजी बड़े अफसर थे सरकारी नौकरी में उन्हें बंगला गाड़ी हमेशा मिला करता था। उनकी पोस्टिंग भी बदलती रहती थी कभी यहाँ तो कभी वहां। बाबूजी और मेरे पापा यानि उनके छोटे भाई में बहुत स्नेह था। मम्मी और बड़ी माँ में भी कभी देवरानी जेठानी जैसी तुनक नहीं दिखी। इसलिए जब मकान बनवाने की बात हुई तो पापाजी ने बाबूजी से कह दिया की हम साथ ही रहेंगे और रिटायर्मेंट के बाद बड़ी माँ और बाबूजी यहीं हमारे साथ रहने आ गए। मम्मी ने ही हठ करके उनकी रसोई अलग नहीं करने दी।

बड़ी माँ ने हम तीनो भाई बहन पर हमेशा ही बहुत स्नेह रखा।छुट्टियों में या तो वे हमारे घर आतीं या हम उनके घर जाते रहे। उनकी दोनों बेटियों ने सगी छोटी बहन से ज्यादा मेरे नाज़ नखरे उठाये। घर में सबसे छोटी होने से मैं वैसे भी बाबूजी की बहुत लाडली थी।

उन सज्जन के आने के बारे में बड़ी माँ ने किसी से कुछ नहीं कहा।खाने की मेज़ पर मुझे उम्मीद थी की वे पापा को उनके बारे में बताएँगी लेकिन वे खामोश ही रहीं। मेरे कौतुक ने जरूर मुझे उकसाया की मैं सबके सामने उनसे पूछूं की आज दिन में कौन आये थे?लेकिन उनकी ख़ामोशी और गंभीरता देख कर चुप ही रही।पापाजी ने पूछा भी भाभी कैसी हो?तबियत तो ठीक है न?दिन में आराम हुआ की नहीं?

ठीक हूँ,दिन में थोड़ी देर सोयी थी उन्होंने बड़े सामान्य तरीके से कहा,लेकिन उन सज्जन के बारे में कोई बात नहीं की। ये मेरे लिए भी एक तरह का संकेत था उस बात के ख़त्म हो जाने का। दो चार दिन वह प्रश्न मेरे दिमाग में कुलबुलाता रहा फिर मैं भी धीरे धीरे उस बात को भूल गयी।

 

समय के साथ बड़ी माँ ने बाबूजी के बिना जीने की आदत डाल ली. दिनचर्या सामान्य होने लगी. अब वह बिलकुल चुप नहीं रहतीं घर के कामों में भी वह रूचि लेने लगीं थीं। कभी कभी वह बहुत खुश नज़र आतीं। लेकिन वह अपनी ख़ुशी प्रकट नहीं करती थीं लेकिन उनके होंठों पर एक हलकी स्मित रहती।मुझे नहीं लगता था की घर में किसी ने इसे महसूस किया होगा,क्योंकि किसी ने कभी कुछ पूछा नहीं।

बड़ी माँ से मेरा लगाव उनके यहाँ आने के बाद से और ज्यादा ही बढ़ गया था। मम्मी और भाभियाँ बाबूजी के सामने ज्यादा जाती नहीं थीं। बाबूजी की तबियत के ख़राब रहते भी मैं ही उनके साथ रही। फिर बाबूजी के जाने के बाद भी बड़ी माँ का ध्यान रखने की एक अघोषित सी जिम्मेदारी मेरी थी। मैंने कई बार उन्हें अकेले बैठे बाबूजी की तस्वीर को एकटक देखते और रोते देखा।

बड़ी माँ और बाबूजी के प्यार को उनके साथ रहते कभी इस तरह महसूस नहीं किया लेकिन बाबूजी के जाने के बाद की रिक्तता में बड़ी माँ के अकेलेपन ने उनकी अनुपस्थिति का जबरदस्त एहसास करवाया।

एक दिन जब बड़ी माँ बाबूजी की तस्वीर देख रहीं थी मैं वहीँ उनकी गोद में सर रख कर बैठ गयी।

आप बाबूजी को बहुत प्यार करती थीं न?मैंने पूछा।

तुम्हारे बाबूजी मुझे बहुत प्यार करते थे। उन्होंने जवाब दिया। उनका इस तरह का जवाब मुझे कुछ अटपटा तो लगा लेकिन मैंने इसे उनका बाबूजी के प्रति प्रेम ही समझा।

एक शाम पापा भैया सब जल्दी आ गए।बैठक में सभी गपशप कर रहे थे तभी पापा ने मुझे बड़ी माँ को बुला लाने को कहा।वह फोन पर किसी से बात कर रहीं थीं। मुझे देखते ही फिर बात करती हूँ कह कर फोन काट दिया। मैंने कई बार उन्हें फोन पर लम्बी बातें करते देखा,पूछने पर कभी कोई परिचित तो कभी किसी रिश्तेदार का नाम उन्होंने लिया।

 

समय के साथ सब कुछ तेज़ी से बदल रहा था। मेरी पढ़ाई पूरी होकर शादी हो गयी। भाभियाँ अपने बच्चों में और ज्यादा व्यस्त हो गयीं। मम्मी पापा भी रिटायरमेंट का मज़ा ले रहे थे। तभी एक दिन खबर मिली की बड़ी माँ की तबियत बहुत ख़राब है एक बार आकर मिल लो। बड़ी दीदी शादी के बाद अमेरिका में बस गयीं थीं और छोटी दीदी जल्द ही खुश खबरी सुनाने वाली थीं, सो दोनों ही नहीं आ सकीं। बड़ी माँ सूख कर काँटा हो गयी थीं। बुढ़ापा ही उनकी सबसे बड़ी बीमारी थी। उस दिन सफर की थकान के चलते में दो घंटे उनके पास रुक कर घर चली आई। लेकिन चलते समय उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर कहा कल तू दिन भर मेरे साथ रहेगी न? उनके स्वर से लगा मानों वह बहुत बड़ी चीज़ मुझसे मांग रही हों।

हाँ बड़ी माँ कल सुबह ही आ जाउंगी मैंने उन्हें विश्वास दिलाया। उन्होंने एक तसल्ली की साँस लेकर आँखें मूँद लीं।

दूसरे दिन उनका और अपना खाना लेकर मैं सुबह ही भैया के साथ हॉस्पिटल आ गयी। मैंने भाभी और मम्मी को दिन में आराम करने को कह दिया। जाने क्यों मुझे ऐसा लगा जैसे बड़ी माँ मुझसे कुछ कहना चाहती हैं। लेकिन क्या मुझे इसका बिलकुल अंदाज़ा नहीं था। शायद उनका मेरा हाथ पकड़ कर सारे दिन उनके साथ रहने के आग्रह के कारण ही मुझे ऐसा लगा था।

बड़ी माँ को खाना खिलाते हुए मैं उनसे यहाँ वहां की बातें करती रही। मुझसे बात करते उनकी नज़र बार बार दरवाजे की ओर चली जाती।जैसे उन्हें किसी का इंतजार हो। मैंने पूछा भी बड़ी माँ कोई आने वाला है क्या?

अरे नहीं कोई तो नहीं। कौन आएगा?

खाना खा कर मैं एक पत्रिका के पन्ने पलटने लगी और जाने कब मेरी आँख लग गयी। जब नींद खुली किसी की धीमे स्वर में बातों की आवाज़ आ रही थी।आवाज़ इतनी धीमी थी कि उसकी नरमी को महसूसते मैं कुछ समय तक यूं ही आंखे मींचे पड़ी रही।शायद आवाज़ सच में सुन रही हूँ इसका विश्वास मुझे नहीं हो रहा था।मैंने धीरे से आँखें खोली,बड़ी माँ के सिरहाने कोई बैठा था।

 

कई सालों पहले की वह दोपहर मेरी आँखों में कौंध गयी। उठकर ध्यान से देखा वही सज्जन थे।हाँ समय के निशान उन पर कुछ और गहरे हो गए थे।अशक्त सी बड़ी माँ उनके आगोश में सिमटी सी लग रही थीं,मानों लम्बी तूफानी रात में कोई छोटी सी चिड़िया अकेले भटकते रहने के बाद किसी विशाल दरख़्त की ठौर पा ले। बड़ी माँ को अकेलेपन से घिरे देखते रहने के बाद आज उन्हें उन अजनबी के साथ जिस निश्चिन्तता में देखा लगा उन्हें सच में किसी मजबूत भावनात्मक सहारे की जरूरत है। उम्र और अनुभव ने अब मुझे इस संबल की आवश्यकता को  अच्छे से समझा दिया था।मैं उठकर धीरे से बाहर चली गयी। आज फिर मेरे मन में कौतुक था ये जानने का कि वह सज्जन हैं कौन? बड़ी माँ से उनकी आत्मीयता जाने क्यों सुकून दे रही थी।

 

नारी मन को किसी मजबूत भावनात्मक सहारे की जरूरत होती है और ये जरूरत उम्र के हर पड़ाव की जरूरत है।  स्त्री पुरुष की विशाल बाँहों में खो कर अपनी चिंताए जिम्मेदारियां, अकेलापन भूल कर सिमट जाती है।आज बड़ी माँ को उनके आगोश में देख कर उनके अकेलेपन की गहनता का एहसास हुआ।

 

उस दिन वह सज्जन बहुत देर तक बड़ी माँ के पास रुके। मैं एक दो बार अन्दर ये देखने गयी की उन्हें किसी चीज़ की जरूरत तो नहीं है? फिर रिसेप्शन पर जाकर बैठ गयी और पत्रिका पढ़ने लगी।

ऐसा लगा कोई मेरे सामने आकर खड़ा हो गया सर उठाया तो देखा वही सज्जन थे। मैं खड़ी हो गयी। उन्होंने बिना कुछ कहे मेरे सर पर हाथ रखा,होंठों में कुछ बुदबुदाया जो मैं सुन नहीं सकी लेकिन लगा जैसे किसी अदृश्य सकारात्मक उर्जा ने मुझे घेर लिया है।उनकी आँखे,चेहरे के भाव और रोम-रोम जैसे मुझे आशीष दे रहे थे और फिर वे बिना कुछ कहे चले गए।

मैं बड़ी माँ के पास लौटी वह लेटी हुई थीं।उन्होंने हाथ के इशारे से मुझे अपने पास बैठाया।उनकी आँखों में आंसू थे चेहरे पर किसी आत्मीय से मिल जाने जैसी सघन अनुभूति।मैंने उन्हें चम्मच से पानी पिलाया।वह प्रश्न अब भी मेरी आँखों में अटका था कि आखिर वे सज्जन थे कौन? बड़ी माँ बड़ी देर से जाग रही थी और थक गयी थीं इसलिए में उस प्रश्न को होंठों पर न ला पाई।मेरी उत्सुकता को भांप कर वे धीमे स्वर में बोलीं सब बताती हूँ लेकिन ये बात …

उनके अनकहे शब्दों में छुपे भावों को समझ कर मैंने कहा में किसी को कुछ नहीं बताऊँगी बड़ी माँ आप निश्चिन्त रहिये।

 

कुछ देर वे खामोश रहीं मानों सोच रही हों कहाँ से शुरू करूँ? फिर उन्होंने कहना शुरू किया।बात करीब पंद्रह साल पुरानी है। तब तुम्हारे बाबूजी मुरादाबाद में थे।आशीषजी वहाँ डिप्टी कलेक्टर के पद पर ट्रांसफर हो कर हमारे ही पड़ोस वाले बंगले में आये थे।पडोसी होने के नाते हमारा परिचय हुआ और धीरे धीरे एक दूसरे के यहाँ आना- जाना शुरू हो गया। उनकी अभिजात्य अभिरुचि ने मुझे आकर्षित किया।उनके बात करने का अंदाज़ हर विषय पर बात करने की उनकी क़ाबलियत,विषय पर उनकी पकड़, पहनने ओढ़ने,उठने बैठने का सलीका सभी एक अलग ही अंदाज़ लिए थे और फिर बात बात में उनका तारीफ करना। मैं अनजाने ही उनकी ओंर आकर्षित होती चली गयी।

मैं और तुम्हारे बाबूजी अपनी जिंदगी में बहुत खुश थे।गीत और ख़ुशी तुम्हारी दीदियों से जीवन के आँगन में चहल-पहल थी। बस मन के किसी कोने में अपने जीवन साथी को लेकर संजोये हुए कुछ सपने थे जो मुझे आशीषजी में नज़र आते थे। मैं चाह कर भी खुद को उन दबी छुपी आकांक्षाओ के आकर्षण से बचा न सकी। आमने सामने मिलते जुलते हमने फोन पर बातें करनी शुरू कर दीं। हम दोनों घंटों एक दूसरों से बतियाते रहते थे लेकिन हमारी बातें प्यार मुहब्बत की बातें नहीं थीं दो दोस्तों की बातें थीं नए पुराने किस्से कहानी थे और वही सब कुछ था जो उम्र के एक पड़ाव पर आ कर पति पत्नी के बीच ख़त्म सा हो जाता है। मेरी हर छोटी बड़ी बाते को सुनने  और जानने की एक ललक जो तुम्हारे बाबूजी में चुक गयी थी या यूं कहें की हम एक दूसरे के इतने अभ्यस्त हो गए थे की उन बातों के लिए कोई उत्सुकता शेष न बची थी। आशीष जी का सानिध्य मुझे अच्छा लगता था।

आशीष जी को मेरी हंसी, मेरी बातें,मेरा पहनावा,मेरी रुचियाँ,अच्छी लगतीं और वे खुल कर उनकी तारीफ भी करते।जिन बातों का शादी के पंद्रह सालों बाद कोई औचित्य ही नहीं रह जाता है और जीवन साथी एक दूसरे को एक आदत की तरह निभाते जाते हैं।लेकिन नारी मन में खुद को देखे सराहे जाने की चाहत हमेशा बनी रहती है।जब जिम्मेदारियां आभार विहीन हो जाती है तब उनका भार थकाने लगता है,तब प्यार के दो बोल उस बोझ को हल्का कर देते हैं।

वह उम्र होती है जब यौवन की दहलीज़ पर कदम रखते देखे गए सपने दफ़न कर दिए जाते हैं लेकिन मेरे सामने वे सपने आशीष जी के रूप में सामने थे और उनके आकर्षण से बचना मुश्किल था।

आशीषजी भी मुझे एक अच्छा दोस्त समझते थे। एक ऐसा दोस्त जिससे वे सब कुछ कह सकें जो आम तौर पर एक आदमी किसी से नहीं कहता।अपनी इच्छाएं, भावनाएँ, अपने डर, अपनी गलतियाँ।मुझमे वह एक ऐसा ही दोस्त पाते थे।

बोलते बोलते वो थक गयीं थीं।उन्होंने आँखें बंद कर लीं। कुछ पल को जैसे वह उसी समय में पहुँच गयीं।मैं चुपचाप उनके चेहरे को देखती रह गयी।उन्हें उन यादों से बाहर खींच लाने की मेरी इच्छा ही नहीं हुई। उन बीते दिनों की परछाइयाँ बड़ी माँ के चेहरे पर साफ नज़र आ रहीं थीं।ये उनके जीवन का अनछुआ कोना था जिसमे अब तक कभी कोई झांक न सका था।और आज जब उन्होंने उसका झरोखा खोल कर मुझे उसमे झांकने की इज़ाज़त दी तो उस झरोखे से आने वाली महकी बयार से खुद ही सराबोर हो गयीं। बहुत देर तक बड़ी माँ उन्ही यादों में  गुम रहीं।फिर उन्होंने धीरे से आँखें खोलीं।बड़ी माँ की आँखों में आंसूं छलछला आये।उनका गला रुंध गया।मैंने सहारा दे कर उन्हें बैठाया और पानी पिलाया।

 

लेकिन जैसा की तुम जानती हो हमारे समाज में एक लड़के से लड़के की एक लड़की से लड़की की दोस्ती को जितना सामान्य समझा जाता है एक आदमी की एक औरत से दोस्ती को उतना ही असामान्य।वे सिर्फ एक प्रेमी प्रेमिका के रूप में ही देखे जा सकते हैं। उसकी पवित्रता हमेशा संदेह के घेरे में रहती है। और तो और हमारे दिमाग भी इस तरह ट्यून किये गए हैं की ऐसी किसी दोस्ती में रह कर उसकी पवित्रता के बावजूद भी एक अपराध बोध घेरता ही है। मुझे भी ये बोध हमेशा रहता था की कहीं में गलत तो नहीं कर रही हूँ? कहीं आशीषजी के साथ इतनी बातें करना,इतना घुलना मिलना उनसे अपने मन की बातें करना उनकी हर में बातों शामिल होना उनकी पत्नी के प्रति गलत तो नहीं है।कहीं तुम्हारे बाबूजी की अपराधिन तो नहीं बनती जा रही हूँ?

 

तो क्या बाबूजी आपकी दोस्ती के बारे में जानते थे?

मेरे मन का कौतुक फिर उछाल मारने लगा?बड़ी माँ ने फिर क्या किया?

वे खामोश बैठी थीं शब्द उनकी आँखों में अटके थे लेकिन मैं पढ़ नहीं पा रही थी। दिमाग पर जोर देने लगी क्या कभी बाबूजी और उनके बीच कोई अनबन हुई थी?उनके संबंधों में कभी कोई दूरी या खिंचाव मैंने तो कभी महसूस नहीं किया या छोटी होने के कारण समझ नहीं पाई।

थोड़ी देर में उन्होंने अपनी शक्ति को बटोरा -तुम्हारे बाबूजी हमारी दोस्ती के बारे में जानते थे।उन्हें मुझ पर पूरा भरोसा था।इस दोस्ती की वजह से उन्होंने मुझे बहुत खुश भी देखा था। हाँ इस बात से उन्हें दुःख तो होता ही था कि उनकी पत्नी किसी और के सानिध्य में अपनी ख़ुशी ढूंढ रही है।उनकी आँखों में दुःख की बदली तो थी लेकिन अविश्वास की परछाई कभी नहीं थी। लेकिन उन्होंने मुझे कभी कुछ नहीं कहा। मैंने ही उनको कभी कभी अकेलेपन के बियाबान में भटकते देखा था। उस समय मेरा मन मुझे धिक्कारता था मुझे आगाह करता था कि इस तरह मैं तुम्हारे बाबूजी से दूर जा रही हूँ,इसका नतीजा देरसबेर बुरा ही होने वाला था।

ख़ुशी और गीत भी अब छोटे नहीं रह गए थे। न ही उन में इतनी परिपक्वता थी कि वे इस दोस्ती को समझ पाते।

हमारे संबंधों को समाज तो कभी समझ ही नहीं सकता था, और समाज में रहते उसके नियमों की अवहेलना करना संभव ही नहीं था। फिर तुम्हारे बाबूजी की प्रतिष्ठा भी में दांव पर नहीं लगा सकती थी।

न जाने वह कैसा समय था जब मैंने ये सब सोचा समझा ही नहीं। लेकिन अब समय आ गया था की हम हमारी भावनाओं को किसी सीमा में बांधे।

मैंने आशीष जी से बात की। उन्होंने भी मेरी बात को समझा।कुछ समय बाद हमारा वहाँ से तबादला हो गया।आशीषजी भी कहीं और चले गए। हम फोन पर बात चीत जरूर करते थे लेकिन फिर पारिवारिक दायित्व हमारे लिए प्रथम अनिवार्यता हो गए।लेकिन हाँ कभी भी किसी भी भावनात्मक सहारे के जरूरत होने पर वे हमेशा मेरे साथ रहे।

तुम्हारे बाबूजी की बीमारी के समय वे अपने बेटे के पास अमेरिका गए थे।जब वहाँ से वापस लौटे तब उनके न रहने की खबर सुनी तो उस दोपहर मिलने आये थे। उसके बाद हम फोन पर बाते करते रहे।लेकिन इस उम्र में भी उनसे मिलना उनके साथ बैठ कर बाते करते रहना इतना आसन तो नहीं था। किस किस को क्या क्या बताती?और कौन क्या क्या समझता? और सबकी नज़रों में अपना मान भी तो नहीं खो सकती थी। तुम उस दोपहर वहाँ थी तुमने उन्हें देखा था इसलिए आज अस्पताल में उन्हें मिलने के लिए बुला लिया। जाने इसके बाद मुलाकात हो या न हो?

बड़ी माँ थक कर चूर हो गयीं थीं। लेकिन मेरी जिज्ञासा का समाधान करने और खुद की कैफियत दे देने की संतुष्टि  उनके चहरे पर थी। थोडा पानी पी कर वे सो गयीं।

मैं उनके शांत भोले मुख को देख कर सोचती रही उम्र के इस पड़ाव पर भी नारी जीवन सामाजिक बंधनों में बंधा रहता है।एक मासूम सी ख्वाहिश ही तो थी उनकी उससे मिलने,बात करने की जिसका सानिध्य उन्हें अच्छा लगता है लेकिन वह भी पूरी करने में उन्हें तमाम ऊँच नीच सोचना पड़ी थीं। इस उम्र में जब प्यार में दैहिक आकर्षण का कोई स्थान नहीं है मानसिक संतुष्टि पाने पर भी समाज का डर है।बड़ी माँ जीवन भर परछाइयों से उजाले की आस में ही तो भटकती रहीं लेकिन क्या उन्हें वे उजाले मिल सके या सिर्फ उनकी परछाइयाँ ही उनके हिस्से में आयीं?

कविता वर्मा

कुंजी


टाइम है मम्मी


नीम का पेंड 

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1 COMMENT

  1. धन्यवाद वंदना वाजपेयी जी मेरी कहानी को स्थान देने के लिए

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