सपनों का शहर सैन फ्रांसिस्को – अमेरिकी और भारतीय संस्कृति के तुलनात्मक विशेषण कराता यात्रा वृतांत

1
सैन फ्रांसिस्को

“यात्राएँ एक ही समय में खो जाने और पा लेने का सबसे अच्छा तरीका हैं”

 

कितनी खूबसूरत है ये प्रकृति  कहीं कल-कल करते झरने, कहीं चारों तरफ रेत ही रेत, कहीं ऊँचे पर्वत शिखर तो कहीं  धीर गंभीर समुद्र अथाह जलराशि को अपने में समेटे हुए | प्रकृति के इस सुरम्य शीतल, शांत कर देने वाले अनुभव के अतरिक्त मानव निर्मित कॉक्रीट के आश्चर्यजनक नमूने .. चाहे वो भवन हों, पुल हों, सड़कें हों या अन्य कलाकृतियाँ |

 

पर क्या भौगोलिक सीमाएँ ही किसी देश, शहर या गाँव का आधार होती हैँ | शायद नहीं, कोई भी  स्थान जाना जाता है वहाँ के लोगों से, उनकी सभ्यता उनकी संस्कृति से, उनके खान-पान पहनावे से, उस शहर के बार-बार बनने-बिगड़ने के इतिहास से | शायद इसीलिए हर यात्रा हमें समृद्ध करती है, हमें बदल देती है, हमारे अंदर कुछ नया जोड़ देती है, कुछ पुराना घटा देती है | इसीलिए शायद हर यात्रा के बाद हम भी वो नहीं रहते जो पहले थे |

 

हर देश की,  शहर की, स्थान की  अपनी एक धड़कन होती है | अपना एक पहनावा होता है, संस्कृति होती है | वही उसकी पहचान है | कितने लोगों को जब-तब उनकी बोली से पहचाना, “अच्छा तो इटावा के हो, मेरठ के लगते है, आपकी बातचीत के तरीके में मथुरा के पेडे  सी मिठास है | पर इसके लिए शहर के बाहरी और पोर्श कहे जाने वाले इलाकों से काम नहीं चलता | इसके लिए तो शहर के दिल में उतरना होता है | उसके वर्तमान से लेकर इतिहास तक की गहन पड़ताल करनी पड़ती है तब जा के कहीं उस शहर जगह का खास रंग हम पर चढ़ता है |

 

तमाम यात्रा वृतांत   ऐसी ही कोशिश होती है उन जगहों से लोगों को जोड़ने की जो वहाँ नहीं जा पाए और गए भी ओ बस ऊपरी चमक-धमक देख कर लौट आए | ऐसा ही एक यात्रा वृतांत है वरिष्ठ लेखिका “जयश्री पुरवार” जी का जो अपनी पुस्तक अमेरिका ओ अमेरिका भाग -1,  “सपनों का शहर सैन फ्रांसिस्को” के माध्यम से शहर के इतिहास की रंगत, मिट्टी की खुशबू और हवाओं की चपलता से ही नहीं लोक जीवन से भी परिचय कराती हैँ |  किताब पकड़े-पकड़े पाठक का मन  सैन फ्रांसिस्को घूम आता है |

सपनों का शहर सैन फ्रांसिस्को – अमेरिकी और भारतीय संस्कृति के तुलनात्मक विशेषण कराता यात्रा वृतांत

 

जयश्री पुरवार
जयश्री पुरवार

 

इस पुस्तक की भूमिका में वरिष्ठ साहित्यकार  सूर्यबाला जी लिखती हैँ  कि जयश्री जी ने अमेरिका की प्रकृति समाज और रुचि को समझने की कोशिश की है | जहाँ उन्होंने कुछ विरल विशेषताओं को सराहा है वहीं विकसित सभ्यता के कुछ दुर्भाग्य पूर्ण पक्षों पर अपनी चिंता व्यक्त करने से खुद को नहीं रोक पाई हैँ | जयश्री जी अपनी भूमिका “मेरे अनुभव की गुल्लक” में लिखती हैँ, “ किसी भी देश को चार दिन के लिए घूमकर वहाँ की संस्कृति के बारे में जानना आसान नहीं होता है | कुछ समय वहाँ लोगों के साथ बिताना पड़ता है | दोनों बच्चों के अमेरिका में बसने  के बाद हम निरंतर वहाँ आते  जाते रहे | आज जब वो वहाँ स्थायी रूप से बस गए हैँ, तब हमारा इस देश के साथ स्थायी संबंध जुड़ चुका है |”

 

कहने की जरूरत नहीं है कि इस यात्रा वृतांत में आप लेखिका की नजर से ही समृद्ध नहीं होते वरन  उनके परिवार के साथ बिताए गए खट्टे-मीठे अनुभवों के भी साक्षी होते हैँ | कहीं बोझिल ना हो जाए इसलिए किसी यात्रा वृतांत को पाठकों से जोड़ने के लिए सहज जीवन की कथा से जोड़ना उसे कितना रुचिकर बना देता है यह इसे पढ़कर जाना जा सकता है | पूरी पुस्तक को उन्होंने 14 खंडों में बाँटा है, फिर उसे अपनी सुविधानुसार कम या ज्यादा उपखंडों में बाँटा है | और उनकी यह यात्रा विमान यात्रा से लेकर “मुझे सैन फ्रांसिस्को से प्यार हो गया तक चलती है |

पुस्तक की शुरुआत वो इतिहास से करती हैँ | जहाँ  वो बताती हैँ कि अमेरिका की सभ्यता प्राचीन माया सभ्यता थी जो ग्वाटेमाला मेक्सिको आदि जगहों में प्रचलित थी | यह एक कृषि आधारित सभ्यता थी जो 250 ईस्वी से 900 ईस्वी के मध्य अपने चरम  पर रही |

इसके अलावा को 1942 में भारत को खोजने निकले कोलंबस द्वारा वाहन के मूल नागरिकों को रेड इंडियंस कहे जाने यूरोपीय कॉलोनियों के बनने और अमेरिका के स्वतंत्र होने का इतिहास बताती हैँ | इस देश का आप्त वाक्य है “इन गॉड वी ट्रस्ट” और विचारों से उन्मुक्त और प्रगतिशील होने के बावजूद यहाँ के अधिकांश लोग आस्तिक हैँ | साथ ही अमेरिका संस्कृति के यूरोपयन  संस्कृति से प्रभावित  होने के कारण कहा जाता है की  अमेरिका की कोई संस्कृति ही नहीं है | पर कुछ विशेष बातें का भी उन्होंने जिक्र किया जिन्हें आम अमेरिका मानते हैँ जो उन्हें अलहदा बनाती है | खासकर उनका मेहनत करने का जज्बा जिसने अमेरिका को यूरोप से ऊपर विश्व शक्ति घोषित करवा दिया |

 

एक जगह लेखिका जनसंख्या को भारत के  अपेक्षाकृत कम विकास का कारण मानते हुए लिखती हैं कि अमेरिका की सीमा लगभग 12000 किलोमीटर है और जनसंख्या लगभग 35 करोंण |

 

अपनी अमेरिका  यात्रा की शुरुआत वो विमान से पहले ही मन की उड़ान से करती हैँ | और अमेरिका पहुँचने से पहले ही उन्हें साथ बैठने वाली आरती से भौतिकता के पीछे भागते अमेरिका का परिचय हो जाता है | जो बताती है कि अमेरिका में चीटिंग एक अलग तरह की पोलिश्ड  चीटिंग होती है | जिसका कारण भौतिकता को और व्यक्तिगत सफलता को बहुत ऊंची नजर से देखना है | वहीं अनुशासन यहाँ के जीवन की स्वाभाविक विशेषता है | किसी कार्यक्रम  या निर्धारित काम के लिए 5 मिनट भी देर से पहुंचना गलती मानी जाती है | एक अशक्त वृद्ध स्त्री के काम पर जाने को देखकर जीवन के प्रति अमेरिका लोगों के सकारात्मक नजरिये  को लेखिका सराहती हैं |

 

मन ही मन में भारत से तुलना करते हुए अमेरिका के समृद्ध होने का एक और राज उन्होंने खोला कि अमेरिका विकासशील देशों से छोटी -छोटी चीजें मँगवाता है और बड़ी छीजे खुद बना कर उसे विश्व बाजार में बेचता  है इससे उसे डॉलर का फायदा होता है | ऐसी छोटी -छोटी तुलनाएँ लेखिका कई जगह करती हैं, जैसे पाठक की सोच को एक दिशा दे रहीं हों कि कहाँ उसे सुधार करना है, और कहाँ अपनी इस बात को बचाए रखना है |

 

एक जगह इंडियन स्टोर जाने पर जिस उत्साह के साथ लेखिका बुकनू शब्द का प्रयोग करती हैं |  कुछ खास प्रदेशों के पाठकों के चेहरे पर चमक आ जाती है क्योंकि बुकनू पूरे देश में नहीं मिलता | देश के अनेक प्रांतों में रहते हुए मुझे स्वयं इसका अनुभव है |

लेमोज फॉर्म के बारे में बटाते हुए वो कहती हैं कि 40 के दशक में एक लेमोज नाम के एक सज्जन ने अपनी गए और बछड़े के लिए ये जगह खरीदी थी | बाद में इसमें कुछ क्रिसमस ट्री  लगाए और सुविधा के लिए बाहर टट्टू खड़े कर दिए | धीरे-धीरे लोग इसे किराये पर लेने लगे और इससे उन्हे अच्छी खासी आमदनी होने लगी |

 

सैन फ्रांसिस्को को ललित कलाओं का तीर्थ कहने वाली लेखिका कई जगह दार्शनिक हो गई है तो कई जगह भारतीय संस्कृति की उपस्थिति देखकर भावुक | पीले पत्तों की बात करते हुए वह जीवन दर्शन की बात करती हैं| वो लिखती हैं…

“इन पीली पत्तियों को देखकर मन ना जाने क्यों अवसाद से भर उठता है | जमीन में बिखरी पीली पत्तियां जैसे ये कहती हैं देखो कितना क्षण भंगुर है ये जीवन |जब किसी कविता में पढ़ा था, “सत्य झर  रहा है जैसे कि पीली पत्तियां “तब लगा था ये पीली पत्तियां तो जीवन की मिथ्या होती है, वो मिथ्या जो एक दिन सबके सामने आती है, पर अब लगता है कि ये पीली पत्तियां ही जीवन के सत्य को दर्शाती हैं | एक दिन हमें भी ऐसे ही झर  जाना है |फिर चूर्ण, विचूर्ण होकर मिल जाना है मिट्टी में.. यही जीवन का सत्य है, यही हमारी नियति”

 

अमेरिका संस्कृति की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए वो कुछ तथ्य रखती हैं, जैसे .. पुस्तकों के प्रति प्रेम  और भीख भी सम्मान सहित, शानदार और बड़ी चीजों को पसंद करना, मृतकों को सम्मान देने वाला पर्व हेलोवीन | हमारे यहाँ के श्राद्ध पक्ष कि तरह अमेरिका और अन्य देशों में भी पूर्वजों को सम्मान देने का कोई नया कोई त्योहार  अवश्य होता है | उन्हें यह जान  कर आश्चर्य होता है कि यूनेस्को के अनुसार अमेरिका में हाल में प्रकाशित पुस्तकों की संख्या 20 लाख है |पुस्तक संस्कृति का विकास करने में माता-पिता के साथ -साथ पुस्तकालयों, बुक फेस्टिवल आदि का बहुत हाथ है | वहीं अमेरिका और भारत में विवाह की तुलना करते हुए वो कहती हैं वहाँ विवाह एक कानूनी और सामाजिक संस्थान है ये धार्मिक कम है |

 

अमेरिका कि विसंगतियों पर बात करते हुए स्पैनिश फ्लू और  कोरोना  कि तुलना करते हुए कहती हैं कि स्पैनिश फ्लू के दौरान जिस अमेरिका ने सोशल डिस्टेंसिंग के  द्वारा संक्रामक बीमारी के प्रसार को कम किया जा सकता है सीखा था, वही कोरोना के दौर में भूल गया | अमेरिका में कोरोना का कहर बहुत ज्यादा रहा और मौत भी बहुत तादाद में रही | इन सब के पीछे कहीं ना  कहीं आज की  पीढ़ी की “आजादी” की वो  गलत परिभाषा  है जो ऐतिहात में उठाए गए कदमों जैसे की मास्क, आदि को अपनी आजादी के विरुद्ध मान रही थी | जिसे उसने जान की कीमत देकर चुकाया |

 

लेखिका स्पैनिश फ्लू और  कोरोना  से जुड़ा एक मजेदार वाकया भी साझा करती हैं | जो 2020 में अमेरिका में बहुत चर्चा में रहा | करीब सौ साल पहले 1919 में न्यूयार्क में फिलिप और उसके भाई सैमुअल का जाम स्पैनिश फ्लू के दौरान हुआ था | उनके जन्म के एक सप्ताह के भीतर ही सैमुअल कि मृत्यु हो गई | और कोरोना काल में फिलिप की मृत्यु कोरोना से हुई | जैसा कि अक्सर कहा जाता है कि जुड़वा लोगों का जन्म ही नहीं मृत्यु भी एक तरीके से होती है | इसीलिए शायद फिलिप ने कोरोना के फैलते ही अपनी मृत्यु की आशंका जताई थी |

 

अमेरिका कि विसंगतियों पर बात करते हुए उस अमेरिका पर कटाक्ष करती हैं जो सारी दुनिया को मानवाधिकार का पाठ पढ़ाता है पर अपने ही देश में गोरे काले के बीच में भेद करता है |  वो लिखती हैं कि “काले या अमेरिका अफ्रीकन यहाँ एकमात्र अल्पसंख्यक हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है | जून 2020 में पुलिस कर्मी के घुटने के नीचे दबकर मरने वाले अफ्रीकन अमेरिकन जॉर्ज फ्लायड की मौत के बाद अमेरिका में जिस तरह के हालत पैदा हो गए थे वो बहुत पुराने दिनों की याद दिलाने लगे थे |

 

अश्वेतों  कि स्थिति आज भी पिछड़ी हुई है | उनके मकान दूसरे अमेरिकन की तरह साफ-सुथरे नहीं हैं | कहीं-कहीं तो एक हॉल में पूरा परिवार रहता है | विकसित देश अमेरिका में इनके इलाके अलग ही दास्तान कहते हैं जहाँ सड़कें टूटी फूटी हैं, लाइट अक्सर गुल रहती है,बिजली के तार उलझे हुए हैं | गोरे लोग यहाँ आना पसंद भी नहीं करते | शाम और रात को गरीबी के कारण यहाँ आपराधिक घटनाएँ घट जाती हैं | यूं तो अमेरिका में अश्वेत आबादी के ये इलाके 13 फीसदी ही हैं पर पुलिस रिकॉर्ड में  अपराधियों कि  संख्या  में अश्वेत अपराधियों का आंकड़ा 25 फीसदी है | ऐसा गरीबी  बेरोजगारी और सामाजिक असंतुलन के कारण है |

 

अगर स्त्री विमर्श कि दृष्टि से देखें तो जिस अमेरिका को हम विकसित मान उसके पीछे आँख मूँद कर चल पड़े हैं | वहाँ भी अभी स्त्रियों को आजादी और स्वतंत्रता के वो अधिकार नहीं प्राप्त हैं जो एक मनुष्य को होने चाहिए | हाउस वाइफ की अवधारणा वहाँ भी है | सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 30 प्रतिशत ही है | जानकार आश्चर्य होता है कि अमेरिका में भी महिलाओं को उच्च स्तर के और उच्च वेतन वाले पद कम ही दिए जाते हैं | अगर स्त्री कामकाजी नहीं है तो घरेलू काम और बच्चों के  पालन पोषण की जिम्मेदारी उस कि ही होती है | और अगर कामकाजी नहीं हैं तो भी उसकी जिम्मेदारी ज्यादा है |  हालांकि  वहाँ भी कुछ कुछ “पापा बदल रहें हैं” वाला चलन शुरू हो गया है | पर लेखिका के शब्दों में, “ बहुत से लोग मानते हैं कि गृहणियाँ अपने परिवारों का पालन -पोषण कर रहीं हैं, घर बना रहीं हैं और समाज का निर्माण कर रहीं हैं |”

 

आमतौर पर हमारे देश के लोगों में अमेरिका के बारे में यह अवधारणा रहती है की विकसित देश अमेरिका में  सब धनी ही होंगे | परंतु लेखिका वहाँ के जीवन के उस काले अध्याय पर भी उंगली  रखती हैं जो निर्धनता और  बेरोजगारी और बेघर लोगों से भरा  पड़ा है |  2018 की एक रिपोर्ट के अनुससर अमेरिल में तकरीबन 553,000 लोग बेघर हैं, जो वहाँ की आबादी का करीब 0.17 प्रतिशत है| वहाँ के भिखारियों से यहाँ के भिखारियों की तुलना करते हुए वो उन्हें ज्यादा स्वाभिमानी बताती हैं | हमारे देश में आमतौर पर भिखारी कपड़े खींच कर या भगवान/अल्लाह/गॉड के नाम पर दे दे बाबा कहते हुए भीख मांगते हैं | कई बार तो जब तक कुछ ना दो, वो हटने को ही  नहीं होते |  पर अमेरिका में वो व्हील चेयर  पर या सड़क पर टोपी रख  के बैठ जाते हैं, या फिर गाना सुनाते हैं …बदले में लोग उन्हें खाने-पीने का सामान दे देते हैं | हालांकि  लेखिका के अनुसार भारतीयों कि तुलना में अमेरिकी ज्यादा सहृदय होते हैं |

 

किताब के अगले हिस्से “दूर नहीं सपनों का नगर” से, अन्तिम खंड “मुझे सैन फ्रांसिस्को से प्यार हो गया” तक लेखिका सैन फ्रांसिस्को के दर्शनीय स्थलों स्मारकों, संग्रहालयों और कला के विभिन्न पहलूओं को अपनी कलम में समेटा है |  चाहे वो दादी-पोती के रिश्ते पर आधारित फिल्म ‘फेयरवेल हो ऐशयां आर्ट म्यूजियम की कला संस्कृति का विस्तार से वर्णन इन सब में एक खास बात देखने को मिली की लेखिका पूरब और पश्चिम की संस्कृति की तुलना करती चलती हैं | और कहीं ना कहीं पश्चिमी व्यक्तिवादी संस्कृति से  पूरब की समष्टि वादी संस्कृति से तुलनात्मक अध्ययन करते हुए  आज के युवाओं में बढ़ते हुए अवसाद और एकाकी पण को व्यक्तिवादी संस्कृति को जिम्मेदार मानती हैं |

 

अंत में मैं यही कहूँगी की लेखिका ने सैन फ्रांसिस्को की यात्रा के माध्यम  से अमेरिका की संस्कृति सोच, अच्छे बुरे पहलूओं और पूरब की संस्कृति से तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से एक गंभीर विश्लेषण रोचक अंदाज में प्रस्तुत किया है | किसी भी यात्रा के बाद व्यक्ति वह नहीं रह जाता जो पहले था | बाह्य यात्रा के साथ भी एक अंतरयात्रा चलती रहती है |  शायद इसी कारण किताब में एक दार्शनिक पुट आ  गया है | यात्रा वृतांत साहित्य की अन्य विधाओं  की तुलना में कम ही लिखे जाते हैं | खासकर की महिला लेखकों के द्वारा | किताब के बलर्ब  वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया जी ये मुद्दा उठती हैं | शायद  इसका एक कारण यह भी है की नून तेल लकड़ी से जूझती ज्यादातर  महिला लेखक अभी भी अपने घर में एक कोने के लिए संघर्ष कर रही हैं | रसोई से आँगन तक सिमटी उनकी यात्राएँ  घर की खिड़की से अपने आस-पास के समाज को तो देखती हैं, पर सुदूर देशों की यात्राएँ अभी भी उनके लिए दिवा  स्वप्न ही रहा  है | परंतु अब समय बदल रहा है | धरती से आकाश नापती महिलाओं ने कलम से उन्हें सँजोना शुरू किया है | ये बहुत जरूरी भी है, क्योंकि इससे वही यात्राएँ एक अलग दृष्टिकोण और शब्दों में अपना मुकाम पा रहीं हैं |

 

ये किताब एक ऐसी ही खुशनुमा दस्तक है, जो अपने पाठक को भी समृद्ध करती है |

वंदना बाजपेयी

वंदना बाजपेयी

यह भी पढ़ें…

पानी का पुल – गहन संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति

जरूरी है प्रेम करते रहना – सरल भाषा  में गहन बात कहती कविताएँ

“वो फ़ोन कॉल” एक पाठकीय टिप्पणी

मेरे संधिपत्र – सूर्यबाला

आपको समीक्षात्मक लेख “सपनों का शहर सैन फ्रांसिस्को – अमेरिकी और भारतीय संस्कृति के तुलनात्मक विशेषण कराता यात्रा वृतांत” कैसा लगा ? हमें अपने विचारों से अवश्य अवगत कराए l अगर आपको अटूट बंधन के लेख पसंद आते हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबूक पेज को लाइक करें l

1 COMMENT

  1. बेहद खूबसूरत ।लगा कि स्वयं अमेरिका घूम लिया।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here