“वो फ़ोन कॉल” एक पाठकीय टिप्पणी

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“वो फ़ोन कॉल” एक पाठकीय टिप्पणी

 

कुछ घटनाएँ हमारे जीवन में इस प्रकार घटती हैं कि हमें यह लगने लगता है कि बस ये घटना ना घटी होती तो क्या होता? हमें “संसार” सरल दिखता ज़रूर है लेकिन होता बिल्कुल नहीं; इसलिए अकस्मात जहाँ आकर हमारी सोच थिर जाती है, उसके आगे से संसार अपना रूप दिखाना शुरू करता है। और जब हमें ये लगने लगता है कि बस हमने तो सब कुछ सीख लिया, सब कठिनाइयों को जीत लिया है; बस आपके उसी आह्लादित क्षणों में ना जाने कहाँ से एक नन्हा सा “हार” का अंकुर आपके ह्रदय में ऐसे फूट पड़ता है कि उसे दरख़्त बनते देर नहीं लगती। सपनों के राजमार्ग पर चलते-चलते एक छोटी सी कंकड़ी से हम उलझकर धड़ाम से गिरते हैं कि धूल चाट जाते हैं। जितना ये सत्य है उतना ही ये भी सही है कि हम कठिनाइयों के गहरे अवसाद में जब नाक तक डूबे होते हैं और निरंतर किनारे को अपने से दूर सरकते हुए देख रहे होते हैं; हमें बिल्कुल ये लगने लगता है कि अबके साँस गई तो फिर लौट कर नहीं आएगी बस उन्हीं गमगीन भीगे-से क्षणों में रहस्यमयी अंधकार भरे दलदल के ऊपर रेंगता हुआ एक सीलन का कीड़ा हमारा मार्गदर्शन कर जाता है। रेंग-रेंग कर वह हमें ऐसी युक्ति दे जाता है कि लगता है कि जो किनारा पूरी तरह से ओझल हो चुका था वह ख़ुद-ब-ख़ुद हमारे पास कैसे सरक आया।

वो फोन कॉल -कहानी की कुछ पंक्तियाँ

“वो फ़ोन कॉल” एक पाठकीय टिप्पणी

वंदना बाजपेयी

दरअसल में बात कह रही हूँ अभी हाल ही में भावना प्रकाशन से प्रकाशित वंदना बाजपेई जी का नया कहानी संग्रह “वो फोन कॉल” की। इसकी कहानियाँ भी कुछ इसी प्रकार का मनोभाव लिए पाठक को अपने साथ लिए चलती हैं। संग्रह में १३ कहानियाँ हैं। कहानियों का मूलभाव वंचित वर्ग का दुःख, आक्रोश, विकास की लिप्सा, झूठे आडंबर, रूढ़िवादिता में जकड़ा मध्यम वर्ग ही है। सबसे पहले तो वन्दना जी की तारीफ़ इस बात की जानी चाहिए कि उन्होंने कहानी संख्या के लिए उस अंक को चुना है जिसको साधारण लोगों को अक्सर बचते-बचाते देखा जाता है। यानी कि आपके इस पुस्तक में “13” कहानियाँ संग्रहित की हैं। एक मिथक को तो लेखिका ने ऐसे ही धराशाही कर दिया। अब बात करती हूँ आपकी कहानियों की तो सबसे पहले मेरा लिखा सिर्फ एक पाठक मन की समझ से उत्पन्न बोध ही समझा जाए।

खैर, वंदना जी की कहानियों की भाषा सरल और हृदय के लिए सुपाच्य भी है। किसी बात को कहने के लिए वे प्रतीकों का जाल नहीं बुनती हैं। और न ही कहानियों का लम्बा-चौड़ा आमुख रचती हैं । वे प्रथम पंक्ति से ही कहानी को कहने लगती हैं इससे आज के भागमभाग जमाने के पाठक को भी आसानी होगी। स्त्री होने के नाते वन्दना जी की कहानियों के तेवर स्त्रियों की व्यथा-कथा को नरम-गरम होते चलते हैं। निम्न मध्यम वर्ग की उठापटक को भी उन्होंने बेहतरी से पकड़ा है।
शीर्षक कहानी “वो फ़ोन कॉल” की यदि मैं बात करूँ तो ये कहानी बच्चों और उनके अभिभावक,समाज और रिश्तेदारों की मानसिक जद्दोजहद की कहानी कही जा सकती है। जिसमें किरदार तो सिर्फ दो लड़कियाँ ही हैं किंतु वे जो अपनी भावनाओं का आदान-प्रदान करती हैं, उसको पढ़ते हुए मन भीग-भीग गया। वहीं ये कहानी पाठक के लिए एक युक्ति भी सहेजे दिखती है। जो इस कहानी को पढ़ चुके हैं वे समझ गए होंगे। और जिनको समझना है वे ज़रूर पढें। लेखिका ने कहानी को अपनी गति से बढ़ने दिया है। पढ़ते हुए जितनी पीड़ा होती है उतना ही संतोष कि स्त्री जीवित रहने के लिए आसरा खोजना सीख रही है।

“तारीफ़” कहानी में कैसे स्त्री अपनी तारीफ़ सुनने को लालयित रहती है कि कोई उसका अपना ही उसके बुढ़ापे को ठग लेता है। वहीं “साढ़े दस हज़ार….!” के लिए जो क़िरदार लेखिका ने चुने हैं उसमें नौकरी पेशा और गृहणी के बीच की मानसिक रस्साकसी खूब द्रवित करती है।
“सेवइयों की मिठास” के माध्यम से लेखिका ने धर्मांधता को शांत भाव से उजागर किया है। किसी के धर्म, पहनावे ओढ़ावे को देखकर हम ‘जजमेंटल’ होने लगते हैं। उस बात को आपने सफ़ाई और कोमलता से कही है कि पढ़ते हुए आंखों की कोरें गीली हो जाती हैं।
“आखिर कब तक घूरोगे” कहानी पढ़ते हुए तो लगा कि एक सामान्य-सी ऑफिस के परिवेश की बात लिए होगी कहानी लेकिन नायिका के द्वारा बॉस को जो सबक मिलता है,वह कमाल का है। ये लेखिका की वैज्ञानिक सोच का नतीज़ा ही कहलाएगा। “प्रिय बेटे सौरभ” कहानी एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो ममता में कैसे अपने को गलाती रहती है और बेटा अपने को विकसित करता रहता है; और बहुत बाद में जब माँ तस्वीर में बदल जाती हैं, बस दो बूँद आँसू छलका कर सॉरी बोलता है कि तस्वीर वाली माँ भी कह उठती है कोई बात नहीं।

“अम्मा की अंगूठी” कहानी ने बहुत गुदगुदाया, बचपन के किस्से याद दिलाए। इस रचना को हम यादों की गुल्लक भी कह सकते हैं। पहले पति कैसे पत्नि को सबक सिखाता था की बच्चों की हँसी ठट्ठा के साथ मौज हो जाती थी। माँ-बाप के उलझाव में बच्चों के संवाद और उसपर वंदना जी की भाषा, पढ़ते हुए खूब आनंद आया।

“जिन्दगी की ई एम आई” कहानी को वन्दना जी ही लिख सकती थीं। इस कहानी का विषय हमारी नवा पीढ़ी का दुःख-दर्द समेटे है।आज के परिवेश में न जाने कितने देवांश इतने अकेले होंगे कि किसी गलत संगत के शिकार हो जाते होंगे। कथा पढ़ते हुए एक थ्रिल का अहसास होता है लेकिन अंत पाठक को सांत्वना देने में सक्षम है। “बद्दुआ” बद्दुआ में कैसे अपनों का दंश लिए हुए एक बच्चा अपने जीवन के उतार-चढ़ाव झेलता हुआ चलता है………।लेकिन अंत इसका भी सुखद है।

”प्रेम की नई बैरायटी” कहानी भी पूरे मनोभाव के साथ पाठक को अपने साथ-साथ लिए चलती हैं। संध्या,उसकी माँ,पति और स्कूल के छात्रों में पनपते गर्ल फ्रैंडस-बॉयफ्रेंड्स के नये चाल-चलन और नये जमाने के प्रेम पर खूब दिलचस्प बात कहते हुए ये कहानी भी पाठक को एक सुखद जतन सिखा जाती है। “वजन” कहानी पढ़ते हुए कितनी मन में कितनी कौंध,डर, आक्रोश और इस दर्द से जूझते कितने चेहरे याद आते रहे और लेखिका पूरे मनोयोग से समस्या के साथ समाधान और समाधान के साथ दृढ़ता को लिखती गई। मैं ये ज़रूर कहना चाहूँगी कि इस संग्रह की पहली कहानी और आखरी कहानी में पाठक को अपने जीवन से जुड़ने और उसे रुपायित करने की अपार संभावनाएँ मिलेंगी है। आख़िर साहित्य का कार्य धुधुकी के साथ नया नज़रिया उत्पन्न करना ही होता है।

“पचास की एक……पचास की एक” कहानी को उन लेखकों को ज़रूर पढ़नी चाहिए जो अपनी कलम लेकर नई-नई साहित्यिक नाव पर सवार हुए है। “राधा का सत्याग्रह” एक नायाब कहानी है। जो ये दर्शाती है कि स्त्री को अगर शिक्षा के मौके अधिक नहीं मिले हों तो ना सही लेकिन किसी शिक्षित,चिंतनशील की कही गई बातों पर इतना भरोसा करो कि लगने लगे कि वे बातें हमारे ही दिल में अंकुरित हुई हैं। राधा का सत्य के प्रति विश्वास और अपना अनपढ़ सही लेकिन बड़े-गाढ़े स्वाभिमान को कितनी सुंदरता से नायिका सहेजती है.। इस कहानी में पाठकों के कान में वंदना बाजपेई यहाँ पर चुपके से ये कह गईं हैं कि जरूरी नहीं बड़े-बड़े विद्यालयों में पढ़कर या शहर में रहकर स्त्री अपनी स्वतंत्रता का पाठ सीखे बल्कि राधा जैसी बिन माँ की बेटी की तरह भी स्त्री अपना जीवन सम्मान से जी सकती है.। राधा कैसे अपने मन को तन के ऊपर रखती हैं पढ़ते हुए मन गदगद हो गया।
कुल मिलाकर वंदना जी की कहानियों के किरदार इस रपटीले समय में भी बिना सहारे के चलकर ये बता रहे हैं कि मन के मंथन और अन्वेषण से नितांत नए मार्ग खोजे जा सकते हैं और उन पर चला भी जा सकता है। नई दृष्टि और नए फलक की कहानियाँ पढ़ते हुए कभी आँखें छलक उठी तो कभी होंठों पर हँसी तिर गई। वंदना जी का लेखक मनोविज्ञान को बहुत सुंदरता से साधता है।
सबसे अहम बात मुझे ये लगी कि वंदना जी की कहानियाँ सिर्फ मनोरंजक या पीछे छूटा हुआ वृत्तांत नहीं हैं अपितु समस्या को जितनी शिद्दत से उठाती हैं उतनी ही सावधनी से उनसे निपटने का मंत्र भी दे जाती हैं। ये देखते हुए तो यही लगता है कि लेखिका ने सिर्फ लिखने के लिए कलम नहीं उठाई है बल्कि उनके भीतरी भी “राधा का सत्याग्रह” की नायिका राधा जैसी जिद है कि समाज में फैली अराजकता को वे दिशा दे कर ही मानेगीं। शायद इसीलिए सभी कहानियों में लेखिका ने अपनी कलम को बहुत सतर्कता से चलाया है। आपकी महीन वैचारगी और ‘ओब्जार्वेशन’ की तारीफ़ बार-बार करनी पड़ेगी। इसी के साथ अपनी कलम को विश्राम देती हूँ।
अनेक शुभकामनाएँ आपको! आप यूँ ही लिखती रहें। अस्तु!

वो फोन कॉल -कहानी संग्रह

लेखिका -वंदना बाजपेयी

प्रकाशक -भावना प्रकाशन

पृष्ठ -168

मूल्य -225

ऐमज़ान से खरीदे –कहानी संग्रह -वो फोन कॉल

समीक्षा -कल्पना मनोरमा
नई दिल्ली

कल्पना मनोरमा

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