दूसरी पारी – समीक्षा

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दूसरी पारी
कुछ दिनों पहले एक साझा संस्मरण संग्रह ‘दूसरी पारी’ मेरे हाथ आई थी। समयाभाव या अन्य कारणों से पढ़ने का मौका नहीं मिला। लेकिन जब पढ़ा तो …वह आपके सामने है। दस मिनट समय हो पढ़ने को जरूर निकालेंगे। क्योंकि यह पुस्तक सिर्फ संस्मरणों का संग्रह मात्र नहीं है, महिला लेखिकाओं ने परिवार और समाज को जीने की व्यथा: कथा का सजीव चित्रण किया है। पुस्तक जबतक आपके हाथ नहीं आती है, मेरे पढ़े को ही एक नजर देख लें। शायद हमने जो आजतक न सोचा हो, आज के बाद सोचने को मजबूर हो जाएं।

अपनों के दिए दंश की गाथा: ‘दूसरी पारी’

“छोरी निचली बैठ, क्यों घोड़ी सी उछल रही है.. तन के मत चल, नीची निगाह करके चल..मुंह फाड़ के क्यों हंस रही है.. छत पे अकेली मत बैठ..दरवज्जे पे क्यों खड़ी है? फ्रॉक नीची करके बैठ।”
ये पंक्तियां मेरी नहीं, अर्चना चतुर्वेदी जी की है। सत्रह महिलाओं के आत्मकथात्मक संस्मरणों का संग्रह “दूसरी पारी” की एक लेखिका का। एक लेखिका की मां, चाची, बुआ, दादी की इन नसीहतों में ही समाज का आईना है। बेटी के लिए किसी एक मां को नहीं, माओं को समझने की जरूरत है। किसी समाज को समझना हो, तो पहले उस समाज की महिलाओं को समझना होगा और महिलाओं को समझने के लिए रीति-रिवाजों और परंपराओं की जड़ों में जाना भी जरूरी है। क्योंकि भारतीय समाज की अधिकांश मध्यवर्गीय महिलाएं पुरुषों की नहीं, परंपराओं की गुलाम हैं। परंपराओं की जंजीरों से बंधी हैं। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक परंपराओं और रीति-रिवाजों की वाहक हैं। रीति-रिवाजों और परंपराओं को निभाने का सर्वाधिकार इनके नाम सुरक्षित है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिवर्तित ऐसी सत्ता की पात्रता भी उन्हीं के पास है। क्योंकि दिखने में तो लगता है कि शायद ही किसी पुरुष ने अपने घर की महिलाओं को किसी रीति-रिवाजों या परंपराओं को मानने के लिए बाध्य किया हो। क्योंकि ऐसे कार्यों के लिए महिलाओं को महिलाएं ही प्रेरित करती रही हैं, चाहे सास हो, मां या पड़ोसन। भले ही दिखने में न लगे, लेकिन अदृश्य शक्ति के रूप में पितृसत्तात्मक समाज अपना फन काढ़े डराने को बैठा होता है और फनों का विष लिए तथाकथित पंडित और मौलबी घर-घर घूमते रहते हैं। यही कारण है माओं का अंतर्विरोध दिखाई भी नहीं देता, क्योंकि ज्यादातर महिलाएं अपने परिवार के पुरुषों के साथ ही खड़ी दिखती हैं। पुरूष पति हो, पिता या पुत्र। मतलब घर का अंतर्विरोध कभी विरोध बन ही नहीं पाता।
इन लेखिकाओं के लिए बीते कल की बातों को जगजाहिर करना कितना आसान था? –
‘अपने बारे में लिखना आसान नहीं है। हमसब के अंदर बहुत कुछ छिपाने की प्रवृत्ति होती है, खासकर महिलाओं में। कभी खंगालिए अपने आसपास के औरतों के दिलों को ‘सब ठीक है’ के अंदर कितने समंदर दबे होते हैं।’…
‘अच्छी लड़कियां जुबान नहीं खोलती’-
(मुझे बस चलते जाना है – वंदना वाजपेयी, पृष्ठ 143 )
इसी समंदर से कुछ सीपियां चुनने का साहस कल की कुछ स्वयंसिद्धाओं और आज की लेखिकाओं ने कर दिखाया है। सत्रह लेखिकाओं ने अपनी बात साझा करने के लिए भी साझे संग्रह का ही सहारा लिया। कारण भी इसी संग्रह की एक लेखिका से ही पूछ लेते हैं –
‘जब बाहर के रास्ते बंद हों, तो एक दूसरे का सहारा बन जाओ।….दरअसल पितृसत्ता की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि एक दूसरे का साथ दिए बिना खुल नहीं सकती, जो इसे समझ जाते हैं वो अपने ही नहीं, पूरे समाज में परिवर्तन के वाहक बनते हैं।’ – (मुझे बस चलते जाना है – वंदना वाजपेयी, पृष्ठ 149)
वंदना जी का संस्मरण साफ तौर पर इशारा करता है कि कविता कहानी के लिए प्रेरित करने वाले पिता को अपनी बेटी के मेडिकल की परीक्षा में सफलता पर गर्व नहीं होता, उससे अधिक डॉक्टर जमाई की खोज का दुरूह कार्य सताने लगता है। पिता की इच्छा-अनिच्छा को देख सपनों को संजोए लड़की अपने चयन की खुशी का इजहार भी नहीं कर सकती, उल्टे पूरी रात तकिया भिंगोने के बाद सुबह होते ही आगे बीएससी और एमएससी की पढ़ाई के निर्णय की सूचना पिता को इस तरह देती हैं, जैसे अपने लिए चाव से बनाए गए भोजन में छिपकली गिर गई पापा, तो क्या हुआ घर में जो कुछ उपलब्ध है वही खा लेंगे, जैसा ही था। अक्सर ये छिपकलियां मेहनत से तैयार करने वाली लड़की के भोजन की थाली में ही क्यों गिरती है? किसी पुरूष की थाली में क्यों नहीं?
जीवन के लिए ऐसे निर्णय पर भी पिता की आंखें नम नहीं होती(होती भी होंगी, तो दिखती नहीं), नजर सामने के समाचार पत्र से नहीं हटती, बेटी को प्रश्नवाची निगाहों से नहीं देख पाते कि ऐसा त्याग! किसके लिए और क्यों? क्योंकि पिता के लिए बेटी का डॉक्टर बनना महत्वपूर्ण नहीं था। शादी कर घर से विदा कर देना प्राथमिकता में था। लेकिन तब भी मां तटस्थ रही। पिता-पुत्री के बीच की संवेदनाओं की अनकही दीवार को गिराने में मदद को आगे नहीं बढ़ी, अगर बढ़ी होती तो शायद पिता अपनी लाडली के सपनों को ढहते हुए नहीं देखते रहते। उल्टे ‘पापा जो कह रहे हैं ठीक ही होगा’ की निश्चिंतता पितृसत्तात्मक समाज के फन का दंश नहीं तो और क्या है? कोई मां भला ऐसा क्यों चाहेगी?
मां अपने पति के निर्णय के प्रति आश्वस्त हैं और पति के पेपर पढ़ने से नजर नहीं हटने की तरह वह भी अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त है।
क्या गरीबी, भुखमरी पर बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’ की ‘लपक चाटते जूठा पत्तल….आग आज इस दुनिया भर को’ जैसा आक्रोश कहीं दिखा? नहीं न।
फिर हम क्यों कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण है? दर्पण तो वही दिखाता है जो हम दिखाना चाहते हैं और दर्पण पुरुष सत्ता के हाथ में है। क्योंकि ऐसा थोड़े न है कि एक अकेली वंदना है, समाज की नजरों से ओझल हो गई होगी? वन्दनाओं की भरमार है। हर वन्दनाओं ने तकिया और बाथरूम को अपना साथी बनाया हुआ है। ऐसा भी नहीं है कि ये संस्मरण लिखने वाली किसी एक वंदना का दर्द है। आज भी लाखों वन्दनाएं किसी कोने में सिसकने, तकिया भिंगोने और बाथरूम में सूजे चेहरे पर पानी का छींटा मार फ्रेश होकर किचेन और घर की जिम्मेदारियों के निर्वहन में लग जाती हैं, जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं। एक औरत पर हाथ उठाने में मर्दों के हाथों में ताकत अधिक होती दिखाई देती है(?) तो पितृसत्तात्मक समाज में हिम्मत की कमी नहीं होनी चाहिए। फिर किसी वंदन कुमार का मेडिकल में चयन होने के बाद पढ़ाई छोड़ने को कहते किसी को सुना है? बेटे की पढ़ाई की खातिर तो बेटी को देश निकाला दिया ही जा सकता है। यकीन न हो तो इसी संग्रह की एक लेखिका को सुन लेते हैं –
‘मम्मी ने मुझे बेहद कटु शब्दों में बाहर का रास्ता दिखाया था और ये एहसास दिलाया था कि मेरा वहां रहने का हक़ अब समाप्त हो चुका है। बेटे की पढ़ाई के लिए मुझे घर निकाला मिला।’ (रीता गुप्ता-बातें कुछ कही:कुछ अनकही, पृष्ठ 85)
क्या किसी लड़की को सपने देखने का हक़ है? –
“सपनों पर किसी का पहरा नहीं होता। वो लड़का-लड़की नहीं देखते। लेकिन लड़कियों के लिए उन सपनों को पूरा करना आसान नहीं होता। उनके सपनों में उनके अपने घर वालों का ही सहयोग नहीं रहता। कभी विवाह का दबाव होता है, तो कहीं बिषय चयन का, तो कहीं ‘हमारे घर की औरतें नौकरी नहीं करती हैं’ का पहरा।”
– (दो शब्द – वंदना वाजपेयी, पृष्ठ 10 )
‘हमारे देश में किसी लड़की का सपने देखना और उन सपनों के पूरे होने के बीच आसमान से भी अधिक विशाल दूरी और हिमालय से भी दुर्गम खाई होती है, जिसे पाटने में वह अपना जीवन होम कर देती है, लेकिन मन में विश्वास और हर हाल में आगे बढ़ने का हौंसला होता है, तो देर से ही सही, मंजिल मिलती जरूर है। (अन्नपूर्णा सिसोदिया -एक पत्थर जो तबियत से उछाला हमने, पृष्ठ 46)
‘सफर सुहाना’ की लेखिका अपने बचपन को साझा करते हुए लिखती हैं – ‘मां की हरकतें हमें कंफ्यूज भी कर रही थी। अभी कुछ दिन पहले तक हम तीनों भाइयों संग उछल-कूद करते खुद को लड़का समझ रही थी और अचानक हमें मानो कैद करने की साजिश शुरू हो गई थी।..हम मन-ही-मन सोचते – हे भगवान! कहां फंस गई। लगता है मैया सौतेली है..सोते-बैठते बस दृष्टांत… परायो घर जानो है… गर्मी की छुट्टी मतलब सिलाई.. कढ़ाई.. चौका-बासन… और-तो-और बात-बात पर इन लोगों की नाक कट जाती थी। हद है यार! नाक है कि हमारी मुसीबत, जो हर बात पे कट जाती है।’ – (अर्चना चतुर्वेदी, पृष्ठ 28)
सत्रह साल की उम्र में इंटर के बाद इनकी किसी ने नहीं सुनी और आगे की पढ़ाई का रास्ता बंद कर शादी के बंधन में बांध दिया गया। बिंदास अंदाज में आगे कहती है – ‘उम्र सत्रह साल थी और बचपना दस साल की बच्ची वाला..हमें तो पति का मतलब और इस्तेमाल भी नहीं पता था।’ – (अर्चना चतुर्वेदी, पृष्ठ 30)
अर्चना जी अपनी बातों को इस अंदाज में समाप्त करती है –
फालतू के सपने देखती नहीं, मंच और पुरस्कार से मोह नहीं.. अपुन को पता है कि मेहनत का कोई शॉर्टकट नहीं, काम ही आगे ले जाएगा। सो बराबर काम कर रहे हैं.. जबतक मन लगेगा लिखेंगे, वरना विस्तर पर लेटकर पंखा देखना अपना फेवरेट काम है और मां, पत्नी और सास वाली नौकरी परमानेंट है जी।’
( पृष्ठ 33)
‘बीए पास मंझली बहू’, की लेखिका अनामिका चक्रवर्ती के संस्मरण के कुछ शब्द –
‘मेरा जीवन, मेरा कभी नहीं रहा’ (पृष्ठ 39)
‘बहू कभी बेटी नहीं हो सकती’ (पृष्ठ 40)
‘ससुराल में मेरी पढ़ाई बड़े शहर की लड़की के चोंचले लग रहे थे, उनका मानना था कि क्या होगा पढ़-लिखकर, करना तो वही चौका-चूल्हा ही है। शादी के पहले की पढ़ाई और शादी के बाद की पढ़ाई में जमीन-आसमान का अंतर दिखाई दिया था।’ (पृष्ठ 42)
अन्नपूर्णा सिसोदिया –
“एक पत्थर जो तबियत से उछाला हमने”-
‘मेरी सबसे बड़ी ताकत है मेरी कलम, जिसने मुझे विपरीत परिस्थितियों में भी डूबने नहीं दिया। जब अंधेरा घना हुआ तो मेरी कलम ही थी, जिसने मुझसे कहा –
‘जिंदगी आग है संघर्ष की, तपते रहिए,
हर लपट से कुंदन बन निखरते रहिए,
झुकूंगी नहीं, जलूंगी, युगों तक मशाल बनकर।’ (पृष्ठ 52)
“खुद की तलाश में मैं” में अपने संस्मरण को लिखते हुए सीमा भाटिया कहती है –
‘शायद किसी उदास लम्हों में, किन्हीं गुम एहसासों ने दोबारा दस्तक दी दिल के उस दरवाजे पर, जहां मेरी खुद की ख्वाहिशें, मेरा खुद का अस्तित्व, किसी घुटन भरे कमरे में किन्हीं परिस्थितियों और जिम्मेदारियों के बोझ तले दबकर दम तोड़ने की ओर अग्रसर था।’ (पृष्ठ 54)
किसी का अंतर्मुखी और संवेदनशील होना उसकी कमजोरी ही नहीं, बल्कि सबसे बड़ा दुश्मन भी हो सकता है।’ (पृष्ठ 57)
‘तलाश भी कभी पूरी हुआ करती है,
कभी आधी, तो कभी अधूरी भी हुआ करती है,
खुद की तलाश में हूं मैं।।’ (पृष्ठ 58)
”बातें, कुछ कही:कुछ अनकही” की लेखिका रीता गुप्ता –
‘मेडिकल में कटऑफ पार नहीं कर पाई। वो एक बड़े सदमें का टूटना था। सदमा बर्दास्त के बाहर था। आत्महत्या के ख्याल आते रहते, कई बार कुएं की मुंडेर पर बैठकर लौटी, पर कूदने की हिम्मत न जुटा पाई। (पृष्ठ 84)
राहत की बात रही कि रीता जी ने अपने दर्द को इस मरहम से दूर कर दिया- ‘राहें अभी और भी हैं, मंजिलों की कमी नहीं’ (पृष्ठ 85)
संगीता कुमारी अपने संस्मरण में पति के उन शब्दों को याद करते हुए लिखती है –
तुम्हें कौन सी नौकरी करनी है, जिसके लिए पढ़ाई की सोच रही हो! छोड़ो बेकार की बातें नहीं करते। अगर तुम्हें पढ़ने का ज्यादा ही मन है, तो अखबार वाले को बोल देता हूं, मैगज़ीन दे दिया करेगा।’ (शिक्षा से साहित्य का सफर- पृष्ठ 70)
आशा सिंह –
‘वे भी क्या दिन थे, छिप कर, छुपा कर नॉवेल पढ़ना, पकड़े जाने पर डांट-फटकार।फेल हो जाओगी,बार बार सुनना पड़ता। पर पास हो जाती थी।’
‘नीर और नारी एक समान। जिस पात्र में रखो वैसे ही ढल जाती है।’ (पृष्ठ 77,78 – चल पड़े हैं नन्हें कदम)
हर संस्मरण एक समुद्र की तरह है, जो जितना गोता लगाएगा, इच्छानुसार मोती और सीप निकाल सकता है। सारे संस्मरणों को पढ़ने से एक बात और भी स्पष्ट होती है कि आज भी वर्षों बाद खुद के लिए लड़ी लड़ाई को प्रकट करने में कई लेखिकाओं की लेखनी किसी अनकहे, अनदेखे साए के दबाव में है। कइयों ने चाहा है कि दिल खोलकर कागज के सुपुर्द कर दें, लेकिन पितृसत्तात्मक समाज में यह काम इतना आसान भी नहीं है।
यह सत्रह महिला लेखिकाओं का ही सिर्फ संस्मरण नहीं है, हमारे मध्यवर्गीय समाज की अधिकांश महिलाएं कहीं न कहीं इस दौर से गुजरी हैं। क्योंकि ये सत्रह लेखिकाएं उन्हीं वर्गों का प्रतिनिधित्व करती हैं। पुरूष पाठक भी अपने-आपको इन संस्मरणों से अलग नहीं कर पाएंगे। क्योंकि इसे पढ़ते हुए बहन, बेटी के वे शब्द याद आएंगे, जिसपर तब उन्होंने ध्यान नहीं दिया, अगर दिया होता तो शायद तस्वीर का रुख कुछ और ही होता। हां अगर किसी को अपनी पत्नी के साथ ससुराल में हुए किसी घटनाओं की कोई याद ताजी हो जाय तो समझिए इन लेखिकाओं ने जो लिखना चाहा और नहीं लिख पाई, शायद संदर्भ वही था।
ऐसा भी नहीं है कि चारों ओर अंधकार ही अंधकार है। इन संस्मरणों में आशा की किरण कल भी दिखाई दी थी –
‘विवाह के बाद पहली बार जब पति से बात हुई तो उनका पहला प्रश्न था – तुमने आगे की पढ़ाई का क्या सोचा है और मैंने सकुचाते हुए जबाव दिया ‘कुछ नहीं’।..पति हंसकर बोले – राष्ट्रपति अवार्ड क्या रोटी बेलने के लिए लिया था? …मेरा यह सौभाग्य था कि पति ने स्वयं यह इच्छा जताई। (अन्नपूर्णा सिसोदिया-एक पत्थर, जो तबियत से उछाला हमने,पृष्ठ 47)
पापा पढ़ाई-लिखाई तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों आदि से बहुत खुश होते थे और प्रोत्साहित करते रहते थे, लेकिन जब सिलाई-बुनाई करते देखते थे तो बहुत नाराज होते थे। क्योंकि पापा मेरे लिए बहुत बड़े-बड़े सपने देखे थे। पापा की इच्छा थी कि मैं क़ानून की पढ़ाई करके जज बनूं।’ ( किरण सिंह – लेखनी के पंख से, पृष्ठ 17)
लगभग हर संस्मरण में बेटियों के लिए पिता की सदाशयता और मां की निष्ठुरता सदियों से लड़कियों को कन्फ्यूज करती रही है। होता ठीक इसके उलट है। बेटियों को डांटने का तरीका भी उसकी मां और दादी के हवाले कर पिता अपने-आपको पाक-साफ निकाल ले जाता है। अब एक अबोध बालिका भला इस अंतरद्वंद्व को कैसे समझ पाएगी। पिता जो चाहते हैं, दिखता नहीं और मां जो नहीं चाहती, वही दिखाई देता है। क्योंकि अक्सर बेटियां अपने पिता के ज्यादा करीब होती हैं और पुत्र मां के। कारण चाहे जो भी हो, कारण का अलग-अलग तर्क हो सकता है। लेकिन बिडंबना देखिए कि बेटियों पर शासन माओं और दादियों का ही चलता है। बेटियों को मां की डांट पर पिता के मीठे बोल मरहम का काम कर जाता है। कन्फ्यूजन की मुख्य वजह यही है। इसलिए माओं को जब भी बेटी को ताना देना होता है तो ‘पिता की लाड़ ने इसे बिगाड़ दिया है’ और जब पुत्र को पिता की डांट पड़ती है तो ‘तुम्हारा(मां) दुलार इसे किसी काम का नहीं रखेगा’ के जुमले पढ़े जाते हैं। जबकि दोनों में से कोई भी किसी को न सर चढ़ाने और न ही बिगाड़ने का कोई उपक्रम करता है। जो भी होता वह समाज के अनकहे दबाव के कारण।
चूंकि बेटियों पर परंपराओं की तलवार चौबीसों घंटे लटकी रहती है तो उसे अधिक झेलना होता है। हमारे समाज के अधिकांश घरों में हर रोज बेटियों के साथ ऐसी बातें होती रहती हैं, लेकिन तब हम गौर नहीं कर पाते हैं, क्योंकि यह सब तथाकथित हमारे संस्कारों में बसा होता है। इन संस्मरणों से गुजरते हुए मैं भी आश्चर्यचकित हूं कि एक बेटी होश संभालने से डोली की रवानगी तक दिन-रात, उठते-बैठते, खाते-पीते, चौका-बर्तन करते, लिखते-पढ़ते एक ही बात सुनती रहती है कि उसे तो पराए घर जाना है। उसे कैसे बैठना चाहिए, कैसे खाना चाहिए, कैसे रहना चाहिए। मतलब कभी भी वह अपने-आप में सम्पूर्ण मनुष्य होती ही नहीं। शादी तक उसमें खामियां-ही-खामियां नजर आती हैं। जब अपनों(?) ने ही इतनी खामियां निकाल दी, तो ससुराल वाले तो पहले से ही पराए(?) हैं, उनके द्वारा निकाली गई खामियां तो उसे कभी झकझोरेगी ही नहीं। लगेगा मां-दादी तो पहले से मुझे बताती ही रही हैं। इसमें गलत क्या है। इतना सुनते हुए भी वह लड़की समर्पित होकर पराए घर(मायके, क्योंकि अपना घर तो उसे पता ही नहीं होता) और वहां निवास करने वाले पराए लोगों(?) की सेवा में जी-जान से लगी रहती है। सिर्फ इसलिए कि भली-चंगी इस घर से विदा हो जाना है। तबतक यहां तो हड्डी-पसली सलामत रहे, जहां टूटना लिखा होगा, टूटेगा ही, टूटता भी है, क्योंकि बीस-पच्चीस साल बाद पूरी जिंदगी जिन अपनों के साथ गुजारनी है, उसका तो कुछ अता-पता ही नहीं है। कल्पना कीजिए यही बात किसी लड़के को कही जाय तो शायद बीस की उम्र से पहले ही वह घर छोड़कर चला जाएगा, उस घर की तलाश में, जो तथाकथित उसका होनेवाला है। वाह रे! हमारा समाज, हमारे लोग।
हो सकता है, बीते कल की बेटियों को हम न समझ पाए हों। इन संस्मरणों को पढ़ने के बाद यदि आज की बेटियों को ही समझ लें, तो शायद इन स्वयंसिद्धाओं का अपना दर्द जग जाहिर करना सफल हो जाएगा। मैं अश्रुपूरित नेत्रों से कल की और आज की सभी बेटियों के जज्बे को सलाम करता हूं और माओं(बीते कल की बेटी) से एक आग्रह, कि बांकी कुछ भी कहिए, लेकिन यह मत कहिए कि उसे पराए घर जाना है। जब बड़ी होगी तो अपने-आप बात उसकी समझ में आ जाएगी।
समय ने करवट बदला है। बेटियां उन परंपराओं को धता बताने की स्थिति में आ गई हैं। हो सकता है आने वाले कल की माओं का संस्मरण फाइव स्टार होटलों की चोंचलेबाजी, दफ्तरों की राजनीति और देश दुनिया की खबरों पर आधारित हों।
किसी पुस्तक पर लिखने की सीमाओं के कारण चाहकर भी कई लेखिकाओं के संस्मरण पर मैं संपूर्णता से दृष्टिपात नहीं कर पाया। मुझे अफसोस है। कभी मौका मिला तो जरूर लिखूंगा। क्योंकि हर लेखिका का संस्मरण सिर्फ एक संस्मरण नहीं है। पूरा उपन्यास है।
इस पुस्तक की संपादिका द्वय ने कुछ महिलाओं के संस्मरण को संपादित कर हमारे सामने प्रस्तुत करने जैसा महती कार्य किया है। दोनों को साधुवाद। हरेक संवेदनशील व्यक्ति की नजरों से यह पुस्तक गुजरनी चाहिए। इसी आशा और विश्वास के साथ मैंने कुछ अधूरे शब्दों के माध्यम से अपनी भावनाओं को व्यक्त किया है, जो नहीं कर पाया, उम्मीद है अन्य गुणी विद्वान पाठक पूरी करेंगे।।
पुस्तक की प्रति मुझे उपलब्ध कराने के लिए किरण जी का आभार।
– शम्भु पी सिंह, पूर्व अधिकारी, दूरदर्शन, बिहार
पुस्तक का नाम – दूसरी पारी(साझा संस्मरण संग्रह)
प्रकाशक – कोपल बुक्स, नई दिल्ली-2
संपर्क – 01147534346,9911554346
मूल्य – ₹250/-
shambu p singh

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